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सोमवार, 8 नवंबर 2021

कार्यशाला, मुक्तक, हाइकु,

कार्यशाला- ७-११-१६
आज का विषय- पथ का चुनाव
अपनी प्रस्तुति टिप्पणी में दें।
किसी भी विधा में रचना प्रस्तुत कर सकते हैं।
रचना की विधा तथा रचना नियमों का उल्लेख करें।
समुचित प्रतिक्रिया शालीनता तथा सन्दर्भ सहित दें।
रचना पर प्राप्त सम्मतियों को सहिष्णुता तथा समादर सहित लें।
किसी अन्य की रचना हो तो रचनाकार का नाम, तथा अन्य संदर्भ दें।
*
हाइकु
सहज नहीं
है 'पथ का चुनाव'
​विकल्प कई.
*
झिलमिलायीं
दीपकों की कतारें
खिलखिलायीं.
*
सूरज ढला
तिमिर को मिटाने
दीपक जला.
*
ओबामा बम
नेताओं की घोषणा
दोनों बेकाम.
*
मना दिवाली
हो गयी जेब खाली
आगे कंगाली.
*
देव सोये हैं
जागेंगे ग्यारस को
पूजा कैसे की?.
*
न हो उदास
दीप से बोली बाती
करो प्रयास.
*
दीपों ने घेरा
हारा, भागा अँधेरा
हुआ सवेरा..
*
भू पर आये
सूरज के वंशज
दीपक बन.
*
महल छोड़
कुटियों में जलते
चराग हँसते.
*
फुलझड़ियाँ
आशाओं की लड़ियाँ
जगमगायीं.
*
रह अचला
तो स्वागत, वर्ना जा
लक्ष्मी चंचला.
*
किसी की सगी
लक्ष्मी नहीं रही
फिर भी पुजी.
*
है उपहार
ध्वनि-धुआँ प्रदूषण
मना त्यौहार.
*
हुए निसार
खुद पर खुद ही
हम बेकार.
*
लिया उधार
खूब मना त्यौहार
अब बेज़ार.
(जापानी त्रिपदिक वार्णिक छंद, ध्वनि ५-७-५)
*
मुक्तक
पथ का चुनाव आप करें देख-भालकर
सारे अभाव मौन सहें, लोभ टालकर
​पालें लगाव तो न तजें, शूल देखकर
भुलाइये 'सलिल' को न संबंध पालकर ​
​(२२ मात्रिक चतुष्पदिक मुक्तक छंद, टुकनर गुरु-लघु, पदांत गुरु-लघु-लघु-लघु) ​
*

सोमवार, 30 अगस्त 2021

कार्यशाला: चर्चा डॉ. शिवानी सिंह

कार्यशाला:
चर्चा डॉ. शिवानी सिंह के दोहों पर
*
गागर मे सागर भरें भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश तो कासे कह दे पीर||
तो अनावश्यक, प्रिय के जाने के बाद प्रिया पीर कहना चाहेगी या मन में छिपाना? प्रेम की विरह भावना को गुप्त रखना जाना करुणा को जन्म देता है.
.
गागर मे सागर भरें, भरें नयन मे नीर|
पिया गए परदेश मन, चुप रह, मत कह पीर||
*
सावन भादव तो गया गई सुहानी तीज|
कौनो जतन बताइए साजन जाए पसीज||
साजन जाए पसीज = १२
सावन-भादों तो गया, गई सुहानी तीज|
कुछ तो जतन बताइए, साजन सके पसीज||
*
प्रेम विरह की आग मे झुलस गई ये गात|
मिलन भई ना सांवरे उमर चली बलखात||
गात पुल्लिंग है., सांवरा पुल्लिंग, नारी देह की विशेषता उसकी कोमलता है, 'ये' तो कठोर भी हो सकता है.
प्रेम-विरह की आग में, झुलस गया मृदु गात|
किंतु न आया सांवरा, उमर चली बलखात||
*
प्रियतम तेरी याद में झुलस गई ये नार|
नयन बहे जो रात दिन भया समुन्दर खार||
.
प्रियतम! तेरी याद में, मुरझी मैं कचनार|
अश्रु बहे जो रात-दिन, हुआ समुन्दर खार||
कचनार में श्लेष एक पुष्प, कच्ची उम्र की नारी,
नयन नहीं अश्रु बहते हैं, जलना विरह की अंतिम अवस्था है, मुरझाना से सदी विरह की प्रतीति होती है.
*
अब तो दरस दिखाइए, क्यों है इतनी देर?
दर्पण देखूं रूप भी ढले साँझ की बेर|
क्यों है इतनी देर में दोषारोपण कर कारण पूछता है. दर्पण देखना सामान्य क्रिया है, इसमें उत्कंठा, ऊब, खीझ किसी भाव की अभिव्यक्ति नहीं है. रूप भी अर्थात रूप के साथ कुछ और भी ढल रहा है, वह क्या है?
.
अब तो दरस दिखाइए, सही न जाए देर.
रूप देख दर्पण थका, ढली साँझ की बेर
सही न जार देर - बेकली का भाव, रूप देख दर्पण थका श्लेष- रूप को बार-बार देखकर दर्पण थका, दर्पण में खुद को बार-बार देखकर रूप थका
*
टिप्पणी- १३-११ मात्रावृत्त, पदादि-चरणान्त व पदांत का लघु गुरु विधान-पालन या लय मात्र ही दोहा नहीं है. इन विधानों से दोहा की देह निर्मित होती है. उसमें प्राण संक्षिप्तता, सारगर्भितता, लाक्षणिकता, मर्मबेधकता तथा चारुता के पञ्च तत्वों से पड़ते हैं. इसलिए दोहा लिखकर तत्क्षण प्रकाशन न करें, उसका शिल्प और कथ्य दोनों जाँचें, तराशें, संवारें तब प्रस्तुत करें.
***

शनिवार, 17 जुलाई 2021

कार्य शाला अनीता शर्मा

कार्य शाला:
--अनीता शर्मा
शायरी खुदखुशी का धंधा है।
अपनी ही लाश, अपना ही कंधा है ।
आईना बेचता फिरता है शायर उस शहर मे
जो पूरा शहर ही अंधा है।।
*
-संजीव
शायरी धंधा नहीं, इबादत है
सूली चढ़ना यहाँ रवायत है
ज़हर हर पल मिला करता है पियो
सरफरोशी है, ये बगावत है
१७-७-२०१८
*
कार्यशाला: प्रश्नोत्तर
रोज मैं इस भँवर से दो- चार होता हूँ
क्यों नहीं मैं इस नदी से पार होता हूँ ।
*
लाख रोके राह मेरी, है मुझे प्यारी
इसलिए हँस इसी पर सवार होता हूँ ।
*
१७-७-२०२० 

मंगलवार, 6 जुलाई 2021

कार्यशाला - दो कवि रचना एक:

कार्यशाला -
दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
*

बुधवार, 16 जून 2021

कार्यशाला, द्विपदी, दोहा

द्विपदी
मिला था ईद पे उससे गले हुलसकर मैं
किसे खबर थी वो पल में हलाल कर देगा.
*
दोहा
ला दे दे, रम जान तू, चला गया रमजान
सूख रहा है हलक अब होने दे रस-खान
*.
कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
-----------------------------------
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'

सोमवार, 26 अप्रैल 2021

कार्यशाला : कुंडलिया

कार्यशाला : कुंडलिया
दोहा - बसंत, रोला - संजीव
*
सिर के ऊपर बाज है, नीचे तीर कमान |
खतरा है, फिर भी भरे, चिड़िया रोज उड़ान ||
चिड़िया रोज उड़ान, भरे अंडे भी सेती
कभी ना सोचे पाऊँगी, क्या-क्यों मैं देती
काम करे निष्काम, रहे नभ में या भू पर
तनिक न चिंता करे, ताज या आफत सिर पर
***

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

कार्य शाला कुंडलिया- दोहा शशि पुरवार रोला: संजीव

कार्य शाला एक कुंडलिया- दो रचनाकार
दोहा: शशि पुरवार
रोला: संजीव
*
सड़कों के दोनों तरफ, गंधों भरा चिराग
गुलमोहर की छाँव में, फूल रहा अनुराग
फूल रहा अनुराग, लीन घनश्याम-राधिका
दग्ध कंस-उर, हँसें रश्मि-रवि श्वास साधिका
नेह नर्मदा प्रवह, छंद गाती मधुपों के
गंधों भरे चिराग, प्रज्वलित हैं सड़कों के
***

रविवार, 4 अप्रैल 2021

कार्यशाला: दोहा से कुंडली

कार्यशाला:
दोहा से कुंडली
*
ऊँची-ऊँची ख्वाहिशें, बनी पतन का द्वार।
इनके नीचे दब गया, सपनों का संसार।। - 
दोहा: तृप्ति अग्निहोत्री,लखीमपुर खीरी

सपनों का संसार न लेकिन तृप्ति मिल रही
अग्निहोत्र बिन हवा विषैली आस ढल रही
सलिल' लहर गिरि नद सागर तक बहती नीची
कैसे हरती प्यास अगर वह बहती ऊँची   
रोला: संजीव वर्मा सलिल

४-४-२०१९ 

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

कार्यशाला दोहा+रोला=कुंडलिया

कार्यशाला
दोहा+रोला=कुंडलिया
*
"बाधाओं से भागना, हिम्मत का अपमान।
बाधाओं का सामना, वीरों की पहचान।" -पुष्पा जोशी
वीरों की पहचान, रखें पुष्पा मन अपना
जोशीली मन-वृत्ति, करें पूरा हर सपना
बने जीव संजीव, जीतकर विपदाओं से
सलिल मिटा जग तृषा, जूझकर बाधाओं से  - सलिल 
*

बुधवार, 9 दिसंबर 2020

कार्यशाला

कार्यशाला
छंद बहर दोउ एक है - ९
रगण यगण गुरु = २१२ १२२ २
सात वार्णिक उष्णिक जातीय, बारह मात्रिक आदित्य जातीय छंद
बहर- फाइलुं मुफाईलुं
*
मुक्तक
मेघ ने लुभाया है
मोर नाच-गाया है
जो सगा नहीं भाया
वह गया भुलाया है
*
मौन मौन होता है
शोर शोर बोटा है
साफ़-साफ़ बोले जो
जार-जार रोता है
*
राजनीति धंधा है
शीशहीन कंधा है
न्याय कौन कैसे दे?
क्यों प्रतीक अँधा है
*
सूर्य के उजाले हैं
सेठ के शिवाले हैं
काव्य के सभी प्रेमी
आदमी निराले हैं
*
आपने बिसरा है
या किया इशारा है?
होंठ तो नहीं बोला
नैन ने पुकारा है
*
कौन-कौन आएगा?
देश-राग गायेगा
शीश जो कटाएगा
कीर्ति खूब पायेगा
*
नवगीत
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
वायवी हुए रिश्ते
कागज़ी हुए नाते
गैर बैर पाले जो
वो रहे सदा भाते
संसदीय तूफां की
है नहीं रही रेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
लोकतंत्र पूछेगा
तंत्र क्यों दरिंदा है?
जिंदगी रही जीती
क्यों मरी न जिंदा है?
आनुशासिकी कीला
क्यों यहाँ नहीं मेखा?
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
*
क्यारियाँ कभी सींचें
बागबान ही भूले
फूल को किया रुस्वा
शूल को मिले झूले
मौसमी किए वादे
फायदा नहीं सदा पेखा
क्यों नहीं कभी देखा?
क्यों नहीं किया लेखा??
***
मेखा = ठोंका, पेखा = देखा

बुधवार, 25 नवंबर 2020

कार्यशाला

 कार्यशाला

प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है?
ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनिरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गई और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
पदार्थ
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
*
संजीव,
२० - ११ - २०१८

शनिवार, 21 नवंबर 2020

कार्यशाला मनहर घनाक्षरी छंद

कार्यशाला 
मनहर घनाक्षरी छंद 
*
आठ-आठ-आठ-सात, पर यति रखकर, मनहर घनाक्षरी, छंद कवि रचिए।
लघु-गुरु रखकर, चरण के आखिर में, 'सलिल'-प्रवाह-गति, वेग भी परखिए।।
अश्व-पदचाप सम, मेघ-जलधार सम, गति अवरोध न हो, यह भी निरखिए।
करतल ध्वनि कर, प्रमुदित श्रोतागण- 'एक बार और' कहें, सुनिए-हरषिए।।
*
लक्ष्य जो भी वरना हो, धाम जहाँ चलना हो, काम जो भी करना हो, झटपट करिए।
तोड़ना नियम नहीं, छोड़ना शरम नहीं, मोड़ना धरम नहीं, सच पर चलिए।।
आम आदमी हैं आप, सोच मत चुप रहें, खास बन आगे बढ़, देशभक्त बनिए।।
गलत जो होता दिखे, उसका विरोध करें, 'सलिल' न आँख मूँद, चुपचाप सहिये।।
*
२१-११-२०१७

कार्य शाला छंद-बहर दोउ एक हैं ४

कार्य शाला
छंद-बहर दोउ एक हैं ४
*
(छंद- अठारह मात्रिक , ग्यारह अक्षरी छंद, सूत्र यययलग )
[बहर- फऊलुं फऊलुं फऊलुं फअल १२२ १२२ १२२ १२, यगण यगण यगण लघु गुरु ]
*
मुक्तक
निगाहें मिलाओ, चुराओ नहीं
जरा मुस्कुराओ, सताओ नहीं
ज़रा पास आओ, न जाओ कहीं
तुम्हें सौं हमारी भुलाओ नहीं
*
२१-११-२०१६ 

शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

कार्यशाला

कार्यशाला
प्रश्न- मीना धर द्विवेदी पाठक
लै ड्योढ़ा ठाढ़े भये, श्री अनिरुद्ध सुजान
बाणासुर की सेन को, हनन लगे भगवान
इसका अर्थ क्या है? ड्योढ़ा = ?
*
प्रसंग
श्री कृष्ण के पुत्र अनुरुद्ध पर मोहित होकर दानवराज बाणासुर की पुत्री उषा उसे अचेत कर ले गयी और महल में बंदी कर लिया। ज्ञात होने पर कृष्ण उसे छुड़ाने गए। भयंकर युद्ध हुआ।
शब्दार्थ
ड्योढ़ी = देहरी या दरवाज़ा
ड्योढ़ा = डेढ़ गुना, सामान्य से डेढ़ गुना बड़ा दरवाज़ा। दरवाजे को बंद करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले आड़े लंबे डंडे को भी ड्योढ़ा कहा जाता है।
अर्थ   
श्री अनिरुद्ध ड्योढ़ा लेकर खड़े हुए और कृष्ण जी बाणासुर की सेना को मारने लगे।
भावार्थ
कृष्ण जी अनिरुद्ध को छुड़ाने के लिए बाणासुर के महल पर पहुँचे। यह जानकर अनिरुद्ध दरवाज़ा बंद करने के लिए प्रयोग किये जानेवाले डंडे को लेकर दरवाजे पर आ गये। बाणासुर की सेना ने रोका तो भगवान सेना का वध करने लगे।
***
संजीव

गुरुवार, 19 नवंबर 2020

कार्यशाला काव्य वार्ता

कार्यशाला
काव्य वार्ता 
*
नाम से, काम से प्यार कीजै सदा
प्यार बिन जिंदगी-बंदगी कब हुई? -संजीव्
*
बन्दगी कब हुई प्यार बिन जिंदगी
दिल्लगी बन गई आज दिल की लगी
रंग तितली के जब रँग गयीं बेटियाँ
जा छुपी शर्म से आड़ में सादगी -मिथलेश
*
छोड़ घर मंडियों में गयी सादगी
भेड़िये मिल गए तो सिसकने लगी
याद कर शक्ति निज जब लगी जूझने
भीड़ तब दुम दबाकर खिसकने लगी -संजीव्
*

रविवार, 27 सितंबर 2020

कार्यशाला : सिगरेट

कार्यशाला :
सिगरेट 
संजीव 
*
ज़िंदगी सिगरेट सी जलती रही 
ऐश ट्रे में उमीदों की राख है। 
दिलजले ने दाह दी हर आह
जला कर सिगरेट, पाया चैन कुछ।  
*
राह उसकी रात तक देखा किया 
थाम कर सिगरेट, बेबस मौन दिल। 
*
धौंककर सिगरेट छलनी ज़िंदगी 
बंदगी की राख ले ले ऐ खुदा!
*
अधरों पे रखा, फेंक दिया, सिगरेट की तरह। 
न उसकी कोई वज़ह रही, न इसकी है वजह। 

सोमवार, 14 सितंबर 2020

दोहा-कुण्डलिया

हर पल हिंदी को जिएँ, दिवस न केवल एक।
मानस मैया मानकर, पूजें सहित विवेक।।

कार्यशाला
षट्पदी (कुण्डलिया )
*
आओ! सब मिलकर रचें, ऐसा सुंदर चित्र।
हिंदी पर अभिमान हो, स्वाभिमान हो मित्र।। -विशम्भर शुक्ल
स्वाभिमान हो मित्र, न टकरायें आपस में।
फूट पड़े तो शत्रु, जयी हो रहे न बस में।।
विश्वंभर हों सदय, काल को जूझ हराओ।
मोदक खाकर सलिल, गजानन के गुण गाओ।। -संजीव 'सलिल'
*

रविवार, 12 जुलाई 2020

कार्य शाला अनुवाद

कार्य शाला
अनुवाद / कवित्त
◆Still I Rise◆ ◆BY MAYA ANGELOU◆
अनुवाद- नम्रता श्रीवास्तव
*
कड़वे छली मृषा से तुम्हारे इतिहास में
तुम्हारी लेखनी से मैं न्यूनतम दिखूँगी धूल-धूसरित भी कर सकते हो मुझे किंतु भरे गुबार सी फिर-फिर उठूँगी स्त्रीपन मेरा विचलित तुम्हे करता है क्यों क्यों घने तिमिर के हो आवरण में तुम तेल-कूप महिषी की, है छाव मेरी चाल में स्थित जो मेरे कक्ष में, इस भ्रम में तुम जिस तरह है चंद्र, और उगता सूर्य है ज्वार-भाटे के निश्चित विधान सी चढ़ूँगी जैसे ऊँची आशा की किरण सी लहरा उठें ऐसे ही बारम्बार मैं फिर-फिर उठूँगी तुमने क्या चाहा था मुझे टूटा हुआ देखना नत रहे मस्तक व नीची मेरी निगाहें भूमि गिरे ज्यों लोर सम कंधे भी ढह जाएँ हृदय विदारक मेरी चीखें और आहें अस्मिता मेरी तुम्हें क्या करती है निरादृत इतनी डरावनी क्यों लगती है तुमको आंगन के अपने स्वर्ण-खदानों की रानी सी मैं कैसे ना बिहसूं, क्यों खलती है तुमको अपने शब्दों से मुझे मार सकते हो गोली तुम्हारे तीक्ष्ण नेत्र-धार से भी मैं कटूँगी अपने विद्वेष को मेरा हंता बन जाने दो तूफान की तरह मैं फिर-फिर उठूँगी क्या मेरी काम्यता से आजिज़ आते हो तुम या इससे अचंभित हुए जाते हो तुम हीरा मिला हो यूँ चमक कर झूमती हूँ मैं उरु-संधि मध्य जिसे ढँका पाते हो तुम निर्लज्ज इतिहास की कुटिया के बाहर उदित हूँ मैं दुख में डूबी अतीत की जड़ों के ऊपर उदित हूँ मैं एक कृष्ण जलधि हूँ मैं, आन्दोलित व विस्तृत हूँ ज्वार में पली-बढ़ी, सहिष्णु और परिष्कृत आतंक और भयभरी रात्रि पीछे छोड़कर उदित हूँ मैं उज्जवल अनोखे अरुणोदय के द्वार पर उदित हूँ मैं पुरखों की देन है उपहार जो मैं लायी हूँ किंकर की आशा व स्वप्न बन कर आई हूँ उदित हूँ मैं उदित हूँ मैं उदित हूँ मैं ◆◆◆ कड़वे छली मृषा से इतिहास में तुम्हारे मैं न्यूनतम दिखूँगी झलकूँगी लेखनी से तुम धूल-धूसरित भी चाहो जो कर अगर दो फिर फिर गुबार जैसी मिटकर मैं जी उठूँगी स्त्रीत्व मेरा विचलित तुमको क्यों कर रहा है क्यों आवरण सघन तम में जा छिपे हो बोलो
है मेरी चाल में ही छवि राजलक्ष्मी की जो मेरे कक्ष में है, यह भ्रम हुआ क्यों तुमको जिस तरह चाँद ऊगे या ऊगता है सूरज निश्चित विधान सी मैं हर ज्वा रमें चढ़ूँगी आशा-किरण सी ऊँची फिर मैं लहर उठूँगी
मैं बार-बार फिर-फिर गिर-गिर पुन:उठूँगी चाहा था तुमने देखो टूटा हुआ मुझे पर अवनत रहा है मस्तक नीची निगाह मेरी ज्यों लोर गिरे भू पर त्यों ढहें मेरे कंधे दें भेद ह्रदय चीखें कर दग्ध मेरी आहें क्या कर रही निरादृत मम अस्मिता तुम्हें ही इतनी डरावनी क्यों यह लग रही है तुमको आँगन की स्वर्ण खानों की रानी साहिबा मैं क्यों खल रही हूँ तुमको, कैसे न कहो विहसूँ तुम मार दो भले ही तीखी कटाक्ष गोली
या तीक्ष्ण कटाक्षों से मैं मौन रह कटूँगी निज द्वेष को बनाओं तुम भले मेरा हन्ता तूफान की तरह मैं फिर-फिर सम्हल उठूँगी तुम आ रहे हो आजिज क्या मेरी काम्यता से या इससे हो अचंभित तुम खो रहे हो खुद को हीरा मिला मुझे हो यूँ चमक झूमती मैं उरु-संधि मध्य जिसको पाते ढँका रहे तुम इतिहास बेहया की कुटिया से उदित हूँ मैं
दुःखगरसर जड़ अतीती पर हुई उदित हूँ मैं हूँ जलधि कृष्ण विस्तृत मैं आत्म आन्दोलित हूँ ज्वार में पली मैं, सहिष्णु वा परिष्कृत आतंक भयभरी निशि को छोड़ हूँ उदित मैं
उज्जवल अरुण उदय के द्वार पर उदित मैं पुरखों की देन है वह उपहार जो मैं लायी
किंकिर की स्वप्न आशा बन हो गयी उदित मैं
हो गयी उदित मैं हो गयी उदित मैं हो गयी उदित मैं

बुधवार, 1 जुलाई 2020

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना घनाक्षरी

कार्यशाला: रचना-प्रति रचना
घनाक्षरी
फेसबुक
*
गुरु सक्सेना नरसिंहपुर मध्य प्रदेश
*
चमक-दमक साज-सज्जा मुख-मंडल पै
तड़क-भड़क भी विशेष होना चाहिए।
आत्म प्रचार की क्रिकेट का हो बल्लेबाज
लिस्ट कार्यक्रमों वाली पेश होना चाहिए।।
मछली फँसानेवाले काँटे जैसी शब्दावली
हीरो जैसा आकर्षक भेष होना चाहिए।
फेसबुक पर मित्र कैसे मैं बनाऊँ तुम्हे
फेसबुक जैसा भी तो फेस होना चाहिए।।
*
फेस 'बुक' हो ना पाए, गुरु यही बेहतर है
फेस 'बुक' हुआ तो छुडाना मजबूरी है।
फेस की लिपाई या पुताई चाहे जितनी हो
फेस की असलियत जानना जरूरी है।।
फेस रेस करेगा तो पोल खुल जायेगी ही
फेस फेस ना करे तैयारी जो अधूरी है।
फ़ेस देख दे रहे हैं लाइक पे लाइक जो
हीरो जीरो, फ्रेंडशिप सिर्फ मगरूरी है।।
***

मंगलवार, 16 जून 2020

कार्यशाला

कार्यशाला:
ये मेरी तिश्नगी, लेकर कहाँ चली आई?
यहाँ तो दूर तक सहरा दिखाई देता है.
- डॉ.अम्बर प्रियदर्शी
चला था तोड़ के बंधन मिलेगी आजादी
यहाँ तो सरहदी पहरा दिखाई देता है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'
-----------------------------------
तिश्नगी का न पूछिए आलम
मैं जहाँ हूँ, वहाँ समंदर है.
- अम्बर प्रियदर्शी
राह बारिश की रहे देखते सूने नैना
क्या पता था कि गया रीत सारा अम्बर है.
-संजीव वर्मा 'सलिल'