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रविवार, 3 अप्रैल 2011

एक रचना: बिन तुम्हारे... संजीव 'सलिल'

एक रचना:                                                                                                

बिन तुम्हारे...

संजीव 'सलिल'

*

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

चहचहाते पखेरू पर डालता कोई न डेरा.



उषा की अरुणाई मोहे, द्वार पर कुंडी खटकती.

भरम मन का जानकर भी, दृष्टि राहों पर अटकती..



अनमने मन चाय की ले चाह जगकर नहीं जगना.

दूध का गंजी में फटना या उफन गिरना-बिखरना..



साथियों से बिना कारण उलझना, कुछ भूल जाना.

अकेले में गीत कोई पुराना फिर गुनगुनाना..



साँझ बोझिल पाँव, तन का श्रांत, मन का क्लांत होना.

याद के बागों में कुछ कलमें लगाना, बीज बोना..



विगत पल्लव के तले, इस आज को फिर-फिर भुलाना.

कान बजना, कभी खुद पर खुद लुभाना-मुस्कुराना..



बि​न तुम्हारे निशा का लगता अँधेरा क्यों घनेरा?

बिन तुम्हारे सूर्य उगता, पर नहीं होता सवेरा.

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