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सोमवार, 16 दिसंबर 2024

दिसंबर १६, बुंदेली सॉनेट, चौकड़िया, कहावतें, दोहा मुक्तिका, गीत, पीपल, वंशी और वास्तु

सलिल सृजन दिसंबर १६

*
बुंदेली सॉनेट
बालम
*
जाने का का हेरत बालम,
हरदम चिपके रैत जोंक सें,
भिन्नाउत हैं रोक-टोंक सें,
नैना खूबई सेकें जालम।
सुनतइ नईं थे बरज रए हम,
लाड़ लड़ाउत रए सौक सें,
करत इसारे छिपे ओट सें,
भए गुमसुम ज्यों फूट गओ बम।
मोबाइल लए साँझ-सकारे,
कैते संग हमाए देखो,
बैरन ननदी आँख दिखा रई।
इतै कूप उत खाई दुआरे,
बिधना बिपद हमाई लेखो,
अतपर लरकोरी आफत भई।
१५-१२-२०२३
***
बुंदेली सॉनेट
*
छंद- चौकड़िया, १६-१२, पदांत गुरु गुरु
*
बेंदी करत किलोरें बाला, बाला झूला झूलें,
अँगुरी-अँगुरी सोहे मुँदरी, नथ बिजुरी सम चमकें,
गोरी-चिक्कन देह लता सी, दिप-दिप जब-तब दमकें,
कजरा से कजरारी अँखियाँ, बाँके गलियाँ भूलें।
खन खन खनक न जाने कैती का का चूरी ऊलें,
'आँचर धरो सँभार ननदिया' भौजी बम सी बमकें,
बीर निहोरें कछू नें कइयो, लरकौरी में इनकें,
सूनी खोरें भईं सकारे, मन-मन मन्नत हूलें।
पैंजन खाए चुगली बज खें, नैना झुक के बरजें,
गाल लाल भय छतिया धड़की, लगे साँस रुकती सी,
भोले बाबा किरपा करियो, इतै न कोऊ झाँके।
मेघा छाए आसमान में, गड़ गड़ खूबई गरजें,
गाँव-गली में संझा बिरिया मनो रुकी झुकती सी,
अनबोले लें बोल-समझ जाने काअ बाँकी-बाँके।
१५-१२-२०२३
*
बुंदेली लोकोक्तियां / कहावतें
अंदरा की सूद
अपनी इज्जत अपने हाथ
अक्कल के पाछें लट्ठ लयें फिरत
अक्कल को अजीरन
अकेलो चना भार नईं फोरत
अकौआ से हाती नईं बंदत
अगह्न दार को अदहन
अगारी तुमाई, पछारी हमाई
इतै कौन तुमाई जमा गड़ी
इनईं आंखन बसकारो काटो?
इमली के पत्ता पपे कुलांट खाओ
ईंगुर हो रही
उंगरिया पकर के कौंचा पकरबो
उखरी में मूंड़ दओ, तो मूसरन को का डर
उठाई जीव तरुवा से दै मारी
उड़त चिरैंया परखत
उड़ो चून पुरखन के नाव
उजार चरें और प्यांर खायें
उनकी पईं काऊ ने नईं खायीं
उन बिगर कौन मॅंड़वा अटको
उल्टी आंतें गरे परीं
ऊंची दुकान फीको पकवान
ऊंटन खेती नईं होत
ऊंट पे चढ़के सबै मलक आउत
ऊटपटांग हांकबो
एक कओ न दो सुनो
एक म्यांन में दो तलवारें नईं रतीं
ऐसे जीबे से तो मरबो भलो
ऐसे होते कंत तौ काय कों जाते अंत
ओंधे मो डरे
ओई पातर में खायें, ओई में धेद करें
ओंगन बिना गाड़ी नईं ढ़ंड़कत
कंडी कंडी जोरें बिटा जुरत
कतन्नी सी जीव चलत
कयें खेत की सुने खरयान की
करिया अक्षर भैंस बराबर
कयें कयें धोबी गदा पै नईं चढ़त
करता से कर्तार हारो
करम छिपें ना भभूत रमायें
करें न धरें, सनीचर लगो
करेला और नीम चढो‌‌
का खांड़ के घुल्ला हो, जो कोऊ घोर कें पीले
काजर लगाउतन आंख फूटी
कान में ठेंठा लगा लये
कुंअन में बांस डारबो
कुंआ बावरी नाकत फिरत
कोऊ को घर जरे, कोऊ तापे
कोऊ मताई के पेट सें सीख कें नईं आऊत
कोरे के कोरे रे गये
कौआ के कोसें ढ़ोर नहिं मरत
कौन इतै तुमाओ नरा गड़ो
खता मिट जात पै गूद बनी रत
खाईं गकरियां, गाये गीत, जे चले चेतुआ मीत
खेत के बिजूका
गंगा नहाबो
गरीब की लुगाई, सबकी भौजाई
गांव को जोगी जोगिया, आनगांव को सिद्ध
गोऊंअन के संगे घुन पिस जात
गोली सें बचे, पै बोली से ना बचे
घरई की अछरू माता, घरई के पंडा
घरई की कुरैया से आंख फूटत
घर के खपरा बिक जेयें
घर को परसइया, अंधियारी रात
घर को भूत, सात पैरी के नाम जानत
घर घर मटया चूले हैं
घी देतन वामन नर्रयात
घोड़न को चारो, गदन कों नईं डारो जात
चतुर चार जगां से ठगाय जात
चलत बैल खों अरई गुच्चत
चित्त तुमाई, पट्ट तुमाई
चोंटिया लेओ न बकटो भराओ
छाती पै पथरा धरो
छाती पै होरा भूंजत
छिंगुरी पकर कें कोंचा पकरबो
छै महीनों को सकारो करत
जगन्नाथ को भात, जगत पसारें हाथ
जनम के आंदरे, नाव नैनसुख
जब की तब सें लगी
जब से जानी, तब सें मानी
जा कान सुनी, बा कान निकार दई
जाके पांव ना फटी बिम्बाई, सो का जाने पीर पराई
जान समझ के कुआ में ढ़केल दओ
जित्ते मों उत्ती बातें
जित्तो खात. उत्तई ललात
जित्तो छोटो, उत्तई खोटो
जैसो देस, तैसो भेष
जैसो नचाओ, तैसो नचने
जो गैल बताये सो आंगे होय
जोलों सांस, तौलों आस
झरे में कूरा फैलाबो
टंटो मोल ले लओ
टका सी सुनावो
टांय टांय फिस्स
ठांडो‌ बैल, खूंदे सार
ढ़ोर से नर्रयात
तपा तप रये
तरे के दांत तरें, और ऊपर के ऊपर रै गये
तला में रै कें मगर सों बैर
तिल को ताड़ बनाबो
तीन में न तेरा में, मृदंग बजाबें डेरा में
तुम जानो तुमाओ काम जाने
तुम हमाई न कओ, हम तुमाई न कयें
तुमाओ मो नहिं बसात
तुमाओ ईमान तुमाय संगे
तुमाये मों में घी शक्कर
तेली को बैल बना रखो
थूंक कैं चाटत
दबो बानिया देय उधार
दांत काटी रोटी
दांतन पसीना आजे
दान की बछिया के दांत नहीं देखे जात
धरम के दूने
नान सें पेट नहीं छिपत
नाम बड़े और दरसन थोरे
निबुआ, नोंन चुखा दओ
नौ खायें तेरा की भूंक
नौ नगद ना तेरा उधार
पके पे निबौरी मिठात
पड़े लिखे मूसर
पथरा तरें हाथ दबो
पथरा से मूंड़ मारबो
पराई आंखन देखबो
पांव में भौंरी है
पांव में मांदी रचायें
पानी में आग लगाबो
पिंजरा के पंछी नाईं फरफरा रये
पुराने चांवर आयें
पेट में लात मारबो
बऊ शरम की बिटिया करम की
बचन खुचन को सीताराम
बड़ी नाक बारे बने फिरत
बातन फूल झरत
मरका बैल भलो कै सूनी सार
मन मन भावे, मूंड़ हिलाबे
मनायें मनायें खीर ना खायें जूठी पातर चांटन जायें
मांगे को मठा मौल बराबर
मीठी मीठी बातन पेट नहीं भरत
मूंछन पै ताव दैवो
मौ देखो व्यवहार
रंग में भंग
रात थोरी, स्वांग भौत
लंका जीत आये
लम्पा से ऐंठत
लपसी सी चांटत
लरका के भाग्यन लरकोरी जियत
लाख कई पर एक नईं मानी
सइयां भये कोतबाल अब डर काहे को
सकरे में सम्धियानो
समय देख कें बात करें चइये
सोउत बर्रे जगाउत
सौ ड़ंडी एक बुंदेलखण्डी
सौ सुनार की एक लुहार की
हम का गदा चराउत रय
हरो हरो सूजत
हांसी की सांसी
हात पै हात धरें बैठे
हात हलाउत चले आये
होनहार विरबान के होत चीकने पात
हुइये सोई जो राम रचि राखा
***
सॉनेट
आशा पुष्पाती रहे, किरण बखेर उजास।
गगन सरोवर में खिले, पूनम शशि राजीव सम।
सुषमा हेरें नैन हो, मन में खुशी हुलास।।
सुमिर कृष्ण को मौन, हो जाते हैं बैन नम।।
वीणा की झंकार सुन, वाणी होती मूक।
ज्ञान भूल कर ध्यान, सुमिर सुमिर ओंकार।
नेत्र मुँदें शारद दिखें, सुन अनहद की कूक।।
चित्र गुप्त झलके तभी, तर जा कर दीदार।।
सफल साधना सिद्धि पा, अहंकार मत पाल।
काम-कामना पालकर, व्यर्थ न तू होना दुखी।
ढाई आखर प्रेम के, कह हो मालामाल।
राग-द्वेष से दूर, लोभ भुला मन हो सुखी।।
दाना दाना फेरकर, नादां बन रह लीन।
कर करतल करताल, हँस बजा भक्ति की बीन।।
१६-१२-२०२१
***
त्वरित कविता
*
दागी है जो दीप, बुझा दो श्रीराधे
आगी झट से उसे लगा दो श्रीराधे
रक्षा करिए कलियों की माँ काँटों से
माँगी मन्नत शांति दिला दो श्रीराधे
१६-१२-२०१९
***
दोहा मुक्तिका
*
दोहा दर्पण में दिखे, साधो सच्चा रूप।
पक्षपात करता नहीं, भिक्षुक हो या भूप।।
*
सार-सार को गह रखो, थोथा देना फेंक।
मनुज स्वभाव सदा रखो, जैसे रखता सूप।।
*
प्यासा दर पर देखकर, द्वार न करना बंद।
जल देने से कब करे, मना बताएँ कूप।।
*
बिसरा गौतम-सीख दी, तज अचार-विचार।
निर्मल चीवर मलिन मन, नित प्रति पूजें स्तूप।।
*
खोट न अपनी देखती, कानी सबको टोंक।
सब को कहे कुरूप ज्यों, खुद हो परी अनूप।।
१६-१२-२०१८
***
गीत:
दरिंदों से मनुजता को जूझना है
.
सुर-असुर संघर्ष अब भी हो रहा है
पा रहा संसार कुछ, कुछ खो रहा है
मज़हबी जुनून पागलपन बना है
ढँक गया है सूर्य, कोहरा भी घना है
आत्मघाती सवालों को बूझना है
.
नहीं अपना या पराया दर्द होता
कहीं भी हो, किसी को हो ह्रदय रोता
पोंछना है अश्रु लेकर नयी आशा
बोलना संघर्ष की मिल एक भाषा
नाव यह आतंक की अब डूबना है
.
आँख के तारे अधर की मुस्कुराहट
आये कुछ राक्षस मिटाने खिलखिलाहट
थाम लो गांडीव, पाञ्चजन्य फूंको
मिटें दहशतगर्द रह जाएँ बिखरकर
सिर्फ दृढ़ संकल्प से हल सूझना है
.
जिस तरह का देव हो, वैसी ही पूजा
दंड के अतिरिक्त पथ वरना न दूजा
खोदकर जड़, मठा उसमें डाल देना
तभी सूझेगा नयन कर रुदन सूजा
सघन तम के बाद सूरज ऊगना है
*
***
आयुर्वेद
हृदय रोग चिकित्सा- पीपल पत्ता
99 प्रतिशत ब्लॉकेज को भी रिमूव कर देता है पीपल का पत्ता....
पीपल के १५ हरे-कोमल पत्तों का ऊपर व नीचे का कुछ भाग कैंची से काटकर अलग कर दें। पत्ते का बीच का भाग पानी से साफ कर लें। इन्हें एक गिलास पानी में धीमी आँच पर पकने दें। जब पानी उबलकर एक तिहाई रह जाए तब ठंडा होने पर साफ कपड़े से छान लें और उसे ठंडे स्थान पर रख दें, दवा तैयार।
सुपाच्य व हल्का नाश्ता करने के बाद इस काढ़े की तीन खुराकें प्रत्येक तीन घंटे बाद प्रातः लें। खुराक लेने से पहले पेट एक दम खाली नहीं होना चाहिए। लगातार पंद्रह दिन तक इसे लेने से हृदय पुनः स्वस्थ हो जाता है और फिर दिल का दौरा पड़ने की संभावना नहीं रहती। दिल के रोगी इस नुस्खे का एक बार प्रयोग अवश्य करें। प्रयोगकाल में तली चीजें, चावल आदि न लें। मांस, मछली, अंडे, शराब, धूम्रपान का प्रयोग बंद कर दें। नमक, चिकनाई का प्रयोग बंद कर दें। अनार, पपीता, आंवला, बथुआ, लहसुन, मैथी दाना, सेब का मुरब्बा, मौसंबी, रात में भिगोए काले चने, किशमिश, गुग्गुल, दही, छाछ आदि लें । पीपल के पत्ते में दिल को बल और शांति देने की अद्भुत क्षमता ह, संभवत: पीपल-पत्र का हृदयाकार यही बताता है।
***
एक हाइकु-
बहा पसीना
चमक उठी देह
जैसे नगीना।
***
नवगीत:
जितनी रोटी खायी
की क्या उतनी मेहनत?
.
मंत्री, सांसद मान्य विधायक
प्राध्यापक जो बने नियामक
अफसर, जज, डॉक्टर, अभियंता
जनसेवक जन-भाग्य-नियंता
व्यापारी, वकील मुँह खोलें
हुए मौन क्यों?
कहें न तुहमत
.
श्रमिक-किसान करे उत्पादन
बाबू-भृत्य कर रहे शासन
जो उपजाए वही भूख सह
हाथ पसारे माँगे राशन
कब बदलेगी परिस्थिति यह
करें सोचने की
अब ज़हमत
.
उत्पादन से वेतन जोड़ो
अफसरशाही का रथ मोड़ो
पर्यामित्र कहें क्यों पिछड़ा?
जो फैलाता कैसे अगड़ा?
दहशतगर्दों से भी ज्यादा
सत्ता-धन की
फ़ैली दहशत
१६-१२-२०१४
***
वंशी और वास्तु :
(बांसुरीवादन व स्थापन से वास्तुदोष परिहार)
वंशी का पौराणिक इतिहास:
भगवान श्रीकृष्ण और वंशी एक दुसरे के बिना अधूरे हैं, प्रभु श्रीकृष्ण की वंशी तो शब्दब्रह्म का प्रतीक है। ऐसा भी समझा जाता है कि बांसनिर्मित वंशी के आविष्कारक संभवतः कन्हैयाजी ही हैं | साथ-साथ ऐसा भी कहा जाता है की ब्रह्मा के किसी शाप वश उनकी मानस पुत्री माँ सरस्वती को बॉस रूपी जड़रूप में धरती पर आना पडा था किन्तु किसी संयोग वश जड़ होने से पूर्व उन्होंने एक सहस्त्र वर्ष तक भगवत-प्राप्ति के लिए तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर प्रभु ने कृष्णावतार में उन्हें अपनी सहचरी बनाने का वरदान दिया | तब उन्होंने ब्रह्माजी के शाप का स्मरण करके प्रभु से कहा, " हे प्रभु! मैं तो जड़बांस के रूप में जन्म लेने के लिए श्रापग्रस्त हूँ |" यह सुनकर प्रभु ने कहा, "यद्यपि तुम्हें जन्म चाहे जड़ रूप में मिलेगा, तथापि मैं तुम्हें अपनाकर तुम में ऐसी प्राण-शक्ति अवश्य भर दूंगा जिससे तुम एक विलक्षण चेतना का अनुभव करके अपनी जड़ों को सदैव के लिए चैतन्य बनाए रख सकोगी |" तब से इस जगत में प्रभु के अधरों पर वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी के रूप में वस्तुतः ब्रह्मा जी की मानस पुत्री सरस्वती जी ही निरंतर विराजमान हैं | वंशी या बांसुरी का वर्णन सबसे पहले सामवेद में ही मिलता है | वस्तुतः बांसुरी संगीत के सप्त स्वरों की एक साथ प्रस्तुति का सर्वोत्तम वाद्ययंत्र है |
वंशी, मुरली, वेणु या बांसुरी की मधुर धुन तन-मन को परमानंद से भर देती है | यह क्या जड़ क्या चेतन सभी के मन का हरण कर लेती है इसके गीत की धुन सुनकर गोपियाँ अपनी सुध-बुध तक खो बैठती थीं. गोपियाँ तो गोपियाँ, वहां की सारी गायें तक इस धुन से आकर्षित होकर कन्हैया के सम्मुख आ उपस्थित होती थीं | वंशी की तान सुनकर आज भी हम सभी को असीमित आनंद की अनुभूति होती है | कहा जाता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के लिए इसे बजाने से पूर्व एक बार इसकी अभूतपूर्व परीक्षा भी ली थी | एक दिन उनके वंशीवादन करते ही वास्तव में यमुना की गति ही रूक गई तदनंतर एक दिन वृन्दावन के पाषाण तक वंशी ध्वनि का श्रवण कर द्रवीभूत हो उठे साथ-साथ पशु-पक्षी व देवताओं के विमान आदि की गति भी रूक गई, जिससे सभी स्तब्ध हो उठे | इस प्रकार जब वंशी की पूर्ण परीक्षा हो गई तब श्यामसुन्दर ने अपनी ब्रजगोपांगनाओं के लिए वंशी बजाई | जिन ब्रजदेवियों ने वंशीगीत सुना वे सभी अपनी सुधबुध ही खो बैठीं साथ-साथ उन सभी के अंत करण में किशोर श्यामसुन्दर का सुन्दर मनोहारी स्वरूप विराजमान हो गया | ब्रह्म, रूद्र, इन्द्र आदि ने भी उस वंशी का सुर सुना, वे सभी एक विशेष भाव में मुग्ध तो हुए, उनमें से किसी-किसी की समाधि भी भंग हुई परन्तु वंशी का तात्विक रहस्य निश्चिंत रूपेण उस समय किसी को भी ज्ञात न हो सका | यह भी कहा जाता है कि एक बार राधा जी ने बांसुरी से पूछा, "हे बांसुरी! यह बताइये कि मैं कृष्ण जी को इतना प्रेम करती हूं, फिर भी मैं अनुभव कर रही हूँ कि मेरे श्याम मुझसे अधिक तुमसे प्रेम करते है, वह तुम्हे सदैव ही अपने होठों से लगाये रखते है, इसका क्या राज है? तब विनीत भाव से बांसुरी ने सुरीले स्वर में कहा, "प्रिय राधे! प्रभु के प्रेम में पहले मैंने अपने तन को कटवाया, फिर से काट-छाँट कर अलग करके जलती आग में तपाकर सीधी की गई, तद्पश्चात मैंने अपना मन भी कटवाया, अर्थात बीच में से आर-पार एकदम पूरी की पूरी खाली कर दी गई | फिर जलते हुए छिद्रक से समस्त अंग-अंग छिदवाकर स्वयं में अनेक सुराख़ करवाये | तदनंतर कान्हा ने मुझे जैसे बजाना चाहा मै ठीक वैसे ही अर्थात उनके आदेशानुसार ही बजी |अपनी मर्ज़ी से तो मैं कभी भी नहीं बज सकी | बस हममें व तुममें एकमात्र यही अंतर है कि मैं कन्हैया की मर्ज़ी से चलती हूं और तुम कृष्णजी को अपनी मर्ज़ी से चलाना चाहती हो!" वस्तुतः यह प्रेम में त्याग व समर्पण की पराकाष्ठा है | वंशी हमें सदैव यही सन्देश देती है कि हम अपने प्रभु की इच्छानुसार ही सत्कर्म करके अपना जीवनमार्ग प्रशस्त करें ! यह कदापि उचित नहीं कि हम अपने हठयोग से उन्हें विवश करें कि प्रभु हमारे जीवनमार्ग का निर्धारण हमारी इच्छानुसार ही करें |
वास्तु दोष परिहार :
एक समय था जब अधिकाँश घरों में कोई न कोई व्यक्ति वंशी बजाने में प्रवीण होता ही होता था | यहाँ तक कि अपने लोक गीतों में भी कहा गया है कि "देवर जी आवैं वंशी बजावैं" किन्तु आज के आधुनिक दौर में अपने देश में गिने चुने बांसुरीवादक ही रह गए हैं जबकि विदेशों में इसे अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है | चायना जैसे देश में तो अधिकांश लडकियाँ तक बांसुरी वादन में प्रवीण हैं वहां की वास्तु विद्या फेंगशुई के अनुसार वास्तु दोष के निवारण हेतु बांस की बांसुरी का प्रयोग अति उत्तम है लो पिच पर उत्पन्न की गयी इसकी शंख समान ध्वनि से आस-पास के वातावरण में व्याप्त सूक्ष्म वायरस तक नष्ट हो जाते हैं | यह धनात्मक ऊर्जा का सर्वश्रेष्ठ स्रोत है जिसकी उपस्थिति में नकारात्मक ऊर्जा नष्ट हो जाती है | फेंग-शुई में ऐसी मान्यता है कि इसे लाल धागे में बाँध कर भवन के मुख्य द्वार पर क्रास रूप में दो बांसुरी एक साथ लगाने से भवन में नकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश नहीं हो पाता है और अचानक आने वाली मुसीबतें दूर हो जाती हैं | शिक्षा, व्यवसाय या नौकरी में बाधा आने पर शयन कक्ष के दरवाजे पर दो बांसुरियों को लगाना शुभ फलदायी होता है | ऐसी भी मान्यता है कि बीम के नीचे बैठकर काम करने, भोजन करने व सोने से दिमागी बोझ व अशान्ति बनी रहती है किन्तु उसी बीम के नीचे यदि लाल धागे में बांधकर बांसनिर्मित वंशी लटका दी जाय तो इस दोष का परिहार हो जाता है | बीमार व्यक्ति के तकिये के नीचे बांसुरी रखने से रोगमुक्ति होगी है | यह भी मान्यता है कि यदि घर के अंदर किसी तरह की बुरी आत्मा या अशुभ चीजों का संदेह हो तो इसे घर की दीवार पर तलवार की तरह लटकाकर इन चीजों से घर को मुक्त किया जा सकता है साथ-साथ यदि वैवाहिक जीवन ठीक न चल रहा हो तो सोते-समय इसे सिराहने के नीचे रखने से आपसी तनाव आदि दूर हो जाता है | जन्माष्टमी के दिन बांसुरी को सजाकर भगवान कृष्ण के समझ रखकर इसकी पूजा करने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है | धर्मग्रंथों के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण को बांसुरी अत्यधिक प्रिय है और वे इसे सदैव अपने साथ ही रखते हैं इसी कारण से इसे अति पवित्र व पूज्यनीय माना जाता है | यह भी भगवान् श्रीकृष्ण का वरदान ही है कि जिस स्थान पर बांसुरीवादन होता रहता है वह स्थान वास्तुदोष जनित दुष्प्रभावों व बीमारियों से पूर्णतः सुरक्षित रहता है | वहां पर परिवार के सदस्यों के विचार सकारात्मक हो जाते हैं जिससे उन्हें सभी कार्यों में सफलता प्राप्त होती है | बांसुरी से निकलने वाला स्वर प्रेम बरसाने वाला ही है | इसी वजह से जिस घर में बांस निर्मित बांसुरी रखी होती है वहां पर प्रेम और धन की कोई कमी नहीं रहती है साथ साथ सभी दुःख व आर्थिक तंगी भी दूर हो जाती है |
सहज उपलब्धता :
बजाने योग्य वंशी आमतौर पर वाद्ययंत्रों की दुकानों पर सहजता से उपलब्ध हो जाती है | वैसे तो अक्सर किसी भी मेले में बांसुरी बेचने वाले दिखाई दे जाते हैं किन्तु उनके पास बहुत छाँट-बीन करने के उपरान्त भी बहुत कम ही बजाने योग्य बाँसुरियाँ उपलब्ध हो पाती हैं | कुंछएक बैंड की दुकानों पर भी बिक्री के लिए यह उपलब्ध हो जाती है | इसके विभिन्न ट्यून की तेरह, अठारह व चौबीस बांसुरियों के ट्यून्ड सेट भी उपलब्ध हो जाते हैं जिनकी अधिकतर आपूर्ति उत्तर प्रदेश के पीलीभीत शहर से की जाती है | नबी एण्ड संस यहाँ के प्रमुख बांसुरी निर्माता हैं जो विदेशों तक में बांसुरी का निर्यात करते हैं | पीलीभीत को बांसुरी नगरी के नाम से भी जाना जाता है |
कुछ प्रसिद्द व प्रमुख बांसुरी वादक :
भगवान् श्रीकृष्ण (सर्वश्रेष्ठ बांसुरी वादक)
पंडित पन्नालाल घोष
पंडित भोलानाथ
पंडित हरिप्रसाद चौरसिया
पंडित रघुनाथ सेठ
पंडित विजय राघव राव
पंडित देवेन्द्र
पंडित देवेन्द्र गुरूदेश्वर
पंडित रोनू मजूमदार
पंडित रूपक कुलकर्णी
बांसुरी वादक श्री राजेंद्र प्रसन्ना
बांसुरी वादक श्री एन रामानी
बांसुरी वादक श्री समीर राव
पंडित प्रमोद बाजपेयी (वरिष्ठ एडवोकेट)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री नरेन्द्र मोदी (वर्तमान प्रधानमंत्री भारत सरकार)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री लालकृष्ण आडवानी (वरिष्ठ राजनेता)
स्वैच्छिक बांसुरी वादक श्री मुक्तेश चन्द्र (पुलिस कमिश्नर)
बांसुरी वादक श्री बलबीर कुमार (कनॉट प्लेस सब वे पर बांसुरी विक्रेता व बांसुरी-शिक्षक) आदि..
आज के दौर में बांसुरी वादकों की संख्या बहुत ही कम रह गयी है | कहीं-कहीं पर ये खोजने से भी नहीं मिल पाते हैं | इसका प्रमुख कारण हमारे संस्कारों की क्षति व पश्चिमी सभ्यता का अन्धानुकरण ही है | हमारी सरकारों व समाज को इस ओर ध्यान देकर बांसुरीवादकों के लिए सम्मानजनक रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने चाहिए |
मुक्तक:
अधरों पर मुस्कान, आँख में चमक रहे
मन में दृढ़ विश्वास, ज़िन्दगी दमक कहे
बाधा से संकल्प कहो कब हारा है?
आओ! जीतो, यह संसार तुम्हारा है
***
दोहा:
पलकर पल भर भूल मत, पालक का अहसान
गंध हीन कटु स्वाद पर, पालक गुण की खान
१६-१२-२०१४

*

शनिवार, 23 अप्रैल 2022

सॉनेट, चिंतन,पुस्तक दिवस,मुक्तिका,लघुकथा,गीत,भोजपुरी, कहावतें

सॉनेट
पृथ्वी दिवस
पृथ्वी दनुजों से थर्रायी
ऐसा हमें अतीत बताता
पृथ्वी अब भी है घबरायी
ऐसा वर्तमान बतलाता

क्या भविष्य बस यही कहेगा
धरती पर रहते थे इन्सां
या भविष्य ही नहीं रहेगा?
होगा एक न करे जो बयां

मात्र 'मैं' सही, शेष गलत हैं
मेरा कहा सभी जन मानें
अहंकार भय क्रोध द्वेष हैं
मूल नाश के कारण जानें

विश्व एक परिवार, एक घर
माने हँसे साध सब मिलकर
२३-४-२०२२
•••
चिंतन सलिला  ५
कब?
'कब' का महत्व क्या, क्यों, कैसे के क्रम में अन्य किसी से कम नहीं है।

'कब' क्या करना है यह ज्ञात हो तो किये गये का परिणाम मनोनुकूल होता है।

'कब' का महत्व कैकेयनंदिनी कैकशी भली-भाँति जानती थीं। यदि उन्होंने कोप कर वरदान राम राज्याभिषेक के

ठीक पहले न माँगकर किसी अन्य मय माँगे होते तो राम का चरित्र निखर ही न पाता, न ही दनुज राज का अंत नहीं होता।

'कब' न जानने के कारण ही हमारी संस्थाओं के कार्य, कार्यक्रम और निर्णय फलदायी नहीं हैं।

'कब' करना या न करना कैसे जानें?

याद रखें 'अग्रसोची सदा सुखी'। समय से पहले सोच-विचारकर यथासमय किया गया काम ही सुलझाया होता है।

'कब' का सही अनुमान कर वर्षा के पूर्व छत और छाते की मरम्मत, शीत के पहले गर्म कपड़ों की धुलाई और गर्मी के पहले कूलर-पंखों की देखभाल न हो तो परेशानी होगी ही।

'कब' क्या करना या न करना, यह जानना संस्था पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं के लिए बहुत जरूरी है।

यह न जानने के कारण ही संस्थाएँ अप्रासंगिक हो गई हैं और समाज उनसे दूर हो गया है।

संस्थाओं का गठन समाज के मगल और कमजोरों की सहायता के लिए किया जाता है। संस्था से इस उद्देश्य की पूर्ति न हो, वह केवल संपन्न वर्ग के मिलने, मौज करने का माध्यम बन जाए तो समाज उससे दूर हो जाता है।

कब किसके लिए क्या किस प्रकार करना है? यह न सोचा जाए तो संस्था वैयक्तिक यश, लाभ और स्वार्थ का जरिया बनकर मर जाती है।

'कब' की कसौटी पर खुद को और संस्था को कसकर देखिए।
२३-४-२०२२
संजीव, ९४२५१८३२४४

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पुस्तक दिवस (२३ अप्रैल) पर
मुक्तिका
*
मीत मेरी पुस्तकें हैं
प्रीत मेरी पुस्तकें हैं
हार ले ले आ जमाना
जीत मेरी पुस्तकें हैं
साँस लय है; आस रस है
गीत मेरी पुस्तकें हैं
जमातें लाईं मशालें
भीत मेरी पुस्तकें हैं
जग अनीत-कुरीत ले ले
रीत मेरी पुस्तकें हैं
२३-४-२०२०
***
विमर्श : चाहिए या चाहिये?
हिन्दी लेखन में हमेशा स्वरात्मक शब्दों को प्रधानता दी जाती है मतलब हम जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं।
चाहिए या चाहिये दोनों शब्दों के अर्थ एक ही हैं। लेखन की दृष्टि से कब क्या लिखना चाहिए उसका वर्णन निम्नलिखित है।
चाहिए - स्वरात्मक शब्द है अर्थात बोलने में 'ए' स्वर का प्रयोग हो रहा है। इसलिए लेखन की दृष्टि से चाहिए सही है।
चाहिये - यह श्रुतिमूलक है अर्थात सुनने में ए जैसा ही प्रतीत होता है इसलिए चाहिये लिखना सही नहीं है। क्योंकि हिन्दी भाषा में स्वर आधारित शब्द जिसमें आते हैं, लिखने में वही सही माने जाते हैं।
आए, गए, करिए, सुनिए, ऐसे कई शब्द हैं जिसमें ए का प्रयोग ही सही है।
***
लघुकथा
जाति
*
_ बाबा! जाति क्या होती है?
= क्यों पूछ रही हो?
_ अखबारों और दूरदर्शन पर दलों द्वारा जाति के आधार चुनाव में प्रत्याशी खड़े किए जाने और नेताओं द्वारा जातिवाद को बुरा बताए जाने से भ्रमित पोती ने पूछा।
= बिटिया! तुम्हारे मित्र तुम्हारी तरह पढ़-लिख रहे बच्चे हैं या अनपढ़ और बूढ़े?
_ मैं क्यों अनपढ़ को मित्र बनाऊँगी? पोती तुनककर बोली।
= इसमें क्या बुराई है? किसी अनपढ़ की मित्र बनकर उसे पढ़ने-बढ़ने में मदद करो तो अच्छा ही है लेकिन अभी यह समझ लो कि तुम्हारे मित्रों में एक ही शाला में पढ़ रहे मित्र एक जाति के हुए, तुम्हारे बालमित्र जो अन्यत्र पढ़ रहे हैं अन्य जाति के हुए, तुम्हारे साथ नृत्य सीख रहे मित्र भिन्न जाति के हुए।
_ अरे! यह तो किसी समानता के आधार पर चयनित संवर्ग हुआ। जाति तो जन्म से होती है न?
= एक ही बात है। संस्कृत की 'जा' धातु का अर्थ होता है एक स्थान से अन्य स्थान पर जाना। जो नवजात गर्भ से संसार में जाता है वह जातक, जन्म देनेवाली जच्चा, जन्म देने की क्रिया जातकर्म, जन्म दिया अर्थात जाया....
_ तभी जगजननी दुर्गा का एक नाम जाया है।
= शाबाश! तुम सही समझीं। बुद्ध द्वारा विविध योनियों में जन्म या अवतार लेने की कहानियाँ जातक कथाएँ हैं।
_ यह तो ठीक है लेकिन मैं...
= तुम समान आचार-विचार का पालन कर रहे परिवारों के समूह और उनमें जन्म लेनेवाले बच्चों को जाति कह रही हो। यह भी एक अर्थ है।
_ लेकिन चुनाव के समय ही जाति की बात अधिक क्यों होती है?
= इसलिए कि समान सामाजिक पृष्ठभूमि के लोगों में जुड़ाव होता है तथा वे किसी परिस्थिति में समान व्यवहार करते हैं। चुनाव जीतने के लिए मत संख्या अधिक होना जरूरी है। इसलिए दल अधिक मतदाताओं वाली जाति का उम्मीदवार खड़ा करते हैं।
_ तब तो गुण और योग्यता के कोई अर्थ ही नहीं रहा?
= गुण और योग्यता को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुने जाएँ तो?
_ समझ गई, दल धनबल, बाहुबल और संख्याबल को स्थान पर शिक्षा, योग्यता, सच्चरित्रता और सेवा भावना को जाति का आधार बनाकर प्रत्याशी चुनें तो ही अच्छे जनप्रतिनिधि, अच्छी सरकार और अच्छी नीतियाँ बनेंगी।
= तुम तो सयानी हो गईं हो बिटिया! अब यह भी देखना कि तुम्हारे मित्रों की भी हो यही जाति।
***
लघुकथा
नोटा
*
वे नोटा के कटु आलोचक हैं। कोई नोटा का चर्चा करे तो वे लड़ने लगते। एकांगी सोच के कारण उन्हें और अन्य राजनैतिक दलों के प्रवक्ताओं के केवल अपनी बात कहने से मतलब था, आते भाषण देते और आगे बढ़ जाते।
मतदाताओं की परेशानी और राय से किसी को कोई मतलब नहीं था। चुनाव के पूर्व ग्रामवासी एकत्र हुए और मतदान के बहिष्कार का निर्णय लिया और एक भी मतदाता घर से नहीं निकला।
दूरदर्शन पर यह समाचार सुन काश, ग्रामवासी नोटा का संवैधानिक अधिकार जानकर प्रयोग करते तो व्यवस्था के प्रति विरोध व्यक्त करने के साथ ही संवैधानिक दायित्व का पालन कर सकते थे।
दलों के वैचारिक बँधुआ मजदूर संवैधानिक प्रतिबद्धता के बाद भी अपने अयोग्य ठहराए जाने के भय से मतदाताओं को नहीं बताना चाहते कि उनका अधिकार है नोटा।
२३-४-२०१९
***
गीत
*
देहरी बैठे दीप लिए दो
तन-मन अकुलाए.
संदेहों की बिजली चमकी,
नैना भर आए.
*
मस्तक तिलक लगाकर भेजा, सीमा पर तुमको.
गए न जाकर भी, साँसों में बसे हुए तुम तो.
प्यासों का क्या, सिसक-सिसककर चुप रह, रो लेंगी.
आसों ने हठ ठाना देहरी-द्वार न छोड़ेंगी.
दीपशिखा स्थिर आलापों सी,
मुखड़ा चमकाए.
मुखड़ा बिना अन्तरा कैसे
कौन गुनगुनाए?
*
मौन व्रती हैं पायल-चूड़ी, ऋषि श्रृंगारी सी.
चित्त वृत्तियाँ आहुति देती, हो अग्यारी सी.
रमा हुआ मन उसी एक में जिस बिन सार नहीं.
दुर्वासा ले आ, शकुंतला का झट प्यार यहीं.
माथे की बिंदी रवि सी
नथ शशि पर बलि जाए.
*
नीरव में आहट की चाहत, मौन अधर पाले.
गजरा ले आ जा निर्मोही, कजरा यश गा ले.
अधर अधर पर धर, न अधर में आशाएँ झूलें.
प्रणय पखेरू भर उड़ान, झट नील गगन छू लें.
ओ मनबसिया! वीर सिपहिया!!
याद बहुत आए.
घर-सरहद पर वामा
यामा कुलदीपक लाए.
२३-४-२०१८
***
कहावत सलिला:
भोजपुरी कहावतें:
*
भोजपुरी कहावतें दी जा रही हैं. पाठकों से अनुरोध है कि अपने-अपने अंचल में प्रचलित लोक भाषाओँ, बोलियों की कहावतें भावार्थ सहित यहाँ दें ताकि अन्य जन उनसे परिचित हो सकें. .
१. पोखरा खनाचे जिन मगर के डेरा.
२. कोढ़िया डरावे थूक से.
३. ढेर जोगी मठ के इजार होले.
४. गरीब के मेहरारू सभ के भौजाई.
५. अँखिया पथरा गइल.
***
मुक्तिका :
*
राजनीति धैर्य निज खोती नहीं.
भावनाओं की फसल बोती नहीं..
*
स्वार्थ के सौदे नगद होते यहाँ.
दोस्ती या दुश्मनी होती नहीं..
*
रुलाती है विरोधी को सियासत
हारकर भी खुद कभी रोती नहीं..
*
सुन्दरी सत्ता की है सबकी प्रिया.
त्याग-सेवा-श्रम का सगोती नहीं..
*
दाग-धब्बों की नहीं है फ़िक्र कुछ.
यह मलिन चादर 'सलिल' धोती नहीं..
२३-४-२०१०
*

मंगलवार, 26 मई 2020

मुहावरे और कहावतें



मुहावरे / इडियम्स : मुहावरों एवं लोकोक्तियों का प्रयोग भाषा की सुंदर रचना हेतु आवश्यक माना जाता है। अपने साधारण अर्थ को छोड़ कर विशेष अर्थ को व्यक्त करने वाले वाक्यांश को मुहावरा कहते हैं। मुहावरा अरबी भाषा का शब्द है ,जिसका शाब्दिक अर्थ है ‘अभ्यास’ । मुहावरा पूर्ण वाक्य नहीं होता है, इसीलिए इसका स्वतंत्र रूप से प्रयोग नहीं किया जा सकता है। सामान्य अर्थ का बोध न कराकर विशेष अथवा विलक्षण अर्थ का बोध कराने वाले पदबन्ध को मुहावरा कहते हैँ। इन्हेँ वाग्धारा भी कहते हैँ।

      मुहावरा एक ऐसा वाक्यांश है, जो रचना मेँ अपना विशेष अर्थ प्रकट करता है। रचना मेँ भावगत सौन्दर्य की दृष्टि से मुहावरोँ का विशेष महत्त्व है। इनके प्रयोग से भाषा सरस, रोचक एवं प्रभावपूर्ण बन जाती है। इनके मूल रूप मेँ कभी परिवर्तन नहीँ होता अर्थात् इनमेँ से किसी भी शब्द का पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त नहीँ किया जा सकता। हाँ, क्रिया पद मेँ काल, पुरुष, वचन आदि के अनुसार परिवर्तन अवश्य होता है। मुहावरा अपूर्ण वाक्य होता है। वाक्य प्रयोग करते समय यह वाक्य का अभिन्न अंग बन जाता है। मुहावरे के प्रयोग से वाक्य मेँ व्यंग्यार्थ उत्पन्न होता है। अतः मुहावरे का शाब्दिक अर्थ न लेकर उसका भावार्थ ग्रहण करना चाहिए।
कहावतें / लोकोक्तियाँ / प्रोवर्ब या फोकलोर  : साधारणतया लोक में प्रचलित उक्तियों को लोकोक्ति कहा जाता है। लोक अनुभव से उपजी उक्तियों को लोकोक्ति कहा जाता है। यह समाज द्वारा लम्बे अनुभव से अर्जित किये गए ज्ञान या सत्य की वाक्य या वाक्यांश में की गई अभिव्यक्ति है।  लोकोक्तियाँ अंतर्कथाओं से भी संबंध रखती हैं। लोकोक्तियाँ स्वतंत्र वाक्य होती हैं, जिनमें एक पूरा भाव छिपा रहता है। किसी विशेष स्थान पर प्रसिद्ध हो जाने वाले कथन को 'लोकोक्ति' कहते हैं। जब कोई पूरा कथन किसी प्रसंग विशेष में उद्धत किया जाता है तो लोकोक्ति कहलाता है।
दूसरे शब्दों में- जब कोई पूरा कथन किसी प्रसंग विशेष में उद्धत किया जाता है तो लोकोक्ति कहलाता है। इसी को कहावत कहते है।
उदाहरण- 'उस दिन बात-ही-बात में राम ने कहा, हाँ, मैं अकेला ही कुँआ खोद लूँगा। इन पर सबों ने हँसकर कहा, व्यर्थ बकबक करते हो, अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' । यहाँ 'अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता' लोकोक्ति का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ है 'एक व्यक्ति के करने से कोई कठिन काम पूरा नहीं होता' ।
'लोकोक्ति' शब्द 'लोक + उक्ति' शब्दों से मिलकर बना है जिसका अर्थ है- लोक में प्रचलित उक्ति या कथन'। संस्कृत में 'लोकोक्ति' अलंकार का एक भेद भी है तथा सामान्य अर्थ में लोकोक्ति को 'कहावत' कहा जाता है।
चूँकि लोकोक्ति का जन्म व्यक्ति द्वारा न होकर लोक द्वारा होता है अतः लोकोक्ति के रचनाकार का पता नहीं होता। इसलिए अँग्रेजी में इसकी परिभाषा दी गई है- ' A proverb is a saying without an author' अर्थात लोकोक्ति ऐसी उक्ति है जिसका कोई रचनाकार नहीं होता।
वृहद् हिंदी कोश में लोकोक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-

'विभिन्न प्रकार के अनुभवों, पौराणिक तथा ऐतिहासिक व्यक्तियों एवं कथाओं, प्राकृतिक नियमों और लोक विश्वासों आदि पर आधारित चुटीली, सारगर्भित, संक्षिप्त, लोकप्रचलित ऐसी उक्तियों को लोकोक्ति कहते हैं, जिनका प्रयोग किसी बात की पुष्टि, विरोध, सीख तथा भविष्य-कथन आदि के लिए किया जाता है।

'लोकोक्ति' के लिए यद्यपि सबसे अधिक मान्य पर्याय 'कहावत' ही है पर कुछ विद्वानों की राय है कि 'कहावत' शब्द 'कथावृत्त' शब्द से विकसित हुआ है अर्थात कथा पर आधारित वृत्त, अतः 'कहावत' उन्हीं लोकोक्तियों को कहा जाना चाहिए जिनके मूल में कोई कथा रही हो। जैसे 'नाच न जाने आँगन टेढ़ा' या 'अंगूर खट्टे होना' कथाओं पर आधारित लोकोक्तियाँ हैं। फिर भी आज हिंदी में लोकोक्ति तथा 'कहावत' शब्द परस्पर समानार्थी शब्दों के रूप में ही प्रचलित हो गए हैं।
लोकोक्ति किसी घटना पर आधारित होती है। इसके प्रयोग में कोई परिवर्तन नहीं होता है। ये भाषा के सौन्दर्य में वृद्धि करती है। लोकोक्ति के पीछे कोई कहानी या घटना होती है। उससे निकली बात बाद में लोगों की जुबान पर जब चल निकलती है, तब 'लोकोक्ति' हो जाती है।
नाक के बाल ने, नाक रगड़कर, नाक कटाने का काम किया है 
नाकों चने चबवाए, घुसेड़ के नाक, न नाक का मान रखा है 
नाक न ऊँची रखें अपनी, दम नाक में हो तो भी नाक दिखा लें
नाक पे मक्खी न बैठन दें, है सवाल ये नाक का, नाक बचा लें
नाक के नीचे अघट न घटे, जो घटे तो जुड़े कुछ नाक बजा लें
नाक नकेल भी डाल सखे हो, न कटे जंजाल तो नाक चढ़ा लें
लोकोक्ति : प्रमुख अभिलक्षण
(1) लोकोक्तियाँ ऐसे कथन या वाक्य हैं जिनके स्वरूप में समय के अंतराल के बाद भी परिवर्तन नहीं होता और न ही लोकोक्ति व्याकरण के नियमों से प्रभावित होती है। अर्थात लिंग, वचन, काल आदि का प्रभाव लोकोक्ति पर नहीं पड़ता। इसके विपरीत मुहावरों की संरचना में परिवर्तन देखे जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 'अपना-सा मुँह लेकर रह जाना' मुहावरे की संरचना लिंग, वचन आदि व्याकरणिक कोटि से प्रभावित होती है; जैसे-
(i) लड़का अपना सा मुँह लेकर रह गया।
(ii) लड़की अपना-सा मुँह लेकर रह गई।
जबकि लोकोक्ति में ऐसा नहीं होता। उदाहरण के लिए 'यह मुँह मसूर की दाल' लोकोक्ति का प्रयोग प्रत्येक स्थिति में यथावत बना रहता है; जैसे-
(iii) है तो चपरासी पर कहता है कि लंबी गाड़ी खरीदूँगा। यह मुँह और मसूर की दाल।

(2) लोकोक्ति एक स्वतः पूर्ण रचना है अतः यह एक पूरे कथन के रूप में सामने आती है। भले ही लोकोक्ति वाक्य संरचना के सभी नियमों को पूरा न करे पर अपने में वह एक पूर्ण उक्ति होती है; जैसे- 'जाको राखे साइयाँ, मारि सके न कोय'।
(3) लोकोक्ति एक संक्षिप्त रचना है। लोकोक्ति अपने में पूर्ण होने के साथ-साथ संक्षिप्त भी होती है। आप लोकोक्ति में से एक शब्द भी इधर-उधर नहीं कर सकते। इसलिए लोकोक्तियों को विद्वानों ने 'गागर में सागर' भरने वाली उक्तियाँ कहा है।
(4) लोकोक्ति सारगर्भित एवं साभिप्राय होती है। इन्हीं गुणों के कारण लोकोक्तियाँ लोक प्रचलित होती हैं।
(5) लोकोक्तियाँ जीवन अनुभवों पर आधारित होती है तथा ये जीवन-अनुभव देश काल की सीमाओं से मुक्त होते हैं। जीवन के जो अनुभव भारतीय समाज में रहने वाले व्यक्ति को होते हैं वे ही अनुभव योरोपीय समाज में रहने वाले व्यक्ति को भी हो सकते हैं। उदाहरण के लिए निम्नलिखित लोकोक्तियों में अनुभूति लगभग समान है-
(i) एक पंथ दो काज- To kill two birds with one stone.
(ii) नया नौ दिन पुराना सौ दिन- Old is gold.

(6) लोकोक्ति का एक और प्रमुख गुण है उनकी सजीवता। इसलिए वे आम आदमी की जुबान पर चढ़ी होती है।
(7) लोकोक्ति जीवन के किसी-न-किसी सत्य को उद्घाटित करती है जिससे समाज का हर व्यक्ति परिचित होता है।
(8) सामाजिक मान्यताओं एवं विश्वासों से जुड़े होने के कारण अधिकांश लोकोक्तियाँ लोकप्रिय होती है।
(9) चुटीलापन भी लोकोक्ति की प्रमुख विशेषता है। उनमें एक पैनापन होता है। इसलिए व्यक्ति अपनी बात की पुष्टि के लिए लोकोक्ति का सहारा लेता है।
मुहावरा और लोकोक्ति में अंतर
मुहावरेलोकोक्तियाँ
(1) मुहावरे वाक्यांश होते हैं, पूर्ण वाक्य नहीं; जैसे- अपना उल्लू सीधा करना, कलम तोड़ना आदि। जब वाक्य में इनका प्रयोग होता तब ये संरचनागत पूर्णता प्राप्त करती है।(1) लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य होती हैं। इनमें कुछ घटाया-बढ़ाया नहीं जा सकता। भाषा में प्रयोग की दृष्टि से विद्यमान रहती है; जैसे- चार दिन की चाँदनी फेर अँधेरी रात।
(2) मुहावरा वाक्य का अंश होता है, इसलिए उनका स्वतंत्र प्रयोग संभव नहीं है; उनका प्रयोग वाक्यों के अंतर्गत ही संभव है।(2) लोकोक्ति एक पूरे वाक्य के रूप में होती है, इसलिए उनका स्वतंत्र प्रयोग संभव है।
(3) मुहावरे शब्दों के लाक्षणिक या व्यंजनात्मक प्रयोग हैं।(3) लोकोक्तियाँ वाक्यों के लाक्षणिक या व्यंजनात्मक प्रयोग हैं।
(4) वाक्य में प्रयुक्त होने के बाद मुहावरों के रूप में लिंग, वचन, काल आदि व्याकरणिक कोटियों के कारण परिवर्तन होता है; जैसे- आँखें पथरा जाना।
प्रयोग- पति का इंतजार करते-करते माला की आँखें पथरा गयीं।
(4) लोकोक्तियों में प्रयोग के बाद में कोई परिवर्तन नहीं होता; जैसे- अधजल गगरी छलकत जाए।
प्रयोग- वह अपनी योग्यता की डींगे मारता रहता है जबकि वह कितना योग्य है सब जानते हैं। उसके लिए तो यही कहावत उपयुक्त है कि 'अधजल गगरी छलकत जाए।
(5) मुहावरों का अंत प्रायः इनफीनीटिव 'ना' युक्त क्रियाओं के साथ होता है; जैसे- हवा हो जाना, होश उड़ जाना, सिर पर चढ़ना, हाथ फैलाना आदि।(5) लोकोक्तियों के लिए यह शर्त जरूरी नहीं है। चूँकि लोकोक्तियाँ स्वतः पूर्ण वाक्य हैं अतः उनका अंत क्रिया के किसी भी रूप से हो सकता है; जैसे- अधजल गगरी छलकत जाए, अंधी पीसे कुत्ता खाए, आ बैल मुझे मार, इस हाथ दे, उस हाथ ले, अकेली मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है।
(6) मुहावरे किसी स्थिति या क्रिया की ओर संकेत करते हैं; जैसे हाथ मलना, मुँह फुलाना?(6) लोकोक्तियाँ जीवन के भोगे हुए यथार्थ को व्यंजित करती हैं; जैसे- न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी, ओस चाटे से प्यास नहीं बुझती, नाच न जाने आँगन टेढ़ा।
(7) मुहावरे किसी क्रिया को पूरा करने का काम करते हैं।(7) लोकोक्ति का प्रयोग किसी कथन के खंडन या मंडन में प्रयुक्त किया जाता है।
(8) मुहावरों से निकलने वाला अर्थ लक्ष्यार्थ होता है जो लक्षणा शक्ति से निकलता है।(8) लोकोक्तियों के अर्थ व्यंजना शक्ति से निकलने के कारण व्यंग्यार्थ के स्तर के होते हैं।
(9) मुहावरे 'तर्क' पर आधारित नहीं होते अतः उनके वाच्यार्थ या मुख्यार्थ को स्वीकार नहीं किया जा सकता;
जैसे- ओखली में सिर देना, घाव पर नमक छिड़कना, छाती पर मूँग दलना।
(9) लोकोक्तियाँ प्रायः तर्कपूर्ण उक्तियाँ होती हैं। कुछ लोकोक्तियाँ तर्कशून्य भी हो सकती हैं; जैसे-
तर्कपूर्ण :
(i) काठ की हाँडी बार-बार नहीं चढ़ती।
(ii) एक हाथ से ताली नहीं बजती।
(iii) आम के आम गुठलियों के दाम।
तर्कशून्य :
(i) छछूंदर के सिर में चमेली का तेल।
(10) मुहावरे अतिशय पूर्ण नहीं होते।(10) लोकोक्तियाँ अतिशयोक्तियाँ बन जाती हैं।
 दोहा यमक मुहावरा
संजीव 'सलिल'
*
घाव हरे हो गये हैं, झरे हरे तरु पात.
शाख-शाख पर कर रहा, मनुज-दनुज आघात..
*
उठ कर से कर चुकाकर, चुका नहीं ईमान.
निर्गुण-सगुण  न मनुज ही, हैं खुद श्री भगवान..
*
चुटकी भर सिंदूर से, जीवन भर का साथ.
लिये हाथ में हाथ हँस, जिएँ उठाकर माथ..
*
सौ तन जैसे शत्रु के, सौतन लाई साथ.
रख दूरी दो हाथ की, करती दो-दो हाथ..
*
टाँग अड़ाकर तोड़ ली, खुद ही अपनी टाँग.
दर्द सहन करते मगर, टाँग न पाये टाँग..
*
कन्याएँ हडताल पर, बैठीं लेकर माँग.
युव आगे आकर भरें, बिन दहेज़ ले माँग..
*
काट नाक के बाल हैं, वे प्रसन्न फिलहाल.
करा नाक के बाल ने, हर दिन नया बवाल..
*
मुहावरे
  • अक्ल का अंधा- मूर्ख व्यक्ति; जिसमें समझ न हो।
  • अक्ल घास चरने जाना- समझ का अभाव होना।
  • अक्ल का दुश्मन- मूर्ख व्यक्ति।
  • अगर-मगर करना- आनाकानी या टालमटोल करना; बहाने बनाना।
  • अपना उल्लू सीधा करना- अपना मतलब निकालना।
  • अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनना- अपनी प्रशंसा स्वयं करना।
  • अपने पैरों पर खड़ा होना- स्वावलंबी होना।
  • आस्तीन का साँप- किसी अपने या निकट व्यक्ति द्वारा धोखा देना, कपटी मित्र।
  • आसमान से बातें करना- बहुत ऊँचा होना या तेज़ गति वाला।
  • आँख का तारा- बहुत प्रिय होना।
  • आँखें खुलना- जागना, वास्तविकता से अवगत होना, भ्रम दूर होना, सचेत होना।
  • आँखें चार होना- प्रेम होना, आमना-सामना होना।
  • आँखों में धूल झोंकना- धोखा देना।
  • अंगार उगलना- अत्यंत क्रुद्ध होकर अपशब्द कहना।
  • अंधे की लाठी- एकमात्र सहारा।
  • उखड़ी-उखड़ी बातें करना- अन्यमनस्क होना या उदासीन बातें करना।
  • उन्नीस-बीस का अंतर होना- बहुत कम अंतर होना।
  • उल्टी गंगा बहाना- विपरीत चलना।
  • उड़ती चिड़िया के पर गिनना- रहस्य की बात दूर से जान लेना।
  • इज़्ज़त ख़ाक में मिलना- परिवारिक प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचना।
  • ईद का चाँद होना- बहुत दिनों बाद दिखाई पड़ना।
  • ईंट से ईंट बजाना- पूरी तरह से नष्ट करना।
  • ईंट का जबाब पत्थर से देना- ज़बरदस्त बदला लेना; करारा जवाब देना।
  • कान भरना- किसी के ख़िलाफ़ किसी के मन में कोई बात बैठाना।
  • कूच करना- जाना; प्रस्थान करना; चले जाना।
  • ख़ून पसीना एक करना- कड़ी मेहनत करना।
  • घोड़े बेचकर सोना- हर ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाना; बिल्कुल निश्चिंत हो जाना; किसी प्रकार की चिन्ता न करना।
  • घी के दिये जलाना- अत्यधिक प्रसन्न होना; खुशियाँ मनाना; प्रसन्नता ज़ाहिर करना।
  • चार चाँद लगाना- किसी सुन्दर वस्तु को और सुन्दर बनाना; किसी कार्यक्रम की शोभा बढ़ाना; किसी को ज़्यादा मान-सम्मान देना।
  • चैन की सांस लेना- काम निपटाकर निश्चिन्त होना; कार्य पूर्ण होने पर शान्ति महसूस करना।
  • चोली-दामन का साथ होना- गहरी मित्रता होना; अत्यधिक घनिष्ठता होना; बहुत मधुर सम्बन्ध होना।
  • चिकना घड़ा होना- बेशर्म होना; किसी बात का प्रभाव न पड़ना; अपमान होने पर भी अपमानित महसूस न करना; किसी की लिहाज़ न करना।
  • चुल्लू भर पानी में डूबना- लज्जित होना; अपमानित होना।
  • छक्के छुड़ाना- बुरी तरह हराना; अपने से बलवान पर विजय प्राप्त करना।
  • छाती पर मूँग दलना- पास रहकर कष्ट देना।
  • जान में जान आना- मुसीबत से निकलने पर निश्चिंत होना।
  • जले/ घाव पर नमक छिड़कना- दुःखी को और अधिक दुःखी करना; किसी का काम खराब होने पर हंसी उड़ाना।
  • दाहिना हाथ होना- बहुत बड़ा सहायक होना।
  • दाँत खट्टे करना- प्रतिद्वंद्विता या लड़ाई में पछाड़ना।
  • दुम हिलाना- दीनतापूर्वक प्रसन्नता प्रकट करना।
  • नील का टीका लगाना- कलंक लगाना, कलंकित करना।
  • सिर ओखली में देना- व्यर्थ ही जान-बूझकर जोख़िम में पड़ना।
  • टोपी पहनाना- बेवकूफ़ बनाना; झाँसा देना।
  • हवा में गाँठ लगाना- बड़े-बड़े दावे करना; असम्भव कार्य को करने का दम भरना।
  • हाथ-खड़े कर देना- असमर्थता जताना; वक्त पर मदद से इन्कार करना।
  • हाथ धोना- गँवा देना।
  • हाथ पाँव मारना- प्रयास करना।
  • पानी देना- सींचना, तर्पण करना।
  • पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर- पास में रहकर ख़तरनाक व्यक्ति से दुश्मनी रखना।
  • पासा पलटना- अच्छा से बुरा या बुरा से अच्छा भाग्य होना; भाग्य का अनुकूल से प्रतिकूल या प्रतिकूल से अनुकूल होना।
  • पीठ दिखाना- कायरता दिखाना, भाग जाना, विमुख होना।
  • पैर पसारना- फैलाना, आराम से लेटना।
  • टोपी उछालना- अपमानित करना।
  • ठगा-सा रह जाना- बहुत छोटा महसूस करना, अपमानित महसूस करना।
लोकोक्तियाँ
  • अक्ल बड़ी या भैंस- शारीरिक शक्ति की अपेक्षा बुद्धि का महत्व अधिक होता है |
  • अक्ल के पीछे लट्ठ लिए फिरना- सदा मूर्खतापूर्ण बातें या काम करते रहना।
  • अधजल गगरी छलकत जाए- थोड़ा होने पर अधिक दिखावा करना।
  • अपना हाथ जगन्नाथ- स्वतंत्र व्यक्ति जिसके काम में कोई दखल न दें ।
  • अपने पांव पर आप कुल्‍हाड़ी मारना- अपना अहित स्वयं करना।
  • अपनी अपनी डफली,अपना अपना राग- विचारो का बेमेल होना|
  • अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत- समय गुज़रने पर पछतावा करने से कोई लाभ नहीं होता।
  • अशर्फ़ियाँ लुटाकर कोयलों पर मोहर लगाना- मूल्यवान वस्तु भले ही जाए, पर तुच्छ चीज़ों को बचाना।
  • आसमान से गिरा खजूर में अटका- एक विपत्ति से निकलकर दूसरी में उलझना |
  • आप भला सो जग भला- स्वयं सही हो तो सारा संसार ठीक लगता है |
  • आगे कुआँ पीछे खाई- हर तरफ परेशानी होना; विपत्ति से बचाव का कोई मार्ग न होना |
  • आगे नाथ न पीछे पगहा- कोई भी जिम्मेदारी न होना; पूर्णत: बंधनरहित होना |
  • आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास- इच्छितकार्य न कर पाने पर कोई अन्य कार्य कर लेना|
  • आटे के साथ घुन भी पिसता है- अपराधी के साथ निरपराधी भी दण्ड पा जाताहै |
  • अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा- जहाँ मुखिया ही मूर्ख हो, वहाँ अन्याय ही होता है।
  • अंधों में काना राजा- मूर्खों में थोड़ा सा ज्ञानी।
  • अंधी पीसे कुत्ता खाये- परिश्रमी व्यक्ति के असावधानी पर अन्य व्यक्ति का उपभोग करना|
  • आम के आम गुठलियों के दाम- दुहरा लाभ होना |
  • आँख का अँधा, नाम नैनसुख- गुण न होने पर भी गुण का दिखावा करना।
  • ओखली मे सिर दिया तो मूसल से क्या डर- कठिन कार्यो में उलझ कर विपत्तियों से क्या घबराना |
  • एक अनार सौ बीमार- समान कम चाहने वाले बहुत ।
  • एक और एक ग्यारह- एकता मे शक्ति होती है |
  • एक पंथ दो काज- एक प्रयत्न से दोहरा लाभ।
  • एक तो चोरी ऊपर से सीनाज़ोरी- गलती करने पर भी उसे स्वीकार न करके विवाद करना|
  • एक हाथ से ताली नही बजती- झगड़ा एक ओर से नही होता |
  • एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ा- अवगुणी में और अवगुणों का आ जाना |
  • एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती- एक स्थान पर दो विचारधारायें नहीं रह सकतीं हैं|
  • उल्टा चोर कोतवाल को डांटे- अपना अपराध स्वीकार करने की बजाय पूछने वाले को दोष देना।
  • ऊँट के मुँह मे ज़ीरा- बड़ी आवश्यकता के लिये कम देना।
  • कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली- दो असमान व्यक्तियों का मेल न होना |
  • कंगाली में आटा गीला- कमी में और नुकसान होना |
  • कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमती ने कुनबा जोड़ा- इधर -उधर से उल्टे सीधे प्रमाण एकत्र कर अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करना |
  • कौवा चला हंस की चाल- अयोग्य व्यक्ति का योग्य व्यक्ति जैसा बनने का प्रयत्न |
  • खोदा पहाड़ निकली चुहिया- बहुत प्रयत्न करने पर कम फल प्राप्त होना |
  • खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे- दूसरे के क्रोध को अनुचित स्थान पर निकालना|
  • घर का भेदी लंका ढावे- आपस की फूट विनाश कर देती है।
  • घर की मुर्गी दाल बराबर- घर की वस्तु का महत्व नहीं होता |
  • घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने- झूठी शान दिखाना |
  • चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए- अत्यधिक कंजूस होना‌।
  • चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात- सुख क्षणिक होता है |
  • चोर की दाढ़ी में तिनका- अपराध बोध से व्यक्ति सहमा-सहमा रहता है; दोषी व्यक्ति का व्यवहार उसकी असलियत उजागर कर देता है।
  • चिराग़ तले अन्धेरा होना- देने वाले का स्वयं वंचित रहना; सबका काम कराने वाले का स्वयं का काम लटका रहना; सुविधा प्रदान करने वाले को स्वयं सुविधा न मिलना।
  • छ्छूंदर के सिर पर चमेली का तेल- अयोग्य व्यक्ति को अच्छी चीज़ देना।
  • छाती पर सांप लोटना- ईर्ष्या होना ।
  • छोटा मुँह बड़ी बात- अपनी योग्यता से बढ़कर बात करना।
  • छक्के छूटना- बुद्धि चकरा जाना।
  • जाके पाँव व फटी बिबाई, सो क्या जाने पीर पराई- जिसने कभी दु:ख न देखा हो वह दूसरेरे के दु:ख को नहीं समझ सकता |
  • जिसकी लाठी उस की भैंस- शक्तिशाली विजयी होता है |
  • जिसकी उतर गई लोई उसका क्या करेगा कोई- निर्लज्ज को किसी की परवाह नहीं होती|
  • झूठ के पांव नहीं होते- झूठ ज़्यादा दिन तक नहीं ठहरता है।
  • ढाक के वही तीन पात- परिणाम कुछ नहीं, बात वहीं की वहीं.
  • डूबते हुए को तिनके का सहारा- घोर संकट मे जरा सी सहायता ही काफी होती है |
  • थोथा चना बाजे घना- ओछा आदमी ज्यादा डींग हाँकता है |
  • दान की बछिया के दाँत नहीं देखे जाते- मुफ्त की वस्तु का अच्छा बुरा नहीं देखा जाता |
  • दुविधा में दोनों गये माया मिली न राम- दुविधाग्रस्त व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नही होता ।
  • दूध का दूध ,पानी का पानी- उचित न्याय ,विवेकपूर्ण न्याय ।
  • धोबी का कुत्ता न घर का न घाट का- अस्थिर व्यक्ति प्रभावहीन होता है |
  • नहले पर दहला- एक से बढ़कर एक।
  • न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी- झगड़े को समूल नष्ट करना |
  • न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी- कार्य न करने हेतु असम्भव शर्ते रखना |
  • नाच न जाने आँगन टेढ़ा- खुद न जानने पर बहाने बनाना |
  • नौ सौ चूहे खाय बिल्ली हज को चली ढोंगी व्यक्ति- जीवन भर पाप करने के बाद बुढ़ापे मे धर्मात्मा होने का ढोंग करना |
  • पगड़ी उछालना- अपमानित करना|
  • पढ़े फारसी बेचे तेल, यह देखे कुदरत का खेल- भाग्यवश योग्य व्यक्ति द्वारा तुच्छ कार्य करने के लिये विवश होना |
  • बगल में छोरा, शहर में ढिंढोरा- वाँछित वस्तु की प्राप्ति के लिये अपने आस -पास नजर न डालना|
  • बड़े मियाँ सो बड़े मियाँ, छोटे मियाँ सुभानअल्लाह- छोटे का बड़े से भी अधिक चालाक होना |
  • बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद- किसी के गुणों को न जान कर उसके महत्व को न समझ सकना |
  • बिन माँगे मोती मिले,माँगे मिले न भीख- माँगने पर कुछ नहीं मिलता है |
  • भागते चोर/भूत के लँगोटी ही सही- कुछ न मिलने पर जो भी मिला वही अच्छा |
  • भैंस के आगे बीन बजाना- मूर्ख के सामने ज्ञान की बातें करना व्यर्थ है|
  • मान न मान मैं तेरा मेहमान- व्यर्थ मे गले पड़ना |
  • मुख मे राम बगल में छुरी- ऊपर से भला बनकर धोखा देना |
  • ये मुंह और मसूर की दाल- अपनी औक़ात से बाहर की बात होना|
  • सौ सुनार की एक लुहार की- सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा बुद्धिमान व्यक्तिकम प्रयत्न मे लाभ पा लेता है ।
  • हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या- प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती|
  • हाथ पसारना/फैलाना- किसी से विवशतापूर्ण माँगना।
  • हाथ –पाँव फूल जाना- डर से घबराना।
  • होनहार बिरवान के होत चीकने पात- प्रतिभा बचपन से दिखाई देती है|