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बुधवार, 31 अगस्त 2022

सॉनेट,वॉटरफॉल इम्प्लोजन,बुन्देली दोहे,एकाक्षरी द्विपदी,माहिया, हाइकु,नवगीत,मुक्तिका

सॉनेट
*
थोथा चना बाजे घना
जोर-जोर से रेंके गधा
भले रहे खूंटे से बँधा
जो न जानता रहता तना।

पहले पढ़ो-लिखो-सोचो
बिना जरूरत मत बोलो
यदि बोलो पहले तोलो
कहा न कुछ बेमतलब हो

लाखों की है बंद जुबान
पहचानो बातों का मोल
ज़हर-अमिय सकती है घोल
करो नहीं नाहक अभिमान

बिना बात कर वाद-विवाद
खुद को करों नहीं बर्बाद
२९-८-२०२२
***
विमर्श : ट्विन टॉवर ध्वंस

वॉटरफॉल = झरना जिसमें पानी बिना रुके सीधे नीचे गिरता है।
इम्पलोड = फटना, इम्प्लोजन = विस्फोट।
वॉटरफॉल इम्प्लोजन = गगनचुंबी इमारत में इस तरह विस्फोट करना की मलबा बिना बिखरे झरने की धार की तरह सीधे नीचे गिरे।
वाटरफॉल इंप्लोजन तकनीक का मतलब है कि मलबा सचमुच पानी की तरह गिरेगा. इम्प्लोजन ऐसे शहरी विस्फोट के लिए उपयोग की जाने वाली विधि है जिसे नियंत्रित विस्फोटों की आवश्यकता होती है.
नोएडा (Noida) में सुपरटेक ट्विन टावरों (Supertec twin tower) के विस्फोट की उलटी गिनती शुरू होने के साथ ही अंतिम जांच चल रही है. टावरों को सुरक्षित रूप से जमीन पर गिराने की जरूरत है. इसका मतलब है कि आसपास की इमारतों को कम से कम नुकसान सुनिश्चित करना है जिसमें 5,000 लोग रहते हैं, जो मुश्किल से 9 मीटर दूर हैं. इस अत्यंत सटीक कार्य के लिए विस्फोट विशेषज्ञों का जवाब एक तकनीक है जिसे 'वाटरफॉल इम्प्लोजन' (waterfall implosion) के रूप में जाना जाता है. वाटरफॉल तकनीक का मतलब है कि मलबा सचमुच पानी की तरह गिरेगा. इम्प्लोजन ऐसे शहरी विस्फोट के लिए उपयोग की जाने वाली विधि है जिसे नियंत्रित विस्फोटों की आवश्यकता होती है. इसके विपरीत, एक विस्फोट के परिणामस्वरूप मलबा दूर-दूर दिशाओं में बह जाएगा. एक और कहावत यह है कि 'ताश का घर' कैसे गिरता है. नियंत्रित विस्फोट कुछ ही सेकंड में 55,000 टन बड़े पैमाने पर मलबे को नीचे लाएगा. साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाएगा कि टावर को ढहाते समय कोई अन्य क्षति तो नहीं हो रही है.

नोएडा ट्विन टावर गिराने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा सटीक दृष्टिकोण

इस तकनीक को भारत में उस समय प्रयोग किया गया था जब उसी कंपनी ने 2020 में कोच्चि में 4 ऊंची इमारतों को ध्वस्त कर दिया था. वही प्रयोग 15 सेकंड से भी कम समय में ट्विन टावरों को ढहा देगी. पूरी टीम 150 प्रतिशत आश्वस्त है कि ढांचा उस दिशा में और सटीक तरीके से नीचे गिरेंगी, जिस तरह से उन्होंने बड़े पैमाने पर विध्वंस की परिकल्पना की है. विस्फोट में एक ढांचा अपने आप में गिर जाती है. तकनीक गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांतों का उपयोग करती है. यह ढांचों के आधार को इस तरह से हटा देगा कि गुरुत्वाकर्षण का केंद्र मिलीमीटर से शिफ्ट हो जाए, जिससे ढांचा नीचे आ जाए.

दोनों टावरों को ढहाने के लिए 3700 किलो विस्फोटक

विध्वंस टीम के एक इंजीनियर के हवाले से कहा गया, "गुरुत्वाकर्षण कभी नहीं सोता है. यह पूरे दिन और पूरी रात काम करता है. यह विस्फोट का पूरा विचार है. उन्होंने कहा, "विध्वंस की इस पद्धति के लिए कोई संदर्भ पुस्तक नहीं है. इसे करने का कोई विशेष तरीका नहीं है या इसे कैसे करना है, इस पर दुनिया में कहीं भी कोई शब्द नहीं लिखा गया है. यह केवल व्यक्तियों के कौशल और इसे करने के उनके अनुभवों पर निर्भर करता है. सटीक कार्य के हिस्से के रूप में 2.634 मिलीमीटर मापने वाले 9,640 छेद जो कि अंतिम दशमलव अंक के लिए सटीक हैं, को 3,700 किलोग्राम विस्फोटक के लिए टावरों में ड्रिल किया गया है जो इसे विस्फोट कर देगा. कई स्थानों पर उच्च और निम्न गति वाले कैमरों जैसे उपकरण टीम द्वारा घटना के बाद के विश्लेषण के लिए विध्वंस को कैप्चर करेंगे. पैसे से ज्यादा टीम हाथ में बड़े पैमाने पर उपलब्धि के साथ अपनी प्रतिष्ठा को दांव पर लगाती है.

क्या विध्वंस से आस-पास की इमारतों को कोई नुकसान होगा?

विस्फोटक टीम ने आश्वासन दिया कि कोई संरचनात्मक क्षति नहीं होगी. अधिक से अधिक पेंट और प्लास्टर या टूटी खिड़कियों में कुछ कॉस्मेटिक दरारें होंगी जहां वे पहले से ही कमजोर हो गई हैं या ढीली हो गई हैं. मलबे को हटाने के लिए ठेकेदारों की पहले से ही व्यवस्था कर ली गई है. रविवार को 2:30 बजे पुलिस की मंजूरी के बाद विस्फोट किया जाएगा. सफाई कर्मचारियों की सहायता के लिए यांत्रिक स्वीपिंग मशीन, एंटी-स्मॉग गन और पानी के छिड़काव के साथ धूल साफ करने की व्यवस्था की गई है.
३१-८-२०२२ 
***
बुन्देली दोहे
महुआ फूरन सों चढ़ो, गौर धना पे रंग।
भाग सराहें पवन के, चूम रहो अॅंग-अंग।।
मादल-थापों सॅंग परंे, जब गैला में पैर।
धड़कन बाॅंकों की बढ़े, राम राखियो खैर।।
हमें सुमिर तुम हो रईं, गोरी लाल गुलाल।
तुमें देख हम हो रए, कैसें कएॅं निहाल।।
मन म्रिदंग सम झूम रौ, सुन पायल झंकार।
रूप छटा नें छेड़ दै, दिल सितार कें तार।।
नेह नरमदा में परे, कंकर घाईं बोल।
चाह पखेरू कूक दौ, बानी-मिसरी घोल।।
सैन धनुस लै बेधते, लच्छ नैन बन बान।
निकरन चाहें पै नईं, निकर पा रए प्रान।।
तड़प रई मन मछरिया, नेह-नरमदा चाह।
तन भरमाना घाट पे, जल जल दे रौ दाह।।
अंग-अंग अलसा रओ, पोर-पोर में पीर।
बैरन ननदी बलम सें, चिपटी छूटत धीर।।
कोयल कूके चैत मा, देख बरे बैसाख।
जेठ जिठानी बिन तपे, सूरज फेंके आग।।
३१-८-२०१९
***
एकाक्षरी द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
***
एकाक्षरी दोहा
*
न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु|
नुन्नोअ्नुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत||
अर्थ बताएँ.
महर्षि भारवि, किरातार्जुनीयम में.
***
माहिया
फागों की तानों से
मन से मन मिलते
मधुरिम मुस्कानों से
*
ककुप
मिल पौधे लगाइए
वसुंधरा हरी-भरी बनाइये
विनाश को भगाइए
*
हाइकु
गाओ कबीर
बुरा न माने कोई
लगा अबीर
३१-८-२०१७
***
द्विपदियों में कल्पना
*
कल्पना की विरासत जिसको मिली
उस सरीखा धनी दूजा है नहीं
*
कल्पना की अल्पना गृह-द्वार पर
डाल देखो सुखों का हो सम्मिलन
*
कल्पना की तूलिका, रंग शब्द के
भाव चित्रों में झलकती ज़िन्दगी
*
कल्पना उड़ चली फैला पंख जब
सच कहूँ?, आकाश छोटा पड़ गया
*
कल्पना कंकर को शंकर कर सके
चाह ले तो कर सके विपरीत भी
*
कल्पना से प्यार करना है अगर
आप अवसर को कभी मत चूकिए
*
कल्पना की कल्पना कैसे करे?
प्रश्न का उत्तर न खोजे भी मिला
*
कल्पना सरिता बदलती रूप नित
कभी मन्थर, चपल जल प्लावित कभी
*
कल्पना साकार होकर भी विनत
'सलिल' भट नागर यही है, मान लो
*
कल्पना की शरण जा कवि धन्य है
गीत दोहे ग़ज़ल रचकर गा सका
*
कल्पना मेरी हक़ीक़त हो गयी
नर्मदा अवगाह कर सुख पा लिया
*
कल्पना को बाँह में भर, चूमकर
कोशिशों ने मंज़िलें पायीं विहँस
*
कल्पना नाचीज़ है यह सत्य है
चीज़ तो बेजान होती है 'सलिल'
*
३१-८-२०१६
वीणा की झंकार में, सच है अन्तर्व्याप्त
बहारों के संसार में, व्यर्थ वचन हैं आप्त

***
मुक्तिका:
*
ये शायरी जबां है किसी बेजुबान की.
ज्यों महकती क्यारी हो किसी बागबान की..

आकाश की औकात क्या जो नाप ले कभी.
पाई खुशी परिंदे ने पहली उड़ान की..

हमको न देखा देखकर तुमने तो क्या हुआ?
दिल ले गया निशानी प्यार के निशान की..

जौहर किया या भेज दी राखी अतीत ने.
हर बार रही बात सिर्फ आन-बान की.

उससे छिपा न कुछ भी रहा कह रहे सभी.
किसने कभी करतूत कहो खुद बयान की..

रहमो-करम का आपके सौ बार शुक्रिया.
पीछे पड़े हैं आप, करूँ फ़िक्र जान की..

हम जानते हैं और कोई कुछ न जानता.
यह बात है केवल 'सलिल' वहमो-गुमान की..
३१-८-२०११
***
गीत :
स्वागत है...
*
पीर-दर्द-दुःख-कष्ट हमारे द्वार पधारो स्वागत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
दिव्य विरासत भूल गए हम, दीनबंधु बन जाने की.
रूखी-सूखी जो मिल जाए, साथ बाँटकर खाने की..
मुट्ठी भर तंदुल खाकर, त्रैलोक्य दान कर देते थे.
भार भाई, माँ-बाप हुए, क्यों सोचें गले लगाने की?..
संबंधों के अनुबंधों-प्रतिबंधों तुम पर लानत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
सात जन्म तक साथ निभाते, सप्त-पदी सोपान अमर.
ले तलाक क्यों हार रहे हैं, श्वास-आस निज स्नेह-समर?
मुँह बोले रिश्तों की महिमा 'सलिल' हो रही अनजानी-
मनमानी कलियों सँग करते, माली-काँटे, फूल-भ्रमर.
सत्य-शांति, सौन्दर्य-शील की, आयी सचमुच शामत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
वसुधा सकल कुटुंब हमारा, विश्व नीड़वत माना था.
सबके सुख, कल्याण, सुरक्षा में निज सुख अनुमाना था..
सत-शिव-सुन्दर रूप स्वयं का, आज हो रहा अनजाना-
आत्म-दीप बिन त्याग-तेल, तम निश्चय हम पर छाना था.
चेत न पाया व्हेतन मन, दर पर विनाश ही आगत है.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
*
पंचतत्व के देवों को हम दानव बनकर मार रहे.
प्रकृति मातु को भोग्या कहकर, अपनी लाज उघार रहे.
धैर्य टूटता काल-चक्र का, असगुन और अमंगल नित-
पर्यावरण प्रदूषण की हर चेतावनी बिसार रहे.
दोष किसी को दें, विनाश में अपने स्वयं 'सलिल' रत हैं.
हम बिगड़े हैं जनम-जनम के, हमें सुधारो स्वागत है......
***
गीत
आपकी सद्भावना में
*
आपकी सद्भावना में कमल की परिमल मिली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
उषा की ले लालिमा रवि-किरण आई है अनूप.
चीर मेघों को गगन पर है प्रतिष्टित दैव भूप..
दुपहरी के प्रयासों का करे वन्दन स्वेद-बूँद-
साँझ की झिलमिल लरजती, रूप धरता जब अरूप..
ज्योत्सना की रश्मियों पर मुग्ध रजनी मनचली.
हृदय-कलिका नवल आशा पा पुलककर फिर खिली.....
*
है अमित विस्तार श्री का, अजित है शुभकामना.
अपरिमित है स्नेह की पुष्पा-परिष्कृत भावना..
परे तन के अरे! मन ने विजन में रचना रची-
है विदेहित देह विस्मित अक्षरी कर साधना.
अर्चना भी, वंदना भी, प्रार्थना सोनल फली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
*
मौन मन्वन्तर हुआ है, मुखरता तुहिना हुई.
निखरता है शौर्य-अर्णव, प्रखरता पद्मा कुई..
बिखरता है 'सलिल' पग धो मलिनता को विमल कर-
शिखरता का बन गयी आधार सुषमा अनछुई..
भारती की आरती करनी हुई सार्थक भली.
हृदय-कलिका नवल ऊष्मा पा पुलककर फिर खिली.....
***
गीत
पुकार
*
जा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
जहाँ रहा तू वहाँ सफल था, सुन मैं गर्वित होती थी.
सबसे मिलकर मुस्काती थी, हो एकाकी रोती थी..
आज नहीं तो कल आएगा कैयां तुझे सुलाऊँगी-
मौन-शांत थी मन की दुनिया में सपने बोती थी.
कान्हा सम तू गया किन्तु मेरी यादों में यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
दुनिया कहती बड़ा हुआ तू, नन्हा ही लगता मुझको .
नटखट बाल किशन में मैंने पाया है हरदम तुझको..
दुनिया कहती अचल मुझे तू चंचल-चपल सुहाता है-
आँचल-लुकते, दूर भागते, आते दिखता तू मुझको.
आ भी जा ओ! छैल-छबीले, ना होकर भी यहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही माँ, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
*
भारत मैया-हिन्दी मैया, दोनों रस्ता हेर रहीं.
अब पुकार सुन पाया है तू, कब से तुझको टेर रहीं.
कभी नहीं से देर भली है, बना रहे आना-जाना
सारी धरती तेरी माँ है, ममता-माया घेर रहीं?
मेरे दिल में सदा रहा तू, निकट दूर तू जहाँ रहा.
आजा, जल्दी से घर आजा, भटक बाँवरे कहाँ रहा?
तुझसे ज्यादा विकल रही मैं, मुझे बता तू कहाँ रहा?...
***
नवगीत
आराम चाहिए.....
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे हैं.
देश भाड़ में जाये हमें क्या?
सुविधाओं संग काम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
स्वार्थ साधते सदा प्रशासक.
शांति-व्यवस्था के खुद नाशक.
अधिनायक हैं लोकतंत्र के-
हम-वे दुश्मन से भी घातक.
अवसरवादी हैं हम पक्के
लेन-देन बेनाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
सौदे करते बेच देश-हित,
घपले-घोटाले करते नित.
जो चाहो वह काम कराओ-
पट भी अपनी, अपनी ही चित.
गिरगिट जैसे रंग बदलते-
हमको ऐश तमाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
वादे करते, तुरत भुलाते.
हर अवसर को लपक भुनाते.
हो चुनाव तो जनता ईश्वर-
जीत उन्हें ठेंगा दिखलाते.
जन्म-सिद्ध अधिकार लूटना
'सलिल' स्वर्ग सुख-धाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
***
गीत:
है हवन-प्राण का.........
*
है हवन-प्राण का, तज दूरियाँ, वह एक है .
सनातन सम्बन्ध जन्मों का, सुपावन नेक है.....
*
दीप-बाती के मिलन से, जगत में मनती दिवाली.
अंशु-किरणें आ मिटातीं, अमावस की निशा काली..
पूर्णिमा सोनल परी सी, इन्द्रधनुषी रंग बिखेरे.
आस का उद्यान पुष्पा, ॐ अभिमंत्रित सवेरे..
कामना रथ, भावना है अश्व, रास विवेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
सुमन की मनहर सुरभि दे, जिन्दगी हो अर्थ प्यारे.
लक्ष्मण-रेखा गृहस्थी, परिश्रम सौरभ सँवारे..
शांति की सुषमा सुपावन, स्वर्ग ले आती धरा पर.
आशुतोष निहारिका से, नित प्रगट करता दिवाकर..
स्नेह तुहिना सा विमल, आशा अमर प्रत्येक है..
है हवन-प्राण का..........
*
नित्य मन्वंतर लिखेगा, समर्पण-अर्पण की भाषा.
साधन-आराधना से, पूर्ण होती सलिल-आशा..
गमकती पूनम शरद की, चकित नेह मयंक है.
प्रयासों की नर्मदा में, लहर-लहर प्रियंक है..
चपल पथ-पाथेय, अंश्चेतना ही टेक है.
है हवन-प्राण का..........
*
बाँसुरी की रागिनी, अभिषेक सरगम का करेगी.
स्वरों की गंगा सुपावन, भाव का वैभव भरेगी..
प्रकृति में अनुकृति है, नियंता की निधि सुपावन.
विधि प्रणय की अशोका है, ऋतु वसंती-शरद-सावन..
प्रतीक्षा प्रिय से मिलन की, पल कठिन प्रत्येक है.
है हवन-प्राण का..........
*
श्वास-सर में प्यास लहरें, तृप्ति है राजीव शतदल.
कृष्णमोहन-राधिका शुभ साधिका निशिता अचंचल..
आन है हनुमान की, प्रतिमान निष्ठा के रचेंगे.
वेदना के, प्रार्थना के, अर्चन के स्वर सजेंगे..
गँवाने-पाने में गुंजित भाव का उन्मेष है.
है हवन-प्राण का..........
३१-८-२०१०
***

मंगलवार, 30 अगस्त 2022

मुक्तक,राखी,हरिगीतिका,हरतालिका,सॉनेट,दोहा,नवगीत

अभिनव प्रयोग
(संरचना सॉनेट, छंद हरिगीतिका)
हरतालिका
*
हरतालिका व्रत जो करे, शिव की कृपा उसको मिले
मन चाहता जिसको वही, हर जन्म में मनमीत हो
खुश हों उमा गणदेव भी, तन स्वस्थ हो मन भी खिले
व्रत कीजिए शुभकामना रख, प्रीत की तब जीत हो


कर थामिए जिसका उसे, कर दें थमा रख साथ में
जल पीजिए; मत पीजिए पर याद प्रभु को कीजिए
पग साथ ही रखिए सदा, हँस हाथ भी रख हाथ में
मन में रखें शुभ भावना, नित प्रेम रस में भीजिए


मतभेद दे तज द्वैत भी; रख ऐक्य भाव सदा सखे!
कुछ ऊँच हो; कुछ नीच हो, कुछ धूप हो; कुछ छाँव हो
यह प्रार्थना प्रभु जी सुनें, नित साथ ही हमको रखे
कुछ हो; न हो; मन में सदा, शिव औ' शिवा तव ठाँव हो


जब हों बिदा; तन से जुदा, भव को तजें हम नाथ हे!
तब आइए इस आत्म को, परमात्म लें हँस साथ में
***

***
चिंतन:
कौन बेहतर नर या नारी?
*
स्त्री विमर्शवादियों का मत है कि स्त्री का हमेशा शोषण किया गया, समानाधिकार नहीं दिया गया। प्रगतिशीलता की चाह अश्लील लेखन, पारिवारिक बिखराव, अंग प्रदर्शन, सहजीवन (लिव इन) तक सीमित रह गई।
पुरुष वर्ग और न्यायालय का आकलन है कि सब कानून स्त्री हितों को दृष्टि में रखकर बनाए गए हैं, प्रताड़ित और पीड़ित पुरुष की हितरक्षा हेतु कोई कानून ही नहीं है।
विवाह को बंधन मानकर नकारने और उन्मुक्त संबंध का दुष्परिणाम बालिका वधुऔर प्रशांत अर्थात स्त्री-पुरुष दोनों के लिए अहितकर रहा है।
साहित्य भ्रमित समाज को दिशा दिखाता है।
भारतीय चिंतन विद्या, धन और शक्ति की अधिष्ठात्री सरस्वती-रमा-उमा को पूजता रहा तो अप्सराओं से प्रणय-विवाह-संतान अधिकार छीननेवाली देव संस्कृति को आदर्श मानता रहा।
धरती को माता और आसमान को पिता मानने का समन्वयपरक चिंतन वेदपूर्व से मान्य रहा है।
तुलसी ने इसी समन्वयवादी दृष्टिकोण को अपनाया। "ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, सकल तोड़ना के अधिकारी" को उद्धृत कर तुलसी को नारी-निंदक कहनेवाले भूल जाते हैं कि तुलसी ने अपनी पत्नि द्वारा तिरस्कृत किए जाने के बाद भी "जगत जननि दामिनी सुख दाता / नहिं तव आदि मध्य अफसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना" कहकर नारी वंदना की, मीरा का पथ प्रदर्शन किया, रत्नावली को रामभक्ति हेतु प्रेरित किया और रत्नावली आजीवन उन्हें पूजती रहीं।
मैथिलीशरण गुप्त जी के मत में-
एक नही दो दो मात्राएँ,
नर से बढ़कर है नारी।
नर-नारी दोनों की प्रकृति अलग है, स्वभाव अलग है, कार्यशैली अलग है।
दोनों एक-दूसरे के पूरक है, विरोधी नहीं। कुहीं नारी श्रेष्ठ है, कहीं नर।
नर गगन की तरह छाना चाहता है तो नारी धरती की तरह समेटना। नर पाकर खुश होता है, नारी देकर।
रामधारी सिंह दिनकर नर-नारी के मनोवैज्ञानिक अंतर को स्पष्ट करते हैं-
पुरुष चूमते तब जब वे सुख में होते हैं,
हम चूमती उन्हें जब वे दुख में होते हैं।
नर जीतना चाहता है , नारी आत्मसात करना।
जीवन पथ पर कभी तुम जो थके
मैं शीतल जल, बन आउंगी
बुझा सकी ना प्यास तेरी
तो, थके पाँव धो जाऊँगी
नारी प्यार में खो जाना चाहती ,प्यार में , प्रीत में मिट जाने को ही श्रेष्ठ मानती है-
दिया कहे तू सागर, मैं होती तेरी नदिया ,
लहर बहर कर तू अपने, पीया चमन जाती रे ,
सुन मेरे साथी रे
नारी पुरुषार्थ हीन नहीं है, न नर ममतारहित है। नारी का पौरुष और नर की ममता उनकी सुप्त वृत्ति है जो आवश्यकतानुसार प्रगट होती है।
वत्सला से वज्र में
ढल जाऊँगी,
मैं नहीं हिमकण हूँ
जो गल जाऊँगी।
भारतीय चिंतन संघर्ष नहीं समन्वय को इष्ट मानता है। वह सरस्वती, लक्ष्मी, दुर्गा को पूजने में हिचकता नहीं है किंतु इन्हें क्रमश: ब्रह्मा-विष्णु-महेश का अभिन्न अंग मानता है।
हमारे शास्त्रों में भी परमेश्वर अर्थात परम शक्ति की कभी नर रूप में कभी नारी रूप में कल्पना की गई है। वास्तुत: वह शक्ति न तो नर है, न नारी है। उस शक्ति को आश्रयदाता के रूप में नर और पोषक के रूप में नारी कहा है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' में यही भाव अंतर्निहित है।
उपनिषद में भी समान अभिव्यक्ति है-
'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो ब्रह्म उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।
रुद्रो विष्णु उमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नमः।'
रुद्र, सूर्य है और उमा उसकी प्रभा है, रुद्र फूल है और उमा उसकी सुगंध है, रुद्र यज्ञ है और उमा उसकी वेदी है।
सृष्टि के मूल में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं। ऐसा सांख्यदर्शन का स्पष्ट मत है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं- 'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।'
प्रकृति और पुरुष दोनों के समन्वय-सहयोग से सृष्टि बनी है।
नर-नारी के अद्वैत को अर्धनारीश्वर (शिवा-शिव, राधा-कृष्ण) के रूप मे वर्णित किया गया है।
पुरुष के अंतःकरण में जब स्त्रीभाव का उदात्तीकरण होता है, तब वह करुणामय, प्रेमपूर्ण वात्सल्यमय बनता है, कवि और कलाकार बनता है, संवेदनाक्षम बनता है। इसी तरह स्त्री में 'पुरुष' जागृत होते ही वह धीर और दृढ़ सावित्री बनती है, उसमें से रणचंडी लक्ष्मीबाई प्रकट होती है।
इसीलिए शास्त्रों में कहा गया है कि स्त्रीत्व और पुरुषत्व के गुण जब एक मानव में होते हैं, तब मानव मे अर्धनारीश्वर प्रकट होते हैं।
२९-८-२०२०
***
कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
*
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो, कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है।
.
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया साँवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
.
प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है।
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है। दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है। रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
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अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं। इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें।
३०-८-२०१७
***
नवगीत -
*
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा निजाम जिसमें
दो दूनी
तीन-पाँच ही होता है।
जो काट रहा है पौधों को
वह हँसिया
फसलें बोता है।
कीचड़ धोता है दाग
रगड़कर
कालिख गोर चेहरे पर।
अंधे बैठे हैं देख
सुनयना राहें रोके पहरे पर।
ठुमकी दे उठा, गिराते हो
खुद ही पतंग
दे रहे ढील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
*
कैसा मजहब जिसमें
भक्तों की
जेब देख प्रभु वर देता?
कैसा मलहम जो घायल के
ज़ख्मों पर
नमक छिड़क देता।
अधनंगी देहें कहती हैं
हम सुरुचि
पूर्ण, कपड़े पहने।
ज्यों काँटे चुभा बबूल कहे
धारण कर
लो प्रेमिल गहने।
गौरैया निकट बुलाते हो
फिर छोड़ रहे हो
कैद चील।
पहले मन-दर्पण तोड़ दिया
फिर जोड़ रहे हो
ठोंक कील।
३०-८-२०१६
***
मुक्तक
राखी :
नहीं धागा है महज यह यह स्नेह का आधार है
आस का, विश्वास का, परिहास का संसार है
सहारा है डूबते को यही तिनके सा 'सलिल'-
विदेहित शुभ भाव पूरित देह में आगार है
*

हरतालिका

अभिनव प्रयोग 
(संरचना सॉनेट, छंद हरिगीतिका)
हरतालिका
*
हरतालिका व्रत जो करे, शिव की कृपा उसको मिले 
मन चाहता जिसको वही, हर जन्म में मनमीत हो
खुश हों उमा गणदेव भी, तन स्वस्थ हो मन भी खिले 
व्रत कीजिए शुभकामना रख, प्रीत की तब जीत हो 

कर थामिए जिसका उसे, कर दें थमा रख साथ में 
जल पीजिए; मत पीजिए पर याद प्रभु को कीजिए
पग साथ ही रखिए सदा, हँस हाथ भी रख हाथ में 
मन में रखें शुभ भावना, नित प्रेम रस में भीजिए 

मतभेद दे तज द्वैत भी; रख ऐक्य भाव सदा सखे!
कुछ ऊँच हो; कुछ नीच हो, कुछ धूप हो; कुछ छाँव हो
यह प्रार्थना प्रभु जी सुनें, नित साथ ही हमको रखे 
कुछ हो; न हो; मन में सदा, शिव औ' शिवा तव ठाँव हो 

जब हों बिदा; तन से जुदा, भव को तजें हम नाथ हे!
तब आइए इस आत्म को, परमात्म लें हँस साथ में 
***

  

सोमवार, 29 अगस्त 2022

वृहद आरण्यक उपनिषद अध्याय ५

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण १ 

पूर्ण ब्रह्म है; पूर्ण जगत भी, उपजा करता पूर्ण पूर्ण से। 

पूर्ण पूर्ण से लें निकाल तो, तब भी शेष पूर्ण ही रहता।।

है ओंकार सनातन यह नभ, जिसमें वायु रहा करता है। 

कौरव्यायणि पुत्र ने कहा, विप्र कहें ओंकार वेद है।।

जो ज्ञातव्य इसी से होता, होता ज्ञान न अन्य कहीं से।१।

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण २ 

द - दमन-दान-दया 

सुर-नर-असुर प्रजापति के सुत, ब्रह्मचर्य व्रत किया सभी ने। 

गए ब्रह्म के सम्मुख वे सब, सुर बोले- 'उपदेश दीजिए'।। 

'द' कह प्रजापिता ने पूछा- 'समझे?'; उत्तर दिया सुरों ने-

 'द का अर्थ दमन करना है, 'ठीक' कहा तब प्रजापति ने।१। 

तब आए नर निकट देव के, कहा नरों ने- 'उपदेशें प्रभु!

प्रजापति ने 'द' कह पूछा- 'क्या समझे?'; तब कहा नरों ने- 

'द का अर्थ दान दें है प्रभु!', 'समझा ठीक' प्रजापति बोले।२। 

अब असुरों की बारी आई, 'दें उपदेश' असुर मिल बोले। 

'द' कह पूछा प्रजापति ने, 'कहो अर्थ क्या समझे हो तुम?'

'द का मतलब दया करें हम', 'ठीक' कहा असुरों से प्रभु ने। 

वचन प्रजापति के गुंजाते, मेघ गरज कर द-द-द कर। 

इन्द्रिय दमन करें सुर भोगी, 'दान करें' संग्रह प्रिय न सब।।

हिंसक असुर दया अपनाएँ, द-द-द का करें आचरण।३।  

 वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ३ 

ह्रदय की ब्रह्म रूप से उपासना 

तीन अक्षरी 'हृदय' ब्रह्म है, यही प्रजापति; यही सर्व है। 

जिसे ज्ञात एकाक्षर 'हृ' यह, उसे स्वजन बलि करते अर्पित।।

'द' एकाक्षर जो यह जाने, स्वजन-अन्य जान उसको देते। 

जो जाने एकाक्षर 'यम्' वह, सीधे स्वर्ग लोक को जाता।१।  

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ४ 

सत्य की ब्रह्म रूप से उपासना 

'ह्रदय ब्रह्म है' यह सच जाने, जो वह तीनों लोक जीत ले। 

हो अधीन उसके रिपु उसका, असत् आभाव रूप हो जाता।।

ब्रह्म महत्-पूज्य जो जाने, फल पाता वह; ब्रह्म सत्य है।१।  

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ५

सत्य की आदित्य रूप में उपासना 

जगत 'आप था; रचा 'आप' ने, सत्य तभी यह सत्य ब्रह्म है। 

रचा ब्रह्म ने प्रजापति को, प्रजापति ने सुर उपजाए।।

सदा सत्य को सुर उपासते, सत्य तीन अक्षरवाला है। 

सत्य प्रथम अरु अंतिम अक्षर, है इसमें- यह सत्य मानिए।।

मध्य अनृत परिग्रहित सत्य से, अनृत न मारे सत् ज्ञाता को। 

सत्-रवि पुरुष सूर्य मंडल में, पुरुष दाहिने चक्षु में बसा।।

पुरुष प्रतिष्ठित एक-दूजे में, चाक्षुष पुरुष सूर्य किरणों में। 

चाक्षुष नर जब करे उत्क्रमण, जब रवि मंडल शुद्ध देखता। 

तब न निकट आती है किरणें।१-२। 

मंडल में 'भू' पुरुष बसा है, 'भू' सिर एक; एक यह अक्षर। 

'भुव:' गुँजारे दो अक्षर; दो 'स्व:'; पग दो अक्षर दोनों दो हैं।। 

उपनिषदों के नाम के नाम गूढ़ हैं, 'अहर' जान लेता है जो यह। 

पाप नष्ट कर; तज देता है।३।

पुरुष दाहिने नयन बसा जो, 'भू:' सिर एक; एक अक्षर भी। 

'भुव:' भुजा दो, अक्षर भी दो, 'स्व:' दो अक्षर; पद भी दो हैं। 

'अहम्' उपनिषद जो जाने वह, मार पाप को तज देता है।३-४।     

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ६ 

मनोमय पुरुष की उपासना

जिसका सत्य स्वरूप उजाला, ऐसा है यह पुरुष मनोहर। 

हो जैसा जौ-धान हृदय में, उतना है समान परिमाण  पुरुष का।

यह जो कुछ; शासन करता है; सब पर प्रकर्षतया हर युग में।१।

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ७

विद्युत् की ब्रह्म रूप में उपासना 

कर विदान-खंडन विद्युत् विधि, जो जाने कर पाप-नाश दे। 

आत्मा के प्रतिकूल न कुछ वह,करता विद्युत् परमब्रह्म है।१। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ८ 

वाक् की धेनु रूप में उपासना   

 चौ स्तन है वाक् धेनु के, स्वाहा स्वधा हंत अरु स्वधा। 

सुर भोजन स्वाहा व् वषट को, हंत मनुज; अरु स्वधा पितरगण।

प्राण धेनु का बसे वृषभ में, मन बस्ता उसला बछड़े में।१। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ९ 

अंतरस्थ वैश्वानर अग्नि 

खाया अन्न पचाती है जो, अग्नि पुरुष के भीतर ही है। 

उस वैश्वानर का सुनता है, घोष निज कानों को मूँदकर पुरुष।।

जब करता उत्क्रमण; उस समय, घोष न यह वह सुन पाता है।१। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण १० 

मरणोत्तर ऊर्ध्वगति का वर्णन 

पुरुष जिस समय लोक छोड़ता, प्राप्त वायु को हो जाता है। 

मार्ग वायु दे छिद्र युक्त हो, ज्यों हो छिद्र रथ के पहिए में।।

उसके द्वारा ऊर्ध्व हो चढ़े, सूर्य लोक में पुरुष पहुँचता। 

रवि दे मार्ग छिद्र रूपी ज्यों, लंबर वाद्य यंत्र में होता।।

ऊपर चढ़ता चंद्र लोक में, छिद्र मिले ज्यों हो दुंदुभि में। 

चढ़ता अहिम-अशोक लोक में, मन-तन का दुःख जहाँ न होता।।

रहता वहीं अनंत काल तक, ब्रह्मा के अनेक कल्पों तक।१। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण ११ 

व्याधि में और मृत पुरुष के श्मशान-गमन में तप की भावना का फल 

व्याधिग्रस्त मनु को होता जो, ताप- परम तप जाने जो यह। 

जीते परम लोक को निश्चय, जो वन जाता परम तपी वह।।

मृत मनु को जो रखें अग्नि में, निश्चय ही वह परम् तपी है। 

जान सके जो ऐसा निश्चय, परम लोक को जय कर लेता।१। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण १२ 

'अन्न ब्रह्म' कहते कुछ जन पर, अन्न प्राण बिन सड़ जाता है। 

'प्राण ब्रह्म' कहते कुछ लेकिन, प्राण सूखता अन्न के बिना।।

एकरूपता पाकर दोनों, परम भाव को प्राप्त कर सकें। 

प्रातृद ऋषि ने जान- पिता से, पूछा क्या शुभ-अशुभ करूँ मैं?

किया निवारण पितु ने- बोले, 'एकरूप हो कौन परम? वि'

अन्न 'वि' रूपी जिसमें सारे, भूत प्रविष्ट; प्राण है 'रम्' ही। 

जिसमें रमण भूत सब करते, जानकार में भूत रमें सब।१।

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण १३

'उक्थ' प्राण की कर उपासना, प्राण उत्थापित करें इंद्रियाँ। 

इसी उपासक से होता है, सुत उत्पन्न उक्तवेत्ता जो।।

प्राणों का सायुज्य और सालोक्य उपासक को मिलता है। 

यजु प्राणों की कर उपासना, श्रेष्ठ- तभी संयुक्त भूत हों। 

जो उपासना करता उसको, यजु-सायुज्य सलोक प्राप्त हो।।

प्राण 'साम' सं भूत सुसंगत, होते प्राण श्रेष्ठ इस कारण। 

जो उपासता पा लेता वह, साम-सायुज्य अरु सलोकता।।

प्राण 'क्षत्र' को जो उपासता, वः तन रक्षित हो शस्त्रों से। 

त्राण न पाता अन्य किसी से, क्षत्र करे जो यह उपासना।।

पा लेता सायुज्य 'क्षेत्र' का, जय कर लेता वह सलोकता।१-४। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय  ब्राह्मण १४ 

गायत्री उपासना 

अष्टाक्षर भू-अंतरिक्ष- द्यौ, अठाक्षरी पद गायत्री का। 

प्रथम पाद ;भू' जो जाने यह, जीते सकल त्रिलोकी को वह।। 

'ऋच: यजूंषि सामानि' मिलकर, आठ अक्षरी पाद दूसरा। 

जो यह जाने, फल पा लेता, त्रयी विद्या का निश्चय जानो।।

प्राण-अपान-व्यान अष्टाक्षर, पाद तीसरा गायत्री का। 

जो जाने जय कर लेता है वह, सकल प्राणी समुदाय मानिए।।

पद तुरीय-दर्शत-परोरजा, चौथा तप्त प्रकाशित होता। 

आदिमंडली पुरुष दिखे हो, सब लोकों पर आप प्रकाशित।।

जो जाने चतुर्थ पद यह वह, हो द्युतिमान कीर्ति-शोभा पा।

चतुर्थ दर्शत परोरजा पद, में गायत्री रहे प्रतिष्ठित।।

वह पद रहता सदा सत्य में, चक्षु सत्य है सभी जानते। 

हो विवाद यदि दृष्ट-श्रव्य में, मान्य न सुना- दिखा ही होगा।।

आश्रयभूत तुरीय तुरीय पाद का,  प्रतिष्ठित बल में रहता। 

बल है प्राण जानते हैं सब, सत्य प्रतिष्ठित रहे प्राण में। 

ओजस्वी बल अधिक सत्य से, है गायत्री प्राण-प्रतिष्ठित।।

त्राण करे 'गय' का गायत्री , 'गय' है प्राण जिसे तारा था। 

नाम इसी कारण गायत्री, अठवर्षी वटु को उपदेशा। 

सावित्री कह आचार्यों ने, प्रतिउपनयन किया जिस समय।।

जो वटु को उपदेशे उसके, प्राण बचाती है सावित्री।१-४। 

गायत्री-सावित्री तज कुछ, अनुष्टुपी-सावित्री को ही। 

उपदेशें- यह नहीं उचित है, गायत्री-सावित्री कहिए।५। 

प्रतिग्रह करें त्रिलोकों का जो, प्रथम पाद में रहे व्याप्त यह। 

प्रतिग्रह सकल त्रयी विद्या का, व्याप्त रहे दूसरे पाद में।।

प्रतिग्रह करे प्राणियों का जो, व्याप्त तृतीय पाद में हो वह। 

यही तुरीय दर्षत परोरजा, तप्त न प्राप्य; न प्रतिग्रह संभव।६।

हे गायत्री! इक पदी है तू, द्विपदी, त्रिपदी, चतुष्पदी भी है। 

निरुपाधिक हो अपदी है तू, ज्ञेय नहीं है तू यह सच है।।

सब लोकों के ऊपर तेरे, तुरीय पद को नमन अनेकों। 

पापी-द्वेषी सफल न होते,  उपस्थान यह कहकर करिए।। 

उपस्थान जिसकी खातिर हो, उसका चाहा पूर्ण न होता। 

'मैं पाऊँ यह वस्तु' कामना कर, ही उपस्थान नित करिए।७।

अश्वतराश्वि बुडिल  से बोला, जनक विदेह राज ने तब यह। 

'हाथी होकर भार ढो रहे, क्यों?' तब उसने कहा- 'न जाना 

इसका मुख' तब जनक ने कहा- 'इसका मुख है अग्नि जानिए'।

ईंधन रखें अग्नि में तो वह, जला डालता शीघ्र सभी को।

जो जाने वह पाप भक्ष कर, शुद्ध पवित्र अजर हो जाता।८।

वृहद आरण्यक उपनिषद, अध्याय ५ ब्राह्मण १५ 

अंत समय की प्रार्थना

हे पालक प्रभु! हे परमेश्वर!, सत्य स्वरूपी हे सर्वेश्वर!

श्रीमुख ज्योतिर्मयी ढका है,  सूर्यमण्डली पात्र से ईश्वर।।

भक्ति आपकी; सत्य-धर्म का, अनुष्ठान कर पाऊँ प्रभु मैं। 

दर्शन दें प्रभु हटा आवरण, हे भक्तों के पालक ईश्वर।।

ज्ञान स्वरूप नियंता सबके, परम लक्ष्य ज्ञानी-भक्तों के। 

रश्मि समेट हटा लें हे प्रभु!, दिव्यरूप तव देख सकूँ मैं।।

सूर्यात्मा जो आप वही मैं, प्राणेन्द्रिय हों लीन वायु में। 

तनस्थूल हो भस्म अग्नि में, हे प्रभु मुझको याद कीजिए।।

याद करें मेरे कर्मों को, अग्नि! ईश तक मुझे ले चलें। 

पथ-बाधक सब पाप दूर हों, बार-बार प्रभु नमस्कार है।। 

वृहद आरण्यक उपनिषद, पंचम अध्याय समाप्त  

***

छंदानुशासन,दोहा,राधा, कृष्ण,संवाद कथा,अन्ना

विशेष लेख:
कविता में छंदानुशासन
*
शब्द ब्रम्ह में अक्षर, अनादि, अनंत, असीम और अद्भुत सामर्थ्य होती है. रचनाकार शब्द ब्रम्ह के प्रागट्य का माध्यम मात्र होता है. इसीलिए सनातन प्राच्य परंपरा में प्रतिलिपि के अधिकार (कोपी राइट) की अवधारणा ही नहीं है. श्रुति-स्मृति, वेदादि के रचयिता मन्त्र दृष्टा हैं, मन्त्र सृष्टा नहीं. दृष्टा उतना ही देख और देखे को बता सकेगा जितनी उसकी क्षमता होगी.
रचना कर्म अपने आपमें जटिल मानसिक प्रक्रिया है. कभी कथ्य, कभी भाव रचनाकार को प्रेरित करते है.कि वह 'स्व' को 'सर्व' तक पहुँचाने के लिए अभिव्यक्त हो. रचना कभी दिल(भाव) से होती है कभी दिमाग(कथ्य) से. रचना की विधा का चयन कभी रचनाकार अपने मन से करता है कभी किसी की माँग पर. शिल्प का चुनाव भी परिस्थिति पर निर्भर होता है. किसी चलचित्र के लिए परिस्थिति के अनुरूप संवाद या पद्य रचना ही होगी लघु कथा, हाइकु या अन्य विधा सामान्यतः उपयुक्त नहीं होगी.
गजल का अपना छांदस अनुशासन है. पदांत-तुकांत, समान पदभार और लयखंड की द्विपदियाँ तथा कुल १२ लयखंड गजल की विशेषता है. इसी तरह रूबाई के २४ औजान हैं कोई चाहे और गजल या रूबाई की नयी बहर या औजान रचे भी तो उसे मान्यता नहीं मिलेगी. गजल के पदों का भार (वज्न) उर्दू में तख्ती के नियमों के अनुसार किया जाता है जो कहीं-कहीं हिन्दी की मात्र गणना से साम्य रखता है कहीं-कहीं भिन्नता. गजल को हिन्दी का कवि हिन्दी की काव्य परंपरा और पिंगल-व्याकरण के अनुरूप लिखता है तो उसे उर्दू के दाना खारिज कर देते हैं. गजल को ग़ालिब ने 'तंग गली' और आफताब हुसैन अली ने 'कोल्हू का बैल' इसी लिए कहा कि वे इस विधा को बचकाना लेखन समझते थे जिसे सरल होने के कारण सब समझ लेते हैं. विडम्बना यह कि ग़ालिब ने अपनी जिन रचनाओं को सर्वोत्तम मानकर फारसी में लिखा वे आज बहुत कम तथा जिन्हें कमजोर मानकर उर्दू में लिखा वे आज बहुत अधिक चर्चित हैं.
गजल का उद्भव अरबी में 'तशीबे' (संक्षिप्त प्रेम गीत) या 'कसीदे' (रूप/रूपसी की प्रशंसा) से तथा उर्दू में 'गजाला चश्म (मृगनयनी, महबूबा, माशूका) से वार्तालाप से हुआ कहा जाता है. अतः, नाज़ुक खयाली गजल का लक्षण हो यह स्वाभाविक है. हिन्दी-उर्दू के उस्ताद अमीर खुसरो ने गजल को आम आदमी और आम ज़िंदगी से बावस्ता किया. इस चर्चा का उद्देश्य मात्र यह कि हिन्दी में ग़ज़ल को उर्दू से भिन्न भाव भूमि तथा व्याकरण-पिंगल के नियम मिले, यह अपवाद स्वरूप हो सकता है कि कोई ग़ज़ल हिन्दी और उर्दू दोनों के मानदंडों पर खरी हो किन्तु सामान्यतः ऐसा संभव नहीं. हिन्दी गजल और उर्दू गजल में अधिकांश शब्द-भण्डार सामान्य होने के बावजूद पदभार-गणना के नियम भिन्न हैं, समान पदांत-तुकांत के नियम दोनों में मान्य है. उर्दू ग़ज़ल १२ बहरों के आधार पर कही जाती है जबकि हिन्दी गजल हिन्दी के छंदों के आधार पर रची जाती है. दोहा गजल में दोहा तथा ग़ज़ल और हाइकु ग़ज़ल में हाइकु और ग़ज़ल दोनों के नियमों का पालन होना अनिवार्य है किन्तु उर्दू ग़ज़ल में नहीं.
हिन्दी के रचनाकारों को समान पदांत-तुकांत की हर रचना को गजल कहने से बचना चाहिए. गजल उसे ही कहें जो गजल के अनुरूप हो. हिन्दी में सम पदांत-तुकांत की रचनाओं को मुक्तक कहा जाता है क्योकि हर द्विपदी अन्य से स्वतंत्र (मुक्त) होती है. डॉ. मीरज़ापुरी ने इन्हें प्रच्छन्न हिन्दी गजल कहा है. विडम्बनाओं को उद्घाटित कर परिवर्तन और विद्रोह की भाव भूमि पर रची गयी गजलों को 'तेवरी' नाम दिया गया है.
एक प्रश्न यह कि जिस तरह हिन्दी गजलों से काफिया, रदीफ़ तथा बहर की कसौटी पर खरा उतरने की उम्मीद की जाती है वैसे ही अन्य भाषाओँ (अंग्रेजी, बंगला, रूसी, जर्मन या अन्य) की गजलों से की जाती है या अन्य भाषाओँ की गजलें इन कसौटियों पर खरा उतरती हैं? अंग्रेजी की ग़ज़लों में पद के अंत में उच्चारण नहीं हिज्जे (स्पेलिंग) मात्र मिलते हैं लेकिन उन पर कोई आपत्ति नहीं होती. डॉ. अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल सन्ग्रह 'ऑफ़ एंड ओन' की रचनाओं में पदांत तो समान है पर लयखंड समान नहीं हैं.
हिन्दी में दोहा ग़ज़लों में हर मिसरे का कुल पदभार तो समान (१३+११) x२ = ४८ मात्रा होता है पर दोहे २३ प्रकारों में से किसी भी प्रकार के हो सकते हैं. इससे लयखण्ड में भिन्नता आ जाती है. शुद्ध दोहा का प्रयोग करने पर हिन्दी दोहा ग़ज़ल में हर मिसरा समान पदांत का होता है जबकि उर्दू गजल के अनुसार चलने पर दोहा के दोनों पद सम तुकान्ती नहीं रह जाते. किसे शुद्ध माना जाये, किसे ख़ारिज किया जाये? मुझे लगता है खारिज करने का काम समय को करने दिया जाये. हम सुधार के सुझाव देने तक सीमित रहें तो बेहतर है.
गीत का फलक गजल की तुलना में बहुत व्यापक है. 'स्थाई' तथा 'अंतरा' में अलग-अलग लय खण्ड हो सकते है और समान भी किन्तु गजल में हर शे'र और हर मिसरा समान लयखंड और पदभार का होना अनिवार्य है. किसे कौन सी विधा सरल लगती है और कौन सी सरल यह विवाद का विषय नहीं है, यह रचनाकार के कौशल पर निर्भर है. हर विधा की अपनी सीमा और पहुँच है. कबीर के सामर्थ्य ने दोहों को साखी बना दिया. गीत, अगीत, नवगीत, प्रगीत, गद्य गीत और अन्य अनेक पारंपरिक गीत लेखन की तकनीक (शिल्प) में परिवर्तन की चाह के द्योतक हैं. साहित्य में ऐसे प्रयोग होते रहें तभी कुछ नया होगा. दोहे के सम पदों की ३ आवृत्तियों, विषम पदों की ३ आवृत्तियों, सम तह विषम पदों के विविध संयोजनों से नए छंद गढ़ने और उनमें रचने के प्रयोग भी हो रहे हैं.
हिन्दी कवियों में प्रयोगधर्मिता की प्रवृत्ति ने निरंतर सृजन के फलक को नए आयाम दिए हैं किन्तु उर्दू में ऐसे प्रयोग ख़ारिज करने की मनोवृत्ति है. उर्दू में 'इस्लाह' की परंपरा ने बचकाना रचनाओं को सीमित कर दिया तथा उस्ताद द्वारा संशोधित करने पर ही प्रकाशित करने के अनुशासन ने सृजन को सही दिशा दी जबकि हिन्दी में कमजोर रचनाओं की बाढ़ आ गयी. अंतरजाल पर अराजकता की स्थिति है. हिन्दी को जानने-समझनेवाले ही अल्प संख्यक हैं तो स्तरीय रचनाएँ अनदेखी रह जाने या न सराहे जाने की शिकायत है. शिल्प, पिंगल आदि की दृष्टि से नितांत बचकानी रचनाओं पर अनेक टिप्पणियाँ तथा स्तरीय रचनाओं पर टिप्पणियों के लाले पड़ना दुखद है.
छंद मुक्त रचनाओं और छन्दहीन रचनाओं में भेद ना हो पाना भी अराजक लेखन का एक कारण है. छंद मुक्त रचनाएँ लय और भाव के कारण एक सीमा में गेय तथा सरस होती है. वे गीत परंपरा में न होते हुए भी गीत के तत्व समाहित किये होती हैं. वे गीत के पुरातन स्वरूप में परिवर्तन से युक्त होती हैं, किन्तु छंदहीन रचनाएँ नीरस व गीत के शिल्प तत्वों से रहित बोझिल होती हैं​​​
मुक्तिका वह पद्य रचना है जिसका-
१. हर अंश अन्य अंशों से मुक्त या अपने आपमें स्वतंत्र होता है.
२. प्रथम, द्वितीय तथा उसके बाद हर सम या दूसरा पद पदांत तथा तुकांत युक्त होता है. इसका साम्य कुछ-कुछ उर्दू ग़ज़ल के काफिया-रदीफ़ से होने पर भी यह इस मायने में भिन्न है कि इसमें काफिया मिलाने के नियमों का पालन न किया जाकर हिन्दी व्याकरण के नियमों का ध्यान रखा जाता है.
२. हर पद का पदभार हिंदी मात्रा गणना के अनुसार समान होता है. यह मात्रिक छन्द में निबद्ध पद्य रचना है. इसमें लघु को गुरु या गुरु को लघु पढ़ने की छूट नहीं होती.
३. मुक्तिका का कोई एक या कुछ निश्चित छंद नहीं हैं. इसे जिस छंद में रचा जाता है उसके शैल्पिक नियमों का पालन किया जाता है.
४.हाइकु मुक्तिका में हाइकु के सामान्यतः प्रचलित ५-७-५ मात्राओं के शिल्प का पालन किया जाता है, दोहा मुक्तिका में दोहा (१३-११), सोरठा मुक्तिका में सोरठा (११-१३), रोला मुक्तिका में रोला छंदों के नियमों का पालन किया जाता है.
५. मुक्तिका का प्रधान लक्षण यह है कि उसकी हर द्विपदी अलग-भाव-भूमि या विषय से सम्बद्ध होती है अर्थात अपने आपमें मुक्त होती है. एक द्विपदी का अन्य द्विपदीयों से सामान्यतः कोई सम्बन्ध नहीं होता.
६. किसी विषय विशेष पर केन्द्रित मुक्तिका की द्विपदियाँ केन्द्रीय विषय के आस-पास होने पर भी आपस में असम्बद्ध होती हैं.
७. मुक्तिका को अनुगीत, तेवरी, गीतिका, हिन्दी ग़ज़ल आदि भी कहा गया है.
२९-८-२०१९
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एक दोहा
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राधा धारा भक्ति की, कृष्ण कर्म-पर्याय.
प्रेम-समर्पण रुक्मिणी,कृष्णा चाहे न्याय.
***
मंगलवार, 29 अगस्त 2017
आज की बात
कल से नयी पारी आरंभ हो गई-शासकीय कला निकेतन पोलीटेकनिक जबलपुर में पदार्थ तकनीकी (मटीरियल टैकनालाजी) पढाना आरंभ कर दिया. बरसों पहले अंग्रेजी में पढ़ा था, पाठ्यक्रम में बदलाव स्वाभाविक है. अब हिंदी में तकनीकी विषय पढ़ाना सचमुच चुनौतीपूर्ण है. माँ शारदा के भरोसे आगे बढ़ता हूँ.
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बाबा राम रहीम को,
गोली मारो यार.
सीख-सिखाये कुछ नया,
स्वप्न करें साकार.
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सु मन रहे तो ही गहे,
श्री वास्तव मे आप.
सुमन सुरभि सम कीर्ति-यश,
जाए जग में व्याप.
.
सिंधु-सायना ने किया,
असामान्य संघर्ष.
महिला जीवट को मिला,
एक और उत्कर्ष.
.
सीमा से संदेश है,
रहिये सदा सतर्क.
शांति शक्ति से ही रहे,
करें न व्यर्थ कुतर्क.
.
नन्हा दीपक भी सके,
विपुल अँधेरा लील.
न्यायिक देरी को कफ़न,
मिले ठोंक दें कील.
.
अवध शरण अवधेश को,
देकर है न प्रसन्न.
रामालय में राज्य हो,
रहे न कोई विपन्न.
.
सुषमा तभी स्वराज की,
जब प्रभु हो हर आम.
सेवक प्रथम नरेंद्र हो,
काम करे निष्काम.
.
दोहा सलिला
*
कर मत कर तू होड़ अब, कर मन में संतोष
कर ने कर से कहा तो, कर को आया होश
*
दिनकर-निशिकर सँग दिखे, कर में कर ले आज
ऊषा-संध्या छिप गयीं, क्या जाने किस व्याज?
*
मिले सुधाकर-प्रभाकर, गले-जले हो मौन
गले न लगते, दूर से पूछें कैसा कौन?
*
प्रणव नाद सुन कुसुम ले, कर जुड़ होते धन्य
लख घनश्याम-महेश कर, नतशिर हुए अनन्य
*
खाकर-पीकर चोर जी, लौकर लॉकर तोड़
लगे भागने पुलिस ने, पकड़ा पटक-झिंझोर
२९-८-२०१६
***
शोधपरक आलेख 
दोहा छंद अनूप :
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है१। संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है। दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है३। आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी४। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युग परकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा पला-बढ़ा और अनेक नामों से विभूषित हुआ।

दोग्धक दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद.
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद.
द्विपथा दोहयं दोहड़ा, द्विपदी दोहड़ नाम.
दुहे दोपदी दूहड़ा, दोहा ललित ललाम.

दोहा मुक्तक छंद है :
संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. 
तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।
हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।

इतिहास गढ़ने, मोड़ने, बदलने तथा रचने में सिद्ध दोहा कालिदास (ई. पू. ३००) के विकेमोर्वशीयम के चतुर्थांक में है.
मइँ जाणिआँ मिअलोअणी, निसअणु कोइ हरेइ.
जावणु णवतलिसामल, धारारुह वरिसेई..

हिन्दी साहित्य के आदिकाल (७००ई. - १४००ई..) में नाथ सम्प्रदाय के ८४ सिद्ध संतों ने विपुल साहित्य का सृजन किया. सिद्धाचार्य सरोजवज्र (स्वयंभू / सरहपा / सरह वि. सं. ६९०) रचित दोहाकोश एवं अन्य ३९ ग्रंथों ने दोहा को प्रतिष्ठित किया।
जहि मन पवन न संचरई, रवि-ससि नांहि पवेस.
तहि वट चित्त विसाम करू, सरहे कहिअ उवेस.

दोहा की यात्रा भाषा के बदलते रूप की यात्रा है. देवसेन के इस दोहे में सतासत की विवेचना है-
जो जिण सासण भाषियउ, सो मई कहियउ सारु.
जो पालइ सइ भाउ करि, सो सरि पावइ पारु.

८ वीं सदी के उत्तरार्ध में राजस्थानी वीरांगना युद्ध पर गए अपने प्रीतम को दोहा-दूत से संदेश भेजती है कि वह वायदे के अनुसार श्रावण की पहली तीज पर न आया तो प्रिया को जीवित नहीं पाएगा.
पिउ चित्तोड़ न आविउ, सावण पैली तीज.
जोबै बाट बिरहणी, खिण-खिण अणवे खीज.
संदेसो पिण साहिबा, पाछो फिरिय न देह.
पंछी थाल्या पींजरे, छूटण रो संदेह.

दोहा उतम काव्य है :
दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय.
राह दिखाता मनुज को, जब वह हो निरुपाय.
हिन्दी ही नहीं विश्व की समस्त भाषाओँ के इतिहास में केवल दोहा ही ऐसा छंद है जिसने युद्धों को रोका है, नारी के मान-मर्यादा की रक्षा की है, भटके हुओं को रास्ता दिखाया है, देश की रक्षा की है, पराजित और बंदी राजा को अरि-मर्दन का हौसला दिया है, बीमारियों से बचने की राह सुझाई है और जिंदगी को सही तरीके से जीने का तरीका ही नहीं बताया भगवान के दर्शन भी कराए। यह दोहे की अतिरेकी प्रशंसा नहीं, सच है। कुछ कालजयी दोहों से साक्षात कीजिये।
दोहा गाथा सनातन, शारद कृपा पुनीत.
साँची साक्षी समय की, जनगण-मन की मीत.
कल का कल से आज ही, कलरव सा संवाद.
कल की कल हिन्दी करे, कलकल दोहा नाद.
(कल = बीता समय, आगामी समय, शान्ति, यंत्र)

दोहा है इतिहास:
दसवीं सदी में पवन कवि द्वारा हरिवंश पुराण में कउवों के अंत में प्रयुक्त 'दत्ता' छंद दोहा ही है.
जइण रमिय बहुतेण सहु, परिसेसिय बहुगब्बु.
अजकल सिहु णवि जिमिविहितु, जब्बणु रूठ वि सब्बु.

११वीं सदी में कवि देवसेन गण ने 'सुलोचना चरित' की १८ वी संधि (अध्याय) में कडवकों के आरम्भ में 'दोहय' छंद का प्रयोग किया है। यह भी दोहा ही है.
कोइण कासु विसूहई, करइण केवि हरेइ.
अप्पारोण बिढ़न्तु बद, सयलु वि जीहू लहेइ

मुनि रामसिंह कृत 'पाहुड़ दोहा' संभवतः पहला दोहा संग्रह है । एक दोहा देखें-
वृत्थ अहुष्ठः देवली, बाल हणा ही पवेसु.
सन्तु निरंजणु ताहि वस्इ, निम्मलु होइ गवेसु

दोहा उलटे सोरठा :
सौरठ (सौराष्ट्र गुजरात) की सती सोनल (राणक) को नतमस्तक प्रणाम करता दोहा अपने विषम-सम अर्धांश को आपस में बदलकर सोरठा हो गया । कालरी के देवरा राजपूत की अपूर्व सुन्दरी कन्या सोनल अणहिल्ल्पुर पाटण नरेश जयसिंह (संवत ११४२-११९९) की वाग्दत्ता थी। जयसिंह को मालवा पर आक्रमण में उलझा पाकर उसके प्रतिद्वंदी गिरनार नरेश रानवघण खंगार ने पाटण पर हमला कर सोनल का अपहरण कर उससे बलपूर्वक विवाह कर लिया । मर्माहत जयसिंह ने बार-बार खंगार पर हमले किये पर उसे हरा नहीं सका। अंततः खंगार के भांजों के विश्वासघात के कारण वह अपने दो लड़कों सहित पकड़ा गया। जयसिंह ने तीनों को मरवा दिया। सती सोनल यह जानकर विवाह पूर्व के प्रेमी जयसिंह के प्रलोभनों को ठुकराकर वधवाण के निकट भोगावा नदी के किनारे सती हो गई। दोहा गत ९०० वर्षों से सती सोनल की कथा सोरठा बनकर गा रहा है-
वढी तऊं वदवाण, वीसारतां न वीसारईं.
सोनल केरा प्राण, भोगा विहिसऊँ भोग्या.

दोहा घणां पुराणां छंद:
११ वीं सदी के महाकवि कल्लोल की अमर कृति 'ढोला-मारूर दोहा' में 'दोहा घणां पुराणां छंद' कहकर दोहा को सराहा गया है। राजा नल के पुत्र ढोला तथा पूंगलराज की पुत्री मारू की प्रेमकहानी को दोहा ने ही अमर कर दिया।
सोरठियो दूहो भलो, भलि मरिवणि री बात.
जोबन छाई घण भली, तारा छाई रात.

 इस काल में आतंकवादी कुछ लोगों को बंदी बना लें तो संबंधी हाहाकार मचाने लगते हैं, प्रेस इतना दुष्प्रचार करती है कि सरकार आतंकवादियों को कंधार पहुँचाने पर विवश हो जाती है। एक मंत्री की लड़की बंधक बना ली जाए तो भी आतंकवादी छोड़े जाते हैं। संस्कृत, प्राकृत तथा अपभ्रंश तीनों में दोहा कहनेवाले, 'शब्दानुशासन' के रचयिता हेमचन्द्र रचित दोहा बताता है कि ऐसी परिस्थिति में कितना धैर्य रखना चाहिए।
भल्ला हुआ जू मारिआ, बहिणि म्हारा कंतु.
लज्जज्जंतु वयंसि यहु, जह भग्गा घर एन्तु.
अर्थात - भला हुआ मारा गया, मेरा बहिन सुहाग.
मर जाती मैं लाज से, जो आता घर भाग.

अम्हे थोवा रिउ बहुअ, कायर एंव भणन्ति.
मुद्धि निहालहि गयण फलु, कह जण जाण्ह करंति.
भाय न कायर भगोड़ा, सुख कम दुःख अधिकाय.
देख युद्ध फल क्या कहूँ, कुछ भी कहा न जाय.

दोहा दिल का आइना:
दोहा दिल का आइना, कहता केवल सत्य.
सुख-दुःख चुप रह झेलता, कहता नहीं असत्य.

दोहा सत्य से आँख मिलाने का साहस रखता है. वह जीवन का सत्य पूरी निर्लिप्तता से कहता है-
पुत्ते जाएँ कवन गुणु, अवगुणु कवणु मुएण
जा बप्पी की भूः णई, चंपी ज्जइ अवरेण.
अर्थात्
अवगुण कोई न चाहता, गुण की सबको चाह.
चम्पकवर्णी कुंवारी, कन्या देती दाह.

प्रियतम की बेवफाई पर प्रेमिका और दूती का मार्मिक संवाद दोहा ही कह सकता है-
सो न आवै, दुई घरु, कांइ अहोमुहू तुज्झु.
वयणु जे खंढइ तउ सहि ए, सो पिय होइ न मुज्झु
यदि प्रिय घर आता नहीं. दूती क्यों नत मुख.
मुझे न प्रिय जो तोड़कर, वचन तुझे दे दुःख.

हर प्रियतम बेवफा नहीं होता. सच्चे प्रेमियों के लिए बिछुड़ना की पीड़ा असह्य होती है. जिस विरहणी की अंगुलियाँ प्रिय के आने के दिन गिन-गिन कर ही घिसी जा रहीं हैं, उसका साथ कोई दे न दे, दोहा तो देगा ही।
जे महु दिणणा दिअहडा, दइऐ पवसंतेण.
ताण गणनतिए अंगुलिऊँ, जज्जरियाउ नहेण.
जाते हुए प्रवास पर, प्रिय ने कहे जो दिन.
हुईं अंगुलियाँ जर्जरित, उनको नख से गिन.

परेशानी प्रिय के जाने मात्र की हो तो उसका निदान हो सकता है पर इन प्रियतमा की शिकायत यह है कि प्रिय गए तो मारे गम के नींद गुम हो गई और जब आए तो खुशी के कारण नींद गुम हो गई।
पिय संगमि कउ निद्दणइ, पियहो परक्खहो केंब?
मई बिन्नवि बिन्नासिया, निंद्दन एंव न तेंव.
प्रिय का संग पा नींद गुम, बिछुडे तो गुम नींद.
हाय! गयी दोनों तरह, ज्यों-त्यों मिली न नींद.

मिलन-विरह के साथ-साथ दोहा हास-परिहास में भी पीछे नहीं है. 'सारे जहां का दर्द हमारे जिगर में है' अथवा 'मुल्ला जी दुबले क्यों? - शहर के अंदेशे से' जैसी लोकोक्तियों का उद्गम शायद निम्न दोहा है जिसमें अपभ्रंश के दोहाकार सोमप्रभ सूरी की चिंता यह है कि दशानन के दस मुँह थे तो उसकी माता उन सबको दूध कैसे पिलाती होगी?
रावण जायउ जहि दिअहि, दहमुहु एकु सरीरु.
चिंताविय तइयहि जणणि, कवहुं पियावहुं खीरू.
एक बदन दस वदनमय, रावन जन्मा तात.
दूध पिलाऊँ किस तरह, सोचे चिंतित मात.

इन्द्रप्रस्थ नरेश पृथ्वीराज चौहान अभूतपूर्व पराक्रम के बाद भी मो॰ गोरी के हाथों पराजित हुए। उनकी आँखें फोड़कर उन्हें कारागार में डाल दिया गया। उनके बालसखा निपुण दोहाकार चंदबरदाई (संवत् १२०५-१२४८) ने अपने मित्र को जिल्लत की जिंदगी से आजाद कराने के लिए दोहा का सहारा लिया। उसने गोरी से सम्राट की शब्द-भेदी बाणकला की प्रशंसा कर परीक्षा हेतु उकसाया। परीक्षण के समय कवि मित्र ने एक दोहा पढ़ा। दिल्लीपति ने दोहा हृदयंगम कर लक्ष्य पर तीर छोड़ दिया जो सुल्तान का कंठ चीर गया। वह कालजयी दोहा है-
चार बांस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण.
ता ऊपर सुल्तान है, मत चुक्कै चव्हाण.

दोहा सबका साथ निभाता है, भले ही इंसान एक दूसरे का साथ छोड़ दे. बुंदेलखंड के परम प्रतापी शूर-वीर भाइयों आल्हा-ऊदल के पराक्रम की अमर गाथा महाकवि जगनिक रचित 'आल्हा खंड' (संवत १२३०) का श्री गणेश दोहा से ही हुआ है-
श्री गणेश गुरुपद सुमरि, ईस्ट देव मन लाय.
आल्हखंड बरण करत, आल्हा छंद बनाय.

इन दोनों वीरों और युद्ध के मैदान में उन्हें मारनेवाले दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान के प्रिय शस्त्र तलवार के प्रकारों का वर्णन दोहा उनकी मूठ के आधार पर करता है-
पार्ज चौक चुंचुक गता, अमिया टोली फूल.
कंठ कटोरी है सखी, नौ नग गिनती मूठ.

चल पानी पिला:
हिन्दी और उर्दू दोनों भाषाओं, आध्यात्म तथा प्रशासन में निष्णात अमीर खुसरो (संवत् १३१२-१३८२)एक दिन घूमते हुए दूर निकल गए, जोर से प्यास लगी.. गाँव के बाहर कुँए पर औरतों को पानी भरते देख खुसरो साहब ने उनसे पानी पिलाने की दरखास्त की। उनमें से एक ने कहा पानी तभी पिलायेंगी जब खुसरो उनके मन मुताबिक कविता सुनाएँ। खुसरो समझ गए कि जिन्हें वे भोली-भली देहातिनें समझ रहे थे वे ज़हीन-समझदार हैं और उन्हें पहचान चुकने पर उनकी झुंझलाहट का आनंद ले रही हैं। कोई और उपाय न देख खुसरो ने विषय पूछा तो बिना देर किये चारों ने एक-एक विषय दे दिया- खीर... चरखा... कुत्ता... और ढोल... . खुसरो की प्यास के मारे जान निकली जा रही थी, इन बेढब विषयों पर कविता करें तो क्या? पर खुसरो भी एक ही थे, अपनी मिसाल आप, सबसे छोटे छंद दोहा का दमन थामा और एक ही दोहे में चारों विषयों को समेटते हुए ताजा-ठंडा पानी पिया और चैन की सांस ली. खुसरो का वह दोहा है:
खीर पकाई जतन से,चरखा दिया चलाय
आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजाय
ला पानी पिला

खुसरो पानी तो मिला ही, पहला दुमदार दोहा रचने का श्रेय भी मिला।

कवि को नम्र प्रणाम:
राजा-महाराजा से अधिक सम्मान साहित्यकार को देना दोहा का संस्कार है. परमाल रासो में दोहा ने महाकवि चाँद बरदाई को दोहा ने सादर प्रणाम कर उनके योगदान को याद किया-
भारत किय भुव लोक मंह, गणतीय लक्ष प्रमान.
चाहुवाल जस चंद कवि, कीन्हिय ताहि समान.

बुन्देलखंड के प्रसिद्ध तीर्थ जटाशंकर में एक शिलालेख पर डिंगल भाषा में १३वी-१४वी सदी में गूजरों-गौदहों तथा काई को पराजित करनेवाले विश्वामित्र गोत्रीय विजयसिंह का प्रशस्ति गायन कर दोहा इतिहास के अज्ञात पृष्ठ को उद्घाटित कर रहा है-
जो चित्तौड़हि जुज्झी अउ, जिण दिल्ली दलु जित्त.
सोसुपसंसहि रभहकइ, हरिसराअ तिउ सुत्त.
खेदिअ गुज्जर गौदहइ, कीय अधी अम्मार.
विजयसिंह कित संभलहु, पौरुस कह संसार.

वीरों का प्यारा रहा, कर वीरों से प्यार.
शौर्य-पराक्रम पर हुआ'सलिल', दोहा हुआ निसार.

गृहस्थ संत कबीर (सं. १४५५-१५७५) के लिये 'यह दुनिया माया की गठरी' थी। कबीर जुलाहा थे, जो कपड़ा बुनते उसे बेचकर परिवार पलता पर कबीर वह धन साधुओं पर खर्च कर कहते 'आना खाली हाथ है, जाना खाली हाथ'। उनकी पत्नी लोई नाराज होती पर कबीर तो कबीर... लोई ने पुत्र कमाल को कपड़ा बेचने भेजा, कमाल कपड़ा बेच पूरा धन घर ले आया, कबीर को पता चला तो नाराज हुए। दोहा ही कबीर की नाराजगी का माध्यम बना-
'बूड़ा वंश कबीर का, उपजा पूत कमाल.
हरि का सुमिरन छोड़ के, भरि लै आया माल.
कबीर ने कमाल को भले ही नालायक माना पर लोई प्रसन्न हुई. पुत्र को समझाते हुए कबीर ने कहा-
चलती चक्की देखकर, दिया कबीरा रोय.
दो पाटन के बीच में, साबित बचा न कोय.
कमाल था तो कबीर का ही पुत्र, उसका अपना जीवन-दर्शन था। दो पीढियों में सोच का जो अंतर आज है वह तब भी था। कमाल ने कबीर को ऐसा उत्तर दिया कि कबीर भी निरुत्तर रह गए। यह उत्तर भी दोहे में हैं:
चलती चक्की देखकर, दिया कमाल ठिठोय
जो कीली से लग रहा, मार सका नहिं कोय

नीर गया मुल्तान:
सतसंगति की चाह में कबीर गुरुभाई रैदास के घर गये। रैदास कुटिया के बाहर चमड़ा पका रहे थे। कबीर को प्यास लगी तो रैदास ने चमड़ा पकाने की हंडी में से लोटा भर पानी दे दिया। कबीर को वह पानी पीने में हिचक हुई तो उन्होंने अँजुरी होंठ से न लगाकर ठुड्डी से लगायी, पानी मुँह में न जाकर कुर्ते की बाँह में चला गया। घर लौटकर कबीर ने कुरता बेटी कमाली को धोने के लिये दिया। कमाली ने कुर्ते की बाँह का का लाल रंग छूटने पर चूस-चूसकर छुड़ाया जिससे उसका गला लाल हो गया। कुछ दिनों बाद वह अपनी ससुराल चली गई।

सद्गुरु रामानंद शिष्य कबीर के साथ पराविद्या (उड़ने की सिद्धि) से काबुल-पेशावर गए।बीच में कमाली का ससुराल आया तो मिलने पहुँच गए। कबीर यह देख चकित हुए बिना पूर्व सूचना पहुँचने पर भी कमाली हाथ-मुँह धोने के लिए द्वार पर बाल्टी में पानी रख, अँगोछा लिए खड़ी थी। कमरे में २ बाजोट-गद्दी, २ लोटों में पीने के लिए पानी रखा था। उनके बैठते ही कमाली गरम भोजन ले आई मानो उसे पूर्व सूचना हो। कमाली से पूछा तो उसने बताया कि राँगा लगा अँगरखा से चूसकर रंग निकालने के बाद से उसे भावी का आभास हो जाता है। अब कबीर समझे कि रैदास बिना बताए कितनी बड़ी सिद्धि दे रहे थे।

लौटने के कुछ समय बाद कबीर फिर रैदास के पास गए। प्यास लगी तो पानी माँगा। रैदास ने स्वच्छ लोटे में लाकर जल दिया। कबीर बोले: पानी तो यहीं कुण्डी में भरा है, वही दे देते। रैदास ने दोहा कहा:
जब पाया पीया नहीं, मन में था अभिमान
अब पछताए होत क्या, नीर गया मुल्तान

कबीर ने भूल सुधारकर अहं से मुक्त हो अंतर्मन में छिपी प्रभु-प्रेम की कस्तूरी को पहचानकर कहा:
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूँढे वन माँहि
ऐसे घट-घट राम है, दुखिया देखे नाँहि

पिऊ देखन की आस
सूफी संतों ने दोहा को प्रगाढ़ आध्यात्मिक रंग दिया:
कागा करंग ढढ़ोलिया, सगल खाइया मासु
ए दुइ नैना मत छुहउ, पिऊ देखन की आस -बाबा शेख फरीद शकरगंज (११७३-१२६५ई.)

प्रसिद्ध सूफ़ी संत शेख मोहिदी के शागिर्द, पद्मावत, अखरावट तथा आख़िरी कलाम रचयिता मलिक मोहम्मद जायसी ने आज के भाषा विवाद के हल पारदर्शी दृष्टि से ५०० वर्ष पहले ही जानकर दोहा के माध्यम से कह दिया:
तुरकी अरबी हिंदवी, भाषा जेती आहि
जामें मारग प्रेम का, सबै सराहै ताहि

प्रेमपथ के पथिक नानक ने भी दोहा को गले से लगाये रखा:
इक दू जीभौ लख होहि, लख होवहि लख वीस
लखु-लखु गेड़ा आखिअहि, एकु नामु जगदीस - गुरु नानक (१५२६-१५९६)

सूरसागर, सूरसारावली तथा साहित्य लहरी रचयिता चक्षुहीन संत सूरदास (सं. १५३५-१६२०) ने दोहे को प्रगल्भता, रस परिपाक, नाद सौंदर्य आलंकारिकता, रमणीयता, लालित्य तथा स्वाभाविकता की सतरंगी किरणों से सार्थकता दी। सूर एक बार कुँए में गिर वे पड़े, ६ दिन तक पड़े रहे। ७ दिन बाँकेबिहारी को पुकारा तो भक्तवत्सल भगवान ने आकर उन्हें बाहर निकाला। भगवान जाने लगे तो सूर की अंतर्व्यथा लेकर एक दोहा प्रगट हुआ जिसे सुन भगवान भी अवाक् रह गये:
बाँह छुड़ाकर जात हो, निबल जानि के मोहि
हिरदै से जब जाहिगौ, मरद बदूंगौ तोहि

दोहा आदि से अब तक संतों का प्रिय छंद है:
रोम-रोम में रमि रह्या, तू जनि जानै दूर
साध मिलै तब हरि मिलै, सब सुख आनंद मूर - दादूदयाल (सं. १६०१-१६६०)
बाजन जीवन अमर है, मोवा कह्यो न कोय
जो कोई मोवा कहे, वो ही सौदा होय - बाजन
उसका मुख इक जोत है, घूँघट है संसार
घूँघट में वो छिप गया, मुख पर आँचर डार - बुल्लेशाह
काला हंसा निर्मला, बसे समंदर तीर
पंख पसारे बक हरे, निर्मल करे सरीर - शेख शर्फुद्दीन याहिया मनेरी
साबुन साजी साँच की, घर-घर प्रेम डुबोय
हाजी ऐसा धोइये, जन्म न मैला होय - हाजी अली
सजन सकारे जायेंगे, नैन मरेंगे रोय
विधना ऐसी रैन कर, भोर कभी ना होय - बू अली कलंदर
कागा सब तन खाइयो, चुन खइयो मास
दू नैना मत खाइयो, पिया मिलन की आस -केशवदास, नागमती

महाकवि तुलसी (सं.१५५४-१६८०) के जन्म, पत्नी रत्नावली द्वारा धिक्कार, श्रीराम-दर्शन, राम-कृष्ण अद्वैत, साकेतगमन तथा स्थान निर्धारण पर दोहा ही साथ निभा रहा था:
पंद्रह सौ चौवन विषै, कालिंदी के तीर
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी धरयौ सरीर
अस्थि-चर्ममय देह मम, तामें ऐसी प्रीत?
तैसी जौ श्रीराम महँ, होति न तौ भवभीति
चित्रकूट के घाट पर, भई संतन की भीर
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर
कहा कहौं छवि आज की, भले बने हो नाथ
तुलसी मस्तक तब नबै, धनुष-बाण लो हाथ
संवत सोरह सौ असी, असी गंग के तीर
श्रावण कृष्णा तीज शनि, तुलसी तज्यो सरीर
सूर सूर तुलसी ससी, उडगन केशवदास
अब के कवि खद्योत सम, जहँ-तहँ करत प्रकास

सूर ने श्रीकृष्ण को ह्रदय से निकलने की चुनौती दी तो रत्नावली (सं. १५६७-१६५१) ने तुलसी को, माध्यम इस बार भी दोहा ही बना:
जदपि गये घर सों निकरि, मो मन निकरे नाहिं
मन सों निकरौ ता दिनहिं, जा दिन प्रान नसाहिं

देनहार कोई और है:
मुगल सम्राट अकबर के नवरत्नों में से एक में से एक अब्दुर्रहीम खानखाना (संवत १६१० - संवत १६८२) श्रृंगार बृज एवं अवधी से किया । प्रश्नोत्तरी दोहे उनका वैशिष्ट्य है -
नैन सलोने अधर मधु, कहि रहीम घटि कौन?
मीठा भावे लोन पर, अरु मीठे पर लोन।

असि (अस्त्र)-मसि (कलम) को समान दक्षता से चलानेवाले अब्दुर्रहीम खानखाना (सं. १६१०-१६८२) अपने इष्टदेव श्री कृष्ण की तरह रणभेरी और वेणुवादन का आनंद उठाते थे। रहीम दानी थे। महाकवि गंग के एक छप्पय पर प्रसन्न होकर उन्होंने एक लाख रुपयों का ईनाम दे दिया था। रहीम को संपत्ति का घमंड नहीं था। उनकी नम्रता देख गंग कवि ने पूछा:
सीखे कहाँ नवाबजू, देनी ऐसी देन?
ज्यों-ज्यों कर ऊँचो करें, त्यों-त्यों नीचे नैन
रहीम ने तुरंत उत्तर दिया:
देनहार कोई और है, देत रहत दिन-रैन
लोग भरम हम पर करें, ताते नीचे नैन
उन्होंने दोहा को नट तरह कलाओं से संपन्न कहा:
देहा दीरघ अरथ के, आखर थोड़े आहिं
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि कूदि चढ़ि जाहिं

दोहा एक दोहाकार दो:
दोहा केवल दो पंक्तियों का छोटा सा छंद है. क्या आप जानते हैं कि एक बार इस नन्हें छंद को दो निपुण दोहाकारों ने पूर्ण किया।
तुलसी की कुटिया में एक दिन एक याचक आया। प्रणाम कर कहा कि बिटिया के हाथ पीले करने हैं, धन चाहिए। रमापति राम में मन रमाये तुलसी की कुटिया में रमा कैसे रहतीं? विप्र समझ गया कि इन तिलों में तेल नहीं है सो निवेदन किया कि बाबा एक कविता लिख दें, तो काम बन जायेगा। तुलसी ने पूछा कविता से बिटिया का ब्याह कैसे होगा? याचक ने बताया कि समीप ही मुग़ल सेना का पड़ाव है, सेनापति सवेरे श्रेष्ठ कविता लानेवाले को एक मुहर ईनाम देते हैं। याचक की चतुराई पर मन ही मन मुस्कुराते बाबा ने कागज़ पर एक पंक्ति घसीट कर दी और पीछा छुड़ाकर पूजन-पाठ में रम गये याचक ने मुग़ल सेनापति के शिविर की ओर दौड़ लगा दी। हाँफते हुए पहुँचा ही था कि सेनापति तशरीफ़ ले आये, उसकी घिघ्घी बँध गई। किसी तरह हिम्मत कर सलाम किया और कागज़ बढ़ा दिया। सेनापति ने कागज़ लेते हुए उसे पैनी नज़र से देखा, पढ़ा और पूछा तुमने लिखा है? याचक ने सहमति में सर हिलाया तो सेनापति ने कड़ककर पूछा सच कहो नहीं तो सर कलम कर दिया जाएगा। मन मन ही मन बाबा को कोसते याचक ने सचाई बता दी। सेनापति हँस पड़े, कागज़ पर नीचे कुछ लिखा और बोले यह कागज़ बाबा को दे आओ तो तुम्हें दो मुहरें ईनाम में मिलेंगी। सेनापति थे अब्दुर्रहीम खानखाना । कागज़ पर था एक दोहा जिसकी पहली पंक्ति तुलसी ने लिखी थी दूसरी रहीम ने:
सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय
गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय

प्रीत करो मत कोय:
गिरिधर गोपाल की बावरी आराधिका मीरांबाई (१५०३ई.-१५४६ई.) के दोहे देश-काल की सीमा के परे व्याप्त हैं:
जो मैं ऐसा जाणती, प्रीत किये दुःख होय
नगर ढिंढोरा फेरती, प्रीत न कीज्यो कोय

दोहा रक्षक लाज का:
महाकवि केशवदास की शिष्या, ओरछा नरेश इंद्रजीत की प्रेयसी प्रवीण विदुषी-सुन्दरी थीं। नृत्य, गायन, काव्य लेखन तथा वाक् चातुर्य में उन जैसा कोई अन्य नहीं था। मुग़ल सम्राट अकबर को दरबारियों ने उकसाया कि ऐसा नारी रत्न बादशाह के दामन में होना चाहिए। अकबर ने ओरछा नरेश को संदेश भेजा कि राय प्रवीण को दरबार में हाज़िर करें। नरेश धर्म संकट में पड़े, प्रेयसी को भेजें तो आन-मान नष्ट होने के साथ राय प्रवीण की प्रतिष्ठा तथा सतीत्व खतरे में, न भेजें तो शक्तिशाली मुग़ल सेना के आक्रमण का खतरा। राज्य बचायें या प्रतिष्ठा? राज्य को बचाने लिए अकबर के दरबार में महाकवि तथा राय प्रवीण उपस्थित हुए। अकबर ने महाकवि का सम्मान कर राय प्रवीण को तलब कर हरम में रहने को कहा। राय प्रवीण ने बादशाह को सलाम करते हुए एक दोहा कहा और लौटने की अनुमति चाही। दोहा सुनते ही दरबार में सन्नाटा छा गया। बादशाह ने राय प्रवीण को न केवल सम्मान सहित वापिस जाने दिया अपितु कई बेशकीमती नजराने भी दिए। राय अस्मिता बचानेवाला दोहा है:
बिनती रायप्रवीन की, सुनिये शाह सुजान।
जूठी पातर भखत हैं, बारी बायस स्वान॥

दोहा साक्षी समय का:
मुग़ल सम्राट अकबर हर सुन्दर स्त्री को अपने हरम में लाने के लिये बेक़रार रहता था। गोंडवाना की महारानी दुर्गावती की सुन्दरता, वीरता, लोकप्रियता, शासन कुशलता तथा सम्पन्नता की चर्चा चतुर्दिक थी। महारानी का चतुर दीवान अधारसिंह कायस्थ तथा सफ़ेद हाथी 'एरावत' अकबर की आँख में काँटे की तरह गड़ रहे थे। अधारसिंग के कारण सुव्यवस्था तथा सफ़ेद हाथी कारण समृद्धि होने का बात सुन अकबर ने रानी के पास सन्देश भेजा-
अपनी सीमा राज की, अमल करो फरमान.
भेजो नाग सुवेत सो, अरु अधार दीवान.
मरता क्या न करता... रानी ने अधारसिंह को दिल्ली भेजा। दरबार में अधारसिंह ने सिंहासन खाली देख दरबारियों के बीच छिपकर बैठे बादशाह अकबर को कोर्निश की। चमत्कृत अकबर ने अधार से पूछा कि उसने बादशाह को कैसे पहचाना? अधारसिंह ने नम्रता से उत्तर दिया कि जंगल में जिस तरह शेर न दिखने पर अन्य जानवर उस पर निगाह रखते हैं वैसे दरबारी उन पर नज़र रखे थे इससे अनुमान किया। अकबर ने नकली उदारता दिखाते हुए कुछ माँगने और दरबार में रहने को कहा। अधारसिंह ने चतुराई से बादशाह द्वारा कुछ माँगने के हुक्म की तामील करते हुए अपने देश लौट जाने की अनुमति माँग ली। अकबर ने अधारसिंह को जाने तो दिया किन्तु बाद में गोंडवाना पर हमला करने का हुक्म दे दिया। दोहा बादशाह के सैन्य बल का वर्णन करते हुए कहता है-
कै लख रन मां मुग़लवा, कै लख वीर पठान?
कै लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान?
इक लख रन मां मुगलवा, दुई लख वीर पठान.
तिन लख साजे पारधी, रे दिल्ली सुलतान.

असाधारण बहादुरी से लड़ने के बाद भी अपने देवर बदनसिंह की गद्दारी का कारण अंततः महारानी दुर्गावती देश पर शहीद हुईं। मुग़ल सेना ने राज्य लूटा, भागते हुए लोगों और औरतों तक को। महारानी का नाम लेना भी गुनाह हो गया। जनगण ने अपनी लोकमाता दुर्गावती को श्रद्धांजलि देने के लिये समाधि के समीप सफ़ेद पत्थर एकत्र किए, जो भी वहाँ से गुजरता एक सफ़ेद कंकर समाधि पर चढा देता। स्वतंत्रता सत्याग्रह के समय इस परंपरा का पालनकर आजादी के लिये संघर्ष का संकल्प लिया गया। दोहा आज भी दुर्गावती, अधार सिंह और आजादी के दीवानों की याद दिल में बसाये है-
ठाँव बरेला आइये, जित रानी की ठौर.
हाथ जोर ठांड़े रहें, फरकन लगे बखौर.
अर्थात बरेला गाँव में रानी की समाधि पर हाथ जोड़कर श्रद्धाभाव से खड़े हों तो उनकी वीर गाथा से प्रेरित हो आपकी भुजाएँ फड़कने लगती हैं।

महाकवि गंग का अंतिम दोहा:
'तुलसी-गंग दुवौ भये सुकविन के सरदार' प्रसिद्ध महाकवि गंग (सं. १५३८-१६१७) मुग़ल दरबारियों के षड्यंत्र के शिकार हुए, उन्हें क्षमायाचना का हुक्म मिला किन्तु स्वाभिमानी कवि स्वीकार नहीं हुआ. हाथी के पैर तले कुचलवाने का आदेश मिलने पर उन्होंने गज में गणेश-दर्शन कर कर बिदा ली:
कबहुँ न भडुआ रन चढ़ै, कबहुँ न बाजी बंब
सकल सभहिं प्रनाम करि, बिदा होत कवि गंग

माई एहणा पूत जन:
दुर्गावती के बाद अकबर की नज़र में चित्तौड़गढ़ महाराणा प्रताप (१५४० ई.-१५९७ई.) खटकते रहे। प्रताप की मौत पर कवि पृथ्वीराज राठौड़ रचित दोहा अकबर को उसकी औकात बताने में नहीं चूका:
माई! एहणा पूत जण, जेहणा वीर प्रताप
अकबर सुतो ओझके, जाण सिराणे साँप

तानसेन के तान:
अकबर के नवरत्नों में से एक महान गायक तानसेन नमन करता दोहा की गुणग्राहकता देखिए:
विधना यह जिय जानिकै, शेषहिं दिये न कान
धरा-मेरु सब डोलिहैं, तानसेन के तान

दोहा रोके युद्ध भी:
मुग़ल दरबारियों ने अकबर के साले और नवरत्नों में अग्रगण्य पराक्रमी मानसिंह को चुनौती दी कि उन्हें अपने बाहुबल पर भरोसा है तो श्रीलंका को जीतकर मुग़ल साम्राज्य में सम्मिलित कर दिखाएँ। मानसिंह से समक्ष इधर खाई उधर कुआँ, चारों तरफ धुआँ ही धुआँ' की हालत पैदा हो गयी। दूर सेना ले जाकर, समुद्र पार युद्ध अति खर्चीला, सैनिक जाने को तैयार नहीं, जीत की सम्भावना नगण्य, बिना कारण युद्ध हेतु न जाएँ तो सम्मान गँवाएँ। ऐसी विषम परिस्थिति में राजगुरु द्वारा कहा गया निम्न दोहा संकटमोचन सिद्ध हुआ:
विप्र विभीषण जानी कै, रघुपति कीन्हों दान
दिया दान किमि लीजियो, महामहीपति मान
सूर्यवंशी मानसिंह अपने पूर्वज श्रीराम द्वारा बाद विप्र विभीषण को दाम में दी गयी लंका कैसे वापिस लें? दोहे ने युद्ध टालकर असंख्य जन-धन की हानि रोक दी।

मतिराम के अलंकारिक दोहा की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक

अजगर करे न चाकरी
सुखवादियों सिद्धांत सूफियों से बिलकुल उलट होने पर भी दोनों में दोहा-प्रेम समान है। रत्नखान और ज्ञानबोधकार मलूकदास (सं. १६३२-१७३९) ने डूबते शाही जहाज को पानी से निकालकर बचाया और रुपयों का तोड़ा उफनाती गंगा में तैराकर कड़ा से इलाहाबाद भेजा।
अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम
दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम
सुखवादियों को चड़वांक / चार्वाक कहकर लोक ने उन पर व्यंग्य किया। उसका वाहक दोहा ही हुआ:
परे पराई पौर में, बनी बनाई खाँय
रिन-धन कौ खटका नहीं, काए खें दुबराँय

दोहा आँखें खोलता:
जयपुर नरेश महाराजा जयसिंह जब कमसिन नवोढ़ा रानी के रूपजाल में बँधकर कर्तव्य भूल बैठे तो राजगुरु महाकवि बिहारी (सं.१६६०-१७२०) ने मारक दोहा पढ़कर उन्हें दायित्व बोध कराया:
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास एहि काल
अली कली ही सौं बँध्यो, आगे कौन हवाल?
महाराज एक दोहा सुनते और एक अशर्फी समर्पित करते। ऐसे ७०० दोहों से बिहारी की दोहा सतसई बनी। श्लेष, वक्रोक्ति, श्रृंगार की त्रिवेणी बिहारी के दोहों में सर्वत्र प्रवाहित है।
मेरी भव बाधा हरो, राधा नागरि सोय
जा तन की झाईं परै, स्याम हरित दुति होय
कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलअत लजियात
भरे भौन में करत हैं, नैनन ही सौं बात
मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने कुटिलतापूर्वक राजा जयसिंह को मु ग़ल सेना के साथ शिवजी से युद्ध का आदेश दिया। विजय हो तो श्रेय सेना को मिलता, पराजय का ठीकरा जयसिंह फोड़ा जाता। एक बार फिर महाकवि बिहारी ने दोहा को हथियार बनाया और जयसिंह को आत्मघाती युद्ध पर जाने से रोका:
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा, देख विहंग विचार
बाज पराये पानि पर, तू पंछीन न मार
दोहा रसनिधि अमर है:
ठाकुर पृथ्वीसिंह 'रसनिधि' (सं. १६६०-१७१७) ने सतसई हजारा तक पहुँचाया।रसनिधि का वैशिष्ट्य परिमार्जित बृज भाषा में फारसी के तत्सम शब्दों का प्रयोग, तथा प्रसाद गुण प्रधान शैली है:
हिन्दू मैं क्या और है, मुसलमान मैं और?
साहिब सबका एक है, व्याप रहा सब ठौर.
लोक-प्राण दोहा बसे:
दोहा विद्वज्जनों और जनसामान्य दोनों के कंठ में वास करता है। वृंद (१६४३ई.-१७२३ई.) रचकर जनमानस को आत्मानुशासन का पाठ पढ़ाया। उनके दोहे कहावत बनकर अमर हो गये:
अपनी पहुँच बिचारि कै, करतब करिये दौरि
तेते पाँव पसारिये, जेती लाम्बी सौरि
मतिराम (सं.१६७४-१७४५) के अलंकारिक दोहों की रूप छटा मन मोहती है:
दिपै देह दीपति गयौ, दीप बयारि बुझाइ
अंचल ओट किये तऊ, चली नवेली जाइ -अनुप्रास
सरद चंद की चाँदनी, को कहिए प्रतिकूल
सरद चंद की चाँदनी, कोक हिए प्रतिकूल -यमक
धीरे-धीरे रे मना:
बुंदेलखंड में संतों ने दोहा की नर्मदा को सतत प्रवहमान बनाये रखा. विस्मय है कि आज साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीयता और भाषिक मतभेद के जिन विवादों से राष्ट्रीय एकता संकट है, उनके समाधान संतों ने सुझाये हैं। महामति प्राणनाथ (१६५८-१७०४ ई.) ने औरंगज़ेब की दमनकारी नीतियों का विरोधकर राष्ट्रीय गौरव के पर्याय छत्रसाल को समर्थन और सर्व धर्म समभाव का उपदेश दोहा माध्यम से दिया:
बाम्हन कहे हमहि उत्तम, यवन कहे हम पाक
दोउ मिट्टी इक ठौर की, एक राख इक खाक
धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सींचे सौ घड़ा ऋतु आये फल होय
छत्ता तेरे राज में, धक-धक धरती होय
जित-जित घोड़ा मुख करे, तित-तित फत्ते होय
छत्रसाल औरंगजेबी दमन विरुद्ध जननायक तरह लोकप्रिय हुए
चौंकि-चौंकि सब दिस उठै, सूबा खान सुभान
अब धौं धावै कौन पर, छत्रसाल बलवान
छत्रसाल खुद भी निपुण दोहाकार थे:
निज स्वारथ सौं पाप नहिं, परस्वारथ सौं पुन्न
दिए इकाई सुन्न ज्यों, हो छत्ता दसगुन्न
छत्रसाल (१६८८-१७३१ ई.) की वृद्धावस्था में पर मुग़ल सिपहसालार मुहम्मद खां बंगश ने भारी भरकम लाव लश्कर के साथ हमला कर दिया। डूबते को तिनके का सहारा, काम आया दोहा जो छत्रसाल ने बाजीराव पेशवा को लिख भेजा:
जो बीती गजराज पे, सो बीती अब आय
बाजी जात बुंदेल की, राखो बाजी लाज
दोहा ने पेशवा का मर्म छुआ, उनकी ताकतवर फ़ौज ने बंगश की मुग़ल फ़ौज को धूल चटा दी।
प्राणनाथ के शिष्य देवचंद कायस्थ दोहा को धार्मिक सहिष्णुता का संदेशवाहक बनाया:
ए जो मोहरे खेल के, धरते भेख विवाद
एक भान पूजा धरें, कहते होत सबाब
महाकवि देव (सं. १७३०-१८३२) ने प्रेम के संयोग पक्ष तथा मानवर्णन को सांगीतिक उल्लास सहित दोहों का कथ्य बनाया। प्रथमतः शब्द शक्तियों पर दोहे कहे:
अमिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणा लीन
अधम व्यंजना रस बिरस, उल्टी कहत नवीन
प्रतापगढ़ निवासी भिखारीदास श्रीवास्तव (सं. ) श्रीवास्तव ने नायिका वर्णन कर दोहा को समृद्ध किया:
श्रीमानन के भौन में, भोग्य भामिनि और
तिनहूँ को सुकियाह में, गनें सुकवि सिरमौर
घनानंद कायस्थ (सं. १७४६-१७४६) के काव्य में शुद्धता,लाक्षणिक वक्रता, शैल्पिक सौष्ठव तथा माधुर्य अन्तर्निहित है:
मो से अनपहचान को, पहचाने हरि कौन?
कृपा कान मद नैन ज्यों, त्यों पुकार मति मौन
गिरधर कविराय (सं.१७७०- ) ने दोहा को कुंडलियों का शीश मुकुट बनाया:
गुन के गाहक सहस नर, बिन गुन लहै न कोय
जैसे कागा कोकिला, शब्द सुनै सब कोय
सैयद नबी बिलग्रामी "रसलीन"(सं. १७७१-१८३२) ने दोहों को रचना चातुर्य, उक्ति वैचित्र्य तथा चमत्कारिकता से समृद्ध किया:
अमिय हलाहल मदभरे, स्वेत-स्याम रतनार
जियत मरत झुक-झुक परत, जेहि चितवत इक बार
रीतिकालीन दोहाकारों की मणिमाला के अप्रतिम रत्न पद्माकर (सं. १८१०- १८९०) मधुर कल्पना को रस, भाव तथा अलंकार की त्रिवेणी से अलंकृत कर दोहा रचते रहे:
मनमोहन तन सघन घन, रमन राधिका मोर
श्री राधा मुखचंद को, गोकुल चंद चकोर
दोहा देता दिल मिला...
सिद्धहस्त दोहाकार आलम (जन्म से ब्राम्हण) दोहे का पहला पद लिखने के बाद पूरा सके तो संकल्प किया जो दोहा पूरा करेगा उसकी एक इच्छा पूरी करेंगे। वे दोहे की पर्ची पगड़ी में खोंसकर सो गये। शेख नामक रंगरेजिन धोने के लिये ले गयी, अधूरा दोहा पढ़ा, पूरा किया और पर्ची पहले की तरह पगड़ी में रख कर दे आयी। कुछ दिन बाद आलम को अधूरे दोहे की याद आयी। पगडी धुली देखी तो सिर पीट लिया कि दोहा तो गया, खोजा तो न केवल पर्ची मिल गयी बल्कि दोहा भी पूरा था। चिंता हुई कि दोहा पूरा किसने किया? अपने संकल्प के अनुसार उन्हें दोहा पूरा करनेवाले की एक इच्छा पूरी करना थी। आलम ने अपनी छोटी बहिन और भौजाई का सहारा लिया। शेख ने दोहा पूरा करना कुबूल किया, वह आलम को चाहती थी। मुश्किल यह कि आलम ब्राम्हण और शेख मुसलमान... शेख कोई दूसरी इच्छा बताने को राजी न हुई, न आलम अपनी बात से पीछे हटाने को। आलम ने मजहब बदल कर शेख से शादी कर ली। दो दिलों को जोड़नेवाला वह अमर दोहा है -
कनक छड़ी सी कामिनी, काहे को कटि छीन? -आलम
कटि को कंचन काढ़ विधि, कुचन माँहि धरि दीन -शेख
राधापति हिय मैं धरौं:
अनेक कवियों के आश्रयदाता चरखारी नरेश विक्रम सिंह (१८३९-१८८६) के दोहे हृदयग्राही हैं:
राधापति हिय मैं धरौं, राधपति मुख-बैन
राधापति नैनन लहौं, राधापति सुखदैन
पंकज के धोखे मधुप, कियो केतकी संग
अंध भयो कंटक बिधौ, भयो मनोरथ भंग राम सतसई, वाणीभूषण, वृत्त तरंगिणी आदि ग्रंथों के रचयिता रामसहाय अष्ठाना 'राम' ( रचनाकाल १८६०-१८८०) दोहे भाषिक सौष्ठव, मनोरम व्यञ्जनाविधान तथा वाग्वैदग्धता के लिये उल्लेख्य हैं:
हरितन हरितन कत तकै, हरितन हरित निहारि
चरित न तो तन लखि परै, कित चित हित न बिसारि
अहे कहो कच सुमुखि के, बिधि बिरचे रूचि जोरि
छूटे बाँधत हैं बँधे, लेत ललन मन छोरि
बुंदेली के महाकवि ईसुरी (सं.१८९५-१९६६) श्रृंगार और आध्यात्मजड़ित दोहे और फागें रचकर अमर हैं:
आसमान में गरजना, कीको आय सुनाय
रिमझिम बरसत नीर है, बिजुरी खों चमकाय
लोकगीत राई ने दोहे को दिल में बसा रखा है:
बजाई आधी रात, बैरन मुरलिया सौत भई
पोर-पोर सब तन कटे, हरे न औगुन तोर
हरे बाँस की बाँसुरी, लै गई चित्त बटोर
बैरन मुरलिया तू सौत भई.…
विरह व्यथा का ह्रदय विदारक वर्णन हो या घोर श्रृंगार, ईश वंदना से ही गायन आरंभ होता है:
गिरिजसुत को सुमिरै कैं, धर सुरसती को ध्यान
आदिशक्ति जगजननि जू, कण्ठ बिराजो आन
आधुनिक हिंदीभवन के नींव के पत्थर भारतेंदु हरिश्चंद्र रचित दोहा नेता कंठस्थ कर सके होते हिंदी की दुर्दशा का कारण न बनते:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल
रीतिकालीन दोहायुग की कीर्ति पताका थामकर गिरिधर दास ( गोपालचन्द्र सं. १८९०-१९१७) मात्र २७ वर्ष की आयु में ४० ग्रंथ रचकर हिंदी को समृद्ध ही नहीं किया अपितु अपने पुत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र के माध्यम से नव संस्कार भी किया:
सिंधु जनित गर हर पियो, मरे असुर समुदाय
नैन बान नैनन लग्यो, भरे करेजे धाय
निज भाषा उन्नति अहै:
प्राण-प्रण से हिंदी हेतु समर्पित भारतेंदु हरिश्चंद्र (१८५०-१८८५ई.) ने दोहा के साथ अन्य विधाओं को भी समृद्ध किया:
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल
महाप्राण निराला जी (१८९६-१९६१ ई.) महाकवि ही नहीं महामानव भी थे। असत्य, भय या संकोच उनसे कोसों दूर थे। उनके प्रकाशक श्री दुलारेलाल भार्गव के दोहा संकलन का विमोचन समारोह था। बड़े-बड़े दौनों में शुद्ध घी का हलुआ खाते॰खाते उपस्थित कविजनों में भार्गव जी की प्रशस्ति-गायन की होड़ लग गयी। एक कवि ने दुलारेलाल जी के दोहा संग्रह को महाकवि बिहारी के कालजयी दोहा संग्रह "बिहारी सतसई" से श्रेष्ठ कहा, निराला जी चाटुकारिता सहन नहीं कर सके, किन्तु मौन रहे। तभी उन्हें संबोधन हेतु आमंत्रित किया गया। निराला जी ने दौने में बचा हलुआ एक साथ समेटकर खाया, कुर्ते की बाँह से मुँह पोंछा और शेर की तरह खडे होकर बडी॰बडी आँखों से चारों ओर देखते हुए पहला और अंतिम दोहा कहा, जिसे सुनते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया, दुलारेलाल जी की प्रशस्ति कर रहे कवियों ने अपना चेहरा छिपाते हुए सरकना शुरू कर दिया। खुद दुलारेलाल जी भी नहीं रुक सके। सारा कार्यक्रम चंद पलों में समाप्त हो गया। वह दोहा है:
कहाँ बिहारी लाल हैं, कहाँ दुलारे लाल?
कहाँ मूँछ के बाल हैं, कहाँ पूँछ के बाल?
दोहा लगभग २००० वर्ष की यात्रा कर वर्तमान आधुनिक हिंदी के द्वार पर आ खड़ा हुआ। छंदहीनता के पक्षधर तथाकथित प्रगतिशील तत्वों की चुनौती झेलकर दोहा को नवस्फूर्ति के साथ सामायिक और प्रासंगिक बनाये रखने में अनेक समर्थ कलमों के योगदान पर चर्चा फिर कभी। नव पीढ़ी में हिंदी-उर्दू-अंग्रेजी मिश्रित भाषा को ग्रहण करता दोहा नव प्रतीकों, बिम्बो, उपमानों से खुद को समृद्ध कर संजीवनी पा रहा है:
पल भर भी लगता नहीं, सपने हों अपलोड
निकल गयी सब ज़िंदगी, हुए न डाउनलोड
रैम-रॉम के फेर में, मॉनीटर संसार
कुछ भूले कुछ याद रख, कर दे बड़ा पार
हिंग्लिश की खिचड़ी पकी, वैलेंटाइन नाम
भूल वसन्तोसव रहे, साध्य न मन, है चाम
***
संदर्भ:१. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४, २. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७, ३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे, ४. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०.
२९-८-२०१४
***
द्विपदी सलिला:
इस आभासी जग में :
*
इस आभासी जग में सचमुच, कोई न पहरेदार
शिक्षित-बुद्धिमान हमलावर, देते कष्ट हजार
*
जिनसे जानते हैं जीवन में, उन्हें बनायें मित्र
'सलिल' सुरक्षित आप रहेंगे, मलिन न होगा चित्र
*
भली-भाँति कर जाँच- बाद में, भले मित्र लें जोड़
संख्या अधिक बढ़ाने की प्रिय!, कभी न करिए होड़
*
नकली खाते बना-बनाकर, छलिए ठगते मीत
प्रोफाइल लें जाँच, यही है, सीधी-सच्ची रीत
*
पढ़ें पोस्ट खाताधारी की, कितनी-कैसे लेख
लेखक मन की देख सकेंगे, रचनाओं में रेख
*
नकली चित्र लगाते हैं जो, उनसे रहिए दूर
छल करना ही उनकी फितरत, रही सजग जरूर
*
खाताधारक के मित्रों को देखें, चुप सायास
वस्त्र-भाव मुद्राओं से भी, होता कुछ आभास
*
देह-दर्शनी मोहकतामय, व्याल-जाल जंजाल
दिखें सोचिए इनके पीछे, कैसा है कंकाल?
*
संचित चित्रों-सामग्री को, देख करें अनुमान
जुड़ें-ना जुड़ें आप सकेंगे, उनका सच पहचान
*
शिक्षा, स्वजन, जीविका पर भी, तनिक दीजिए ध्यान
चिंतन धरा से भी होता, चिन्तक का अनुमान
*
नेता अभिनेता फूलों या, प्रभु के चिपका चित्र
जो परदे में छिपे- न उसका, विश्वसनीय चरित्र
*
स्वजनों के प्रोफाइल देखें, सच्चे या अनमेल?
गलत जानकारी देकर, कर सके न कोई खेल
*
शब्द और भाषा भी करते, गुपचुप कुछ संकेत
देवमूर्ति से तन में मन का, स्वामी कहीं न प्रेत
*
आक्रामक-अपशब्दों का जो, करते 'सलिल' प्रयोग
दूर रहें ऐसे लोगों से- हैं समाज के रोग
*
पासवर्ड हो गुप्त- बदलते रहिए बारम्बार
जान न पाए अन्य, सावधानी की है दरकार
२९-८-२०१३
***
संवाद कथा
अनदेखी
*
'आजकल कुछ परेशान दिख रहे हैं, क्या बात है?' मैंने मित्र से पूछा.
''क्या बताऊँ? कुछ दिनों से पोता विद्यालय जाने से मना करता है."
'क्यों?'
"कहता है रास्ते में कुछ बदतमीज बच्चे गाली-गलौज करते हैं. इससे उसे भय लगता है.''
'अच्छा, मैं कल उससे बात करूँगा, शायद उसकी समस्या सुलझ सके.'
अगले दिन मैं मित्र और उसके पोते के साथ स्थानीय भँवरताल उद्यान गया. मार्ग में एक हाथी जा रहा था जिसके पीछे कुछ कुत्ते भौंक रहे थे.
'क्यों बेटे? क्या देख रहे हो?'
बाबा जी! हाथी के पीछे कुत्ते भौंक रहे हैं.
'हाथी कितने हैं?'
बाबाजी ! एक.
'और कुत्ते?'
कई
'अच्छा, हाथी क्या कर रहा है?'
कुत्तों की ओर बिना देखे अपने रास्ते जा रहा है.
हम उद्यान पहुँच गए तो ओशो वृक्ष के नीचे जा बैठे. बच्चे से मैंने पूछा: ' इस वृक्ष के बारे में कुछ जानते हो?'
जी, बाबा जी! इसके नीचे आचार्य रजनीश को ज्ञान प्राप्त हुआ था जिसके बाद उन्हें ओशो कहा गया.
मैंने बच्चे को बताया कि किस प्रकार ओशो को पहले स्थानीय विरोध और बाद में अमरीकी सरकार का विरोध झेलना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपनी राह नहीं बदली और अंत में महान चिन्तक के रूप में इतिहास में अमर हुए.
वापिस लौटते हुई मैंने बच्चे से पूछा: 'बेटे! यदि हाथी या ओशो राह रोकनेवालों पर ध्यान देकर रुक जाते तो क्या अपनी मंजिल पा लेते?'
नहीं बाबा जी! कोई कितना भी रास्ता रोके, मंजिल आगे बढ़ने से ही मिलती है.
''यार! आज तो गज़ब हो गया, पोटा अपने आप विद्यालय जाने को तैयार हो गया. कुछ देर बाद उसके पीछे-पीछे मैं भी गया लेकिन वह रास्ते में भौकते कुत्तों से न डरा, न उन पर ध्यान दिया, सीधे विद्यालय जाकर ही रुका.'' मित्र ने प्रसन्नता से बताया.
२९-८-२०१३

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आकलन:अन्ना आन्दोलन

भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान:

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अब जब अन्ना का आन्दोलन थम गया है, उनके प्राणों पर से संकट टल गया है यह समय समस्या को सही-सही पहचानने और उसका निदान खोजने का है.

सोचिये हमारा लक्ष्य जनतंत्र, प्रजातंत्र या लोकतंत्र था किन्तु हम सत्तातंत्र, दलतंत्र और प्रशासन तंत्र में उलझकर मूल लक्ष्य से दूर नहीं हो गये हैं क्या? यदि हाँ तो समस्या का निदान आमूल-चूल परिवर्तन ही है. कैंसर का उपचार घाव पर पट्टी लपेटने से नहीं होगा.

मेरा नम्र निवेदन है कि अन्ना भ्रष्टाचार की पहचान और निदान दोनों गलत दिशा में कर रहे हैं. देश की दुर्दशा के जिम्मेदार और सुख-सुविधा-अधिकारों के भोक्ता आई.ए.एस., आई.पी.एस. ही अन्ना के साथ हैं. न्यायपालिका भी सुख-सुविधा और अधिकारों के व्यामोह में राह भटक रही है. वकील न्याय दिलाने का माध्यम नहीं दलाल की भूमिका में है. अधिकारों का केन्द्रीकरण इन्हीं में है. नेता तो बदलता है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी सेवाकाल में ही नहीं, सेवा निवृत्ति पर्यंत ऐश करता है.

सबसे पहला कदम इन अधिकारियों और सांसदों के वेतन, भत्ते, सुविधाएँ और अधिकार कम करना हो तभी राहत होगी.

जन प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता के तत्काल बाद की तरह जेब से धन खर्च कर राजनीति करना पड़े तो सिर्फ सही लोग शेष रहेंगे.

चुनाव दलगत न हों तो चंदा देने की जरूरत ही न होगी. कोई उम्मीदवार ही न हो, न कोई दल हो. ऐसी स्थिति में चुनाव प्रचार या प्रलोभन की जरूरत न होगी. अधिकृत मतपत्र केवल कोरा कागज़ हो जिस पर मतदाता अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिख दे और मतपेटी में डाल दे. उम्मीदवार, दल, प्रचार न होने से मतदान केन्द्रों पर लूटपाट न होगी. कोई अपराधी चुनाव न लड़ सकेगा. कौन मतदाता किस का नाम लिखेगा कोई जन नहीं सकेगा. हो सकता है हजारों व्यक्तियों के नाम आयें. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सब मतपत्रों की गणना कर सर्वाधिक मत पानेवाले को विजेता घोषित किया जाए. इससे चुनाव खर्च नगण्य होगा. कोई प्रचार नहीं होगा, न धनवान मतदान को प्रभावित कर सकेंगे.

चुने गये जन प्रतिनिधियों के जीवन काल का विवरण सभी प्रतिनिधियों को दिया जाए, वे इसी प्रकार अपने बीच में से मंत्री चुन लें. सदन में न सत्ता पक्ष होगा न विपक्ष, इनके स्थान पर कार्य कार्यकारी पक्ष और समर्थक पक्ष होंगे जो दलीय सिद्धांतों के स्थान पर राष्ट्रीय और मानवीय हित को ध्यान में रखकर नीति बनायेंगे और क्रियान्वित कराएँगे.

इसके लिये संविधान में संशोधन करना होगा. यह सब समस्याओं को मिटा देगा. हमारी असली समस्या दलतंत्र है जिसके कारण विपक्ष सत्ता पक्ष की सही नीति का भी विरोध करता है और सत्ता पक्ष विपक्ष की सही बात को भी नहीं मानता.

भारत के संविधान में अल्प अवधि में दुनिया के किसी भी देश और संविधान की तुलना में सर्वाधिक संशोधन हो चुके हैं, तो एक और संशिधन करने में कोई कठिनाई नहीं है. नेता इसका विरोध करेंगे क्योकि उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जायेंगे किन्तु जनमत का दबाब उन्हें स्वीकारने पर बाध्य कर सकता है.

ऐसी जन-सरकार बनने पर कानूनों को कम करने की शुरुआत हो. हमारी मूल समस्या कानून न होना नहीं कानून न मानना है. राजनीति शास्त्र में 'लेसीज़ फेयर' सिद्धांत के अनुसार सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है क्योंकि लोग आत्मानुशासित होते हैं. भारत में इतने कानून हैं कि कोई नहीं जनता, हर पाल आप किसी न किसी कानून का जने-अनजाने उल्लंघन कर रहे होते हैं. इससे कानून के अवहेलना की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी है. इसका निदान केवल अत्यावश्यक कानून रखना, लोगों को आत्म विवेक के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देना तथा क्षतिपूर्ति अधिनियम (law of tort) को लागू करना है.

क्या अन्ना और अन्य नेता / विचारक इस पर विचार करेंगे?

२९-८-२०११