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शनिवार, 13 जून 2020

रवींद्रनाथ ठाकुर : भावानुवाद

कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर की एक
रचना का भावानुवाद:
संजीव 'सलिल'
*
*
रुद्ध अगर पाओ कभी, प्रभु! तोड़ो हृद-द्वार.
कभी लौटना तुम नहीं, विनय करो स्वीकार..
*
मन-वीणा-झंकार में, अगर न हो तव नाम.
कभी लौटना हरि! नहीं, लेना वीणा थाम..
*
सुन न सकूँ आवाज़ तव, गर मैं निद्रा-ग्रस्त.
कभी लौटना प्रभु! नहीं, रहे शीश पर हस्त..
*
हृद-आसन पर गर मिले, अन्य कभी आसीन.
कभी लौटना प्रिय! नहीं, करना निज-आधीन..
१३-६-२०१० 

मंगलवार, 25 जुलाई 2017

kavyanuvaad

अनुवाद सलिला
मूल रचना: महादेवी वर्मा
अंग्रेजी काव्यानुवाद: बीनू भटनागर












*
मैं नीर भरी दुख की बदली!
.
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हँसा,
नयनों में दीपक से जलते,
पलकों में निर्झणी मचली!
.
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों में स्वप्न पराग झरा,
नभ के नव रंग बुनते दुकूल,
छाया में मलय बयार पली!
.
मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!
.
पथ न मलिन करता आना,
पद चिह्न न दे जाता जाना,
सुधि मेरे आगम की जग में,
सुख की सिहरन हो अंत खिली!
.
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही,
उमड़ी कल थी मिट आज चली!
.











I am a wet cloud of sorrow
.
My vibrations rest on eternal still,
The world laughed when I cried
My eyes burn like lamps
A cascade fell from eyelashes.
.
Every step of mine is full of music.
Pollen of my dreams came out with breath
New colors weave shiny silk in the sky
In its shadow fragrant breeze is raised.
.
Mist covered my eyebrows at horizon
I remained the cause of ongoing worry.
On the particle of sand I dropped a water- drop.
A life sprouted and started growing
.
I don’t make the path filthy
I do not leave foot prints when I go
Everyone is happy at my arrival
I give immense joy to all.
.
I do not have my own corner in the sky
The sky that is so vast and gigantic
This is my introduction, my history
Today I am here tomorrow gone!
***
#दिव्यनर्मदा
#हिंदी_ब्लॉगर 

मंगलवार, 9 मई 2017

kavyanuvaad baangla-hindi

बाङ्ग्ला-हिंदी भाषा सेतु:
पूजा गीत
रवीन्द्रनाथ ठाकुर
*
जीवन जखन छिल फूलेर मतो
पापडि ताहार छिल शत शत।
बसन्ते से हत जखन दाता
रिए दित दु-चारटि तार पाता,
तबउ जे तार बाकि रइत कत
आज बुझि तार फल धरेछे,
ताइ हाते ताहार अधिक किछु नाइ।
हेमन्ते तार समय हल एबे
पूर्ण करे आपनाके से देबे
रसेर भारे ताइ से अवनत।
*
पूजा गीत: रवीन्द्रनाथ ठाकुर
हिंदी काव्यानुवाद : संजीव
*
फूलों सा खिलता जब जीवन
पंखुरियां सौ-सौ झरतीं।
यह बसंत भी बनकर दाता
रहा झराता कुछ पत्ती।
संभवतः वह आज फला है
इसीलिये खाली हैं हाथ।
अपना सब रस करो निछावर
हे हेमंत! झुककर माथ।
*
९-५-२०१४

शनिवार, 1 अप्रैल 2017

durga saptshati kilak stotra

ॐ 
श्री दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र
*
ॐ मंत्र कीलक शिव ऋषि ने, छंद अनुष्टुप में रच गाया। 
प्रमुदित देव महाशारद ने, श्री जगदंबा हेतु रचाया।।    
सप्तशती के पाठ-जाप सँग, हो विनियोग मिले फल उत्तम। 
ॐ चण्डिका देवी नमन शत, मारकण्डे' ऋषि ने गुंजाया।।
*
देह विशुद्ध ज्ञान है जिनकी, तीनों वेद नेत्र हैं जिनके
उन शिव जी का शत-शत वंदन, मुकुट शीश पर अर्ध चन्द्र है।१। 
*
मन्त्र-सिद्धि में बाधा कीलक, अभिकीलन कर करें निवारण।                                                           
 कुशल-क्षेम हित सप्तशती को, जान करें नित जप-पारायण।२।
*
अन्य मंत्र-जाप से भी होता, उच्चाटन-कल्याण किंतु जो 
देवी पूजन सप्तशती से, करते देवी उन्हें सिद्ध हो।३।
*
अन्य मंत्र स्तोत्रौषधि  की, उन्हें नहीं कुछ आवश्यकता है। 
बिना अन्य जप, मंत्र-यंत्र के, सब अभिचारक कर्म सिद्ध हों।४।  
*
अन्य मंत्र भी फलदायी पर, भक्त-मनों में रहे न शंका। 
सप्तशती ही नियत समय में, उत्तम फल दे बजता डंका।५।
*
महादेव ने सप्तशती को गुप्त किया, थे पुण्य अनश्वर।  
अन्य मंत्र-जप-पुण्य मिटे पर, सप्तशती के फल थे अक्षर।६।
*
अन्य स्तोत्र का जपकर्ता भी, करे पाठ यदि सप्तशती का। 
हो उसका कल्याण सर्वदा, किंचितमात्र न इसमें शंका।७।
*
कृष्ण-पक्ष की चौथ-अष्टमी, पूज भगवती कर सब अर्पण। 
करें प्रार्थना ले प्रसाद अन्यथा विफल जप बिना समर्पण।८।  
*
निष्कीलन, स्तोत्र पाठ कर उच्च स्वरों में सिद्धि मिले हर। 
देव-गण, गंधर्व हो सके भक्त, न उसको हो कोंचित डर।९। 
*
हो न सके अपमृत्यु कभी भी, जग में विचरण करे अभय हो। 
अंत समय में देह त्यागकर, मुक्ति वरण करता ही है वो।१०।
*
कीलन-निष्कीलन जाने बिन, स्तोत्र-पाठ से हो अनिष्ट भी। 
ग्यानी जन कीलन-निष्कीलन, जान पाठ करते विधिवत ही।११। 
*
नारीगण सौभाग्य पा रहीं, जो वह देवी का प्रसाद है। 
नित्य स्तोत्र का पाठ करे जो पाती रहे प्रसाद सर्वदा।१२।
*
पाठ मंद स्वर में करते जो, पाते फल-परिणाम स्वल्प ही
पूर्ण सिद्धि-फल मिलता तब ही, सस्वर पाठ करें जब खुद ही।१३।  
*
दें प्रसाद-सौभाग्य सम्पदा, सुख-सरोगी, मोक्ष जगदंबा
अरि नाशें जो उनकी स्तुति, क्यों न करें नित पूजें अंबा।१४। 
३१-३--२०१७ 
***

शुक्रवार, 31 मार्च 2017

durgashtottar sha tnam stotra

नवदुर्गा पर्व पर विशेष:
श्री दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र
हिंदी काव्यानुवाद
*
शिव बोलेः ‘हे पद्ममुखी! मैं कहता नाम एक सौ आठ।
दुर्गा देवी हों प्रसन्न नित सुनकर जिनका सुमधुर पाठ।१।
ओम सती साघ्वी भवप्रीता भवमोचनी भवानी धन्य।
आर्या दुर्गा विजया आद्या शूलवती तीनाक्ष अनन्य।२।
पिनाकिनी चित्रा चंद्रघंटा, महातपा शुभरूपा आप्त।
अहं बुद्धि मन चित्त चेतना, चिता चिन्मया दर्शन प्राप्त।३।
सब मंत्रों में सत्ता जिनकी, सत्यानंद स्वरूपा दिव्य।
भाएॅं भाव-भावना अनगिन, भव्य-अभव्य सदागति नव्य।४।
शंभुप्रिया सुरमाता चिंता, रत्नप्रिया हों सदा प्रसन्न।
विद्यामयी दक्षतनया हे!, दक्षयज्ञ ध्वंसा आसन्न।५।
देवि अपर्णा अनेकवर्णा पाटल वदना-वसना मोह।
अंबर पट परिधानधारिणी, मंजरि रंजनी विहॅंसें सोह।६।
अतिपराक्रमी निर्मम सुंदर, सुर-सुंदरियॉं भी हों मात।
मुनि मतंग पूजित मातंगी, वनदुर्गा दें दर्शन प्रात।७।
ब्राम्ही माहेशी कौमारी, ऐंद्री विष्णुमयी जगवंद्य।
चामुंडा वाराही लक्ष्मी, पुरुष आकृति धरें अनिंद्य।८।
उत्कर्षिणी निर्मला ज्ञानी, नित्या क्रिया बुद्धिदा श्रेष्ठ ।
बहुरूपा बहुप्रेमा मैया, सब वाहन वाहना सुज्येष्ठ।९।
शुंभ-निशुंभ हननकर्त्री हे!, महिषासुरमर्दिनी प्रणम्य।
 मधु-कैटभ राक्षसद्वय मारे, चंड-मुंड वध किया सुरम्य।१०।
सब असुरों का नाश किया हॅंस, सभी दानवों का कर घात।
सब शास्त्रों की ज्ञाता सत्या, सब अस्त्रों को धारें मात।११।
अगणित शस्त्र लिये हाथों में, अस्त्र अनेक लिये साकार।
सुकुमारी कन्या किशोरवय, युवती यति जीवन-आधार।१२।
प्रौढ़ा नहीं किंतु हो प्रौढ़ा, वृद्धा मॉं कर शांति प्रदान।
महोदरी उन्मुक्त केशमय, घोररूपिणी बली महान।१३।
अग्नि-ज्वाल सम रौद्रमुखी छवि, कालरात्रि तापसी प्रणाम।
नारायणी भद्रकाली हे!, हरि-माया जलोदरी नाम।१४।
तुम्हीं कराली शिवदूती हो, परमेश्वरी अनंता द्रव्य।
हे सावित्री! कात्यायनी हे!!, प्रत्यक्षा विधिवादिनी श्रव्य।१५।
दुर्गानाम शताष्टक का जों, प्रति दिन करें सश्रद्धा पाठ।
देवि! न उनको कुछ असाध्य हो , सब लोकों में उनके ठाठ।१६।
मिले अन्न धन वामा सुत भी, हाथी-घोड़े बँधते द्वार।
सहज साध्य पुरुषार्थ चार हो, मिले मुक्ति होता उद्धार।१७।
करें कुमारी पूजन पहले, फिर सुरेश्वरी का कर ध्यान।
पराभक्ति सह पूजन कर फिर, अष्टोत्तर शत नाम ।१८।
पाठ करें नित सदय देव सब, होते पल-पल सदा सहाय।
राजा भी हों सेवक उसके, राज्य लक्ष्मी प् वह हर्षाय।१९।
गोरोचन, आलक्तक, कुंकुम, मधु, घी, पय, सिंदूर, कपूर।
मिला यंत्र लिख जो सुविज्ञ जन, पूजे हों शिव रूप जरूर।२०।
भौम अमावस अर्ध रात्रि में, चंद्र शतभिषा हो नक्षत्र।
स्तोत्र पढ़ें लिख मिले संपदा, परम न होती जो अन्यत्र।२१।
।।इति श्री विश्वसार तंत्रे दुर्गाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र समाप्त।।
--------------
संजीव
९४२५१८३२४४

रविवार, 2 अक्टूबर 2016

navratri aur saptshloki durga stotra

नवरात्रि और सप्तश्लोकी दुर्गा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद सहित)
*
नवरात्रि पर्व में  मां दुर्गा की आराधना हेतु नौ दिनों तक व्रत किया जाता है।  रात्रि में गरबा व डांडिया रास कर शक्ति की उपासना की जाती है। विशेष कामनापूर्ति हेतु दुर्गा सप्तशती, चंडी तथा सप्तश्लोकी दुर्गा पाठ किया जाता है। दुर्गा सप्तशती तथा चंडी पाठ जटिल तथा प्रचण्ड शक्ति के आवाहन करने हेतु है। इसके अनुष्ठान में अत्यंत सावधानीपूर्ण आवश्यक है, अन्यथा  संभावित हैं। इसलिए इसे कम किया जाता है दुर्गा-चालीसा विधिपूर्वक दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ करने में अक्षम भक्तों हेतु प्रतिदिन दुर्गा-चालीसा अथवा सप्तश्लोकी दुर्गा के पाठ का विधान है जिसमें सामान्य शुद्धि और पूजन विधि ही पर्याप्त है। त्रिकाल संध्या अथवा दैनिक पूजा के साथ भी इसका पाठ किया जा सकता है जिससे दुर्गा सप्तशती,चंडी-पाठ अथवा दुर्गा-चालीसा पाठ के समान पूण्य मिलता है। 

कुमारी पूजन

नवरात्रि व्रत का समापन कुमारी पूजन से किया जाता है।  नवरात्रि के अंतिम दिन दस वर्ष से कम उम्र की ९ कन्याओं को माँ दुर्गा के नौ रूप (दो वर्ष की कुमारी, तीन वर्ष की त्रिमूर्तिनी चार वर्ष की कल्याणी, पाँच वर्ष की रोहिणी, छः वर्ष की काली, सात वर्ष की चण्डिका, आठ वर्ष की शाम्भवी, नौ वर्ष की दुर्गा, दस वर्ष की सुभद्रा) मानकर पूजन कर स्वादिष्ट मिष्ठान्न सहित भोजन के पश्चात् दान-दक्षिणा भेंट की जाती है। 

सतश्लोकी दुर्गा 
ॐ 
निराकार ने चित्र गुप्त को, परा प्रकृति रच व्यक्त किया। 
महाशक्ति निज आत्म रूप दे, जड़-चेतन संयुक्त किया।। 
नाद शारदा, वृद्धि लक्ष्मी, रक्षा-नाश उमा-नव रूप- 
विधि-हरि-हर हो सके पूर्ण तब, जग-जीवन जीवन्त किया।।
जनक-जननि की कर परिक्रमा, हुए अग्र-पूजित विघ्नेश। 
आदि शक्ति हों सदय तनिक तो, बाधा-संकट रहें न लेश ।।
सात श्लोक दुर्गा-रहस्य को बतलाते, सब जन लें जान- 
क्या करती हैं मातु भवानी, हों कृपालु किस तरह विशेष?
*

शिव उवाच-
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।
कलौ हि कार्यसिद्धयर्थमुपायं ब्रूहि यत्नतः॥

शिव बोले: 'सब कार्यनियंता, देवी! भक्त-सुलभ हैं आप।
कलियुग में हों कार्य सिद्ध कैसे?, उपाय कुछ कहिये आप।।'
*
देव्युवाच-
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्‌।
मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥ 

देवी बोलीं: 'सुनो देव! कहती हूँ इष्ट सधें कलि-कैसे?
अम्बा-स्तुति बतलाती हूँ, पाकर स्नेह तुम्हारा हृद से।।'
*
विनियोग-
ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः 
अनुष्टप्‌ छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः 
श्रीदुर्गाप्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः।


ॐ रचे दुर्गासतश्लोकी स्तोत्र मंत्र नारायण ऋषि ने
छंद अनुष्टुप महा कालिका-रमा-शारदा की स्तुति में
श्री दुर्गा की प्रीति हेतु सतश्लोकी दुर्गापाठ नियोजित।।
*
ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१ 

ॐ ज्ञानियों के चित को देवी भगवती मोह लेतीं जब।
बल से कर आकृष्ट महामाया भरमा देती हैं मति तब।१।

*
दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः
स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्‌यदुःखभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२ 

माँ दुर्गा का नाम-जाप भयभीत जनों का भय हरता है,
स्वस्थ्य चित्त वाले सज्जन, शुभ मति पाते, जीवन खिलता है।
दुःख-दरिद्रता-भय हरने की माँ जैसी क्षमता किसमें है?
सबका मंगल करती हैं माँ, चित्त आर्द्र सदा रहता है।२।
*
सर्वमंगलमंगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तुते॥३

मंगल का भी मंगल  करतीं, शिवा! सर्व हित साध भक्त का।  
रहें त्रिनेत्री शिव सँग गौरी, नारायणी नमन तुमको माँ।३।

शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। 
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तुते॥४

शरण गहें जो आर्त-दीन जन, उनको तारें हर संकट हर। 
सब बाधा-पीड़ा हरती हैं, नारायणी नमन तुमको माँ ।४
*
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तुते॥५

सब रूपों की, सब ईशों की, शक्ति समन्वित तुममें सारी। 
देवी! भय न रहे अस्त्रों का, दुर्गा देवी तुम्हें नमन माँ! ।५ 
*
रोगानशोषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान्‌ सकलानभीष्टान्‌।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥६

शेष न रहते रोग तुष्ट यदि, रुष्ट अगर सब काम बिगड़ते। 
रहे विपन्न न कभी आश्रितआश्रित सबसे आश्रय पाते।६। 
*
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्र्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्यद्वैरिविनाशनम्‌॥७
माँ त्रिलोकस्वामिनी! हर कर, सब भव-बाधा। 
कार्य सिद्ध कर, नाश बैरियों का कर दो माँ! ।७
*
॥इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा संपूर्णम्‌॥ 
।यहाँ श्री सतश्लोकी दुर्गा (स्तोत्र) पूर्ण हुआ
***

गुरुवार, 29 अक्टूबर 2015

geet: sawan gagane - rabindra nath thakur

एक सुंदर बांग्ला गीत: सावन गगने घोर घनघटा 

गर्मी से हाल बेहाल है। इंतजार है कब बादल आएं और बरसे जिससे तन - मन को शीतलता मिले। कुदरत के खेल कुदरत जाने, जब इन्द्र देव की मर्जी होगी तभी बरसेंगे। गर्मी से परेशान तन को शीतलता तब ही मिल पाएगी लेकिन मन की शीतलता का इलाज है हमारे पास। सरस गीत सुनकर भी मन को शीतलता दी जा सकती है ना तो आईये आज एक ऐसा ही सुन्दर गीत सुनकर आनन्द लीजिए।

यह सुन्दर बांग्ला गीत लिखा है भानु सिंह ने.. गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगौर अपनी प्रेम कवितायेँ भानुसिंह के छद्‍म नाम से लिखते थे। यह 'भानु सिंहेर पदावली' का हिस्सा है। इसे स्वर दिया है कालजयी कोकिलकंठी गायिका लता जी ने, हिंदी काव्यानुवाद किया है आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' ने.
बांगला गीत
सावन गगने घोर घन घटा निशीथ यामिनी रे
कुञ्ज पथे सखि कैसे जावब अबला कामिनी रे।
उन्मद पवने जमुना तर्जित घन घन गर्जित मेह
दमकत बिद्युत पथ तरु लुंठित थरहर कम्पित देह
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरखत नीरद पुंज
शाल-पियाले ताल-तमाले निविड़ तिमिरमय कुञ्‍ज।
कह रे सजनी, ये दुर्योगे कुंजी निर्दय कान्ह
दारुण बाँसी काहे बजावत सकरुण राधा नाम
मोती महारे वेश बना दे टीप लगा दे भाले
उरहि बिलुंठित लोल चिकुर मम बाँध ह चम्पकमाले।
गहन रैन में न जाओ, बाला, नवल किशोर क पास
गरजे घन-घन बहु डरपावब कहे भानु तव दास।
हिंदी काव्यानुवाद
श्रावण नभ में बदरा छाये आधी रतिया रे
बाग़ डगर किस विधि जाएगी निर्बल गुइयाँ रे
मस्त हवा यमुना फुँफकारे गरज बरसते मेघ
दीप्त अशनि मग-वृक्ष लोटते थरथर कँपे शरीर
घन-घन रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम बरसे जलद समूह
शाल-चिरौजी ताड़-तेजतरु घोर अंध-तरु व्यूह
सखी बोल रे!, यह अति दुष्कर कितना निष्ठुर कृष्ण
तीव्र वेणु क्यों बजा नाम ले 'राधा' कातर तृष्ण
मुक्ता मणि सम रूप सजा दे लगा डिठौना माथ
हृदय क्षुब्ध है, गूँथ चपल लट चंपा बाँध सुहाथ
रात घनेरी जाना मत तज कान्ह मिलन की आस
रव करते 'सलिलज' भय भारी, 'भानु' तिहारा दास
***

भावार्थ
सावन की घनी अँधेरी रात है, गगन घटाओं से भरा है और राधा ने ठान लिया है कि कुंजवन में कान्हा से मिलने जाएगी। सखी समझा रही है, मार्ग की सारी कठिनाइयाँ गिना रही है - देख कैसी उन्मत्त पवन चल रही है, राह में कितने पेड़ टूटे पड़े हैं, देह थर-थर काँप रही है। राधा कहती हैं - हाँ, मानती हूँ कि बड़ा कठिन समय है लेकिन उस निर्दय कान्हा का क्या करूँ जो ऐसी दारुण बांसुरी बजाकर मेरा ही नाम पुकार रहा है। जल्दी से मुझे सजा दे। कवि भानु प्रार्थना करते हैं ऐसी गहन रैन में नवलकिशोर के पास मत जाओ, बाला।

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

2 kshanikayen: sindhi anuwad sahit

9-1-2015 क्षणिका, संजीव, देवी नागरानी, सिंधी, काव्यानुवाद,

सोमवार, 28 मई 2012

ॐ सूर्य द्वादश नामावली --हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'

ॐ सूर्य द्वादश नामावली
हिंदी काव्यानुवाद: संजीव 'सलिल'
*



आदित्यः प्रथमं नामः, द्वितीयं तु दिवाकरः.
तृतीयं भास्करं प्रोक्तं, चतुर्थं च प्रभाकरः..
पंचमं च सहस्त्रान्शु, षष्ठं चैव त्रिलोचनः .
सप्तमं हरिदश्वश्चं, ह्यअष्ठं च विभावसु:..
नवमं दिनकृतं प्रोक्तं, दशमं द्वादशात्मकः.
एकादशं त्रयीमूर्ति द्वादशं सूर्य एव च..
द्वादशैतानि नामानि प्रातःकाले पठेन्नरः.
दु:स्वप्न नाशन सद्यः सर्व सिद्धिः प्रजायते..
***
ॐ सूर्य द्वादश नामावली हिंदी काव्यानुवाद



प्रथम नाम आदित्य, दूसरा नाम दिवाकर.
नाम तीसरा भास्कर, चौथा नाम प्रभाकर..
पंचम सहस्त्रान्शु है, छठवां नाम त्रिलोचन.
हरिद अश्व सातवाँ, विभावसु नाम सुअष्टम..
दिनकृत नवमां नाम, द्वादशात्मक है दसवां. 
त्रयीमूर्ति ग्यारहवां,  सूर्य सुनाम बारवाँ..
नित्य प्रात बारह नामों का, जाप करे जो.
तुरत दुस्वप्न नष्ट हों, सिद्धि सभी पाये वो.



*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



शुक्रवार, 23 अक्टूबर 2009

काव्यानुवाद: श्री मदभगवद्गीता अध्याय ८ मंत्र १ से २८, मृदुल कीर्ति

काव्यानुवाद

श्री मदभगवद्गीता अध्याय ८ मंत्र १ से २८

काव्यानुवादक : मृदुल कीर्ति, mridulkirti@gmail.कॉम

अथ अष्टमोअध्याय

अर्जुन उवाच

हे पुरुषोत्तम ! यहि ब्रह्म है क्या?
अध्यात्म है क्या और कर्म है क्या?
अधिभूत के नाम सों होत है क्या?
अधिदैव के नाम को मर्म है क्या?-----------१

हे मधुसूदन ! अधियज्ञ है क्या?
यहि देह में कैसे कहाँ कत है?
और अंतिम काले योगी जन,
कैसे केहि ज्ञान सों समुझत हैं?------------२

श्री भगवानुवाच

अविनाशी अक्षर ब्रह्म परम,
सत-चित-आनंदम, अर्जुन हे!
तप त्याग दान और यज्ञ आदि,
सब कर्म नाम सों जात कहे.---------------३

अधिभूत जो द्रव्य कहावत है,
उत्पत्ति विनाशन धर्मा हैं,
मैं ही अधि यज्ञ हूँ यहि देहे,
अधिदैव में होवत ब्रह्मा हैं.----------------४

मन माहीं अटल विश्वास, हिया ,
सों अंतिम काल जो ध्यान करै,
मोरो प्रिय मोसों ही मिलिहै,
संशय यहि माहीं न नैकु करै.----------------५

तस-तस ही ताकौ ताय मिलै,
जस भाव धरयो जीवन काले,
जस चिंतन, तस ही चित्त बसे,
कौन्तेय ! सुनौ अंतिम काले.------------------६

सों, हे अर्जुन! तुम जुद्ध करौ,
हर काल मेरौ सुमिरन करिकै,
बिनु संशय तू मोसों मिलिहै,
मन बुद्धि मोहे अर्पित करिकै.----------------७

जिन रोक लियौ मन चहुँ दिस सों,
और ध्यान गहन अभ्यासन सों,
तिन नित्य निरंतर चिंतन सों,
ही जाय मिलै , ब्रज नंदन सों.---------------८

अणु सों अणु , धारक पोषक कौ.
आद्यंत, अचिन्त्य,अनंता कौ,
ज्योतिर्मय रवि सम, प्रभु को जो जन,
ध्यावत नित-नित्य नियंता कौ.--------------९

तिन भक्त योग-बल के बल सों,
भृकुटी के मध्य में प्राण धरै.
हिय सुमिरन ब्रह्म कौ ध्यान अटल,
ही अंतिम काल प्रयाण करै.-----------------१०

जेहि मांही विरागी प्रवेश करै,
वेदज्ञ को 'ॐ ' भयौ जैसो,
ब्रह्मचर्य धरयो जेहि कारण सों,
परब्रह्म कौ सार कह्यो तोसों.-----------------११

वश में इन्द्रिन कौ विषयन सों ,
हिय मांहीं करै स्थिर मन कौ.
स्थापन प्राण कौ मस्तक में,
अथ स्थित योग के धारण कौ.-------------१२

एक 'ॐ ' कौ अक्षर ब्रह्म महे,
उच्चारत भये जिन प्राण तजे
तिन पाया परम गति , बिनु संशय ,
जिन अंतिम काले मोहे भजे ----------------१३

हे पार्थ ! मेरौ अविचल मन सों,
नित सुमिरन मन चित मांहीं करै
तिन योगिन कौ 'मैं' होत सुलभ,
वासुदेव कृपा बहु भांति करै.,-------------१४

जिन सिद्धि परम पद पाय लियौ,
तिन जन मुझ मांहीं समाय गयौ.
तिन क्षण भंगुर दुःख रूप जगत,
पुनि जन्म सों मुक्ति पाय गयौ.---------------१५

अपि ब्रह्म लोक और लोक सबहिं,
पुनरावृति धर्मा अर्जुन हैं.
मुझ मांहीं लीन कौन्तेय ! जना,
पुनरावृति धर्म विहीनन हैं.--------------------१६

जग बीते सहस्त्रं चौकड़ी कौ,
ब्रह्म कौ तब दिन एक भयो.
सम काल की रात है ब्रह्मा की ,
योगिन कौ तत्त्व विवेक भयो.-----------------१७

प्राणी सगरे, यहि दृश्य जगत,
ब्रह्मा सों ही उत्पन्न भयौ .
पुनि लीन भयौ, पुनि जन्म भयौ.
अथ क्रम सृष्टि निष्पन्न भयौ .----------------१८

अस वृन्द ही प्रानिन कौ सगरौ,
आधीन प्रकृति के होय रह्यौ,
निशि में लय, पुनि दिन होत उदय,
पुनि यह क्रम , अर्जुन होय रह्यो.--------------१९

यहि पूरन ब्रह्म विलक्षण जो,
अव्यक्त सनातन सत्य घन्यो.
जग सगरौ नसावन हारो है,
परब्रह्म ही केवल नित्य बन्यो------------------२०

अव्यक्त जो अक्षर हे अर्जुन!
गति मोरी परम कहावत है,
जेहि पाय नाहीं आवति जग में,
सब पूर्ण काम हुए जावत हैं.------------------२१

सब प्राणी ब्रह्म के अर्न्तगत,
जेहि सों परिपूरन जग सगरौ,
सुनि पार्थ! वही परिपूरन ब्रह्म तौ,
भक्ति अनन्य सों है तुम्हारौ.------------------२२

जस काल में मानव देह तजे,
तस आवागमन गति पावत है.
अस काल कौ मर्म सुनौ अर्जुन !
अथ मारग कृष्ण बतावत है.-----------------२३

उत्तरायण मारग अग्नि कौ,
दिन, शुक्ल को देव हो अभिमानी.
ब्रह्मयज्ञ को होत प्रयाण यदि,
दिवि लोकहीं जावत है ज्ञानी.----------------२४

दक्षिरायण मारग धूम निशा,
कृष्ण पक्ष देव हों अभिमानी.
मिलि चन्द्र की ज्योति प्रयाण करै,
पुनि जन्म जो नाहीं निष्कामी.---------------२५

जग में दुइ मार्ग सनातन है,
पथ कृष्ण व् शुक्ल कहावत है,
पितु लोक सों तो पुनि जनमत हैं,
नाहीं देव के लोक सों आवति है.---------------२६

इहि दोनों मारग पार्थ सुनौ,
जेहि ज्ञानी तत्त्व सों जानाति है,
नाहीं मोहित होवत हे अर्जुन!
सम भाव धरौ समुझावति हैं.------------------२७

तप, दान, यज्ञ, और वेद पठन,
कौ फलित पुण्य बतलावत हैं,
सत योगी इनसों होत परे ,
जो जाय, कबहूँ नहीं आवत हैं.-----------------२८

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रविवार, 5 अप्रैल 2009

विश्व काव्य सलिला : भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज' '

: विश्व काव्य सलिला - १ :


भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज'


कविता का उत्स अनुभूतियों और भावनाओं से होता है। मनुष्य ही नही पशु-पक्षी भी सुख-दुःख, हर्ष-विषद आदि की अनुभूति और अभिव्यक्ति करते हैं। समूचे विश्व में मानवों की एकता साहित्य में तथा फ़ुट रणनीति में व्यक्त होता है। श्रेष्ठ-ज्येष्ठ रचनाकार एवं शिक्षक प्रो। भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज़' ने दिव्य नर्मदा पर विशेष स्नेहाशीष वृष्टि कर अपने द्वारा हिदी में अनुवादित अन्य भाषाओँ और देशों के कवियों की कविताओं को प्रकाशित करने की अनुमति दी है। हर रविवार को पाठक एक रचना का ले सकेंगे। नियाज़ जी १८ भाषाओँ के ३१ देशों के ७६ कवियों की १११ रचनाओं का हिन्दी काव्यानुवाद 'विश्व कविता : कल और आज शीर्षक कृति में कर चुके हैं। दिव्य नर्मदा के संपादक संजीव 'सलिल' के संपादन में प्रो. मिश्र के व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'समयजयी साहित्य शिल्पी प्रो. भागवत प्रसाद मिश्रा 'नियाज़' : व्यक्तित्व एवं कृतित्व' शीर्षक ग्रन्थ प्रकाशित व चर्चित हो चुका है। --संपादक


कवि - डब्ल्यू. बी. यीट्स, देश - आयार्लैंड्स, कविता - वील हिन्दी काव्यानुवाद - चक्र


शीतकाल में हम वसंत को सदा बुलाते।


जब वसंत आता निदाघ के गीत सुनाते।


ग्रीष्म आगमन हुआ, झाडियाँ झूम रही हैं।


शीतकाल है श्रेष्ठ यहीं अनुगूंज रही है।


पर ऋतुराज नहीं आया है देखो अब तक।


नहीं सुता है इस मन को कुछ भी तब तक।


पर हम हैं अनभिज्ञ रुधिर क्यों स्थिर रहता?


कब समाधि मिल जाए कामना करता रहता।


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शुक्रवार, 27 मार्च 2009

भाषा सेतु -- संजीव 'सलिल' : भगवत प्रसाद मिश्रा 'निआज़'


हिन्दी कविता
दिया
आचार्य संजीव 'सलिल'
ज़िंदगी भर
तिल-तिलकर जला,
फ़िर भी कभी
हाथों को नहीं मला।
न शिकवा,
न गिला।
लबों को रखा सिला।
जितनी क्षमता
उतना तिमिर पिया।
अपनी नहीं
औरों की खातिर जिया।
अंधेरे के विष का
नीलकंठ बन पान किया।
इसलिए,
बस इसलिए ही
मरकर भी अम्र हो गया
मिट्टी का दिया।

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अंगरेजी काव्यानुवाद-

प्रो भागवत प्रसाद मिश्रा 'निआज़'
अहमदाबाद

LAMP

Throughout the life
itburn itself
bit by bit
yet it never
felt sorry,
No complaint
stayed light-lipped,
drank the darkness
as much as it could,
lived not for itself
but for others,
drank the poison of darkness
like 'shiva'
but distributed light
to all the sundry.
It is for this reason-
this only,
that the mortal earthen lamp
became immortal.।

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