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गुरुवार, 10 अप्रैल 2025

अप्रैल १०, रामकिंकर, घनाक्षरी, कवित्त, व्यंग्य गीत, नवगीत,

सलिल सृजन अप्रैल १०
.
पूर्णिका 
० 
सुधियों के वातायन में आओ 
साँसों पर छाया बनकर छाओ 
सन्नाटा असहनीय होता है 
अपनों में अपनी छवि दर्शाओ  
मोह-बंध तोड़ जा चुके हो तो 
यादों से भी जाकर दिखलाओ 
खोकर भी तुम्हें नहीं खोया है 
आओ यह सत्य देख भी जाओ 
जीवन को जीवन सा जीना है 
थाती मन भाती फिर सम्हलाओ 
माली ले  पौध जो जहाँ रोपे 
जड़ें वहीं जमा खूब हरियाओ 
पहचाने पथ हैं, छोटी दुनिया 
कहीं तो, कभी तो आ टकराओ 
.  
हममें तुम, तुममें हम रह पाएँ 
जैसे वह सीख सीख सिखलाओ 
खेल रहा जो निश-दिन हम सबसे 
उसको भी सँग खेलने लाओ 
संग-साथ जो अपने साथी हैं 
उनमें हम-तुम, तुम-हमको पाओ 
रुसवा क्यों करें तुम्हें मातम कर? 
यादों का स्नेह-सलिल बरसाओ  
.
१०.४.२०२५   
•••
स्मरण युगतुलसी
किंकर किंकर का सकूँ बन,
भज सकूँ प्रभु राम निश-दिन,
समर्पित कर सकूँ तन मन,
व्यर्थ जीवन गुरु कृपा बिन।
बसे मन में छवि तुम्हारी,
आँख मूँदूँ करूँ दर्शन,
सीख मन ने जो बिसारी,
सिखा दो कर कृपा वर्षण।
लाल हनुमत से मिला दो,
छवि सकूँ लख राम-सिय की,
भक्ति शतदल शत खिला दो,
चाह है प्रभु-पद विलय की।
मिटा दो भव भीति हे प्रभु!
बना दो शुभ रीति से प्रभु!!
१०.४.२०२४
•••
सॉनेट
अलविदा
अलविदा भी कह न पाया
आस थी तुम जय वरोगे
व्याधि को बौना करोगे
किंतु खुद को ठगा पाया।
ईश ने तुमको बुलाया
गए हो क्या खुश रहोगे?
क्या हमें बिसरा सकोगे?
जा किया हमको पराया।
छवि तुम्हारी झूलती है,
आँख होती बंद ज्यों ही
लगे बाँहों में कसोगे।
याद मन को हूलती है,
रह गई जो बात बाकी
ख्वाब में आ कब कहोगे?
१०.४.२०२४
(आज दिवंगत भाई सुशील वर्मा जी भोपाल को समर्पित)
•••
मुक्तिका
अरे! चल हट।
कहा मत नट।।
नहीं कुछ दम
परे चल झट।
फरेब न कर
न भूल, न रट।
शऊर न तज
न दूर; न सट।
न नाव; न जल
नहीं नद-तट।
न हार; न जय
नहीं चित-पट।
न भाग; ठहर
जरा रुक-डट
१०-४-२०२२
•••
मुक्तिका
*
श्रीधर वंदन
अक्षत चंदन
हों शत वर्षी
लें अभिनंदन
छंद गीत ही
हैं नंदनवन
हे रस-लयपति
लो अभिनंदन
कोरोना को
धुन दो दन दन
***
हिंदी गज़ल
छंद : हरिगीतिका
मापनी : ११२१२
बह्र : मुतफाइलुं
*
जब भी मिलो
खुश हो खिलो
हम भी चलें
तुम भी चलो
जब भोर हो
उगती चलो
जब साँझ हो
ढलती चलो
छवि नैन में
छिपती चलो
मत मौन हो
कहती चलो
१०-४-२०२०
***
दोहा सलिला
आओ यदि रघुवीर
*
गले न मिलना भरत से, आओ यदि रघुवीर
धर लेगी योगी पुलिस, मिले जेल में पीर
कोरोना कलिकाल में, प्रबल- करें वनवास
कुटिया में सिय सँग रहें, ले अधरों पर हास
शूर्पणखा की काटकर, नाक धोइए हाथ
सोशल डिस्टेंसिंग रखें, तीर मारकर नाथ
भरत न आएँ अवध में, रहिए नंदीग्राम
सेनेटाइज शत्रुघन, करें- न विधि हो वाम
कैकई क्वारंटाइनी, कितने करतीं लेख
रातों जगें सुमंत्र खुद, रहे व्यवस्था देख
कोसल्या चाहें कुसल, पूज सुमित्रा साथ
मना रहीं कुलदेव को, कर जोड़े नत माथ
देवि उर्मिला मांडवी, पढ़ा रहीं हैं पाठ
साफ-सफाई सब रखें, खास उम्र यदि साठ
श्रुतिकीरति जी देखतीं, परिचर्या हो ठीक
अवधपुरी में सुदृढ़ हो, अनुशासन की लीक
तट के वट नीचे डटे, केवट देखें राह
हर तब्लीगी पुलिस को, सौंप पा रहे वाह
मिला घूमता जो पिटा, सुनी नहीं फरियाद
सख्ती से आदेश निज, मनवा रहे निषाद
निकट न आते, दूर रह वानर तोड़ें फ्रूट
राजाज्ञा सुग्रीव की, मिलकर करो न लूट
रात-रात भर जागकर, करें सुषेण इलाज
कोरोना से विभीषण, ग्रस्त विपद में ताज
भक्त न प्रभु के निकट हों, रोकें खुद हनुमान
मास्क लगाए नाक पर, बैठे दयानिधान
कौन जानकी जान की, कहो करे परवाह?
लव-कुश विश्वामित्र ऋषि, करते फ़िक्र अथाह
वध न अवध में हो सके, कोरोना यह मान
घुसा मगर आदित्य ने, सुखा निकाली जान
१०-४-२०२०
***
छंद शाला
घनाक्षरी या कवित्त
सघन संगुफन भाव का, अक्षर अक्षर व्याप्त.
मन को छूते चतुष्पद, रच घनाक्षरी आप्त..
अष्ट अक्षरी त्रै चरण, चौथे अक्षर सात .
लघु-गुरु मात्रा से करें, अंत हमेशा भ्रात..
*
चतुष्पदी मुक्तक छंद घनाक्षरी या छप्पय के पदों में वर्ण-संख्या निश्चित होती हैं किंतु छंद के पद वर्ण-क्रम या मात्रा-गणना से मुक्त होते हैं। किसी अन्य वर्णिक छंद की तरह इसके गण (वर्णों का नियत समुच्चय) व्यवस्थित नहीं होते अर्थात पदों में गणों की आवृत्तियाँ नहीं होतीं।वर्ण-क्रम मुक्तता घनाक्षरी छंद का वैशिष्ट्य है। वाचन में प्रवाहभंग या लयभंग से बचने के लिये सम कलों वाले शब्दों के बाद सम कल के शब्द तथा विषम कलों के शब्द के बाद विषम कलों के शब्द समायोजित किये जाते हैं। वर्ण-गणना में व्यंजन या व्यंजन के साथ संयुक्त स्वर अर्थात संयुक्ताक्षर एक वर्ण माना जाता है।
हिंदी के मुक्तक छंदों में घनाक्षरी सर्वाधिक लोकप्रिय, सरस और प्रभावी छंदों में से एक है। घनाक्षरी की पंक्तियों में वर्ण-संख्या निश्चित (३१, ३२, या ३३) होती है किन्तु मात्रा गणना नहीं की जाती। अतः, घनाक्षरी की पंक्तियाँ समान वर्णिक किन्तु विविध मात्रिक पदभार की होती हैं जिन्हें पढ़ते समय कभी लघु का दीर्घवत् उच्चारण और कभी दीर्घ का लघुवत् उच्चारण करना पड़ सकता है। इससे घनाक्षरी में लालित्य और बाधा दोनों हो सकती हैं। वर्णिक छंदों में गण नियम प्रभावी नहीं होते। इसलिए घनाक्षरीकार को लय और शब्द-प्रवाह के प्रति अधिक सजग होना होता है। समान पदभार के शब्द, समान उच्चार के शब्द, आनुप्रासिक शब्द आदि के प्रयोग से घनाक्षरी का लावण्य निखरता है। वर्ण गणना करते समय लघु वर्ण, दीर्घ वर्ण तथा संयुक्ताक्षरों को एक ही गिना जाता है अर्थात अर्ध ध्वनि की गणना नहीं की जाती है।
१ वर्ण = न, व, या, हाँ आदि.
२ वर्ण = कल, प्राण, आप्त, ईर्ष्या, योग्य, मूर्त, वैश्य आदि.
३ वर्ण = सजल,प्रवक्ता, आभासी, वायव्य, प्रवक्ता आदि.
४ वर्ण = ऊर्जस्वित, अधिवक्ता, अधिशासी आदि.
५ वर्ण = पर्यावरण आदि.
६ वर्ण = वातानुकूलित आदि.
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छन्द कवि रचिए.
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिये..
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए.
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए..
*
घनाक्षरी के ९ प्रकार होते हैं;
१. मनहर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु अथवा लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-७ वर्ण।
२. जनहरण: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु शेष सब वर्ण लघु।
३. कलाधर: कुल वर्ण संख्या ३१. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण ।
४. रूप: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
५. जलहरण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-लघु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
६. डमरू: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत बंधन नहीं, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
७. कृपाण: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत गुरु-लघु, चार चरण, प्रथम ३ चरणों में समान अंतर तुकांतता, ८-८-८-८ वर्ण।
८. विजया: कुल वर्ण संख्या ३२. समान पदभार, समतुकांत, पदांत लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-८ वर्ण।
९. देव: कुल वर्ण संख्या ३३. समान पदभार, समतुकांत, पदांत ३ लघु-गुरु, चार चरण ८-८-८-९ वर्ण।
उदाहरण-
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
यहाँ 'शस्य' (२ वर्ण, ३ मात्रा = २१ ), के बाद 'श्यामला' (३ वर्ण, ५ मात्रा, रगण = २१२ = ३ + २) है। अतः 'शस्य' के त्रिकल, के ठीक बाद श्याम का त्रिकल सटीक व्यवस्था कर वाचन में लयभंग नहीं होने देता। ऐसी मात्रा-व्यवस्था घनाक्षरी के सभी पदों में आवश्यक है। घनाक्षरी छन्द के कुल नौ भेदों में मुख्य चार १. मनहरण, २. जलहरण, ३. रूप तथा ४. देव घनाक्षरी हैं।
मनहरण घनाक्षरी- चार पदों के इस छंद के प्रत्येक पद में कुल वर्ण-संख्या ३१ तथा पदांत में गुरु अनिवार्य है। लघु-गुरु का कोई क्रम नियत नहीं है किंतु पदान्त लघु-गुरु हो तो लय सुगम हो जाती है। हर पद में चार चरण होते हैं। हर चरण में वर्ण-संख्या ८, ८, ८, ७ की यति के अनुसार होती है। पदांत में मगण (मातारा, गुरु-गुरु-गुरु, ऽऽऽ, २ २ २) वर्जित है।
अपवाद स्वरूप किसी चरण में वर्ण-व्यवस्था ८, ७, ९, ७ हो किंतु शब्द-कल का निर्वहन सहज हो अर्थात वाचन या गायन में लय-भंग न हो छन्द निर्दोष माना जाता है। सुविधा के लिये ३१ वर्ण की पद-यति १६-१५, १५, १६, १७-१४, १४-१७,१५-१६, १६-१५ या अन्य भी हो सकती है यदि लय बाधित न हो।
उदाहरण-
०२. हम कृतघ्न पुत्र हैं या दानवी प्रभाव है, स्वार्थ औ' प्रमाद में ज्यों लिप्त हैं वो क्या कहें? यति १६-१५
ममत्व की हो गोद या सुरम्यता कारुण्य की, नकारते रहे सदा मूढ़ता को क्या कहें?? यति १६-१५
यहां लय भंग नहीं है किन्तु शब्द-क्रम में यत्किंचित परिवर्तन भी लय भंग का हेतु बन जाता है।
'ममत्व की हो गोद या' को 'या गोद ममत्व की हो' अथवा 'गॉड या ममत्व की हो' किया जाय तो चरण में समान वर्ण होने के बावज़ूद लयभंगता स्पष्ट है। तथा पद-प्रवाह सहज रहें.
उदाहरण-
- सौरभ पांडेय
०१. शस्य-श्यामला सघन, रंग-रूप से मुखर देवलोक की नदी है आज रुग्ण दाह से
लोभ मोह स्वार्थ मद पोर-पोर घाव बन रोम-रोम रीसते हैं, हूकती है आह से
जो कपिल की आग के विरुद्ध सौम्य थी बही अस्त-पस्त-लस्त आज दानवी उछाह से
उत्स है जो सभ्यता व उच्च संस्कार की वो सुरनदी की धार आज रिक्त है प्रवाह से - इकड़ियाँ जेबी से
०२. नीतियाँ बनीं यहाँ कि तंत्र जो चला रहा वो श्रेष्ठ भी दिखे भले परन्तु लोक-छात्र हो
तंत्र की कमान जन-जनार्दनों के हाथ हो, त्याग दे वो राजनीति जो लगे कुपात्र हो
भूमि-जन-संविधान, विन्दु हैं ये देशमान, संप्रभू विचार में न ह्रास लेश मात्र हो
किन्तु सत्य है यही सुधार हो सतत यहाँ, ताकि राष्ट्र का समर्थ शुभ्र सौम्य गात्र हो
- संजीव 'सलिल'
०३. फूँकता कवित्त प्राण, डाल मुरदों में जान, दीप बाल अंधकार, ज़िन्दगी का हरता।
नर्मदा निनाद सुनो,सच की ही राह चुनो, जीतता सुधीर वीर, पीर पीर सहता।।
'सलिल'-प्रवाह पैठ, आगे बढ़ नहीं बैठ, सागर है दूर पूर, दूरी हो निकटता।
आना-जाना खाली हाथ, कौन कभी देता साथ, हो अनाथ भी सनाथ, प्रभु दे निकटता।।
०४. गीत-ग़ज़ल गाइये / डूबकर सुनाइए / त्रुटि नहीं छिपाइये / सीखिये-सिखाइए
शिल्प-नियम सीखिए / कथ्य समझ रीझिए / भाव भरे शब्द चुन / लय भी बनाइए
बिम्ब नव सजाइये / प्रतीक भी लगाइये / अलंकार कुछ नये / प्रेम से सजाइए
वचन-लिंग, क्रिया रूप / दोष न हों देखकर / आप गुनगुनाइए / वाह-वाह पाइए
.
०५. कौन किसका है सगा? / किसने ना दिया दगा? / फिर भी प्रेम से पगा / जग हमें दुलारता
जो चला वही गिरा / उठ हँसा पुन: बढ़ा / आदि-अंत सादि-सांत / कौन छिप पुकारता?
रात बनी प्रात नित / प्रात बने रात फिर / दोपहर कथा कहे / साँझ नभ निहारता
काल-चक्र कब रुका? / सत्य कहो कब झुका? /मेहनती नहीं चुका / धरांगन बुहारता
.
०६. न चाहतें, न राहतें / न फैसले, न फासले / दर्द-हर्ष मिल सहें / साथ-साथ हाथ हों
न मित्रता, न शत्रुता / न वायदे, न कायदे / कर्म-धर्म नित करें / उठे हुए माथ हों
न दायरे, न दूरियाँ / रहें न मजबूरियाँ / फूल-शूल, धूप-छाँव / नेह नर्मदा बनें
गिर-उठें, बढ़े चलें / काल से विहँस लड़ें / दंभ-द्वेष-छल मिटें / कोशिशें कथा बुनें
०७. चाहते रहे जो हम / अन्य सब करें वही / हँस तजें जो भी चाह / उनके दिलों में रही
मोह वासना है यह / परार्थ साधना नहीं / नेत्र हैं मगर मुँदे / अग्नि इसलिए दही
मुक्त हैं मगर बँधे / कंठ हैं मगर रुँधे / पग बढ़े मगर रुके / सर उठे मगर झुके
जिद्द हमने ठान ली / जीत मन ने मान ली / हार छिपी देखकर / येन-केन जय गही
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम,
झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह,
एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह,
मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं,
भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
*
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी,
कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका,
बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी,
आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें,
बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
*
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये,
स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें,
कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व,
निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो,
धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
*
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी,
शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी,
शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी,
बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया,
नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
*
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का,
तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई,
हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया,
हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ,
हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने,
एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली,
हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये,
शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े,
साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
*
कल :
कज्जल के कूट पर दीप शिखा सोती है कि, श्याम घन मंडल मे दामिनी की धारा है ।
भामिनी के अंक में कलाधर की कोर है कि, राहु के कबंध पै कराल केतु तारा है ।
शंकर कसौटी पर कंचन की लीक है कि, तेज ने तिमिर के हिये मे तीर मारा है ।
काली पाटियों के बीच मोहनी की माँग है कि, ढ़ाल पर खाँड़ा कामदेव का दुधारा है ।
काले केशों के बीच सुन्दरी की माँग की शोभा का वर्णन करते हुए कवि ने ८ उपमाएँ दी हैं.-
१. काजल के पर्वत पर दीपक की बाती.
२. काले मेघों में बिजली की चमक.
३. नारी की गोद में बाल-चन्द्र.
४. राहु के काँधे पर केतु तारा.
५. कसौटी के पत्थर पर सोने की रेखा.
६. काले बालों के बीच मन को मोहने वाली स्त्री की माँग.
७. अँधेरे के कलेजे में उजाले का तीर.
८. ढाल पर कामदेव की दो धारवाली तलवार.
कबंध=धड़. राहु काला है और केतु तारा स्वर्णिम, कसौटी के काले पत्थर पर रेखा खींचकर सोने को पहचाना जाता है. ढाल पर खाँडे की चमकती धार. यह सब केश-राशि के बीच माँग की दमकती रेखा का वर्णन है.
१०-४-२०१९
***
नवगीत:
*
जाल न फैला
व्यर्थ मछेरे
मछली मिले कहाँ बिन पानी।
*
नहा-नहा नदियाँ की मैली
पुण्य, पाप को कहती शैली
कैसे औरों की हो खाली
भर लें केवल अपनी थैली
लूट करोड़ों,
बाँट सैंकड़ों
ऐश करें खुद को कह दानी।
*
पानी नहीं आँख में बाकी
लूट लुटे को हँसती खाकी
गंगा जल की देख गंदगी
पानी-पानी प्याला-साकी
चिथड़े से
तन ढँके गरीबीे
बदन दिखाती धनी जवानी।
*
धंधा धर्म रिलीजन मजहब
खुली दुकानें, साधो मतलब
साधो! आराधो, पद-माया
बेच-खरीदो प्रभु अल्ला रब
तू-तू मैं-मैं भुला,
थाम चल
भगवा झंडा, चादर धानी।
*
१०-४-२०१८
***
एक व्यंग्य गीत
*
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
तरस गए हम स्वर्ण पदक को
एक नहीं मिल पाया
किससे-कितना रोना रोयें
कोई काम न आया
हम सा निपुण न कोई जग में
आत्म प्रशंसा करने में
काम बंद कर, संसद ठप कर
अपनी जेबें भरने में
तीनों पदक हमीं पाएंगे
यदि हो धुप्पलबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
दारू के ठेके दे-देकर
मद्य-निषेध कर रहे हम
दूरदर्शनी बहस निरर्थक
मन में ज़हर भर रहे हम
रीति-नीति-सच हमें न भाता
मनमानी के हामी हैं
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
भ्रष्टाचारी नामी हैं
हों ब्रम्हांडजयी केवल हम
यदि हो जुमलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
*
बीबी-बहू-बेटियाँ, बेटे
अपने मंत्री-अफसर हों
कोई हो सरकार, मरें जन
अपने उज्जवल अवसर हों
आम आदमी दबा करों से
धनिकों के ऋण माफ़ करें
करें देर-अंधेर, नहीं पर
न्यायालय इन्साफ करें
लोकतंत्र का दम निकले
ऐसी कुछ हो घपलेबाजी भी
अब ओलंपिक में हो
चप्पलबाजी भी
***
मुक्तक
प्रश्न उत्तर माँगते हैं, घूरती चुप्पी
बनें मुन्ना भाई लें-दें प्यार से झप्पी
और इस पर भी अगर मन हो न पाए शांत
गाल पर शिशु के लगा दें प्यार से पप्पी
१०.४.२०१७
***
पुस्तक चर्चा-
'महँगाई का शुक्ल पक्ष'-सामयिक विसंगतियों की शल्यक्रिया
[पुस्तक विवरण- महँगाई का शुक्ल पक्ष, व्यंग्य लेख संग्रह, सुदर्शन कुमार सोनी, ISBN ९७८-९३-८५९४२-११-२, प्रथम संस्करण २०१६, आकार- २०.५ सेमी X १४ सेमी, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, लेमिनेटेड, पृष्ठ १४४, मूल्य १२०/-,बोधि प्रकाशन, ऍफ़ ७७, सेक्टर ९, करतारपुरा औद्योगिक क्षेत्र, बाईस गोदाम, जयपुर ३०२००६, दूरभाष ०१४१ २५०३९८९, ९८२६० १८०८७, व्यंग्यकार संपर्क- डी ३७ चार इमली, भोपाल, ४६२०१६, चलभाष ९४२५६३४८५२, sudarshanksoniyahoo.co.in ]
*
विवेच्य कृति एक व्यंग्य संग्रह है। संस्कृत भाषा का शब्द ‘व्यंग्य’ शब्द ‘अज्ज’ धातु में ‘वि’ उपसर्ग और ‘ण्यत्’ प्रत्यय के लगाने से बनता है। यह व्यंजना शब्द शक्ति से संबंधित है तथा ‘व्यंग्यार्थ’ के रूप में प्रयोग किया जाता है। आम बोलचाल में व्यंग्य को ‘ताना’ या ‘चुटकी’ कहा जाता है जिसका अर्थ है “चुभती हुई बात जिसका कोई गूढ़ अर्थ हो।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार “व्यंग्य कथन की एक ऐसी शैली है जहाँ बोलने वाला अधरोष्ठों में मुस्करा रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठे।” व्यंग्य सोद्देश्य, तीखा व तेज-तर्रार कथन है जिसका प्रभाव तिलमिला देने वाला होता है। कथन की एक शैली के रूप में जन्मा व्यंग्य क्रमश: साहित्य की ऊर्जस्वित विधा के रूप में विक्सित हो रहा है।
आज़ादी के बाद आमजन का रामराज की परिकल्पना से शासन-प्रशासन की व्यवस्था में मनोवांछित परिवर्तन न पाकर मोह-भंग हुआ। राजनैतिक-सामाजिक विद्रूपताओं ने व्यंग्य शैली को विधा का रूप धारण करने के लिए उर्वर जमीन प्रदान की है। व्यंग्य ‘जो गलत है’ उस पर तल्ख चोट कर ‘जो सही होना चाहिए’ उस सत्य ओर इशारा भी करता है। इसलिए व्यंग्य आमें साहित्य की केन्द्रीय विधा बनने की पूरी संभावना सन्निहित है। आधुनिक हिंदी साहित्य का व्यंग्य अंग्रेजी की 'सैटायर' विधा से प्रेरित है जिसमें व्यवस्था का मजान उदय जाता है। व्यंग्य में उपहास, कटाक्ष, मजाक, लुत्फ़, आलोचना तथा यत्किंचित निंदा का समावेश होता है।
इस पृष्ठ भूमि में सुदर्शन कुमार सोनी के व्यंग्य लेख संग्रह 'मँहगाई का शुक्ल पक्ष' को पढ़ना सैम सामयिक विसंगतियों से साक्षात् करने की तरह है। उनके व्यंग्य लेख न तो परसाई जी के व्यंग्य की तरह तिलमिलाते हैं, न शरद जोशी के व्यंग्य की तरह गुदगुदाते हैं, न लतीफ़ घोंघी के व्यंग्य लेखों की तरह गुदगुदाते हैं। सनातन सलिल नर्मदा तट स्थित संस्कारधानी जबलपुर में जन्में सुदर्शन जी प्रशासनिक अधिकारी हैं, अत: उनकी भाषा में गाम्भीर्य, अभिव्यक्ति में संतुलन, आक्रोश में मर्यादा तथा असहमति में संयम होना स्वाभाविक है। विवेच्य कृति के पूर्व उनके ३ कहानी संग्रह नजरिया, यथार्थ, जिजीविषा तथा एक व्यंग्य संग्रह 'घोटालेबाज़ न होने का गम' छप चुके हैं।
इस संग्रह में बैंडवालों से माफी की फरियाद, अनोखा मर्ज़, देश में इस समय दो ही काम बयान हो रहे हैं, सबके पेट पर लात, कुछ घट रहा है तो कुछ बढ़ रहा है, इट्स रेनिंग डिक्शनरीज एंड ग्रामर बुक्स, मँहगाई का शुक्ल पक्ष, चिर यौवनता की धनी, आज अफसर बहुत खुश है, आम और ख़ास, आवश्यकता नहीं उचक्कापन ही आविष्कार की जननी है, आई एम वोटिंग फॉर यू, धूमकेतु समस्या, सबसे ज्यादा असरकारी इंसान नहीं उसके रचे शब्द हैं, लाइन में लगे रहो, हाय मैंने उपवास रखा, नींद दिवस, समस्या कभी खत्म नहीं होती, सरकार के लिए कहाँ स्कोप है?, मीटिंग अधिकारी, देश का रोजनामचा, झाड़ू के दिन जैसे सबके फिरे, ये ही मेरे आदर्श हैं, फूलवालों की सैर, इन्सान नहीं परियोजनाएं अमर होती हैं, उदासी का सेलिब्रेशन, महिला सशक्तिकरण के सही पैमाने, नेता का पियक्कड़ से चुनावी मौसम में आमना-सामना, भरे पेट का चिंतन खालीपेट का चिंतन, पलटे पेटवाला आदमी, खूब जतन कर लिये नहीं हो पाया, मानसून व पत्नी की तुलना, अनोखी घुड़दौड़, रत्नगर्भा अभियान, पेड़ कटाई, बेचारे ये कुत्ते घुमानेवाले, जेनरेशन गैप इन कुत्तापालन, इंसान की पूंछ होती तो क्या होता?, इन्सान के इंजिन व ऑटोमोबाइल के हार्ट का परिसंवाद, धांसू अंतिम यात्रा की चाहत, 'अच्छे दिन आने वाले हैं' पर पीएच डी, आक्रोश ज़ोन तथा इन्सान तू सच में बहुरूपिया है शीर्षक ४३ व्यंग्य लेख सम्मिलित हैं।
प्रस्तुत संग्रह से देश के सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य में व्याप्त अराजकता के साथ-साथ हिंदी के भाषिक लिखित-वाचिक रूप में व्याप्त अराजकता का भी साक्षात् हो जाता है। व्यंग्यकार सुशिक्षित, अनुभवी और समृद्ध शब्द-भण्डार के धनी हैं। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं होता, वह भाषा के स्वरूप को संस्कारित भी करता है। नई पीढ़ी पुरानी पुस्तकों से ही भाषा को ग्रहण करती है। यह सर्वमान्य तथ्य है की किसी भाषा के श्रेष्ठ साहित्य में अन्य भाषा के शब्द आवश्यक होने पर ही लिये जाते हैं। विवेच्य कृति में हिंदी, संस्कृत, उर्दू तथा अंग्रेजी के शब्दों का उदारतापूर्वक और बहुधा उपयुक्त प्रयोग हुआ है। अप्रतिम, उत्तरार्ध, शाश्वत, अदृश्य, गरिष्ठ, अपसंस्कृति, वयस्कता जैसे संस्कृतनिष्ठ शब्द, नून तलक, बावला, सयाना आदि देशज शब्द, खास, रिश्तों, खत्म, माशूक, अय्याश, खुराफाती, जंजीर जैसे उर्दू शब्द और क्रिकेट, एस एम एस, डोक्टर, इलेक्ट्रोनिक, डॉलर, सोफ्टवेयर जैसे अंग्रेजी शब्दों के समुचित प्रयोग से लेखों की भाषा जीवंत और सहज हुई है किन्तु ऐसे अंग्रेजी शब्द जिनके सरल, सहज और प्रचलित हिंदी शब्द उपलब्ध और जानकारी में हैं उनका प्रयोग न कर अंग्रेजी शब्द को ठूँसा जाना खीर में कंकर की प्रतीति कराता है। ऐसे शताधिक शब्दों में से कुछ इंटरेस्ट (रूचि), लेंग्थ (लंबाई), ड्रेस (पोशाक), क्वालिटी (गुणवत्ता), क्वांटिटी (मात्रा), प्लाट (भूखंड), साइज (परिमाप), लिस्ट (सूची), पैरेंट (अभिभावक), चैप्टर (अध्याय), करेंसी (मुद्रा), इमोशनल (भावनात्मक) आदि हैं। इससे भाषा प्रदूषित होती है।
कोढ़ में खाज यह कि मुद्रण-त्रुटि ने भी जाने-अनजाने शब्दों को विरूपित कर दिया है। महँगाई (बृहत हिंदी कोश, पृष्ठ ८७८) शब्द के दो रूप महंगाई तथा मंहगाई मुद्रित हुए हैं किन्तु दोनों ही गलत हैं। गजब यह कि 'मंह' का मतलब 'मुंह' बता दिग गया है। यह भाषा विज्ञानं के किस नियम से संभव है? यदि वह सन्दर्भ दे दिया जाता तो मुझ पाठक का ज्ञान बढ़ पाता। अनुस्वार तथा अनुनासिक के प्रयोग में भी स्वच्छन्दता बरती गयी है। 'ढ' और 'ढ़' के मुद्रण की त्रुटि ने 'मेंढक' को 'मेंढ़क' बना दिया। 'लड़ाई' के स्थान पर 'लड़ी', 'ढूँढना' के स्थान पर 'ढूंढ़ने' जैसी मुद्रण त्रुटी सम्भवत:शीघ्रता के कारण हुई हो क्योंकि प्रकाशक की अन्य पुस्तकें पथ्य त्रुटियों से मुक्त हैं। व्यंग्यकार का भाषा कौशल 'आम के आम गुठली के दाम', 'नाक-भौं सिकोड़ना' आदि मुहावरों तथा 'आवश्यकता अविष्कार की जननी है' जैसे सूक्ति वाक्यों के प्रयोग में निखरा है। 'लोकलीकरण' जैसे नये शब्द का प्रयोग लेखक की सामर्थ्य दर्शाता है। ऐसे प्रयोगों से भाषा समृद्ध होती है।
व्यंग्य लेखों के विषय सामयिक, चिन्तन सार्थक तथा भाषा शैली सहज ग्राह्य है। 'व्यंजना' शक्ति का अधिकाधिक प्रयोग भाषा के मारक प्रभाव में वृद्धि करेगा। पाठकों के बीच यह संग्रह लोकप्रिय होगा।
१०.४.२०१६
---
नवगीत:
करना होगा...
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
देखे दोष,
दिखाए भी हैं.
लांछन लगे,
लगाये भी है.
गिरे-उठे
भरमाये भी हैं.
खुद से खुद
शरमाये भी हैं..
परिवर्तन-पथ
वरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
दीपक तले
पले अँधियारा.
किन्तु न तम की
हो पौ बारा.
डूब-डूबकर
उगता सूरज.
मिट-मिट फिर
होता उजियारा.
जीना है तो
मरना होगा.
हमको कुछ तो
करना होगा...
***
नवगीत:
चलो! कुछ गायें...
*
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
माना अँधियारा गहरा है.
माना पग-पग पर पहरा है.
माना पसर चुका सहरा है.
माना जल ठहरा-ठहरा है.
माना चेहरे पर चेहरा है.
माना शासन भी बहरा है.
दोषी कौन?...
न शीश झुकायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
*
सच कौआ गा रहा फाग है.
सच अमृत पी रहा नाग है.
सच हिमकर में लगी आग है.
सच कोयल-घर पला काग है.
सच चादर में लगा दाग है.
सच काँटों से भरा बाग़ है.
निष्क्रिय क्यों?
परिवर्तन लायें.
क्यों है मौन?
चलो कुछ गायें...
***
नवगीत:
करो बुवाई...
*
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
ऊसर-बंजर जमीन कड़ी है.
मँहगाई जी-जाल बड़ी है.
सच मुश्किल की आई घड़ी है.
नहीं पीर की कोई जडी है.
अब कोशिश की
हो पहुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
उगा खरपतवार कंटीला.
महका महुआ मदिर नशीला.
हुआ भोथरा कोशिश-कीला.
श्रम से कर धरती को गीला.
मिलकर गले
हँसो सब भाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
*
मत अपनी धरती को भूलो.
जड़ें जमीन हों तो नभ छूलो.
स्नेह-'सलिल' ले-देकर फूलो.
पेंगें भर-भर झूला झूलो.
घर-घर चैती
पड़े सुनाई.
खेत गोड़कर
करो बुवाई...
१०-४-२०१०

*

शनिवार, 14 दिसंबर 2024

दिसंबर १४, व्यंग्य गीत, हाइकु, मुक्तिका, श्री राधे, Poem, सॉनेट, नर्मदा, व्यंग्य मुक्तिका,नाक्षत्रिक छंद

सलिल सृजन दिसंबर १४
*
नवोन्वेषित नाक्षत्रिक छंद
विधान- दो पद, चार चरण, पदभार २७, यति १४-१३, तुकांत गुरु-लघु।

भय की नाम-पट्टिका पर, लिख दें साहस का नाम।
कोशिश कभी न हारेगी, बाधा को दें पैगाम।।
*
नक्षत्र

भारतीय ज्योतिष के अनुसार चंद्र पथ से जुड़े तारा-समूह को नक्षत्र कहते हैं। सूर्य मेष से लेकर मीन तक भ्रमण करता है जबकि चंद्रमा अश्विनी से रेवती तक भ्रमण करता है। नक्षत्र सूची अथर्ववेदतैत्तिरीय संहिताशतपथ ब्राह्मण और लगध के वेदांग ज्योतिष में मिलती है। भागवत पुराण के अनुसार ये नक्षत्रों की अधिष्ठात्री देवियाँ प्रचेतापुत्र दक्ष की पुत्रियाँ तथा चन्द्रमा की पत्नियाँ हैं। तारे हमारे सौर जगत् के भीतर नहीं है। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा न करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं। एक तारा दूसरे तारे से जिस ओर और जितनी दूर आज है उसी ओर और उतनी ही दूर पर सदा रहेगा। ऐसे दो चार पास-पास रहनेवाले तारों की परस्पर स्थिति से सबको पहचान सकते हैं। पहचान के लिये तारों के मिलने से बने आकार के आधार पर तारकपुंज का नाम रखा गया है। 

चंद्रमा २७-२८ दिनों में पृथ्वी के चारों ओर घूमता है। खगोल में यह भ्रमणपथ इन्हीं तारों के बीच से होकर गया हुआ जान पड़ता है। इसी पथ में पड़नेवाले तारों के अलग अलग दल बाँधकर एक एक तारकपुंज का नाम नक्षत्र रखा गया है। इस रीति से सारा पथ इन २७ नक्षत्रों में विभक्त होकर 'नक्षत्र चक्र' कहलाता है। २७ नक्षत्रों की संख्या, नाम, स्वामी और आकृति इस प्रकार  हैं-

नक्षत्रतारासंख्याआकृति और पहचान
०१. अश्विनीघोड़ा
०२. भरणीत्रिकोण
०३. कृत्तिकाअग्निशिखा
०४. रोहिणीगाड़ी
०५. मृगशिराहरिणमस्तक वा विडालपद
०६. आर्द्राउज्वल
०७. पुनर्वसु५ या ६धनुष या धर
०८. पुष्य१ वा ३माणिक्य वर्ण
०९, अश्लेषाकुत्ते की पूँछ वा कुलावचक्र
१०. मघाहल
११. पूर्वाफाल्गुनीखट्वाकार X उत्तर दक्षिण
१२. उत्तराफाल्गुनीशय्याकारX उत्तर दक्षिण
१३. हस्तहाथ का पंजा
१४. चित्रामुक्तावत् उज्वल
१५. स्वातीकुंकुं वर्ण
१६. विशाखा५ व ६तोरण या माला
१७. अनुराधासूप या जलधारा
१८. ज्येष्ठासर्प या कुंडल
१९. मूल९ या ११शंख या सिंह की पूँछ
२०. पूर्वाषाढ़ासूप या हाथी का दाँत
२१. उत्तरषाढ़ासूप
२२. श्रवणबाण या त्रिशूल
२३. धनिष्ठा प्रवेशमर्दल बाजा
२४. शतभिषा१००मंडलाकार
२५. पूर्वभाद्रपदभारवत् या घंटाकार
२६. उत्तरभाद्रपददो मस्तक
२७. रेवती३२मछली या मृदंग

इन २७ नक्षत्रों के अतिरिक्त 'अभिजित्' नाम का एक और नक्षत्र पहले माना जाता था पर वह पूर्वाषाढ़ा के भीतर ही आ जाता है। इन्हीं नक्षत्रों के नाम पर महीनों के नाम रखे गए हैं। महीने की पूर्णिमा को चंद्रमा जिस नक्षत्र पर रहेगा उस महीने का नाम उसी नक्षत्र के अनुसार होगा, जैसे कार्तिक की पूर्णिमा को चंद्रमा कृत्तिका वा रोहिणी नक्षत्र पर रहेगा, अग्रहायण की पूर्णिमा को मृगशिरा वा आर्दा पर; इसी प्रकार और समझिए।

२७ नक्षत्र हैं- अश्विन, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तराभाद्रपद, रेवती। 

नक्षत्रों की चार श्रेणियाँ अंध लोचन, मंद लोचन, मध्य लोचन और सुलोचन हैं। पुष्य, उत्तरा फाल्गुनी, विशाखा। पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा, रेवती तथा रोहिणी अंध लोचन नक्षत्र है। मंद लोचन नक्षत्र आश्लेषा, हस्त, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, शतभिषा, अश्विनी तथा मृगशिरा है। मध्य लोचन नक्षत्र मघा, चित्रा, ज्येष्ठा, पूर्व भाद्रपद, भरणी एवं आर्द्रा हैं। पूर्वा फाल्गुनी, स्वाति, मूल, भरण, उत्तरा भाद्रपद, कृतिका व  पुनर्वसु सुलोचन नक्षत्र हैं। 

इन २७ नक्षत्रों के ९ गृह स्वामी हैं।  १. केतु- आश्विन मघा  मूल, २. भरणी, पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ा ३. रवि- कार्तिक, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तरा षाढ़ा ४. चंद्र- रोहिणी, हस्त, श्रवण ५. मंगल- मृगशिरा, चित्रा, धनिष्ठा ६. राहु- आर्द्रा, स्वाति, शतभिषा ७. बृहस्पति- पुनर्वसु, विशाखा, पूर्वा भाद्रपद ८. 

शनि- पुष्य, अनुराधा, उत्तरा भाद्रपद ९. बुध- आश्लेषा, ज्येष्ठा रेवती।

***

भाषा और शब्द

        भाषा के शब्द प्रतीक हैं। इस कारण अर्थवान उच्चरित खंडों का अपने वाच्य से प्राकृत सम्बन्ध न होकर याद्दच्छिक सम्बन्ध होता है।यादृच्छिकता का अर्थ है अपनी इच्छा से माना हुआ सम्बन्ध। शब्द द्वारा हमें उस पदार्थ या भाव का बोध होता है जिससे वह सम्बद्ध हो चुका होता है।

        शब्द स्वयं पदार्थ नहीं है। हम किसी वस्तु को उसके जिस नाम से पुकारते हैं उस नाम एवं वस्तु में परस्पर कोई प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध नहीं होता। उनका सम्बन्ध स्वेच्छाकृत मान्य होता है। इसी कारण भाषा का शब्द स्वतः स्फूर्त नहीं होता। हम समाज में रहकर भाषा को सीखते हैं। कोई समाज किसी वस्तु के लिए जिस नाम की स्वीकृति दे देता हैं वही नाम उस समाज में उस वस्तु के लिए प्रयुक्त होने लगता है। यही कारण है कि एक ही वस्तु के अलग-अलग भाषाओं में प्रायःभिन्न वाचक मिलते हैं। 

        यदि शब्द एवं वस्तु का प्राकृत एवं समवाय सम्बन्ध होता तो संसार भर की भाषाओं में एक वस्तु का एक ही वाचक होता किंतु ऐसा नहीं है। एक ही वस्तु को अनेक नामों से पुकारा जाता है। यथा - ' हिन्दी में, जिसे कुत्ता कहते हैं उसको अंग्रेजी में ‘डॉग' (dog) ; चीनी में ‘गोऊ’(gou) ; इटैलियन में ‘कैने’(cane) ; स्पेनिश में ‘पेरो’ (perro) ; जर्मन में ‘हुण्ड’(Hund) ; तथा रूसी में सुबाका(sobaka) कहते हैं।

        भारतीय भाषाओं मे भी एक ही पदार्थ के अनेक वाचक मिल जाते हैं-हिन्दी के गेहूँ को पंजाबी में कणक, गुजराती में धउँ, बंगला एवं असमियों में गम अथवा गाम कहते हैं। हिन्दी की आँख मराठी में डोला, तमिल में कणमणि , कन्नड़ में पापे बोली जाती है। गर्दन को पंजाबी में धौण, मराठी में मानू, असमिया में दिङि, उडि़या में बेक तथा तमिल एवं मलयालम में कलुत्तुँ कहते हैं। हिन्दी में भोजन करते हैं, मराठी गुजराती में जेवण या जमण करते हैं। इसके विपरीत एक ही शब्द विभिन्न भाषाओं में भिन्न-भिन्न अर्थों में भी प्रयुक्त होता है।
***
सॉनेट
चंद्र मणि

गगन अँगूठी रत्न चंद्र मणि जगमग चमके,
अवलोके जो दाँतों में अँगुलियाँ दबाए,
धरती मैया सुता निहारे बलि बलि जाए,
तारक दीप्ति मंद हो कहिए कैसे दमके?
गड़ गड़ मेघा रूठे क्रोधित गरजे-बमके
पवन वेग से दौड़े-भागे खून जलाए,
मिले चंद्र मणि नहीं; इंद्र बरसात कराए,
सूरज कर दीदार न पाए दिन भए तमके।
भोले भण्डारी हँस लेते सजा शीश पर,
नाग कंठ में लटकाकर हर करें सुरक्षा,
अमिय-जहर का साथ अनूठा जग जग हेरे।
जैसा भाव दिखे वैसा ही कवि कहते अक्सर,
दे प्रज्ञान चित्र, विक्रम को भाए कक्षा,
निरख चंद्र मणि रूप सलिल साथी को टेरे।
१४.१२.२०२३
•••
सॉनेट
रश्मि
रश्मि कौंधती प्राची में तब पौ फटती है,
रश्मिरथी नीलाभ गगन को रँगें सुनहरा,
पंछी करते कलरव झूमे पवन मसखरा,
आलस की कुहराई रजाई भी हटती है।
आँखें खुलें मनुजता भू पर पग धरती है,
गिरि चढ़, नापे समुद, गगन में भी वह विचरा,
रश्मि सूर्य शशि की मोहे पग वहाँ भी धरा,
ग्रह-उपग्रह जय करने की कोशिश करती है।
रश्मि ज्ञान की दे विवेक सत-सुंदर-शिव भी,
नश्वर माया की छाया से मुक्त हो सकें,
काया साधन पा साधें जन-गण के हित को।
रहने योग्य रहे यह धरती, मिले विभव भी,
क्रोध घृणा विद्वेष सके हर मानव मन खो,
रश्मि प्रकाशित करें निरंतर जीवन-पथ को।
१४.१२.२०२३
•••
व्यंग्य मुक्तिका
घना कोहरा, घुप्प अँधेरा मुँह मत खोलो।
अंध भक्त हो नेता जी की जय जय बोलो।।
संविधान की गारंटी का मोल नहीं है।
नेता जी की गारंटी सुन मटको-डोलो।।
करो विभाजित नित समाज को, मेल मिटाओ।
सद्भावों के शर्बत में नफ़रत विष घोलो।।
जो बीता सो बीता कह आगे मत बढ़ना।
खोद विवादों के मुर्दे जीवन को तोलो।।
मार कुल्हाड़ी आप पैर पर आप हाथ से।
हँस लेना लेकिन पहले थोड़ा तो रो लो।।
१४.१२.२०२३
•••
सॉनेट
नर्मदा
नर्मदा सलिला सनातन,
करोड़ों वर्षों पुरानी,
हर लहर कहती कहानी।
रहो बनकर पतित पावन।।
शिशु सदृश यह खूब मचले,
बालिका चंचल-चपल है,
किशोरी रूपा नवल है।
युवा दौड़े कूद फिसले।।
सलिल अमृत पिलाती है,
शिवांगी मोहे जगत को।
भीति भव की मिटाती है।।
स्वाभिमानी अब्याहा है,
जगज्जननी सुमाता है।
शीश सुर-नर नवाता है।।
१४-१२-२०२२
जबलपुर,७•४७
●●●
***
Poem:Again and again
Sanjiv
*
Why do I wish to swim
Against the river flow?
I know well
I will have to struggle
More and more.
I know that
Flowing downstream
Is an easy task
As compared to upstream.
I also know that
Well wishers standing
On both the banks
Will clap and laugh.
If I win,
They will say:
Their encouragement
Is responsible for the success.
If unfortunately
I lose,
They will not wait a second
To say that
They tried their best
To stop me
By laughing at me.
In both the cases
I will lose and
They will win.
Even then
I will swim
Against the river flow
Again and again.
***
अभिनव प्रयोग
मुक्तिका
श्री राधे
*
अनहद-अक्षर अजर-अमर हो श्री राधे
आत्मा आकारित आखर हो श्री राधे
इला इडा इसरार इजा हो श्री राधे
ईक्षवाकु ईश्वर ईक्षित हो श्री राधे
उदधि उबार उठा उन्नत हो श्री राधे
ऊब न ऊसर उपजाऊ हो श्री राधे
एक एक मिल एक रंग हो श्री राधे
ऐंचातानी जग में क्यों हो श्री राधे?
और न औसर और लुभाओ श्री राधे
थके खोजकर क्यों ओझल हो श्री राधे
अंत न अंतिम 'सलिल' कंत हो श्री राधे
अ: अ: आहा छवि अब हो श्री राधे
(प्रथमाक्षर स्वर)
१४-१२-२०१९
***
नव गीत :
क्यों करे?
*
चर्चा में
चर्चित होने की चाह बहुत
कुछ करें?
क्यों करे?
*
तुम्हें कठघरे में आरोपों के
बेड़ा हमने।
हमें अगर तुम घेरो तो
भू-धरा लगे फटने।
तुमसे मुक्त कराना भारत
ठान लिया हमने।
'गले लगे' तुम,
'गले पड़े' कह वार किया हमने।
हम हैं
नफरत के सौदागर, डाह बहुत
कम करें?
क्यों करे?
*
हम चुनाव लड़ बने बड़े दल
तुम सत्ता झपटो।
नहीं मिले तो धमकाते हो
सड़कों पर निबटो।
अंग हमारे, छल से छीने
बतलाते अपने।
वादों को जुमला कहते हो
नकली हैं नपने।
माँगो अगर बताओ खुद भी,
जाँच कमेटी गठित
मिल करें?
क्यों करे?
*
चोर-चोर मौसेरे भाई
संगा-मित्ती है।
धूल आँख में झोंक रहे मिल
यारी पक्की है।
नूराकुश्ती कर, भत्ते तो
बढ़वा लेते हो।
भूखा कृषक, अँगूठी सुख की
गढ़वा लेते हो।
नोटा नहीं, तुम्हें प्रतिनिधि
निज करे।
क्यों करे?
संजीव
१४-१२-२०१८
***
जो बूझे सो ज्ञानी
छन्नी से छानने पर जो पदार्थ ऊपर रह जाता है उसे क्या कहते हैं?, जो नीचे गिर जाता है उसे क्या कहते हैं?, जो उपयोगी पदार्थ हो उसे क्या कहते हैं?, जो निरुपयोगी पदार्थ हो उसे क्या कहते हैं?
अनाज या रेत छानने पर नीचे गिरा पदार्थ उपयोगी होता है जबकि मेवा आदि छानने पर ऊपर रह गए बड़े दाने अधिक कीमती होते हैं।
छानन का क्या मतलब है?
क्या जलज और जलद की तरह छानने के लाए गए पदार्थ को छानज, छानने के बाद मिले पदार्थ को छानद और शेष पदार्थ को छानन कहना उचित होगा?
*
नवगीत
संसद-थाना
जा पछताना।
जागा चोर, सिपाही सोया
पाया थोड़ा, ज्यादा खोया
आजादी है
कर मनमाना।
जो कुर्सी पर बैठा-ऐंठा
ताश समझ जनता को फेंटा
मत झूठों को
सच बतलाना।
न्याय तराजू थामे अंधा
काले कोट कर रहे धंधा
हो अन्याय
न तू चिल्लाना।
बदमाशों के साथ प्रशासन
लोकतंत्र है महज दु:शासन
चूहा बन
मनमाना खाना।
पंडा-डंडा, झंडी-झण्डा
शाकाहारी है खा अंडा
प्रभु को दिखा
भोग खुद खाना।
14.12.2016
***
एक दोहा-
चीका, बळी, फेदड़ी, तेली, खिजरा, खाओ खूब
भारत की हर भाषा बोलो, अपनेपन में डूब
***
उत्तर प्रदेश डिप्लोमा इंजीनियर्स महासंघ की स्मारिका १९८८ में प्रकाशित मेरे हाइकु
१.
ईंट रेट का
मन्दिर मनहर
देव लापता
*
२.
क्या दूँ मीता?
भौतिक सारा जग
क्षणभंगुर
*
गोली या तीर
सी चुभन गंभीर
लिए हाइकु
*
स्वेद-गंग है
पावन सचमुच
गंगा जल से
*
पर पीड़ा से
अगर न पिघला
तो मानव क्या?
*
मैले मन को
उजला तन क्यों
देते हो प्रभु?
*
चाह नहीं है
सुख की दुःख
साथी हैं सच्चे
*
मद-मदिरा
मत मुझे पिला, दे
नम्र भावना
*
इंजीनियर
लगा रहा है चूना
क्यों खुद को ही?
***
नवगीत
*
शब्दों की भी मर्यादा है
*
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा
क्यों उल्लास-ख़ुशी हुडदंगा?
शब्दों का मत दुरूपयोग कर.
शब्द चाहता यह वादा है
शब्दों की भी मर्यादा है
*
शब्द नाद है, शब्द ताल है.
गत-अब-आगत, यही काल है
पल-पल का हँस सदुपयोग कर
उत्तम वह है जो सादा है
शब्दों की भी मर्यादा है
*
सुर, सरगम, धुन, लय, गति-यति है
समझ-साध सदबुद्धि-सुमति है
कर उपयोग न किन्तु भोग कर
बोझ अहं का नयों लादा है?
शब्दों की भी मर्यादा है
१४-१२-२०१६
***
व्यंग्य गीत
*
बंदर मामा
चीन्ह -चीन्ह कर
न्याय करे
*
जो सियार वह भोगे दण्ड
शेर हुआ है अति उद्दण्ड
अपना-तेरा मनमानी
ओह रचे वानर पाखण्ड
जय जय जय
करता समर्थ की
वाह करे
*
जो दुर्बल वह पिटना है
सच न तनिक भी पचना है
पाटों बीच फँसे घुन को
गेहूं के सँग पिसना है
सत्य पिट रहा
सुने न कोई
हाय करे
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निर्धन का धन राम हुआ
अँधा गिरता खोद कुँआ
दोष छिपा लेता है धन
सच पिंजरे में कैद सुआ
करते आप
गुनाह रहे, भरता कोई
विवश मरे
१२.१२. १५
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नवगीत:
नवगीतात्मक खंडकाव्य रच
महाकाव्य की ओर चला मैं
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कैसा मुखड़ा?
लगता दुखड़ा
कवि-नेता ज्यों
असफल उखड़ा
दीर्घ अंतरा क्लिष्ट शब्द रच
अपनी जय खुद कह जाता बच
बहुत हुआ सम्भाव्य मित्रवर!
असम्भाव्य की ओर चला मैं
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मिथक-बिम्ब दूँ
कई विरलतम
निकल समझने
में जाए दम
कई-कई पृष्ठों की नवता
भारी भरकम संग्रह बनता
लिखूं नहीं परिभाष्य अन्य सा
अपरिभाष्य की ओर चला मैं
.
नवगीतों का
मठाधीश हूँ
अपने मुँह मिट्ठू
कपीश हूँ
वहं अहं का पाल लिया है
दोष थोपना जान लिया है
मानक मान्य न जँचते मुझको
तज अमान्य की ओर चला मैं
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नवगीत:
निज छवि हेरूँ
तुझको पाऊँ
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मन मंदिर में कौन छिपा है?
गहन तिमिर में कौन दिपा है?
मौन बैठकर
किसको गाऊँ?
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हुई अभिन्न कहाँ कब किससे?
गूँज रहे हैं किसके किस्से??
कौन जानता
किसको ध्याऊँ?
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कौन बसा मन में अनजाने?
बरबस पड़ते नयन चुराने?
उसका भी मन
चैन चुराऊँ?
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दोहा
हहर हहर कर हर रही, लहर-लहर सुख-चैन
सिहर-कहर चुप प्राण-मन, आप्लावित हैं नैन
१४-१२-२०१४

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