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सोमवार, 7 अक्टूबर 2024

अक्टूबर ७, नवगीत, समय, दोहा, हिंदी ग़ज़ल, सरस्वती, मुक्तिका, माँ-पापा, पोयम

सलिल सृजन अक्टूबर ७
*
भारत की भाषाएँ
आधिकारिक भाषाएँ
संघ-स्तर पर हिन्दी, अंग्रेज़ी
भारत का संविधान आठवीं अनुसूची
असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, संथाली,तमिल, तेलुगू, उर्दू
केवल राज्य-स्तर
गारो, गुरुंग, खासी, कोकबोरोक, लेप्चा, लिंबू, मंगर, मिज़ो, नेवारी, राइ, शेर्पा, सिक्किमी, सुनवार, तमांग
प्रमुख अनौपचारिक भाषाएँ दस लाख से ऊपर बोली जाने वाली
अवधी, बघेली, बागड़ी, भीली, भोजपुरी, बुंदेली, छत्तिसगढ़ी, ढूंढाड़ी, गढ़वाली, गोंडी, हाड़ौती, हरियाणवी, हो, कांगडी, खानदेशी, खोरठा, कुमाउनी, कुरुख, लम्बाडी, मगही, मालवी, मारवाड़ी, मेवाड़ी, मुंडारी, निमाड़ी, राजस्थानी, सदरी, सुरुजपुरी, तुलु, वागड़ी, वर्हाड़ी
१ लाख – १० लाख बोली जाने वाली
आदी, अंगामी, आओ, दिमशा, हाल्बी, कार्बी, खैरिया, कोडावा, कोलामी, कोन्याक, कोरकू, कोया, कुई, कुवी, लद्दाखी, लोथा, माल्टो, मिशिंग, निशी, फोम, राभा, सेमा, सोरा, तांगखुल, ठाडो
***
मुक्तिका
हुआ है आप बेघर घर, घिरा जब से मकानों से।
घराने माँगते हैं रहम अब तो बेघरानों से।।
कसम खाई कहेगा सच, सरासर झूठ बोलेगा।
अदालत की अदा लत जैसी, बू आती बयानों से।।
कहीं कोई, कहीं कोई, कहीं कोई करे धंधा
खुदा रब ईश्वर हमको बचाना इन दुकानों से।।
कहीं एसिड, कहीं है रेप-मर्डर, आशिकों पे थू।
फरेबों में न आना, दूर रहना निगहबानों से।।
ज़माना आ गया लिव इन का, है मरने से भी बदतर।
खुदाया छुड़ाना ये लत हमारे नौजवानों से।।
कहीं ये टैक्स लेकर बादलों को मार न डालें।
खुदा महफूज़ रक्खे आसमां को हाकिमानों से।।
चलाती हैं कुल्हाड़ी आप अपने पैर पर रस्में।
बचे इंसान खुद मजहबपरस्ती से, 'मशानों से।।
७-१०-२०२२
***
शारद वंदना
*
सरला तरला मति दे शारद, प्रखर सुशीला बुद्धि सदा।
अपना सपना छाया तेरी, निशि-वासर शशि मुकुल विभा।।

सहित मंजरी इला-अर्चना, नेह नर्मदा  तट पर आ।
नवनीता इंदिरा निरूपा, ललिता सँग हो शांतिप्रदा।।

देवी देवी के जस गाए, भक्त लँगूरा  भक्ति करें।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, संग जवारे भेंट धरें।।

विहँस मुकुल शीतला भवानी, अरुणा दें जग तिमिर हरें।
तनुजा बन संतोष शांति दें, हो अर्जिता कीर्ति भरपूर।।

छंद साधना संजीवित हो, आशा किरण मिले भरपूर।
पुष्पा जीवन बगिया सुषमा, पूनम सम राजीवित नूर।।

मन्वतर अंचित मयंक सम, हों प्रियंक हम भक्त सदा।
तुम्हीं गीतिका तुम्हीं अंबिका, दीक्षा दो हों खुदी खुदा।।

कंठ कंठ को गीत मिले माँ, पाखी शब्द शब्द हो माँ।
भाव विनीता सहित मनीषा,  ।।
*
माँ सरस्वती के द्वादश नाम
माँ सरस्वती के स्तोत्र, मन्त्र, श्लोक याद न हो तो श्रद्धा सहित इन १२ नामों का जप करें -
हंसवाहिनी बुद्धिदायिनी भारती।
गायत्री शारदा सरस्वती तारती।।
ब्रह्मचारिणी वागीश्वरी! भुवनेश्वरी!
चंद्रकांति जगती कुमुदी लो आरती।।
***
मुक्तिका
संजीव
*
उम्मीदों का आसमान
है कोशिश से भासमान
सूर्य परिश्रम का उगे
कीर्ति पखेरू करे गान
पैर जमीं पर जमाकर
हाथों में ले ले वितान
ले सिकोड़ मत पंखों को
भर नभ में ऊँची उड़ान
सलिल प्यास हर बहता चल
सब प्यासे तुझको समान
पुष्पांशी माँ चरणों चढ़
हिंदी हित मंज़िल महान
संजीवित हर जीव रहे
संकल्पित हो करे ध्यान
***
हिंदी की शब्द सामर्थ्य
*
प्रभु के हों तो "चरण"
आगे बढ़े तो "क़दम"
चिन्ह छोड़े तो "पद"
प्रहार करे तो 'पाद'
बाप की हो तो "लात"
अड़ा दो तो "टाँग"
फूलने लगें तो "पाँव"
भारी हो तो "पैर"
पिराने लगे तो ''गोड़''
गधे की पड़े तो "दुलत्ती"
घुँघरू बाँध दो तो "पग"
भरना पड़े तो ''डग''
खाने के लिए "टंगड़ी"
खेलने के लिए "लंगड़ी"
***
विमर्श
दुर्गा पूजा में सरस्वती की पूजा का विधान ?
*
बंगला भाषी समाज में दुर्गा पूजा में माँ दुर्गा की प्रतिमा के साथ भगवान शिव,गणेशजी,लक्ष्मीजी, सरस्वतीजी और कार्तिक जी की पूजा पूरे विधि-विधान के साथ की जाती है। मध्य तथा उत्तर भारत यह प्रथा नहीं है।
श्रीदुर्गासप्तशती पाठ (गीताप्रेस, गोरखपुर) के पंचम अध्याय, श्लोक १ के अनुसार -
ॐ घण्टाशूलहलानि शंखमूसले चक्रं धनुसायकं हस्ताब्जैर्धतीं घनान्तविलसच्छीतांशुतुल्य प्रभां।
गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीं।।
अर्थात महासरस्वती अपने कर कमलों घण्टा, शूल, हल,शंख,मूसल,चक्र,धनुष और बाण धारण करती हैं। शरद ऋतु के शोभा सम्पन्न चन्द्रमा के समान जिनकी मनोहर कांति है, जो तीनों लोकों की आधारभूता और शुम्भ आदि दैत्यों का नाश करने वाली हैं तथा गौरी के शरीर से जिनका प्राकट्य हुआ है। पंचम अध्याय के प्रारम्भ में ही निम्नलिखित एक श्लोक के द्वारा इस बात का ध्यान किया गया है।
पंचम अध्याय के ऋषि रूद्र, देवता महासरस्वती, छंद अनुष्टुप, शक्ति भीमा, बीज भ्रामरी, तत्व सूर्य है। यह अध्याय सामवेद स्वरूप कहा गया है। दुर्गा स्पृशति के उत्तर चरित्र के पथ में इसका विनियोग माता सरस्वती की प्रसन्नता के लिए ही किया जाता है।
ईश्वर की स्त्री प्रकृति के तीन आयाम दुर्गा(तमस-निष्क्रियता), लक्ष्मी(रजस-जुनून,क्रिया) तथा सरस्वती (सत्व-सीमाओं को तोड़ना,विलीन हो जाना) है।जो ज्ञान की वृद्धि के परे जाने की इच्छा रखते हैं, नश्वर शरीर से परे जाना चाहते हैं, वे सरस्वती की पूजा करते हैं। जीवन के हर पहलू को उत्सव के रूप में मनाना महत्वपूर्ण है। हर अच्छे भावों से जुड़े रहना अच्छी बात है।
विभिन्न मतों में कहीं न कहीं कुछ समानताएँ भी हैं। दुर्गापूजा में माँ के साथ उनकी सभी सन्तानों और पति की भी पूजा होती है। इसका कारण यह है कि दैत्यों के विनाश में इनका तथा अन्य देवी-देवताओं का भी साथ था। सभी देवताओं की एक साथ पूजा होने के कारण ही इस पूजा को 'महापूजा' कहा गया है। साधारणतः इसे महाषष्ठी, महासप्तमी, महाष्टमी, महानवमी, महादशमी के नाम से जाना जाता है।
वस्तुत: लंका युद्ध के समय भगवान राम ने सिर्फ माँ दुर्गा की पूजा की थी। कालांतर में ऐसा माना गया कि माँ दुर्गा अपने मायके आती हैं तो साथ में अपने संतान और पति को भी लातीं हैं या संतान उनसे मिलने आतीहैं, इसलिए सबकी पूजा एक साथ की जाने लगी। यह पूजा बहुत बड़ी पूजा है और इतनी बड़ी पूजा में देवी-देवताओं के आवाहन के लिए बुद्धि, ज्ञान, वाकशक्ति, गायन, नर्तन आदि की आवश्यकता होती है। इनकी अधिष्ठात्री शक्ति होने के नाते भी माँ सरस्वती की पूजा की जाती है।
स्पष्ट है कि माँ दुर्गा की पूजा में अन्य देवी-देवताओं के साथ सरस्वती जी की पूजा बहुत ही महत्वपूर्ण और सार्थक है। इस स्वस्थ्य परंपरा को अन्यत्र भी अपनाया जाना चाहिए।
यह भी उल्लेखनीय है कि कुछ सरस्वती मंदिरों को शक्ति पीठ की मान्यता प्राप्त है। वहाँ सरस्वती पूजन दुर्गा पूजन की ही तरह किया जाता है और बलि भी दी जाती है। ऐसे मंदिरों में मैहर का शारदा मंदिर प्रमुख है जिन्हें एक ओर आल्हा-ऊदल ने शक्ति की रूप में आराधा तो दूसरी ओर उस्ताद अलाउद्दीन खान ने सारस्वत रूप में उपासा।
***
महामानव अमरनाथ जी को प्रणतांजलि
*
परमादरणीय
सादर प्रणाम।
आपके उपकार अनगिन
किस तरह आभार हो।
शीश नत है
तव चरण में
प्रणति मम स्वीकार हो।
मातृवत शाकुंतली आशीष
निधि अक्षय मिली।
योजना क्या ईश्वर की
प्रगति सम कलिका खिली।
क्या न पाया आपसे?
क्या क्या गिनूँ ?
सीमा नहीं।
श्वास में, प्रश्वास में
जीता सदा
भूला नहीं।
चाहता भी नहीं भ्राता
उऋण होना आपसे।
वाष्प बन बाधा उड़ें सब
अमरनाथी ताप से।
पुण्य फल सत्कर्म का
आशीष पाया आपका।
दूसरा कोई न पाया
नर कहीं इस नाप का।
हर जनम में
आपके आशीष की
छाया गहूँ।
तोतली बोली न जाने
प्रणति मैं कैसे कहूँ?
मतिमंद
संजीव
७-१०-२०२१
***
प्रणति-गीत
*
शत-शत नमन पूज्य माँ-पापा
यह जीवन है
देन तुम्हारी.
*
वसुधा-नभ तुम, सूर्य-धूप तुम
चंद्र-चाँदनी, प्राण-रूप तुम
ममता-छाया, आँचल-गोदी
कंधा-अँगुली, अन्न-सूप तुम
दीप-ज्योति तुम
'मावस हारी
*
दीपक-बाती, श्वास-आस तुम
पैर-कदम सम, 'थिर प्रयास तुम
तुमसे हारी सब बाधाएँ
श्रम-सीकर, मन का हुलास तुम
गयी देह, हैं
यादें प्यारी
*
तुममें मैं था, मुझमें तुम हो
पल-पल सँग रहकर भी गुम हो
तब दीखते थे आँख खोलते
नयन मूँद अब दीखते तुम हो
वर दो, गहें
विरासत प्यारी
*
रहे महकती सींचा जिसको
तुमने वह
संतति की क्यारी
७.१०.२०१८
***
हिंदी ग़ज़ल
*
ब्रम्ह से ब्रम्हांश का संवाद है हिंदी ग़ज़ल।
आत्म से परमात्म की फ़रियाद है हिंदी ग़ज़ल।।
*
मत गज़ाला-चश्म कहना, यह कसीदा भी नहीं।
जनक-जननी छन्द-गण, औलाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
जड़ जमी गहरी न खारिज़ समय कर सकता इसे
सिया-सत सी सियासत, मर्याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
भार-पद गणना, पदांतक, अलंकारी योजना
दो पदी मणि माल, वैदिक पाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
सत्य-शिव-सुन्दर मिले जब, सत्य-चित-आनंद हो
आsत्मिक अनुभूति शाश्वत, नाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
नहीं आक्रामक, न किञ्चित भीरु है, युग जान ले
प्रात कलरव, नव प्रगति का वाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धूल खिलता फूल, वेणी में महकता मोगरा
छवि बसी मन में समाई याद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
धीर धरकर पीर सहती, हर्ष से उन्मत्त न हो
ह्रदय की अनुभूति का, अनुवाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
*
परिश्रम, पाषाण, छेनी, स्वेद गति-यति नर्मदा
युग रचयिता प्रयासों की दाद है हिंदी ग़ज़ल ।।
***
मुक्तक
चुप्पियाँ बहुधा बहुत आवाज़ करती हैं
बिन बताये ही दिलों पर राज करती हैं
बनीं-बिगड़ी अगिन सरकारें कभी कोई
आम लोगों का कहो क्या काज करती हैं?
***
दोहा सलिला
*
माँ जमीन में जमी जड़, पिता स्वप्न आकाश
पिता हौसला-कोशिशें, माँ ममतामय पाश
*
वे दीपक ये स्नेह थीं, वे बाती ये ज्योत
वे नदिया ये घाट थे, मोती-धागा पोत
*
गोदी-आंचल में रखा, पाल-पोस दे प्राण
काँध बिठा, अँगुली गही, किया पुलक संप्राण
*
ये गुझिया वे रंग थे, मिल होली त्यौहार
ये घर रहे मकान वे,बाँधे बंदनवार
*
शब्द-भाव रस-लय सदृश, दोनों मिलकर छंद
पढ़-सुन-समझ मिले हमें, जीवन का आनंद
*
नेत्र-दृष्टि, कर-शक्ति सम, पैर-कदम मिल पूर्ण
श्वास-आस, शिव-शिवा बिन, हम रह गये अपूर्ण
*
भूमिपुत्र क्यों सियासत, कर बनते हथियार।
राजनीति शोषण करे, तनिक न करती प्यार।।
*
फेंक-जलाएँ फसल मत, दें गरीब को दान।
कुछ मरते जी सकें तो, होगा पुण्य महान।।
*
कम लागत हो अधिक यदि, फसल करें कम दाम।
सीधे घर-घर बेच दें, मंडी का क्या काम?
*
मरने से हल हो नहीं, कभी समस्या मान।
जी-लड़कर ले न्याय तू, बन सच्चा इंसान।।
*
मत शहरों से मोह कर, स्वर्ग सदृश कर गाँव।
पौधों को तरु ले बना, खूब मिलेगी छाँव।।
*
७.१०.२०१८
***
POEM
O MY FRIEND
SANJIV VERMA "SALIL"
*
Dearest!
come along
live with me
share the joys and
sorrows of life.
Hand in hand and
the head held high
let's walk together
to win the ultimate goal.
I admit
I'm quite alone and
weak without you.
You are no better
without me.
But remember
to get Shiva
Shav becomes Shiv
and sings the song of creation
HE adorns this universe
Himself.
Bulid a new future
as soon as
reaches the Goal
select a new one.
You created a universe
out of nothing
and tended your breath
with untiring love.
Even when it was
Amavasya- the darkest night
you worshipped full moon.
Always wished more
and more achievements
to set new goals.
Collect all your sources
and sing the songs
of new creation.
Keep on hoping
again and again.
Develop a thirst
and finally be contended.
Let your arms be
as vast as sky,
you only need to advance
and the formless
will assume form
to create a new universe.
O Dearest!
Come along.
7.4.2014
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
७-१०-२०१०
***

रविवार, 29 सितंबर 2024

सितंबर २९, बुंदेली, प्रभा, मुक्तक, राम, समय, भवानी छंद, हरिहर झा, एकाग्रता, ध्यान

सलिल सृजन सितंबर २९ 

विमर्श : एकाग्रता और ध्यान
लोग एकाग्रता (Concentration) को ध्यान (Meditation) समझ लेते हैं, जबकि दोनों अलग है। अधिकांश लोग ध्यान नहीं, एकाग्रता का ही अभ्यास करते हैं। किसी संगीत को सुनना, किसी बिंदु पर मन को केंद्रित करना, किसी प्रकाश पर मन को टिकाना, ये सब एकाग्रता है, ध्यान नहीं है। योग ८ अंगों में छठवाँ अंग होता है धारणा। धारणा के अंतर्गत ही एकाग्रता आता है। उसके बाद योग का सातवाँ अंग है ध्यान।
सब तरफ से मन को हटाकर एक बिंदु पर एकत्र करन एकाग्रता है। ध्यान वह स्थिति है जहाँ मन होता ही नहीं, सिर्फ जागरूकता होती है। ध्यान में आप मन के पार चले जाते हैं। एकाग्रता का अभ्यास भी बुरा नहीं है, जिन्हें अपनी याददाश्त बढ़ानी हैं, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, बहुत जगह जिनका मन भटकता है उनके लिए एकाग्रता ठीक है पर एकाग्रता को ही ध्यान मान लेना गलत है।
त्राटक, मंत्र जप, नाम जप, विशेष ध्वनि, प्रतिमा, चित्र आदि पर मन को एकाग्र कर देना एकाग्रता है। आप एकाग्रता को समझना चाहते हैं तो टॉर्च की रौशनी से समझे। जैसे टॉर्च की रौशनी एक दिशा में जाती है वैसे ही एकाग्रता की एक दिशा होती है। एक दिशा में केंद्रित हो जाना, टॉर्च की लाइट के समान एकाग्रता है। कमरे में लगा बल्ब है ध्यान के समान, सब तरफ प्रकाशित कुछ भी अँधेरा नहीं। उस रोशनी से पूरा कमरा प्रकाशित होता है। जब आप पूरी तरह से प्रकाशित और जागरूक हो जाते हैं, जब आप शुद्ध चेतन परमात्मा से जुड़ जाते हैं, वह हो गया ध्यान। चेतना की अवस्था जहाँ पर मन ना हो, वह है ध्यान। अक्सर लोग एकाग्रता का अभ्यास ध्यान समझ करते रहते हैं और परिणाम न मिलने पर निराश होते रहते हैं। ध्यान और एकाग्रता में भेद है। एकाग्रता को ही ध्यान मानकर लोग ध्यान के लाभ से वंचित रह जाते हैं। जब तक आप वास्तव में ध्यान में नही जाएँगे, आप ध्यान के लाभ कैसे ले सकते हैं?
गहरे ध्यान में क्या होता है...
जब हम गहरे ध्यान में प्रवेश करते हैं तो भीतर की सारी ऊर्जा, सहस्त्रार चक्र पर आकर स्थिर हो जाती है। तब परम शांति और आनंद की वर्षा प्रारंभ हो जाती है। समय का बोध समाप्त हो जाता है और व्यक्ति मन के पार अपने आत्म स्वरूप में स्थित हो जाता है। न तो भूतकाल के विचार आते है, न तो कोई भविष्य की चिंता सताती है। इस स्थिति में व्यक्ति वर्तमान के एक-एक क्षण का आनंद लेता है।
गहरे ध्यान में जैसे ही निर्विचार स्थिति आती है, हमारी ऊर्जा नीचे के चक्रों को शुद्ध करते हुए सहस्त्रार की तरफ गति करती है। लगातार इस स्थिति में बने रहने से चक्रों का असंतुलन भी दूर होने लगता है और चक्रों की शुद्धि भी प्रारंभ हो जाती है। पर कितने दिन में कोई चक्र संतुलन को प्राप्त करेगा या चक्र जाग्रत हो उठेगा ये कहना कठिन है क्योंकि हर किसी के चक्र का असंतुलन और अशुद्धि अलग अलग होती है।
प्राण अनसुने नाद से आपूरित हो उठते हैं। रोआं-रोआं आनंद की पुलक में कांपने लगता है। जगत प्रकाश-पुंज मात्र प्रतीत होता है। इंद्रियों के लिए अनुभूतियों के द्वार खुल जाते हैं। प्रकाश में सुगंध आती है। सुगंध में संगीत सुनाई पड़ता है। संगीत में स्वाद आता है। स्वाद में स्पर्श मालूम होता है। तर्क की सभी कसौटियां टूट जाती हैं। कुछ भी समझ में नहीं आता है और फिर भी सब सदा से जाना हुआ मालूम होता है। कुछ भी कहा नहीं जाता है और फिर भी सब जीभ पर रखा प्रतीत होता है। विगत जन्मों के भेद खुलने लगते हैं, चारों ओर से दिव्यता का प्रकाश आने लगता है। ऐसा व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति की ऊर्जा का स्तर, उसका आभा मंडल उसके मन के विचार भी देख सकता है। इस अवस्था को शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता, क्योंकि ये शब्दातीत अवस्था है, जिसने इसे पाया वो इसे शब्दों में ढालने में असमर्थ ही रहा है, ये अनुभव तो इस अवस्था में पहुंच कर ही हो सकते हैं।
ध्यान की पूर्णता समाधि के द्वार खोल देती है। ध्यानी व्यक्ति हजारों में अलग पहचान आ जाता है। उसकी ऊर्जा और आकर्षण अनायास ही लोगों को आकर्षित कर जाते हैं। ऐसे व्यक्ति की वाणी में परम शांति और शब्दों के बीच के मौन को भी सुना जा सकता है। ऐसे व्यक्ति के सान्निध्य मात्र से ही ऊर्जा और दिव्यता का अनुभव होने लगता है। ऐसा व्यक्ति नींद में भी जागृत रहता है और उसकी कार्यक्षमता सामान्य लोगों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ जाती है। ऐसा व्यक्ति मानव से महामानव की श्रेणी में आ जाता है। ऐसा व्यक्ति स्वयं को तो प्रकाशित कर ही लेता है, दूसरों के जीवन को प्रकाशित करने का सामर्थ्य भी प्राप्त कर लेता है। ऐसा व्यक्ति साधक नहीं रह जाता, सिद्ध हो जाता है।
***
नवगीत
*
बाबूजी!
धीरे चलना
राह विराजी भवानी
तुम्हें रहीं हैं टेर।
भोग लगाकर पुण्य लो,
करो न नाहक देर।।
अनदेखा कर तुम इन्हें
खुद को
मत छलना
मैडम जी!
धीरे चलना
मुझे देखकर जान लो,
कितना हुआ विकास?
हूँ शोषण की गवाही
मुझसे दूर उजास
हाथ बढ़ाकर चाहती
मैं आगे बढ़ना
अफसर जी!
धीरे चलना
मेरा जनक न पूछो
है तुम सा ही सभ्य
जननी भी तुम सी ही
नहीं अप्राप्य-अलभ्य
मूर्ति न; जीवित पूजो
धुला मुझे पलना
नेता जी!
धीरे चलना
२९-९-२०१९
***
कृति चर्चा:
नवगीतीय परिधान में 'फुसफुसाते वृक्ष कान में'
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण: फुसफुसाते वृक्ष कान में, नवगीत संग्रह, हरिहर झा, प्रथम संस्करण २०१८, आई एस बी एन ९७८-९३-८७६२२-९०-६, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द जैकेट सहित, पृष्ठ १६५, मूल्य ३५०/-, अयन प्रकाशन, १/२० महरौली नई दिल्ली ११००३०, चलभाष ९८१८९८८६१३]
*
विश्ववाणी हिंदी ने देववाणी संस्कृत से विरासत में प्राप्त व्याकरण व पिंगल को देश-काल-परिस्थितियों और मानवीय आवश्यकताओं के अनुरूप परिवर्तित-संवर्धित करते हुए पुरातन विधाओं को नव रूपाकार देकर ग्राह्य बनाये रखने का जो सारस्वत अनुष्ठान सतत सम्पादित किया है उसकी गीत विधायी प्राप्ति नवगीत है। लोकमांगल्य के गिरि शिखर से सतत प्रवाहित पारंपरिक साहित्यिक गीत, लोकगीत और जनगीत की त्रिवेणी ने विसंगतियों की शिलाओं, विडंबनाओं के गव्हरों और सामाजिक संघर्षों के रेगिस्तानों को पार करते हुए कलकल निनादिनी नर्मदा के निर्मल प्रवाह की तरह जनहितैषिणी होकर नवगीत विशेषण को शिरोधार्य किया जो रूढ़ होकर संज्ञा रूप मे व्यवहृत हो रहा है।
नवगीत के उद्गम और तत्कालीन मान्यताओं को पत्थर की लकीर मानकर परिवर्तनों को नकारने और हेय सिद्ध करने के आदी संकीर्णतावादी इन नवगीतों का छिन्द्रान्वेषण कर स्वीकारने में हिचकें तो भी यह सत्य नकारा नहीं जा सकता कि नवगीत दिनानुदिन नई-नई भावमुद्राएँ धारणकर नव आयामों में खुद को स्थापित करता जा रहा है। हरिहर जी के नवगीत मुखड़ों-अंतरों में युगीन यथार्थ को पिरोते समय पारंपरिक बिंबों, प्रतीकों और मिथकों से मुक्त रहकर अपनी राह आप बनाते हैं। 'आइना दिखाती' शीर्षक नवगीत का मुखड़ा 'तूफान, दे थपकी सुलाये, / डर लगे तो क्या करें? /विष में बुझे सब तीर उर को / भेद दें तो क्या करें?' आम आदमी के सम्मुख पल-पल उपस्थित होती किंकर्तव्यविमूढ़ता को इंगित करता है।
स्वराज्य के संघर्ष और उसके बाद के परिदृश्य में लोकतंत्र में 'लोक' के स्थान पर 'लोभ',प्रजातंत्र में 'प्रजा' के स्थान पर 'सत्ता', गणतंत्र में 'गण' के स्थान पर 'तंत्र' को देखकर दिन-ब-दिन मुश्किल होती जाती जिन्दगी की लड़े में हारता सामान्य नागरिक सोचने के लिए विवश है- 'उलट गीता कैसे हुई, / अर्जुन उधर सठिया रहे / भ्रमित है धृतराष्ट्र क्यों / संजय इधर बतिया रहे / दौड़ते टीआरपी को, / बेचते ईमान।' (सुर्ख़ियों में कहाँ दिखती, खग-मृग की तान।) खग-मृग के माध्यम से जन-जीवन से गुम होती 'तान' अर्थात आनंद को बखूबी संकेतित किया है कवि ने। अर्जुन, धृतराष्ट्र और संजय जैसे पौराणिक चरित्रों को आधुनिक परिवेश में चिन्हित कर सकना हरिहर जी के चिंतन सामर्थ्य का परिचायक है। 'वो बहेलिया' शीर्षक नवगीत में एक और उदाहरण देखें- 'दुर्योधन का अहंकार तू / डींग मारता ऊँची ऊँची, है मखौलिया।' मिथकों के प्रयोग कवि को प्रिय हैं क्योंकि वे 'कम शब्दों में अधिक' कह पाते हैं- 'जीवन जैसे खुद ब्रह्मा ने / दुनिया नई रची / राह नई, गली अंधियारी / मन में कहाँ बची/ तमस भले ही हो ताकतवर, / कभी न दाल गले। / किसने इंद्र वरुण अग्नि को, / आफत में डाला / सौलह हजार ललनाओं पर / संकट का जाला / नरकासुर का दर्प दहाड़ा / शक्ति का आभास / दुर्गति रावण जैसी ही तो / बोलता इतिहास / ज्योत जली, यह देखा / अचरज़ लौ की छाँव तले।'
अपसंस्कृति की शिकार नई पीढ़ी पर व्यंग्य करता कवि अंगरेजी के वर्चस्व को घातक मानता है- 'चोंच कहाँ, / चम्मच से तोते सीख गये खाना। / भूले सब संस्कार, समझ, / फूहड़ता की झोली / गम उल्लास निकलते थे, / बनी गँवारू बोली / गिटपिट अब चाहें, / अँगरेजी, में गाल बजाना।' जन-जीवन में व्यवस्था और शांति का केंद्र नारी अपनी भूमिका के महत्व को भुलाकर घर जोड़ने की जगह तोड़ने की होड़ में सम्मिलित दिखती है- ' रतनारी आँखे मौन, / ज्यों निकले अंगार / कुरूप समझे सबको / किये सोला सिंगार। पल में बुद्ध बन जाती ..... पल में होती क्रुद्ध / आलिंगन अभिसार, / लो तुरत छिड़ गया युद्ध / रूठी फिर तो खैर नहीं, / विकराल रूपा जोगन' स्वाभाविक ही है कि ऐसे दमघोंटू वातावरण में कुछ लिखना दुष्कर हो जाए- ' गलघोटूँ कुछ हवा चली,/ रोये कलि, ऊँघे बगिया / चूम लिया दौड़ फूलों को, / काँटा तो ठहरा ठगिया/ दरार हर छन्द में पाऊँ सुधि न पाये क्यों रचयिता / कैसे लिखूँ मैं कविता।'
पारिस्थितिक विषमताओं के घटाटोप अँधेरे में भे एकवि निराश नहीं होता। वह 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' की विरासत का वाहक है, उजियारे की किरण खोज ही लेता है- 'नन्हा बालक या नन्ही परी / भाये कचोरी या मीठी पुरी / लुभाती बोली में कहे मम्मी / रबड़ी बनी है यम्मी यम्मी / घर में कितना उजाला है / फरिश्ता आने वाला है। अपने कष्टों को भूलकर अन्यों की पीड़ा कम करने को जीवनोद्देश्य मनेवाली भारतीय संस्कृति इन गीतों में यत्र-तत्र झलकती है- 'भूख लगी, / मिले न रोटी / घास हरी चरते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं। / मिली बिछावट काँटों की / लगी चुभन कुछ ऐसे / फूल बिछाते रहे, दर्द / छूमंतर सब कैसे / भूले पीड़ा , औरों का संकट हर लेते हैं / झरते आँसू पी पी कर, दिल हल्का करते हैं।'
कबीर ने अपने समय का सच बयान करते हुए कहा था- 'यह चादर सुर नर मुनि ओढ़ी / ओढ़ के मैली कीन्ही चदरिया / दास कबीर जतन से ओढ़ी / ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया।' हरिहर जी 'मैली हो गई बहुत चदरिया' कहते हुए कबीर को फिर-फिर जीते हैं। कबीर और लोई के मतभेद जग जाहिर हैं। कवि इसी परंपरा का वाहक है। देखें- घर में भूख नहीं होती, / किस-किस के संग खाते हो?/ / चादर अपनी मैली करके / नाम कबीरा लेते हो?' स्त्री-विमर्श के इस दौर में पुरुष-विमर्श के बिना पुरुषों की दुर्दशा हकीकतबयानी है- 'मैं झाँसी की रानी बन कर/ तुम्हें मजा चखाऊँगी / दुखती रग पर हाथ रखूँ / हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी / पति-परमेश्वर समझ लिया,/ पुरूष-प्रभुता के रोगी! / सारी अकड़ एक मिनिट में / टाँय टाँय यह फिस होगी / तो सुनो किट्टी-पार्टी है कल / तुम बच्चों को नहलाना।' स्त्री-पुरुष जीवन-रथ के दो पहिए हैं। दोनों को पारिवारिक दायित्वों का निर्वहन मिल-जुलकर करना होता है। बच्चों की देखभाल की सहज प्रक्रिया को सबक सिखाने की तरह प्रयोग किया जाना ठीक नहीं प्रतीत होता। 'हँस कर के तुम्हें रुलाऊँगी' में 'के' का प्रयोग अनावश्यक है जो कथ्य को शिथिल करता है।
सामाजिक वैषम्य और दहेज़ की कुरीति पर हरिहर जी ने प्रबल आघात किया है। "खुलने लगी कलाई तो क्या, बना रहेगा पुतला? / तू इतना तो बतला / तृष्णा मिटे कहाँ मृगजल से, माँगी एक पिटारी / टपके लार ससुर, देवर की, दर्द सहे बेचारी / रोती बहना, आँख फेर ली, खून हुआ क्यों पतला तू इतना तो बतला ...... ’धनिया’ आँसू पोछ न पाये, खून पिलाये ’होरी’ / श्वेत वस्त्र में दिखे न काले, धन से भरी तिजोरी / जाला करतूतों का फिर क्यों, दिखे दूर से उजला / तू इतना तो बतला।'
'समय का फेर' सब कुछ बदल देता है। 'हरि'-'हर' से बढ़कर समय के परिवर्तन का साक्षी और कौन हो सकता है? 'पोथियाँ बहुत पढ़ ली / जग मुआ, आ गई कंप्यूटरी आभा। / ज्ञान सरिता प्रवाह खलखल, जरूरी होता उसे बहना / लौ दिये की, / चाहे कभी ना, बंद तालों में जकड़ रहना / वेद ऋषियों के हुये प्राचीन / दौर अणु का कर गये ‘भाभा’। / पूर्वजों ने, / तीक्ष्ण बुद्धि से, / कैसे किया, समुद्र का मंथन / जाना पार सागर, / पाप क्यों? क्यों चाहिये किसका समर्थन / चाँद, मंगल जा रही दुनिया / राह में क्यों बन रहे खंभा।'
निरानान्दित होते जाते जीवन में आनद की खोज कवि की काव्य-रचना का उद्देश्य है। वह कहता है- 'पंडिताई में नहीं अध्यात्म, झांके ह्रदय में, फकीर /“चोंचले तो चोंचले, नहीं धर्म”, माथा फोड़ता कबीर / मूर्ख ना समझे, ईश तक पहुँचे, चाहे यज्ञ या अजान / भगवत्कृपा जिसे मिली बस, खुल गई अंदरूनी आँख / चक्र की जीवन्त ऊर्जा तक पहुँचने मिल गई लो पाँख / नाद अनहद सुन सके, तैयार हैं, भीतर खड़े जो कान।'
इन गीति रचनाओं में विचार तत्व की प्रबलता ने गीत के लालित्य को पराभूत सा कर दिया है, फलत: गीतों की गेयता क्षीण हुई है। गीत और छंद का चोली-दामन का साथ है। भारत में नवगीतों में पारंपरिक छंदों और लोकगीतों की लय के प्रयोग का चलन बढ़ा है। 'काल है संक्रांति का' में पारंपरिक छंदों के यथेष्ट प्रयोग के बाद कई नए-पुराने नवगीतकार छंदों के प्रति आकर्षित हुए हैं। नवगीतों में नए छंदों का प्रयोग और कई छंदों को एक साथ मिलकर उपयोग किया जाना भी सर्व मान्य है। हरिहर जी ने शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए छंद को अपनी भूमिका आप तय करने दी है। मात्रिक या वर्णिक छंद के बंधनों को गौड़ मानते हुए, कथ्य को प्रस्तुत करने के प्रति अधिक संवेदनशील रहे हैं। समतुकांती पंक्तियों से लयबद्धता में सहायता मिली है। कवि की कुशलता यह है कि वह छंद को यथावत रखने के स्थान पर कथ्य की आवश्यकता के अनुसार ढालता है। इन नवगीतों की रचना किसी एक छंद के विधानानुसार न होकर मुखड़े और अंतरे में भिन्न-भिन्न और कहीं-कहीं मुखड़े में भी एकाधिक छन्दों के संविलयन से हुई है।
नवगीत की नवता कथ्य और शिल्प दोनों के स्तर पर होती है। हरिहर जी ने दोनों पैमानों पर अपनी निजता स्थापित की है। प्रसाद गुण संपन्न भाषा, सरल-सहज बोधगम्य शब्दावली, मुहावरेदार कहन और सांकेतिक शैली हरिहर जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य है। सुदूर आस्ट्रेलिया में रहकर भी देश के अंदरूनी हालात से पूरी तरह अवगत रहकर उन पर सकारात्मक तरीके से सोचना और संतुलित वैचारिक अभिव्यक्ति इन नवगीतों को पठनीयता और प्रासंगिकता से संपन्न करती है। सोने की चिड़िया भारत हो जाए, जय हो हिंदी भाषा की, इंद्रधनुषी रंग मचलते, दो इन्हें सम्मान, कच्ची कोंपल की लाचारी, दर्द भारी सिसकी है, मन स्वयं बारात हुआ, निहारिकाओं ने खेल ली होली, कौन जाने शाप किसका, शहर में दीवाली, साथ नीम का, उपलब्धि, दुल्हन का सपना, बदरी डोल रही वायदों की पतंग आदि रचनाएँ समय साक्षी हैं।
इंग्लैंड निवासी विदुषी उषा राजे सक्सेना जी ने कुछ नवगीतों की पृष्ठभूमि में पुरुष की शोषक, लोभी, कामी प्रवृत्ति और स्त्री-अपराधों की उपस्थिति अनुभव की है किन्तु मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि रचनाकार ने दैनंदिन जीवन में होती कहा-सुनी को सहज रूप में प्रस्तुत किया है। इन रचनाओं में स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी नहीं परिपूरक के रूप में शब्दित हैं।
कृत्या पत्रिका की संपादिका रति सक्सेना जी ने हरिहर जी का मूल स्वर वैचारिकता मानते हुए, अतीत की उपस्थिति को वर्तमान पर भरी पड़ते पाया है। सुरीलेपन और कठोरता की मिश्रित अभिव्यक्ति इन रचनाओं में होना सहज स्वाभाविक है चूँकि जीवन धूप-छाँव दोनों को पग-पग पर अपने साथ पाता है। लन्दन निवासी तेजेंद्र शर्मा जी अपने चतुर्दिक घटती, कही-सुनी जाती बातों को इन गीतों में पाकर अनुभव करते हैं कि जैसे यह तो हमारे ही जीवन पर लिखी गयी है। स्वयं गीतकार अपनी रचनाओं में वामपंथी रुझान की अनुपस्थिति से भीगी है तथा इस कसौटी पर की जाने वाली आलोचना के प्रति सजग रहते हुए भी उसे व्यर्थ मानता है। वह पूरी ईमानदारी से कहता है "प्रवासी साहित्य पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं, उन पर टिप्पणी करने की अपेक्षा अर्धसत्य से भी सत्य को निकाल कर उससे मार्गदर्शन लेना मैं अधिक उचित समझता हूँ।" मैंने इन गीतों में शैल्पिकता पर कथ्य की भैव्यक्ति को वरीयता दी जाना अनुभव किया है। वैचारिक प्रतिबद्धता किसी विधागत रचना को कुंद करती है। हरिहर जी अपने नाम के अनुरूप बंधनों की जड़ता को तोड़ते हुए सहज प्रवाहित सलिला की तरह इन रचनाओं में अपने आप को प्रवाहित होने देते हैं।
प्रवासी भारतीयों द्वारा रचे जा रहे साहित्य विशेषत: गद्य साहित्त्य में विदेशी परिवेश प्राय: मिलता है। हरिहर जी पूरी तरह भारत में ही केन्द्रित रहे हैं। आशा है उनका अगला काव्य संग्रह रचनाओं में आस्ट्रेलिया को भी भारतीय पाठकों तक पहुँचेगा। वैश्विक समरसता के लिए अपनी जड़ों से जुड़े रहने के साथ-साथ पड़ोसी के आँगन की हवा लेते रहना भी आवश्यक है। इससे हरिहर जी के नवगीतों में शेष से भिन्नता तथा ताज़गी मिलेगी। लयबद्धता और गेयता के लिए छांदस लघु पंक्तियाँ लम्बी पंक्तियों की तुलना में अधिक सहज होती हैं।
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
दोहा सलिला
*
श्याम-गौर में भेद क्या, हैं दोनों ही एक
बुद्धि-ज्ञान के द्वैत को, मिथ्या कहे विवेक
*
राम-श्याम हैं एक ही, अंतर तनिक न मान
परमतत्व गुणवान है, आदिशक्ति रसखान
*
कृष्ण कर्म की प्रेरणा, राधा निर्मल नेह
सँग अनुराग-विराग हो, साधन है जग-देह
*
कण-कण में श्री कृष्ण हैं, देख सके तो देख
करना काम अकाम रह, खींच भाग्य की रेख
*
मुरलीधर ने कर दिया, नागराज को धन्य
फण पर पगरज तापसी, पाई कृपा अनन्य
*
आत्म शक्ति राधा अजर, श्याम सुदृढ़ संकल्प
संग रहें या विलग हों, कोई नहीं विकल्प
*
हर घर में गोपाल हो, मातु यशोदा साथ
सदाचार बढ़ता रहे, उन्नत हो हर माथ
*
मातु यशोदा चकित चित, देखें माखनचोर
दधि का भोग लगा रहा, होकर भाव विभोर
*
***
एकाक्षरी दोहा:
आनन्दित हों, अर्थ बताएँ
*
की की काकी कूक के, की को काका कूक.
काका-काकी कूक के, का के काके कूक.
*​
एक द्विपदी
*
भूल भुलाई, भूल न भूली, भूलभुलैयां भूली भूल.
भुला न भूले भूली भूलें, भूल न भूली भाती भूल.
*
यह द्विपदी अश्वावतारी जातीय बीर छंद में है
***
नवगीत:
समय पर अहसान अपना...
*
समय पर अहसान अपना
कर रहे पहचान,
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हम समय का मान करते,
युगों पल का ध्यान धरते.
नहीं असमय कुछ करें हम-
समय को भगवान करते..
अमिय हो या गरल-
पीकर जिए मर म्रियमाण.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
हमीं जड़, चेतन हमीं हैं.
सुर-असुर केतन यहीं हैं..
कंत वह है, तंत हम हैं-
नियति की रेतन नहीं हैं.
गह न गहते, रह न रहते-
समय-सुत इंसान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
*
पीर हैं, बेपीर हैं हम,
हमीं चंचल-धीर हैं हम.
हम शिला-पग, तरें-तारें-
द्रौपदी के चीर हैं हम..
समय दीपक की शिखा हम
करें तम का पान.
हम न होते तो समय का
कौन करता गान?.....
***
राम दोहावली
*
मिलते हैं जगदीश यदि, मन में हो विश्वास
सिया-राम-जय गुंजाती, जीवन की हर श्वास
*
आस लखन शत्रुघ्न फल, भरत विनम्र प्रयास
पूर्ण समर्पण पवनसुत, दशकंधर संत्रास
*
त्याग-ओज कैकेई माँ, कौसल्या वनवास
दशरथ इन्द्रिय, सुमित्रा है कर्तव्य-उजास
*
संयम-नियम समर्पिता, सीता-तनया हास
नेह-नर्मदा-सलिल है, सरयू प्रभु की ख़ास
*
वध न अवध में सत्य का, होगा मानें आप
रामालय हित कीजिए, राम-नाम का जाप
२९-९-२०१८
***
मुक्तक
सम्मिलन साहित्यकारों का सुफलदायी रहे
सत्य-शिव-सुन्दर सुपथ हर कलम आगे बढ़ गहे
द्वन्द भाषा-बोलिओं में, सियासत का इष्ट है-
शारदा-सुत हिंद-हिंदी की सतत जय-जय कहे
*
नेह नर्मदा तीर पधारे शब्ददूत हिंदी माँ के
अतिथिदेव सम मन भाते हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
भाषा, पिंगल शास्त्र, व्याकरण हैं त्रिदेवियाँ सच मानो
कथ्य, भाव, रस देव तीन हैं शब्ददूत हिंदी माँ के
*
अक्षर सुमन, शब्द-हारों से, पूजन भारत माँ का हो
गीतों के बन्दनवारों से, पूजन शारद माँ का हो
बम्बुलियाँ दस दिश में गूँजें, मातु नर्मदा की जय-जय
जस, आल्हा, राई, कजरी से, वंदन हिंदी माँ का हो
*
क्रांति का अभियान हिंदी विश्ववाणी बन सजे
हिंद-हिंदी पर हमें अभिमान, हिंदी जग पुजे
बोलियाँ-भाषाएँ सब हैं सहोदर, मिलकर गले -
दुन्दुभी दस दिशा में अब सतत हिन्दी की बजे
*
कोमल वाणी निकल ह्रदय से, पहुँच ह्रदय तक जाती है
पुलक अधर मुस्कान सजाती, सिसक नीर बरसाती है
वक्ष चीर दे चट्टानों का, जीत वज्र भी नहीं सके-
'सलिल' धार बन नेह-नर्मदा, जग की प्यास बुझाती है
२९-९-२०१८
***
कार्य शाला
कुंडलिया = दोहा + रोला
*
दर्शन लाभ न हो रहे, कहाँ लापता हूर? १.
नज़र झुकाकर देखते, नहीं आपसे दूर। २.
नहीं आपसे दूर, न लेकिन निकट समझिए १.
उलझ गयी है आज पहेली विकट सुलझिए
'सलिल' नहीं मिथलेश कृपा का होता वर्षण
तो कैसे श्री राम सिया का करते दर्शन?
२९-९-२०१६
***
गीत
*
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
*
तिमिर का नहीं भय, रवि-रश्मि अक्षय
शशि पूर्णिमा का, आभामयी- जय!
करो कल्पना की किरण का कलेवा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
बजा श्वास वीणा, आशा की सरगम
सफल साधना हो, अंतर हो पुरनम
पुष्पा कुसुम ले, करूँ वंदना नित
सुषमा सुमन की, उठाये न डेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
*
प्रणव नाद गूँजे, मन में निरंतर
करे प्रार्थना मन, संध्या सुमिरकर
'सलिल' भारती की सृजन आरती हो
जग में, यही कल प्रभु ने उकेरा
उगेगा, उगेगा, उगेगा सवेरा
प्रभा साथ हो तो मिटेगा अँधेरा
२९-९-२०१५
***
बुंदेली गीत:
पोछो हमारी कार.....
*
ड्राइव पे तोहे लै जाऊँ,
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
नाज़ुक-नाज़ुक मोरी कलाई,
गोरी काया मक्खन-मलाई.
तुम कागा से सुघड़,
कहे जग
-
'बिजुरी-मेघ' पुकार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार..... *
संग चलेंगी मोरी गुइयां,
तनक न हेरो बिनको सैयां.
भरमाये तो कहूँ राम सौं-
गलन ना दइहों दार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
*
बनो डिरेवर, हाँको गाड़ी.
कैहों सबसे बलमा अनाड़ी'.
'सलिल' संग केसरिया कुल्फी-
खैहों, करो न रार..
ओ सैयां! पोछो हमारी कार.
पोछो हमारी कार,
ओ बलमा! पोछो हमारी कार.....
२९-९-२०१०
*

शनिवार, 30 अप्रैल 2022

रासलीला, गीत, मुक्तिका, सॉनेट, मीना भट्ट, समय, हास्य, कोरोना,छंद उड़ियाना

एक रचना 
सभी मुस्कुराएँ
*
आदम का दुश्मन है, आदम ही भाई 
धरती की सचमुच अब, शामत है आई 

टैंक बम मिसाइल हैं, प्रलय का संकेत 
अमन-चैन का करते, हम ही आखेट 

पुतिन भीत नाटो से, निर्बल को मारे 
है विनाश आया अब, यूक्रेsन के द्वारे 

चैन चीन ने छीनी, कोरोना फैला 
मौत ने हजारों को, बेबस कर लीला 

भारत ही दिखा सके, राह आज भाई 
हिल-मिल हम साथ रहें, तभी है भलाई 

स्नेह सलिल अँजुरी भर, पान कर पिलाएँ 
दीपिका ले तिमिर हर, सभी मुस्कुराएँ 
छंद - उड़ियाना 
३०-४-२०२२ 
***
सॉनेट
आदिमानव
आदिमानव भूमिसुत था
नदी माता, नभ पिता कह
पवन पावक पूजता था
सलिल प्रता श्रद्धा विनत वह

उषा संध्या निशा रवि शशि
वृक्ष प्रति आभार माना
हो गईं अंबर दसों दिशि
भूख मिटने तलक खाना

छीनने या जोड़ने की
लत न उसने सीख पाली
बम बनाने फोड़ने की
उठाई थी कब भुजाली?

पुष्ट था खुश आदिमानव
तुष्ट था हँस आदिमानव
३०-४-२०२२
•••
सॉनेट
परीक्षा
पल पल नित्य परीक्षा होती
उठे बढ़े चल फिसल सम्हल कर
कदम कदम धर, विहँस पुलककर
इच्छा विजयी धैर्य न खोती।

अकरणीय क्या, क्या करना है?
खुद ही सोचो सही-गलत क्या?
आगत-अब क्या, रहा विगत क्या?
क्या तजना है, क्या वरना है?

भाग्य भोगना या लिखना है
कब किसके जैसे दिखना है
अब झुकना है, कब अड़ना है?

कोशिश फसल काटती-बोती
भाग्य भरोसे रहे न रोती
पल-पल नित्य परीक्षा होती।
ज्ञानगंगा
३०-४-२०२२
•••
मीना भट्ट जी के प्रति
जन्म दिवस पर सस्नेह
*
मीना की मीनाकारी बढ़ती जाए
नित्य मनोरम रचनाएँ गढ़ती जाए
सलिल करे अभिषेक; सफलता पग चूमे
भू पर पग रख; नभ तक हँस चढ़ती जाए
स्वागत करे बसंत; मंजरी भुज भेंटे
स्वागत गीत मुकुल लिखकर पढ़ती जाए
गीतों का रूमाल; छंद की नई छटा
पुरुषोत्तम बिंबों में ढल कढ़ती जाए
*
छाया ले आलोक विनोद करे जी भर
हो तन्मय अखिलेश विजय का तिलक करे
जय प्रकाश श्री वास्तव में दे भेंट विहँस
राजलक्ष्मी सारस्वत भंडार भरे
***
कार्यशाला
स्तंभ : रस, छंद, अलंकार
*
काहे को रोना?
कोरो ना हाथ मिला
सत्कार सखे!
कोरोना झट
भेंट शत्रु को कर
उद्धार सखे!
*
को विद? पूछे
कोविद हँसकर
विद जी भागे
हाथ समेटे
गले भी न मिलते
करें नमस्ते!
*
गीत-अगीत
प्रगीत लिख रहे
गद्य गीत भी
गीतकार जी
गीत करे नीलाम
नवगीत जी
*
टाटा करते
हाय हाय रुचता
बाय बाय भी
बाटा पड़ते
हाय हाय करते
बाय फ्रैंड जी
*
केक लाओ जी!
फरमाइश सुन
पति जी हैरां
मी? ना बाबा
मीना! बाहर खड़ा
सिपाही मोटा
*
रस - हास्य, छंद वार्णिक षट्पदी, यति ५-७-५-५-७-५, अलंकार - अनुप्रास, यमक, पुनरुक्ति, शक्ति - व्यंजना।
***
मुक्तिका muktika
*
निर्जीव को संजीव बनाने की बात कर
हारे हुओं को जंग जिताने की बात कर
nirjeev ko sanjeev banane ki baat kar
hare huon ko jang jitane ki baat kar
'भू माफिये'! भूचाल कहे: 'मत जमीं दबा
जो जोड़ ली है उसको लुटाने की बात कर'
'bhoo mafiye' bhoochal kahe: mat jameen daba
jo jod li hai usko lutane kee baat kar
'आँखें मिलायें' मौत से कहती है ज़िंदगी
आ मारने के बाद जिलाने की बात कर
aankhen milayen maut se kahtee hai zindagi
'aa, marne ke baad jilaane ki baat kar'
तूने गिराये हैं मकां बाकी हैं हौसले
काँटों के बीच फूल खिलाने की बात कर
toone giraye hain makan, baki hain hausale
kaanon ke beech fool khilane kee baat kar
हे नाथ पशुपति! रूठ मत तू नीलकंठ है
हमसे ज़हर को अमिय बनाने की बात कर
he nath pashupati! rooth mat too neelkanth hai
hmse zar ko amiy banane kee baat kar
पत्थर से कलेजे में रहे स्नेह 'सलिल' भी
आ वेदना से गंग बहाने की बात कर
patthar se kaleje men rahe sneh salil bhee
aa vedana se gng bahane kee baat kar
नेपाल पालता रहा विश्वास हमेशा
चल इस धरा पे स्वर्ग बसाने की बात कर
nepaal palta raha vishwas hamesha
chal is dhara pe swarg basane kee baat kar
३०-४-२०१५
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गीत:
समय की करवटों के साथ
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गले सच को लगा लूँ मैँ समय की करवटों के साथ
झुकाया, ना झुकाऊँगा असत के सामने मैं माथ...
*
करूँ मतदान तज मत-दान बदलूँगा समय-धारा
व्यवस्था से असहमत है, न जनगण किंतु है हारा
न मत दूँगा किसी को यदि नहीं है योग्य कोई भी-
न दलदल दलोँ की है साध्य, हमकों देश है प्यारा
गिरहकट, चोर, डाकू, मवाली दल बनाकर आये
मिया मिट्ठू न जनगण को तनिक भी क़भी भी भाये
चुनें सज्जन चरित्री व्यक्ति जो घपला प्रथा छोड़ें
प्रशासन को कसे, उद्यम-दिशा को जमीं से जोड़े
विदेशी ताकतों से ले न कर्जे, पसारे मत हाथ.…
*
लगा चौपाल में संसद, बनाओ नीति जनहित क़ी
तजो सुविधाएँ-भत्ते, सादगी से रहो, चाहत की
धनी का धन घटे, निर्धन न भूखा कोई सोयेगा-
पुलिस सेवक बने जन की, न अफसर अनय बोयेगा
सुनें जज पंच बन फ़रियाद, दें निर्णय न देरी हो
वकीली फ़ीस में घर बेच ना दुनिया अँधेरी हो
मिले श्रम को प्रतिष्ठा, योग्यता ही पा सके अवसर
न मँहगाई गगनचुंबी, न जनता मात्र चेरी हो
न अबसे तंत्र होगा लोक का स्वामी, न जन का नाथ…
३०-४-२०१४
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खबर: ३०-४-२०१०
शराब की दूकानों का ठेका लेने महिलाओं के हजारों आवेदन. आपकी राय ?
*
मधुशाला को मधुबाला ने निशा निमंत्रण भेजा है.
पीनेवालों समाचार क्या तुमने देख सहेजा है?
दूना नशा मिलेगा तुमको आँखों से औ' प्याले से.
कैसे सम्हल सकेगा बोलो इतना नशा सम्हाले से?
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खबर २०१७
शराब की दुकानों के विरोध में महिलाओं द्वारा हमला
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शासक बदला, शासन बदला, जनता बदली जागी है
साकी ने हाथों में थमाई है मशाल, खुद आगी है
मधुशाला के मादक भागे, मंदिर में जा गहो शरण
'तीन तलाकी' सम्हलो, 'खुला' ही तुम लुच्चों की चावी है
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रासलीला :
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आँख में सपने सुनहरे झूलते हैं.
रूप लख भँवरे स्वयं को भूलते हैं.

झूमती लट नर्तकी सी डोलती है.
फिजा में रस फागुनी चुप घोलती है.

कपोलों की लालिमा प्राची हुई है.
कुन्तलों की कालिमा नागिन मुई है.

अधर शतदल पाँखुरी से रसभरे हैं.
नासिका अभिसारिका पर नग जड़े हैं.

नील आँचल पर टके तारे चमकते.
शांत सागर मध्य दो वर्तुल उमगते.

खनकते कंगन हुलसते गीत गाते.
राधिका है साधिका जग को बताते.

कटि लचकती साँवरे का डोलता मन.
तोड़कर चुप्पी बजी पाजेब बैरन.

सिर्फ तेरा ही नहीं मेरा सुमन मन 
खनखना कह बज उठी कनकाभ करधन.

चपल दामिनी सी भुजाएँ लपलपातीं.
करतलों पर लाल मेंहदी मुस्कुराती.

अँगुलियों पर मुन्दरियाँ नग जड़ी सोहें.
कज्जली किनार सज्जित नयन मोहें.

भौंह बाँकी, मदिर झाँकी नटखटी है.
मोरपंखी छवि सुहानी अटपटी है.

कौन किससे अधिक, किससे कौन कम है.
कौन कब दुर्गम-सुगम है?, कब अगम है?

पग युगल द्वय कब धरा पर?, कब अधर में?
कौन बूझे?, कौन-कब?, किसकी नजर में?

कौन डूबा?, डुबाता कब-कौन?, किसको?
कौन भूला?, भुलाता कब-कौन?, किसको?

क्या-कहाँ घटता?, अघट कब-क्या-कहाँ है?
क्या-कहाँ मिटता?, अमिट कुछ-क्या यहाँ है?

कब नहीं था?, अब नहीं जो देख पाये.
सब यहीं था, सब नहीं थे लेख पाये.

जब यहाँ होकर नहीं था जग यहाँ पर.
कब कहाँ सोता-न-जगता जग कहाँ पर?

ताल में बेताल का कब विलय होता?
नाद में निनाद मिल कब मलय होता?

थाप में आलाप कब देता सुनायी?
हर किसी में आप वह देता दिखायी?

अजर-अक्षर-अमर कब नश्वर हुआ है?
कब अनश्वर वेणु गुंजित स्वर हुआ है?

कब भँवर में लहर?, लहरों में भँवर कब?
कब अलक में पलक?, पलकों में अलक कब?

कब करों संग कर, पगों संग पग थिरकते?
कब नयन में बस नयन नयना निरखते?

कौन विधि-हरि-हर? न कोई पूछता कब?
नट बना नटवर, नटी संग झूमता जब.

भिन्न कब खो भिन्नता? हो लीन सब में.
कब विभिन्न अभिन्न हो? हो लीन रब में?

द्वैत कब अद्वैत वर फिर विलग जाता?
कब निगुण हो सगुण आता-दूर जाता?

कब बुलाता?, कब भुलाता?, कब झुलाता?
कब खिझाता?, कब रिझाता?, कब सुहाता?

अदिख दिखता, अचल चलता, अनम नमता.
अडिग डिगता, अमिट मिटता, अटल टलता.

नियति है स्तब्ध, प्रकृति पुलकती है.
गगन को मुँह चिढ़ा, वसुधा किलकती है.

आदि में अनादि बिम्बित हुआ कण में.
साsदि में फिर सांsत चुम्बित हुआ क्षण में.

अंत में अनंत कैसे आ समाया?
दिक् में दिगंत जैसे था समाया.

कंकरों में शंकरों का वास देखा.
और रज में आज बृज ने हास देखा.

मरुस्थल में महकता मधुमास देखा.
नटी नट में, नट नटी में रास देखा.

रास जिसमें श्वास भी था, हास भी था.
रास जिसमें आस, त्रास-हुलास भी था.

रास जिसमें आम भी था, खास भी था.
रास जिसमें लीन खासमखास भी था.

रास जिसमें सम्मिलित खग्रास भी था.
रास जिसमें रुदन-मुख पर हास भी था.

रास जिसको रचाता था आत्म पुलकित.
रास जिसको रचाता परमात्म मुकुलित.

रास जिसको रचाता था कोटि जन गण.
रास जिसको रचाता था सृष्टि-कण-कण.

रास जिसको रचाता था समय क्षण-क्षण.
रास जिसको रचाता था धूलि तृण-तृण..

रासलीला विहारी खुद नाचते थे.
रासलीला सहचरी को बाँचते थे.

राधिका सुधि-बुधि बिसारे नाचतीं थीं.
कान्ह को आपादमस्तक आँकती थीं 

'सलिल' ने निज बिंदु में वह छवि निहारी.
जग जिसे कहता है श्रीबांकेबिहारी.
३०-४-२०१०
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