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सोमवार, 6 अप्रैल 2020

त्वरित प्रतिक्रिया कृष्ण-मृग हत्याकांड

त्वरित प्रतिक्रिया
कृष्ण-मृग हत्याकांड
*
मुग्ध हुई वे हिरन पर, किया न मति ने काम।
हरण हुआ बंदी रहीं, कहा विधाता वाम ।।
*
मुग्ध हुए ये हिरन पर, मिले गोश्त का स्वाद।
सजा हुई बंदी बने, क्यों करते फ़रियाद?
*
देर हुई है अत्यधिक, नहीं हुआ अंधेर।
सल्लू भैया सुधरिए, अब न कीजिए देर।।
*
हिरणों की हत्या करी, चला न कोई दाँव।
सजा मिली तो टिक नहीं, रहे जमीं पर पाँव।।
*
नर-हत्या से बचे पर, मृग-हत्या का दोष।
नहीं छिप सका भर गया, पापों का घट-कोष।।
*
आहों का होता असर, आज हुआ फिर सिद्ध।
औरों की परवा करें, नर हो बनें न गिद्ध।।
*
हीरो-हीरोइन नहीं, ख़ास नागरिक आम।
सजा सख्त हो तो मिले, सबक भोग अंजाम ।।
*
अब तक बचते रहे पर, न्याय हुआ इस बार।
जो छूटे उन पर करे, ऊँची कोर्ट विचार।।
*
फिर अपील हो सभी को, सख्त मिल सके दंड।
लाभ न दें संदेह का, तब सुधरेंगे बंड।।
*
न्यायपालिका से विनय करें न इतनी देर।
आम आदमी को लगे, होता है अंधेर।।
*
सरकारें जागें न दें, सुविधा कोई विशेष।
जेल जेल जैसी रहे, तनहा समय अशेष।।
**
६-४-२०१८

रविवार, 27 अप्रैल 2014

chhand salila: bhanu chhand -sanjiv


छंद सलिला:भानु छंद
संजीव
*
छंद-लक्षण: जाति त्रैलोक लोक , प्रति चरण मात्रा २१ मात्रा, चरणांत गुरु लघु (तगण, जगण), यति ६-१५।

लक्षण छंद:

भानु धन्य / त्रैलोक को देकर उजास


हो सबसे / इक्किस नहीँ करता प्रयास


छै-पंद्रह / पर यति, गुरु-लघु से कर अन्त

छंद रचे / कवि मन मौन-शांत ज्यों संत

उदाहरण:
१. अनीतियाँ / देखकर सुलग उठा पलाश
   कुरीतियाँ / देखकर लड़ें न हों निराश
   धूप-छाँव / के मिलन का नाम ज़िन्दगी-
   साथ-साथ / हाथ-हाथ लो न हो हताश

२. हार नहीं / प्रियतम को मीत बढ़ पुकार
    खार नहीं / कली-फूल-प्रीत को पुकार
    शूल-धूल / धार-कूल भूल कर प्रयास
    डाल-डाल / पात-पात खोज ले हुलास
 
३. भानु भोर / उषा को पुलक रहा तलाश
    सिहर-सिहर / हुलस-हुलस मल रहा अबीर
    चाह बाँह / में समेट ख़्वाब लूँ तराश
    सुना रहा / कान में कवित लगा अबीर
      *********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कामिनीमोहन कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हेमंत, हंसगति, हंसी)
हिंदी आटा माढ़िये, उर्दू मोयन डाल
'सलिल' संस्कृत सान  दे, पूरी बने कमाल
http://divyanarmada.blogspot.in
salil.sanjiv@gmail.com
facebook: sahiyta salila / sanjiv verma 'salil'

रविवार, 25 नवंबर 2012

घनाक्षरी / कवित्त रामबाबू गौतम

घनाक्षरी - कवित्त
रामबाबू गौतम                        

               चमके लली
चमके लली ललाम, गाल-लाल अभिराम,  
कमरि- कटीली तन, चले  तन-तनके
तनके  अनंग-अंग, मन  में  उमंग-संग,  
चले-चाल ये  भुजंग, बड़े  बन  ठनके
ठनके मांथा वैरियों, का देखि लली ये रूप,  
नैनन से करे वार, बड़े  जम-जमके।    
जमके ये वार-बार, हारे वैरी की कतार,  
हाथ की कटार-ढाल, लली हाथ चमके

            बिहार में विहार.

है बिहार में विहार, गढ़-वैशाली वहार,  
राजा विशाल-महल, भव्यता- परतीक है
है ये नर्तकी की भूमि, आम्रपाली रही झूमि, 
बुद्ध-प्रबुद्ध पधारे, स्वागत सटीक है।   
है घन्य-भाग्यशाली ये, भूमि-वैशाली विस्तार,  
चलके पधारे बुद्ध, धन्य ये अतीत  है। 
है विहार का प्रचार, विचार गढ़-विशाल,  
त्यागा भिक्षा-पात्र बुद्ध, दान का प्रतीक है।  
                   ----------------   
न्यू जर्सी 
                       

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

सावन गीत: कुसुम सिन्हा -- संजीव 'सलिल'

रचना-प्रति रचना 
मेरी एक कविता
फिर आया मदमाता सावन

कुसुम सिन्हा
*
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                             उमड़ घुमड़ कर काले बदल
                             नीले नभ में घिर आये
                               नाच नाचकर  बूंदों में ढल
                              फिर धरती पर छितराए
सपने घिर आये फिर मन में
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               लहर लहरकर  चली हवा  भी
                               पेड़ों को झकझोरती
                              बार बार फिर कडकी बिजली
                               चमक चमक चपला चमकी
सिहर सिहर  कर भींग भींग
धरती लेने अंगड़ाई लगी
                            वृक्ष नाच कर झूम  झूमकर
                            गीत लगे कोई गाने
                             हवा बदन छू छू  कर जैसे
                              लगी है जैसे  क्या कहने
नाच नाचकर  बूंदें जैसे
स्वप्न सजाने  मन में लगी
                               अम्बर से  सागर के ताल तक
                               एक वितान सा बूंदों का
                              लहरों के संग संग  अनोखा
                               नृत्य  हुआ फिर  बूंदों का
फिर आया मदमाता सावन
फिर बूंदों की झड़ी लगी
                               तृप्त  हो रहा था तन मन भी
                               प्यासी  धरती  झूम उठी
                             
  सरिता के तट  को छू छू कर
                                चंचल लहरें  नाच उठीं
सोंधी गंध उठी  धरती से
फिर बूंदों की झड़ी लगी
*
 
सावन गीत:                                                                                    
मन भावन सावन घर आया
संजीव 'सलिल'
*
मन भावन सावन घर आया
रोके रुका न छली बली....
*
कोशिश के दादुर टर्राये.
मेहनत मोर झूम नाचे..
कथा सफलता-नारायण की-
बादल पंडित नित बाँचे.

ढोल मँजीरा मादल टिमकी
आल्हा-कजरी गली-गली....
*
सपनाते सावन में मिलते
अकुलाते यायावर गीत.
मिलकर गले सुनाती-सुनतीं
टप-टप बूँदें नव संगीत.

आशा के पौधे में फिर से
कुसुम खिले नव गंध मिली....
*
हलधर हल धर शहर न जाये
सूना हो चौपाल नहीं.
हल कर ले सारे सवाल मिल-
बाकी रहे बबाल नहीं.

उम्मीदों के बादल गरजे
बाधा की चमकी बिजली....
*
भौजी गुझिया-सेव बनाये,
देवर-ननद खिझा-खाएँ.
छेड़-छाड़ सुन नेह भारी
सासू जी मन-मन मुस्कायें.

छाछ-महेरी के सँग खाएँ
गुड़ की मीठी डली लली....
*
नेह निमंत्रण पा वसुधा का
झूम मिले बादल साजन.
पुण्य फल गये शत जन्मों के-
श्वास-श्वास नंदन कानन.

मिलते-मिलते आस गुजरिया
के मिलने की घड़ी टली....
*
नागिन जैसी टेढ़ी-मेढ़ी
पगडंडी पर सम्हल-सम्हल.
चलना रपट न जाना- मिल-जुल
पार करो पथ की फिसलन.

लड़ी झुकी उठ मिल चुप बोली
नज़र नज़र से मिली भली....
*
गले मिल गये पंचतत्व फिर
जीवन ने अंगड़ाई ली.
बाधा ने मिट अरमानों की
संकुच-संकुच पहुनाई की.

साधा अपनों को सपनों ने
बैरिन निन्दिया रूठ जली....

**********

बुधवार, 17 अगस्त 2011

सामयिक कुण्डलिनी छंद : रावण लीला देख ---संजीव 'सलिल'

सामयिक कुण्डलिनी छंद :
रावण लीला देख
--संजीव 'सलिल'
*
लीला कहीं न राम की, रावण लीला देख.
मनमोहन है कुकर्मी, यह सच करना लेख..
यह सच करना लेख काटेगा इसका पत्ता.
सरक रही है इसके हाथों से अब सत्ता..
कहे 'सलिल' कविराय कफन में ठोंको कीला.
कभी न कोई फिर कर पाये रावण लीला..
*
खरी-खरी बातें करें, करें खरे व्यवहार.
जो  कपटी कोंगरेस है,उसको दीजे हार..
उसको दीजै हार सबक बाकी दल लें लें.
सत्ता पाकर जन अधिकारों से मत खेलें..
कुचले जो जनता को वह सरकार है मरी.
'सलिल' नहीं लाचार बात करता है खरी.
*
फिर जन्मा मारीच कुटिल सिब्बल पर थू है.
शूर्पणखा की करनी से फिर आहत भू है..
हाय कंस ने मनमोहन का रूप धरा है.
जनमत का अभिमन्यु व्यूह में फँसा-घिरा है..
कहे 'सलिल' आचार्य ध्वंस कर दे मत रह घिर.
नव स्वतंत्रता की नव कथा आज लिख दे फिर..
*********************
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com

सोमवार, 1 अगस्त 2011

मुक्तिका: चलो जिंदगी को मुहब्बत बना दें --संजीव 'सलिल'

मुक्तिका:
चलो जिंदगी को मुहब्बत बना दें
संजीव 'सलिल'
*
'सलिल' साँस को आस-सोहबत बना दें.
जो दिखलाये दर्पण हकीकत बना दें.. 

जिंदगी दोस्ती को सिखावत बना दें..
मदद गैर की अब इबादत बना दें.

दिलों तक जो जाए वो चिट्ठी लिखाकर.
कभी हो न हासिल, अदावत बना दें..

जुल्मो-सितम हँस के करते रहो तुम.
सनम क्यों न इनको इनायत बना दें?

रुकेंगे नहीं पग हमारे कभी भी.
भले खार मुश्किल बगावत बना दें..

जो खेतों में करती हैं मेहनत हमेशा.
उन्हें ताजमहलों की जीनत बना दें..

'सलिल' जिंदगी को मुहब्बत बना दें.
श्रम की सफलता से निस्बत करा दें...
Acharya Sanjiv Salil

http://divyanarmada.blogspot.com

गीत: प्राण बूँद को तरसें ---- संजीव 'सलिल'


गीत:                                                                               
प्राण बूँद को तरसें
संजीव 'सलिल'
*
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
कृपासिंधु है याद न हमको, तुम जग-जीवनदाता.
अहं वहम का पाले समझें,हम खुद को  ही त्राता..
कंकर में शंकर न देखते, आँख मूँद बैठे है-
स्वहित साध्य हो गया, सर्वहित किंचित नहीं सुहाता..
तृषा न होती तृप्त थक रहे, स्वप्न न क्यों कुछ सरसें?
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
प्रश्न पूछते लेकिन उत्तर, कोई नहीं मिल पाता.
जिस पथ से बढ़ते, वह पग को और अधिक भटकाता..
मरुथल की मृगतृष्णा में फँस, आकुल-व्याकुल लुंठित-
सिर्फ आज में जीते, कल का ज्ञात न कल से नाता..
आशा बादल उमड़ें-घुमड़ें, गरजें मगर न बरसें...
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*
माया महाठगिनी सब जानें, मोह न लेकिन जाता.
ढाई आखर को दिमाग, सुनता पर समझ न पाता..
दिल की दिल में ही रह जाती, हिल जाता आधार-
मिली न चादर ज्यों की त्यों, बोलो कैसे रख गाता?
चरखा साँसें आस वसन बुन, चुकीं न पल भर हरसें.
प्राण बूँद को तरसें,
दाता! प्राण बूँद को तरसें...
*