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बुधवार, 4 जनवरी 2023

सिगिरिया (श्रीलंका), राम, रावण

विश्व का सर्वाधिक आश्चर्यजनक पुरातात्विक स्थल सिगिरिया (श्रीलंका)  


आप दुनिया के सबसे महान पुरातात्विक स्थलों में से एक को देख रहे हैं जिसे सिगिरिया कहा जाता है जिसे रावण के महलों में से एक माना जाता है। श्रीलंका में स्थित यह अद्भुत स्थल दुनिया में ऐसा कुछ भी नहीं है, इसीलिए इसे दुनिया का 8वां अजूबा भी कहा जाता है। अब आप सोच रहे होंगे कि इस साइट में ऐसा क्या खास है। यह वास्तव में एक विशाल अखंड चट्टान है, लगभग 660 फीट लंबा, और आप देख सकते हैं कि इसका एक सपाट शीर्ष है, जैसे किसी ने इसे एक विशाल चाकू से काटा। शीर्ष पर अविश्वसनीय खंडहर हैं जो बेहद रहस्यमय हैं।


जैसा कि आप देख सकते हैं कि यहां और वहां बहुत सी अजीबोगरीब ईंट संरचनाएं हैं और यह न केवल आगंतुकों के लिए भ्रमित करने वाली है, बल्कि पुरातत्वविद भी पूरी तरह से यह नहीं समझ पा रहे हैं कि इन संरचनाओं का उपयोग किस लिए किया गया था। वे पुष्टि करते हैं कि आप जो कुछ भी देखते हैं वह कम से कम 1500 वर्ष पुराना है। लेकिन रहस्य यह नहीं है कि ये संरचनाएं क्या हैं, यह है कि इन संरचनाओं का निर्माण कैसे हुआ। प्राचीन बिल्डरों ने इन सभी ईंटों को चट्टान के शीर्ष पर ले जाने का प्रबंधन कैसे किया? बताया जाता है कि यहां कम से कम 30 लाख ईंटें मिलती हैं, लेकिन इन ईंटों को चट्टान के ऊपर बनाना असंभव होगा, यहां पर्याप्त मिट्टी उपलब्ध नहीं है। उन्हें इन ईंटों को जमीन से ले जाना होगा।

अब, वास्तव में विचित्र बात यह है कि जमीनी स्तर से कोई प्राचीन सीढ़ियां नहीं हैं जो चट्टान की चोटी तक जाती हैं। देखिए, ये सभी धातु सीढ़ियां पिछली शताब्दी में बनाई गई थीं। इन नई सीढ़ियों के बिना इस चट्टान पर चढ़ना काफी मुश्किल होगा। यह पूरी चट्टान अब विभिन्न प्रकार की सीढ़ियों से स्थापित है, यह एक अलग स्तर पर सर्पिल सीढ़ियाँ हैं। प्राचीन बिल्डरों ने बहुत सीमित सीढ़ियाँ बनाईं, लेकिन ये सीढ़ियाँ निश्चित रूप से ऊपर तक नहीं पहुँचीं। यही कारण है कि 200 साल पहले तक सिगिरिया के बारे में यहां तक ​​कि स्थानीय लोगों को भी नहीं पता था क्योंकि ऊपर तक सीढ़ियां नहीं थीं। 1980 के दशक के दौरान श्रीलंकाई सरकार ने धातु के खंभों का उपयोग करके सीढ़ियों का निर्माण किया ताकि इसे एक पर्यटक स्थल के रूप में इस्तेमाल किया जा सके और मुर्गी ने इसे एक विरासत स्थल घोषित किया।

और यही कारण है कि जोनाथन फोर्ब्स के नाम से एक अंग्रेज ने 1831 में सिगिरिया के खंडहरों की "खोज" की। तो प्रारंभिक मानव सिगिरिया के शीर्ष पर कैसे पहुंचे? आइए मान लें कि इन बहुत खड़ी, जंगली इलाकों के माध्यम से चढ़ाई करना संभव है। लेकिन जमीनी स्तर से 30 लाख ईंटें लाने के लिए आपको उचित सीढ़ियों की जरूरत जरूर पड़ेगी। इसके बिना उन्हें शीर्ष पर पहुंचाना असंभव होगा। भले ही हम यह दावा करें कि ईंटों को चट्टान के ऊपर ही किसी चमत्कारी तरीके से बनाया गया था, यहां के निर्माण कार्य में सैकड़ों श्रमिकों की आवश्यकता होती। उन्हें अपना भोजन कैसे मिला? और टूल्स के बारे में क्या? उन्होंने अपने विशाल आदिम औजारों को कैसे ढोया? वे कहाँ आराम और सोते थे?

यहाँ केवल ईंटें ही नहीं हैं, आप संगमरमर के विशाल ब्लॉक भी पा सकते हैं। दूधिया सफेद संगमरमर के पत्थर इस क्षेत्र के मूल निवासी नहीं हैं। ये ब्लॉक वास्तव में बहुत भारी होते हैं, एक कदम बनाने वाले हर पत्थर का वजन लगभग 20-30 किलोग्राम होता है। और हम यहां हजारों संगमरमर के ब्लॉक पा सकते हैं। विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि संगमरमर प्राकृतिक रूप से आस-पास कहीं नहीं पाया जाता है, तो उन्हें 660 फीट की ऊंचाई तक कैसे ले जाया गया, खासकर बिना सीढ़ियों के? इसमें पानी की एक बड़ी टंकी भी है। यदि आप इसके चारों ओर ईंटों और संगमरमर के ब्लॉकों को नजरअंदाज करते हैं, तो आप समझते हैं कि यह ग्रेनाइट से बना दुनिया का सबसे बड़ा मोनोलिथिक टैंक है। यह पत्थर के ब्लॉकों को जोड़कर नहीं बनाया गया है, इसे ग्रेनाइट को हटाकर, सॉलिड रॉक से टन और टन ग्रेनाइट को निकालकर बनाया गया है।

यह पूरा टैंक 90 फीट लंबा और 68 फीट चौड़ा और करीब 7 फीट गहरा है। इसका मतलब है कि कम से कम 3,500 टन ग्रेनाइट को हटा दिया गया है। तो आप वास्तव में वापस बैठने के लिए एक मिनट ले सकते हैं और सोच सकते हैं कि मुख्यधारा के पुरातत्वविद सही हैं या नहीं। यदि मनुष्य ग्रेनाइट पर छेनी, हथौड़े और कुल्हाड़ी जैसे आदिम औजारों का उपयोग कर रहे होते, जो कि दुनिया की सबसे कठोर चट्टानों में से एक है, तो 3,500 टन को हटाने में वर्षों लग जाते। और इतने सालों में ये मजदूर अपना पेट कैसे पालते थे, जब उनके पास जमीनी स्तर तक जाने के लिए सीढ़ियां भी नहीं हैं? मुख्यधारा की इतिहास की किताबों में कुछ मौलिक रूप से गलत है जो प्राचीन लोगों को छेनी और हथौड़े से चट्टानों को काटने की बात करती है। लेकिन यह सिर्फ एक सिद्धांत नहीं है, हमारे आंखों के सामने वास्तविक सबूत हैं। क्या यह अद्भुत नहीं है?

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य

विमर्श : 
रामकथा : राम यजमान - रावण आचार्य 

भारत के अनेक स्थानों की तरह लंका में भी श्री लंका रावण को खलनायक नहीं एक विद्वान पंडित अजेय योद्धा, प्रतिभा संपन्न, वैभवशाली एवं समृद्धिवान सम्राट माना जाता है। 
श्री राम ने समुद्र पर सेतु निर्माण के बाद लंका विजय की कामना से विश्वेश्वर महादेव के लिंग विग्रह स्थापना के अनुष्ठान हेतु वेदज्ञ ब्राह्मण और शैव रावण को आचार्य पद पर प्रतिष्ठित करने का विचार किया क्योंकि रावण के सदृश्य शिवभक्त, कर्मकांड का जानकार और विद्वान् अन्य नहीं था। रावण को आमंत्रित करने के लिए जामवंत को रावण के पास भेजा गया।रावण ने उनका बहुत सम्मान ( अपने दादा महर्षि पुलस्त्य के सगे भाई वशिष्ठ के यजमान के दूत होने के कारण) किया तथा पूछा कि क्या वे लंका विजय हेतु यह अनुष्ठान करना चाहते हैं? जामवंत ने कहा, बिल्कुल ठीक, उनकी शिव जी के प्रति आस्था है, उनकी इच्छा है कि आप आचार्य पद स्वीकार कर अनुष्ठान संपन्न कराएँ। आपसे अधिक उपयुक्त शिव भक्त आचार्य अन्य कोई नहीं।
रावण ने विचार किया कि वह अपने आराध्य देव के विग्रह की स्थापना को अस्वीकार नहीं करेगा। जीवन में पहली बार किसी ने ब्राह्मण माना है और आचार्य योग्य जाना, वह भी वशिष्ठ जी के यजमान ने।  अत: रावण ने जामवंत को स्वीकृति देते हुए कहा कि यजमान उचित अधिकारी हैं, अनुष्ठान हेतु आवश्यक सामग्री का संग्रह करें ।
इसके बाद वनवासी राम के पास आवश्यक पूजा सामग्री का अभाव जानते हुए अपने सेवकों को भी सामग्री संग्रह में सहयोग करने का निर्देश दिया। इतना हे इन्हीं रावण ने अशोक वाटिका पहुँचकर सीता जी को सब समाचार देते हुए अनुष्ठान हेतु साथ चलने को कहा। विदित हो बिना अर्धांगिनी गृहस्थ का पूजा-अनुष्ठान अपूर्ण रहता है।आचार्य का दायित्व होता है कि यजमान का अनुष्ठान हर संभव पूर्ण कराए। इसलिएरावण ने कहा कि विमान आने पर उसमें बैठ जाना और स्मरण रहे वहाँ भी तुम मेरे अधीन रहोगी, पूजा संपन्न होने के बाद वापस लौटने के लिए विमान पर पुनः बैठ जाना। सीता जी ने भी इसे स्वामी श्री राम  का कार्य समझकर विरोध न कर मौन रखा और स्वामी तथा स्वयं का आचार्य मानकर हाथ जोड़कर सिर झुका दिया, रावण ने भी सौभाग्यवती भव कह कर आशीर्वाद दिया।
रावण के सेतु बंध पहुँचने पर राम ने स्वागत करते हुए प्रणाम किया तो रावण ने आशीर्वाद देते हुए कहा "दीर्घायु भव, विजयी भव"। इसपर वहाँ सुग्रीव, विभीषण आदि आश्चर्यचकित रह गए। रावणाचार्य ने भूमि शोधन के उपरांत राम से कहा, यजमान! अर्धांगिनी कहाँ है उन्हें यथास्थान दें। राम जी ने मना करते हुए कहा आचार्य कोई उपाय करें ।रावण ने कहा यदि तुम अविवाहित, परित्यक्त या संन्यासी होते अकेले अनुष्ठान कर सकते थे, परंतु अभी संभव नहीं।
एक उपाय यह है कि अनुष्ठान के बाद आचार्य सभी पूजा साधन-उपकरण अपने साथ वापस ले जाते हैं, यदि स्वीकार हो तो यजमान की पत्नी विराजमान है, विमान से बुला लो। राम जी ने इस सर्वश्रेष्ठ युक्ति को स्वीकार करते हुए रावणाचार्य को प्रणाम किया।" अर्ध यजमान के पार्श्व में बैठो अर्धयजमान" कह कर रावणाचार्य ने कलश स्थापित कर विधिपूर्वक अनुष्ठान कराया। बालू का लिंगविग्रह (हनुमान जी के कैलाश से लिंगविग्रह लाने में बिलंब होने के कारण) बनवाकर शुभ मूहूर्त मे ही स्थापना संपन्न हुई।
अब रावण ने अपनी दक्षिणा की माँग की तो सभी उपस्थित लोग चौकें, रावण के शब्दों में "घबरायें नहीं यजमान, स्वर्णपुरी के स्वामी की दक्षिणा सम्पत्ति तो नहीं हो सकती"। आचार्य जानते हैं कि यजमान की स्थिति वर्तमान में वनवासी की है। राम ने फिर भी आचार्य की दक्षिणा पूर्ण करने की प्रतिज्ञा की ।रावण ने कहा "मृत्यु के समय आचार्य के समक्ष हो यजमान" और राम जी प्रतिज्ञा पूर्ण करते हुए रावण के मृत्यु शैय्या ग्रहण करने पर सामने उपस्थित रहे। 

रविवार, 1 अक्टूबर 2017

एक रचना

एक रचना-
*
हल्ला-गुल्ला,  शोर-शराबा,
मस्ती-मौज, खेल-कूद, मनरंजन,
डेटिंग करती फ़ौज.
लेना-देना, बेच-खरीदी,
कर उपभोग. नेता-टी.व्ही.
कहते जीवन-लक्ष्य यही.

कोई न कहता लगन-परिश्रम,
संयम-नियम, आत्म अनुशासन,
कोशिश राह वरो.
तज उधार, कर न्यून खर्च
कुछ बचत करो.
उत्पादन से मिले सफ़लता
वही करो.

उत्पादन कर मुक्त लगे कर उपभोगों पर.
नहीं योग पर रोक लगे केवल रोगों पर.
तब सम्भव रावण मर जाए.
तब सम्भव दीपक जल पाए.
...

शनिवार, 30 सितंबर 2017

ravan vadh aur dashahara


: शोध :
रावण ​वध ​की तिथि दशहरा ​नहीं​
*
न जाने क्यों, कब और किसके द्वारा विजयादशमी अर्थात दशहरा पर रावण-दाह की भ्रामक और गलत परंपरा आरम्भ हुई? रावण ब्राम्हण था जिसके वध से लगे ब्रम्ह हत्या के पाप हेतु सूर्यवंशी राम को प्रायश्चित्य करना पड़ा था। रावण वध के बाद उसकी अंत्येष्टि उसके अनुज विभीषण ने की थी, राम ने नहीं। रामलीला के बाद राम के बाण से रावण का दाह संस्कार किया जाना तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह गलत, अप्रामाणिक और अस्वीकार्य है। रावण का जन्म दिल्ली के समीप एक गाँव में हुआ, सुर तथा असुर मौसेरे भाई थे जिन्होंने दो भिन्न संस्कृतियों और राज सत्ताओं को जन्म दिया। उनमें वैसा ही विकराल युद्ध हुआ जैसा द्वापर में चचेरे भाइयों कौरव-पांडव में हुआ, उसी तरह एक पक्ष से सत्ता छिन गई। रावण वध की तिथि जानने के लिए पद्म पुराण के पाताल खंड का अध्ययन करें।
पदम पुराण,पातालखंड ​ ​के अनुसार ‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ८७ दिन तक चले संग्राम के मध्य कारणों से १५ दिन युद्ध बंद रहा तथा हुआ। ​इस महासंग्राम​ का समापन लंकाधिराज रावण के संहार से हुआ। राम द्वारा रावण वध क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र वदी चतुर्दशी को किया गया था। ऋषि आरण्यक द्वारा सत्योद्घाटन- ​
​हैं- ''जनकपुरी में धनुषयज्ञ में राम-लक्ष्मण कें साथ विश्वामित्र का पहुँचना​,​ राम द्वारा धनुषभंग, राम-सीता विवाह ​आदि प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया विवाह के समय राम ​१५ वर्ष के और सीता ​६ वर्ष की ​थीं। विवाहोपरांत वे ​१२ वर्ष अयोध्या में रहे​ २७ वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई ​दुवारा राम वनवास का वर ​माँगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।
पद्मपुराण​, पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में ​पहुँचकर, परिचय देकर प्रणाम करते ​हैं। शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- ''गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया।'' उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य ​के उपदेश ​का उल्लेख कर कहा ​की गुरु ने कहा ​था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा ​आश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास ​पहुँचा देंगे। इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते वनवास में राम प्रारंभिक
आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाती नामक गिद्ध ने बताया कि सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने ​सागर पार किया और रात में लंका प्रवेश कर सीता की खोज-बीन ​आरम्भ की।कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को अशोक वाटिका विध्वं​कर, उसी दिन अक्षय कुमार का बध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद का ब्रह्मपाश में ​बँधकर दरबार में गये और लंकादहन किया। हनुमानजी ​ने ​कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित वानर​ दल ​ने नाचते​-​गाते ​५ दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे, हाल-चाल दिये।
​३ दिन जल पीकर रहे, चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। ​पाँचवे दिन वे चित्रकूट पहुँचे। श्री राम ​ने ​चित्रकूट में​ १२ वर्ष ​प्रवास किया। ​१३वें वर्ष के प्रारंभ में राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुँचे और शूर्प​णखा को कुरूप किया। माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया।​ बाल्मीकि रामायण, राम चरित मानस तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार राम ने वर्षाकाल में चार माह ऋष्यमूक पर्वत पर ​बिताए थे। ​मानस में श्री राम लक्ष्मण से कहते हैं- ​घन घमंड गरजत चहु ओरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा।। अगहन कृष्ण अष्टमी ​उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और ​७ दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया। अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर चर्चा हुई। सागर से मार्ग ​की ​याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक ​४ दिन अनशन किया। नवमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक ​४ दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ।
माघ कृष्ण द्वितीया से राम-रावण में तुमुल युद्ध प्रारम्भ हुआ। माघ कृष्ण चतुर्थी को रावण को भागना पड़ा। रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक ​४ दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया। कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि ​५ राक्षसों का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया। माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ ​वध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष वध हुआ।
अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक ​३ दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को ​रावण के गुप्तचर ​सुक​-​ सारन ​वानर वेश धारण कर ​वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और ​उन्हें ​पहचान कर​ ​पकड़ा गया और शरणागत होने पर श्री राम द्वारा अभयदान दिया। पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया। ​श्री राम द्वारा शांति-प्रयास का अंतिम उपाय करते हुए ​पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया।​ ​अंगद के विफल लौटने पर ​पौष शुक्ल द्वितीया से युद्ध आरंभ हुआ। अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में ​जकड़ दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटकर राम-लक्ष्मण को मुक्त किया। पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का वध किया गया। फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध प्रारंभ हुआ। फागुन कृष्ण सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुए, उपचार आरम्भ हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक ​५ दिन युद्ध विराम रहा। फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से फागुन कृष्ण तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया। इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ।
फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ। फागुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि का राक्षसों का वध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुए, सुखेन वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुए। राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया। फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक ​१८ दिन युद्ध चला। ​अंतत: ​चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण मौत के घाट उतारा गया।
युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक ​८७ दिन​ युद्ध ​(७२ दिन​ ​युद्ध, ​१५ दिन ​​युद्ध विराम​)​ चला और श्रीराम विजयी हुए। चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।

गुरुवार, 22 अक्टूबर 2015

laghukatha

लघुकथा:
अट्टहास
*
= 'वाह, रावण क्या खूब जल रहा है?'

- 'तो इसमें ख़ुशी की क्या बात है?'

= ख़ुशी की बात तो है ही. जैसा करा वैसा भर। पाप का फल ऐसा ही होता है.

__ झूठ, बिलकुल झूठ. रावण के पुतले में से आवाज़ आई.

= झूठ क्यों? यही तो सच है.

__ 'यदि यह सच होता तो आज मैं नहीं, इस देश के नेता, अफसर और व्यापारी मुझसे पहले जलते, तुम सब भी आंच में झुलसते और मैं कर रहा होता अट्टहास'

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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

ravan ki mritu kab? devesh shastree

: शोध :

रावण दशहरा (क्वार सुदी दशमी) को नहीं मारा गया

देवेश शास्त्री 

*

‘‘विजया दशमी यानी क्वार सुदी दशहरा को रावण मारा गया। यह महापर्व सदियों से मनाया जाता है। हम और आप सभी पीढ़ी दर पीढ़ी विजय दशहरा का पर्व मना रहे हैं। बाल्मीकि रामायण तथा राम चरित मानस में भगवान राम का ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास का उल्लेख मिलता है। ‘‘वर्षा और शरद ऋतु में जब राम-लक्ष्मण एक स्थान पर रहे तो क्वार में युद्ध हुआ ही नहीं होगा तो क्वार सुदी दशमी को रावण का संहार नहीं हुआ होगा।’’ इस जिज्ञासा को लेकर मैंने कई ग्रन्थ खंगाले, कहीं रावण बध की तिथि का प्रमाण नहीं मिला। पदम पुराण के पातालखंड में मेरी शंका का समाधान हुआ। ‘‘युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक 87 दिन, 15 दिन अलग-अलग युद्धबंदी, 72 दिन चले महासंग्राम में लंकाधिराज रावण का संहार क्वार सुदी दशमी को नहीं चैत्र वदी चतुर्दशी को हुआ।
घन घमंड गरजत चहु ओरा। प्रियाहीन डरपत मन मोरा।। 

रामचरित मानस हो, बाल्मीकि रामायण अथवा ‘रामायण शत कोटि अपारा’ हर जगह ऋष्यमूक पर्वत पर चातुर्मास प्रवास के प्रमाण मिलते हैं। पद्मपुराण के पाताल खंड में श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ के प्रसंग में अश्व रक्षा के लिए जा रहे शत्रुध्न ऋषि आरण्यक के आश्रम में पहुंचते हैं। परिचय देकर प्रणाम करते है। शत्रुघ्न को गले से लगाकर प्रफुल्लित आरण्यक ऋषि बोले- ''गुरु का वचन सत्य हुआ। सारूप्य मोक्ष का समय आ गया।'' उन्होंने गुरू लोमश द्वारा पूर्णावतार राम के महात्म्य का उपदेश देते हुए कहा था कि जब श्रीराम के अश्वमेध यज्ञ का घोड़ा काश्रम में आयेगा, रामानुज शत्रुघ्न से भेंट होगी। वे तुम्हें राम के पास पहुंचा देंगे।

इसी के साथ ऋषि आरण्यक रामनाम की महिमा के साथ नर रूप में राम के जीवन वृत्त को तिथिवार उद्घाटित करते है- ''जनक पुरी में धनुषयज्ञ में राम-लक्ष्मण कें साथ विश्वामित्र का पहुँचना और राम द्वारा धनुषभंग, राम-सीता विवाह का प्रसंग सुनाते हुए आरण्यक ने बताया विवाह के समय राम 15 वर्ष के और सीता 06 वर्ष की थी। विवाहोपरांत वे 12 वर्ष अयोध्या में रहे 27 वर्ष की आयु में राम के अभिषेक की तैयारी हुई मगर रानी कैकेई के वर मांगने पर सीता व लक्ष्मण के साथ श्रीराम को चौदह वर्ष के वनवास में जाना पड़ा।

वनवास में राम प्रारंभिक 3 दिन जल पीकर रहे, चौथे दिन से फलाहार लेना शुरू किया। पांचवें दिन वे चित्रकूट पहुँचे। श्री राम चित्रकूट में पूरे 12 वर्ष रहे। 13वें वर्ष के प्रारंभ में राम, लक्ष्मण और सीता के साथ पंचवटी पहुँचे और शूर्पनखा को कुरूप किया। माघ कृष्ण अष्टमी को वृन्द मुहूर्त में लंकाधिराज दशानन ने साधुवेश में सीता का हरण किया। श्रीराम व्याकुल होकर सीता की खोज में लगे रहे। जटायु का उद्धार व शबरी मिलन के बाद ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे, सुग्रीव से मित्रता कर बालि का बध किया।  

आषाढ़ सुदी एकादशी से चातुर्मास प्रारंभ हुआ। शरद ऋतु के उत्तरार्द्ध यानी कार्तिक शुक्लपक्ष से वानरों ने सीता की खोज शुरू की। समुद्र तट पर कार्तिक शुक्ल नवमी को संपाती नामक गिद्ध ने बताया कि सीता लंका की अशोक वाटिका में हैं। तीसरे दिन कार्तिक शुक्ल एकादशी (देवोत्थानी) को हनुमान ने छलांग लगाई, और रात में लंका प्रवेश कर सीता की खोज-बीन करने लगे। कार्तिक शुक्ल द्वादशी को अशोक वाटिका में शिंशुपा वृक्ष पर छिप गये और माता सीता को रामकथा सुनाई। कार्तिक शुक्ल तेरस को अशोक वाटिका विध्वंश किया, उसी दिन अक्षय कुमार का बध किया। कार्तिक शुक्ल चौदस को मेघनाद का ब्रह्मपाश में बंधकर दरबार में गये और लंकादहन किया। हनुमानजी कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को वापसी में समुद्र पार किया। प्रफुल्लित सभी वानरों ने नाचते गाते 5 दिन मार्ग में लगाये और अगहन कृष्ण षष्ठी को मधुवन में आकर वन ध्वंस किया हनुमान की अगवाई में सभी वानर अगहन कृष्ण सप्तमी को श्रीराम के समक्ष पहुँचे,  हाल-चाल दिये।  

अगहन कृष्ण अष्टमी उ. फाल्गुनी नक्षत्र विजय मुहूर्त में श्रीराम ने वानरों के साथ दक्षिण दिशा को कूच किया और 7 दिन में किष्किंधा से समुद्र तट पहुचे। अगहन शुक्ल प्रतिपदा से तृतीया तक विश्राम किया। अगहन शुक्ल चतुर्थ को रावणानुज श्रीरामभक्त विभीषण शरणागत हुआ। अगहन शुक्ल पंचमी को समुद्र पार जाने के उपायों पर परिचर्चा हुई। सागर से मार्ग याचना में श्रीराम ने अगहन शुक्ल षष्ठी से नवमी तक 4 दिन अनशन किया। नवमी को अग्निवाण का संधान हुआ तो रत्नाकर प्रकट हुए और सेतुबंध का उपाय सुझाया। अगहन शुक्ल दशमी से तेरस तक 4 दिन में श्रीराम सेतु बनकर तैयार हुआ

अगहन शुक्ल चौदस को श्रीराम ने समुद्र पार सुवेल पर्वत पर प्रवास किया, अगहन शुक्ल पूर्णिमा से पौष कृष्ण द्वितीया तक 3 दिन में वानरसेना सेतुमार्ग से समुद्र पार कर पाई। पौष कृष्ण तृतीया से दशमी तक एक सप्ताह लंका का घेराबंदी चली। पौष कृष्ण एकादशी को सुक सारन वानर सेना में घुस आये। पौष कृष्ण द्वादशी को वानरों की गणना हुई और पहचान करके उन्हें अभयदान दिया। पौष कृष्ण तेरस से अमावस्या तक रावण ने गोपनीय ढंग से सैन्याभ्यास किया। पौष शुक्ल प्रतिपदा को अंगद को दूत बनाकर भेजा गया।

इसके बाद पौष शुक्ल द्वितीया से युद्ध आरंभ हुआ। अष्टमी तक वानरों व राक्षसों में घमासान युद्ध हुआ। पौष शुक्ल नवमी को मेघनाद द्वारा राम लक्ष्मण को नागपाश में बांध दिया गया। श्रीराम के कान में कपीश द्वारा पौष शुक्ल दशमी को गरुड़ मंत्र का जप किया गया, पौष शुक्ल एकादशी को गरुड़ का प्राकट्य हुआ और उन्होंने नागपाश काटकर राम-लक्ष्मण को मुक्त किया। पौष शुक्ल द्वादशी को ध्रूमाक्ष्य बध, पौष शुक्ल तेरस को कंपन बध, पौष शुक्ल चैदसचौदस से माघ कृष्ण प्रतिपदा तक 3 दिनों में कपीश नील द्वारा प्रहस्तादि का वध किया गया।  

माघ कृष्ण द्वितीया से राम-रावण में तुमुल युद्ध प्रारम्भ हुआ। माघ कृष्ण चतुर्थी को रावण को भागना पड़ा। रावण ने माघ कृष्ण पंचमी से अष्टमी तक 4 दिन में कुंभकरण को जगाया। माघ कृष्ण नवमी से शुरू हुए युद्ध में छठे दिन चौदस को कुंभकरण को श्रीराम ने मार गिराया। कुंभकरण बध पर माघ कृष्ण अमावस्या को शोक में रावण द्वारा युद्ध विराम किया गया। माघ शुक्ल प्रतिपदा से चतुर्थी तक युद्ध में विसतंतु आदि 5 राक्षसों का बध हुआ। माघ शुक्ल पंचमी से सप्तमी तक युद्ध में अतिकाय मारा गया। माघ शुक्ल अष्टमी से द्वादशी तक युद्ध में निकुम्भ-कुम्भ व्ध, माघ शुक्ल तेरस से फागुन कृष्ण प्रतिपदा तक युद्ध में मकराक्ष वध हुआ। 

फागुन कृष्ण द्वितीया को लक्ष्मण-मेघनाद युद्ध प्रारंभ हुआ। फागुन कृष्ण सप्तमी को लक्ष्मण मूर्छित हुए, उपचार आरम्भ हुआ। इस घटना के कारण फागुन कृष्ण तृतीया से सप्तमी तक 5 दिन युद्ध विराम रहा। फागुन कृष्ण अष्टमी को वानरों ने यज्ञ विध्वंस किया, फागुन कृष्ण नवमी से फागुन कृष्ण तेरस तक चले युद्ध में लक्ष्मण ने मेघनाद को मार गिराया। इसके बाद फागुन कृष्ण चौदस को रावण की यज्ञ दीक्षा ली और फागुन कृष्ण अमावस्या को युद्ध के लिए प्रस्थान किया।

फागुन शुक्ल प्रतिपदा से पंचमी तक भयंकर युद्ध में अनगिनत राक्षसों का संहार हुआ। फागुन शुक्ल षष्टी से अष्टमी तक युद्ध में महापार्श्व आदि का राक्षसों का वध हुआ। फागुन शुक्ल नवमी को पुनः लक्ष्मण मूर्छित हुए, सुखेन वैद्य के परामर्श पर हनुमान द्रोणागिरि लाये और लक्ष्मण पुनः चैतन्य हुए।

राम-रावण युद्ध फागुन शुक्ल दशमी को पुनः प्रारंभ हुआ। फागुन शुक्ल एकादशी को मातलि द्वारा श्रीराम को विजयरथ दान किया। फागुन शुक्ल द्वादशी से रथारूढ़ राम का रावण से तक 18 दिन युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चौदस को दशानन रावण मौत के घाट उतारा गया। 

युद्धकाल पौष शुक्ल द्वितीया से चैत्र कृष्ण चौदस तक (87 दिन) 15 दिन अलग-अलग युद्धबंदी रही, 72 दिन महासंग्राम चला और श्रीराम विजयी हुए। चैत्र कृष्ण अमावस्या को विभीषण द्वारा रावण का दाह संस्कार किया गया।

चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (नव संवत्सर) से लंका में नये युग का प्रारंभ हुआ। चैत्र शुक्ल द्वितीया को विभीषण का राज्याभिषेक किया गया। अगले दिन चैत्र शुक्ल तृतीया का सीता की अग्निपरीक्षा ली गई और चैत्र शुक्ल चतुर्थी को पुष्पक विमान से राम, लक्ष्मण, सीता उत्तर दिशा में उड़े। चैत्र शुक्ल पंचमी को भरद्वाज के आश्रम में पहुँचे। चैत्र शुक्ल षष्ठी को नंदीग्राम में राम-भरत मिलन हुआ। चैत्र शुक्ल सप्तमी को अयोध्या में श्रीराम का राज्याभिषेक किया गया। यह पूरा आख्यान ऋषि आरण्यक ने शत्रुघ्न को सुनाया। फिर शत्रुघ्न ने आरण्यक को अयोध्या पहुँचाया, जहाँ अपने आराध्य पूर्णावतार श्रीराम के सान्निध्य में ब्रह्मरंध्र द्वारा सारूप्य मोक्ष पाया।

सप्रमाण स्वाध्याय-शोध: देवेश शास्त्री ।। सत्यमेव जयते।।