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शुक्रवार, 30 मई 2025

मई ३०, दिंडी छंद, राम अधीर, हिंदी, मनहरण, मारीशस, हाइकु, पलाश, तांका, सावन

सलिल सृजन मई ३० 
*
गीत
बावरा मन
*
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
भुला बैठा आत्म को, परमात्म को भी
मुग्ध हैं नित निरख नवता नवल तन की
बावरा मन जाग सुमिरे लय भजन की
*
तंत्र का बन यंत्र मिथ्या मंत्र पढ़ता
नहीं दिखता इसे जोशीमठ बिखरता
काट जंगल, खोद पर्वत यह ठठाता
ताप बढ़ता धरा का इसको न नाता
हुआ दूषित पवन दूभर श्वास लेना
सूखती नदियां इसे लेना न देना
घिरा भक्तों से न चिंता है सुजन की
बताता जुमला न रख लज्जा वचन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
रंग बदले देख गिरगिट भी लजाता
ढंग बेहद अहंकारी, सच न भाता
ध्वज तिरंगा नहीं, भगवा चाहता यह
देशद्रोही विपक्षी को नित रहा कह
करे मनमानी न सहमति-पथ सुहाता
इसे उससे उसे इससे नित लड़ाता
पीर सुनता ही नहीं मन कृषक मन की
जले मणिपुर पर न चिंता है स्वजन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
आम था हो खास, खासुलखास है अब
कह रहा लिखना नया इतिहास है अब
नष्ट कर सद्भावना, विद्वेष बोता
दूरियों को जन्म दे, अपनत्व खोता
कीर्ति अपनी आप गाते नहिं अघाता
निकल जाए समय तो ठेंगा दिखाता
आग सुलगा बात करता है अमन की
है कहानी हर असहमति के दमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
*
अहंकारी विरासत को ही भुलाता
श्रेय औरों का सदा अपना बताता
लगता है हर जगह निज नाम-पत्थर
तीर्थों में देव-दर्शन पर लगा कर
व्यर्थ जन-धन भव्य संसद बना करता
लोकमत पर तंत्र को देता प्रमुखता
गालियाँ दे, चाह करता है नमन की
मरुथलों पर पट्टिका चिपका चमन की
बावरा मन बात करता है न जन की
इसे भाती है हमेशा बात मन की
२६-५-२०२३
***
नवगीत
*
१. बेला
*
मगन मन महका
*
प्रणय के अंकुर उगे
फागुन लगे सावन.
पवन संग पल्लव उड़े
है कहाँ मनभावन?
खिलीं कलियाँ मुस्कुरा
भँवरे करें गायन-
सुमन सुरभित श्वेत
वेणी पहन मन चहका
मगन मन महका
*
अगिन सपने, निपट अपने
मोतिया गजरा.
चढ़ गया सिर, चीटियों से
लिपटकर निखरा
श्वेत-श्यामल गंग-जमुना
जल-लहर बिखरा.
लालिमामय उषा-संध्या
सँग 'सलिल' दहका.
मगन मन महका
******
२. खिला मोगरा
*
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
महक उठा मन
श्वास-श्वास में
गूँज उठी शहनाई।
*
हरी-भरी कोमल पंखुड़ियाँ
आशा-डाल लचीली।
मादक चितवन कली-कली की
ज्यों घर आई नवेली।
माँ के आँचल सी सुगंध ने
दी ममता-परछाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
ननदी तितली ताने मारे
छेड़ें भँवरे देवर।
भौजी के अधरों पर सोहें
मुस्कानों के जेवर।
ससुर गगन ने
विहँस बहू की
की है मुँह दिखलाई।
खिला मोगरा
जब-जब, तब-तब
याद किसी की आई।
*
सजन पवन जब अंग लगा तो
बिसरा मैका-अँगना।
द्वैत मिटा, अद्वैत वर लिया
खनके पायल-कँगना।
घर-उपवन में
स्वर्ग बसाकर
कली न फूल समाई।
खिला मोगरा
जब-जब, मुझको
याद किसी की आई।
***
३. बाँस के कल्ले
*
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
जुही-जुनहाई मिलीं
झट गले
महका बाग़ रे!
गुँथे चंपा-चमेली
छिप हाय
दहकी आग रे!
कबीरा हँसता ठठा
मत भाग
सच से जाग रे!
बीन भोगों की बजी
मत आज
उछले पाग रे!
जवाकुसुमी सदाव्रत
कर विहँस
जागे भाग रे!
हास के पल्ले तले हँस
दर्द सब मिटता गया
त्रास को चुप झेलता तन-
सुलगता-जलता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
*
प्रथाएँ बरगद हुईं
हर डाल
बैठे काग रे!
सियासत का नाग
काटे, नेह
उगले झाग रे!
घर-गृहस्थी लग रही
है व्यर्थ
का खटराग रे!
छिप न पाते
चदरिया में
लगे इतने दाग रे!
बिन परिश्रम कब जगे
हैं बोल
किसके भाग रे!
पीर के पल्ले तले पल
दर्द भी हँसता गया
जमीं में जड़ जमाकर
नभ छू 'सलिल' उठता गया
बाँस के कल्ले उगे फिर
स्वप्न नव पलता गया
पवन के सँग खेलता मन-
मोगरा खिलता गया
***
बालगीत:
बिटिया रानी
*
आँख में आँसू, नाक से पानी
क्यों रूठी है बिटिया रानी?
*
पल में खिलखिल कर हँस देगी
झटपट कह दो 'बहुत सयानी'।
*
ठेंगा दिखा रही भैया को
नटखट याद दिलाती नानी।
*
बारिश में जा छप-छप करती
झबला पहने हरियल-धानी।
*
टप-टप टपक रही हैं बूँदें
भीग गया है छप्पर-छानी।
*
पैर पटककर मचल न जाए
करने दो इसको मनमानी।
***
मुक्तिका
विधान: उन्नीस मात्रिक, महापौराणिक जातीय दिंडी छंद
*
साँस में आस; यारों अधमरी है।
अधर में चाह; बरबस ही धरी है।।
*
हवेली-गाँव को हम; छोड़ आए
कुठरिया शहर में; उन्नति करी है।।
*
हरी थी टौरिया, कर नष्ट दी अब
तपी धरती; हुई तबियत हरी है।।
*
चली खोटी; हुई बाज़ार बाहर
वही मुद्रा हमेशा; जो खरी है।।
*
मँगा लो सब्जियाँ जो चाहता दिल
न खोजो स्वाद; सबमें इक करी है।।
*
न बीबी अप्सरा से मन भरा है
पड़ोसन पूतना लगती परी है।।
***
दोहे
पीछे मुड़ क्या देखना?, देखें आगे राह.
क्या जाने हो किस घड़ी, पूरी मन की चाह.
*
समय गया कब?, क्या पता? हाथ न आया वक्त.
फिर मिल तो दूंगा सबक, तुझे सख्त कमबख्त.
३०-५-२०१८
***

नवगीत:
मत हो राम अधीर.........
*
जीवन के
सुख-दुःख हँस झेलो ,
मत हो राम अधीर.....
*
भाव, अभाव, प्रभाव ज़िन्दगी.
मिलन, विरह, अलगाव जिंदगी.
अनिल अनल धरती नभ पानी-
पा, खो, बिसर स्वभाव ज़िन्दगी.
अवध रहो
या तजो, तुम्हें तो
सहनी होगी पीर.....
*
मत वामन हो, तुम विराट हो.
ढाबे सम्मुख बिछी खाट हो.
संग कबीरा का चाहो तो-
चरखा हो या फटा टाट हो.
सीता हो
या द्रुपद सुता हो
मैला होता चीर.....
*
विधि कुछ भी हो कुछ रच जाओ.
हरि मोहन हो नाच नचाओ.
हर हो तो विष पी मुस्काओ-
नेह नर्मदा नाद गुंजाओ.
जितना बहता
'सलिल' सदा हो
उतना निर्मल नीर.....
***
विश्ववाणी हिंदी और हम
समाचार है कि विश्व की सर्वाधिक प्रभावशाली १२४ भाषाओं में हिंदी का दसवाँ स्थान है। हिंदी की आंचलिक बोलियों और उर्दू को मिलाने पर सूची में ११३ भाषाएँ यह स्थान आठवाँ होगा. भाषाओं की वैश्विक शक्ति का यह अनुमान इन्सीड(INSEAD) के प्रतिष्ठित फेलो डॉ. काई एल. चान (Dr. Kai L. Chan) द्वारा मई, २०१६ में तैयार किए गए पावर लैंग्वेज इन्डेक्स (Power Language Index) पर आधारित है।
इंडेक्स में हिंदी की कई लोकप्रिय बोलियों भोजपुरी, मगही, मारवाड़ी, दक्खिनी, ढूंढाड़ी, हरियाणवी आदि को अलग स्वतंत्र स्थान दिया गया है। वीकिपीडिया और एथनोलॉग द्वारा जारी भाषाओं की सूची में हिंदी को इसकी आंचलिक बोलियों से अलग दिखाने का भारत में भारी विरोध भी हुआ था।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर लगातार हिंदी को खंडित और कमतर करके देखे जाने का सिलसिला जानबूझ कर हिंदी को कमजोर दर्शाने का षड़यंत्र है। ऐसी साजिशें हिंदी की सेहत के लिए ठीक नहीं। डॉ. चैन की भाषा- तालिका के अनुसार, हिंदी में सभी आंचलिक बोलियों को शामिल करने पर प्रथम भाषा के रूप में हिंदी बोलनेवालों की संख्या उसे विश्व में दूसरा स्थान दिला सकती है। इंडेक्स में अंग्रेजी प्रथम स्थान पर है, जबकि अंग्रेजी को प्रथम भाषा के रूप में बोलने वालों का संख्या की दृष्टि से चौथा स्थान है।
पावर लैंग्वेज इंडेक्स में भाषाओं की प्रभावशीलता का क्रम निर्धारण भाषाओं के भौगोलिक, आर्थिक, संचार, मीडिया-ज्ञान तथा कूटनीतिक प्रभाव पाँच कारकों को ध्यान में रखकर किया गया है। इनमें भौगोलिक व आर्थिक प्रभावशीलता सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। हिंदी से उसकी आंचलिक बोलियों को निकालने पर इसका भौगोलिक क्षेत्र , भाषा को बोलने वाले देश, भूभाग और पर्यटकों के भाषायी व्यवहार के आंकड़ों में निश्चित तौर पर बहुत कमी आएगी। भौगोलिक कारक के आधार पर हिंदी को इस सूची में १० वाँ स्थान दिया गया है। डॉ. चैन के भाषायी गणना सूत्र के अनुसार हिंदी और उसकी सभी बोलियों के भाषा-भाषियों की विशाल संख्या के अनुसार गणना करने पर यह शीर्ष पांच में आ जाएगी ।
इन्डेक्स के दूसरे महत्वपूर्ण कारक आर्थिक प्रभावशीलता के अंतर्गत 'भाषा का अर्थव्यवस्था पर प्रभाव' का अध्ययन कर हिंदी को १२ वां स्थान दिया गया है।
इस इन्डेक्स को तैयार करने का तीसरा कारक संचार (लोगों की बातचीत में संबंधित भाषा का उपयोग है। इंडेक्स का चौथा कारक मीडिया एवं ज्ञान के क्षेत्र में भाषा का इस्तेमाल है। इसमें भाषा की इंटरनेट पर उपलब्धता, फिल्मों, विश्वविद्यालयों में पढ़ाई, भाषा में अकादमिक शोध ग्रंथों की उपलब्धता के आधार पर गणना की गई है। इसमें हिंदी को द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ है।
विश्वविद्यालयों में हिंदी अध्ययन और हिंदी फिल्मों का इसमें महत्वपूर्ण योगदान है। हिंदी की लोकप्रियता में बॉलीवुड की विशेष योगदान है। इंटरनेट पर हिंदी सामग्री का अभी घोर अभाव है। इंटरनेट पर अंग्रेजी सामग्री की उपलब्धता ९५% तथा हिंदी की उपलब्धता मात्र ०.०४% है। इस दिशा में हिंदी को अभी लंबा रास्ता तय करना है। इस इन्डेक्स का पांचवा और अंतिम कारक है- कूटनीतिक स्तर पर भाषा का प्रयोग। इस सूची में कूटनीतिक स्तर पर केवल ९ भाषाओं (अंग्रेजी, मंदारिन, फ्रेच, स्पेनिश, अरबी, रूसी, जर्मन, जापानी और पुर्तगाली) को प्रभावशाली माना गया है। हिंदी सहित बाकी सभी १०४ भाषाओं को कूटनीतिक दृष्टि से एक समान १० वां स्थान यानी अत्यल्प प्रभावी कहा गया है। जब तक वैश्विक संस्थाओं में हिंदी को स्थान नहीं दिया जाएगा तब तक यह कूटनीति की दृष्टि से कम प्रभावशाली भाषाओं में ही रहेगी।
विश्व में अनेक स्तरों पर हिंदी को कमजोर करने की कोशिश की जा रही है। हिंदी को देश के भीतर हिंदी विरोधी ताकतों से तो नुकसान पहुंचाया ही जा रहा है, देश के बाहर भी तमाम साजिशें रची जा रही हैं। दुनिया भर में अंग्रेजी के अनेक रूप प्रचलित हैं, फिर भी इस इंडेक्स में उन सभी को एक ही रूप मानकर गणना की गई है। परन्तु हिंदी के साथ ऐसा नहीं किया गया है।
भारत में हिंदी की सहायक बोलियां एकजुट न हो अपना स्वतंत्र अस्तित्व तलाश कर हिंदी को कमजोर कर रही हैं. इस फूट का फायदा साम्राज्यवादी भाषा न उठ सकें इसके लिए हिंदी की बोलियों की आपसी लड़ाई को बंद कर सभी देशवासियों को हिंदी की प्रभावशीलता बढ़ाने के लिए निरंतर योगदान देना होगा।
***
एक दूर वार्ता
ला लौरा मौक़ा मारीशस में कार्यरत पत्रकार श्रीमती सविता तिवारी से
- सर नमस्ते
नमस्ते
= नमस्कार.
- आप बाल कविताएं काफी लिखते हैं
बाल साहित्य और बाल मनोविज्ञान पर आपके क्या विचार हैं?
= जितने लम्बे बाल उतना बढ़िया बाल साहित्यकार
-
अच्छा, यह आज के परिदृष्य पर टिप्पणी है
= बाल साहित्य के दो प्रकार है. १. विविध आयु वर्ग के बाल पाठकों के लिए और उनके द्वारा लिखा जा रहा साहित्य २. बाल साहित्य पर हो रहे शोध कार्य.
- मुझे इस विषय पर एक रेडियो कार्यक्रम करना है सोचा आपका विचार जान लेती.
= बाल साहित्य के अंतर्गत शिशु साहित्य, बाल साहित्य तथा किशोर साहित्य का वर्गीकरण आयु के आधार पर और ग्रामीण तथा नगरीय बाल साहित्य का वर्गीकरण परिवेश के आधार पर किया जा सकता है.
आप प्रश्न करें तो मैं उत्तर दूँ या अपनी ओर से ही कहूँ?
- बाल मन को बास साहित्य के जरिए कैसे प्रभावित किया जा सकता है?
= बाल मन पर प्रभाव छोड़ने के लिए रचनाकार को स्वयं बच्चे के स्तर पर उतार कर सोचना और लिखना होगा. जब वह बच्चा थी तो क्या प्रश्न उठते थे उसके मन में? उसका शब्द भण्डार कितना था? तदनुसार शब्द चयन कर कठिन बात को सरल से सरल रूप में रोचक बनाकर प्रस्तुत करना होगा.
बच्चे पर उसके स्वजनों के बाद सर्वाधिक प्रभाव साहित्य का ही होता है. खेद है कि आजकल साहित्य का स्थान दूरदर्शन और चलभाषिक एप ले रहे हैं.
- मॉरिशस जैस छोटेे देश में जहां हिदी बोलने का ही संकट है वहां इसे बच्चों में बढ़ावा देने के क्या उपाय हैं?
= जो सबका हित कर सके, कहें उसे साहित्य
तम पी जग उजियार दे, जो वह है आदित्य.
घर में नित्य बोली जा रही भाषा ही बच्चे की मातृभाषा होती है. माता, पिता, भाई, बहिनों, नौकरों तथा अतिथियों द्वारा बोले जाते शब्द और उनका प्रभाव बालम के मस्तिष्क पर अंकित होकर उसकी भाषा बनाते हैं. भारत जैस एदेश में जहाँ अंग्रेजी बोलना सामाजिक प्रतिष्ठा की पहचान है वहां बच्चे पर नर्सरी राइम के रूप में अपरिचित भाषा थोपा जाना उस पर मानसिक अत्याचार है.
मारीशस क्या भारत में भी यह संकट है. जैसे-जैसे अभिभावक मानसिक गुलामी और अंग्रेजों को श्रेष्ठ मानने की मानसिकता से मुक्त होंगे वैसे-वैसे बच्चे को उसकी वास्तविक मातृभाषा मिलती जाएगी.
इसके लिए एक जरूरत यह भी है कि मातृभाषा में रोजगार और व्यवसाय देने की सामर्थ्य हो. अभिभावक अंग्रेजी इसलिए सिखाता है कि उसके माध्यम से आजीविका के बेहतर अवसर मिल सकते हैं.
- सर! बहुत धन्यवाद आपके समय के लिए. आप सुनिएगा मेरा कार्यक्रम. मैं लिंक भेजुंगी आपको 3 june ko aayga.
अवश्य. शुभकामनाएँ. प्रणाम.
= सदा प्रसन्न रहें. भारत आयें तो मेरे पास जबलपुर भी पधारें.
वार्तालाप संवाद समाप्त |
३०-५-२०१७
***
पुस्तक चर्चा-
'सच कहूँ तो' नवगीतों की अनूठी भाव भंगिमा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- सच कहूँ तो, नवगीत संग्रह, निर्मल शुक्ल, प्रथम संस्करण २०१६, आकार २१.५ से.मी. x १४.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक जैकेट सहित, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ आशियाना कॉलोनी, लखनऊ २२६०१२ , चलभाष ९८३९८ २५०६२]
*
''इस संग्रह में कवि श्री निर्मल शुक्ल ने साक्षी भाव से अपनी अनुभूतियों के रंगपट्ट पर विविधावर्णी चित्र उकेरे हैं। संकलन का शीर्षक 'सच कहूँ तो' भी उसी साक्षी भाव को व्याख्यायित करता है। अधिकांश गीतों में सच कहने की यह भंगिमा सुधि पाठक को अपने परिवेश की दरस-परस करने को बाध्य करती है। वस्तुतः यह संग्रह फिलवक्त की विसंगतियों का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है। वैयक्तिक राग-विरागों, संवेदनाओं से ये गीत रू-ब-रू नहीं हुए हैं। ... कहन एवं बिंबों की आकृति की दृष्टि से भी ये गीत अलग किसिम के हैं। '' नवगीतों के शिखर हस्ताक्षर कुमार रवींद्र जी ने विवेच्य कृति पर अभिमत में कृतिकार निर्मल शुक्ला जी को आस्तिक आस्था से प्रेरित कवि ठीक ही कहा है।
'सच कहूँ तो' के नवगीतों में दैनन्दिन जीवन के सहज उच्छ्वास से नि:सृत तथा मानवीय संवेदनाओं से सम्पृक्त मनोभावों की रागात्मक अन्विति महसूसी जा सकती है। इन गीतों में आम जन के सामाजिक परिवेश में होते व्याघातों के साथ करवट बदलती, असहजता के विरोध में स्वर गुँजाती परिवर्तनकामी वैचारिक चेतना यात्रा-तत्र अभिव्यक्त हुई है। संवेदन, चिंतन और अभिव्यक्ति की त्रिवेणी ने 'सच कहूँ तो' को नवगीत-संकलनों में विशिष्ट और अन्यों से अलग स्थान का अधिकारी बनाया है। सामान्यत: रचनाकार के व्यक्तिगत अनुभवों की सघनता और गहराई उसकी अंतश्चेतना में अन्तर्निहित तथा रचना में अभिव्यक्त होती रहती है। वैयक्तिक अनुभूति सार्वजनीन होकर रचना को जन सामान्य की आवाज़ बना देती है। तब कवि का कथ्य पाठक के मन की बात बन जाता है। निर्मल शुक्ल जी के गीतकार का वैशिष्ट्य यही है कि उनकी अभिव्यक्ति उनकी होकर भी सबकी प्रतीत होती है।
सच कहूँ तो / पढ़ चुके हैं
हम किताबों में लिखी / सारी इबारत / अब गुरु जी
शब्द अब तक / आपने जितने पढ़ाये / याद हैं सब
स्मृति में अब भी / तरोताज़ा / पृष्ठ के संवाद हैं अब
सच कहूँ तो / छोड़ आए / हम अँधेरों की बहुत / पीछे इमारत / अब गुरु जी
व्यक्ति और समाज के स्वर में जब आत्मविश्वास भर जाता है तो अँधेरों का पीछे छूटना ही उजाले की अगवानी को संकेतित करता है। नवगीत को नैराश्य, वैषम्य और दर्द का पर्याय बतानेवाले समीक्षकों को आशावादिता का यह स्वर पचे न पचे पाठक में नवचेतना का संचार करने में समर्थ है। राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान विश्ववाणी हिंदी को लेकर शासन-प्रशासन कितने भी उदासीन और कर्तव्यविमुख क्यों न हों निर्मल जी के लिये हिंदी राष्ट्रीयता का पर्याय है-
हिन्द की पहचान हिंदी / शब्दिता की शान हिंदी
सच कहूँ तो / कृत्य की परिकल्पना, अभिव्यंजनाएँ
और उनके बीच भूषित / भाल का है गर्व हिंदी
रूप हिंदी, भूप हिंदी / हर नया प्रारूप हिंदी
सच कहूँ तो / धरणि से / आकाश तक अवधारणाएँ
और उनके बीच / संस्कृत / चेतना गन्धर्व हिंदी
'स्व' से 'सर्व' तक आनुभूतिक सृजन सेतु बनते-बनाते निर्मल जी के नवगीत 'व्हिसिल ब्लोअर' की भूमिका भी निभाते हैं। 'हो सके तो' शीर्षक गीत में भ्रूण-हत्या के विरुद्ध अपनी बात पूरी दमदारी से सामने आती है-
सच कहूँ तो / हर किसी के दर्द को
अपना समझना / हो सके तो
एक पल को मान लेना / हाथ में सीना तुम्हारा
दर्द से छलनी हुआ हो / सांस ले-न-ले दुबारा
सच कहूँ तो / उन क्षणों में, एक छोटी / चूक से
बचना-सम्हलना / हो सके तो
एक पल को, कोख की / हारी-अजन्मी चीख सुनना
और बदनीयत / हवा के / हर कदम पर आँख रखना
अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़े जाने की संभावनाओं, नदी-तालाबों के विनष्ट होने की आशंकाओं को देखते हुए 'नदी से जन्मती हैं' शीर्षक नवगीत में 'नदी से जन्मती है / सच कहूँ तो / आज संस्कृतियाँ', 'प्रवाहों में समाई / सच कहूँ तो / आज विकृतियाँ', तरंगों में बसी हैं / सच कहूँ तो / स्वस्ति आकृतियाँ, सिरा लें, आज चलकर / सच कहूँ तो / हर विसंगतियाँ ' रचनात्मकता का आव्हान है।
निर्मल जी के नवगीत सतयजित राय के चलचित्रों की तरह विसंगतियों और विडंबनाओं की प्रदर्शनी लगाकर आम जन की बेबसी की नीलामी नहीं करते अपितु प्रतिरोध का रचनात्मक स्वर गुँजाते हैं-
चिनगियों से आग / फिर जल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
बादलों की, परत / फिर गल कर रहेगी देख लेना / सच कहूँ तो
तालियाँ तो आज / भी खुलकर बजेंगी देख लेना / सच कहूँ तो
निर्मल जी नवगीत लिखते नहीं गाते हैं। इसलिए उनके नवगीतों में अंत्यानुप्रास तुकबन्दी मात्र नहीं करते, विचारों के बीच सेतु बनाते हैं। उर्दू ग़ज़ल में लम्बे - लम्बे रदीफ़ रखने की परंपरा घट चली है किन्तु निर्मल जी नवगीत के अंतरों में इसे अभिनव साज सज्जा के साथ प्रयोग करते हैं। जल तरंगों के बीच बहते कमल पुष्प की तरह 'फिर नया क्या सिलसिला होगा, देख लेना सच कहूँ तो, अब गुरु जी, फिर नया क्या सिलसिला होगा, आना होगा आज कृष्ण को, यही समय है, धरें कहाँ तक धीर, महानगर है' आदि पंक्त्यांश सरसता में वृद्धि करते हैं।
'सच कहूँ तो' इस संग्रह का शीर्षक मात्र नहीं है अपितु 'तकियाकलाम' की तरह हर नवगीत की जुबान पर बैठा अभिव्यक्ति का वह अंश है तो कथ्य को अधिक ताकत से पाठक - श्रोता तक इस तरह पहुंचाता है की बारम्बार आने के बाद भी बाह्य आवरण की तरह ओढ़ा हुआ नहीं अपितु अंतर्मन की तरह अभिन्न प्रतीत होता है। कहीं - कहीं तो समुच ानवगीत इस 'सच कहूं के इर्द - गिर्द घूमता है। यह अभिनव शैल्पिक प्रयोग कृति की पठनीयता औेर नवगीतों की मननीयत में वृद्धि करता है।
हिंदी साहित्य के महाकवियों और आधुनिक कवियों के सन्दर्भ में एक दोहा प्रसिद्ध है -
सूर सूर तुलसी ससी, उडुगन केसवदास
अब के कवि खद्योत सैम, जँह - तँह करत प्रकास
निर्मल जी इस से सहमत होते हैं, किन्तु शर्मिंदा नहीं होते। वे जुगनू होने में भी अर्थवत्ता तलाश लेते हैं-
हम, संवेदन के जुगनू हैं / हम से / तम भी थर्राता है
पारिस्थितिक विडंबनाओं को उद्घाटित करते नवगीतों में दीनता, विवशता या बेबसी नहीं जूझने और परिवर्तन करने का संकल्प पाठक को दिशा देता है-
तंत्र राज में नाव पुरानी उतराती है
सच कह दूँ तो रोज सभ्यता आँख चुराती है
ऐसे में तो, जी करता है / सारी काया उलट-पुलट दें
दुत्कारें, इस अंधे युग को / मंत्र फूँक, सब पत्थर कर दें
इन नवगीतों का वैशिष्ट्य दे-पीड़ित को हौसला देने और सम्बल बनने का परोक्ष सन्देश अन्तर्निहित कर पाना है। यह सन्देश कहीं भी प्रवचन, उपदेश या भाषण की तरह नहीं है अपितु मीठी गोली में छिपी कड़वी दवाई की तरह ग्राह्य हो गया है-
इसी समय यदि / समय साधने का हम कोई
मंतर पढ़ लें / तो, आगे अच्छे दिन होंगे / यही समय है
सच कह दूँ तो / फिर जीने के / और अनूठे अवसर होंगे
आशाओं से हुआ प्रफुल्लित / जगर-मगर घर में उजियारा
सुख का सागर / समय बाँचकर / समां गया आँगन में सारा
उत्सव होंगे, पर्व मनेगा / रंग-बिरंगे अम्बर होंगे
सच कह दूँ तो / फिर जीने के वासन्ती / संवत्सर हौंगे
संवेदना को वेदना न बनाकर, वेदना के परिहार का हथियार बनाने का कौशल नवगीतों को एक नया तेवर दे सका है। वैषम्य को ही सुधार और परिष्कार का आधार बनाते हुए ये नवगीत निर्माल्य की तरह ग्रहणीय हैं। महाप्राण निराला पर रचा गया नवगीत और उसमें निराला जी की कृतियों के नामों का समावेश निर्मल जी की अभिव्यक्ति सामर्थ्य की बानगी है। नए नवगीतकारों के लिये यह कृति अनुकरणीय है। इस कृति के नवगीतों में कहीं भी आरोपित क्लिष्टता नहीं है, पांडित्य प्रदर्शन का प्रयास नहीं है। सरलता, सरसता और सार्गर्भितता की इस त्रिवेणी में बार-बार अवगाहन करने का मन होता ही इन नवगीतों और नवगीतकार की सफलता है।
***
एक रचना
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे
*
शुष्क मौसम, संदेशे मधुर रस भरे, नेटदूतित मिले मन मगन हो गया
बैठ अमराई में कूक सुन कोकिली, दशहरी आम कच्चा भी मन भा गया
कार्बाइड पके नाम थुकवा रहे, रूप - रस - गंध नकली मगर बिक रहे
तर गये पा तरावट शिकंजी को पी, घोल पाती पुदीना मजा आ गया
काट अमिया, लगा नोन सेंधा - मिरच, चाट-चटखारकर आँख झट मुँद गयी
लीचियों की कसम, फालसे की शपथ, बेल शर्बत लखनवी प्रथम आ गया
जय अमरनाथ की बोल झट पी गये, द्वार निर्मल का फिर खटखटाने लगे
रूह अफ्जा की जयकार कर तृप्ति पा, मधुकरी गीत बिसरा न, याद आ गया
श्याम श्रीवास्तवी मूँछ मिल खीर से, खोजती रह गयी कब सुजाता मिले?
शांत तरबूज पा हो गया मन मुदित, ओज घुल काव्य में हो मनोजी गया
आजा माज़ा मिटा द्वैत अद्वैत वर, रोहिताश्वी न सत्कार तू छोड़ना
मोड़ना न मुख देख खरबूज को, क्या हुआ पानी मुख में अगर आ गया
लाड़ लस्सी से कर आड़ हो या न हो, जूस पी ले मुसम्बी नहीं चूकना
भेंटने का न अवसर कोई चूकना, लू - लपट को पटकनी दे पन्हा गया
बोई हरदोई में मित्रता की कलम, लखनऊ में फलूदा से यारी हुई
आ सके फिर चलाचल 'सलिल' इसलिए, नर्मदा तीर तेरा नगर आ गया
***
[लखनऊ प्रवास- अमरनाथ- कवि, समीक्षक, निर्मल- निर्मल शुक्ल नवगीतकार, संपादक उत्तरायण, मधुकरी मधुकर अष्ठाना नवगीतकार, श्याम श्रीवास्तव कवि, शांत- देवकीनंदन 'शांत' कवि, मनोजी- मनोज श्रीवास्तव कवि, रोहिताश्वी- डॉ. रोहिताश्व अष्ठाना होंदी ग़ज़ल पर प्रथम शोधकर्ता, बाल साहित्यकार हरदोई]
३०-५-२०१६
***
मुक्तक:
तेरी नजरों ने बरबस जो देखा मुझे, दिल में जाकर न खंजर वो फिर आ सका
मेरी नज़रों ने सीरत जो देखी तेरी, दिल को चेहरा न कोई कभी भा सका
तेरी सुनकर सदा मौन है हर दिशा, तेरी दिलकश अदा से सवेरा हुआ
तेरे नखरों से पुरनम हुई है हवा, तेरे सुर में न कोइ कभी गा सका
*
***
दोहा सलिला:
*
अपने दिन फुटपाथ हैं, प्लेटफोर्म हैं रात
तुम बिन होता ही नहीं, उजला 'सलिल' प्रभात
*
भँवरे की अनुगूँज को, सुनता है उद्यान
शर्त न थककर मौन हो, लाती रात विहान
*
धूप जलाती है बदन, धूल रही हैं ढांक
सलिल-चाँदनी साथ मिल, करते निर्मल-पाक
*
जाकर आना मोद दे, आकर जाना शोक
होनी होकर ही रहे, पूरक तम-आलोक
*
अब नालंदा अभय हो, ज्ञान-रश्मि हो खूब
'सलिल' मिटा अज्ञान निज, सके सत्य में डूब
***
द्विपदी सलिला :
*
कंकर-कंकर में शंकर हैं, शिला-शिला में शालिग्राम
नीर-क्षीर में उमा-रमा हैं, कर-सर मिलकर हुए प्रणाम
*
दूल्हा है कौन इतना ही अब तक पता नहीं
यादों की है हसीन सी बारात दोस्ती
*
जिसकी आँखें भर आती हैं उसके मन में गंगा जल है
नेह-नर्मदा वहीं प्रवाहित पोर-पोर उसका शतदल है
*
***
हाइकु का रंग पलाश के संग
*
करे तलाश
अरमानों की लाश
लाल पलाश
*
है लाल-पीला
देखकर अन्याय
टेसू निरुपाय
*
दीन न हीन
हमेशा रहे तीन
ढाक के पात
*
आप ही आप
सहे दुःख-संताप
टेसू निष्पाप
*
देख दुर्दशा
पलाश हुआ लाल
प्रिय नदी की
*
उषा की प्रीत
पलाश में बिम्बित
संध्या का रंग
*
फूल त्रिनेत्र
त्रिदल से पूजित
ढाक शिवाला
*
पर्ण है पन्त
तना दिखे प्रसाद
पुष्प निराला
*
मनुजता को
पत्र-पुष्प अर्पित
करे पलाश
*
होली का रंग
पंगत की पत्तल
हाथ का दौना
*
पहरेदार
विरागी तपस्वी या
प्रेमी उदास
३०-५-२०१५
***
चौपाल-चर्चा:
भारत में सावन में महिलाओं के मायके जाने की रीत है. क्यों न गृह स्वामिनी के जिला बदर के स्थान पर दामाद के ससुराल जाने की रीत हो. इसके अनेक फायदे हो सकते हैं. आप क्या सोचते हैं?
१. बीबी की तानाशाही से त्रस्त मानुष सेवक के स्थान पर अतिथि होने का सुख पा सकेगा याने नवाज़ शरीफ भारत में।
२. आधी घरवाली और सरहज के प्रभाव से बचने के लिये बेचारे पत्नी पीड़ित पति को घर पर भी कुछ संरक्षण मिलेगा याने बीजेपी के सहयोगी दलों को भी मंत्री पद।
३. निठल्ले और निखट्टू की विशेषणों से नवाज़े गये साथी की वास्तविक कीमत पता चल सकेगी याने जसोदा बेन प्रधान मंत्री निवास में।
४. खरीददारी के बाद थैले खुद उठाकर लाने से स्वस्थ्य होगी तो डॉक्टर और दवाई का खर्च आधा होने से वैसी ही ख़ुशी मिलेगी जैसी आडवाणी जो मोदी द्वारा चरण स्पर्श से होती है।
५. पति के न लौटने तक पली आशंका लौटते ही समाप्त हो जाएगी तो दांपत्य में माधुर्य बढ़ेगा याने सरकार और संघ में तालमेल।
६. जीजू की जेब काटकर साली तो खुश होगी ही, जेब कटाकर जीजू प्रसन्न नज़र आयेंगे अर्थात लूटनेवाले और लूटनेवाले दोनों खुश, और क्या चाहिए? इससे अंतर्राष्ट्रीय सद्भाव बढ़ेगा ही याने घर-घर सुषमा स्वराज्य.
७. मौज कर लौटे पति की परेड कराने के लिए पत्नी को योजना बनाने का मौका याने संसाधन मंत्रालय मिल सकेगा. कौन महिला स्मृति ईरानी सा महत्त्व नहीं चाहेगी?
कहिए, क्या राय है?
३०-५-२०१४
***
तांका: एक परिचय
*
पंचपदी लालित्यमय, तांका शाब्दिक छन्द,
बंधन गण पदभार तुक, बिन रचिए स्वच्छंद।
प्रथम तीसरी पंक्तियाँ, पंचशब्दी मकरंद।।
शेष सात शब्दी रखें, गति-यति रहे न मंद।
जापानी हिंदी जुड़ें, दें पायें आनंद।।
*
जापान की प्राचीनतम क्लासिकल काव्य-विधा तांका ५ पंक्तियों की कविता है जिसमे पहली और तीसरी पंक्ति में पाँच शब्द तथा शेष पंक्तियों में सात शब्द होते हैं! इसके विषय प्रकृति, मौसम, प्रेम, उदासी आदि होते हैं!
उदाहरण :
निरंतर निनादित धवल धार अनुपम,
निरखो न परखो न सँकुचो न ठिठको
कहती टिटहरी प्रकृति पुत्र! आओ
झिझको न, टेरो मन-मीत को तुम
छप-छप-छपाक, नीर नद में नहाओ
*
बन्धन भुलाकर करो मुक्त खुदको
अंजुरी में जल भर, रवि को चढ़ाओ
मस्तक झुकाओ, भजन भी सुनाओ
माथे पे चन्दन, जिव्हा पर हरि-गुण
दिखा भोग प्रभु को, भर पेट खाओ
३०-५-२०१३
***
मुक्तिका :
भंग हुआ हर सपना
*
भंग हुआ हर सपना,
टूट गया हर नपना.
माया जाल में उलझे
भूले माला जपना..
तम में साथ न कोई
किसे कहें हम अपना?
पिंगल-छंद न जाने
किन्तु चाहते छपना..
बर्तन बनने खातिर
पड़ता माटी को तपना..
***
घनाक्षरी / मनहरण कवित्त
... झटपट करिए
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो,
काम जो भी करना हो, झटपट करिए.
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं,
मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए.
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें,
खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए-
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें,
'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये.
छंद विधान: वर्णिक छंद, आठ चरण,
८-८-८-७ पर यति, चरणान्त लघु-गुरु.
३०-५-२०११
***
मुक्तिका
.....डरे रहे.
*
हम डरे-डरे रहे.
तुम हरे-भरे रहे.
दूरियों को दूर कर
निडर हुए, खरे रहे.
हौसलों के वृक्ष पा
जल मगन हरे रहे.
रिक्त हुए जोड़कर
बाँटकर भरे रहे.
नष्ट हुए व्यर्थ वे
जो महज धरे रहे.
निज हितों में लीन जो
लें समझ मरे रहे.
सार्थक हैं वे 'सलिल'
जो फले-झरे रहे.
***
: मुक्तिका :
मन का इकतारा
*
मन का इकतारा तुम ही तुम कहता है.
जैसे नेह नर्मदा में जल बहता है..
*
सब में रब या रब में सब को जब देखा.
देश धर्म भाषा का अंतर ढहता है..
*
जिसको कोई गैर न कोई अपना है.
हँस सबको वह, उसको सब जग सहता है..
*
मेरा बैरी मुझे कहाँ बाहर मिलता?
देख रहा हूँ मेरे भीतर रहता है..
*
जिसने जोड़ा वह तो खाली हाथ गया.
जिसने बाँटा वह ही थोड़ा गहता है..
*
जिसको पाया सुख की करते पहुनाई.
उसको देखा बैठ अकेले दहता है..
*
सच का सूत न समय कात पाया लेकिन
सच की चादर 'सलिल' कबीरा तहता है.
***

बुधवार, 26 मार्च 2025

मार्च २६, सॉनेट, राम, हाइकु गीत, यीट्स, अरविन्द घोष, पलाश, चित्र अलंकार, भोजपुरी, दोहे, गीत, मिर्गी

सलिल सृजन मार्च २६
० 
पूर्णिका 
.
न्यायमूर्ति धृतराष्ट्र हो रहे
अन्यायों की फसल बो रहे
.
अनाचार के, दुराचार के
बने पक्षधर लाज खो रहे
.
बोरे भरकर नोट जलाएँ
कालिख के पर्याय हो रहे
.
वसन फाड़, अंगों को छूना
गलत न कहकर, पाप ढो रहे
.
खुद अपने मुख कालिख मलकर
गटर-गंद में नहा धो रहे
.
काला मन, कपड़े भी काले
ओढ़-बिछा अन्याय सो रहे
.
दु:शासन को कहें सुशासन
न्याय देवता 'सलिल' रो रहे
२६.३.२०२५
०००
पर्पल डे (मिर्गी/एपिलेप्सी दिवस)
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार लगभग ५ करोड़ लोग मिर्गी से पीड़ित हैं। इनमें ८०% से अधिक माध्यम या निम्न आय वर्ग से हैं। मिर्गी रोग के प्रति जन-जाग्रति बढ़ाने के लिए २६ मार्च को मिर्गी दिवस  पर बैगनी (पर्पल) रंग के वस्त्र पहने जाते हैं. यह बीमारी लैवेंजर के फूल से प्रेरित और अकेलेपन को दर्शाती है। इसकी शुरुआत साल २००८ में एक ९ साल की मिर्गी रोगी बच्ची कैसिडी मेगन ने की थी। मिर्गी एक गंभीर न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर है। दिमाग से जुड़ीइस  गंभीर बीमारी में सेल्स ठीक से काम नहीं करते, दौरे पड़ते हैं। यह दिमाग को कमजोर कर देती है। WHO के अनुसार दुनिया में लगभग ५ करोड़ लोग मिर्गी रोग से पीड़ित हैं। इसका खतरा सभी उम्र के लोगों में होता है। सामान्यत: इसका इलाज संभव नहीं है।  मिर्गी आने पर शरीर में दर्द, अकड़न, मरोड़, कंपकंपाहट डर या घबराहट और बेहोशी होने लगती है। स्ट्रोक, ब्रेन स्ट्रोक, सिर पर चोट लगना, ड्रग्स या एल्कोहल सेवन, ब्रेन इंफेक्शन आदि मिर्गी का कारण हो सकते हैं। 
*
सॉनेट
राम
*
मुझ में राम, तुझ में राम,
जिस में राम न, कहीं नहीं,
कण में राम, क्षण में राम,
रहते राम न कहाँ नहीं।
राम सुनाम; नहीं अनाम,
दस दिश धाम; न रमें कहीं,
हैं अविराम; राम अकाम,
भक्ति भावना अगिन तहीं।
पल में लगते राम अजान,
पूर्व मान्यता कई ढहीं,
पल में लगते राम सुजान,
बहुत कथाएँ गईं कहीं।
नयन मूँद ले कर दर्शन,
होगा तभी कृपा-वर्षण।
२६.३.२०२४
***
हाइकु गीत
मनमोहक
*
मन की बात
कहूँ मनमोहक
चुप सुनना।।
*
कोई न होना,
कभी असहमत,
दंड मिलेगा।
नाम लिवौआ,
तक न सलामत,
एक रहेगा।
दो दूनी हम,
तीन-पाँच कहते,
तुम कहना।
मन की बात
कहूँ मनमोहक
चुप सुनना।।
*
हमें विरोध,
न तनिक सुहाता,
सहमत हो।
अगर नहीं,
कालिख मल देंगे,
रहम न हो।
कुर्सी पा हम,
मनमानी करते,
चुप सहना।
मन की बात
कहूँ मनमोहक
चुप सुनना।।
*
बदलें हम,
इतिहास हार को,
जय लिख लें।
बदलें नाम,
अकाम काम हर,
तय लिख लें।
हैं भगवान,
भक्त सब कहते,
तुम कहना।
मन की बात
कहूँ मनमोहक
चुप सुनना।
***
काव्यानुवाद विलियम बटलर यीट्स की कविताओं का
३. लबादा, नाव और जूते
'बनाते क्या कहो सुंदर और आभामय?'
'मैं बनाता लबादा दुःख का :
भला लगे देखना नज़रों में
बसा हुआ है लबादा दुःख का,
सब मनुष्यों की नज़र में'।
'बनाते किससे हो पाल भर सको उड़ान?'
'मैं बनाता नाव दुःख के लिए:
सिंधु पर गतिमान निशि-दिन
पार करे यायावर दुःख को
पूरे दिन अरु रात।'
'बुन रहे क्या इस कपासी ऊन से?'
'मैं बुनता हूँ पादुका दुःख की:
ध्वनि बिना हल्की रहे पदचाप
मनुष्यों के दुखित कानों में'
अचानक अरु बहुत हल्की।'
२६-३-२०२२
***
3. The Cloak, The Boat And The Shoes
'What do you make so fair and bright?'
'I make the cloak of Sorrow:
O lovely to see in all men's sight
Shall be the cloak of Sorrow,
In all men's sight.'
'What do you build with sails for flight?'
'I build a boat for Sorrow:
O swift on the seas all day and night
Saileth the rover Sorrow,
All day and night.'
What do you weave with wool so white?'
'I weave the shoes of Sorrow:
Soundless shall be the footfall light
In all men's ears of Sorrow,
Sudden and light.'
***
४. सलिल-द्वीप में
छुईमुई वह, छुईमुई वह,
छुईमुई मनबसिया मेरी,
आती है वह धुंधलके में
अलग-थलग हो लुकती-छिपती।
वह रकाबियों में लाती है
और सीध में रख जाती है
एक द्वीप में सलिल बीच मैं
उसके साथ बसूँ जाकर।
वह आती ले मोमबत्तियाँ
दमकाती कमरा परदामय
शरमाती है बीच डगर में
हो उदास शरमाती है;
छुईमुई खरगोश सरीखी,
नेक और शर्मीली है.
एक द्वीप में सलिल बीच, उड़
उसके साथ बसूँ जाकर।
२६-३-२०२२
***
4. To an Isle in the Water
Shy one, shy one,
Shy one of my heart,
She moves in the firelight
Pensively apart.
She carries in the dishes,
And lays them in a row.
To an isle in the water
With her would I go.
She carries in the candles,
And lights the curtained room,
Shy in the doorway
And shy in the gloom;
And shy as a rabbit,
Helpful and shy.
To an isle in the water
With her would I fly.
२६-३-२०२२
*
५. मछली
यद्यपि तुम छिप जाती हो भाटे-बहाव में
पीत ज्वार में, ढल जाता जब आप चंद्रमा,
आनेवाले कल के सभी लोग जानेंगे
मेरे जाल से भाग निकलने के बारे में,
समझ न पाएँगे कैसे तुम लाँघ सकीं थीं
नन्हीं रजत डोरियों पर से,
वे सोचेंगे तुम कठोर थीं; निर्दय भी थीं
देंगे तुम्हें दोष, वे कड़वे शब्द कहेंगे।
२६-३-२०२२
*
5. The Fish
Although you hide in the ebb and flow
Of the pale tide when the moon has set,
The people of coming days will know
About the casting out of my net,
And how you have leaped times out of mind
Over the little silver cords,
And think that you were hard and unkind,
And blame you with many bitter words.
२६-३-२०२२
***
अरविन्द घोष
श्री अरबिंदो का जीवन युवाकाल से ही उतार चढ़ाव से भरा रहा है। बंगाल विभाजन के बाद श्री अरबिंदो शिक्षा छोड़ कर स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारी के रूप में लग गए। कुछ सालों बाद वह कलकत्ता छोड़ पॉन्डिचेरी बस गए जहाँ उन्होंने एक आश्रम का निर्माण किया। जिसका नेतृत्व मीरा अल्फासा से अपने मृत्यु २४ नवम्बर १९२६ तक किया जिन्हे माँ के नाम से पुकारा जाता था। श्री अरबिंदो का जीवन वेद ,उपनिषद और ग्रंथों को पढ़ने और उनके अभ्यास करने में गुजरा। श्री अरबिंदो ने क्रांतिकारी जीवन त्याग शारीरिक,मानसिक और आत्मिक द्रिष्टी से योग पर अभ्यास किया और दिव्य शक्ति को प्राप्त किया। श्री अरबिंदो का शैक्षिक जीवन भी रहा है जब वे बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में उपप्रधानाचार्य रह चुके थे। श्री अरबिंदो ने अपनी प्रार्थना में यह माँगा कि – “मैं तो केवल ऐसी शक्ति माँगता हूँ जिससे इस राष्ट्र का उत्थान कर सकूँ, केवल यही चाहता हूँ कि मुझे उन लोगों के लिये जीवित रहने और काम करने दिया जाये जिन्हें मैं प्यार करता हूँ तथा जिनके लिए मेरी प्रार्थना है कि मैं अपना जीवन लगा सकूँ|” उनके अनुसार समग्र योग का लक्ष्य है आध्यात्मिक सिद्धि और अनुभव प्राप्त करना साथ ही साथ सारी सामाजिक समस्यायों से छुटकारा पाना। राष्ट्रीयता एक आध्यात्मिक बल है जो सदैव विद्यमान रहती है और इसमें किसी प्रकार का कोलाहल नहीं होता। श्री अरबिंदो के अनुसार जीवन एक अखंड प्रक्रिया है क्यूंकि यही एक माध्यम है जिससे मानव जाति सम्पूर्ण रूप से सत्य और चेतना का अभ्यास कर दिव्य शक्ति को प्राप्त कर सकते हैं।
अरबिंद कृष्णधन घोष या श्री अरबिंदो एक महान योगी और गुरु होने के साथ साथ गुरु और दार्शनिक भी थे। ईनका जन्म १५ अगस्त १८७२ को कलकत्ता पश्चिम बंगाल में हुआ था। युवा-अवस्था में ही इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में क्रांतिकारियों के साथ देश की आज़ादी में हिस्सा लिया। समय ढलते ये योगी बन गए और इन्होंने पांडिचेरी में खुद का एक आश्रम स्थापित किया। वेद, उपनिषद तथा ग्रंथों का पूर्ण ज्ञान होने के कारण इन्होंने योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। श्री अरबिंदो के जीवन का सही प्रभाव विश्वभर के दर्शन शास्त्र पर पड़ रहा है। अलीपुर सेंट्रल जेल से मुक्त होने के बाद श्री अरबिंदो का जीवन ज्यादातर योग और ध्यान में गुजरा।
श्री अरबिंदो के पिता कृष्णधुन घोष और माँ स्वर्णलता और भाई बारीन्द्र कुमार घोष तथा मनमोहन घोष थे। उनके पिताजी बंगाल के रंगपुर में सहायक सर्जन थे और उन्हें अंग्रेजों की संस्कृति काफी प्रभावित करती थी इसलिए उन्होंने उनके बच्चो को इंग्लिश स्कूल में डाल दिया था। वे चाहते थे कि उनके बच्चे क्रिश्चियन धर्म के बारे में भी बहुत कुछ जान सकें। घोष चाहते थे कि वे उच्च शिक्षा ग्रहण कर उच्च सरकारी पद प्राप्त करें। जब अरविंद घोष पाँच साल के थे, तो उन्हें पढ़ने के लिए दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेंट स्कूल में भेजा गया। यह अंग्रेज सरकार के संस्कृति का मुख्य केंद्र माना जाता था। तत्पश्चात उन्होंने ७ वर्ष की अल्पायु में ही श्री अरबिंदो को पढ़ने इंग्लैंड भेज दिया। इंग्लैंड में अरबिन्दों घोष ने अपनी पढाई की शुरुवात सैंट पौल्स स्कूल (1884) से की और छात्रवृत्ति मिलने के बाद में उन्होंने कैम्ब्रिज के किंग्स कॉलेज (१८९०) में पढाई पूरी की। १८ वर्ष के होते ही श्री अरबिंदो ने ICS की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली। १८ साल की आयु में इन्हें कैंब्रिज में प्रवेश मिल गया। अरविंद घोष ना केवल आध्यात्मिक प्रकृति के धनी थे बल्कि उनकी उच्च साहित्यिक क्षमता उनके माँ की शैली की थी। इसके साथ ही साथ उन्हें अंग्रेज़ी, फ्रेंच, ग्रीक, जर्मन और इटालियन जैसे कई भाषाओं में निपुणता थी। सभी परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भी वे घुड़सवारी के परीक्षा में विफल रहे जिसके कारण उन्हें भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश नहीं मिला।
सन् १८९३ में श्री अरबिंदो भारत लौट आए और बड़ौदा के एक राजकीय विद्यालय में ७५० रुपये वेतन पर उपप्रधानाचार्य नियुक्त किए गए। बड़ौदा के राजा द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया। १८९३ से १९०६ तक उन्होंने संस्कृत, बंगाली साहित्य, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान का विस्तार से अध्ययन किया। स्वदेश आने पर उनके विचारों से प्रभावित होकर गायकवाड़ नरेश ने उन्हें बड़ौदा में अपनी निजी सचिव के पद पर नियुक्त किया। यहीं से वे कोलकाता आए और फिर महर्षि अरविंद आजादी के आंदोलन में कूद पड़े। अरबिन्दो घोष के परदादा ब्राह्मो समाज जैसी धार्मिक सुधारना आन्दोलन में काफी सक्रिय रहते थे। उनसे प्रेरित होकर ही अरबिन्दो घोष सामाजिक सुधारना लाना चाहते थे। २८ साल की उम्र में साल१९०१ में अरबिन्दों घोष ने भूपाल चन्द्र बोस की लड़की मृणालिनी से विवाह किया था। लेकिन दिसंबर १९१८ में इन्फ्लुएंजा के संक्रमण से मृणालिनी की मृत्यु हो गयी थी।
उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेंद्रनाथ टैगोर जैसी क्रांतिकारियों से मिलवाया। कुछ सालों तक भारत में रहने के बाद में अरबिन्दो घोष को एहसास हुआ कि अंग्रेजों ने भारतीय संस्कृति को नष्ट करने की कोशिश की है और इसलिए धीरे धीरे वह राजनीति में रुचि लेने लगे थे। उन्होंने शुरू से ही भारत के लिए पूर्ण स्वतंत्रता की मांग पर जोर दिया था। इसके बाद वे १९०२ में अहमदाबाद के कांग्रेस सत्र में बाल गंगाधर तिलक से मिले और बाल गंगाधर से प्रभावित होकर स्वतंत्रता संघर्ष से जुड़ गए। वर्ष १९०६ में बंग-भग आंदोलन के दौरान महर्षि ने बड़ौदा से कलकत्ता की तरफ कदम बढ़ाए और इसी दौरान उन्होंने अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
नौकरी छोड़ने के बाद उन्होंने 'वंदे मातरम्' साप्ताहिक के सहसंपादन के रूप से अपना काम प्रारंभ किया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार के अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करते हुए जोरदार आलोचना की। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लिखने पर उन पर मुकदमा दर्ज किया गया, लेकिन वे छूट गए। १९०५ में हुए बंगाल बिभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से इनका नाम जोड़ा गया। १९०५ मे व्हाईसरॉय लॉर्ड कर्झन ने बंगाल का विभाजन किया। पूारे देश मे बंगाल के विभाजन के खिलाफ आंदोलन शुरु हुए। पूरा राष्ट्र इस विभाजन के खिलाफ उठ खडा हुआ। ऐसे समय में अरबिंद जैसे क्रांतिकारक का चैन से बैठना नामुमकिन था। बंगाल का विभाजन होने के बाद वह सन १९०६ में कोलकाता आ गए थे। ऊपर से अरबिन्दो घोष असहकार और शांत तरीके से अंग्रेज सरकार का विरोध करते थे, लेकिन अंदर से वे क्रांतिकारी संघटना के साथ काम करते थे। बंगाल के अरबिंदो घोष कई क्रांतिकारियों के साथ में रहते थे और उन्होंने ही बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर को प्रेरित किया था।१९०६ में बंगाल विभाजन के बाद श्री अरबिंदो ने इस्तीफा दे दिया और देश की आज़ादी के लिए आंदोलनों में सक्रिय होने लगे।
साथ ही कई सारी समितियों की स्थापना की थी जिसमें अनुशीलन समिति भी शामिल है। साल १९०६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भी उन्होंने हिस्सा लिया था, दादाभाई नौरोजी इस अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के चार मुख्य उद्देश्यों- स्वराज, स्वदेश, बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा की पूर्ति के लिए काम किया था। उन्होंने सन १९०७ में ‘वन्दे मातरम’ अखबार निकाला।सरकार के अन्याय पर ‘वंदे मातरम्’ मे सें उन्होंने जोरदार आलोचना की। ‘वंदे मातरम्’ मे ब्रिटिश के खिलाफ लिखने की वजह से उनके उपर मामला दर्ज किया गया लेकीन वो छुट गए। सन १९०७ में कांग्रेस मध्यम और चरमपंथी ऐसे दो गुटों में बट चूका थे। अरविन्द घोष चरमपंथी गुटों में शामिल थे और वह बाल गंगाधर तिलक का समर्थन करते थे। उसके बाद मे अरविन्द घोष पुणे, बरोदा बॉम्बे गए और वहापर उन्होंने राष्ट्रीय आन्दोलन के लिए बहुत काम किया।
१९०८ मे खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी इन अनुशीलन समिति के दो युवकोंने किंग्जफोर्ड इस जुलमी जज को मार डालने की योजना बनाई। पर उसमे वो नाकाम रहे। खुदीराम बोस पुलिस के हाथों लगे। उन्हें फांसी दी गयी। पुलिस ने अनुशीलन समिति के सदस्यों को पकड़ना शुरु किया। अरविंद घोष को भी गिरफ्तार किया गया। १९०८-०९ में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला। अलीपुर बम केस श्री अरबिंदो के जीवन का अहम हिस्सा था। एक साल के लिए उन्हें अलीपुर सेंट्रल जेल के सेल में रखा गया जहाँ उन्होंने एक सपना देखा कि भगवान ने उन्हें एक दिव्य मिशन पर जाने का उपदेश दिया। इसके बाद कहा जाता है कि उन्हें अलीपुर जेल में ही भगावन कृष्ण के दर्शन हुए। यहाँ से उनका जीवन पूरी तरह बदला और वे साधना और तप करते, गीता पढ़ते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना करते। वह अपनी अवधि से जल्दी बरी हो गए थे। स्वतंत्रता संग्राम में प्रमुख भूमिका निभाने के साथ साथ उन्होनें अंग्रेज़ी दैनिक ‘वंदे मातरम’ पत्रिका का प्रकाशन किया और निर्भय होकर लेख लिखें।
रिहाई के बाद उन्होंने कई ध्यान किए और उनपर निरंतर अभ्यास करते रहें। सन् १९१० में श्री अरबिंदो कलकत्ता छोड़कर पांडिचेरी बस गए। वहाँ उन्होंने एक संस्था बनाई और एक आश्रम का निर्माण किया। जब वे जेल से बाहर आए, तो आंदोलन से नहीं जुड़े और १९१० में पुड्डचेरी चले गए और यहाँ उन्होंने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त कर काशवाहिनी नामक रचना की। १९२६ में अपनी आध्यात्मिक सहचरी मिर्रा अल्फस्सा (माता) की मदद से श्री अरबिन्दो आश्रम की स्थापना की।महर्षि अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उन्होंने योग साधना पर कई मौलिक ग्रंथ लिखे। सन् १९१४ में श्री अरबिंदो ने आर्य नामक दार्शनिक मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। अगले ६ सालों में उन्होंने कई महत्वपूर्ण रचनाएँ की। कई शास्त्रों और वेदों का ज्ञान उन्होंने जेल में ही प्रारंभ कर दी थी। सन् १९२६ में श्री अरबिंदो सार्वजनिक जीवन में लीन हो गए।
द रेनेसां इन इंडिया – The Renesan in India, वार एंड सेल्फ डिटरमिनेसन – War and Self Determination, द ह्यूमन साइकिल – The Human Cycle, द आइडियल ऑफ़ ह्यूमन यूनिटी – The Ideal of Human Unity तथा द फ्यूचर पोएट्री – The Future Poetry, दिव्य जीवन, द मदर, लेटर्स आन् योगा, सावित्री, योग समन्वय, महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। कविता को समृद्ध बनाने में उन्होंने १९३० के दौरान महान योगदान दिया है। उन्होंने “सावित्री” नाम की एक बड़ी २४००० पंक्तियों की कविता लिखी है और उनकी यह कविता अध्यात्म पर आधारित है। इन सब के साथ-साथ वे दर्शनशास्त्री, कवि, अनुवादक और वेद, उपनिषद और भगवत् गीता पर लिखने का भी काम करते थे।अरबिन्दो घोष को कविता, अध्यात्म और तत्त्वज्ञान में जो योगदान दिया उसके लिए उन्हें नोबेल का साहित्य पुरस्कार(१९४३) और नोबेल का शांति पुरस्कार(१९५०) के लिए भी नामित किया गया था।
५ दिसंबर, १९५० को श्री अरबिन्दो घोष की मृत्यु हो गयी थी। निधन के चार दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बनी रही, जिसकी वजह से उनका अतिम संस्कार नहीं किया गया और ९ दिसंबर १९५० को उन्हें आश्रम में ही समाधि दी गई।
सॉनेट
निष्णात
*
आइए! निष्णात हों हम।
अहर्निश कर लें परिश्रम।
टिक न पाए तनिक भी तम।।
भले झरते पात हों हम।।
हो ख़ुशी या साथ हो गम।
हारना हिम्मत नहीं है।
दूर हमसे प्रभु नहीं है।।
छाँव हो या धूप, हो सम।।
कुछ अधिक या कुछ मिले कम।
बाँट लेंगे साथ मिल हम।
ऑंख कोई भी न हो नम।।
भय न हमको है तनिक यम।
ठोंकते भी हम नहीं खम।
गले मिल लें आओ हमदम।।
***
सॉनेट
पलाश
रेवा तट पर तप रत योगी
चट्टानों पर अचल पलाश
लाल नेत्र कहते जग भोगी
नित विराग यह रहा तलाश
गिरि वन नदी मिटाता रोगी
मानव करता खुद का नाश
अन्य न इसके जैसा ढोंगी
खुद को खुदी सुधारे काश
हुई, हो रही, दुर्गति होगी
नोचें गीदड़-गीध न लाश
मनु का मनु से युद्ध हुआ तो
बिखरेंगे घर जैसे ताश
क्रुद्ध बहुत पर है न हताश।
बुद्ध खोजता नित्य पलाश।।
२६-३-२०२२
***
मुक्तिका
*
सुधियाँ तुम्हारी जब तहें
अमृत-कलश तब हम गहें
श्रम दीप मंज़िल ज्योति हो
कोशिश शलभ हम मत दहें
बन स्नेह सलिला बिन रुके
नफरत मिटा बहते रहें
लें चूम सुमुखि कपोल जब
संयम किले पल में ढहें
कर काम सब निष्काम हम
गीता न कहकर भी कहें
***
गीत
*
डरो नें कोरोना से गुइयाँ,
जा जमराज-डिठौना
अनाचार जो मानुस कर रै
दुराचार कर के बे मर रै
भार तनक घट रऔ धरती को
संग गहूँ के घुन सोइ पिस रै
भोग-रोग सें ग्रस्त करा रय
असमय अंतिम गौना
खरे बोल सुन खरे रओ रे!
परबत पै भी हरे रओ रे!
झूठी बात नें तनक बनाओ
अनुसासित रै जीबन पाओ
तन-मन ऊँसई साफ करो रे
जैसें करत भगौना
घर में घरकर रओ खुसी सें
एक-दूजे को सओ खुसी सें
गोड़-हांत-मूँ जब-तब धोओ
राम-राम कै, डटकर सोओ
बाकी काम सबई निबटा लो
करो नें अद्धा-पौना
***
मुक्तिका
*
अर्णव-अरुण का सम्मिलन
जिस पल हुआ वह खास है
श्री वास्तव में है वहीं
जहँ हर हृदय में हुलास है
श्रद्धा जगत जननी उमा
शंकारि शिव विश्वास है
सद्भाव सलिला है सुखद
मालिन्य बस संत्रास है
मिल गैर से गंभीर रह
अपनत्व में परिहास है
मिथिलेश तन नृप हो भले
मन जनक तो वनवास है
मीरा मनन राधा जतन
कान्हा सुकर्म प्रयास है
२६-३-२०२०
***
भोजपुरी दोहे:
नेह-छोह रखाब सदा
*
नेह-छोह राखब सदा, आपन मन के जोश.
सत्ता का बल पाइ त, 'सलिल; न छाँड़ब होश..
*
कइसे बिसरब नियति के, मन में लगल कचोट.
खरे-खरे पीछे रहल, आगे आइल खोट..
*
जीए के सहरा गइल, आरच्छन के हाथ.
अनदेखी काबलियत कs, लख-हरि पीटल माथ..
*
आस बन गइल सांस के, हाथ न पड़ल नकेल.
खाली बतिय जरत बा, बाकी बचल न तेल..
*
दामन दोस्तन से बचा, दुसमन से मत भाग.
नहीं पराया आपना, मुला लगावल आग..
*
प्रेम बाग़ लहलहा के, क्षेम सबहिं के माँग.
सुरज सबहिं बर धूप दे, मुर्गा सब के बाँग..
*
शीशा के जेकर मकां, ऊहै पाथर फेंक.
अपने घर खुद बार के, हाथ काय बर सेंक?.
२६-३-२०१८
***
विधा विविधा:
हाइकु:
(त्रिपदिक वाचिक जापानी छंद ५-७-५ ध्वनि)
.
गुलाब खिले
तुम्हारे गालों पर
निगाह मिले.
*
माहिया:
(त्रिपदिक मात्रिक पंजाबी छंद, १३-१०-१३ मात्रा)
.
मत माँगने मत आना
जुमला वादों को
कह चाहते बिसराना.
*
क्षणिका:
( नियम मुक्त)
.
मन-पंछी
उड़ा नीलाभ नभ में
सिंदूरी प्राची से आँख मिलाने,
झटपट भागा
सूरज ने आँख तरेरी
लगा धरती को जलाने.
***
चित्र अलंकार: समकोण त्रिभुज
(वर्ण पिरामिड: ७ पंक्ति, वर्ण क्रमश: १ से ७)
मैं
भीरु
कायर
डरपोंक,
हूँ भयभीत
वर्ण पिरामिड
लिखना नहीं आता.
*
हो
तुम
साहसी
पराक्रमी
बहादुर भी
मुझ असाहसी
को झेलते रहे हो.
२५.३.२०१८
***
हास्य सलिला:
उमर क़ैद
*
नोटिस पाकर कचहरी पहुँचे चुप दम साध.
जज बोलीं: 'दिल चुराया, है चोरी अपराध..'
हाथ जोड़ उत्तर दिया, 'क्षमा करें सरकार!.
दिल देकर ही दिल लिया, किया महज व्यापार..'
'बेजा कब्जा कर बसे, दिल में छीना चैन.
रात स्वप्न में आ किया, बरबस कर बेचैन..
लाख़ करो इनकार तुम, हम मानें इकरार.
करो जुर्म स्वीकार- अब, बंद करो तकरार..'
'देख अदा लत लग गयी, किया न कोई गुनाह.
बैठ अदालत में भरें, हम दिल थामे आह..'
'नहीं जमानत मिलेगी, सात पड़ेंगे फंद.
उम्र क़ैद की अमानत, मिली- बोलती बंद..
***
कुण्डलिया
सरिता शर्माती नहीं, हरे जगत की प्यास
बिन सरिता कैसे मिटे, असह्य तृषा का त्रास
असह्य तृषा का त्रास, हरे सरिता बिन बोले
वंदन-निंदा कुछ करिये, चुप रहे न तोले
'सलिल' साक्षी है, युग-प्राण बचाती भरिता
हरे जगत की प्यास नहीं शर्माती सरिता
*
देह दुर्ग में विराजित, दुर्ग-ईश्वरी आत्म
तुम बिन कैसे अवतरित, हो भू पर परमात्म?
हो भू पर परमात्म, दुर्ग है तन का बन्धन
मन का बन्धन टूटे तो, मन करता क्रंदन
जाति वंश परिवार, हैं सुदृढ़ दुर्ग सदेह
रिश्ते-नातों अदिख, हैं दुर्ग घेरते देह
२६-३-२०१७
***
पुस्तक सलिला-
ज़ख्म - स्त्री विमर्श की लघुकथाएँ
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक विवरण- ज़ख्म, लघुकथा संग्रह, विद्या लाल, वर्ष २०१६, पृष्ठ ८८, मूल्य ७०/-, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, बोधि प्रकाशन ऍफ़ ७७, सेक़्टर ९, मार्ग ११, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, ०१४१ २५०३९८९, bodhiprakashan@gmail.com, रचनाकार संपर्क द्वारा श्री मिथलेश कुमार, अशोक नगर मार्ग १ ऍफ़, अशोक नगर, पटना २०, चलभाष ०९१६२६१९६३६]
*
वैदिक काल से भारतीय संस्कृति सनातनता की पोषक रही है। साहित्य सनातन मूल्यों का सृजक और रक्षक की भूमिका में सत्य-शिव-सुन्दर को लक्षित कर रचा जाता रहा। विधा का 'साहित्य' नामकरण ही 'हित सहित' का पर्याय है. हित किसी एक का नहीं, समष्टि का। 'सत्यं ज्ञानं अनंतं ब्रम्ह' सत्य और ज्ञान ब्रम्ह की तरह अनन्त हैं। स्वाभाविक है कि उनके विस्तार को देखने के अनेक कोण हों। दृष्टि जिस कोण पर होगी उससे होनेवाली अनुभूति को ही सत्य मान लेगी, साथ ही भिन्न कोण से हो रही अनुभूति को असत्य कहने का भ्रम पाल लेगी। इससे बचने के लिये समग्र को समझने की चेष्टा मनीषियों ने की है। बोध कथाओं, दृष्टांत कथाओं, उपदेश कथाओं, जातक कथाओं, पंचतंत्र, बेताल कथाओं, किस्सा चहार दरवेश, किस्सा हातिम ताई, अलीबाबा आदि में छोटी-बड़ी कहानियों के माध्यम से शुभ-अशुभ, भले-बुरे में अंतर कर सकनेवाले जीवन मूल्यों के विकास, बुरे से लड़ने का मनोबल देने वाली घटनाओं का शब्दांकन, स्वस्थ्य मनोरंजन देने का प्रयास हुआ। साहित्य का लक्ष्य क्रमश: सकल सृष्टि, समस्त जीव, मानव संस्कृति तथा उसकी प्रतिनिधि इकाई के रूप में व्यक्ति का कल्याण रहा।
पराभव काल में भारतीय साहित्य परंपरा पर विदेशी हमलावरों द्वारा कुठाराघात तथा पराधीनता के दौर ने सामाजिक समरसता को नष्टप्राय कर दिया और तन अथवा मन से कमजोर वर्ग शोषण का शिकार हुआ। यवनों द्वारा बड़ी संख्या में स्त्री-हरण के कारण नारियों को परदे में रखने, शिक्षा से वंचित रखने की विवशता हो गयी। अंग्रेजों ने अपनी भाषा और संस्कृति थोपने की प्रक्रिया में भारत के श्रेष्ठ को न केवल हीं कहा अपितु शिक्षा के माध्यम से यह विचार आम जन के मानस में रोप दिया। स्वतंत्रता के पश्चात अवसरवादी राजनिति का लक्ष्य सत्ता प्राप्ति रह गया। समाज को विभाजित कर शासन करने की प्रवृत्ति ने सवर्ण-दलित, अगड़े-पिछड़े, बुर्जुआ-सर्वहारा के परस्पर विरोधी आधारों पर राजनीति और साहित्य को धकेल दिया। आधुनिक हिंदी को आरम्भ से अंग्रेजी के वर्चस्व, स्थानीय भाषाओँ-बोलियों के द्वेष तथा अंग्रेजी व् अन्य भाषाओं से ग्रहीत मान्यताओं का बोझ धोना पड़ा। फलत: उसे अपनी पारम्परिक उदात्त मूल्यों की विरासत सहेजने में देरी हुई।
विदेश मान्यताओं ने साहित्य का लक्ष्य सर्वकल्याण के स्थान पर वर्ग-हित निरुपित किया। इस कारण समाज में विघटन व टकराव बढ़ा। साहित्यिक विधाओं ने दूरी काम करने के स्थान पर परस्पर दोषारोपण की पगडण्डी पकड़ ली। साम्यवादी विचारधारा के संगठित रचनाकारों और समीक्षकों ने साहित्य का लक्ष्य अभावों, विसंगतियों, शोषण और विडंबनाओं का छिद्रान्वेषण मात्र बताया। समन्वय, समाधान तथा सहयोग भाव हीं साहित्य समाज के लिये हितकर न हो सका तो आम जन साहित्य से दूर हो गया। दिशाहीन नगरीकरण और औद्योगिकीकरण ने आर्थिक, धार्मिक, भाषिक और लैंगिक आधार पर विभाजन और विघटन को प्रश्रय दिया। इस पृष्ठभूमि में विसंगतियों के निराकरण के स्थान पर उन्हें वीभत्स्ता से चित्रित कर चर्चित होने ही चाह ने साहित्य से 'हित' को विलोपित कर दिया। स्त्री प्रताड़ना का संपूर्ण दोष पुरुष को देने की मनोवृत्ति साहित्य ही नहीं, राजनीती आकर समाज में भी यहाँ तक बढ़ी कि सर्वोच्च न्यायलय को हबी अनेक प्रकरणों में कहना पड़ा कि निर्दोष पुरुष की रक्षा के लिये भी कानून हो।
विवेच्य कृति ज़ख्म का लेखन इसी पृष्ठ भूमि में हुआ है। अधिकांश लघुकथाएँ पुरुष को स्त्री की दुर्दशा का दोषी मानकर रची गयी हैं। लेखन में विसंगतियों, विडंबनाओं, शोषण, अत्याचार को अतिरेकी उभार देने से पीड़ित के प्रति सहानुभूति तो उपज सकती है, पर पीड़ित का मनोबल नहीं बढ़ सकता। 'कथ' धातु से व्युत्पन्न कथा 'वह जो कही जाए' अर्थात जिसमें कही जा सकनेवाली घटना (घटनाक्रम नहीं), उसका प्रभाव (दुष्प्रभाव हो तो उससे हुई पीड़ा अथवा निदान, उपदेश नहीं), आकारगत लघुता (अनावश्यक विस्तार न हो), शीर्षक को केंद्र में रखकर कथा का बुनाव तथा प्रभावपूर्ण समापन के निकष पर लघुकथाओं को परखा जाता है। विद्यालाल जी का प्रथम लघुकथा संग्रह 'जूठन और अन्य लघुकथाएँ' वर्ष २०१३ में आ चुका है। अत: उनसे श्रेष्ठ लघुकथाओं की अपेक्षा होना स्वाभाविक है।
ज़ख्म की ६४ लघुकथाएँ एक ही विषय नारी-विमर्श पर केंद्रित हैं। विषयगत विविधता न होने से एकरसता की प्रतीति स्वाभाविक है। कृति समर्पण में निर्भय स्त्री तथा निस्संकोच पुरुष से संपन्न भावी समाज की कामना व्यक्त की गयी है किन्तु कृति पुरुष को कटघरे में रखकर, पुरुष के दर्द की पूरी तरह अनदेखी करती है। बेमेल विवाह, अवैध संबंध, वर्ण-वैषम्य, जातिगत-लिंगगत, भेदभाव, स्त्री के प्रति स्त्री की संवेदनहीनता, बेटी-बहू में भेद, मिथ्याभिमान, यौन-अपराध, दोहरे जीवन मूल्य, लड़कियों और बहन के प्रति भिन्न दृष्टि, आरक्षण का गलत लाभ, बच्चों से दुष्कर्म, विजातीय विवाह, विधवा को सामान्य स्त्री की तरह जीने के अधिकार, दहेज, पुरुष के दंभ, असंख्य मनोकामनाएँ, धार्मिक पाखण्ड, अन्धविश्वास, स्त्री जागरूकता, समानाधिकार, स्त्री-पुरुष के दैहिक संबंधों पर भिन्न सोच, मध्य पान, भाग्यवाद, कन्या-शिक्षा, पवित्रता की मिथ्या धारणा, पुनर्विवाह, मतदान में गड़बड़ी, महिला स्वावलम्बन, पुत्र जन्म की कामना, पुरुष वैश्या, परित्यक्ता समस्या, स्त्री स्वावलम्बन, सिंदूर-मंगलसूत्र की व्यर्थता आदि विषयों पर संग्रह की लघुकथाएं केंद्रित हैं।
विद्या जी की अधिकांश लघुकथाओं में संवाद शैली का सहारा लिया गया है जबकि समीक्षकों का एक वर्ग लघुकथा में संवाद का निषेध करता है। मेरी अपनी राय में संवाद घटना को स्पष्ट और प्रामाणिक बनने में सहायक हो तो उन्हें उपयोग किया जाना चाहिए। कई लघुकथाओं में संवाद के पश्चात एक पक्ष को निरुत्तरित बताया गया है, इससे दुहराव तथा सहमति का आभाव इंगित होता है। संवाद या तर्क-वितरक के पश्चात सहमति भी हो सकती है। रोजमर्रा के जीवन से जुडी लघुकथाओं के विषय सटीक हैं। भाषिक कसाव और काम शब्दों में अधिक कहने की कल अभी और अभ्यास चाहती है। कहीं-कहीं लघुकथा में कहानी की शैली का स्पर्श है। लघुकथा में चरित्र चित्रण से बचा जाना चाहिए। घटना ही पात्रों के चरित को इंगित करे, लघुकथाकार अलग से न बताये तो अधिक प्रभावी होता है। ज़ख्म की लघुकथाएँ सामान्य पाठक को चिंतन सामग्री देती हैं। नयी पीढ़ी की सोच में लोच को भी यदा-कदा सामने लाया गया है।संग्रह का मुद्रण सुरुचिपूर्ण तथा पाठ्य त्रुटि-रहित है।
२६.३.२०१६
***
सामयिक रचना :
करे फैसला कौन?
*
मन का भाव बुनावट में निखरा कढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे दृढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
जगा जगा दुनिया को हारे खुद सोते ही रहे
गीत नर्मदा के गाए पर खुद ही नहीं बहे
अकथ कहानी चाह-आह की किससे कौन कहे
कर्म चदरिया बुने कबीरा गुपचुप बिना तहे
निज नज़रों में हर कोई सबसे चढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
*
निर्माता-निर्देशक भौंचक कितनी पीर सहे
पात्र पटकथा लिख मनमानी अपने हाथ गहे
मण्डी में मंदी, मानक के पल में मूल्य ढहे
सोच रहा निष्पक्ष भाव जो अपनी आग दहे
माटी माटी से माटी आई गढ़कर है
जो भीतर से जगा, कौन उससे बढ़कर है?
करे फैसला कौन?, कौन किससे बढ़कर है??
२६-३-२०१४
***
दोहा सलिला:
दोहा पिचकारी लिये
*
दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग..
*
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग..
*
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग..
*
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग..
*
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग..
*
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग..
*
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग..
*
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग..
*
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'..
*
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग..
*
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग..
*
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'..
*
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग..
*
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग..
*
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी,
२६.३.२०१३
***
दोहा
नेह-नर्मदा सनातन, 'सलिल' सच्चिदानंद.
अक्षर की आराधना, शाश्वत परमानंद..
***
मुक्तक
ममता को समता के पलड़े में कैसे हम तौल सकेंगे.
मासूमों से कानूनों की परिभाषा क्या बोल सकेंगे?
जिन्हें चाहिए लाड-प्यार की सरस हवा के शीतल झोंके-
'सलिल' सिर्फ सुविधा देकर साँसों में मिसरी घोल सकेंगे?
२६-३-२०१०
***