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रविवार, 2 मई 2021

भूमिका हस्तिनापुर की बिथा कथा डॉ. सुमन श्रीवास्तव

भूमिका
हस्तिनापुर की बिथा कथा
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
*
बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐंसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानें सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली र्मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं। बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग-पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक। सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप नें हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन 1435 में महाभारत और 1443 में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी हती। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। 2012 में रामान की कथा लिखी और अब 2019 में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है। महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानबजीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचै जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै। संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठ से जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं - 1. हस्तिनापुर कौ राजबंस, 2. कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, 3. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, 4. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, 5. अग्यातबास में पाण्डव, 6. दुर्योधन को पलटबौ और युद्ध के बदरा, 7. महायुद्ध (भाग-1) पितामह की अगुआई में , 8. महायुद्ध (भाग-2) आखिरी आठ दिन, 9. महायुद्ध के बाद। सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हैं। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन । एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।
महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय - ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’। आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।। काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है। काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डाॅ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाँच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है - कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ। राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।। बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं। अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हितचिन्तन सबसें ऊपर रचै गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं। श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे - सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ? ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है - जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।
जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -
पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।
और फिर -
आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।
फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नई स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।
गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी। माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-
लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।
‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -
कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।।
महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै।
‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -
कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।
द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्दे्रयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -
हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।
सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं- ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए। कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो। औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।।
हास्य - फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर। माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।।
करुण - किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ। चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।।
वीर-तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए। सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।।
रौद्र - तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै। भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।।
भयानक - दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई। मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।।
वीभत्स - ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की। पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।।
अद्भुत - चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ। खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।।
भक्ति - जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत। दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।।
आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बनइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं। जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डाॅ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं - जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की। जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।। पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है - है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं। बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।।
***
संपर्क-- डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव 107, इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट रोड जबलपुर सम्पर्क: 9893107851

शनिवार, 2 मई 2020

भूमिका हस्तिनापुर की बिथा कथा डॉ. सुमन श्रीवास्तव

भूमिका
हस्तिनापुर की बिथा कथा
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
*

बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐंसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानें सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली र्मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं। बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग-पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक। सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप नें हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन 1435 में महाभारत और 1443 में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी हती। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। 2012 में रामान की कथा लिखी और अब 2019 में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है। महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानबजीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचै जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै। संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठ से जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं - 1. हस्तिनापुर कौ राजबंस, 2. कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, 3. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, 4. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, 5. अग्यातबास में पाण्डव, 6. दुर्योधन को पलटबौ और युद्ध के बदरा, 7. महायुद्ध (भाग-1) पितामह की अगुआई में , 8. महायुद्ध (भाग-2) आखिरी आठ दिन, 9. महायुद्ध के बाद। सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हैं। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन । एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।
महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय - ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’। आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।। काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है। काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डाॅ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाँच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है - कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ। राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।। बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं। अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हितचिन्तन सबसें ऊपर रचै गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं। श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे - सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ? ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है - जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।
स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।
जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -
पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।
और फिर -
आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।

फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नई स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।
गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी। माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-
लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -
कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।।

महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै।
‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -
कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।
द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्दे्रयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -
हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।

सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं- ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए। कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो। औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।।
हास्य - फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर। माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।।
करुण - किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ। चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।।
वीर-तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए। सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।।
रौद्र - तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै। भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।।
भयानक - दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई। मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।।
वीभत्स - ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की। पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।।
अद्भुत - चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ। खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।।
भक्ति - जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत। दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।।
आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बनइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं। जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डाॅ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं - जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की। जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।। पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है - है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं। बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।।
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संपर्क-- डाॅ. सुमनलता श्रीवास्तव 107, इन्द्रपुरी, ग्वारीघाट रोड जबलपुर सम्पर्क: 9893107851

गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

बुंदेली कहानी कचोंट डॉ. सुमन श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
कचोंट
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
*
सत्तनारान तिबारीजी बराण्डा में बैठे मिसराजी के घर की तरपीं देख रअे ते और उनें कल्ल की खुसयाली सिनेमा की रील घाईं दिखा रईं तीं। मिसराजी के इंजीनियर लड़का रघबंस को ब्याओ आपीसर कालोनी के अवस्थी तैसीलदार की बिटिया के संगें तै हो गओ तो। कल्ल ओली-मुंदरी के लयं लड़का के ममआओरे-ददयाओरे सब कहुँ सें नाते-रिस्तेदारों को आबो-जाबो लगो रओ। बे ओंरें तिबारीजी खों भी आंगें करकें समद्याने लै गअे ते। लहंगा-फरिया में सजी मोड़ी पूजा पुतरिया सी लग रई ती। जी जुड़ा गओ। आज मिसराजी कें सूनर मची ती। खबास ने बंदनबार बाँदे हते, सो बेई उतरत दुफैरी की ब्यार में झरझरा रअे ते।

इत्ते में भरभरा कें एक मोटर-साइकल मिसराजी के घर के सामनें रुकी। मिसराजी अपनी दिल्लान में बाहर खों निकर कें आय, के, को आय ? तबई्र एक लड़किनी जीन्स-सर्ट-जूतों में उतरी और एक हांत में चाबी घुमात भई मिसराजी के पाँव-से परबे खों तनक-मनक झुकी और कहन लगी - ‘पापाजी, रघुवंश है ?’ मिसराजी तो ऐंसे हक्के-बक्के रै गअे के उनको बकइ नैं फूटो। मों बांयं, आँखें फाड़ें बिन्नो बाई खों देखत रै गये। इत्ते में रघबंस खुदई कमीज की बटनें लगात भीतर सें निकरे और बोले - ‘पापा, मैं पूजा के साथ जा रहा हूँ। हम बाहर ही खा लेंगे। लौटने में देर होगी।’ मिसराजी तो जैंसई पत्थर की मूरत से ठांड़े हते, ऊँसई ठांडे़ के ठांड़े रै गय। मोटरसाइकल हबा हो गई। तब लौं मिसराइन घुंघटा सम्हारत बाहरै आ गईं - काय, को हतो ? अब मिसराजी की सुर्त लौटी - अरे, कोउ नईं, तुम तो भीतरै चलो। कहकैं मिसराइन खों ढकेलत-से भीतरैं लोआ लै गअे। तिबारी जी चीन्ह गअे के जा तो बई कन्या हती, जीके सगुन-सात के लयं गअे हते। तिबारी जी जमाने को चलन देखकैं मनइं मन मुस्कान लगे। नांय-मांय देखो, कोउ नैं हतौ कै बतया लेते। आज की मरयादा तो देखो। कैंसी बेह्याई है ? फिर कुजाने का खेयाल आ गओ के तिलबिला-से गअे। उनकें सामनें सत्तर साल पैलें की बातें घूम गईं। आज भलेंईं तिबारीजी को भरौ-पूरौ परिबार हतो, बेटा-बेटी-नाती-पोता हते, उनईं की सूद पै चलबे बारीं गोरी-नारी तिबारन हतीं, मनां बा कचोंट आज लौं कसकत ती।
सत्तनारान तिबारी जी को पैलो ब्याओ हो गओ तो, जब बे हते पन्दरा साल के। दसमीं में पड़त ते। आजी की जिद्द हती, जीके मारें; मनों दद्दा ने कड़क कें कै दइ ती कै हमाये सत्तू पुरोहितयाई नैं करहैं। जब लौं बकालत की पड़ाई नैं कर लैंहैं, बहू कौ मों नैं देखहैं। आज ब्याओ भलेंईं कल्लो, मनों गौनौ हूहै, जब सही समौ आहै। सो, ब्याओ तो हो गओ। खूब ढपला बजे, खूब पंगतें भईं। मनों बहू की बिदा नैं कराई गई। सत्तू तिबारी मेटरिक करकें गंजबसौदा सें इन्दौर चले गअे और कमरा लें कें कालेज की पड़ाई में लग गअे। उनके संग के और भी हते दो चार गाँव-खेड़े के लड़का, जिनके ब्याओ हो गअे हते, कइअक तो बाप सुंदां बन गअे हते। सत्तू तो बहू की मायाजाल में नैं परे ते, मनो समजदार तो हो गय ते। कभउँ-कभउँ सोच जरूर लेबें कै कैंसो रूप-सरूप हुइये देबासबारी को, हमाय लयं का सोचत हुइये, अब तो चाय स्यानी हो गई हुइये।
खबर परी कै देबास बारी खूबइ बीमार है और इन्दौर की बड़ी अस्पताल में भरती है। अब जौन भी आय, चाय देबास सें, चाय गंजबसौदा सें, सत्तू केइ कमरा पै ठैरै। सत्तू सुनत रैबें के तबीअत दिन पै दिन गिरतइ जा रइ है, सेबा-सम्हार सब बिरथां जा रइ है। सत्तू फड़फड़ायं कै हमइ देख आबें, मनों कौनउ नें उनसें नईं कई, कै तुमइ चलो। दद्दा आय, कक्का आय, बड़े भैया आय मनों आहाँ। जे सकोच में रय आय और महिना-दो महिना में सुनी कै डाकटरों ने सबखां लौटार दओ। फिर महीना खाँड़ में देबास सें जा भी खबर आ गई कै दुलहन नईं रई। जे गतको-सो खाकैं रै गअे।
एइ बात की कचोंट आज तलक रै गई कै जीखौं अरधांगनी बनाओ, फेरे डारे, सात-पाँच बचन कहे-सुने, ऊ ब्याहता को हम मों तक नैं देख पाय। बा सुइ पति के दरसनों खों तरसत चली गई और हम पोंचे लौं नईं, नैं दो बोल बोल पाय। हम सांगरे मरयादइ पालत रै गअे। ईसें तो आजइ को जमानो अच्छो है। संग-साथ क बचन तो निभा रय। हमें तो बस, बारा-तेरा साल की बहू को हांत छूबो याद रै गओ जिन्दगी-भर के लयं, जब पानीग्रहन में देबास बारी को हाथ छुओ तो।,,,,,,और बोइ आज लौं कचोंट रओ।
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बुंदेली कहानी स्वयंसिद्धा डॉ. सुमन श्रीवास्तव

बुंदेली कहानी
स्वयंसिद्धा
डॉ. सुमन श्रीवास्तव
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पंडत कपिलनरायन मिसरा कोंरजा में संसकिरित बिद्यालय के अध्यापक हते। सूदो सरल गउ सुभाव। सदा सरबदा पान की लाली सें रचौ, हँसत मुस्कात मुँह। एकइ बिटिया, निरमला, देखबे दिखाबे में और बोलचाल में बिलकुल ‘निर्मला’। मिसराजी मोड़ी के मताई-दद्दा दोइ। मिसराजी की पहली ब्याहीं तो गौना होकें आईं आईं हतीं, कै मोतीझिरा बब्बा लै गए और दूसरी निरमला की माता एक बालक खों जनम देत में ओइ के संगे सिधार गईं तीं। ईके बाद तीसरी बार हल्दी चढ़वाबे सें नाहीं कर दई मिसराजी ने।
निरमला ब्याह जोग भईं, तो बताबे बारे ने खजरा के पंडत अजुद्धा परसाद पुरोहित के इतै बात चलाबे की सलाय दइ। जानत ते मिसराजी उनें। अपनेइं गाँव में नईं, बीस कोस तक के गांवों में बड़ो मान हतो पुरोहिज्जी को। जे बखत तिरपुण्ड लगाएं गैल में निकर परैं, सो आबे-जाबे बारे नोहर-नोहर के ‘पाय लागौं पंडज्जी’ कहत भए किनारे ठांड़े हो जाएं। बे पंचों में भी सामिल हते। देख भर लेबें कौनउ अन्नाय, दलांक परैं। मों बन्द कर देबैं सबके। चाय कौनउ नेता आए, चाय कौनउ आफीसर, बिना पुरोहिज्जी की मत लयं बात नइं बढ़ सकै।
ऊँचो ग्यान हतो उनको। जित्ते पोथी-पत्तर पढ़े ते, उत्तइ बेद-पुरान। मनों, बोलत ते बुंदेली। जब मौज में आ जायं, तो खूब सैरा-तैया, ईसुरी की फागें छेड़ देबैं। कहैं कै अपनी बुंदेली में बीररस के गीत फबत हैं और सिंगार रस के भी। बुंदेली के हिज्जे में जोन ऊपर बुंदी लगी है, बइ है सिंगार के लयं। मिसराजी ने पुरोहिज्जी खों सागर जिले के ‘बुंदेलखण्डी समारोह’ में देखो हतो। मंच पै जब उनें माला-आला डर गई, तो ठांड़े होकें पैलें उनने संचालकों खोंइ दो सुना दईं। अरे, बातें बुंदेलखंड की करबे आए हो, मनों बता रय हो खड़ी बोली में। बुंदेली कौ उद्धार चाहत हो, तो बोल-चाल में लाओ। जित्ती मिठास और जित्तो अपनोपन ई बोली में मिलहै, कहुँ नें मिलहै। किताब में लिख देबै सें बोली कौ रस नइ समज में आत। हर बोली बोलबे कौ अलग ढंग होत है। अलग भांस होत है हर भासा की, अलग लटका। कब ‘अे’ कहनें है, कब ‘अै’, कब ‘ओ’ कब ‘औ’। जा बात बिना बोलें, नइंर् समजाइ जा सकत। फिर नैं कहियो के नई पीढ़ी सीख नईं रइ, अरे तुम सिखाओ तो। और नइं तो तुमाय जे सब समारोह बेकार हैं। उनके हते तीन लड़का- राधाबल्लभ, स्यामबल्लभ और रमाबल्लभ। राधाबल्लभ के ब्याह के बाद
स्यामबल्लभ के लयं संबंध आन लगे ते। मजे की बात एेंसी भई; कै पुरोहिज्जी खों कोंरजइ बुलाओ गऔ भागवत बांचबे। बे भागवत भी बांचत हते और रामान भी। चाए किसन भगवान को द्वारकापिरस्तान होय, चाय सीतामैया की अग्निपरिच्छा, सुनबे बारों के अंसुआ ढरकन लगें। सत्तनारान की कथा तो ऐंसी, कै लगै मानों लीलाबती कलाबती अपनी महतारी-बिटियें होयं।
मिसराजी प्रबचन के बाद पुरोहिज्जी खों अपने घरै लै गए। घर की देख-संभार तौ निरमलइ करत ती। घिनौची तो, बासन तो, उन्ना-लत्ता तो, सब नीचट मांज-चमका कें, धो-धोधा कैं रखत ती। छुइ की ढिग सुंदा उम्दा गोबर से लिपौ आंगन देखकें पुरोहिज्जी की आत्मा पिरसन्न हो गई। दोइ पंडत बैठकें बतयान लगे कै बालमीकी की रामान और तुलसी की रामान में का-कित्तो फरक है। मौका देखकें मिसराजी बात छेडबे की बिचारइ रय ते; कै ओइ समै निरमला छुइ-गेरु सें जगमग तुलसी-चौरा में दिया बारबे आई। दीपक के उजयारे में बिन्नाबाई को मुँह चंदा-सो दमक उठौ। पुरोहिज्जी ने ‘संध्याबन्दन’ में हांत जोरे और निरमला खों अपने घर की बहू बनाबे को निस्चै कर लओ। कुंडलीमिलान के चक्कर में सोनचिरैया सी कन्या नें हांत से निकर जाय, सो कुंडली की बातइ नइं करी और पंचांग देखकें निरमला सें स्यामबल्लभ को ब्याओ करा दओ।
मंजले स्यामबल्लभ खों पुरोहिज्जी ने अपनो चेला बनाकें अपनेइ पास रक्खौ हतौ। एकदम गोरौ रंग, ऊँचो माथो, घुंघरारे बाल और बड़ी-बड़ी आँखें। गोल-मटोल धरे ते, जैंसे मताइ ने खूब माखन-मिसरी खबाइ होय। जब पुरोहिज्जी भागवत सुनांय, तो स्यामबल्लभ बीच-बीच में तान छेड़ देबैं। मीठो गरो, नइ-नइ रागें।
हरमुनियां पै ऐंसे-ऐंसे लहरा छेड़ें कै लगै करेजौ निकर परहै। सोइ रामान में एक सें एक धुनों में चौपाइएं। जब नारज्जी बन्दर बन गए, तो अलग लै-राग-ताल, कै पेट में हँसी कुलबुलान लगै और जब राम बनबास खों निकरन लगे, तो अलग कै रुहाइ छूट जाए।
बड़े राधाबल्लभ ने धुप्पल में रेलबइ को फारम भर दऔ और नौकरी पा गए। अपने बाल-बच्चा समेट कें, पेटी दबाकें निकर गए भुसावल। एकाद साल बाद लौटे, तो हुलिया बदल गई हती, बोली बदल गई हती। सो कछु नईं। मनों जब पुरोहिज्जी ने सुनी के बे खात-खोआत हैं, बस बिगर गए। बात जादई बढ़ गई, पिता ने चार जनों के सामनें थुक्का-फजीहत कर दई, सो राधाबल्लभ ने घरइ आबो छोड़ दओ।
छोटे रमाबल्लभ की अंगरेजी की समज ठीक हती, सो उनइं खों जमीन-जायदाद, खेती-बाड़ी, ढोर-जनावर, अनाज-पानी, कोर्ट-कचैरी की जिम्मेदारी दइ गई। रमाबल्लभ भी राजी हते, कायसें के ई बहाने, कछु रुपैया-पैसा उनके हांत में रैन लगौ तो।
निरमला खों तो सास के दरसनइ नईं मिले। बउ तो तीनइ चार दिनां के बुखार में चट्ट-पट्ट हो गईं तीं। बड़ी बहू घर की मालकन हती। मनों, जब बे बाहरी हो गईं, तो एइ ने हुसियारी सें घर सम्हार लओ। सुघर तौ हती; ऊपर सें भगवान नैं रूप ऐंसो दओ तो कै सेंदुर भरी मांग, लाल बड़ी टिबकी, सुन्ने के झुमकी, नाक की पुंगरिया, चुड़ियों भरे हांत, पांवों में झमझमात तोड़ल-बिछिया और सूदे पल्ले को घुंघटा देखकें लगै कै बैभोलच्छमी माता की खास किरपा ऐइ पै परी है। पुरोहिज्जी ने बहुओं खों खूब चाँदी-सोना चढ़ाओ हतौ।
छोटे रमाबल्लभ की बहू सुसमा सो निरमला केइ पीछें-पीछें लगी रहै और छोटी बहन घाईं दबी रहै। ओकी तीसरी जचकी निरमला नेंइं संभारीं, हरीरा सें, लड़ुअन सें, घी-हल्दी सें, मालिस-सिंकाई सें, कहूं कमी नैं रैन दइ। हाली-फूली निरमला ने खुदइ चरुआ चढ़ा लओ, खुदइ छठमाता पूज लइं, खुदइ सतिया बना लय, खुदइ दस्टौन, कुआपुजाइ, मातापूजा, झूला, पसनी सब कर लओ। कच्छु नैं छोड़ो। अपने दोइ लड़कों, माधवकान्त और केसवकान्त खों बिठार दओ कै पीले और गुलाबी झिलमिल कागज के चौखुट्टे टुकड़ों में दो-दो बड़े बतासा ध्ा रत जावें और धागा बांध कें पुड़ियें बनावें। निरमला ने खूब बुलौआ करे, बतासा बांटे, न्यौछावरें करीं। ढुलकिया तो ऐंसी ठनकी के चार गांव सुनाइ दइ -‘मोरी ढोलक लाल गुलाल, चतुर गावनहारी।’ एक सें एक हंसी-मजाक कीं, खुसयाली कीं, दुनियांदारी कीं, नेग-दस्तूर कीं जच्चा, सोहर, बधाईं। दाइ-खबासन सब खुस। निरमला-सुसमा दोइ के पैले जापे तो जिठानी ने जस-तस निबटा लय ते। एक बे तो फूहड़ हतीं, दूसरें भण्डारे की चाबी धोती के छुड्डा सें छूट नै सकत ती। मनों निरमला की देखादेखी सुसमा ने भी कभउँ उनकी सिकायत नें करी। बड़ी सबर बारी कहाईं। तबइ तो पुरोहिज्जी के घर में लच्छमी बरसत ती।
पुरोहिज्जी निरमला खों इत्ते मुकते काम एक संगे निबटात देख कें मनइ-मन सोचन लगें कै जा बहू तो अस्टभुजाधारी दुरगामैया को औतार है - नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमो नमः। गांव-बस्ती में भी खूब जस हो गओ निरमला को। कहूं सुहागलें होयं, कहूं सात सुहागलों के हातों ब्याओ के बरी-पापर बनन लगें, बर-बधू खों हल्दी-तेल चढ़न लगै, तो सगुन-सात के कामों में निरमला को हांत सबसे पहले लगवाओ जाए। एक तो बाम्हनों के घर कीं, फिर उनके गुन-ढंग लच्छमी से।
मनों का सब दिन एकइ से रहत हैं ? बिधि को बिधान। पुरोहिज्जी मों-अंधेरें खेतों की तरप जात हते। एक दिन लौटे नइं। निरमला खों फिकर मच गई। इत्ते बखत तक तो उनके इस्नान-ध्यान, पाठ-पूजा, आरती-परसाद सब हो जात तो, आज कितै अटक गए ? स्याम, रमा, माधव, केसव सब दौर परे। देखत का हैं के खेत की मेंड़ पे ओंधे मों डरे हैं, बदन नीलो पर गओ है, मुँह सें फसूकर निकर रओ है। तब लौं गांव के और आदमी भी उतइं पोंच गए। समज गए कै नागराज डस गए। पूरे दिन गुनिया, झरैया, फुंकैया सब लगे रहे कै नागदेवता आएं और अपनौ जहर लौटार लयं। गांव भर में चूल्हो नइं जरौ उदिना। सब हाहाकार करें, मनों आहाँं; कुजाने कौन से बिल में बिला गओ बो नांग। संझा लौं एक जनो तहसील सें डाक्टर खों बुला लै आओ, मनों ऊने आतइं इसारा कर दओ कै अब देर हो गई।
पुरोहिज्जी के जाबे सें अंधयारो सो छा गओ। पूजा-रचा, उपास-तिरास, जग्ग-हबन को बो आनन्द खतम हो गओ। सबने स्यामबल्लभ खोंइ समजाओ कै बेइ पुरोहताई संभारें। निरमला नें बाम्हनों के नेम-धरम और घर की मान-मर्जादा की बातें समजाईं। सो उनने बांध लई हिम्मत। अब बेइ पूजन-पुजन लगे। निरमला को नाम पर गओ, पंडतान बाई।
निरमला पंडतान को पूरो खेयाल ए बात पै रहत हतो कै ओके लड़का का पढ़ रय, का लिख रय, किते जात हैं, कौन के संगे खेलत-फिरत हैं, बड़ों के सांमने कैंसो आचरन करत हैं। तनक इतै उतै होयं, तो साम दाम दंड भेद सब बिध से रस्ता पे लै आय। निरमला ने अपने पिता के घर में सीखे नर्मदाष्टक, गोविन्दाष्टक, शिवताण्डवस्तोत्र, दुर्गाकवच, रामरक्षास्तोत्र, गीता के इस्लोक सबइ कछु बिल्लकुल किताब घाईं मुखाग्र करवा दय लड़कों खों। बड़े तेज हते बालक। स्यामबल्लभ ने बच्चों की कभउँ सुर्त नैं लइ। अपनी बन-ठन, तिलक-चन्दन मेंइं घंटाक निकार देबैं। नैं लड़कों खो उनसें मतलब, नैं उनें लड़कों सें। हाँ घर लौटें, सो जरूर लड़कों में आरती-दच्छना की चिल्लर गिनबे की होड़ लग जाए। निरमला भोग के फल-मिठाई संभार कें रख लेबै और सबखों परस कें ख्वा देबै। ओके मन में अपने लड़कों और सुसमा के बाल-बच्चों में भेद नैं हतो।
होत-होत, कहुँ सें साधुओं कौ एक दल गाँव में आ गऔ। गांवबारों नै खूब आव-भगत करी, प्रबचन सुने, दान-दच्छना दइ। खूब धूनी रमत ती। स्यामबल्लभ उनके संगे बैठें, तो बड़ो अच्छौ लगै। मंडली खों हती गांजा-चरस की लत। सो बइ लत लगा दइ स्यामबल्लभ खों। अब बे सग्गे लगन लगे और घर-संसार मोहमाया। निरमला ने ताड़ लओ, मनों स्यामबल्लभ नें घरबारी की बात नैं सुनीं। हटकत-हटकत उनइं के महन्त के सामनें भभूत लपेट कें गंगाजली उठा लइ और हो गए साधू। गाँव बारों ने खूब जैकारो करौ। धन्न-धन्न मच गई। गतकौ सो लगौ निरमला खों। कछू नैं समज परौ। तकदीर खों कोस कें रै गई। साधुओं कौ दल स्यामबल्लभानन्द महाराज खों लैकें आंगें निकर गओ। गांव में निरमला कौ मान और बढ़ गओ। जा कौ पति साधु-सन्त हो जाए, तो बा भी सन्तां से कम नइं। ठकरान, ललयान, बबयान, मिसरान सब पाँव परन लगीं। मनों निरमला के मन पै का बीत रइ हती ? लड़काबारे छोटे-छोटे, कमैया छोडकें चलौ गओ। कछू दिनां तो धरे-धराय सें काम चलत रहौ, मनों बैठ के खाओ तौ कुबेर कौ धन सुइ ओंछ जाय। एक-एक करकें चीजें-बसत बिकन लगीं। आठ-दस बासन भी निकार दय। उतै रमाकान्त ने पटवारी सें मिलीभगत करकें जमीन और घर अपने नाम करवा लओ। कोइ हतौ नइं देखबे बारौ, सो कर लइ मनमरजी। कहबै खों तो निरमला और बच्चों की मूड़ पै छत्त नैं रइ ती, मनों सुसमा अड़ गई कै जिज्जी एइ घर में रैहें, भलें तुम और जो चाहे मनमानी कर लो।
चलो, एक कुठरिया तौ मिल गई, मनों खरचा-पानी कैंसें चलत ? रमाबल्लभ ने पूंछो भी नइं और पूंछते तो का इत्ते छल-कपट के बाद निरमला उनको एसान लेती ? लड़का बोले, माइ! अब हम इस्कूल नैं जैहैं।
बस, निरमला पंडतान की इत्ते दिनों की भड़ास निकर परी - काय, तौ का बाप घाईं भभूत चुपर कें साधू बन जैहौ ? दुआर-दुआर जाकें मांगे की खैहौ ? दूसरों के दया पै पलहौ ? अरे हौ, सो तुमइं भांग में डूबे रइयो, गांजा-चरस के सुट्टा लगइयो, गैरहोस होकें परे रइयो, कै जनता समजे महात्माजी समादी में हैं। झूंठो छल, झूंठो पिरपंच। अपने आलसीपने खों, निकम्मेपने खों धरम को नाम दै दऔ; सो मुफत की खा रय और गर्रा रय।
सब ठठकरम, सब ढकोसला। साधुओं की जमात में भगत हैं, भगतनें हैं, कमी कौन बात की उनें ? नें बे देस के काम आ रय, नें समाज के, नें परिबार के। अपनौ पेट भर रय और जनता खों उल्लू बना रय। ऊँसइ बेअकल बे भक्त, अंधरया कें कौनउ खों भी पूजन लगत हैं। और सच्ची पूंछो तो, कइयक तो अपनी उल्टी-सूदी कमाई लुकाबे के लानें धरम को खाता खोल लेत हैं और धरमात्मा कहान लगत हैं।
कान खोल कें सुन लो, माधोकान्त और केसोकान्त! तुमें जनम देबै बारो तो अपनी जिम्मेबारियों सें भग गओ कै उनकी औलाद खों हम पालैं, कायसें के हमाए पेट सें निकरे हो। मनों बे हमें कम नैं समजें। अबे समै खराब है, सो चलन दो। कल्ल खों हम अपने हीरा-से लड़कों खों एैसो बना दैहें के फिर पुरोहिज्जी की इज्जत इ घर में लौट्याये। अपन मेहनत मजूरी कर लैहें, बेटा। मनों, लाल हमाय ! तुम दोइ जनें पढ़बो लिखबो नें छोड़ियो। तुम दोइ जनों खों अपने नाना की सूद पकर कें सिक्छक बनने है।’ निरमला दोइ कुल को मान बढ़ाबो चहत ती।
निरमला ने ठाकुरों के घरों में दोइ बखत की रोटी को काम पकर लओ। कभउँ सेठों के घरों के पापर बेल देबै। हलवाइयों के समोसा बनवा देबै। कहुँ पे बुलाओ जाय, तो तीज-त्यौहार के पकवान बनवा देबै।
कभउँ घरइ में गुजिया, पपरिया बनाकें बेंच देबै। कहूँ बीनबे-पीसबे, छानबे-फटकबे खों चली जाय। एक घड़ी की फुरसत नइं, आराम नइं। बस, मन में संकल्प कर लओ हतो कै लड़कों खों मास्टर बनानै है और बो भी कालेज को। गर्मियों में माधोकान्त और केसोकान्त लग जायं मालगुजार साहब खों पंखा डुलाबे के काम में। मालगुजारी तौ नें रही हती, मनों ठाठ बेइ। उनें बिजली के पंखा की हवा तेज लगत ती। अपनी बैठक की छत्त सें एक बल्ली में दो थान कपड़ा को पंखा झुलवाएं हते, ओइ खों पूरे-पूरे दिन रस्सी सें डुलाने परत हतो। जित्ते पैसा मिलें, सो माधव केसव किताब-कापियों के लानें अलग धर लेबैं। इतै-उतै की उसार कर देबैं, सो बो पैसा अलग मिल जाय। बाकी दिनों में बनिया की अनाज-गल्ले की दुकान पे लग जायं। इस्कूल के लयं सात-सात कोस को पैदल आबो-जाबो अलग। उनकी मताइ हती उनकी गुरु। जैंसी कहै, सो बे राम लछमन मानत जायं। दोइ भइयों ने महतारी की लाज रक्खी। माधव कान्त पुरोहित दसमीं के बोर्ड में और केशव कान्त पुरोहित आठमीं के बोर्ड में प्रथम स्रेनी में आ गए। मैडल मिले। कलेक्टर ने खुद बुलवा कें उनकी इस्कालरशिप बँधवा दइ। पेपरों में नाम छपो, फोटो निकरी। सब कहैं, साधु महात्मा की संतान है। काय नें नाम करहैं ?
स्यामबल्लभ महाराज को पुन्न-परताप है के ऐंसे नोंने लड़का भए। सुई के छेद सें निकर जायं, इत्तो साफ-सुथरौ चाल-चलन। धन्य हैं स्यामबल्लभ! निरमला जब सुनै कै पूरी बाहबाही तौ स्यामबल्लभ खों दइ जा रइ है, सो आग लग जाए ओ के बदन में। हम जो हाड़ घिसत रय, सो कछु नइं ? सीत गरमी बरसात नैं देखी, सो कछु नइं? गहना-गुरिया बेंच डारे, सो कछु नइं। दो कपड़ों में जिन्दगी काट रय, सो कछु नइं ? भूंके रह कें खरचा चलाओ हमनें, पेट काटो हमनें, लालटेन में गुजारा करौ हमनें, और नाम हो रओ उनको ! जित्तो सोचै, उत्तोइ जी कलपै। स्यामबल्लभ के नाम सें चेंहेक जाय। नफरत भर गई। का दुनियां है, औरतों की गत-गंगा होत रैहै, बोलबाला आदमियों को हूहै।
कहत कछु नैं हती। अपने पति की का बुराई करनै ? संस्कार इजाजत नइं देत ते। मन मार कैं रह जाय। इज्जत जित्ती ढंकी-मुंदी रहै, अच्छी। देखत-देखत लड़का कालेज पोंच गए। उतै भी अब्बल। सौ में सें सौ के लिघां नम्बर। कालेज को नाम पूरे प्रदेस में हो गओ। कालेज बारों ने सब फीसें माफ कर दइं। कालेज पधार कें मुख्यमंत्री ने घोसना कर दई कै इन होनहार छात्रों की ऊँची सें ऊँची पढ़ाई कौ खरचा सरकार उठैहै। उनने खुद निरमला पंडतान को स्वागत करौ -
‘हम इन स्वयंसिद्धा महिला श्रीमती निर्मला देवी पुरोहित का अभिनन्दन करते हैं, जिन्होंने नाना कष्टों को उठाकर अपने पुत्रों को योग्य विद्यार्थी एवं योग्य नागरिक बनाने का संकल्प लिया है।’ अब निरमला के कानों में बेर-बेर गूँजै, ‘स्वयंसिद्धा’ और मन के तार झनझना जायं। देबीमैया के सामने हांत जोड़ै, हे भगवती! तुमाइ किरपा नै होती, तो मैं अबला का कर लेती ?
एंसइ में एक दिना सिपाही ने आकें खबर दइ कै ‘स्यामबल्लभानन्द खों कतल के जुर्म में फांसी होबे बारी है। नसे की झोंक में रुपैयों के ऊपर सें अपनेइ साथी से लठा-लठी कर लई हती। इनने ऐंसो घनघना कें लट्ठ हन दओ ओकी मूड़ पे, कै बो तुरतइं बिल्ट गओ। उनने अपने घर को पतो जोइ दओ है। आप औरें उनकी ल्हास लै सकत हो।’ निरमला ने आव देखो नैं ताव। दस्खत करकें चिट्ठी तो लै लइ, मनों फाड़ कें मेंक दइ और कह दइ - ‘हम नइं जानत, कौन स्यामबल्लभानन्द ?’
दो-तीन दिना बाद माधवकान्त ने महतारी कौ सूनो माथो देखकें टोक दओ - ‘काय माइ, आज बूंदा नइं लगाओ ?’ निरमला सकपका गई, मनो कर्री आवाज में बोली - ‘बेटा, सपरत-खोरत में निकर-निकर जात है। अब रहन तो दो। को लगाय ?’
साभार- जिजीविषा कहानी संग्रह

-इति-
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गुरुवार, 2 मई 2019

भूमिका हस्तिनापुर की बिथा कथा डॉ. सुमन श्रीवास्तव

भूमिका 
हस्तिनापुर की बिथा कथा 
डॉ. सुमन श्रीवास्तव 
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बुन्देलखण्ड के बीसेक जिलों में बोली जाबे बारी बोली बुंदेली कित्ती पुरानी है, कही नईं जा सकत। ई भासा की माता सौरसैनी प्राकृत और पिता संस्कृत हैं, ऐंसी मानता है। मनों ई बूंदाबारी की अलग चाल है, अलग ठसक है, अलग कथनी है और अलगइ सुभाव है। औरंगजेब और सिबाजी के समय, हिन्दू राजाओं के लानें सरकारी सन्देसे, बीजक, राजपत्र और भतम-भतम के दस्ताबेज बुन्देली र्मेंइं लिखे जात ते। गोंड़ राजाओं की सनदें ऐइ भासा में धरोहर बनीं रखीं हैं। बुन्देली साहित्य कौ इतिहास सात सौ साल पुरानौ है। ई में मुलामियत भी है और तेज भी; ललितपनौ भी है और बीर रस की ललकार भी। पग-पग पे संस्कृति और जीबन-दरसन की छाप है। रचैताओं में प्रसिद्ध नाम हैं - केशवदास, पद्माकर, प्रबीनराय, ईसुरी, पंडत हरिराम ब्यास और कितेक। सबसें पहलो साहित्य जगनिक के रचे भये महाकाब्य ‘आल्हखंड’ खों मानने चइये। ए कौ लिखित रूप नें हतौ, मनों मौखिक परम्परा में जौ काब्य आज लौं खूब चल रओ। चौदवीं सताब्दी में बिश्नुदास नें सन 1435 में महाभारत और 1443 में रामायन की कथा गद्यकाब्य के रूप में लिखी हती। जइ परम्परा डाक्टर मुरारीलाल जी खरे निबाह रय। 2012 में रामान की कथा लिखी और अब 2019 में महाभारत की कथा आपके सामनें ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ नांव सें आ रइ है। महाकाब्य के लच्छनों में पहली बात कही जात है कै कथानक ऐतिहासिक होय कै होय इतिहासाश्रित। ई में मानबजीबन कौ पूरौ चित्र, पूरौ बैभव और पूरौ बैचित्र्य दिखाई देबै। महाकाब्य ब्यक्ति के लानें नईं, समस्टि के लानें रचै जाय, बल्कि कही जाय तौ ई में पूरे रास्ट्र की चेतना सामिल रहै। संस्कृत बारे साहित्यदर्पण के रचैता विश्वनाथ के कहे अनुसार महाकाब्य में आठ, नांतर आठ से जादा सर्ग रहनें चइए। मुरारीलाल जी के महाकाब्य कौ आयाम ऐंसौ है कै ई में नौ अध्याय दय हैं - 1. हस्तिनापुर कौ राजबंस, 2. कुबँरन की सिक्षा और दुर्योधन की ईरखा, 3. द्रौपदी स्वयंबर और राज्य कौ बँटबारौ, 4. छल कौ खेल और पाण्डव बनबास, 5. अग्यातबास में पाण्डव, 6. दुर्योधन को पलटबौ और युद्ध के बदरा, 7. महायुद्ध (भाग-1) पितामह की अगुआई में , 8. महायुद्ध (भाग-2) आखिरी आठ दिन, 9. महायुद्ध के बाद। सर्गों कौ बँटबारौ और नामकरन ऐंसी सोच-समझ सें करौ गओ है कै पूरौ कथानक और कथा की घटनाओं कौ क्रम स्पस्ट हो जात है और कथा कौ सिलसिलौ निरबाध रहौ आत है। अध्याय समाप्त होत समय कबि अगले अध्याय की घटना कौ आभास देत चलत हैं। कबि नें हर अध्याय में प्रसंग और घटनाओं के माफिक उपसीर्सक भी दय हैं। जैंसे - पाण्डु की मौत, धृतराष्ट्र भए सम्राट, दुर्योधन की कसक और बैमनस्य, भीम खौं मारबे के जतन । एक तौ कथानक बिकास-क्रम सें बँधो है, और दूसरे कथा खों ग्राह्य बनाओ गओ है। असल कथा मानें अधिकारिक कथा और बाकी प्रकरनों में ‘उपकार्य-उपकारक’ भाव बनौ रहत है। महाभारतीय ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बीच-बीच के प्रसंग ऐंसे गुँथे हैं कै मूल कथा खों बल देत हैं और ‘फिर का भओ?’ कौ कुतूहल भी बनौ रहत है।

महाकाब्य में चाय एक नायक होबै, चाय एक सें जादा, मनों उच्च कोटि के मनुस्य, देवताओं के समान ऊँचे चरित्र बारे भओ चइये, जो जनसमाज में आदर्स रख सकें और चित्त खों ऊँचे धरातल पै लै जाबें। नायक होय छत्रिय, महासत्त्व, गंभीर, छमाबन्त, स्थिरमति, गूढ़ और बात कौ धनी। ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में भीष्म पितामह हैं, धर्मराज युधिष्ठिर घाईं सत्य पै प्रान देबै बारे पांडव तो हैंइं, सबसे बड़कें हैं स्रीकृष्ण। जे सब धीरोदात्त गुनों सें परिपूरन हैं। बात के पक्के की बात करें, तो राजा सान्तनु के पुत्र देबब्रत तो अपनी प्रतिग्या के कारनइ भीष्म कहाय गय - ऐसी भीष्म प्रतिज्ञा पै रिषि मुनि सुर बोले ‘भीष्म-भीष्म’। आसमान सें फूल बरस गए, सब्द गूँज गओ ‘भीष्म-भीष्म’।। काव्यालंकार लिखबे बारे रुद्रट ने अपेक्छा करी है कै प्रतिनायक के भी कुल कौ पूरौ बिबरन भओ चइये, सो ई रचना में प्रतिनायक कौरव और उनकौ संग दैबे बारों के जन्म, उनके कुल और उनकी मनोबृत्ती कौ बिस्तार में बरनन करौ गओ है। काव्यादर्श में दण्डी को कहबौ है - ‘आशीर्नमस्क्रिया वस्तुनिर्देशो वापि तन्मुखम्।’ मानें आंगें आशीरबाद, नमस्कार जौ सब लिखौ जाबै, नईं तौ बिशयबस्तु को निरदेस दऔ जाबै। डाॅ. मुरारीलाल खरे जी नें अपनें ग्रन्थ के सीर्सक कौ औचित्य भी बताओ है। कैसी बिथा ? ईकौ मर्म कैंसें धर में बरत दिया की लौ भड़क परी और ओई सें घर में आग लग गई, पाँच छंदों में सुरुअइ में समझा दओ है - कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ। राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।। बीर महाकाब्य कौ गुन कहात है कै आख्यान भी होबै, भाव भी होबैं आरै ओज भरी और सरल भासा होबै। आख्यान खों गरओ और रोचक बनाबे के लानें संग-साथ में उपाख्यान भी चलत रहैं, जी सें मूल कथानक खों बल मिलत रहै, चरित्र सोई उभर कें सामनें आत रहैं और पड़बे-सुनबे बारे के मन में प्रभाव जमत रहै। चोट खाई अम्बा कौ भीष्म खों साप दैबौ और सिखंडी के रूप में जनम लैकें भीष्म की मृत्यु कौ कारन बनबौ; कै फिर उरबसी के शाप सें अर्जुन कौ सिखंडी के भेस में रहबौ ऐंसेइ उपाख्यान डारे गए हैं। खरे जी ने बड़ी साबधानी बरती है कै बिरथां कौ बिस्तार नें होय। ई की सफाई बे खुदई ‘अपनी बात’ में दै रय कै महाभारत की बड़ी कथा खों छोटौ करबे में कैऊ प्रसंग छोड़ने परे हैं। अरस्तू महाकाब्य खों त्रासदी की तर्ज पै देखत हैं कै ई में चार चीजें अवस्य भओ चइये - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व  और पदावली मानें भाषा। चरित्र महाभारत में जैंसे दय गए हैं, ऊँसइ खरे जी ने भी उतारे हैं। भीष्म पितामह कौ तेज, बीरभाव, दृढ़चरित्र, प्रताप और परिबार के लानें सबकौ हितचिन्तन सबसें ऊपर रचै गओ है। दुर्योधन के मन में सुरु से ईरखा, जलन, स्वारथ की भावना है, जौन आगें बढ़तइ गई। युधिष्ठिर धर्म के मानबे बारे, धीर-गंभीर, भइयन की भूलों पै छमा करबे बारे हैं। द्रोणाचार्य उत्तम धनुर्बिद्या सिखाबे बारे हैं, मनों द्रुपद सें बैर पाल लेत हैं, अर्जुन सें छल करकें अपने पुत्र खों जादा सिखाबो चाहत हैं, एकलब्य सें अन्याय करत हैं, कर्ण खों छत्रिय नें होबे के कारण विद्या नइं देत हैं, अभिमन्यु खों घेर कें तरबार टोर डारत हैं। सुख होत है कै राजा पांडु खों खरे जी ने हीन और दुर्बल नइं बताकें कुसल राजा बताओ है। धृतराष्ट्र पुत्र के लानें मोह में पड़े रहत हैं। श्रीकृष्ण राजनीति, धर्मनीति, युद्धनीति के महा जानकार ठहरे। बे भी युद्ध नईं चाहत ते। मनों जब बिपक्छी बेर-बेर नियम टोरै, तौ बेइ अर्जुन खों नियम टोरबे की सिक्छा दैन लगे - सुनो, नियम जो नईं मानत, ऊके लानें कायको नियम ? ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में बिचारतत्त्व देखें, तौ कबि को मानबो है - जब जब घर में फूट परत, तौ बैर ईरखा बड़न लगत।

 स्वारथ भारी परत नीति पै, तब तब भइयइ लड़न लगत।।

जब जब अनीति भइ है, कबि ने चेता दओ है। महाप्रतापी राजा सान्तनु को राज सुख सें चल रओ तौ मनों ‘सरतों पै ब्याओ सान्तनु ने करौ।’ इतइं अनीति हो गई -

पर कुल की परम्परा टूटी, बीज अनीति कौ पर गओ।

और फिर -

आगें जाकें अंकुर फूटे, बड़ अनीति बिष बेल बनी।
जीसें कुल में तनातनी भइ, भइयन बीच लड़ाई ठनी।।

फिर एक अनीति भीष्म ने कर लइ। कासिराज की कन्याओं कौ हरन करौ अपने भइयों के लयं। हरकें उनें ल्याओ जो बीर, बौ नइं उनकौ पति हो रओ; जा अनीति जेठी अंबा खौं बिलकुल नई स्वीकार भई।’ और बाद में ‘बिडम्बना’ बड़त गई।

गान्धारी ब्याह कैं आईं, तौ आँखों पै पट्टी बाँध लई। बे मरम धरम कौ जान न पाईं। आँखें खुली राख कें अंधे की लठिया नइं भईं। आगें जाकें भइ अनर्थ कौ कारन ऊ की नासमझी। माता गान्धारी ने नियोग की ब्यवस्था करी-

लेकिन ई के लानें मंसा बहुअन की पूंछी नईं गइ।
आग्या नईं टार पाईं बे, एक अनीति और हो गइ।।

‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ में जइ बिथा है कै अनीति पे अनीति होत रइ और परिनाम ? -

कुरुक्षेत्र के महायुद्ध में घाव हस्तिनापुर खा गओ।
राजबंस की द्वेष आग में झुलस आर्याबत्र्त गओ।।

महाकाब्य कौ फल मनुस्य के चार पुरुसार्थों में से एक भओ चइये। इतै अन्त में सिव और सत्य की स्थापना करत भय धरम को झंडा फहराओ गओ है। युद्ध के बाद अश्वमेध यज्ञ कराओ गओ। पन्द्रह बरस बाद धृतराष्ट्र गान्धारी, कुन्ती, संजय और बिदुर के संगै बन में निबास करबै ब्यास-आश्रम पौंचे और इतै हस्तिनापुर में राज पाण्डव सुख सें करत रयै।

‘प्रसादात्मक शैली; में जौ पूरौ महाकाब्य लिखौ गओ है। मनों दो अध्यायों में युद्ध को बर्नन चित्रात्मक शैली में ऐंसो करौ है कै पूरो दृस्य सामने खिंच जात है। देखें -

कैंसे जगा जगा जोड़ी बन गईं आपस में भओ दुन्द उनमें।

द्रोणाचार्य-बिराट, भीष्म-अर्जुन, संगा-द्रोण, युधिष्ठिर-स्रुतायुस, सिखंडी-अश्वत्थामा, धृष्टकेतु-भूरिश्रवा, भागदत्त-घटोत्कच, सहदेव नकुल-सल्य की जोड़िएँ सातएँ दिना की लड़ाई में भिड़ परीं। कुरुच्छेत्र में कहाँ का हो रऔ, सब खूब समजाकें लिखो गओ है। कितेक अस्त्रों के नाम - अग्नि अस्त्र, बारुणास्त्र, ब्रह्मास्त्र, पाशुपतास्त्र, ऐन्दे्रयास्त्र, मोहनी अस्त्र, प्रमोहनास्त्र, नारायणास्त्र, भार्गबास्त्र, नागास्त्र और कितेक व्यूहों के नाम दए गए हैं - बज्रव्यूह, क्रौंचव्यूह, मकरव्यूह, मण्डलव्यूह, उर्मिव्यूह, शृंगतकव्यूह, सकटव्यूह, चक्रव्यूह। गांडीव धनुष भी चलौ और क्षुर बाण भी। भीष्म के गिरबे कौ चित्र देखबे जोग हैं -

हो निढाल ढड़के पीछे खौं, गिरे चित्त होकें रथ सें।
धरती पीठ नईं छू पाई, अतफर टँग रए बानन सें।।

सब्दों, मुहाबरों और कहनावतौं (सूक्तियों) कौ प्रयोग बुंदेली जानबे बारों के मन में गुदगुदी कर देत हैं- ताईं, बल्लरयियन, खुदैया, दुभाँती, अतफर, लड़वइयन, मुरका कें, नथुआ फूले, टूंका-टूंका, मुड्ड-मुड्ड, पुटिया लओ, बेपेंदी के लोटा घाईं लुड़क दूसरी तरफ गये, बैर पतंग और ऊपर चड़ गई, एक बेर के जरे आग में हाँत जराउन फिर आ गए। कबि ने सिल्प की अपेक्छा कहानी के धाराप्रबाह पै जादा जोर दओ है। कहौ जा सकत है कै भासा कौ बहाव गंगा मैया घाईं सान्त और समरस नइं, बल्कि अल्हड़ क्वाँरी रेबा घाईं बंधन-बाधा की परबाह नें करकैं बड़त जाबे बारौ है। कहुँ गति झूला में झूलो, धाय के दूध पै पलो। औरन की ओली में खेलो, ऐसें दिन दिन बड़त चलो।। 

हास्य - फिर देखकें खुलौ दरबाजौ, जैसइं घुसन लगे भीतर। माथो टकरा गओ भींत सें, ऊपै गूमड़ आओ उभर।। 
करुण - किलकत तो जो नगर खुसी में, लगन लगो रोउत जैंसौ। चहल-पहल गलियन की मिट गइ, पुर हो गओ सोउत जैंसौ।। 
वीर-तरबारें चमकीं, गदाएँ खनकीं, बरछा भाला छिद गए। सरसरात तीरन सें कैऊ बीरन के सरीर भिद गए।। 
रौद्र - तब गुस्सा सें घटोत्कच पिल परो सत्रु की सैना पै। भौतइ उग्र भओ मानों कंकाली भइ सवार ऊ पै।। 
भयानक - दोऊ तरफ के लड़वइयन की भौतइ भारी हानि भई। मानों रणचण्डी खप्पर लएँ युद्धभूमि में प्रगट भई।। 
वीभत्स - ऊपै रणचण्डी सवार भइ, नची नोंक पै बानन की। पी गइ सट सट लोऊ, भींत पै भींत उठा दइ लासन की।। 
अद्भुत - चमत्कार तब भओ, चीर ना जानें कित्तौ बड़ौ भओ। खेंचत खेंचत थको दुसासन, अंत चीर कौ नईं भओ।। 
भक्ति - जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाकौ अहित कभउँ नइँ होत। दुख के दिन कट जात और अंत में जै सच्चे की होत।। 

आज भी कइअक घरों में महाभारत को ग्रन्थ रखबौ-पड़बौ बर्जित है। नासमझ दकियानूसी जनें कहन लगत हैं - ‘आहाँ, घरों में महाभारत की किताब नैं रखौ। रखहौ, तो महाभारत होन लगहै।’ बनइं समझत कै का सीख दइ है ब्यासजू महाराज नें। अब जा सीदी-सरल भासा में लिखी भइ महाभारत की कथा ‘हस्तिनापुर की बिथा-कथा’ के नांव सें घरों में प्रबेस पा लैहै और महिलाएँ भी ईकौ लाभ उठा सकहैं। जा पूरी रचना गेय है मानें लय बाँधकें गाबे जोग है। हमाइ तो इच्छा होत है कै बुंदेलखंड के गाँव-गाँव में तिरपालों में उम्दा गायकों की गम्मत जमै और नौ दिनां में डाॅ. मुरारीलाल जी खरे के रचे महाकाब्य के नौ अध्यायों कौ पाठ कराओ जाए, जी सें पांडव-कौरव की गाथा सबके मन में समा जाए और जनता समजै कै एक अनीति कैंसे समाज में और अनीतिएँ करात जात हैं - जो अनीति अन्याय करत है, दुरगत बड़ी होत ऊ की। जो अधर्म की गैल चलत है, हानि बड़ी होत ऊ की।। पांडव भइयों कौ आपसी मेल-प्रेम, महतारी और गुरुओं के लानें सम्मान-भाव, उनकी आग्या कौ पालन भारतीय संस्कृति को नमूनौ है। उननें भगवान कृष्ण की माया नइं लइ, सरबसर कृष्णइ खों अपने पक्छ में रक्खौ और उनइं के कहे पै चलत रय, जी सें बिजय पाइ। गीता कौ उपदेस है - है अधिकार कर्म पै अपनौ फल पै कछु अधिकार नईं। बुद्धिमान जन कर्म करत हैं, फल की इच्छा करत नईं।। 

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