कुल पेज दृश्य

रचना-प्रति रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रचना-प्रति रचना लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

बुधवार, 1 जुलाई 2020

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना घनाक्षरी

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना
घनाक्षरी
फेसबुक
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
*
फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।।
***

गुरुवार, 25 जून 2020

रचना-प्रति रचना राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल

रचना-प्रति रचना
राकेश खण्डेलवाल-संजीव सलिल
दिन सप्ताह महीने बीते
घिरे हुए प्रश्नों में जीते
अपने बिम्बों में अब खुद मैं
प्रश्न चिन्ह जैसा दिखता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावों की छलके गागरिया, पर न भरे शब्दों की आँजुर
होता नहीं अधर छूने को सरगम का कोई सुर आतुर
छन्दों की डोली पर आकर बैठ न पाये दुल्हन भाषा
बिलख बिलख कर रह जाती है सपनो की संजीवित आशा
टूटी परवाज़ें संगवा कर
पंखों के अबशेष उठाकर
नील गगन की पगडंडी को
सूनी नजरों से तकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
पीड़ा आकर पंथ पुकारे, जागे नहीं लेखनी सोई
खंडित अभिलाषा कह देती होता वही राम रचि सोई
मंत्रबद्ध संकल्प, शरों से बिंधे शायिका पर बिखरे हैं
नागफ़नी से संबंधों के विषधर तन मन को जकड़े हैं
बुझी हुई हाथों में तीली
और पास की समिधा गीली
उठते हुए धुंए को पीता
मैं अन्दर अन्दर रिसता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
धरना देती रहीं बहारें दरवाजे की चौखट थामे
अंगनाई में वनपुष्पों की गंध सांस का दामन थामे
हर आशीष मिला, तकता है एक अपेक्षा ले नयनों में
ढूँढ़ा करता है हर लम्हा छुपे हुए उत्तर प्रश्नों में
पन्ने बिखरा रहीं हवायें
हुईं खोखली सभी दुआयें
तिनके जैसा, उंगली थामे
बही धार में मैं तिरता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मानस में असमंजस बढ़ता, चित्र सभी हैं धुंधले धुंधले
हीरकनी की परछाईं लेकर शीशे के टुकड़े निकले
जिस पद रज को मेंहदी करके कर ली थी रंगीन हथेली
निमिष मात्र न पलकें गीली करने आई याद अकेली
परिवेशों से कटा हुआ सा
समीकरण से घटा हुआ सा
जिस पथ की मंज़िल न कोई
अब मैं उस पथ पर मिलता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
भावुकता की आहुतियां दे विश्वासों के दावानल में
धूप उगा करती है सायों के अब लहराते आँचल में
अर्थहीन हो गये दुपहरी, सन्ध्या और चाँदनी रातें
पड़ती नहीं सुनाई होतीं जो अब दिल से दिल की बातें
कभी पुकारा पनिहारी ने
कभी संभाला मनिहारी ने
चूड़ी के टुकडों जैसा मैं
पानी के भावों बिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
मन के बंधन कहाँ गीत के शब्दों में हैं बँधने पाये
व्यक्त कहां होती अनुभूति चाहे कोई कितना गाये
डाले हुए स्वयं को भ्रम में कब तक देता रहूँ दिलासा
नीड़ बना, बैठा पनघट पर, लेकिन मन प्यासा का प्यासा
बिखराये कर तिनके तिनके
भावों की माला के मनके
सीपी शंख बिन चुके जिससे
मैं तट की अब वह सिकता हूँ
अब मैं गीत नहीं लिखता हूँ
***
आदरणीय राकेश जी को सादर समर्पित -
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
जैसे हो तुम मन के अंदर
वैसे ही बाहर दिखते हो
बहुत बधाई तुमको भैया!
*
अब न रहा कंकर में शंकर, कण-कण में भगवान् कहाँ है?
कनककशिपु तो पग-पग पर हैं, पर प्रहलाद न कहीं यहाँ है
शील सती का भंग करें हरि, तो कैसे भगवान हम कहें?
नहीं जलंधर-हरि में अंतर, जन-निंदा में क्यों न वे दहें?
वर देते हैं शिव असुरों को
अभय दान फिर करें सुरों को
आप भवानी-भंग संग रम
प्रेरित करते नारि-नरों को
महाकाल दें दण्ड भयंकर
दया न करते किंचित दैया!
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जन-हित राजकुमार भेजकर, सत्तासीन न करते हैं अब
कौन अहल्या को उद्धारे?, बना निर्भया हँसते हैं सब
नाक आसुरी काट न पाते, लिया कमीशन शीश झुकाते
कमजोरों को मार रहे हैं, उठा गले से अब न लगाते
हर दफ्तर में, हर कुर्सी पर
सोता कुम्भकर्ण जब जागे
थाना हो या हो न्यायालय
सदा भुखमरा रिश्वत माँगे
भोग करें, ले आड़ योग की
पेड़ काटकर छीनें छैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
जब तक था वह गगनबिहारी, जग ने हँस आरती उतारी
छलिये को नटनागर कहकर, ठगी गयी निष्ठा बेचारी
मटकी फोड़ी, माखन खाया, रास रचाई, नाच नचाया
चला गया रणछोड़ मोड़ मुख, युगों बाद सन्देश पठाया
कहता प्रेम-पंथ को तज कर
ज्ञान-मार्ग पर चलना बेहतर
कौन कहे पोंगा पंडित से
नहीं महल, हमने चाहा घर
रहें द्वारका में महारानी
हमें चाहिए बाबा-मैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
असत पुज रहा देवालय में, अब न सत्य में है नारायण
नेह नर्मदा मलिन हो रही, राग-द्वेष का कर पारायण
लीलावती-कलावतियों को 'लिव इन' रहना अब मन भाया
कोई बाँह में, कोई चाह में, खुद को ठगती खुद ही माया
कोकशास्त्र केजी में पढ़ती,
नव पीढ़ी के मूल्य नये हैं
खोटे सिक्कों का कब्ज़ा है
खरे हारकर दूर हुए हैं
वैतरणी करने चुनाव की
पार, हुई है साधन गैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
दाँत शेर के कौन गिनेगा?, देश शत्रु से कौन लड़ेगा?
बोधि वृक्ष ले राजकुँवरि को, भेज त्याग-तप मौन वरेगा?
जौहर करना सर न झुकाना, तृण-तिनकों की रोटी खाना
जीत शौर्य से राज्य आप ही, गुरु चरणों में विहँस चढ़ाना
जान जाए पर नीति न छोड़ें
धर्म-मार्ग से कदम न मोड़ें
महिषासुरमर्दिनी देश-हित
अरि-सत्ता कर नष्ट, न छोड़ें
सात जन्म के सम्बन्धों में
रोज न बदलें सजनी-सैंया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
युद्ध-अपराधी कहा उसे जिसने, सर्वाधिक त्याग किया है
जननायक ने ही जनता की, पीठ में छुरा भोंक दिया है
सत्ता हित सिद्धांत बेचते, जन-हित की करते नीलामी
जिसमें जितनी अधिक खोट है, वह नेता है उतना दामी
साथ रहे सम्पूर्ण क्रांति में
जो वे स्वार्थ साध टकराते
भूले, बंदर रोटी खाता
बिल्ले लड़ते ही रह जाते
डुबा रहे मल्लाह धार में
ले जाकर अपनी ही नैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*
कहा गरीबी दूर करेंगे, लेकिन अपनी भरी तिजोरी
धन विदेश में जमा कर दिया, सब नेता हो गए टपोरी
पति पत्नी बच्चों को कुर्सी, बैठा देश लूटते सब मिल
वादों को जुमला कह देते, पद-मद में रहते हैं गाफिल
बिन साहित्य कहें भाषा को
नेता-अफसर उद्धारेंगे
मात-पिता का जीना दूभर
कर जैसे बेटे तारेंगे
पर्व त्याग वैलेंटाइन पर
लुक-छिप चिपकें हाई-हैया
बहुत बधाई तुमको भैया!
अब तुम गीत नहीं लिखते हो
*****
२५-६-२०१६

शनिवार, 1 जुलाई 2017

rachna-prati rachna: ghanakshari

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना 
घनाक्षरी  
फेसबुक
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
*
फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है 
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है। 
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।। 
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही 
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो 
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।। 
***
salil.sanjiv@gmail.com  

शनिवार, 26 मई 2012

रचना-प्रति रचना : ...लिखूँगा मुकेश श्रीवास्तव-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना :
...लिखूँगा  
मुकेश श्रीवास्तव-संजीव 'सलिल'
*

*
अपनी भी इक दिन कहानी लिखूंगा
टीस  है  कितनी  पुरानी - लिखूंगा
तफसील से तुम्हारी अदाएं  याद  हैं
ली तुमने कब कब अंगड़ाई - लिखूंगा 
साए में तुम्हारे गुज़ारे हैं तमाम दिन
ज़ुल्फ़ हैं तुम्हारी - अमराई लिखूंगा
तपते दिनों में ठंडा ठंडा सा एहसास
है  रूह  तुम्हारी रूहानी - लिखूंगा
छेड़ छेड़ डालती रही मुहब्बत के रंग
है आँचल तुम्हारा - फगुनाई लिखूगा
तुलसी का बिरवा, मुहब्बत की बेल
स्वर्ग सा तुम्हारा - अंगनाई लिखूंगा 
*
मुकेश इलाहाबादी
<mukku41@yahoo.com>
***
मुकेश जी आपकी कहानी तो आपकी हर रचना में पढ़ कर हम आनंदित होते ही हैं. इस सरस रचना हेतु बधाई. आपको समर्पित कुछ पंक्तियाँ-
मुक्तिका:
लिखूँगा...
संजीव 'सलिल'
*
कही-अनकही हर कहानी लिखूँगा.
बुढ़ाती नहीं वह जवानी लिखूँगा..

उफ़ न करूँगा, मिलें दर्द कितने-
दुनिया है अनुपम सुहानी लिखूँगा..

भले जग बताये कि नातिन है बच्ची
मैं नातिन को नानी की नानी लिखूँगा..

रही होगी नादां कभी मेरी बेटी.
बिटिया है मेरी सयानी लिखूँगा..

फ़िदा है नयेपन पे सारा जमाना.
मैं बेहतर विरासत पुरानी लिखूँगा..

राइम सुनाते हैं बच्चे- सुनायें.
मैं साखी, कबीरा, या बानी लिखूँगा..

गिरा हूँ, उठा हूँ, सम्हल कर बढ़ा हूँ.
'सलिल' हूँ लहर की रवानी लिखूँगा..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil' 

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

रचना-प्रति रचना: राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल

रचना-प्रति रचना
राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल
*

यह अब हमको नहीं गवारा 

राकेश खंडेलवाल

*

जो पगडंडी ह्रदय कुंज से ,बन्द हुये द्वारे तक जाती
उस पर चिह्न पड़ें कदमों के यह अब हमको नहीं गवारा
अजनबियत की गहन धुंध ने ओढ़ लिया है जिन चेहरों ने
उनके अक्स नहीं अब मन के आईने में बनें दुबारा
सम्बन्धों के वटवृक्षों की जड़ें खोखली ही निकलीं वे
रहे सींचते निशा दिवस हम जिनको प्रीत-नीर दे देकर
सूख चुकीं शाखाओं को पुष्पित करने को कलमें रोपीं
व्यर्थ भटकना हुआ रहे ज्यों मरुथल में नौकायें खे कर
पता नहीं था हमें बाग यह उन सब को पी चुप रहता है
भावों के जिन ओस कणों से हमने इसका रूप संवारा
छिली हथेली दस्तक देते देते बन्द पड़े द्वारे पर
देहरी पर जाकर के बैठी रहीं भावनायें बंजारी
झोली का सूनापन बढ़ता निगल गया फ़ैली आंजुरिया
और अपेक्षा, ओढ़ उपेक्षा रही मारती मन बेचारी
चाहे थी अनुभूति चाँदनी बन आगे बढ़ कंठ लगाये
किन्तु असंगति हठी ही रही उसने बार बार दुत्कारा
उचित नहीं है हुये समाधिस्थों को छेड़े जा कोई स्वर
जिसने अंगीकार किया है एकाकीपन, हो एकाकी
अपनी सुधियों के प्याले से हम वह मदिरा रिक्त कर चुके
भर कर गई जिसे अहसासों की गगरी ले कर के साकी
वह अनामिका की दोशाला, जिस पर कोई पता नहीं है
पहुँच कहो कैसे सकता अब उस तक कोई भी हरकारा.
*********
मुक्तिका:
तार रहा जो...
संजीव 'सलिल'
*
तार रहा जो सारी दुनिया, क्या उसको भी तिर-तरना है?
लुटा रहा जो मुक्त हस्त, क्या शेष अशेष उसे धरना है??
*
जो पगडंडी हृदय कुञ्ज के रुद्ध द्वार तक पहुँच न पाती.
उस मग पर पग बार-बार रख, कदमों को मंजिल वरना है..
*
ओढ़ अपरिचय का कोहरा जो अन्तर्यामी दूर दृष्टि से,
दूर दृष्टि रख काव्य कलश में, बिम्ब आस्था का भरना है..
*
संबंधों के वट प्रतिबंधों की दीमक खोखला कर रही.
स्नेहिल अनुबंधों की औषधि, दे जग हरियाला करना है..
*
जीवन जीने की चिंता में पल-पल मरना त्याग सकें हम.
मरणधर्मियों को हँस-हँसकर अजर-अमर हो जी-मरना है.
*
अँजुरी में चाँदनी लिये हम, उषा-गाल पर मल आये हैं.
प्यास-हास का आस-दीप अब संध्या के द्वारे बरना है..
*
मिलन-निशा को नशा मिलन का, शरद पूर्णिमा कर देता है.
सुधियों को अमरत्व न दे, पल-पल नवजीवन वापरना है..
***
Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

रचना-प्रति रचना राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 

राकेश खंडेलवाल-संजीव 'सलिल'
*

पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ 

उभरा करते भाव अनगिनत मन की अंगनाई में पल पल
कोई बैठे पास चार पल तो थोड़ा सा उसे बताएं

दालानॉ में रखे हुए गमलों में उगे हुए हम पौधे
जिनकी चाहत एक घड़ी तो अपनी धरती से जुड़ पायें
होठों को जो सौंप दिए हैं शब्द अजनबी आज समय ने
उनको बिसरा कर बचपन की बोली में कुछ तो गा पायें

लेकिन ओढ़े हुए आवरण की मोटी परतों के पीछे
एक बार फिर रह जाती है घुट कर मन की अभिलाषाएं

अटके हुए खजूरों पर हम चाहें देखें परछाई को
जो की अभी तक पदचिह्नों से बिना स्वार्थ के जुडी हुई है
पीठ फेर कर देख लिया था किन्तु रहे असफल हम भूलें
घुटनों की परिणतियाँ निश्चित सदा उदर पर मुडी हुई हैं

यद्यपि अनदेखा करते हैं अपने बिम्ब नित्य दर्पण में
फिर भी चाहत पुरबाई के साथ घड़ी भर को बह जाएँ

फागुन की पूनम कार्तिक की मावस करती है सम्मोहित
एक ज्वार उठता है दूजे पल सहसा ही सो जाता है
लगता तो है कुछ चाहत है मन की व्याकुलता के अन्दर
लेकिन चेतन उसको कोई नाम नहीं देने पाटा है

पट्टी बांधे हुए आँख पर एक वृत्त की परिधि डगर कर
सोचा करते शायद इक दिन हम अपना इच्छित पा जाएँ
*

आदरणीय राकेश जी!

आपकी रचना का वाचन कर कलम से उतरे भाव आपको सादर समर्पित.


उभरा करते भाव अनगिनत 

उभरा करते भाव अनगिनत, कवि की कविताई में पल-पल.

कोई आ सुध-बुध बिसराये, कोई आकर हमें जगाये...

*
कमल-कुसुम हम दिग-दिगंत में सुरभि लुटाकर व्याप सके हैं.

हो राकेश-दीप्ति नभ मंडल को पल भर में नाप सके हैं.

धरे धरा पर पग, हाथों में उठा सौर मंडल हम सकते-

बाधाओं को सिगड़ी में भर,सुलगा, निज कर ताप सके हैं.

अचल विजय के वाहक अपने सपने जब नीलाम हुए तो

कोई न पाया श्रम-सीकर की बोली बोले, गले लगाये...     

*
अर्पण और समर्पण के पल, पूँजी बनकर संबल देते.

श्री प्रकाश पाथेय साथ ले, श्वास-आस को परिमल देते.

जड़ न जमाले जड़ चिंतन, इसलिए चाह परिवर्तन की कर-

शब्द-शब्द विप्लव-विद्रोहों को कविता रचकर स्वर देते.

सर्जन और विसर्जन की लय-ताल कलम से जब उतरी तब    

अलंकार, रस, छंद त्रिवेणी, नेह नर्मदा पुलक नहाये...
*
उगे पूर्व से पर पश्चिम की नकल कर रहे हैं अनजाने.

सायों के बढ़ने से कद को आँक रहे हैं कम पैमाने.

नहीं मिटाई पर पहले से ज्यादा लम्बी रेखा खींची-

प्रलोभनों ने मुँह की खाई,जब आये लालच दिखलाने.

कंकर-में शंकर के दर्शन तभी हुए जब गरल पी लिया-

तजकर राजमार्ग पगडंडी पर मीरा बन कदम बढ़ाये...  

*****
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in

रविवार, 5 फ़रवरी 2012

रचना-प्रति रचना: ह्रदय कुसुम सिन्हा-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना:
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
कुसुम सिन्हा
*
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
                     पाकर चोट  न झरते आंसू 
                    नहीं ह्रदय से आह निकलती 
                   प्यार और विश्वास में छल पा

                  दिल का शीशा   चूर न होता
काश ह्रदय पत्थर का होता
                 ह्रदय बनाकर  यदि वो इश्वर
                कठिन प्यार की पीर न देता 
               तो फिर जीवन शायद  इतना 
              पीड़ा से बोझिल न होता
काश   ह्रदय   पत्थर का होता 
              निर्विकार सह   लेता सुख दुःख 
               हाश अश्रु   और  प्यार न होता 
               नहीं ह्रदय  टुटा करता    फिर 
              नहीं   कोई  मर मरकर जीता 
काश ह्रदय पत्थर का होता 
             पीड़ा का अभिशाप   दिया जो 
             मन तो फूलों सा न बनाता
             अंगारों सा मन होता तो 
            नहीं कोई मर मर कर जीता 
काश ह्रदय पत्थर  का होता 
           विरहन   चकई  की चीखें सुन 
          चाँद कभी आंसू न बहाता
           शब्द  वाण फिर ह्रदय चीरकर 
           सारा लहू न  अश्रु   बनाता 
काश ह्रदय पत्थर का होता
*
माननीया कुसुम जी,
आपकी भाव भीनी रचना को पढ़कर कलम से उअतारी पंक्तियाँ आपको सादर समर्पित.
प्रति कविता:
अगर हृदय पत्थर का होता
संजीव 'सलिल'
*
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
खाकर चोट न किंचित रोता,
दुःख-विपदा में धैर्य न खोता.
आह न भरता, वाह न करता-
नहीं मलिनता ही वह धोता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कुसुम-परस पा नहीं सिहरता,
उषा-किरण सँग नहीं निखरता.
नहीं समय का मोल जानता-
नहीं सँवरता, नहीं बिखरता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
कभी नींव में दब दम घुटता,
बन सीढ़ी वह कभी सिसकता.
दीवारों में पा तनहाई-
गुम्बद बन बिन साथ तरसता..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
अपने में ही डूबा रहता,
पर पीड़ा से नहीं पिघलता.
दमन, अनय, अत्याचारों को-
देख न उसका लहू उबलता.
अगर हृदय पत्थर का होता...
*
आँखों में ना होते सपने,
लक्ष्य न पथ तय करता अपने.
भोग-योग को नहीं जानता-
'सलिल' न जाता माला जपने..
अगर हृदय पत्थर का होता...
*




शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

रचना-प्रति रचना दिल के तार महेश चन्द्र गुप्ता-संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना दिल के तार महेश चन्द्र गुप्ता-संजीव 'सलिल' ***** लिखा तुमने खत में इक बार — २ दिसंबर २०११ लिखा तुमने खत में इक बार मिला लें दिल से दिल के तार मगर मैंने न दिया ज़वाब नहीं भेजा मैंने इकरार खली होगी तुमको ये बात लगा होगा दिल को आघात तुम्हारी आँखों से कुछ रोज़ बहे होंगे संगीं जज़्बात बतादूँ तुमको मैं ये आज छिपाऊँ न तुमसे ये राज़ हसीं हो सबसे बढ़ कर तुम तुम्हारे हैं दिलकश अंदाज़ मगर इक सूरत सादी सी रहे बिन बात उदासी सी बसी है दिल के कोने में लगे मुझको रास आती सी बहुत मन में है ऊहापोह रखूँ न गर तुमसे मैं मोह लगेगी तुमको अतिशय ठेस करेगा मन मेरा विद्रोह पिसा मैं दो पाटों के बीच रहे हैं दोनों मुझको खींच नहीं जाऊँ मैं जिसके संग रहे वो ही निज आँखें सींच भला है क्या मुझको कर्तव्य बताओ तुम अपना मंतव्य कहाँ पर है मेरी मंज़िल किसे मानूँ अपना गंतव्य. महेश चन्द्र गुप्त ’ख़लिश’ २७ नवंबर २०११ -- (Ex)Prof. M C Gupta MD (Medicine), MPH, LL.M., Advocate & Medico-legal Consultant www.writing.com/authors/mcgupta44 आत्मीय! यह रचना मन को रुची प्रतिरचना स्वीकार. उपकृत मुझको कीजिये- शत-शत लें आभार.. प्रति-रचना: संजीव 'सलिल' * न खोजो मन बाहर गंतव्य. डूब खुद में देखो भवितव्य. रहे सच साथ यही कर्त्तव्य- समय का समझ सको मंतव्य.. पिसो जब दो पाटों के बीच. बैठकर अपनी ऑंखें मींच. स्नेह सलिला से साँसें सींच. प्राण-रस लो प्रकृति से खींच.. व्यर्थ सब संशय-ऊहापोह. कौन किससे करता है मोह? स्वार्थ से कोई न करता द्रोह. सत्य किसको पाया है सोह? लगे जो सूरत भाती सी, बाद में वही उबाती सी. लगे गत प्यारी थाती सी. जले मन में फिर बाती सी.. राज कब रह पाता है राज? सभी के अलग-अलग अंदाज. किसी को बोझा लगता ताज. कोई सुनता मन की आवाज.. सहे जो हँसकर सब आघात. उसी की कभी न होती मात. बदलती तनिक नहीं है जात. भूल मत 'सलिल' आप-औकात.. करें या मत करिए इजहार, जहाँ इनकार, वहीं इकरार. बरसता जब आँखों से प्यार. झनक-झन बजते दिल के तार.. ************* Acharya Sanjiv verma 'Salil' http://divyanarmada.blogspot.com http://hindihindi.in २ दिसम्बर २०११ १:१० पूर्वाह्न को, Dr.M.C. Gupta ने लिखा: