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सोमवार, 25 मार्च 2024

होली, खुसरो, मीरा, नजीर, भारतेन्दु, प्रसाद, निराला, नज़रुल, बच्चन, शकील , 'रेणु,

महाकवियों की होली कविताएँ
*
अमीर खुसरो (१२५३-१३२५)
*
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ।

जिसके कपरे रंग दिए सो धन-धन वाके भाग
खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग
जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।

मोहे अपने ही रंग में रंग दे
तू तो साहिब मेरा महबूब-ए-इलाही
हमारी चुनरिया पिया की पयरिया
वो तो दोनों बसंती रंग दे।

जो तो मांगे रंग की रंगाई मोरा जोबन गिरवी रख ले
आन पारी दरबार तिहारे
मोरी लाज शर्म सब रख ले
मोहे अपने ही रंग में रंग दे।
***

मीराबाई (१४९८-१५४७)
सील सन्तोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे॥
घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरण कंवल बलिहार रे॥
***

नजीर अकबराबादी (१७३५-१८३०)
*
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की
ख़ुम, शीशे, जाम, झलकते हों तब देख बहारें होली की
महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की

हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुल-रू रंग-भरे
कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग-भरे
दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग-भरे कुछ ऐश के दम मुँह-चंग भरे
कुछ घुंघरू ताल छनकते हों तब देख बहारें होली की

सामान जहाँ तक होता है उस इशरत के मतलूबों का
वो सब सामान मुहय्या हो और बाग़ खिला हो ख़्वाबों का
हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का
इस ऐश मज़े के आलम में एक ग़ोल खड़ा महबूबों का
कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की

गुलज़ार खिले हों परियों के और मज्लिस की तय्यारी हो
कपड़ों पर रंग के छींटों से ख़ुश-रंग अजब गुल-कारी हो
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो
उस रंग-भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की

उस रंग-रंगीली मज्लिस में वो रंडी नाचने वाली हो
मुँह जिस का चाँद का टुकड़ा हो और आँख भी मय के प्याली हो
बद-मसत बड़ी मतवाली हो हर आन बजाती ताली हो
मय-नोशी हो बेहोशी हो ''भड़वे'' की मुँह में गाली हो
भड़वे भी, भड़वा बकते हों तब देख बहारें होली की

और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवय्यों के लड़के
हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट घट के कुछ बढ़ बढ़ के
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के कुछ होली गावें अड़ अड़ के
कुछ लचके शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन भड़के
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की

ये धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का झक्कड़ हो
उस खींचा-खींच घसीटी पर भड़वे रंडी का फक्कड़ हो
माजून, शराबें, नाच, मज़ा, और टिकिया सुल्फ़ा कक्कड़ हो
लड़-भिड़ के 'नज़ीर' भी निकला हो, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो
जब ऐसे ऐश महकते हों तब देख बहारें होली की
*
जब खेली होली नंद ललन हँस हँस नंदगाँव बसैयन में।
नर नारी को आनन्द हुए ख़ुशवक्ती छोरी छैयन में।।
कुछ भीड़ हुई उन गलियों में कुछ लोग ठठ्ठ अटैयन में ।
खुशहाली झमकी चार तरफ कुछ घर-घर कुछ चौप्ययन में।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।
गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।

जब ठहरी लपधप होरी की और चलने लगी पिचकारी भी।
कुछ सुर्खी रंग गुलालों की, कुछ केसर की जरकारी भी।।
होरी खेलें हँस हँस मनमोहन और उनसे राधा प्यारी भी।
यह भीगी सर से पाँव तलक और भीगे किशन मुरारी भी।।
डफ बाजे, राग और रंग हुए, होली खेलन की झमकन में।

गुलशोर गुलाल और रंग पड़े हुई धूम कदम की छैयन में।।
***

भारतेन्दु हरिश्चंद्र (९ सितंबर १८५०-६ जनवरी १८८५)
*
गले मुझको लगा लो ऐ मिरे दिलदार होली में
बुझे दिल की लगी भी तो ऐ मेरे यार होली में।

नहीं ये है गुलाले-सुर्ख उड़ता हर जगह प्यारे
ये आशिक की है उमड़ी आहें आतिशबार होली में।

गुलाबी गाल पर कुछ रंग मुझको भी जमाने दो
मनाने दो मुझे भी जानेमन त्योहार होली में।

है रंगत जाफ़रानी रुख अबीरी कुमकुमी कुछ है
बने हो ख़ुद ही होली तुम ऐ मिरे दिलदार होली में।

रस गर जामे-मय गैरों को देते हो तो मुझको भी
नशीली आंख दिखाकर करो सरशार होली में।
*
कैसी होरी खिलाई।
आग तन-मन में लगाई॥
पानी की बूँदी से पिंड प्रकट कियो सुंदर रूप बनाई।
पेट अधम के कारन मोहन घर-घर नाच नचाई॥
तबौ नहिं हबस बुझाई।
भूँजी भाँग नहीं घर भीतर, का पहिनी का खाई।
टिकस पिया मोरी लाज का रखल्यो, ऐसे बनो न कसाई॥
तुम्हें कैसर दोहाई।
कर जोरत हौं बिनती करत हूँ छाँड़ो टिकस कन्हाई।
आन लगी ऐसे फाग के ऊपर भूखन जान गँवाई॥

तुन्हें कछु लाज न आई।
***

जयशंकर प्रसाद (३० जनवरी १८८९-१५ नवंबर १९३७)

बरसते हो तारों के फूल छिपे तुम नील पटी में कौन?
उड़ रही है सौरभ की धूल कोकिला कैसे रहती मीन।

चांदनी धुली हुई है आज बिछलते है तितली के पंख
सम्हलकर, मिलकर बजते साज मधुर उठती हैं तान असंख्य।

तरल हीरक लहराता शान्त सरल आशा-सा पूरित ताल।
सिताबी छिड़क रहा विधु कान्त बिछा है सेज कमलिनी जाल।

पिये, गाते मनमाने गीत टोलियों मधुपों की अविराम।
चली आती, कर रहीं अभीत कुमुद पर बरजोरी विश्राम।

उड़ा दो मत गुलाल-सी हाय अरे अभिलाषाओं की धूल
और ही रंग नही लग लाय मधुर मंजरियां जावें झूल।

विश्व में ऐसा शीतल खेल हृदय में जलन रहे, क्या हात
स्नेह से जलती ज्वाला झेल, बना ली हां, होली की रात॥

***

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (२१ फ़रवरी १८९९-१५अक्तूबर १९६१)
*
नयनों के डोरे लाल गुलाल-भरे, खेली होली!
जागी रात सेज प्रिय पति-संग रति सनेह-रंग घोली,
दीपित दीप-प्रकाश, कंज-छवि मंजु-मंजु हँस खोली—
मली मुख-चुंबन-रोली।

प्रिय-कर-कठिन-उरोज-परस, कस कसक मसक गई चोली,
एक-वसन रह गई मंद हँस, अधर-दशन, अनबोली—
कली-सी काँटे की तोली।

मधु-ऋतु-रात, मधुर अधरों की पी मधु सुध-बुध खो ली,
खुले अलक, मुँद गए पलक-दल; श्रम-सुख की हद हो ली—
बनी रति की छबि भोली।

बीती रात सुखद बातों में प्रात पवन प्रिय डोली,
उठी सँभाल बाल; मुख-लट, पट, दीप बुझा, हँस बोली—
रही यह एक ठठोली।
***

काज़ी नज़रुल इस्लाम (२४ मई १८९९-२९ अगस्त १९७६)
*
यह मिट्टी की चतुराई है,
रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं,
ढाल अलग है ढंग अलग,

आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर
और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के
शासन से मत घबराओ,

आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का,
वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में
सदा सफलता जीवन की,

जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!
***

डॉ. हरिवंश राय बच्चन (२७ नवंबर १९०७-१८ जनवरी२००३)
*
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
देखी मैंने बहुत दिनों तक
दुनिया की रंगीनी,
किंतु रही कोरी की कोरी
मेरी चादर झीनी,
तन के तार छूए बहुतों ने
मन का तार न भीगा,
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
अंबर ने ओढ़ी है तन पर
चादर नीली-नीली,
हरित धरित्री के आँगन में
सरसों पीली-पीली,
सिंदूरी मंजरियों से है
अंबा शीश सजाए,
रोलीमय संध्या ऊषा की चोली है।
तुम अपने रँग में रँग लो तो होली है।
*
यह मिट्टी की चतुराई है, रूप अलग औ’ रंग अलग,
भाव, विचार, तरंग अलग हैं, ढाल अलग है ढंग अलग,
आजादी है जिसको चाहो आज उसे वर लो।
होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर को!

निकट हुए तो बनो निकटतर और निकटतम भी जाओ,
रूढ़ि-रीति के और नीति के शासन से मत घबराओ,
आज नहीं बरजेगा कोई, मनचाही कर लो।
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो!

प्रेम चिरंतन मूल जगत का, वैर-घृणा भूलें क्षण की,
भूल-चूक लेनी-देनी में सदा सफलता जीवन की,
जो हो गया बिराना उसको फिर अपना कर लो।
होली है तो आज शत्रु को बाहों में भर लो!

होली है तो आज अपरिचित से परिचय कर लो,
होली है तो आज मित्र को पलकों में धर लो,
भूल शूल से भरे वर्ष के वैर-विरोधों को,
होली है तो आज शत्रु को बाँहों में भर लो!
***

शकील बदायूँनी (३ अगस्त १९१६-२० अप्रैल १९७०)

होली आई रे कन्हाई
रंग छलके
सुना दे ज़रा बांसरी
बरसे गुलाल, रंग मोरे अंगनवा

अपने ही रंग में रंग दे मोहे सजनवा।

हो देखो नाचे मोरा मनवा
तोरे कारन घर से, आई हूं निकल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आयी रे!

होली घर आई, तू भी आजा मुरारी
मन ही मन राधा रोये, बिरहा की मारी
हो नहीं मारो पिचकारी
काहे! छोड़ी रे कलाई संग चल के
सुना दे ज़रा बांसरी
होली आई रे!

***


फणीश्वर नाथ 'रेणु' (४ मार्च १९२१-११ अप्रैल१९७७)
*
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा
ले आई... ई... ई... ई
मेरे दर्द की दवा!

आँगनऽऽ बोले कागा
पिछवाड़े कूकती कोयलिया
मुझे दिल से दुआ देती आई
कारी कोयलिया-या
मेरे दर्द की दवा
ले के आई-ई-दर्द की दवा!

वन-वन गुन-गुन बोले भौंरा
मेरे अंग-अंग झनन
बोले मृदंग मन मीठी मुरलियाँ!
यह फागुनी हवा
मेरे दर्द की दवा लेके आई

कारी कोयलिया!
अग-जग अँगड़ाई लेकर जागा
भागा भय-भरम का भूत
दूत नूतन युग का आया
गाता गीत नित्य नया
यह फागुनी हवा...!
***

रविवार, 24 मार्च 2024

महादेवी, होली, यश मालवीय, निराला, बच्चन,

महीयसी महादेवी की अद्भुत होली
*
हिंदी साहित्य में अपना विशिष्ट स्थान रखनेवाली बुआ श्री (महीयसी महादेवी वर्मा) से जुड़े संस्मरण की शृंखला में इस बार होली चर्चा। बुआ श्री ने बताया कि रंग पर्व पर भंग की तरंग में मस्ती करने में साहित्यकार भी पीछे नहीं रहते थे किंतु मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया जाता था। हिन्दू पंचांग के अनुसार होली बुआ श्री का जन्म दिवस भी है। प्रयाग राज (तब इलाहाबाद) में अशोक नगर स्थित बंगले में साहित्यकारों का जमघट दो उद्देश्यों की पूर्ति हेतु होता था। पहला महादेवी जी को जन्म दिवस की बधाई देना और दूसरा उनके स्नेह पूर्ण आतिथ्य के साथ साहित्यकारों की फागुनी रचनाओं का रसास्वादन कर धन्य होना। बुआ श्री होली की रात्रि अपने आँगन में होलिका दहन करती थीं। उसके कुछ दिन पूर्व से बुआश्री के साथ उनके मानस पुत्र डॉ. रामजी पांडेय का पूरा परिवार होली के लिए गुझिया, पपड़िया, सेव, मठरी आदि तैयार करा लेता था। एक एक पकवान इतनी मात्रा में बनता कि पीपों (कनस्तरों) और टोकनों में रखा जाता। होली का विशेष पकवान गुझिया (कसार की, खोवे की, मेवा की, नारियल चूर्ण की, चाशनी में पगी), सेव (नमकीन, तीखे, मोठे गुण की चाशनी में पगे), पपड़ी (बेसन की, माइडे की, मोयन वाली), खुरमे व मठरी, दही बड़ा, ठंडाई आदि आदि बड़ी मात्रा में तैयार करे जाते कि कम न हों।         

होली खेलत रघुबीरा

सवेरा होते ही शहर के ही नहीं, अन्य शहरों से भी साहित्यकार आते जाते, राई-नोन से उनकी नजर उतरी जाती, बुआ श्री स्वयं उन्हें गुलाल  का टीका लगाकार आशीष देतीं। आगंतुक साहित्यिक महारथियों में आकर्षण का केंद्र होते महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, फिराक गोरखपुरी, सुमित्रानंदन पंत, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, उमाकांत मालवीय, रघुवंश,अमृत राय, सुधा चौहान, कैलाश गौतम, एहतराम इस्लाम आदि आदि। साहित्यकारों पर किंशुक कुसुम (टेसू के फूल) उबालकर बनाया गया कुसुंबी रंग डाला जाता था। यह रंग भी बुआ श्री की देख-रेख में घर पर हो तैयार किया जाता था। क्लाइव रोड से बच्चन जी की अगुआई में एक टोली 'होली खेलत रघुबीरा, बिरज में होली खेलत रघुबीरा आदि होली के लोक गीत गाते, झूमते मस्ताते हुए पहुँचती। बच्चन जी स्वयं बढ़िया ढोलक बजाते थे।   

 'बस करो भइया...'

महाप्राण निराला बुआ श्री को अपनी छोटी बहिन मानते थे, फिर होली पर बहिन से न मिलें यह तो हो ही नहीं सकता था। उनके व्यक्तित्व की दबंगई के कारण अनकहा अनुशासन बना रहता था। निराला विजय भवानी (भाँग) का सेवन भी करते थे। एक वर्ष अरगंज स्थित निराला जी के घर कुछ साहित्यकार भाँग लेकर पहुच गए, निराला जी को ठंडाई में मिलाकर जमकर भाँग पिला दी गई। भाँग के नशे में व्यक्ति जो करता है करता ही चला जाता है। यह टोली जब पहुंची तो गुजिया बाँटी-खाई जा रही थीं। निराला जी ने गुझिया खाना आरभ किया तो बंद ही न करें, किसका साहस की उन्हें टोंककर अपनी मुसीबत बुलाए। बुआ जी अन्य अतिथियों का स्वागत कर रही थी, किसी ने यह स्थिति बताई तो वे निराला जी के निकट पहुँचकर बोलीं- ''भैया! अब बस भी करो।और लोग भी हैं, उन्हें भी देना है, गुझिया कम पड़ जाएंगी।'' निराला जी ने झूमते हुआ कहा- 'तो क्या हुआ? भले ही कम हो जाए मैं तो जी भर खाऊँगा, तुम और बनवा लो।'' उपस्थित जनों के ठहाकों के बीच फिर गुझिया खत्म होने के पहले ही फिर से बनाने का अनुष्ठान आरंभ कर दिया गया।     

राम की शक्ति पूजा

एक वर्ष होली पर्व पर बुआ श्री के निवास पर पधारे साहित्यकारों ने निराला जी से उनकी प्रसिद्ध रचना ''राम की शक्ति पूजा'' सुनाने का आग्रह किया। निराला जी ने मना कर दिया। आग्रहकर्ता ने बुआ श्री की शरण गही। बुआ श्री ने खुद निराला जी से कहा- ''भैया! मुझे शक्ति पूजा सुन दो।'' निराला जी ने ''अच्छा,  इन लोगों ने तुम्हें वकील बना लिया, तब तो सुनानी ही पड़ेगी। उन्होंने अपने ओजस्वी स्वर में समा बाँध दिया। सभी श्रोता सुनकर मंत्रमुग्ध हो गए।

खादी की साड़ी

महादेवी जी सादगी-शालीनता की प्रतिमूर्ति,  निराला जी के शब्दों में 'हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणी' थीं।वे खादी की बसंती अथवा मैरून बार्डर वाली साड़ी पहनती थीं।  प्रेमचंद जी के पुत्र अमृत राय उन्हें प्रतिवर्ष जन्मदिन के उपहार स्वरूप खादी की साड़ी भेंट करते थे। उल्लेखनीय है की अमृत राय का विवाह महादेवी जी की अभिन्न सखी सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान के साथ बुआ श्री की पहल पर ही हुआ था। 

बिटिया काहे ब्याहते

बुआ श्री अपने पुत्रवत डॉ. रामजी पाण्डेय के परिवार को अपने साथ ही रखती थीं। उनके निकटस्थ लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार उमाकांत मालवीय भी रहे। रामजी भाई की पुत्री के विवाह हेतु स्वयं महादेवी जी ने पहल की तथा यश मालवीय जी को जामाता चुना। विवाह का निमात्रण पत्र भी बुआ श्री ने खुद ही लिखा था। वर्ष १९८६ में यश जी होली की सुबह अमृत राय जी के घर पहुँच गए, वहाँ भाग मिली ठंडाई पीने के बाद सब महादेवी जी के घर पहुँचे। जमकर होली खेल चुके यश जी का चेहरा लाल-पीले-नीले रंगों से लिपा-पूत था, उस पर भाग का सुरूर, हँसी-मजाक होते होते यश जी ने हँसना शुरू किया तो रुकने का नाम ही न लें, ठेठ ग्रामीण ठहाके। बुआ श्री ने स्वयं भी हँसते हुई चुटकी ली '' पहले जाना होता ये रूप-रंग है तो अपनी बिटिया काहे ब्याहते?'' 

बुआ श्री ने हमेशा अपना जन्मोत्सव अंतरंग आत्मीय सरस्वती पुत्रों के के साथ ही मनाया। वे कभी किसी दिखावे के मोह में नहीं पड़ीं। होली का रंग पर्व किस तरह मनाया जाना चाहिए यह बुआ श्री के निवास पर हुए होली आयोजनों से सीखा जा सकता है।
*** 

गुरुवार, 13 जुलाई 2017

kundaliya

एक कुण्डलिया
औकात
अमिताभ बच्चन-कुमार विश्वास प्रसंग
*
बच्चन जी से कर रहे, क्यों कुमार खिलवाड़?
अनाधिकार की चेष्टा, अच्छी पड़ी लताड़
अच्छी पड़ी लताड़, समझ औकात आ गयी?
क्षमायाचना कर न समझना बात भा गयी
रुपयों की भाषा न बोलते हैं सज्जन जी
बच्चे बन कर झुको, क्षमा कर दें बच्चन जी
***
-संजीव वर्मा 'सलिल'
salil.sanjiv@gmail.com
९४२५१८३२४४
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गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

chidiya bachchan

चित्रमय कविता : बच्चन 

Photo: FB 188 -Wednesday words ...

सोमवार, 28 नवंबर 2011

स्मरण : बच्चन --अमिताभ बच्चन द्वारा मधुशाला गायन:


स्मरण : बच्चन -- प्रो. ए. अच्युतन



स्मरण : बच्चन 

लोकधर्मी कवि हरिवंशराय बच्चन


- प्रो. ए. अच्युतन, हिन्दी विभाग, कालिकट विश्वविद्यालय, कालिकट (केरल)

प्रवासी दुनिया.कॉम से प्रसिद्ध रचनाकार बच्चन जी की जयन्ती 27 नवंबर पर साभार प्रस्तुत हैं निम्न लेख:

आधुनिक हिन्दी कविता की हालावादी प्रवृत्ति के सूत्रधार हरिवंशराय बच्चन की काव्य यात्रा प्रेमी से श्रद्धालु तक की यात्रा है। बच्चन की काव्य प्रवृत्ति लोकमानस से शुरू होकर जनमानस और मुनिमानस तक यात्रा करती है। लोकमानस से ही लोक साहित्य एवं कला अनेक संभावनाओं के साथ उपजते हैं। लोकमानस से मुनिमानस तक की यात्रा का विकास एक तरह से मनुष्य की कलाभिव्यक्ति या संस्कृति के ही इतिहास का सार है। लोक साहित्य में मानव के सुख-दुख की सहज, स्वाभाविक और अकृत्रिम अभिव्यक्ति ही होती हैं। लोक जो कुछ कहता है, सुनता है, उसे समूह की वाणी बनकर ही कहता है, सुनता है। लोक साहित्य के इस सामूहिक पक्ष को बच्चनजी ने अपने काव्य का मूल मंत्र बनाया है। इसी आधार पर बच्चन के काव्य में लोक तत्व के विभिन्न पक्षों पर विचार करना हमारा अभीष्ट है।
वस्तुत: बच्चनजी का काव्य व्यक्तिनिष्ठ है, लेकिन उनके काव्य के प्राण में जो प्रेम तत्व है, जीवन तत्व है, भाव तत्व है, वह अकेले बच्चनजी की ही नहीं, जन-जन की संपदा है, लोक संपत्ति है। अत: बच्चन का काव्य और उनके गीत जन-जीवन में समा जाने की अपूर्व क्षमता रखते हैं। बच्चन की अनुभूतियां मानवीय हैं। देश, काल के घेरे में उन्हें नहीं बांध सकते। सहजता, सरलता, नैसर्गिकता, गेयता आदि गुण लोकतत्व के अंतर्गत आ सकते हैं। लोकतत्व संबंधी अवधारणा अधिकतर बच्चन के गीत संबंधी विचारों में स्पष्ट हो जाती है क्योंकि गीत शैली लोक से ही आयी है – उनका मानना है कि – गीत की अपनी इकाई होती है – भावों विचारों की और एक हद तक अभिव्यक्ति के उपकरणों की भी… प्रत्येक गीत को सर्वस्वतंत्र अपराश्रित और अपने में ही पूर्ण मानकर प्राय: पढ़ा, गाया जाता है और उसका रस लिया जाता है। (आरती और अंगारे – भूमिका पृ. 11) गीत समाप्त हो जाने पर उसकी गूंज श्रोता के कानों में बस जाए और बहुत सी अनुगूंजों को जगाए। जगजीवन की विभिन्न हलचलों के बाद वह ध्यान से भले ही उतर हो जाय पर सहसा यदि उसकी याद आ जाए तो वह अपने पूरे आवेग से फिर गूंज उठे। (प्रणय पत्रिका – भूमिका – पृ. 11-12) गीत वह है जिस में भाव-विचार-अनुभूति-कल्पना, एक शब्द में कथ्य की एकता हो और उसका एक ही प्रभाव हो। (त्रिभंगिमा – भूमिका – पृ. 91) उपर्युक्त कथनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि बच्चन की गीत संबंधी धारणा लोक मानस के आधार पर है। अत: स्वाभाविक और गीतात्मक है।
ताल-लय समन्वय लोकतत्व का आत्मस्वरूप : संगीत दिल की भाषा है। ताल-लय के बिना गीत या संगीत नहीं है। ताल-लय प्रकृत्ति की हर वस्तु में खोजा जा सकता है। इस ताल-लय समन्वय ने ही प्रकृत्ति को संतुलित बना रखा है। हमारे पूर्वजों ने अपने निरीक्षण बल पर इसी तथ्य को जान लिया था। इसीलिये ताल-लय समन्वय लोक का आत्मस्वरूप बन गया। ताल-लय सन्तुलन बिगड़ने से ही प्रकृत्ति में कई तरह के विनाश या ताण्डव जैसे बाढ़, तूफान, लावा, सुनामी आदि घटते हैं। ‘लोक’ ने जान लिया कि ऋतु संतुलन बनाये रखने के लिये ताल-लय (शिव-शक्ति – पुरूष-स्त्री) का संयोग सही अनुपात में बना रहना जरूरी है। तुलसी के समन्वय, प्रसाद के समरसता आदि सिद्धांतों का यही लोकाधार है। बच्चनजी ने अपनी रचनाओं में इसी समन्वय को बनाये रखने का प्रयास किया है चाहे वह सामाजिक पक्ष की दृष्टि से हो या वैयक्तिक दृष्टि से या काव्य की दृष्टि से। बच्चन ने यह महसूस किया कि सामाजिक विषमता,र् ईष्या, द्वेष की भावना को पैदा करने वाले ऊंचे परिवार के ही लोग, महलों में रहने वाले जो मानवता पर क्रूर, कठोर, अमानवीयता का व्यवहार करते हैं और लाखों करोड़ों गरीब असहायों का खून चूसकर स्वयं आराम से जीवन बिताते हैं – तभी मधुशाला की कवि ने अपनी आवाज समानता-समन्वय के लिये बुलन्द की।
बड़े बड़े परिवार मिटे यों
एक न हो रोनेवाला
हो जाए सुनसान महल वे
जहां थिरकती सुरबाला
राज्य उलट जाएं भूपों की
भाग्य-सुलक्ष्मी सो जाए
जमें रहेंगे पीने वाले
जगा करेगी मधुशाला।
समाज में निरंतर भेद भाव की भावना उग्र रूप धारण कर रही थी। ऊंच-नीच छुआछूत का बोलबाला था। इसलिये समाज की असंगठित शक्ति, एकता नष्ट हो रही थी। इसलिये बच्चन ने अपनी मधुशाला के लिये कहा है -
भूसुर-भंगी सभी यहां पर
साथ बैठकर पीते हैं
सौ सुधारकों का करती है
काम अकेली मधुशाला।
उन्होंने प्रणय गीत, राष्ट्रीय गीत, नवगीत, लोक आधारित गीत आदि तरह तरह के गीत लिखे हैं। बच्चन के गीतों में जो गति है, प्रवाह है वह स्वाभाविक रूप से आया है क्योंकि उसके भाव और लय लोक के करीब है – इन गीतों में स्वर संगीत की अपेक्षा शब्द संगीत विद्यमान रहता है। स्वर तथा व्यंजनों की संगति से अर्थ व्यंजक तथा नाद व्यंजक पंक्तियां बच्चन के गीतों में प्रचुर मात्रा में मिलती है -
चांदनी रात के आंगन में
कुछ छिटके-छिटके से बादल
कुछ सपनों में डूबा-डूबा,
कुछ सपनों में उमगा उमगा।
(मिलन भामिनी – गीत – 13)
बच्चन के गीतों में भावपक्ष प्रबल है। अनुभूति की सत्यता की लोकधर्मिता शब्द-शब्द से टपकती है। बच्चन का प्रेमी हृदय सदैव अपनी भावुकता और कल्पना को काव्य में प्रकट करता रहा है। मार्मिकता के कारण आपका काव्य लोकप्रिय बन गया है। कवि अपनी प्रेमानुभूति को प्राकृतिक व्यापारों में संश्लिष्ट करते हुए प्रकट करता है -
प्राण संध्या झुक गयी गिरि ग्राम तरु पर
उठ रहा है क्षितिज के ऊपर सिंदूरी चांद
मेरा प्यार पहली बार लो तुम
हम किसी के हाथ में साधन बने हैं
सृष्टि की कुछ मांग पूरी हो रही है।
गीत की प्राणमयता संक्षिप्तता में निहित है। बच्चन के गीतों की संक्षिप्तता में उनके हृदय की गंभीरता भी भरी पड़ी है -
कोई पार नदी के गाता
भंग निशा की नीरवता कर
इस देहाती गाने का स्वर
ककड़ी के खेतों में उठकर
आज जमुना पर लहराता
आज न जाने क्यों होता मन
सुनकर यह एकाकी गायन
सदा इसे मैं सुनता रहता
सदा इसे यह गाता जाता
कोई पार नदी के गाता।
(निशानिमंत्रण – गीत 25)
लोकगीत शैली
लोकगीत अतिवार्यत: वस्तुव्यंजक होता है। लोकगीत लोककाव्य ही है। इस शैली में श्रमसाध्य कलात्मकता (नाटयधर्मिता) नहीं होती। विचारों की सरलता, नैसर्गिक भावाभिव्यक्ति आदि गीतों के गुण अतीत के मानव समाज से जोड़ देते हैं। इसमें प्रयुक्त उपमान शब्द व्यावहारिक जीवन से गृहित होते हैं। सीधे सादे सरल एवं गेय होते हैं। आज के संगर्भ में गीत का सर्वाधिक महत्व है। लोकगीत की सत्ता ढूंढते आलोचक सुरेश गौतम ने गीत को हमारे समूचे सांस्कृतिक जीवन की रीढ़ स्वीकार कर बताया कि – ‘यदि हमें मानवता को पुनर्जीवित करना है तो गीत को पहचानना होगा। लोक मानस की तरंगों को अपनाना होगा। गीत के वैराटय बोध को समयानुकूल मानव कसौटियों पर मानव की बुनियादी वृत्तियों के साथ कसना होगा। बुद्धि और हृदय के बीच सेतु संकल्पों को वृक्ष धर्म बनना होगा।’ यह कहा जा सकता है कि मानवता के अभ्युत्थान का सारा बोझ शायद आज गीत के ही कंधों पर है। गहरे में यदि सोचें तो यही सत्य अभरेगा कि गीत ही वह प्रथम भावनेता है जो मनुष्य को जगाकर उसके विकास का प्रयत्न करता है। मानवता की सभ्यता का अभिव्यक्ति रूप गीत है। मानवता को हर गीत में जगाया है, वह वेद में हो, कुरान में हो, बाईबिल में हो, गुरू ग्रंथ साहिब में हो अथवा लोकगीत में। (लोकगीत की सत्ता – सु. गौतम – शब्द सेतु पृ. 41)
बच्चन के दो काव्य संग्रहों में विशेषकर ‘त्रिभंगिमा’ और ‘चार खेमे : चौंसठ खूंटे’ में लोकगीत शैली का प्रयोग किया गया है। भाषा खड़ी बोली हिन्दी है पर शब्द विन्यास ऐसा है कि गीत की सरलता साकार हो जाती है। त्रिभंगिमा का प्रथम गीत ‘नैया जाती’ है। यह उत्तर प्रदेश की एक लोकधुन पर आधारित है। (बच्चन का साहित्य : काव्य और शिल्प, डॉ. जयप्रकाश भाटी – पंछी प्रकाशन, जयपुर)
‘चढ़ना हो, चढ़ना हो जि चढ़ जाय, नैया जाती है।
चंदन की यह नाव बनायी कोमल कमल दलों से छायी
फूलों की झालर लटकाई, रेशम के है पाल, छटा छहराती है।
ये खोजेंगे अलख परी का’ -
यहां नौका की रचना और सजना लोकमानस के अनुरूप है। नौका चंदन से बनी है, कोमल कमलों से छाई है, फूलों की झालर से सजी है। उसका विस्तार इतना है कि मस्तूल गगन को छूता है और बांस नदी की धड़कन को नापता है। नौका अमर पुरी जाएगी और अलख-परी को खोजेगी। लोकधुनों व लोकगीत शैली पर आधारित इन गीतों के प्रति बच्चन का यह आग्रह स्पष्ट है। बच्चन के अधिकांश गीत ऐसे हैं जिन में परंपरा-मुक्त लोकगीतों की भांति कोई कहानी चलती है और मिलन व्यापार के पश्चात् किसी निष्कर्ष के साथ समाप्त हो जाती है। सोन मछरी, गंधर्व ताल, आगाही और नीलपरी ऐसी रचनाएं हैं जो लघुकथानक को लेकर आगे बढ़ती है। सोन-मछरी में एक स्त्री पुरूष से सोन मछरी लाने का आग्रह करती है लेकिन वह सोने की परी ले आता है और वह कहती है – जो मनुष्य कंचन में आसक्त है, वह प्यार नहीं दे सकता – सिर्फ पीड़ा ही दे सकता है – पूर्ण रूप से लोकानुरूप यह गीत बच्चन की गीत रचना में प्रयोग का ही परिणाम है।
वास्तव में प्रत्येक कवि किसी न किसी क्षण में लोकगीत का आश्रय लेता है, जो स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि कवि भाव का ही आविष्कार करता है और भाव लोकधर्मी है। कुछ लोकगीतों में बच्चन ने समाज के उन मूल्यों को स्पर्श किया है जिनमें जन की अपेक्षा धन को अधिक महत्व दिया जाता है -
आज महंगा है सैंया रुपैया बेटी न प्यारी
बेटा न प्यारा, प्यारा है सैंया रुपैया
(चार खेमे)
लोकगीत शैली के इन गीतों में सामाजिक यथार्थ का भी चित्रण किया गया है। ‘माटी’ तथा ‘गगन’ प्रतीकों के माध्यम से ‘कड़ी मिट्टी’ निष्क्रिय दलित वर्ग तथा शोषित वर्ग की बात इसका प्रमाण है।
मैं इस माटी तोडूंगा, ऐसे तो न इसे छोड़ूगा
इसे दूंगा, इसे दूंगा परीने की धार
(त्रिभंगिमा)
‘माटी की महक’ में समाज के संदर्भ में जीवन के औचित्य को स्वर मिला है -
जिसे माटी की महक न भाए उसे नहीं जीने का हक है
(त्रिभंगिमा)
ये पंक्तियां हमेशा के लिये प्रासंगिक इसलिये हैं कि ये पूर्ण रूप से लोक दृष्टि पर आधारित हैं। आंचलिकता ‘लोक’ की अपनी संस्कृति के साथ जुड़ी हुई चीज है। ‘हरियाने की लली’ तथा ‘बीकानेर का सावन’ में लोक संस्कृति की सही पहचान मिल सकती है -
आई है दिल्ली की नगरिया में हरियाने की लली
देशों में प्रदेश हरियाना, जिस में दूध दहि का खाना
माटी के मथने से जैसे लबनी-सी-निकली।
(चार खेते)
इस तरह लोक के जीवन रीति, आचार, विचार, आचंलिक स्वभाव तथा सोचने का ढंग आदि के अनुकूल बच्चन के गीत हिन्दी के लोकगीत परंपरा में एक नया प्रयोग कहे जा सकते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि बच्चन गीत या कविता लिखने वाले कवि नहीं, बल्कि कविता कहे जाने वाले, कविता के हाथों पूरी तरह समर्पित कवि हैं। उनके काव्य और जीवन दोनों में रास्ता मनुष्य या लोक की ओर ले जाने वाला रास्ता है। क्योंकि बच्चन जी पहले आदमी हैं फिर कवि। तभी बच्चन का कवि आदमियत को अपनाए रहता है और आदमियत में रहकर ही आदमियत की कविता करता रहता है। इसीलिये, शायद बच्चन की कविता में न शब्दों को खिलवाड़ मिलता है – न पांणित्यपूर्ण प्रदर्शन – न गहर गुरु गंभीर निनाद – न चमत्कार – न चीत्कार – न अलंकार – न व्यर्थ का वाग्विचार – न आत्म-दोहरन – न दुराग्रह (केदारनाथ अग्रवाल – बच्चन निकट से – पृ. 53)। असल में बच्चन लोक के कवि हैं, लोकधर्मी कवि हैं क्योंकि उनकी रचनाओं में लोक तत्व ही भरे पड़े हैं।






स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन

स्मरण : डॉ. हरिवंश राय बच्चन



 
आज का युवा ट्विटर और फेसबुक के मायाजाल में फंसता चला जा रहा है। किताबों से दूरी बढ़ गई है। आधुनिक समाज में इसके यंत्रो और तंत्रो से मुक्ति का प्रयास भी हास्यास्पद लगता है।  हरिवंश राय बच्चन जी का भी यही मानना था कि काल और स्थान के दिखाए अनगिनत रास्तों में से एक चुनकर बेधड़क बढ़ते चले जाओं, ‘मधुशाला’ यानी मंजिल मिल जाएगी पर जब सब एक हीं रास्ते पर बढ़ते चले जाए तो एकरसता और सामाजिक रंगों में कमी का डर सदैव बना रहता है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कोई हरिवंशराय बच्चन इस भारत भूमि पर जन्म नहीं लेगा। बच्चन जी की १०४ वीं जयन्ती के अवसर पर ''प्रवासी दुनिया'' द्वारा प्रस्तुत सामग्री आभार सहित दिव्य नर्मदा के पाठकों के लिये  पुनर्प्रस्तुत की जा रही है ।

हिन्दी साहित्य के मूर्धन्य रचनाकार श्री हरिवंश राय बच्चन का जन्म 27 नवंबर 1907 को  इलाहाबाद के एक मध्यम-वर्गीय परिवार में २७ नवम्बर १९०७ को जन्मे श्री हरिवंश राय बच्चन ने १९२९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधी प्राप्त की और फिर जल्द ही उनका ध्यान स्वतंत्रता के लिये चल रहे संघर्ष ने भी खींचा। कुछ समय पत्रकारिता में बिताने के बाद उन्होनें एक स्थानीय अग्रवाल विद्यालय में अध्यापक की नौकरी कर ली। अध्यापन के काम के साथ-साथ वे पढाई भी करते रहे और एम.ए. तथा बी.टी की उपाधियां प्राप्त की।

उन्होनें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधकर्ता के रूप में कार्य आरम्भ किया और १९४१ में अंग्रेज़ी साहित्य में लैक्चरर का पद संभाल लिया। कुछ समय के बाद उन्होने विश्वविद्यालय से छुट्टी ली और ब्रिटेन के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गये। वहां उन्होने “डब्ल्यू. बी. यीट्स और आकल्टिज़म” नामक विषय पर शोध किया और १९५२ में अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त की। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में पी. एच. डी. की उपाधी प्राप्त करने वाले वह प्रथम भारतीय थे। भारत वापस लौट कर कुछ समय के लिये उन्होने आल इंडिया रेडियो के साथ निर्माता के तौर पर काम किया। फिर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के आग्रह पर १९५५ में श्री बच्चन विदेश मंत्रालय के हिन्दी विभाग से जुड गये। यहां उन्होनें अंग्रेज़ी में लिखे आधिकारिक दस्तावेजो का हिन्दी में अनुवाद करने का काम प्रारम्भ किया और इस काम को वे अपनी सेवानिवृत्ती तक करते रहे।

आलोचनाओ की परवाह किये बिना, बच्चन जी ने लेखन का काम जारी रखा। उनके समक्ष बहुत सी कठिनाईयां आयीं। उनके सामने वित्तीय समस्याएं थी और वे बहुत अकेलापन अनुभव करते थे -जो कि उनकी पहली पत्नी श्यामा के असमय देहांत के कारण और भी बढ गया था। लेकिन जब उन्होने तेजी सूरी के साथ विवाह किया तो उनका जीवन ही बदल गया। बच्चन जी ने यह भी स्वीकार किया की इस विवाह के बाद उनका काव्य भी बदला। उनका रचनात्मक कार्यकाल, जो १९३२ में आरम्भ हुआ और १९९५ तक चला, एक ६३ वर्ष लम्बी साहित्यिक यात्रा था।

“तेरा हार” उनकी कविताओं का पहला संकलन था। १९३५ में “मधुशाला” के प्रकाशन के बाद एक प्रमुख हिन्दी कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा मज़बूती के साथ स्थापित हो गयी थी। १९३५ की एक शाम जब उन्होने मधुशाला की रूबाइयों का श्रोताओ के एक विशाल समूह के सामने पाठ किया तो वह हिन्दी काव्य के क्षितिज पर एक चमकते हुए सितारे के रूप में उभरे। मधुशाला की रूबाइयां, असंख्य दुख सहे चुके एक नौजवान के हृदय से निकली करुण पुकार थी।

बच्चन जी की काव्य शैली

उमर खैय्याम की रूबाइयत का असर मधुशाला के अलावा उनकी दो और लम्बी कविताओं पर दिखा। १९३६ में “मधुबाला” और १९३७ में “मधुकलश” के प्रकाशन के साथ ही तीन पुस्तको की यह श्रृंखला पूरी हुई। इन तीनो ही कविताओं में यह संदेश छुपा था कि सांसारिक इच्छाएं, लालच, धार्मिक असहिषुण्ता और नैतिकता जैसी चीज़ों का कोई अर्थ नहीं है। बच्चन जी ने इन कविताओ के ज़रिये नैतिकतावादियों को चुनौती दे कर हिन्दी काव्य में एक नई राह की शुरुआत की।

श्यामा की अकाल मृत्यु ने उनकी मानसिकता पर एक गहरा असर छोडा और उनकी सभी आशाओं और स्वपनों को चूर-चूर कर दिया। उनका यह गहरा दुख और निराशा “निशा निमन्त्रण” के माध्यम से व्यक्त हुई जो उनकी सौ कविताओं का १९३८ में प्रकाशित एक संग्रह था। इस संग्रह में बच्चन जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित करने का प्रयत्न किया। परम्परागत छ: और आठ पन्क्तियों के पद्य के स्थान पर उन्होनें १३ पन्क्तियों के पद्य का प्रयोग किया। अकेलेपन के क्रंदन से आरम्भ हो कर इन कविताओ का समापन एक आश्वासन के साथ होता है। यह कविताएं मुख्यत: निराशा रूपी अंधकार से जुडी हैं जिनमें प्रकाश को आशा के प्रतिमान के रूप में प्रयोग किया गया है। इन रचनाओं में कवि ने अपने अंतर्मन के भावों को बाहरी संसार के प्रतिमानो के रूप में प्रकट किया है। इसीलिये बहुत से प्रतीकों का भी प्रयोग हुआ है। माथुर जी के शब्दों में “निशा निमन्त्रण हमेशा ही एक मन को छू लेने वाली दुख और व्यथा की रचना बनी रहेगी।”

“निशा निमन्त्रण” के बाद बच्चन जी ने “एकांत संगीत” को १९३८-३९ के उस समय में लिखा जब वह घोर मानसिक यातना के दौर से गुज़र रहे थे। “एकांत संगीत” की पन्क्तियां उनके संवेदनशील मन और दुखो से भरे उस समय को चित्रित करती हैं। यह संग्रह उनकी काव्य प्रतिभा के शिखर को दर्शाता है। कवि ने लिखा कि “निशा निमन्त्रण” के अंधकार ने उन्हें “एकांत संगीत” सुनने के लिये प्रेरित किया और इस संगीत ने उन्हे “आकुल अंतर” (सन १९४३) लिखने की प्रेरणा दी। “आकुल अंतर” के प्रकाशन के साथ ही उनकी काव्य यात्रा का एक चरण पूरा हो गया।

बंगाल में भुखमरी से आहत मन

“सतरंगिनी” का प्रकाशन १९४५ में हुआ। १९४३ में बंगाल में भुखमरी के हालात पैदा हो गये थे और इससे द्रवित हो बच्चन जी अपनी पहले की सोच से हट कर लिखने लगे। मानवीय समस्याओं से उनके काव्य के इस जुडाव के फ़लस्वरूप १९४६ में “बंगाल का कल” नामक संग्रह प्रकाशित हुआ। भूपेन्द्रनाथ दास ने इस संकलन का सन १९४८ में बंगाली भाषा में अनुवाद किया। जनता की समस्याओं और अपने निजी दु:ख की छांह तले उन्होनें १९४६ में ही “हलाहल” का प्रकाशन किया।

प्रसन्नता के भाव

१९५० के दशक में बच्चन जी ने अपने काव्य में लम्बे समय के बाद प्रसन्नता के भावो को व्यक्त किया। उन्होनें १९५० में “मिलन यमिनी” और १९५५ में तुलसीदास की विनय पत्रिका के नाम पर आधारित “प्रणय पत्रिका” की रचना की। १९५७ में “घर के इधर उधर” नामक संकलन में उन्होने अपने वंश के गौरव को दर्शाने का प्रयत्न किया और १९५७ में छपे संकलन “आरती और अंगारे” में उन्होनें व्यक्ति के उसकी विरासत की ओर लौटने की चर्चा की।

अपने बाद के प्रकाशनों में उन्होने अकेलेपन और अस्तित्व की उद्देश्यहीनता से होते हुए जीवन की छोटी छोटी प्रसन्नताओं तक पहुचनें का संदेश दिया। सन १९५८ में “बुद्ध और नाचघर” के प्रकाशन के बाद उनकी लेखन शैली में एक बार फिर से बदलाव आया। स्वंय बच्चन जी के अनुसार “बुद्ध और नाचघर” उनके लेखन में एक मील का पत्थर था। इसमें वह अपने चारो ओर के समाज में पनप रहे क्रोध को व्यक्त करने में सक्षम हुए थे। “त्रिभंगिमा”, “चार खेमे चौसठ खूंटे”, “रूप और आवाज़” और “बहुत दिन बीते” नामक संकलनो में उन्होने लोक-कथाओं की भाषा के साथ प्रयोग कई किये।

दो चट्टानें

१९६५ में छपी “दो चट्टानें” नामक पुस्तक में ५३ कविताएं थी जिन्हें बच्चन जी ने १९६२ से १९६४ के बीच लिखा था। इस संकलन को १९६८ में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। बहुत सी अन्य कविताओं के अलावा इस संकलन की शीर्षक कविता बहुत महत्वपूर्ण थीं। इसमें बच्चन जी ने जीवन के दो दृष्टिकोणो को सिसिफ़स (यूनानी धर्मकथाओं के एक पात्र) और हनुमान के उदाहरण ले कर व्यक्त किया था। सिसिफ़स और हनुमान, दोनो ही अमरता पाना चाहते थे (या उन्होने अमरता पाई थी) परन्तु इसे पाने के लिये दोनो के रास्ते अलग अलग थे। जहां सिसिफ़स ने २०वीं सदी के विश्वासहीन पश्चिमी मानसिकता वाले मानव को चरितार्थ किया वही हनुमान ने अमरता को भक्ति, अटूट विश्वास और मानवता के ज़रिये हासिल किया था।
सदी के सातवें दशक में बच्चन जी ने कविताओं के माध्यम से और भी बहुत से मुद्दो पर अपने विचार व्यक्त किये। इन मुद्दो में चीन का भारत पर आक्रमण, पंडित नेहरु का देहांत, युवाओं में बढते क्रोध, उनकी स्वंय की बढती आयु और तात्कालिक सहित्य इत्यादी शामिल थे।

हिन्दी लेखको के लेखन पर सत्याग्रह के और उसके बाद के दशको में महात्मा गांधी का बहुत प्रभाव पडा। बच्चन जी भी इससे अछूते नहीं रहे। सुमित्रानंदन पंत के साथ मिल कर बच्चन जी ने महात्मा गांधी के बारे में कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। १९४८ में छपे “खादी के फूल” नामक इस संकलन में बच्चन जी की ९३ कविताएं और पंत जी की १५ कविताएं थी। दोनो ही कवियों ने इन कविताओं के माध्यम से महात्मा गांधी को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये थे। इसके अलावा, बच्चन जी ने “सूत की माला” शीर्षक से एक और संकलन प्रकाशित किया जिसमें उन्होने गांधी जी की मृत्यु पर अपना शोक व्यक्त किया। ये दोनो ही पुस्तकें बहुत अधिक महत्व की हैं।

एक ऐसे परिवार से होने के कारण जो की अपनी फ़ारसी भाषा की विद्वत्ता और वैष्णव धर्म को मानने के लिये जाना जाता था -बच्चन जी की कविताओं में संस्कृत, फ़ारसी और अरबी भाषाओं का सुंदर संगम देखने को मिलता है। कबीर, कीट्स, टैगोर, शेक्सपीयर और उमर खैय्याम का प्रभाव उनके पूरे काव्य पर देखा जा सकता है। उन्होनें शेक्सपीयर के “मैकबेथ” और “आथेलो” का हिन्दी में अनुवाद भी किया। इसके अलावा उन्होने ६४ रूसी कविताओं और डब्ल्यू. बी. यीट्स की १०१ कविताओं का भी हिन्दी में अनुवाद किया। रूसी कविताओं के हिन्दी अनुवाद के लिये उन्हें १९६६ में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
बच्चन जी ने श्रीमद भगवदगीता का अवधी भाषा में “जनगीता” (१९५८) और आधुनिक हिन्दी में “नागरगीता” (१९६६) नाम से अनुवाद किया। उनकी कुछ चुनी हुई कविताओं का अनुवाद भी कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसके अलावा उन्होनें निबंध, यात्रा-वर्णन इत्यादी का लेखन किया और अपने तथा अन्य कई कवियों के काव्य संकलनों का संपादन भी किया। हिन्दी सिनेमा में भी उन्होने यश चोपडा की फ़िल्म सिलसिला (१९८१) के लिये “रंग बरसे” और फ़िल्म आलाप (१९७७) के लिये “कोई गाता मैं सो जाता” जैसे लोकप्रिय गीत लिख कर अपना योगदान दिया।

गद्य लेखन में बच्चन जी की महान उपलब्धि उनकी चार खंडो में प्रकाशित आत्मकथा है।

पुरस्कार

बच्चन जी को अपने जीवन में बहुत से पुरस्कार और सम्मान मिले। उनमें से कुछ प्रमुख हैं:
साहित्य अकादमी पुरस्कार
सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार
पद्म भूषण (१९७६)
सरस्वती सम्मान (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन द्वारा दिया जाने वाला यह सम्मान प्रथम बार बच्चन जी को ही दिया गया था)
एफ़्रो-एशियन राइटर्स कांफ़्रेंस लोटस पुरस्कार
सदस्यता

भारत के राष्ट्रपति द्वारा १९६६ में राज्यसभा के लिये मनोनीत
हिन्दी सलाहकार मंडल, साहित्य अकादमी, की सदस्यता (१९६३-६७)
भारतवर्ष ने हिन्दी भाषा का यह महान कवि १८ जनवरी २००३ को खो दिया। बच्चन जी का देहांत ९६ वर्ष की आयु में सांस की तकलीफ़ के कारण हुआ। मुंबई में उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारो लोगो ने हिस्सा लिया।

रचना संसार :

तेरा हार (1932)
मधुशाला (1935)
मधुबाला (1936)
मधुकलश (1937)
निशा निमंत्रण (1938)
एकांत संगीत (1939)
आकुल अंतर (1943)
सतरंगिनी (1945)
हलाहल (1946)
बंगाल का काव्य (1946)
खादी के फूल (1948)
सूत की माला (1948)
मिलन यामिनी (1950)
प्रणय पत्रिका (1955)
धार के इधर उधर (1957)
आरती और अंगारे (1958)
बुद्ध और नाचघर (1958)
त्रिभंगिमा (1961)
चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962)
दो चट्टानें (1965)
बहुत दिन बीते (1967)
कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968)
उभरते प्रतिमानों के रूप (1969)
जाल समेटा (1973) 

विविध
बचपन के साथ क्षण भर (1934)
खय्याम की मधुशाला (1938)
सोपान (1953)
मैकबेथ (1957)
जनगीता (1958)
ओथेलो(1959)
उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959)
कवियों के सौम्य संत: पंत (1960)
आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960)
आधुनिक कवि (1961)
नेहरू: राजनैतिक जीवनचित्र (1961)
नये पुराने झरोखे (1962)
अभिनव सोपान (1964)
चौसठ रूसी कविताएँ (1964)
डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)
मरकट द्वीप का स्वर (1968)
नागर गीत) (1966)
बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)
हैमलेट (1969)
भाषा अपनी भाव पराये (1970)
पंत के सौ पत्र (1970)
प्रवास की डायरी (1971)
1972)
टूटी छूटी कड़ियाँ(1973)
मेरी कविताई की आधी सदी (1981)
सोहं हँस (1981)
आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)
मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

आत्मकथा / रचनावली 
क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969)
नीड़ का निर्माण फिर(1970)
बसेरे से दूर (1977)
दशद्वार से सोपान तक (1965)
बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

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