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शनिवार, 5 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
***





रविवार, 3 अप्रैल 2011

एक रचना: बिन तुम्हारे... संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                                

बिन तुम्हारे...

संजीव 'सलिल'

*

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

चहचहाते पखेरू पर डालता कोई न डेरा.



उषा की अरुणाई मोहे, द्वार पर कुंडी खटकती.

भरम मन का जानकर भी, दृष्टि राहों पर अटकती..



अनमने मन चाय की ले चाह जगकर नहीं जगना.

दूध का गंजी में फटना या उफन गिरना-बिखरना..



साथियों से बिना कारण उलझना, कुछ भूल जाना.

अकेले में गीत कोई पुराना फिर गुनगुनाना..



साँझ बोझिल पाँव, तन का श्रांत, मन का क्लांत होना.

याद के बागों में कुछ कलमें लगाना, बीज बोना..



विगत पल्लव के तले, इस आज को फिर-फिर भुलाना.

कान बजना, कभी खुद पर खुद लुभाना-मुस्कुराना..



बि​न तुम्हारे निशा का लगता अँधेरा क्यों घनेरा?

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

****

गुरुवार, 31 मार्च 2011

मुक्तिका: हुआ सवेरा -- संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:

हुआ सवेरा

संजीव 'सलिल'
*
हुआ सवेरा मिली हाथ को आज कलम फिर.
भाषा शिल्प कथानक मिलकर पीट रहे सिर..

भाव भूमि पर नभ का छंद नगाड़ा पीटे.
बिम्ब दामिनी, लय की मेघ घटा आयी घिर..

बूँद प्रतीकों की, मुहावरों की फुहार है.
तत्सम-तद्भव पुष्प-पंखुरियाँ डूब रहीं तिर..

अलंकार की छटा मनोहर उषा-साँझ सी.
शतदल-शोभित सलिल-धार ज्यों सतत रही झिर..

राजनीति के कोल्हू में जननीति वृषभ क्यों?
बिन पाये प्रतिदान रहा बरसों से है पिर..

दाल दलेंगे छाती पर कब तक आतंकी?
रिश्वत खरपतवार रहेगी कब तक यूँ थिर..

*****

एक दृष्टि:
एक गेंद के पीछे दौड़ें ग्यारह-ग्यारह लोग.
एक अरब काम तज देखें, बड़ा भयानक रोग.
राम जी मुझे बचाना...

Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com