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मंगलवार, 24 सितंबर 2013

short story: matraa kaa kamal -s.n.sharma

रोचक कथा:
मात्रा का कमाल 
एस. एन. शर्मा 'कमल' 
*
राजा भोज के दरबार में कवि-रत्नों में कालिदास ,दंडी, शतंजय,माघ, आदि थे । इन सब में कभी तीखी नोंक-झोंक हो  जाती थी । ऐसी  ही एक नोंक-झोक कवि कालिदास  और शतंजय के बीच हुई जो शातन्जय को इतनी नागवार गुज़री  की वे दरबार ही छोड़ गए । कई दिन बाद उन्हें तंगी में मुद्रा की  आवश्यकता हुई । राजा भोज के दरबार का नियम था की जो कविता लिख कर लाता उसे पांच मुद्राएँ पुरस्कार में मिलतीं । अस्तु शातन्जय ने  एक श्लोक ( कविता ) लिख कर अपने शिष्य के  हाथ भेज दिया  जो इस प्रकार था  -

                      अपशब्द शतं माघे,  कविर्दंडी शत त्रयम                       कालिदासो न गन्यन्ते , कविरेको शतन्जयः           ( माघ की कविता में एक सौ अशुद्धियाँ होती हैं ,कवि दण्डी की कविता में तीन सौ और कालिदास की कविता में तो इतनी अशुद्धियाँ होती हैं की उनकी गिनती नहीं की जा सकती , एकमात्र कवि तो शतन्जय है )            संयोग से दरबार के द्वार पर कालिदास की नजर  उस शिष्य  पर पड़ गयी जिसे वे जानते थे । पास आकर वे शतन्जय जी  का हालचाल पूछने लगे । बात खुली कि वह शतन्जय  की कविता लेकर पुरस्कार हेतु आये हैं । उत्सुकता वश वे शिष्य से कागज़ ले कर कविता पढ़ने लगे । पढ़ कर बोले - बड़ी सुन्दर कविता है पर गुरू जी एक मात्रा लगाना भूल गए इसे शुद्ध कर लो । शिष्य ने कहा आप  ही कर दीजिये ॥  बस कालिदास ने अपशब्द के स्थान पर आपशब्द, अ में बड़ी मात्रा लगा कर बना दिया । अब अर्थ बदल गए -   आपशब्द ( जल के पर्यायवाची ) माघ पंडित सौ  और  दण्डी कवि तीन सौ जानते  हैं पर कालिदास इतने जानते  हैं  कि गणना नहीं जबकि कवि शतंजय केवल  एक )      जब कविता शिष्य ने  दरबार में राजा भोज को  दी तो पढ़ कर राजा भोज कालिदास की ओर देख मुस्कुराए उन्हें पता था की  कालिदास के कारण ही शतन्जय रुष्ट हो कर गए  हैं सो उन्हें साजिश समझते  देर ना लगी ।
उन्होंने पांच मुद्राएँ देकर  विदा करते  हुए कविता वाला वह कागज़ भी लौटाते हुए कहा की गुरू जी को मेरा प्रणाम कहना और सन्देश देना कि उनके बिना दरबार सूना है अस्तु वे पधार कर हमें अनुग्रहीत  करें ।
     अब वह कागज़ पढ़ कर शतन्जय पर जो बीती आप कल्पना  कर सकते है  ॥ मात्रा  के सम्बन्ध में इतनी कथा ही पर्याप्त है ।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

bal kavita: gudiyon ka tyohaar - s.n.sharma 'kamal'

गुड़ियों का त्यौहार और नाग पंचमी पर एक बाल - गीत



कमल
*
(गुड़िया का त्यौहार उत्तरप्रदेश के एक बड़े हिस्से में नागपंचमी के दिन मनाया जाता है। नागपंचमी के एक-दो दिन पहले से ही रंगीन डंडियां बिकनी शुरू हो जाती हैं। ये डंडियां लड़कों के लिए होती हैं। नाग पंचमी के दिन कपड़े की रंग-बिरंगी गुड़ियां बनाई जाती हैं। शायद उनमें उबले हुए चने इत्यादि भी भरे जाते हैं। शाम के वक्त सभी घरों से लड़कियां रंगीत डलियों या तश्तरियों में रंगीन कवर से अपनी-अपनी गुड़िया ढंककर मुहल्ले के चौराहे पर पहुंचती हैं। उनके साथ उनके भाई हाथों में पहले सी खरीदी डंडियां लेकर जाते है। सारी लड़कियों के इकट्ठा होने के बाद लड़कियां गोल घेरा बनाकर अपनी-अपनी गुड़िया घेरे के बीच में फेंक देती हैं । गुड़ियों के जमीन पर गिरते ही लड़के डंडियों से गुड़िया पीटने लगते हैं। इस अवसर पर चूंकि मुहल्ले के सारे बच्चे इकट्ठा होते हैं, इसलिए चाट, मिठाई और गुब्बारे वाले भी जमा हो जाते हैं। इसे कहते हैं नागपंचमी का मेला।)
*
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देर रात सोई थी जा कर
गुड्डे गुड़ियों को सजा धजा कर
सुबह हुई तो देखा आ कर
गुद्दे गुडियाँ नहीं वहाँ पर
कौन ले गया कहाँ गईं  वे
ढूँ ढ़ ढूंढ हारी मैं थक कर
चुन्नूमुन्नू जाग गए थे
तब उनसे ही पूछा जा कर
चुन्नू बोला तब हंस कर
गयी घूमने होंगी बाहर
समझ गई उसकी शैतानी
 गुस्सा आई बहुत  उसी   पर
मैंने भी  मन ही  मन उसको
सबक सिखा  देने की ठानी       
ऐसा मजा  चखाऊँगी की
उसको याद आजाये नानी
 उसका प्यारा एक खिलोना
ढोल बजाता खट ख़ट बौना
मैंने  उसे छुपा कर बेड   में
रख ऊपर ढक दिया बिछौना
याद  उसे  जब  आई उसकी  
ढूंढा  घर का कोना कोना
नहीं मिला जब उसे कहीं भी
शुरू कर दिया  रोना धोना
दीदी तुमने देखा क्या मेरा
ढोल बजाता हुआ खिलोना
मैं बोली बाहर चला गया हो
मेरी गुड़ियां लाने बौना
पैर  कर बोला दीदी देदो
गुड़ियां ला देता हूँ
आज ब्याह करना गुडिया का
गुड्डा खूब  सजा देता  हूँ 
फिर तो हम सबने मिल कर
गुड्डा गुडिया ब्याह रचाया
उसके बौने गैजेट  से ही
बहुत  देर बाजा बजवाया 
आज नाग-पंचमी भी है
बाहर एक सपेरा आया
बीन बजा कर नाग और
 नागिन का दर्शन  करवाया

पूरी कालोनी ने नागों पर
अपनी श्रद्धा भर भेंट चढ़ाया
हलवा पूरी और सिवैंये
खाया सबने त्यौहार मनाया
श्रावण शुक्ल पंचमी होती
गुड़ियों  नागों का त्यौहार
बच्चो सदा याद रखना तुम
इसे मनाना है हर बार
=================
sn Sharma <ahutee@gmail.com>
 

मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

hindi story: doosara faisla - s.n.sharma 'kamal'

 कहानी :

                                                  ' दूसरा  फैसला '

एस. एन. शर्मा 'कमल'
*
         रायबरेली शहर से  सटे गाँव के एक साधारण परिवार में ममता  तीन बहनों में सबसे बड़ी थी । अपनी प्रतिभा व मेहनत के बल पर उसने  इसी वर्ष बी० ए० की परीक्षा पास की थी । पास के ही एक  मकान में उन्हीं दिनों एक युवा मास्टर किराये का एक कमरा ले कर रहने लगा था । धीरे-धीरे उसका  आना-जाना  ममता के  परिवार में होने लगा। कुछ समय वह  उसकी बहनों को पढ़ाने के बहाने वहाँ देर तक ठहरने लगा  और  ममता   से वार्तालाप में रूचि लेने लगा ।  उसने  परिवार की स्थिति भाँप ममता  को स्कूल में अध्यापिका की नौकरी लगवा देने का आश्वासन भी दे डाला। समीपता बढ़ने से मास्टर नवीन और ममता  के बीच अंतरंगता  पनपी और प्यार पेंगें मारने लगा।

        माँ-बाप को भनक लगी  तो उन्होंने नवीन का आना-जाना बंद  करा दिया पर इश्क का भूत जब सवार होता है तो सारा  विवेक और रोक-टोक धरी रह जाती है । पिता ने टंटा ख़त्म करने की  गरज से ममता की शादी पक्की कर  दी । आग में  घी पड़ा और एक दिन चुपके से दोनों भाग निकले । अपनी सीमित हैसियत के कारण उन  लोगों ने पुलिस में रिपोर्ट नहीं की व व्यक्तिगत स्तर पर थोड़ी बहुत खोजबीन के बाद मन मार कर  चुप बैठ गए । 

        ममता और नवीन दोनों इलाहाबाद जा कर रहने लगे । ममता नवीन पर शादी का जोर डालती रही  पर वह बहाने बनाता हुआ टालता रहा । नवीन ने कही अध्यापक की नौकरी करली । इसी   प्रकार लगभग छह  माह बीत गए। एक दिन जब  ममता  रसोई निपटा कर आराम करने बैठी ही थी कि  एक महिला साधारण सी मैली धोती पहने सर पर पल्ला डाले वहाँ आयी ।  उसने मनी  आर्डर फ़ार्म का एक तुड़ा मुडा  टुकड़ा ममता  की ओर बढ़ाते  हुए  पूछा- 

 ' ये यहाँ रहते हैं क्या ? ' 

        ममता ने पढ़ा तो पाया कि वह नवीन द्वारा चार-पांच माह पहले भेजे गए दो सौ रुपए के मनी  आर्डर की पावती का टुकड़ा था । ममता को कुछ खुटका हुआ और उत्सुकता भी पूछा-  'आप कौन हैं ?'

        वह कुछ हिचकते हुए बोली-  'ये मेरे पति हैं। शादी को एक साल हो गया।  वे शहर नौकरी के लिये गये तो अब  तक नहीं लौटे । कुछ महीने पहले यह पैसा भेजा था। अब माँ बहुत बीमार है  इसलिए उन्हें इस पते के बल पर ढूंढते यहाँ  आई हूँ ।'

        ममता के सामने सारा रहस्य प्रकट हो गया और उसके पैर तले से जमीन खिसक गयी। औरत की प्रश्नसूचक निगाहें ममता  पर टिकी हुई थीं । किसी प्रकार संयत हो कर ममता ने कहा-

        'हाँ बहन! वे यहीं  रहते हैं । आप बैठिये कहकर वह रसोई में गई और दो गिलास पानी पिया। फिर अगन्तुक के लिये एक प्लेट  में कुछ खुरमे और पानी लाकर बोली-

        'आप जलपान करें वे स्कूल से लौटते ही होंगे । '

        वह औरत बड़े पशोपेश में थी कुछ साफ़ साफ़ पूछने की हिम्मत नहीं हुई । दोनों के बीच अजीब सा सन्नाटा पसर गया । कुछ  देर बाद  नवीन ने दरवाजे से घुसते ही जो देखा उससे सन्न रह गया । पारा चढ़ गया बोला-

        'तुम यहाँ क्यों आई ?'

        वह  बोली- 'माँ बहुत बीमार हैं सो ढूंढती हुई यहाँ पहुँची हूँ । '

        नवीन ने  ममता की ओर  देखा जो एक ओर  चुप बैठी थी । कुछ बोलते  न  बना । वह  पत्नी को  कुछ उलटा-सीधा कहने लगा तभी  ममता  फट पड़ी- 
   
        'तुम इतने धूर्त होगे मैंने कभी कल्पना न की थी। अब चुपचाप पत्नी  के  साथ चले जाओ। '

        नवीन गुस्से में और जोर से बडबडाने लगा । ऊपर शोर सुन मकान मालकिन दौड़ी आयी। माजरा समझने के बाद उसने भी नवीन को खरी-खोटी सुनाई और कह दिया  तुम लोग अभी मकान खाली कर दो।नवीन को  वहाँ  से जाने में ही भलाई नजर आयी। ममता ने उसके साथ जाने से साफ़ इनकार कर दिया और वह पत्नी के साथ चुपचाप वहाँ से खिसक लिया । 

        नवीन के जाते ही ममता  फूट फूट कर रोने लगी । मकान मालकिन को दया आयी । वह उसे नीचे अपने कमरे में ले गई। वहाँ ममता ने रो-रो कर आप बीती उसे बता दी। मकान मालकिन ने उसे  समझाया कि वह वापस घर लौट जाए। ममता ने शंका जाहिर की कि घर में उसे शायद ही पनाह मिले। मालकिन ने आश्वस्त किया कि फिर मेरे पास आना कुछ जुगाड़ करूंगी।

        दूसरे  दिन ममता गाँव पहुँची तो पिता देखते ही उस पर बरस पड़े- 'अरी बेशरम! अब  यहाँ क्या मुंह ले कर लौटी है? कहीं डूब मरती । सारी बिरादरी और मोहल्ले में थुक्का-फजीहत करा चुकी यह न सोचा की दो बहनें और हैं उनका क्या होगा?'

       माँ ने कुछ बीच-बचाव की कोशिश की तो पिता ने साफ़ कह दिया- 'यह यहाँ नहीं रह सकती कहीं  भी  जाए, कहीं डूब मरे जा कर ।'

        ममता उलटे पाँव लौटपड़ी कि  अब वह जाकर संगम नगरी में डूब कर प्राण देगी।  रास्ते भर सोचती रही फिर उसने तय किया कि मरने से पहले एक बार मकान मालकिन से मिल ले जैसा  उसने कहा था। विचारों में उलझी वह मकान मालकिन  के पास पहुँची  और घर पर मिला व्यवहार बताया। मकान मालकिन सदय थी,  उसने  कहा- 'तुम यहाँ नहा धो लो भोजन करो,  देखो मैं तब तक कुछ जुगाड़  करती हूँ ।'

        मकान मालकिन ने अपनी पुरानी  सहेली इलाहाबाद की प्रसिद्ध अधिवक्ता करुणा सिंह को फोन मिलाकर उन्हें  ममता की आपबीती सुनाई । करुणा जी ने उन्हें शाम को ममता को साथ ला कर मिलने का समय दिया ।   

        निश्चित समय पर दोनों जा कर करुणा जी से मिले । सारा वृत्तांत सुन कर  करुणा जी ने कहा 'आप चाहें तो मुकदमा दायर कर अपने गुजारे के लिए भत्ता माँग सकती हैं।' ममता ने मुकदमा दायर कारने से इनकार कर दिया और अनुरोध किया कि  अगर उसके लिए कोई छोटी-मोटी नौकरी का प्रबंध हो सके तो भला । करुणा भांप चुकी थी  की लड़की शांत सरल और ईमानदार है।   उसने प्रस्ताव किया -

        'देखो बेटी मैं  यहाँ बिलकुल अकेली रहती हूँ।  पति का स्वर्गवास हुए पांच साल हो  गये, निःसंतान हूँ । तुम चाहो तो मेरे साथ रह कर घर के काम में हाथ बंटा सकती हो।' इस बीच हम तुम्हारी नौकरी के लिए भी  प्रयास करेंगे  । 

        ममता को यह सुझाव पसंद आया और उसने तुरंत स्वीकार कर लिया । तब से ममता वहाँ रहकर  अधिवक्ता के साथ काम में हाथ बँटाती उनकी कानून की  पुस्तकें  केस-फाइलें करीने से रखती और समय मिलता तो  उन्हें पढ़ती तथा कभी-कभी  तो करुणा जी से उन पर विचार  करती। करुणा ने यह देखा तो उन्हें लगा इसे ला-कालेज में भर्ती  करा कर वकील क्यों न  बनाया  जाए? बी० ए० तो  वह थी  ही सो ला-कालेज  में दाखिला  हो गया और ममता तन्मयता से पढ़ाई में जुट गई । उसने आनर्स के साथ परीक्षा पास की । अब वह करुणा जी के साथ वकालत भी करने लगी । शीघ्र ही उसकी प्रतिभा की ख्याति फैलने लगी और अधिवक्ता समुदाय में सबसे  योग्य सिद्धांत की पक्की और कानूनविद समझी  जाने लगी । 

           अधिवक्ता बने पाँच साल से अधिक समय बीत गया। उसकी प्रखर बुद्धि और क़ानून पर पकड़ से प्रभावित होकर सरकार  ने  उसे इलाहाबाद उच्च न्यालय का जज  बना दिया । करुणा जी को फिर भी वह अपना गुरु और आश्रयदाता का मान  देती रही और जब-तब पुरानी मकान मालकिन से भी मिलने जाती। सभी उसके स्वभाव से गदगद थे। समय मजे में गुजरने लगा। 

        एक दिन अदालत में उसके सामने एक मुकदमा पेश  हुआ जिसमें अपप्राधी को बलात्कार और नृशंस ह्त्या के अपराध में लोअर-कोर्ट से फांसी की सजा मिल चुकी थी। याचिका उच्च न्यायालय में पुनर्विचार हेतु प्रस्तुत हुई थी। अपराधी को कटघरे में ला खडा किया गया। यह क्या  यह तो वही नवीन-मास्टर था। फ़ाइल में नाम देखा और अवाक रह गई। नवीन की उस पर नजर  पडी तो लज्जा से गड़ गया और आँखें न मिला सका। सर झुकाए खड़ा रहा। कार्यवाही चलती रही। अगली पेशियाँ पड़ती रहीं।दोनों ओर के वकीलों की बहस हुई। सबूत पेश हुए। अंतिम पेशी पर बहस समाप्त हुई। जज ने अगले दो दिन बाद फैसला सुनाने  की तारीख दे दी ।  
  
        निवास पर पहुँचते ही उसे मकान मालकिन का फोन मिला कि वे उससे कुछ जरूरी वार्तालाप  करना चाहती हैं । वह तुरन्त  जाकर उनसे मिली। वहाँ नवीन की पत्नी और उसकी दो लड़कियाँ एक पांच साल, एक सात साल की पहले  से मौजूद थीं। उसने रोते-गिडगिडाते हुए  उससे दया की भीख मांगनी शुरू कर दी। मकान मालकिन ने भी सिफारिश की कि दो बच्चियों और परिवार की हालत देख कर नवीन पर रहम किया जाए। मालकिन ने बताया की उसने करुणा से भी फोन पर बात की पर उसने यह कह कर बीच में पड़ने से इनकार कर दिया कि मुकदमें पर वह किसी की  सिफारिश नहीं  सुनेगी। अस्तु, उसने सीधे ममता से ही बात करने का निर्णय लिया।  
    
        ममता बोली- 'बहन! न्याय की देवी की आँख पर पट्टी बँधी है। वहाँ मानवीय  संवेदना का कोई स्थान नहीं। परसों  फैसला सुनाने के  बाद  आप से फिर मिलूंगी। बात वहीं ख़त्म हो गयी। उन लोगों को फिर भी भरोसा था कि शायद कुछ रहम मिले। 

        नियत दिन जज ने  फैसला सुनाया कि सारे हालात, गवाहों के बयान  और  पोस्टमार्टम  रिपोर्ट के आधार पर अपराध असंदिग्द्ध रूप से सिद्ध  होता है । अतः, मुलजिम की फांसी की सजा का फैसला यह अदालत बरकरार रखते हुए दायर  याचिका खारिज करती है । 

        वायदे के अनुसार  शाम जब वह मकान मालकिन से मिली तो वे और वहाँ मौजूद नवीन का परिवार  उदास और बेहद दुखी था। ममता की आँख में भी  आंसू थे बोली-

        'बहन न्याय की कुर्सी पर बैठ कर पक्षपात करने और न्याय को धोखा देना मेरे लिये महापाप है। अस्तु, वहाँ क़ानून ने अपना फैसला सुनाया। मानवीय संवेदना के आधार पर मैं यहाँ अपना दूसरा फैसला लेकर आयी हूँ कि नवीन की पत्नी और उसकी दोनों पुत्रियों के पालन-पोषण का  भार  आज से मुझ पर होगा।'

        पत्नी और बच्चियों ने रोते-रोते ममता के पैर पकड़ उन पर मस्तक धर दिया । 

          
                             --------------------------०--------------------------

बुधवार, 8 अगस्त 2012

चित्र पर कविता: 4 - एस. एन. शर्मा 'कमल' , संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: 4 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ चित्र में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं. 

चित्र और कविता की प्रथम कड़ी में शेर-शेरनी संवाद, कड़ी २ में,
कड़ी ३ में दिल -दौलत,  तराजू  पर आपकी कलम के जौहर देखने के बाद सबके समक्ष प्रस्तुत है  कड़ी 4  का चित्र. 

इस प्राकृतिक छटा में डूबकर अपने मनोभावों को शब्दों के पंख लगाइए और रचना-पाखी को हम तक पहुंचाइये: 




- एस. एन. शर्मा 'कमल'

चित्र का  भाव और सन्देश  / तृप्त होते नयनों से देख 
 कल्पना में उभरे जो बिम्ब / उसी का प्रस्तुत रचना-वेष

*

      प्रकृति का यह अदभुत सौन्दर्य
     निरख कर लोचन हैं  स्तब्ध
     ताकते विस्मय से यह दृश्य
     हो रही गिरा मूक  निःशब्द
            *
     कि दिनकर के पड़ते प्रतिबिम्ब
     हुई स्फटिक शिला द्युतिमान
     खुले वातायन विटपों बीच
     कर रहे  हरित-द्वीप द्युतिवान
               *
     भरे अंतस में रति का ज्वार
     अघाती नहीं लहर सुकुमार
     पसरती तट पर बारम्बार
     करे सिकता-कण से अभिसार
            *
      प्रकृति का मदिर मनोहर रूप
      बना यह छाया-चित्र अनूप 
      सलिल पर नर्तन करती धूप 
      विधाता की यह कला अचूक
               *
      द्वीप का नैसर्गिक सिंगार
      हरीतिमा का नव वन्य-विहार
      शस्य श्यामल भू का विस्तार
      अलौकिक छवि का पारावार
              *
       सलिल का ऐसा रूप-निखार
       चित्र गतिमान हुआ साकार
       कला का यह अनुपम उपहार
       दे गया मन को तोष  अपार
               *
       रम्य-दृश्यावलि के इस पार
       मुग्ध कवि ऐसी छटा निहार
       प्रकृति में प्राणों का संचार
       नयन से घट में रहा उतार !
       
       **** 

संजीव 'सलिल'





शिशु सूरज की अविकल किरणें
बरस रही हैं जल-थल पर.
सुरपति-धनपति को बेकल कर-
सकल सृष्टि स्वर्णाभित कर..

वृक्षों की डालों में छिपकर
आँखमिचौली रवि खेले.
छिपा नीर में बिम्ब दूसरा,
मन हो बाँहों में ले-लें..

हाथ लगे सूरज हट जाये,
चेहरा अपना आये नजर.
नीर कहे: 'निर्मल रहने दे
मुझ बिन तेरी नहीं गुजर.'

दूब कहे: 'मैं नन्हीं, लेकिन,
माटी मैया की रक्षक.
डूब बाढ़ में मौन बचाती,
खोद रहा मानव भक्षक.

शाखाएँ हिल-मिलकर रहतीं,
झगड़ा कभी न कोई करे.
हक न एक का दूजा छीने,
यह न डराए, वह न डरे..

ताली बजा-बजाकर पत्ते,
करें पवन का अभिनन्दन.
स्वागत करते हर मौसम का-
आओ घूमो नंदन वन..

जंगल में हम देख न पाते,
जंगलीपन है शहरों में.
सुने न प्रकृति का क्रंदन
मानव की गिनती बहरों में..

प्रकृति पुत्र पोषण-सुख भूले,
शोषण कर दुःख पाल रहे.
जला रहे सुख, चैन, अमन को
दिया न स्नेहिल बाल रहे..

बिम्ब और प्रतिबिम्ब गले मिल,
कहते दूरी दूर करो.
लहर-लहर सम सँग रहो सब,
मत घमंड में चूर रहो..

तने रहें गर तने सरीखे,
पत्ते-डाल थाम दें छाँव.
वहम अहं का पाल लड़े तो-
उजड़ जायेंगे पल में गाँव..

*****************************
 

मंगलवार, 24 जुलाई 2012

एक हास्य रचना: पकौड़े एस. एन. शर्मा 'कमल'

एक हास्य रचना:

पकौड़े



 एस. एन. शर्मा 'कमल'
 *
 गंगाराम गए ससुराल
आवभगत से हुए निहाल
बन कर आए गरम पकौडे
खाए छक कर एक न छोडे
खा कर चहके गंगाराम
सासू जी इसका क्या नाम
अच्छे लगे और लो थोड़े
लल्ला इसका नाम पकौडे
गदगद लौटे गंगाराम
घर पहुंचे तो भूले नाम
हुए भुलक्कड़पन से बोर
पत्नी पर फिर डाला जोर
भागवान तू वही बाना दे
जो खाए ससुराल खिला दे
बेचारी कुछ समझ न पाई
फिर बोली जिद से खिसियाई
अरे पहेली नहीं बुझाओ
जो खाया सो नाम बताओ
गंगाराम को आया गुस्सा
खीँच धर दिया नाक पे मुक्का
गुस्सा उतरा लगे मनाने
तब पत्नी ने मारे ताने
ऐसी भी मेरी क्या गलती
तुमने नाक पकौड़ा कर दी
बोला अरे यही खाया था
पहले क्यों नहीं बताया था
सीधे से गर बना खिलाती
नाक पकौड़ा क्यों हो जाती   ?

***