कुल पेज दृश्य

dr. raj kumar tiwary sumitra लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
dr. raj kumar tiwary sumitra लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 10 जुलाई 2013

kriti charcha: kabhee sochen -sanjiv

कृति चर्चा:
कभी सोचें -  तलस्पर्शी चिंतन सलिला

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

कृति विवरणः कभी सोचें, चिंतनपरक लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी-पेपरबैक, पृष्ठ 143, मूल्य 180 रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर

सुदर्शन व्यक्तित्व, सूक्ष्मदृष्टि तथा उन्मुक्त चिंतन-सामर्थ्य संपन्न वरिष्ठ साहित्यकार पत्रकार डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ को तत्व-प्रेम विरासत में प्राप्त है। पत्रकारिता काल के संघर्ष ने उन्हें मूल-शोधक दृष्टि, व्यापक धरातल, सुधारोन्मुखी चिंतन तथा समन्वयपरक सृजनशील लेखन की ओर उन्मुख किया है। सतत सृजनकर्म की साधना ने उन्हें शिखर स्पर्श की पात्रता दी है। सनातन जीवनमूल्यों की समझ और सटीक पारिस्थितिक विश्लेषण की सामर्थ्य ने उन्हें सर्वहितकारी निष्कर्षपरक आकलन-क्षमता से संपन्न किया है। विवेच्य कृति ‘कभी सोचें’ सुमित्र जी द्वारा लिखित 98 चिंतनपरक लेखों का संकलन है।

चिंतन जीवनानुभवों के गिरि शिखर से नि:सृत निर्झरिणी के निर्मल सलिल की फुहारों की तरह झंकृत-तरंगित-स्फुरित करने में समर्थ हैं। सामान्य से हटकर इन लेखों में दार्शनिक बोझिलता, क्लिष्ट शब्दचयन, परदोष-दर्शन तथा परोपदेशन मात्र नहीं है। ये लेख आत्मावलोकन के दधि को आत्मोन्नति की अरणि से मथकर आत्मोन्नति का नवनीत पाने-देने की प्रक्रिया से व्युत्पन्न है। सामाजिक वैषम्य, पारिस्थितिक विडंबनाओं तथ दैविक-अबूझ आपदाओं की त्रासदी को सुलझाते सुमित्र जी शब्दों का प्रयोग पीडित की पीठ सहलाते हाथ की तरह इस प्रकार करते हैं कि पाठक को हर लेख अपने आपसे जुड़ा हुआ प्रतीत होता है।

अपने तारुण्य में कविर्मनीषी रामानुजलाल श्रीवास्तव ‘उंट बिलहरीवी’ तथा सरस गीतकार नर्मदाप्रसाद खरे का स्नेहाशीष पाये सुमित्र सतत प्रयासजनित प्रगति के जीवंत पर्याय हैं। वे इन लेखों में वैयक्तिक उत्तरदायित्व को सामाजिक असंतोष की निवृत्ति का उपकरण बनाने की परोक्ष प्रेरणा दे सके है। प्राप्त का आदर करो, सामर्थ्यवान हैं आप, सच्चा समर्पण, अहं के पहाड़, स्वतंत्रता का अर्थ, दुख का स्याहीसोख, स्वागत का औचित्य, भाषा की शक्ति, भाव का अभाव, भय से अभय की ओर, शब्दों का प्रभाव, अप्राप्ति की भूमिका है, हम हिंदीवाले, जो दिल खोजा आपना, यादों का बसेरा, लघुता और प्रभुता, सत्य का स्वरूप, पशु-पक्षियों से बदतर, मन का लावा, आज सब अकेले हैं, विसर्जन बोध आदि चिंतन-लेखों में सुमित्र जी की मित्र-दृष्टि विद्रूपता के गरल को नीलकण्ठ की तरह कण्ठसात् कर अमिय वर्षण की प्रेरणा सहज ही दे पाते हैं। एक बानगी देखें-   
      
‘‘सामर्थ्यवान हैं आप

विभिन्न क्षेत्रों में सफलता और श्रेय की सीढि़याँ चढ़ते लोगों को देख सामान्य व्यक्ति को लगता है कि यह सब सामर्थ्य का प्रतिफल है और इतनी सामर्थ्य उसमें है नहीं।

अपने में छिपी सामर्थ्य को जानने, प्रगट करने का एक मार्ग है अध्यात्म। ‘सोहम्’ अर्थात् मैं आत्मा हूँ। अपने को आत्मा मानने से विशिष्ट ज्ञान उपलब्ध होता है। अंधकार में प्रकाश की किरण फूटती है।

आध्यात्मिक दृष्टि मनुप्य को आचरण से ऊपर उठने में मदद करती है। जब उस पर रजस और तमस का वेग आता है जब भी वह भयभीत, चिंतित या हताश नहीं होता। उसके भीतर से उसे शक्ति मिलती रहती है।

हममें सत्य, प्रेम, न्याय, शांति, अहिंसा की दिव्य शक्तियाँ स्थित हैं। इन दिव्य शक्तियों को जानने और उनके जागरण का सतत प्रयत्न होना चाहिए।

इनका विकास ही हमें पशुओं और सामान्य मनुष्य से ऊपर उठा सकता है। विश्वास करें कि आप सामर्थ्यवान हैं। आपका सामर्थ्य आपके भीतर है। दृष्टि परिवर्तित करें और सामर्थ्य पायें। ’’

सुमित्र जी अध्यात्म पथ की दुप्करता से परिचित होते हुए भी सांसारिक बाधाओं और वैयक्तिक सीमाओं के मद्देनजर कबीरी वीतरागिता असाध्य होने पर भी सामान्य जन को उसके स्तर से ऊपर उठकर सोचने-करने की प्रेरणा दे पाते हैं। यही उनके चिंतन और लेखन की उपलब्धि है। अधिकांश लेख ‘कभी सोचें’ या ‘सोचकर तो देखें’ जैसे आव्हान के साथ पूर्ण होते हैं और पूर्ण होने के पूर्व पाठक को सोचने की राह पर ले आते हैं। ये लेख मूलतः दैनिक जयलोक जबलपुर में दैनिक स्तंभ के रूप में प्रकाशित-चर्चित हो चुके हैं। आरंभ में डॉ. हरिशंकर दुबे लिखित गुरु-गंभीर पुरोवाक् सुमित्र की लेखन कला की सम्यक्-सटीक विवेचना कर कृति की गरिमा वृद्वि करता है।  
=======
salil.sanjiv@gmail.com
divyanarmada.blogspot.in

मंगलवार, 9 जुलाई 2013

kriti salila: vyangya ka lok hitaishee pravah batkahaav ---sanjiv

कृति  सलिला :
व्यंग्य का लोकहितैषी प्रवाह : "बतकहाव"
चर्चाकार : आचार्य संजीव 'वर्मा सलिल' 
[कृति विवरण: बातकहाव, व्यंग्य लेख संग्रह, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी पेपरबैक, पृष्ठ १६०, मूल्य २५०रु., पाथेय प्रकाशन जबलपुर]
*
भारत के स्वातंत्र्योत्तर कला में सतत बढ़ाती सामाजिक विद्रूपता, राजनैतिक मूल्यहीनता, वैयक्तिक पाखंडों तथा आर्थिक प्रलोभनों ने व्यंग्य को वामन से विराट बनाने में महती भूमिका अदा की है। फिसलन की डगर पर सहारों की प्रासंगिकता ही नहीं उपादेयता भी होती है। वर्तमान परिदृश्य और परिवेश में व्याप्त विसंगतियों और विडम्बनाओं में किसी भी मूल्यधर्मी रचनाकार के लिए व्यन्य-लेखन अनिवार्य सा हो गया है। गद्य-पद्य की सभी विधाओं में व्यंग्य की लोकप्रियता का आलम यह है कि कोई पत्र-पत्रिका व्यंग्य की रचनाओं को हाशिये पर नहीं रख पा रही है। संस्कारधानी जबलपुर में हिंदी व्यंग्य लेखन के शिखर पुरुष हरिशंकर परसाई की प्रेरणा से व्यंग्य लेखन की परंपरा सतत पुष्ट हुई और डॉ. श्री राम ठाकुर 'दादा', डॉ. सुमुत्र आदि ने व्यंग्य को नए आयाम दिए। 

साहित्य-सृजन तथा पत्रकारिता लोकहित साधना के सार्वजनिक प्रभावी औजार होने के बावजूद इनके माध्यम से परिवर्तन का प्रयास सहज नहीं है। सुमित्र जी दैनिक जयलोक में कभी सोचें, बतकहाव तथा चारू-चिंतन आदि स्तंभों में इस दिशा में सतत सक्रिय रहे हैं। इन स्तंभों के चयनित लेखों का पुस्तकाकार में प्रकाशित होना इन्हें नए और वृहत्तर पाठक वर्ग तक पहुँचा सकेगा। सुमित्र जी के व्यंग्य लेखों का वैशिष्ट्य इनका लघ्वाकारी होना है। दैनिक अखबार के व्यंग्य स्तम्भ के सीमित कलेवर में स्थानीय और वैयक्तिक विसंगतियों से लेकर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समस्याओं तक, वैयक्तिक पाखंडों से लेकर समजिन कुरीतियों तक की किसी कुशल शल्यज्ञ  की तरह चीरफाड़ करने में सुमित्र जी शब्दों के पैनेपन को चिकोटी काटने से उपजी मीठी चुभन तक नियंत्रित रखते हैं, दिल को चुभनेवाली-तिलमिला देनेवाली पीड़ा तक नहीं ले जाते। अपने कथ्य को लोकग्राह्य बनाने के लिए तथा निस्संगता और तटस्थता से कहने के लिए सुमित्र जी ने भरोसे लाल नामक काल्पनिक पात्र गढ़ लिया है। यह भरोसेलाल गरजते-बरसते, मिमियाते-हिनहिनाते अंततः निरुत्तर होने पर ''भैया की बातें'' कहकर चुप्पी लगा लेने में माहिर हैं।

बतकहाव के व्यंग्य लेखों का शिल्प अपनी मिसाल आप है। बाबू भरोसेलाल किसी   प्रसंग में कुछ कहते हैं और फिर  उनमें तथा भैया जी में हुई बातचीत विसंगति पर कटाक्ष कर बतरस की ओर मुड़ जाती है। कटाक्ष की च्भन और बतरस की मिठास पाठक को बचपन में खाई खटमिट्ठी गोली की तरह देर तक आनंदित करती है जबकि भरोसेलाल भैया जी के सामने निरुत्तर होकर अपना तकिया कलाम दुहराते हुए मौन साधना में लीन हो जाते हैं। जयलोक के प्रधान संपादक अजित वर्मा के अनुसार ''सुमित्र जी का अपना रचना संसार है जिसमें प्रचुर वैविध्य और विराटत्व है। उनका अन्तरंग और बहिरंग एकाकार है। हिंदी साहित्य के इतिहास, उसकी धाराओं के प्रवाह और अंतर्प्रवाह, अवरोध और प्रतिरोध के वे अध्येता हैं। गद्य - पद्य की विविध विधाओं और शैलियों के विकास क्रम, विचलन, खंडन - मंडन की सूक्ष्म अनुभूतियाँ उनकी धारणाओं, अवधारणाओं और चिंतन को इतना विकसित करती हैं की वे साधिकार आलोचना-समालोचना करते हैं। अध्यवसाय और अनुशीलन ने उन्हेंशोध परक सृजन की क्षमता से संपन्न बनाया है। 

सहिष्णुता और सात्विकता की पारिवारिक विरासत, व्यंग्य कवि-समीक्षक रामानुजलाल श्रीवास्तव तथा मधुर गीतकार नर्मदा प्रसाद खरे का नैकट्य, सोचने की आदत, पढ़ने का शौक और लिखने का पेशा इन चार संयोगों ने 'संभावनाओं की फसल' उगा रहे तरुण सुमित्र को एक दर्जन से अधिक कृतियों के गंभीर चिन्तक - सर्जक के रूप में सहज ही प्रतिष्ठित कर दिया है। सुमित्र जी के अखबारी स्तम्भ अपनी सामयिकता, चुटीलेपन, सरसता सहजता, देशजता तथा व्यापकता के लिए कॉफ़ी हाउस की मेजों से लेकर नुक्कड़ पर पान के टपरों तक, विद्वानों की बैठकों से लेकर श्रमजीवियों तक बरसों-बरस पढ़े और सराहे जाते रहे हैं। सुमित्र जी बड़ी से बड़ी गंभीर से गंभीर बात बेइन्तिहा सादगी से कह जाते हैं। सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे की उक्ति इन लेखों के के सन्दर्भ में खरी उतरती है। प्रसिद्द व्यंग्यकार डॉ. श्रीरामठाकुर 'दादा' इन रचनाओं को सामाजिक, कार्यालयीन तथा राजनैतिक इन तीन वर्गों में विभक्त करते हुए उनका वैशिष्ट्य क्रमशः सामाजिक स्थितियों का उद्घाटन, चरमराती व्यवस्था से उपजा आक्रोश तथा विडम्बनाओं पर व्यंग्य मानते हैं किन्तु मेरी अपनी दृष्टि में इन सभी व्यंग्य लेखों का उत्स सुमित्र जी की सामाजिक सहभागिता तथा सांस्कृतिक साहचर्य से उपजी सहकारिता है।

विख्यात  हिंदीविद डॉ. कांतिकुमार जैन सुमित्र जी के सृजन को साहित्य और पत्रकारिता के मध्य सेतु मानते हैं। सुमित्र जी किसी प्रसंग पर कलम उठाते समय आम आदमी के नजरिये से यथसंभव तटस्थ-निरपेक्ष भाव से विक्रम -बैताल की तर्ज़ पर संवाद-शैली में घटित का संकेत, अन्तर्निहित विसंगति को इंगित करती फैंटेसी तथा नत में समाधान या प्रेरणा के रूप में कथन-समापन करते हैं किन्तु तब तक वे प्रायः पाठक को अपने रंग में रंग चुके होते हैं। 
 
हम  भारतीयों में जाने-अनजाने सलाह-मशविरा देने को अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानने की आदत है। कभी बल्ला न पकड़ने पर भी सचिन की बल्लेबाजी पर टिप्पणी, यांत्रिकी न जानने पर भी निर्माणों और योजनाओं को ख़ारिज करना, अर्थशास्त्र न जानने पर भी बजट के प्रावधानों का उपहास करते हमें पल भर भी नहीं लगता। सुमित्र अपने व्यंग्य लेखों की जमीन इसी मानसिकता के बीच तलाशते हैं। घतुर्दिक घटती घटनाओं की सूक्ष्मता से अवलोकन करता उनका मन, माथे पर पड़े बल और पल भर को मुंदी ऑंखें उनकी सोच को धार देती हैं, मुंह में पान धर जेब से कलम निकलता हाथ चल पड़ता है न्यूनतम समय में, लघुत्तम कलेवर में महत्तम को अभिव्यक्त करने के शारदेय हवं में समिधा समर्पण के लिए और उसे पूर्ण कर चैन की सांस ले फिर अपने सामने बैठे किसी भरोसे लाल से गप्पाष्टक में जुट जाता है।

सारतः, बतकहाव में भारतीय संस्कृति, बुन्देलखंडी परिवेश, नर्मदाई अपनत्व, 'सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है' को जीते बाबू  भरोसे लाल और उनकी लात्रानियों पर मुस्कुराते, चुटकी लेते, मिठास के साथ तंज करते, सकल चर्चा को पुराण न बनाकर निष्कर्ष तक ले जाते भैया जी आम आदमी को वह सन्देश दे जाते हैं जो उसकी सुप्त चेतन को लुप्त होने से बचाते हुए सार्थक उद्देश्य तक ले जाता है। विवेच्य कृति अगली कृति की प्रतीक्षा का भाव जगाने में समर्थ है।
===============

 

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

कृति चर्चा: आम आदमी के दर्द के आलेख : सुमित्र के व्यंग्य लेख चर्चाकार: संजीव 'सलिल'


कृति चर्चा:

चर्चाकार: संजीव 'सलिल'

 
      

आम आदमी के  दर्द के आलेख : सुमित्र के व्यंग्य लेख
*
व्यंग्य लेखन साहित्य की वह विधा है जो कालखंड विशेष की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पारिवारिक तथा वैयक्तिक विडम्बनाओं, विसंगतियों, अंतर्द्वंदों व आडम्बरों के त्रासद-हास्यद पक्षों को उद्घाटित कर दोगलेपन तथा पाखंड पर सीधा, तीखा किन्तु विनोदपूर्ण प्रहार करती है. व्यंग्य कभी व्यष्टि, कभी समष्टि, के माध्यम से परिस्थितियों, प्रणालियों, व्यवस्थाओं आदि पर शब्द-प्रहार कर भ्रष्टाचार, घृणा, शोषण, द्वेष, लोलुपता, स्वार्थपरता, कठमुल्लापन आदि को सामने लाता है किन्तु धर्मोपदेशक की तरह तजने का आग्रह  नहीं करता. व्यंग्य-लेखन का उद्देश्य पाठक के मन में गलत के प्रति वितृष्णा पैदा करना होता है, अंतर्मन में विरोध का भाव उत्पन्न करना होता है.

संस्कारधानी जबलपुर व्यंग्य को 'स्पिरिट' कहनेवाले किन्तु अपने प्रचुर और प्रभावी लेखन से हिंदी साहित्य में स्वतंत्र विधा का स्थान दिलानेवाले स्वनामधन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कर्मस्थली है. तुलसी के पौधे से भूमि पर गिरी मंजरियों से अनेक अंकुर प्रस्फुटित-पल्लवित होना स्वाभाविक है. परसाई की व्यंग्य लेखन मंजरी से संस्कारधानी में अंकुरित व्यंग्यकारों में सुमित्र चर्चित रहे हैं. परसाई जी के सान्निन्ध्य में समाज को सजग द्रिध्ती से निरखने-परखने का संस्कार पाकर विदूपताओं और विसंगतियों से व्यथित होने वाला तरुण पत्रकार सुमित्र उन्हें ललकारकर पटकनी देनेवाले व्यंग्यकार सुमित्र में कब-कैसे परिवर्तित हो गया संभवतः उसे भी पता नहीं चला. तभी तो दैनिक अख़बार के स्तम्भ के सीमित कलेवर में वह आम आदमी की व्यथा-कथा कहने का साहस जुटाकर कम शब्दों में गहरी बात कह सका.

इस संकलन के व्यंग्य लेखों में व्यापक अनुभव क्षेत्र की खोज, सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की प्रवृत्ति, दूर दृष्टि संपन्न सकारात्मक परिवर्तन की दिशा अन्तर्निहित है. सुमित्र जी के व्यंग्य तिलमिलाते नहीं सहलाते हैं. प्रसाद गुण संपन्न सांकेतिक अर्थ व्यंजना सामाजिक परिवर्तन की प्रेरक बनकर पाठकों को आत्मावलोकन ही नहीं आत्मालोचन के लिये भी प्रेरित करती है. बँट रहा है भारत रत्न, महान जी, आप कतार में हैं, निंदक नियरे राखिए, नंगा और नंगपन, सूत न कपास, नमामि देवी चापलूसी-चुगलखोरी, बजट की वंशी, अथ मुगालता कथा, पढ़ो, बढ़ो और गिर पड़ो, आदि ३० व्यन्ग्य७अ लेख सुमित्र जी के सामाजिक सरोकारों. सरोकारों के प्रति संवेदनशील सजग दृष्टि तथा दृष्टिजनित सरोकारों का ऐसा वर्तुल निर्मित करते हैं जिसके केंद्र में आम आदमी की विवशता तथा जिजीविषा दोनों की सहभागिता संभव हो पाती है.

सुमित्र जी कि सहज चुटीली भाषा पाठक के मन को स्पर्श करती है- ' अब तो दुनिया ही बदल गई, पहले जैसे सरोवर अब कहाँ? पनिहारिनों का पनघट पर लगा वह स्वर्गीय मेला. सब स्वर्गीय हो गया. अब क्या है? केंचुए से नल देखो, नल की धार देखो और झोंटा छितराती नायिकाएं देखो. श्रृंगार का तो फट्टा ही साफ़ समझो. तुम कहोगे हम रो रहे हैं. क्यों न रोएँ? तुम्हारे समय में चार महीनों का ताप काफी गुल खिलाता था. काफी ऊर्जा दे जाता था. चंदन की काफी खपत हो जाती थी और चार माह के बाद में जब मेघराजाअपनी प्रेम-फुहार से धरती को सिंचित करते थे तो 'परिरंभ कुंभ' की मदिरा की छटा छिटक जाती थी. इधर तो साल भर से मेघों का गुरिल्लावार चालू है. पानी थामा ही नहीं, गया ही नहीं, और आज आषाढ़स्य प्रथम दिवसे. न धरती सूनी है, न उसके सिंचन से सौंधी गंध उठ रही है. अब आगे क्या होगा? संयोग-वियोग श्रृंगार की सभी संभावनाएं धूमिल हैं.''

प्रसिद्ध लेखिका एम. डब्ल्यू. मोंतेंग्यू के अनुसार: 'व्यंग्य एक तेज़ धार चाकू के समान है जो इस प्रकार घाव करता है कि स्पर्श तक का आभास भी  नहीं हो.' डॉ. सुमित्र की संवेदनशील परिपक्व सोच और भाषिक सामर्थ्य चाकू कवर को गुलाब के रेशमी स्पर्श में बदल देता है.
______