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गुरुवार, 30 जुलाई 2020

मुक्तक, दोहा, द्विपदी

मुक्तक 
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? 
चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, 
रेप पर उसकी जीत हो कैसे?? 
*
कोशिशें करती रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
*
दोहा 
नेह वॄष्टि नभ ने करी, धरा जब गयी भींज 
हरियायी भू लाज से, 'सलिल' मन गयी तीज
*
द्विपदी 
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.  
*
चाँद का इन्तिजार करती रही, चाँदनी ने गिला कभी न किया.
तोड़ती है समाधि शिव की नहीं, शिवा ने मौन रह सहयोग दिया.
*

बुधवार, 30 जुलाई 2014

ईद

एक मुक्तक
संजीव
*
कोशिशें करते रहो, बात बन ही जायेगी
जिन्दगी आज नहीं, कल तो मुस्कुरायेगी
हारते जो नहीं गिरने से, वो ही चल पाते-
मंजिलें आज नहीं कल तो रास आयेंगी.
***
दो द्विपदियाँ
जात मजहब धर्म बोली, चाँद अपनी कह जरा
पुज रहा तू ईद में भी, संग करवा चौथ के.
*
चाँद तनहा है ईद हो कैसे? चाँदनी उसकी मीत हो कैसे??
मेघ छाये घने दहेजों के, रेप पर उसकी जीत हो कैसे??
*

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

चंद अशआर : सलिल


इन्तिज़ार

कोशिशें मंजिलों की राह तकें।

मंजिलों ने न इन्तिज़ार किया।

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बूढा बरगद कर रहा है इन्तिज़ार।

गाँव का पनघट न क्यों होता जवां?

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जो मजा इन्तिजार में पाया।

वस्ल में हाय वो मजा न मिला।

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मिलन के पल तो लगे, बाप के घर बेटी से।

जवां बेवा सी घड़ी, इन्तिज़ार सी है 'सलिल'।

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इन्तिज़ार दिल से करोगे अगर पता होता।

छोड़कर शर्म-ओ-हया मैं ही मिल गयी होती।

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