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मंगलवार, 22 अक्टूबर 2024

अक्टूबर २२, हास्य, कुंडलिया, रिपोर्ताज, नवगीत, लघुकथा, मुक्तक, मानस, दोहा

सलिल सृजन अक्टूबर २२
हास्य रचना

'भागवान! तू शक्कर होती
तो बेहतर होता,
कड़वीवाणी नहीं
बोल मीठे सुनकर जीता।'
पट्टी की बात सुनी पत्नी ने
सोच-समझ झट बोली-
''प्राणनाथ! तुम मनुज न होकर
गर अदरक हो जाते
कूट डालतती रोज चाय में
हर मेहमां पीता।''
•••
कुंडलिया
मंगल पर दंगल करें, चलो फाँदकर चाँद।
देख मिसाइल भीत हो, सूर्य छिपे जा माँद।।
सूर्य छिपे जा माँद, दसों दिस हो अँधियारा।
दहशतगर्दी साँड़ कहें, हँस मैदां मारा।।
धरती को शमशान, कर रहा आदम हर पल।
हुआ आप शैतान, सृष्टि का करें अमंगल।।
२२.१०.२४
•••
मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो
सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४
***
गीत:
कौन रचनाकार है?....
*
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
कौन व्यापारी? बताओ-
क्या-कहाँ व्यापर है?.....
*
रच रहा वह सृष्टि सारी
बाग़ माली कली प्यारी.
भ्रमर ने मधुरस पिया नित-
नगद कितना?, क्या उधारी?
फूल चूमे शूल को,
क्यों तूल देता है ज़माना?
बन रही जो बात वह
बेबात क्यों-किसने बिगारी?
कौन सिंगारी-सिंगारक
कर रहा सिंगार है?
कौन है रचना यहाँ पर?,
कौन रचनाकार है?
*
कौन नट-नटवर नटी है?
कौन नट-नटराज है?
कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?
कहाँ नग-गिरिराज है?
कौन चाकर?, कौन मालिक?
कौन बन्दा? कौन खालिक?
कौन धरणीधर-कहाँ है?
कहाँ उसका ताज है?
करी बेगारी सभी ने
हर बशर बेकार है.
कौन है रचना यहाँ पर
कौन रचनाकार है?....
*
कौन सच्चा?, कौन लबरा?
है कसाई कौन बकरा?
कौन नापे?, कहाँ नपना?
कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.
कौन ढांके?, कौन खोले?
राज सारे बिना बोले.
काज किसका?, लाज किसकी?
कौन हीरा?, कौन कचरा?
कौन संसारी सनातन
पूछता संसार है?
कौन है रचना यहाँ पर?
कौन रचनाकार है?
२२.१०.२०१०
***
रिपोर्ताज-
रिपोर्ताज गद्य-लेखन की एक विधा है। रिपोर्ताज फ्रांसीसी भाषा का शब्द है।


रिपोर्ट अंग्रेजी भाषा का शब्द है। रिपोर्ट किसी घटना के यथातथ्य वर्णन को कहते हैं। रिपोर्ट सामान्य रूप से समाचारपत्र के लिये लिखी जाती है और उसमें साहित्यिकता नहीं होती है। रिपोर्ट के कलात्मक तथा साहित्यिक रूप को रिपोर्ताज कहते हैं। रिपोर्ट का अर्थ सिर्फ़ सूचना देने तक ही सीमित भी किया जा सकता हैं, जबकि रिपोर्ताज हिंदी गद्य की एक प्रकीर्ण विधा हैं। इसके लेखन का भी एक विशिष्ट तरीका है। वास्तव में रेखाचित्र की शैली में प्रभावोत्पादक ढंग से लिखे जाने में ही रिपोर्ताज की सार्थकता है। आँखों देखी और कानों सुनी घटनाओं पर भी रिपोर्ताज लिखा जा सकता है। कल्पना के आधार पर रिपोर्ताज नहीं लिखा जा सकता है। घटना प्रधान होने के साथ ही रिपोर्ताज को कथातत्त्व से भी युक्त होना चाहिये। रिपोर्ताज लेखक पत्रकार तथा कलाकार दोनों होता है। रिपोर्ताज लेखक के लिये आवश्यक है कि वह जनसाधारण के जीवन की सच्ची और सही जानकारी रखे। तभी रिपोर्ताज लेखक प्रभावोत्पादक ढंग से जनजीवन का इतिहास लिख सकता है।यह किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालकर प्रस्तुत करने का तरीका है। रिपोर्ताज में घटना को कलात्मक और साहित्यिक रूप दिया जाता है। द्वितीय महायुद्ध में रिपोर्ताज की विधा पाश्चात्य साहित्य में बहुत लोकप्रिय हुई। विशेषकर रूसी तथा अंग्रेजी साहित्य में इसका प्रचलन रहा। हिन्दी साहित्य में विदेशी साहित्य के प्रभाव से रिपोर्ताज लिखने की शैली अधिक परिपक्व नहीं हो पाई है। शनैः-शनैः इस विधा में परिष्कार हो रहा है। सर्वश्री प्रकाशचन्द्र गुप्त, रांगेय राघव, प्रभाकर माचवे तथा अमृतराय आदि ने रोचक रिपोर्ताज लिखे हैं। हिन्दी में साहित्यिक, श्रेष्ठ रिपोर्ताज लिखे जाने की पूरी संभावनाएँ हैं।

रिपोर्ताज लिखते समय, इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-

रिपोर्ताज में घटना प्रधान होना चाहिए, व्यक्ति नहीं।

रिपोर्ताज केवल वर्णनात्मक नहीं, कथात्मकता से भी युक्त होना चाहिए।

रिपोर्ताज में बहुमुखी कथ्य, चरित्र, संवाद, और प्रामाणिकता आवश्यक है।

रिपोर्ताज में भाषा और शैली प्रसंगानुकूल हो।

रिपोर्ताज के कुछ उदाहरण:

'लक्ष्मीपुरा' हिन्दी का पहला रिपोर्ताज माना गया है। इसका प्रकाशन सुमित्रानंदन पंत के संपादन में निकलने वाली 'रूपाभ' पत्रिका के दिसंबर, १९३८ ई. के अंक में हुआ था।

'भूमिदर्शन की भूमिका' शीर्षक रिपोर्ताज सन् १९६६ ई. में दक्षिण बिहार में पड़े सूखे से संबंधित है। यह रिपोर्ताज ६ टुकड़ों में ९ दिसम्बर १९६६ से लेकर १३ जनवरी १९६७ तक 'दिनमान' पत्र में छपा है।
हिंदी के प्रमुख रिपोर्ताज मे 'तूफानों के बीच' (रांगेय राघव), प्लाट का मोर्चा (शमशेर बहादुर सिंह), युद्ध यात्रा (धर्मवीर भारती) आदि हैं। कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर', विष्णु प्रभाकर, प्रभाकर माचवे, श्याम परमार, अमृतराय, रांगेय राघव तथा प्रकाश चन्द्र गुप्त आदि प्रसिद्ध रिपोर्ताजकार हैं



रिपोर्ट, किसी भी घटना का आंखों देखा वर्णन होता हैं। यह लिखित या मौखिक किसी भी रूप मे एवं भिन्न प्रारूप मे हो सकती हैं किंतु साहित्य के एक विशिष्ट प्रारूप मे लिखी गई रिपोर्ट को रिपोर्ताज कहा जाता हैं। रिपोर्ताज हिंदी पत्रकारिता से संबंधित विधा है।

रिपोर्ट किसी भी घटना का सिर्फ तथ्यात्मक वर्णन होता हैं, जबकि रिपोर्ताज घटना का कलात्मक वर्णन हैं।

रिपोर्ताज साहित्य के निश्चित प्रारूप मे लिखे जाते हैं ताकि इसको पढ़ते समय पाठकों की रुचि बनी रहे।

रिपोर्ट नीरस भी हो सकती हैं, जबकि रिपोर्ताज मे लेखन की कलात्मकता इसे सरस बना देती हैं।

रिपोर्ट के लेखन की शैली सामान्य होती हैं, जबकि रिपोर्ताज लेखन की विशिष्ट शैली उसकी विषयवस्तु मे चित्रात्मकता का गुण उत्पन्न कर देती हैं।

लेखन मे चित्रात्मकता, वह गुण होता हैं जिसके कारण रिपोर्ताज पढ़ते समय पाठकों के मस्तिष्क पटल पर घटना के चित्र उभरने लगते हैं। चित्रात्मकता पाठकों के कौतूहल को बढ़ा देती हैं, जिससे पाठक एक बार पढ़ना प्रारम्भ करने के बाद पूरा वृत्तांत पढ़कर ही चैन लेता हैं।

रिपोर्ताज, किसी घटना का रोचक एवं सजीव वर्णन होता हैं। लेखन में सजीवता एवं रोचकता उत्पन्न करने के लिए ही लेखक चित्रात्मक शैली का प्रयोग करते हैं।

सहसा घटित होने वाली अत्यन्त महत्वपूर्ण घटना ही इस विधा को जन्म देने का मुख्य कारण बन जाती है। रिपोर्ताज विधा पर सर्वप्रथम शास्त्रीय विवेचन श्री शिवदान सिंह चौहान ने मार्च 1941 मे प्रस्तुत किया था। हिन्दी मे रिपोर्ताज की विधा प्रारंभ करने का श्रेय हंस पत्रिका को है। जिसमें समाचार और विचार शीर्षक एक स्तम्भ की सृष्टि की गई। इस स्तम्भ मे प्रस्तुत सामग्री रिपोर्ताज ही होती हैं।


रिपोर्ताज का जन्म हिंदी में बहुत बाद में हुआ लेकिन भारतेंदुयुगीन साहित्य में इसकी कुछ विशेषताओं को देखा जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, भारतेंदु ने स्वयं जनवरी, 1877 की ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ में दिल्ली दरबार का वर्णन किया है, जिसमें रिपोर्ताज की झलक देखी जा सकती है। रिपोर्ताज लेखन का प्रथम सायास प्रयास शिवदान सिंह चौहान द्वारा लिखित ‘लक्ष्मीपुरा’ को मान जा सकता है। यह सन् 1938 में ‘रूपाभ’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके कुछ समय बाद ही ‘हंस’ पत्रिका में उनका दूसरा रिपोर्ताज ‘मौत के खिलाफ ज़िन्दगी की लड़ाई’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ। हिंदी साहित्य में यह प्रगतिशील साहित्य के आरंभ का काल भी था। कई प्रगतिशील लेखकों ने इस विधा को समृद्ध किया। शिवदान सिंह चौहान के अतिरिक्त अमृतराय और प्रकाशचंद गुप्त ने बड़े जीवंत रिपोर्ताजों की रचना की।

रांगेय राघव रिपोर्ताज की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ लेखक कहे जा सकते हैं। सन् 1946 में प्रकाशित ‘तूफानों के बीच में’ नामक रिपोर्ताज में इन्होंने बंगाल के अकाल का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। रांगेय राघव अपने रिपोर्ताजों में वास्तविक घटनाओं के बीच में से सजीव पात्रों की सृष्टि करते हैं। वे गरीबों और शोषितों के लिए प्रतिबद्ध लेखक हैं। इस पुस्तक के निर्धन और अकाल पीड़ित निरीह पात्रों में उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को देखा जा सकता है। लेखक विपदाग्रस्त मानवीयता के बीच संबल की तरह खड़ा दिखाई देता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के रिपोर्ताज लेखन का हिंदी में चलन बढ़ा। इस समय के लेखकों ने अभिव्यक्ति की विविध शैलियों को आधार बनाकर नए प्रयोग करने आरंभ कर दिए थे। रामनारायण उपाध्याय कृत ‘अमीर और गरीब’ रिपोर्ताज संग्रह में व्यंग्यात्मक शैली को आधार बनाकर समाज के शाश्वत विभाजन को चित्रित किया गया है। फणीश्वरनाथ रेणु के रिपोर्ताजों ने इस विधा को नई ताजगी दी। ‘)ण जल धन जल’ रिपोर्ताज संग्रह में बिहार के अकाल को अभिव्यक्ति मिली है और ‘नेपाली क्रांतिकथा’ में नेपाल के लोकतांत्रिक आंदोलन को कथ्य बनाया गया है।

अन्य महत्वपूर्ण रिपोर्ताजों में भंदत आनंद कौसल्यायन कृत ‘देश की मिट्टी बुलाती है’, धर्मवीर भारती कृत ‘युद्धयात्रा’ और शमशेर बहादुर सिंह कृत ‘प्लाट का मोर्चा’ का नाम लिया जा सकता है।

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि अपने समय की समस्याओं से जूझती जनता को हमारे लेखकों ने अपने रिपोर्ताजों में हमारे सामने प्रस्तुत किया है। लेकिन हिंदी रिपोर्ताज के बारे में यह भी सच है कि इस विधा को वह ऊँचाई नहीं मिल सकी जो कि इसे मिलनी चाहिए थी।


बुधवार, 17 जनवरी 2024

सॉनेट, मानस, गीता, नवगीत, शिव दोहे, नाग, हिंदी भाषा विज्ञान,

सलिल सृजन १६ जनवरी 
सॉनेट
सूफियाना सोनेट :
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साकी! जब हो स्याह जमाना 
रौशन कर दूँ मैं चराग बन, 
दिल में जलता सिर्फ आग बन, 
अंधकार में मुझे जलाना। 
नहीं भुलाकर मुझे सताना,
साथ रहूँगा मैं सुहाग बन,
बसूँ साँस में अमिट राग बन,
कर आलिंगन हृदय बसाना। 
रौशन करूँ अंजुमन सारी,
करो निगाहे-करम अगर तुम,
हो निसार तुम पर जाऊँ मैं। 
मैं राधा तुम हो बनवारी, 
मिलकर अब न अलग होंगे हम,
तुममें ही गम हो जाऊँ मैं।   
***
कुंडलिया
अंग अंग जेवर सजा, बनीं लक्ष्मी आप।
नर को मिला न एक भी, ज्यों पाया हो शाप।।
ज्यों पाया हो शाप, मजूरी करता सूरज।
उषा दुपहरी शाम, रात अलबेली सज-धज।।
माता भाभी बहिन, बीबी मिल करतीं तंग।
नर की किस्मत वाम, हारता घर में ही जंग।।
***
समस्यापूर्ति 
विधा :- पद्य (सोनेट, इतालवी शैली)
विषय : झरोखे से झाँकते नयन करे इंतज़ार
*
झरोखे से झाँकते नयन करें इंतज़ार
सूर्य साथ उषा देख नींद छोड़ हाथ जोड़,
आलस तज उठ भू को कर प्रणाम मुँह न मोड़,
अपनों के सपनों को करना साकार यार।
लेना कम देना है ज्यादा ही बार बार,
ईश सुमिर ले-दे आशीष तू प्रथा न तोड़,
बैर भाव पाल नहीं, द्वेष जलन तुरत छोड़,
गैर कौन? सब अपने बाँट सदा सहज प्यार।
सोने के हिरना को मन खोजे छाँट-छाँट,
लछमन रेखा न लाँघ, पैर नहीं मोड़ा था,
तापस में निशिचर था पर मन को कब दीखा?
गगरी का काव्यामृत छलक रहा बाँट बाँट
गोकुल के कान्हा ने माखन कब जोड़ा था?
लूटा झट लुटा दिया, मन तूने क्या सीखा?
१६.१.२०२४
***
सॉनेट
मानस
*
भक्ति करो निष्काम रह
प्रभु चरणों में समर्पित
हर पल मन जय राम कह
लोभ मोह मद कर विजित।
सत्ता जन सेवा करे
रहे वीतरागी सदा
जुमलाबाजी मत करे
रहे न नृप खुद पर फिदा।
वरण धर्म पथ का करो
जनगण की बाधा हरो।
१६-१-२०२२
***
सॉनेट
गीता
*
जो बीता वह भुलाकर
जो आगत वह सोच रे,
रख मत किंचित लोच रे!
कर्म करो फल भुलाकर।
क्या लाए जो खो सके?
क्या जाएगा साथ रे?
डर मत, झुका न माथ रे!
काल न रोके से रुके।
कौन यहाँ किसका सगा?
कर विश्वास मिले दगा
जीव मोह में है पगा।
त्याग न लज्जा, शर्म कर,
निर्भय रहकर कर्म कर
चलो हमेशा धर्म पर।
१६-१-२०२२
***
अभिनव प्रयोग:
गीत
वात्सल्य का कंबल
*
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
अब मिले सरदार सा सरदार भारत को
अ-सरदारों से नहीं अब देश गारत हो
असरदारों की जरूरत आज ज़्यादा है
करे फुलफिल किया वोटर से जो वादा है
एनिमी को पटकनी दे, फ्रेंड को फ्लॉवर
समर में भी यूँ लगे, चल रहा है शॉवर
हग करें क़ृष्णा से गंगा नर्मदा चंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
मनी फॉरेन में जमा यू टर्न ले आये
लाहौर से ढाका ये कंट्री एक हो जाए
दहशतों को जीत ले इस्लाम, हो इस्लाह
हेट के मन में भरो लव, ​शाह के भी शाह
कमाई से खर्च कम हो, हो न सिर पर कर्ज
यूथ-प्रायरटी न हो मस्ती, मिटे यह मर्ज
एबिलिटी ही हो हमारा, ओनली संबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
*
कलरफुल लाइफ हो, वाइफ पीसफुल हे नाथ!
राजमार्गों से मिलाये हाथ हँस फुटपाथ
रिच-पुअर को क्लोद्स पूरे गॉड! पहनाना
चर्च-मस्जिद को गले, मंदिर के लगवाना
फ़िक्र नेचर की बने नेचर , न भूलें अर्थ
भूल मंगल अर्थ का जाएँ न मंगल व्यर्थ
करें लेबर पर भरोसा, छोड़ दें गैंबल
गॉड मेरे! सुनो प्रेयर है बहुत हंबल
कोई तो दे दे हमें वात्सल्य का कंबल....
(इस्लाम = शांति की चाह, इस्लाह = सुधार)
१६.१.२०१९
***
शिव दोहावली
शिव शंकर ओंकार हैं, नाद ताल सुर थाप।
शिव सुमरनी सुमेरु भी, शिव ही जापक-जाप।।
*
पूजा पूजक पूज्य शिव, श्लोक मंत्र श्रुति गीत।
अक्षर मुखड़ा अंतरा, लय रस छंद सुरीत।।
*
आत्म-अर्थ परमार्थ भी, शब्द-कोष शब्दार्थ।
शिव ही वेद-पुराण हैं, प्रगट-अर्थ निहितार्थ।।
*
तन शिव को ही पूजना, मन शिव का कर ध्यान।
भिन्न न शिव से जो रहे, हो जाता भगवान।।
*
इस असार संसार में, सार शिवा-शिव जान।
शिव में हो रसलीन तू, शिव रसनिधि रसखान।।
*
१६-१-२०१८ , जबलपुर
***
शिव को पा सकते नहीं, शिव से सकें न भाग।
शिव अंतर्मन में बसे, मिलें अगर अनुराग।।
*
शिव को भज निष्काम हो, शिव बिन चले न काम।
शिव-अनुकंपा नाम दे, शिव हैं आप अनाम।।
*‍
वृषभ-देव शिव दिगंबर, ढंकते सबकी लाज।
निर्बल के बल शिव बनें, पूर्ण करें हर काज।।
*
शिव से छल करना नहीं, बल भी रखना दूर।
भक्ति करो मन-प्राण से, बजा श्वास संतूर।।
*
शिव त्रिनेत्र से देखते, तीन लोक के भेद।
असत मिटा, सत बचाते, करते कभी न भेद।।
१५.१.२०१८
एफ १०८ सरिता विहार, दिल्ली
***
नागों का रहस्य :
*
भारत के शासन-प्रशासन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभानेवाले, निर्गुण ब्रम्ह चित्रगुप्त के उपासक कायस्थ अपने आदि पुरुष कि अवधारणा-कथा में उनके दो विवाह नाग कन्या तथा देव कन्या से तथा उनके १२ पुत्रों के विवाह बारह नाग कन्याओं से होना मानते हैं. कौन थे ये नाग? सर्प या मनुष्य? आर्य, द्रविड़ या गोंड़?
श्रेष्ठ-ज्येष्ठ पुरातत्वविद डॉ. आर. के. शर्मा लिखित पुस्तक से नागों संबंधी जानकारी दे रही हैं माँ जीवन शैफाली.
*
नागों की उत्पत्ति का रहस्य अंधकार में डूबा है, इसलिए प्राचीन भारत के इतिहास की जटिल समस्याओं में से एक ये भी समस्या है. कुछ विद्वानों के अनुसार नाग मूलरूप से नाग की पूजा करनेवाले थे, इस कारण उनका संप्रदाय बाद में नाग के नाम से ही जाना जाने लगा. इसके समर्थन में जेम्स फर्ग्यूसन ने अपनी पुस्तक (Tree and Serpent Worship) में अक्सर उद्धृत करते हुए विचार व्यक्त किए हैं, और निःसंदेह काफी प्रभावित भी किया है, लेकिन आज के विद्वानों में उनका समर्थक मिलना मुश्किल होगा.
उनके अनुसार नाग, साँप की पूजा करनेवाली उत्तर अमेरिका में बसे तुरेनियन वंश की एक आदिवासी जाति थी जो युद्ध में आर्यों के अधीन हो गई. फर्ग्यूसन सकारात्मक रुप से ये घोषणा करते हैं कि ना आर्य साँप की पूजा करनेवाले थे, ना द्रविड़, और अपने इस सिद्धांत पर बने रहने के लिए वे ये भी दावा करते हैं कि नाग की पूजा का यदि कोई अंश वेद या आर्यों के प्रारंभिक लेखन में पाया भी गया है तो या तो वह बाद की तारीख का अंतर्वेशन होना चाहिए या आश्रित जातियों के अंधविश्वासों को मिली छूट. सर्प पूजा के स्थान पर जब बौद्ध धर्म आया, तो उसने उसे “आदिवासी जाति के छोटे मोटे अंधविश्वासों के थोड़े से पुनरुत्थारित रुप” से अधिक योग्य नहीं माना. वॉगेल ठीक ही कह गया है कि ‘ये सब अजीब और निराधार सिद्धांत हैं’.
कुछ विद्वानों का यह भी दावा है कि सर्प पूजा करने वालों की एक संगठित संप्रदाय के रुप में उत्पत्ति मध्य एशिया के सायथीयन के बीच से हुई है, जिन्होने इसे दुनियाभर में फैलाया. वे सर्प को राष्ट्रीय प्रतीक के रुप में उपयोग करने के आदि थे. इस संबंध में यह भी सुझाव दिया गया है कि भारत में आए प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़), सायथियन जैसी ही भाषा बोलते थे जिसका आधुनिक शब्दावली में अर्थ होता था फ़िनलैंड मे बसने वाले कबीलों के परिवार की भाषा. (फिनो-अग्रिअन भाषाओं का परिवार).
यह अवलोकन 19वीं शताब्दी के द्रविड़ भाषओं के अधिकारी कॅल्डवेल के साथ शुरू हुआ और जिसे ऑक्सफ़ोर्ड के प्रोफेसर टी. बरौ का समर्थन मिला. वहीं दूसरी ओर एस. सी. रॉय एवं अन्य ने सुझाव दिया कि प्रोटो-द्रविड़ियन (आद्य-द्रविड़) भूमध्यसागर की जाति के आदिम प्रवासी थे जिनका भारत के सर्प संप्रदाय में योगदान रहा. इसलिए इस संप्रदाय की उत्पत्ति और प्रसार के सिद्धांतो में बहुत मतभेद मिलता है, जिनमें से कोई भी पूर्णरूपेण स्वीकार्य नहीं है, इसके अलावा नाग की पूजा मानव जगत में व्यापक रूप से प्रचलित थी.
सायथीयन का दावा दो कारणों से ठहर नहीं सकता, पहला नाग पूजा का जो सिद्धांत भारत लाया गया वह मात्र द्रविड़ और फिनो-अग्रिअन भाषाओं की सतही समानता पर आधारित है और मध्य एशिया के आक्रमण का कोई ऐतिहासिक उदाहरण नहीं मिलता. नवीनतम पुरातात्विक और आनुवंशिक निष्कर्ष ने यह सिद्ध कर दिया है कि दूसरी सहस्राब्दी ई.पू. का आर्य आक्रमण/प्रवास सिद्धांत एक मिथक है. दूसरा, मध्य एशिया में सामान्य सर्प संप्रदाय का इस बात के अलावा कोई अंश नहीं मिलता कि वे साँपों का गहने या प्रतीक के रुप में उपयोग करते थे.
नाग सामान्य महत्व से अधिक शक्तिशाली और व्यापक लोग थे, जो आदिम समय से भारत के विभिन्न भागों में आजीविका चलाते दिखाई देते थे. संस्कृत में नाग नाम से बुलाये जाने से पहले वे किस नाम से जाने जाते थे ये ज्ञात नहीं है. द्रविड़ भाषा में नाग का अर्थ ‘पंबु’ या ‘पावु’ होता है. कदाचित ‘पावा’ नाम उत्तरी भारत के शहरों में से किसी एक से लिया गया था जो मल्ल की राजधानी हुआ करती थी और बुद्ध के समय में यहाँ निवास करनेवालों ने कबीले के पुराने नाम ‘नाग’ को बनाए रखा था. यह भी संभव है कि जैसे ‘मीना’ का नाम ‘मत्स्य’ में परिवर्तित हुआ, ‘कुदगा’ का ‘वानर’ में उसी तरह बाद में आर्यों द्वारा,’पावा’ (जिसका अर्थ है नाग) का नाम ‘नाग’ में परिवर्तित किया गया और संस्कृतज्ञ द्वारा समय के साथ साँप पालने वाले को नाग कहा जाने लगा.
हड़प्पा में खुदाई से मिले कुछ अवशेष अधिक रुचिकर है क्योंकि यह समकालीन लोगों के धार्मिक जीवन में सर्प के महत्व को अधिक से अधिक उजागर करते हैं. उनमें से एक छोटी सुसज्जित मेज है (faience tablet) है जिस पर एक देव प्रतिमा के दोनों ओर घुटने टेककर आदमी द्वारा पूजा की जा रही है. प्रत्येक उपासक के पीछॆ एक कोबरा अपना सिर उठाए और फन फैले दिखाई देता है जो प्रत्यक्ष रुप से यह दर्शाता है कि वह भी प्रभु की आराधना में साथ दे रहा है. इसके अलावा चित्रित मिट्टी के बर्तन भी पाए गए जिनमें से कुछ पर सरीसृप चित्रित थे, नक्काशी किया हुआ साँप का चित्र, मिट्टी का ताबीज जिस पर एक सरीसृप के सामने एक छोटी मेज पर दूध जैसी कोई भेंट दिखाई देती है.
हड़प्पा में भी एक ताबीज पाया गया जिस पर एक गरुड़ के दोनों ओर दो नागों को रक्षा में खड़े हुए चित्रित किया गया है. ऊपर दी गई खोज सिंधु घाटी के लोगों की पूजा में साँप के होने के तथ्य को इंगित करती है, केनी के अनुसार आवश्यक रुप से ख़ुद पूजा की वस्तु के रुप में ना सही, और उस क्षेत्र में नाग टोटेम वाले लोग होना चाहिए.
महाभारत में दिए वर्णन के अनुसार नाग जो कि कश्यप और कद्रु की संतान है, रमणियका की भूमि जो समुद्र के पार थी, पर बहुत गर्मी, तूफान और बारिश का सामना करने के बाद पहुँचे थे, ऐसा माना जाता है कि नाग मिस्र द्वारा खोजे गए देश की ओर चले गए थे. ये कहा जाता है कि वे गरुड़ प्रमुख के नेतृत्व में आगे बढ़े थे. चाहे यह सिद्धांत स्वीकार्य हो या ना हो यह जानना रुचिकर है कि मिस्र के फरौह (pharaohs of egypt -प्राचीन मिस्त्र के राजाओं की जाति या धर्म या वर्ग संबंधी नाम) कुछ हद तक बाज़ या गरुड़ और सर्प से संबंधित थे.
नाग आर्य थे या गैर-आर्य, इस प्रश्न के उत्तर में बहुत कुछ लिखा गया और अधिकतर विद्वानों का यही मानना है कि आर्यों के भारत में आने से पहले नाग द्रविड़ थे जो भारत के उत्तरी क्षेत्र में रहते थे. आर्यन आव्रजन सिद्धांत के विवाद में प्रवेश के बिना, जो नवीनतम शोधकर्ता द्वारा मिथक साबित हुई है यह इंगित किया जा सकता है कि नाग सिर्फ साँप जो कि उनका टोटेम था ना कि पूजा के लिए आवश्यक वस्तु, की पूजा की वजह से गैर-आर्य लोग नहीं थे. वे गैर-आर्य कबीले के थे चाहे वे साँप की पूजा करते थे या नहीं. कबीले के टोटेम के रुप में सर्प और पूजा की एक वस्तु के रुप में सर्प, ये दो अलग कारक है. पहले कारक को स्वीकार करने के लिए दूसरे को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है. प्राचीन भारत के संपूर्ण इतिहास में यह पर्याप्त रुप से सिद्ध कर दिया गया है कि नाग के टोटेम को अपनाने वाले सत्तारूढ़ कबीले/राजवंश नाग की पूजा करनेवाले और गैर-आर्य हो ये आवश्यक नहीं है.
प्राचीन भारत के दौरान, उत्तरी भारत का सबसे अधिक भाग नागों द्वारा बसा हुआ था. ऋग्वेद में व्रित्र और तुग्र के लिए स्थान है. महाभारत कई नाग राजाओं के शोषण के विवरण से भरा है . महान महाकाव्य इन्द्रप्रस्थ या पुरानी दिल्ली के पास जमुना की घाटी में महान खांडव जंगल में रहने वाले राजा तक्षक के तहत नाग के ऐतिहासिक उत्पीड़न के साथ खुलता है.
वास्तव में नाग कबीले या जनजाति के कई बहुत शक्तिशाली राजा थे जिनमें सबसे अधिक ज्ञात थे शेषनाग या अनंत, वासुकि, तक्षक, कर्कोतक, कश्यप, ऐरावत, कोरावा और धृतराष्ट्र, जो सब कद्रु में पैदा हुए थे. धृतराष्ट्र जो सभी नागों के अग्रणी थे उनके अकेले के अपने अनुयायियों के रूप में अट्ठाईस नाग थे. उत्तर भारत में नाग के अस्तित्व को साबित करने के लिए जातक (jatakas) में भी उल्लेखों की कमी नहीं है.
इक्ष्वाकु (iksvauku) वंश के महान राजा पाटलिपुत्र के प्राचीन नाग थे. भारत राजाओं को भी सर्प जाति में सम्मिलित किया गया था. महान राजा ययति, समान रुप से महान राजा पुरु के पिता, नहुसा नाग के पुत्र और अस्तक के नाना थे. पाँच पाँडव भाई भी नाग आर्यक या अर्क के पोते के पोते थे. फिर इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि अर्जुन ने नाग राजकुमारी युलूपि से विवाह किया.
यादव भी नाग थे. ना केवल कुंती बल्कि पाँच वीर पाँडव की माता और कृष्ण की चाची, कृष्ण तो नाग प्रमुख आर्यक जो कि वासुदेव के महान दादा और यादव राजा के पितृ थे, के सीधे वंशज थे. बल्कि उनके बड़े भाई बलदेव के सिर को विशाल साँपों से ढँका हुआ प्रस्तुत किया गया है, जिसे वास्तव में छत्र कहा जाता था, जो महान राजाओं की पहचान में भेद के लिए होता था. बलदेव को शेषनाग का अंश कहा जाता है, जिसका अर्थ है या तो वह महान शेषनाग का कोई संबंधी है या उनके जितना शक्तिशाली. चूंकि यादव कुल के इन दो सूरमाओं के मामा कंस, मगध के जरसंधा राजा बर्हद्रथ के दामाद थे, हम देखते हैं कि मगध के प्राचीन राज्यवंश में भी नाग शासक के रुप में थे, जिन्हें बर्हद्रथ कहा गया.
पुराण के अनुसार मगध के बर्हद्रथ प्रद्योत द्वारा जीत लिए गए, जो बदले में शिशुनाग के अनुयायी हुए. कई लेखकों ने ठीक ही कहा है, कि शिशुनाग में मगध के पास एक नाग राजवंश उस पर शासन करने के लिए था. शिशुनाग शब्द अपने आप में ही बहुत महत्वपूर्ण है. बर्हद्रथ राजवंश जो कि एक नाग राजवंश था, के पतन के बाद एक अन्य राजवंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसे प्रद्योत राजवंश कहा गया. परंतु यह राजवंश जो कि अपने पूर्ववर्ति नाग राजवंश से बिल्कुल भिन्न था, शिशुनाग राजवंश जैसे कि उसके नाम से ही पता चलता है कि एक नाग राजवंश है, द्वारा फिर से पराजित हुई. अर्थात प्रद्योत के एक छोटे से अंतराल के बाद नाग एक बार फिर सत्ता में आया. यह शिशुनाग बर्हद्रथ राजवंश के प्राचीन नागों के ही अनुयायी थे. प्राचीन सीनियर नाग बर्हद्रथ के अनुयायी होने के कारण सत्ता में आने के बाद एक बार फिर वे शिशुनाग या जूनियर नाग के रूप में पहचाने जाने लगे. नागओ द्वारा रक्षित बौद्ध परंपरा जो कि शिशुनाग की संस्थापक बल्कि पुंर्स्थापक थी, ने शिशुनाग की उत्पत्ति के बारे में यही सिद्ध किया है कि वह नाग थे.
यहाँ तक कि चंद्रगुप्त मौर्य भी नाग वंश के अंतर्गत माने जाते हैं. सिंधु घाटी को पार करने के बाद सिकंदर (Alexander I) जिन लोगों के संपर्क में आया वे भी नाग थे.
१६.१.२०१७
***
कलह कथा
*
कुर्सी की जयकार हो गयी, सपा भाड़ में भेजें आज
बेटे के अनुयायी फाड़ें चित्र बाप के, आये न लाज
स्वार्थ प्रमुख, निष्ठा न जानते, नारेबाजी शस्त्र हुआ
भीड़तंत्र ही खोद रहा है, लोकतंत्र के लिए कुआं
रंग बदलता है गिरगिट सम, हुआ सफेद पूत का खून
झुका टूटने के पहले ही बाप, देख निज ताकत न्यून
पोल खुली नूरा कुश्ती की, बेटे-बाप हो गए एक
चित्त हुए बेचारे चाचा, दिए गए कूड़े में फेंक
'आजम' की जाजम पर बैठे, दाँव आजमाते जो लोग
नींव बनाई जिनने उनको ठुकराने का पाले रोग
'अमर' समर में हों शहीद पछताएँ, शत्रु हुए वे ही
गोद खिलाया जिनको, भोंका छुरा पीठ में उनने ही
जे.पी., लोहिया, नरेन्द्रदेव की, आत्माएँ करतीं चीत्कार
लालू, शरद, मुलायम ने ही सोशलिज्म पर किया प्रहार
घर न घाट की कोंग्रेस के पप्पू भाग चले अवकाश
कहते थे भूकम्प आएगा, हुआ झूठ का पर्दाफाश
अम्मा की पादुका उठाये हुईं शशिकला फिर आगे
आर्तनाद ममता का मिथ्या, समझ गए जो हैं जागे
अब्दुल्ला कर-कर प्रलाप थक-चुप हो गए, बोलती बन्द
कमल कर रहा आत्मप्रशंसा, चमचे सुना रहे हैं छंद
सेनापति आ गए नए हैं, नया साल भी आया है
समय बताएगा दुश्मन कुछ काँपा या थर्राया है?
इनकी गाथा छोड़ चलें हम,घटीं न लेकिन मिटीं कतार
बैंकों में कुछ बेईमान तो मिले मेहनती कई हजार
श्री प्रकाश से नया साल हो जगमग करिये कृपा महेश
क्यारी-क्यारी कुसुम खिलें नव, काले धन का रहे न लेश
गुप्त न रखिये कोई खाता, खुला खेल खेलें निर्भीक
आजीवन अध्यक्ष न होगा, स्वस्थ्य बने खेलों में लीक
१.१.२०१७
***
नवगीत
समय की कीमत
*
समय की
कीमत न करते
*
दूध पीते अब न तुम
बच्चे रहे हो
तन युवा पर अकल के
कच्चे रहे हो
हो नहीं गंभीर यदि
तो सत्य मानो
आप अपने शत्रु तुम
सच्चे रहे हो
नाश अपना
आप वरते
समय की
कीमत न करते
*
पढ़ रहे तो तुम नहीं
अहसान करते
अवसरों को क्यों नहीं
वरदान करते?
तोड़ अनुशासन-नियम
खुश हो रहे पर
सफलता हित पगों को
अनजान करते
दोष निज
औरों पे धरते
समय की
कीमत न करते
***
अचल वर्मा
समय की कीमत भला कैसे मनुज ये कर सकेगा ।
आज है पर क्या पता कब तक यहां वो रह सकेगा ॥
संजीव वर्मा 'सलिल'

काल से होता प्रगट मनु / काल में होता विलय है
तभी तो है सलिल नभ भू / अग्नि भी सँग-सँग मलय है
अचल वर्मा
है सभी कुछ समय के आधीन ही , सबने ये माना।
पर समय कबसे शुरू किसने ये जाना।
जब नहीं आरम्भ जाना कैसे उसका मोल जाने।
है कहीं पर अंत भी इसका नहीं मन इसको माने॥
संजीव वर्मा 'सलिल'

है सभी कुछ समय के आधीन लेकिन / समय डिक्टेटर नहीं है
वृत्त का आरंभ या आखिर न देखा / तो कहें क्या वृत्त ही भास्वर नहीं है?
समय को असमय करें मर काल-कवलित
समय असमय में नहीं क्या रहा करता?
बन सुसमय ही रहे वह साथ बेहतर
देव कुसमय से सदा मैं मनुज डरता
नवगीत
गीत सूर्य
*
गीत-सूर्य की
नवल किरण नवगीत है
*
नवल किरण मृदु-शुचि होती है
जन-मन में आशा बोती है
जुड़ जमीन से पनपा करती
अंकुर से पल्लव होती है
गीत-पौध की
कुसुम कली नवगीत है
*
परिवर्तन की नव चाहों में
जिजीविषा पाले बाँहों में
लड़ विडंबना को मेटे जो
कोशिश, कदम, दृष्टि राहों में
गीत-स्वेद की
एक बूँद नवगीत है
*
जीवन का हर रंग समेटे
जीने का हर ढंग समेटे
सिर्फ रुदन-संत्रास नहीं, यह
सत्य-न्याय की जंग समेटे
गीत इन्द्रधनु
एक छटा नवगीत है
*
यह संक्रांक्ति काल की गणना
पाँव-बिमाई-पीड़ा हरना
अब मरते-मरते जीना है
तब जीते-जीते था मरना
गीत आँख का
एक स्वप्न नवनीत है
*
व्याप्ति धरा से नभ तक इसकी
कथा न कहता कहिए किसकी?
अलंकार-रस-छंद बदन है
आत्मकथा जो निरखे उसकी
गीत काल का
एक चरण नवगीत है
१६.१.२०१६
***
लेख-
भारतीय भाषाविज्ञान की समृद्ध परंपरा
*
संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाएँ भिन्न कालों की भाषाएँ हैं। एक काल की भाषा पर दूसरे काल की भाषा के नियमों को नहीं थोपा जा सकता। संस्कृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की व्यवस्थाओं एवं संरचनाओं के अन्तर नकारा नहीं जा सकता। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है। भाषा नदी की धारा की तरह होती है। नदी की धारा को अनियंत्रित, अमर्यादित एवं बेलगाम नहीं होने दिया ज सकता। नदी की धारा खुद अपने तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा अपने व्याकरण की व्यवस्था एवं संरचना के तटों के द्वारा मर्यादित रहती है। भाषा में बदलाव एवं ठहराव दोनों साथ-साथ रहते हैं।
‘शब्दावली’ गतिशील एवं परिवर्तनशील है। व्याकरण भाषा को ठहराव प्रदान करता है। ऐसा नहीं है कि ‘व्याकरण’ कभी बदलता नहीं है। व्याकरण भी बदलता है मगर बदलाव की रफ़तार बहुत धीमी होती है। ‘शब्द’ आते-जाते रहते हैं। हम विदेशी अथवा अन्य भाषा से शब्द तो आसानी से ले लेते हैं मगर उनको अपनी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढाल लेते हैं। ‘शब्द’ को अपनी भाषा के व्याकरण की पद रचना के अनुरूप विभक्ति एवं परसर्ग लगाकर अपना बना लेते हैं। हम यह नहीं कहते कि मैंने चार ‘फिल्म्स' देखीं; हम कहते हैं कि मैंने चार फिल्में देखीं।
संस्कृत के महान वैयाकरणों एवं निरुक्तकारों का योगदान ही नहीं, प्रातिशाख्यों तथा शिक्षा-ग्रंथों में भाषाविज्ञान और विशेष रूप से ध्वनि विज्ञान से सम्बंधित सूक्ष्मदर्शी और गहन विचार हमारी कालजयी विरासत है। भारतीय भाषाविज्ञान की परम्परा बहुत समृद्ध है और उसमें न केवल वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत के भाषाविद् समाहित हैं अपितु प्राकृतों एवं अपभ्रंशों के भाषाविद् भी समाहित हैं।
पाणिनी ने अपने काल के पूर्व के १० आचार्यों का उल्लेख किया है। उन आचार्यों ने वेदों के काल की छान्दस् भाषा पर कार्य किया था। पाणिनी ने वैदिक काल की छान्दस भाषा को आधार बनाकर अष्टाध्यायी की रचना नहीं की। उन्होंने अपने काल की जन-सामान्य भाषा संस्कृत को आधार बनाकर व्याकरण के नियमों का निर्धारण किया। वाल्मीकीय रामायण में इस भाषा के लिए ‘मानुषी´ विशेषण का प्रयोग हुआ है। पाणिनी के समय संस्कृत का व्यवहार एवं प्रयोग बहुत बड़े भूभाग में होता था। उसके अनेक क्षेत्रीय भेद-प्रभेद रहे होंगे। पाणिनी ने भारत के उदीच्य भाग के गुरुकुलों में बोली जानेवाली भाषा को आधार बनाया। पाणिनी के व्याकरण का महत्व सर्वविदित है। अमेरिका के प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक बेंजामिन ली व्होर्फ के मत में- ‘यद्यपि भाषाविज्ञान बहुत प्राचीन है तथापि इसका आधुनिक प्रयोगात्मक रूप, जो अलिखित बोलचाल की भाषा के विश्लेषण पर जोर देता है, सर्वथा आधुनिक है। जहाँ तक हमें ज्ञात है, ईसा से कई शताब्दी पूर्व, पाणिनी ने इस विज्ञान का शिलान्यास किया था। पाणिनी ने उस युग में, वह ज्ञान प्राप्त कर लिया था, जो हमें आज उपलब्ध है। संस्कृत भाषा को नियमबद्ध करने के लिए पाणिनी के सूत्र बीजगणित के जटिल सूत्रों की भाँति हैं´।
प्रत्याहार, गणपाठ, विकरण, अनुबंध आदि की विपुल तकनीक से अलंकृत पाणिनीय सूत्र उनकी अद्वितीय प्रतिभा को प्रमाणित करते हैं। उत्तर-वैदिक काल में संस्कृत भारत की सभी दिशाओं में चारों ओर फैलती गई। संस्कृत का यह प्रसार केवल भौगोलिक दिशाओं में ही नहीं हो रहा था; सामाजिक स्तर पर मानक संस्कृत से भिन्न अनेक आर्य एवं अनार्य भाषाओं के बोलने वाले समुदायों में भी हो रहा था। (Burrow. T.: The Sanskrit Language, P. 63, Faber & Faber, London).।
संस्कृत भाषा के भारत के विभिन्न भागों एवं विभिन्न सामाजिक समुदायों में व्यवहार एवं प्रसार के कारण -
१. संस्कृत ने अपने प्रसार के कारण भारत के प्रत्येक क्षेत्र की भाषा को प्रभावित किया।
२. संस्कृत भाषा स्वयं भी भारत में अन्य भाषा-परिवारों की भाषाओं से तथा संस्कृत युग में भारतीय आर्य परिवार की संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं से प्रभावित हुई। निर्विवाद है कि संस्कृत काल में अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं का भी व्यवहार होता था। संस्कृत के प्रभाव से संस्कृत-विद्वान परिचित हैं मगर संस्कृत पर संस्कृतेतर अन्य लोक भाषाओं / जनभाषाओं के प्रभाव से वे शायद परिचित नहीं हैं अथवा इस पक्ष को अनदेखा कर जाते हैं। पाणिनी के बाद के संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त किन धातुओं का (शब्दों का नहीं) प्रयोग हुआ है जिनका उल्लेख पाणिनी की अष्टाध्यायी में नहीं हुआ है। यह जानकारी ‘भारत की भाषाएँ एवं भाषिक एकता तथा हिन्दी´ ग्रंथ में है।
शब्दावली के स्तर पर संस्कृत की शब्दावली ने सभी भारतीय भाषाओं को प्रभावित किया है जिसे तत्सम शब्दावली के नाम के पुकारा जाता है। मध्यकालीन साहित्यिक तमिल की ‘मणिप्रवालम शैली’ से भारतीय भाषाओं पर संस्कृत के व्यापक प्रभाव की बात सिद्ध होती है। जो शब्द लोक में प्रचलित हो गए हैं, उनके लिए संस्कृत की शब्द रचना का सहारा लेकर नए शब्द गढ़ना उचित नहीं है। हिंदी भाषाविज्ञान का ज्ञान तथा लोक-व्यवहार का विवेक इसे उचित नहीं समझता। किसी भाषा के व्याकरण के नियमों को दूसरी किसी अन्य भाषा पर थोपना गलत है। भाषाविज्ञान का यह सार्वदेशिक एवं सार्वकालिक नियम है।
***
लेख :
भवन निर्माण संबंधी वास्तु सूत्र
*
वास्तुमूर्तिः परमज्योतिः वास्तु देवो पराशिवः
वास्तुदेवेषु सर्वेषाम वास्तुदेव्यम नमाम्यहम् - समरांगण सूत्रधार,
भवन निवेश वास्तु मूर्ति (इमारत) परम ज्योति की तरह सबको सदा प्रकाशित करती है। वास्तुदेव चराचर का कल्याण करनेवाले सदाशिव हैं। वास्तुदेव ही सर्वस्व हैं वास्तुदेव को प्रणाम।
सनातन भारतीय शिल्प विज्ञान के अनुसार अपने मन में विविध कलात्मक रूपों की कल्पना कर उनका निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि मानव तन और प्रकृति में उपस्थित पञ्च तत्वों का समुचित समन्वय व संतुलन संरचना का उपयोग करनेवालों को सुख दे, यही वास्तु विज्ञान का उद्देश्य है।
मनुष्य और पशु-पक्षियों में एक प्रमुख अंतर यह है कि मनुष्य अपने रहने के लिये ऐसा घर बनाते हैं जो उनकी हर आवासीय जरूरत पूरी करता है जबकि अन्य प्राणी घर या तो बनाते ही नहीं या उसमें केवल रात गुजारते हैं। मनुष्य अपने जीवन का अधिकांश समय इमारतों में ही व्यतीत करते हैं। एक अच्छे भवन का परिरूपण कई तत्वों पर निर्भर करता है। यथा : भूखंड का आकार, स्थिति, ढाल, सड़क से संबंध, दिशा, सामने व आस-पास का परिवेश, मृदा का प्रकार, जल स्तर, भवन में प्रवेश की दिशा, लंबाई, चौड़ाई, ऊँचाई, दरवाजों-खिड़कियों की स्थिति, जल के स्रोत प्रवेश भंडारण प्रवाह व निकासी की दिशा, अग्नि का स्थान आदि। हर भवन के लिये अलग-अलग वास्तु अध्ययन कर निष्कर्ष पर पहुँचना अनिवार्य होते हुए भी कुछ सामान्य सूत्र प्रतिपादित किए जा सकते हैं जिन्हें ध्यान में रखने पर अप्रत्याशित हानि से बचकर सुखपूर्वक रहा जा सकता है।
* भवन में प्रवेश हेतु पूर्वोत्तर (ईशान) श्रेष्ठ है। पूर्व, उत्तर, पश्चिम, दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) तथा पूर्व-पश्चिम (वायव्य) दिशा भी अच्छी है किंतु दक्षिण, दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्य), दक्षिण- पूर्व (आग्नेय) से प्रवेश यथासंभव नहीं करना चाहिए। यदि वर्जित दिशा से प्रवेश अनिवार्य हो तो किसी वास्तुविद से सलाह लेकर उपचार करना आवश्यक है।
* भवन के मुख्य प्रवेश द्वार के सामने स्थाई अवरोध खम्बा, कुआँ, बड़ा वृक्ष, मोची, मद्य, मांस आदि की दूकान, गैर कानूनी व्यवसाय आदि नहीं हो।
* मुखिया का कक्ष नैऋत्य दिशा में होना शुभ है।
* शयन कक्ष में मंदिर न हो। यदि शयन कक्ष में देव रखना आवश्यक हो तो उनके सम्मुख एक पर्दा लगा दें।
* वायव्य दिशा में वास करनेवाला अस्थिर होता है, उसका स्थान परिवर्तन होने की अधिक संभावना होती है।अत:, अविवाहित कन्याओं का कक्ष, अतिथि कक्ष, निरुपयोगी पदार्थ, विक्रय सामग्री आदि वायव्य में हो। इस दिशा में तिजोरी, आभूषण, धन, पुत्र का कक्ष आदि न हो।
* शयन कक्ष में दक्षिण की और पैर कर नहीं सोना चाहिए। मानव शरीर एक चुंबक की तरह कार्य करता है जिसका उत्तर ध्रुव सिर होता है। मनुष्य तथा पृथ्वी का उत्तर ध्रुव एक दिशा में हो तो उनसे निकलनेवाली चुंबकीय बल रेखाएँ आपस में टकराने के कारण प्रगाढ़ निद्रा नहीं आएगी। फलतः, अनिद्रा के कारण रक्तचाप आदि रोग हो सकते हैं। सोते समय पूर्व दिशा में सिर होने से उगते हुए सूर्य से निकलनेवाली किरणों के सकारात्मक प्रभाव से बुद्धि का विकास होता है। पश्चिम दिशा में डूबते हुए सूर्य से निकलनेवाली नकारात्मक किरणों के दुष्प्रभाव के कारण सोते समय पश्चिम में सिर रखना मना है।
* भारी बीम या गर्डर के बिल्कुल नीचे सोना भी हानिकारक है।
* शयन तथा भंडार कक्ष यथासंभव सटे हुए न हों।
* शयन कक्ष में आईना ईशान दिशा में ही रखें, अन्यत्र नहीं।
* पूजा का स्थान पूर्व या ईशान दिशा में इस तरह इस तरह हो कि पूजा करनेवाले का मुँह पूर्व या ईशान दिशा की ओर तथा देवताओं का मुख पश्चिम या नैऋत्य की ओर रहे। बहुमंजिला भवनों में पूजा का स्थान भूतल पर होना आवश्यक है। पूजास्थल पर हवन कुण्ड या अग्नि कुण्ड आग्नेय दिशा में रखें।
* रसोई घर का द्वार मध्य भाग में इस तरह हो कि हर आनेवाले को चूल्हा न दिखे। चूल्हा आग्नेय दिशा में पूर्व या दक्षिण से लगभग ४'' स्थान छोड़कर रखें। रसोई, शौचालय एवं पूजा एक दूसरे से सटे न हों। रसोई में अलमारियाँ दक्षिण-पश्चिम दीवार तथा पानी ईशान दिशा में रखें।
* बैठक का द्वार उत्तर या पूर्व में हो. दीवारों का रंग सफेद, पीला, हरा, नीला या गुलाबी हो पर लाल या काला न हो। युद्ध, हिंसक जानवरों, भूत-प्रेत, दुर्घटना या अन्य भयानक दृश्यों के चित्र न हों। अधिकांश फर्नीचर आयताकार या वर्गाकार तथा दक्षिण एवं पश्चिम में हों।
* सीढ़ियाँ दक्षिण, पश्चिम, आग्नेय, नैऋत्य या वायव्य में हो सकती हैं पर ईशान में न हों। सीढ़ियों के नीचे शयन कक्ष, पूजा या तिजोरी न हो. सीढियों की संख्या विषम हो।
* कुआँ, पानी का बोर, हैण्ड पाइप, टंकी आदि ईशान में शुभ होता है। दक्षिण या नैऋत्य में अशुभ व नुकसानदायक है।
* स्नान गृह पूर्व में, मैले कपड़े वायव्य में, आइना ईशान, पूर्व या उत्तर में गीजर तथा स्विच बोर्ड आग्नेय दिशा में हों।
* शौचालय वायव्य या नैऋत्य में, नल ईशान, पूर्व या उत्तर में, सेप्टिक टेंक उत्तर या पूर्व में हो।
* मकान के केंद्र (ब्रम्ह्स्थान) में गड्ढा, खंबा, बीम आदि न हो। यह स्थान खुला, प्रकाशित व् सुगंधित हो।
* घर के पश्चिम में ऊँची जमीन, वृक्ष या भवन शुभ होता है।
* घर में पूर्व व उत्तर की दीवारें कम मोटी तथा दक्षिण व् पश्चिम की दीवारें अधिक मोटी हों। तहखाना ईशान, उत्तर या पूर्व में तथा १/४ हिस्सा जमीन के ऊपर हो। सूर्य किरणें तहखाने तक पहुँचना चाहिए।
* मुख्य द्वार के सामने अन्य मकान का मुख्य द्वार, खम्बा, शिलाखंड, कचराघर आदि न हो।
* घर के उत्तर व पूर्व में अधिक खुली जगह यश, प्रसिद्धि एवं समृद्धि प्रदान करती है। वराह मिहिर के अनुसार वास्तु का उद्देश्य 'इहलोक व परलोक दोनों की प्राप्ति है। नारद संहिता, अध्याय ३१, पृष्ठ २२० के अनुसार-
'अनेन विधिनन समग्वास्तुपूजाम करोति यः आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धन्यं लाभेन्नारह।'
अर्थात इस तरह से जो व्यक्ति वास्तुदेव का सम्मान करता है वह आरोग्य, पुत्र धन-धान्यादि का लाभ प्राप्त करता है।
***
मुक्तिका:
.
अपने क़द से बड़ा हमारा साया है
छिपा बीज में वृक्ष समझ अब आया है
खड़ा जमीं पर नन्हे पैर जमाये मैं
मत रुक, चलता रह रवि ने समझाया है
साया-साथी साथ उजाले में रहते
आँख मुँदे पर किसने साथ निभाया है?
'मैं' को 'मैं' से जुदा कर सका कब कोई
सब में रब को देखा गले लगाया है?
है अजीब संजीव मनुज जड़ पत्थर सा
अश्रु बहाता लेकिन पोंछ न पाया है
===
नवगीत:
.
वह खासों में खास है
रूपया जिसके पास है
.
सब दुनिया में कर अँधियारा
वह खरीद लेता उजियारा
मेरी-तेरी खत कड़ी हो
पर उसकी होती पौ बारा
असहनीय संत्रास है
वह मालिक जग दास है
.
था तो वह सच का हत्यारा
लेकिन गया नहीं दुतकारा
न्याय वही, जो राजा करता
सौ ले दस देकर उपकारा
सीता का वनवास है
लव-कुश का उपहास है
.
अँगना गली मकां चौबारा
हर सूं उसने पैर पसारा
कोई फर्क न पड़ता उसको
हाय-हाय या जय-जयकारा
उद्धव का सन्यास है
सूर्यग्रहण खग्रास है
.
१६-१-२०१५
कविता:
चीता
*
कौन कहता है कि
चीता मर गया है?
हिंस्र वृत्ति
जहाँ देखो बढ़ रही है.
धूर्तता
किस्से नये
नित गढ़ रही है.
शक्ति के नाखून पैने
चोट असहायों पर करते
स्वाद लेकर रक्त पीते
मारकर औरों को जीते
और तुम?
और तुम कहते हो
चीता मर गया है.
नहीं,
वह तो
आदमी की
नस्ल में घर कर गया है.
झूठ कहते हो कि
चीता मर गया है.
===

रविवार, 22 अक्टूबर 2023

मानस, उर्दू मुक्तक, दोहा, हीरो वाधवानी, लघुकथा, विजया दशमी, नवगीत

मानस विमर्श - मासपारायण २
*
शुभ कंचन वसुदेव का, जिसने पाया साथ।
भव सागर से तर गया, इंदिरा तजे न हाथ।।
*
छाया में श्री राम की, मिले विभा मिट क्लेश।
सरला छवि है सिया की, वसुधा वरे हमेश।।
*
दीदी ज्ञानेश्वरी जहाँ, वहाँ सर्व कल्याण।
भाव-बाधा को दूर कर, फूकें मृत में प्राण।।
*
जो है दास मुकुंद का, उसके शंकर इष्ट।
वरता पंथ अद्वैत का, होते नष्ट अनिष्ट।।
*
मिलती राम चरित्र में, सकल सृष्टि; हर तत्व।
सब कलि-मल का नाश हो, मिलता जीवन सत्व।।
*
राम कथा महिमा अमित, शाप बने वरदान।
राम नाम गाता रहे, आत्म बने रसखान।।
*
आशुतोष गुरु सृष्टि के, हैं श्रद्धा पर्याय।
उमा शुद्ध विश्वास हैं, जो समझे तर जाय।।
*
गागर में सागर लिए, मानस-तुलसीदास।
जो अंजुरी भर पी सके, वही जीव है ख़ास।।
*
राम कथा शुचि नर्मदा, है वर्मदा पुनीत।
सुनिए गुनिए धर्मदा, पढ़ शर्मदा विनीत।।
*
ज्ञानेश्वरी जी स्नेह की, अमिय नर्मदा धार।
जो पाए आशीष वह, हो जाए भव पार।।
*
वक्ता-श्रोता-काल त्रय, ज्ञान-कर्म-विश्वास।
जगह नहीं संदेह को, श्रद्धा हरति त्रास।।
*
जन-मन के संदेह का, निराकरण है इष्ट।
तुलसी ने कहकर कथा, मेटे सकल अनिष्ट।।
*
कैसा युग निर्माण हो, है यह अपने हाथ।
मानस को रख ह्रदय में, शिव सम्मुख नत माथ।।
*
मानस मानस में बसे, जन-मन हो तब धन्य।
मुकुल मना सरला मति, भज ले राम अनन्य।।
*
निराकार-साकार जो, अकथ-अनादि-अनंत।
निर्गुण-सगुण न दो हुए, एक सादि अरु सांत।।
*
भेद न अंतर है कहीं, आँख खोलकर देख।
तभी मिटे संदेह की, मन से धूमिल रेख।।
*
पूरी करते कामना, सदा भक्त की राम।
'रा'ज रहे जो 'म'ही पर, जिनका नहीं विराम।।
*
जो राक्षस मारें सतत, वे ही राम अकाम।
जिनकी छवि अभिराम है, वे मनमोहक राम।।
*
नामोच्चारण ज्ञान दे, पाप मिटाए ध्यान।
वैदेही-देही मिले, संत करें गुणगान।।
*
जिज्ञासा मैया सती, श्रद्धा उमा न भूल।
पूरक दोनों जानिए, ज्यों कलिका अरु फूल।।
२२-१०-२०२२
***
तीन मुक्तक-
*
मौजे रवां१ रंगीं सितारे, वादियाँ पुरनूर२ हैं
आफ़ताबों३ सी चमकती, हक़ाइक४ क्यों दूर हैं
माहपारे५ ज़िंदगी की बज्म६ में आशुफ्ता७ क्यों?
फिक्रे-फ़र्दा८ सागरो-मीना९ फ़िशानी१० सूर हैं
१. लहरें, २. प्रकाशित, ३. सूरजों, ४. सचाई (हक़ का बहुवचन),
५. चाँद का टुकड़ा, ६. सभा, ७. विकल, ८. अगले कल की चिंता,
९. शराब का प्याला-सुराही, १०. बर्बाद करना, बहाना।
*
कशमकश१ मासूम२ सी, रुखसार३, लब४, जुल्फें५ कमाल६
ख्वाब७ ख़ालिक८ का हुआ आमद९, ले उम्मीदो-वसाल१०
फ़खुर्दा११ सरगोशियाँ१२, आगाज़१३ से अंजाम१४ तक
माजी-ए-बर्बाद१५ हो आबाद१६ है इतना सवाल१७
१. उलझन, २. भोली, ३. गाल, ४. होंठ, ५. लटें, ६. चमत्कार, ७. स्वप्न,
८. उपयोगकर्ता, ९. साकार, १०. मिलन की आशा, ११. कल्याणकारी,
१२. अफवाहें, १३. आरम्भ, १४. अंत, १५. नष्ट अतीत, १६. हरा-भरा, १७. माँग।
*
गर्द आलूदा१ मुजस्सम२ जिंदगी के जलजले३
मुन्जमिद४ सुरखाब५ को बेआब६ कहते दिलजले७
हुस्न८ के गिर्दाब९ में जा कूदता है इश्क़१० खुद
टूटते बेताब११ होकर दिल, न मिटते वलवले१२
१. धुल धूसरित, २. साकार, ३. भूकंप, ४. बेखर, ५. दुर्लभ पक्षी,
६. आभाहीन, ७. ईर्ष्यालु, ८. सौन्दर्य, ९. भँवर, १०. प्रेम, ११. बेकाबू,
१२. अरमान।
***
***
दोहा सलिला
*
जूही-चमेली देखकर, हुआ मोगरा मस्त
सदा सुहागिन ने बिगड़, किया हौसला पस्त
*
नैन मटक्का कर रहे, महुआ-सरसों झूम
बरगद बब्बा खाँसते। क्यों? किसको मालूम?
*
अमलतास ने झूमकर, किया प्रेम-संकेत
नीम षोडशी लजाई, महका पनघट-खेत
*
अमरबेल के मोह में, फँसकर सूखे आम
कहे वंशलोचन सम्हल, हो न विधाता वाम
*
शेफाली के हाथ पर, नाम लिखा कचनार
सुर्ख हिना के भेद ने, खोदे भेद हजार
*
गुलबकावली ने किया, इन्तिज़ार हर शाम
अमन-चैन कर दिया है,पारिजात के नाम
*
गौरा हेरें आम को, बौरा हुईं उदास
मिले निकट आ क्यों नहीं, बौरा रहे उदास?
*
बौरा कर हो गया है, आम आम से ख़ास
बौरा बौराये, करे दुनिया नहक हास
***
२०-६-२०१६
lnct jabalpur
***
पुस्तक सलिला –
‘प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ’ सर्वोपयोगी कृति
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
*
[पुस्तक विवरण – प्रेरक अर्थपूर्ण कथन एवं सूक्तियाँ, हीरो वाधवानी, हिंदी सूक्ति संग्रह, प्रथम संस्करण २०१६, ISBN९७८-८१-९२२००७०-६-९, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ १४४, मूल्य३००/-, राघव प्रकाशन ए ३२ जनता कालोनी, जयपुर]
*
मानव-जीवन में एक-दूसरे के अनुभवों से लाभ उठाने और अपने आचार-विचार को नियंत्रित करने की परंपरा चिरकाल से है. आरम्भ में बड़े-बुजुर्ग, समझदार व्यक्ति या गुरु से जीवन-सूत्र मिला करते करते थे. लिपि के आविष्कार के पश्चात लिखित विचार विनिमय संभव हो सका. घाघ-भड्डरी आदि की कहावतें, लोकोक्तियाँ वाचिक तथा लिखित दोनों रूपों में जनसामान्य का मार्गदर्शन करती रहीं. क्रमश: विचारकों तथा सुकवियों की काव्य पंक्तियाँ सार्वजनिक स्थलों पर अंकित करने के परिपाटी पुष्ट हुई. यांत्रिक मुद्रण ने स्वेड मार्टिन जैसे विदेशी विचारों की किताबों को भारत में लोकप्रियता दिलाई. संगणक और अंतर्जाल ने ब्लॉग चिट्ठों, ऑरकुट, फेसबुक, ट्विट्टर, वाट्स एप जैसे अंतरजाल स्थल सुलभ कराये हैं.
श्री हीरो वाधवानी वैचारिक अदान-प्रदान के लिए फेसबुक का नियमित उपयोग करते रहे हैं. तो से पांच पंक्तियों के विचार सूत्र समयाभाव तथा अति व्यस्तता की जीवन शैली में लिखने, पढ़ने, समझने के लिए सर्वथा उपयुक्त हैं. ‘अस्वस्थ शरीर, बुरी आदतें और द्वेष हमारी स्वयं की उपज हैं’ जैसे सद्विचार मानव-आचरण को नियंत्रित करते हैं. ‘असफलता से सफलता वर्षों की तरह दूर नहीं होती’ पढ़कर निराश मन नए सिरे से संघर्ष करने की प्रेरणा पा सकता है. ‘अच्छे इंसान पेड़ की तरह होते हैं, सबके काम आते हैं’ इस उद्धरण से अच्छा बनाने के लिए सबके काम आने तथा पेड़ न काटने के २ सद्विचार मिलते हैं.
आश्चर्यजनक किन्तु सत्य, अपूर्णता, भावना, एकता और मेलजोल, परिश्रम, सादगी, समुद्र, उदासीनता, स्वास्थ्य, भीतर का दर्द आदि शीर्षकों में उद्धरणों को विभाजित किया गया है. कविता, लघुकथा आदि विधाओं का भी उपयोग किया गया है. हीरो जी की भाषा सहज बोधगम्य, सरस प्रसाद गुण संपन्न है. सामान्य पाठक कथ्य को सुगमता से ग्रहण कर लेता है.
‘सबसे अधिक धनी वह है जो स्वास्थ्य, संतुष्ट और सदाचारी है .’, ‘सभी ताले चाबी से नहीं खुलते. कुछ प्यार, विश्वास और सूझ-बूझ से भी खुलते हैं.’, ‘परिश्रम सभी समस्याओं का हल है.’, ‘परिश्रम परस पत्थर और अलादीन का चिराग है. जैसे कथन हर मनुष्य के मन को छू पाते हैं.
पुस्तक की छपाई सुरुचिपूर्ण है, पाठ्य शुद्धि सावधानी से की गयी है. आवरण चित्र धरती को हरी चादर उढ़ाने की प्रेरणा देता है. यह पुस्तक घरों में रखने और उपहार देने के लिए सर्वथा उपयुक्त है. श्री हीरो वाधवानी को इस सर्वोपयोगी कृति को सामने लाने के लिए शुभकामनाएँ.
संपर्क- आचार्य संजीव वर्मा’सलिल’, २०४ वोजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.
पुस्तक सलिला –
‘रात अभी स्याह नहीं’ आशा से भरपूर गजलें
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’
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[पुस्तक विवरण – रात अभी स्याह नहीं, अरुण अर्णव खरे, हिंदी गजल संग्रह, प्रथम संस्करण २०१५, ISBN९७८-८१-९२५२१८-५-५, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य १५०/-, गुफ्तगू प्रकाशन१२३ ए /१, ७ हरवारा, धूमनगंज, इलाहाबाद२११०११, दूरभाष ०७५५ ४२४३४४५, रचनाकार सम्पर्क – डी १/३५ दानिश नगर, होशंगाबाद मार्ग भोपाल २६, चलभाष ९८९३००७७४४]
*
मानव और अमानव के मध्य मूल अंतर अनुभूतियों को व्यवस्थित तरीके से व्यक्त कर पण और न कर पाना है. अनुभूतियों को व्यक्त करने का माध्यम भाषा है. गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं जिनके माध्यम से अनुभूति को व्यक्त किया जाता है. आरम्भ में वाचिक अभिव्यक्ति ही अपनी बात प्रस्तुत करने का एक मात्र तरीका था किंतु लिपि विकसित होने के साथ-साथ अभिव्यक्ति का अंकन भी संभव हो सका. क्रमश: व्याकरण और पिंगल का विकास हुआ. पिंगल ने विविध पद्य प्रारूपों और छंदों को वर्गीकृत कर लेखन के नियमादि निर्धारित किये. विद्वज्जन भले ही लेखन का मूल्यांकन नियम-पालन के आधार पर करें, जनगण तो अनुभूतियों की अभिव्यक्ति और व्यक्त अनुभूतियों की मर्मस्पर्शिता को ही अधिक महत्व देता है. ‘लेखन के लिए नियम’ या ‘नियम के लिए लेखन’? ‘हरि अनंत हरि कथा अनंता’ की तरह इस विमर्श का भी कोई अंत नहीं है.
विवेच्य कृति ‘रात अभी स्याह नहीं’ गजल शिल्प की अभिव्यक्ति प्रधान ७० रचनाओं तथा कुछ दोहों को समेटे है. रचनाकार अभियंता अरुण अर्णव खरे अनुभूति के प्रागट्य को प्रधान तथा शैल्पिक विधानों को द्वितीयिक वरीयता देते हुए, हिंदी के भाषिक संस्कार के अनुरूप रचना करते हैं. गजल कई भाषाओँ में लिखी जानेवाली विधा है. अंग्रेजी, जापानी, जर्मन, रुसी, चीनी, तमिल, तेलुगु आदि भाषाओँ में गजल लिखी जाते समय तुकांत-पदांत के उच्चारण साम्य को पर्याप्त माना जाता है किन्तु हिंदी गजल की बात सामने आते ही अरबी-फारसी के अक्षरों, व्याकरण-नियमों तथा मान्यताओं के निकष पर मूल्यांकित कर विवेचक अपनी विद्वता और रचनाकार की असामर्थ्य प्रमाणित करने का प्रयास करते हैं. अरुण जी आत्म-कथन में नम्रतापूर्वक किन्तु स्पष्टता के साथ अनुभवों की अभिव्यक्ति से प्राप्त आत्म-संतोष को अपने काव्य-लेखन का उद्देश्य बताते हैं.
डॉ.राहत इंदौरी के अनुसार ‘शायरी के बनाए हुए फ्रेम और ग्रामर पर वो ज्यादा तवज्जो नहीं देते’. यह ग्रामर कौन सा है? अगर उर्दू का है तो हिंदी रचनाकार उसकी परवाह क्यों करे? यदि हिंदी का है तो उसका उल्लंघन कहाँ-कितना है? यह उर्दू शायर नहीं हिंदी व्याकरण का जानकार तय करेगा. इम्त्याज़ अहमद गाज़ी नय्यर आक़िल के हवाले से हिन्दीवालों पर ‘गज़ल के व्याकरण का पालन करने में असफल’ रहने का आरोप लगते हैं. हिंदीवाले उर्दू ग़ज़लों को हिंदी व्याकरण और पिंगल के निकष पर कसें तो वे सब दोषपूर्ण सिद्ध होंगी. उर्दू में तक्तीअ करने और हिंदी में मात्र गिनने की नियम अलग-अलग हैं. उर्दू में मात्रा गिराने की प्रथा को हिंदी में दोष है. हिंदी वर्णमाला में ‘ह’ की ध्वनि के लिए केवल एक वर्ण ‘ह’ है उर्दू में २ ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’. दो पदांतों में दो ‘ह’ ध्वनि के दो शब्द जिनमें ‘हे’ और ‘हम्ज़ा’ हों का प्रयोग हिंदी व्याकरण के अनुसार सही है जबकि उर्दू के अनुसार गलत. हिंदी गजलकार से उर्दू-अरबी-फारसी जानने की आशा कैसे की जा सकती है?
अरुण जी की हिंदी गज़लें रस-प्रधान हैं –
सपनों में बतियानेवाले, भला बता तू कौन,
मेरी नींद चुरानेवाले, भला बता तू कौन.
बेटी’ पर २ रचनाओं में उनका वात्सल्य उभरता है-
मुझको होती है सचमुच हैरानी बेटी
इतनी जल्दी कैसे हुई सयानी बेटी?
*
गीत राग संगीत रागिनी
वीणा और सितार बेटी
सामाजिक जीवन में अनुत्तरदायित्वपूर्ण आचरण को स्वविवेक तथा आत्म-संयम से ही नियंत्रित किया जा सकता है-
मस्ती-मस्ती में दिल की मर्यादा बनी रहे
लेनी होगी तुमको भी यह जिम्मेदारी फाग में
अरुण जी की विचारप्रधानता इन रचनाओं में पंक्ति-पंक्ति पर मुखर है. वे जो होते देखते हैं, उसका मूल्यांकन कर प्रतिक्रिया रूप में कवू कविता रचते हैं. छंद के तत्वों (रस, मात्राभार, गण, अलंकार, बिम्ब, प्रतीक) आदि का सम्यक संतुलन उनकी रचनाओं में रवानगी पैदा करेगा. उर्दू के व्यामोह से मुक्त होकर हिंदी छ्न्दाधारित रचनाएँ उन्हें सहज-साध्य और सरस अभिव्यक्ति में अधिक प्रभावी बनाएगी. सहज भावाभिव्यक्ति अरुण जी की विशेषता है.
तुमने आँखों के इशारे से बुलाया होगा
तब ही वह खुद में सिमट, इतना लजाया होगा
खोल दो खिड़कियाँ ताज़ी हवा तो आये, बिचारा बूढ़ा बरगद बड़ा उदास है, ऊँचा उठा तो जमीन पर फिर लौटा ही नहीं, हर बात पर बेबाकी अच्छी नहीं लगती अदि अभिव्यक्तियाँ सम्बव्नाओं की और इंगित करती हैं.
परिशिष्ट के अंतर्गत बब्बा जी, दादी अम्मा, मम्मी, पापा और भैया से साथ न होकर बेटी सबसे विशिष्ट होने के कारण अलग है.
फूलों-बीच छिड़ी बहस, किसका मोहक रूप
कौन-कौन श्रंगार के, पूजा के अनुरूप
*
सांस-सांस केसर घुली, अंग-अंग मकरंद
अनपढ़ मन कहने लगा, गीत गजल और छंद
अरुण जी के दोहे अधिक प्रभावी हैं. अधिक लिखने पर क्रमश: निखार आयेगा.
संपर्क आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’, २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१, ९४२५१८३२४४, salil.sanjiv@gmail.com
मुक्तक
*
नेहा हों श्वास सभी
गेहा हो आस सभी
जब भी करिये प्रयास
देहा हों ख़ास सभी
*
अरिमर्दन सौमित्र कर सके
शक-सेना का अंत कर सके
विश्वासों की फसल उगाये
अंतर्मन को सन्त कर सके
*
विश्व दीपक जलाये, तज झालरों को
हँसें ठेंगा दिखा चीनी वानरों को
कुम्हारों की झोपड़ी में हो दिवाली
सरहदों पर मार पाकी वनचरों को
*
काले कोटों को बदल, करिये कोट सफेद
प्रथा विदेश लादकर, तनिक नहीं क्यों खेद?
न्याय अँधेरा मिटाकर दे उजास-विश्वास
हो अशोक यह देश जब पूजा जाए स्वेद
*
मिलें इटावा में 'सलिल' देव और देवेश
जब-जब तब-तब हर्ष में होती वृद्धि विशेष
धर्म-कर्म के मर्म की चर्चा होती खूब
सुन श्रोता के ज्ञान में होती वृद्धि अशेष
*
मोह-मुक्ति को लक्ष्य अगर पढ़िए नित गीता
मन भटके तो राह दिखा देती परिणिता
श्वास सार्थक तभी 'सलिल' जब औरों का हित
कर पाए कुछ तभी सार्थक संज्ञा नीता
*
हरे अँधेरा फैलकर नित साहित्यलोक
प्रमुदित हो हरश्वास तब, मिठे जगत से शोक
जन्में भू पर देव भी,ले-लेकर अवतार
स्वर्गादपि होगा तभी सुन्दर भारत-लोक
*
नलिनी पुरोहित हो प्रकृति-पूजन-पथ वरतीं
सलिल-धार की सकल तरंगे वन्दन करतीं
विजय सत्य-शिव-सुंदर की तब ही हो पाती
सत-चित-आनंद की संगति जब मन को भाती
*
कल्पना जब जागती है, तभी बनते गीत सारे
कल्पना बिन आरती प्रभु की पुजारी क्यों उतारे?
कल्पना की अल्पना घुल श्वास में नव आस बनती
लास रास हास बनकर नित नए ही चित्र रचती
*
***
लघुकथा
कर्तव्य और अधिकार
*
मैं उन्हें 'गुरु' कहता हूँ, कहता ही नहीं मानता भी हूँ। मानूँ क्यों नहीं, उनसे बहुत कुछ सीखा भी है। वे स्वयं को विद्यार्थी मानते हैं। मुझ जैसे कई नौसिखियों का गद्य-पद्य की कई विधाओं में मार्गदर्शन करते हैं, त्रुटि सुधारते हैं और नयी-नयी विधाएँ सिखाते हैं,सामाजिक-पारिवारिक कर्तव्य निभाने की प्रेरणा और नए-नए विचार देते हैं। आधुनिक गुरुओं के आडम्बर से मुक्त सहज-सरल
एक दिन सन्देश मिला कि उनके आवास पर एक साहित्यिक आयोजन है। मैं अनिश्चय में पड़ गया कि मुझे जाना चाहिए या नहीं? सन्देश का निहितार्थ मेरी सहभागिता हो तो न जाना ठीक न होगा, दूसरी ओर बिना आमंत्रण उपस्थिति देना भी ठीक नहीं लग रहा था। मन असमंजस में था।
इसी ऊहापोह में करवटें बदलते-बदलते झपकी लग गयी।
जब आँख खुली तो अचानक दिमाग में एक विचार कौंधा अगर उन्हें गुरु मानता हूँ तो गुरुकुल का हर कार्यक्रम मेरा अपना है, आमंत्रण की अपेक्षा क्यों? आगे बढ़कर जिम्मेदारी से सब कार्य सम्हालूँ। यही है मेरा कर्तव्य और अधिकार।
२२.१०.२०१६
***
विजया दशमी पर दोहे
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भक्ति शक्ति की कीजिये, मिले सफलता नित्य.
स्नेह-साधना ही 'सलिल', है जीवन का सत्य..
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आना-जाना नियति है, धर्म-कर्म पुरुषार्थ.
फल की चिंता छोड़कर, करता चल परमार्थ..
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मन का संशय दनुज है, कर दे इसका अंत.
हरकर जन के कष्ट सब, हो जा नर तू संत..
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शर निष्ठां का लीजिये, कोशिश बने कमान.
जन-हित का ले लक्ष्य तू, फिर कर शर-संधान..
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राम वही आराम हो. जिसको सदा हराम.
जो निज-चिंता भूलकर सबके सधे काम..
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दशकन्धर दस वृत्तियाँ, दशरथ इन्द्रिय जान.
दो कर तन-मन साधते, मौन लक्ष्य अनुमान..
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सीता है आस्था 'सलिल', अडिग-अटल संकल्प.
पल भर भी मन में नहीं, जिसके कोई विकल्प..
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हर अभाव भरता भरत, रहकर रीते हाथ.
विधि-हरि-हर तब राम बन, रखते सर पर हाथ..
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कैकेयी के त्याग को, जो लेता है जान.
परम सत्य उससे नहीं, रह पता अनजान..
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हनुमत निज मत भूलकर, करते दृढ विश्वास.
इसीलिये संशय नहीं, आता उनके पास..
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रावण बाहर है नहीं, मन में रावण मार.
स्वार्थ- बैर, मद-क्रोध को, बन लछमन संहार..
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अनिल अनल भू नभ सलिल, देव तत्व है पाँच.
धुँआ धूल ध्वनि अशिक्षा, आलस दानव- साँच..
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राज बहादुर जब करे, तब हो शांति अनंत.
सत्य सहाय सदा रहे, आशा हो संत-दिगंत..
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दश इन्द्रिय पर विजय ही, विजयादशमी पर्व.
राम नम्रता से मरे, रावण रुपी गर्व.
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आस सिया की ले रही, अग्नि परीक्षा श्वास.
द्वेष रजक संत्रास है, रक्षक लखन प्रयास..
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रावण मोहासक्ति है, सीता सद्-अनुरक्ति.
राम सत्य जानो 'सलिल', हनुमत निर्मल भक्ति..
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मात-पिता दोनों गए, भू तजकर सुरधाम.
शोक न, अक्षर-साधना, 'सलिल' तुम्हारा काम..
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शब्द-ब्रम्ह से नित करो, चुप रहकर साक्षात्.
शारद-पूजन में 'सलिल' हो न तनिक व्याघात..
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माँ की लोरी काव्य है, पितृ-वचन हैं लेख.
लय में दोनों ही बसे, देख सके तो देख..
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सागर तट पर बीनता, सीपी करता गर्व.
'सलिल' मूर्ख अब भी सुधर, मिट जायेगा सर्व..
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कितना पाया?, क्या दिया?, जब भी किया हिसाब.
उऋण न ऋण से मैं हुआ, लिया शर्म ने दाब..
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सबके हित साहित्य सृज, सतत सृजन की बीन.
बजा रहे जो 'सलिल' रह, उनमें ही तू लीन..
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शब्दाराधक इष्ट हैं, करें साधना नित्य.
सेवा कर सबकी 'सलिल', इनमें बसे अनित्य..
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सोच समझ रच भेजकर, चरण चला तू चार.
अगणित जन तुझ पर लुटा, नित्य रहे निज प्यार..
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जो पाया वह बाँट दे, हो जा खाली हाथ.
कभी उठा मत गर्व से, नीचा रख निज माथ.
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जिस पर जितने फल लगे, उतनी नीची डाल.
छाया-फल बिन वृक्ष का, उन्नत रहता भाल..
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रावण के सर हैं ताने, राघव का नत माथ.
रिक्त बीस कर त्याग, वर तू दो पंकज-हाथ..
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देव-दनुज दोनों रहे, मन-मंदिर में बैठ.
बता रहा तव आचरण, किस तक तेरी पैठ..
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निर्बल के बल राम हैं, निर्धन के धन राम.
रावण वह जो किसी के, आया कभी न काम..
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राम-नाम जो जप रहे, कर रावण सा काम.
'सलिल' राम ही करेंगे, उनका काम तमाम..
***
एक सामयिक रचना:
अपना खून खून है
*
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
हम नेता राजाधिराज हैं
लोकतंत्र के नायक
कोटि-कोटि जनता के हम
अलबेले भाग्य-विधायक
लूट तिजोरी भारत की
धन धरें विदेशों में हम
वसुधा को परिवार मानते
घपले अपने सायक
जनप्रतिनिधि बन
जनहित रौंदे
करने दो मनमानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
दाल दलें सबकी छाती पर
जन्मसिद्ध अधिकार
सारा देश बेच दें पल में
प्यारा निज परिवार
मतदाता को भूखा मारें
मिटे न अपनी भूख
स्वार्थ साध,सर्वार्थ त्याग कर
हम करते उपकार
बेशर्मी-मोटी
चमड़ी है धन
पूँजी लासानी
अपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
*
भले निकम्मी संतति
थोपें तुम पर कहकर चंदन
लोफर चोर मवाली को
दे टिकिट बना दें सज्जन
ताली बजा, वोट देना ही
जनगण का अधिकार
पत्रकार को हम खरीद लें
होगा महिमा-मंडन
भूखा मार,
राहतें बाँटें
जय बोलो, हम दानीअपना खून
खून है भैया!
औरों का पानी।
२२-१०-२०१५
***
नवगीत:
दीपमालिके!
दीप बाल के
बैठे हैं हम
आ भी जाओ
अब तक जो बीता सो बीता
कलश भरा कम, ज्यादा रीता
जिसने बोया निज श्रम निश-दिन
उसने पाया खट्टा-तीता
मिलकर श्रम की
करें आरती
साथ हमारे
तुम भी गाओ
राष्ट्र लक्ष्मी का वंदन कर
अर्पित निज सीकर चन्दन कर
इस धरती पर स्वर्ग उतारें
हर मरुथल को नंदन वन कर
विधि-हरि -हर हे!
नमन तुम्हें शत
सुख-संतोष
तनिक दे जाओ
अंदर-बाहर असुरवृत्ति जो
मचा रही आतंक मिटा दो
शक्ति-शारदे तम हरने को
रवि-शशि जैसा हमें बना दो
चित्र गुप्त जो
रहा अभी तक
झलक दिव्य हो

सदय दिखाओ
***
नवगीत:
डॉक्टर खुद को
खुदा समझ ले
तो मरीज़ को
राम बचाये
लेते शपथ
न उसे निभाते
रुपयों के
मुरीद बन जाते
अहंकार की
कठपुतली हैं
रोगी को
नीचा दिखलाते
करें अदेखी
दर्द-आह की
हरना पीर न
इनको भाये
अस्पताल या
बूचड़खाने?
डॉक्टर हैं
धन के दीवाने
अड्डे हैं ये
यम-पाशों के
मँहगी औषधि
के परवाने
गैरजरूरी
होने पर भी
चीरा-फाड़ी
बेहद भाये
शंका-भ्रम
घबराहट घेरे
कहीं नहीं
राहत के फेरे
नहीं सांत्वना
नहीं दिलासा
शाम-सवेरे
सघन अँधेरे
गोली-टॉनिक
कैप्सूल दें
आशा-दीप
न कोई जलाये
***
नव गीत:
कम लिखता हूँ
अधिक समझना
अक्षर मिलकर
अर्थ गह
शब्द बनें कह बात
शब्द भाव-रस
लय गहें
गीत बनें तब तात
गीत रीत
गह प्रीत की
हर लेते आघात
झूठ बिक रहा
ठिठक निरखना
एक बात
बहु मुखों जा
गहती रूप अनेक
एक प्रश्न के
हल कई
देते बुद्धि-विवेक
कथ्य एक
बहु छंद गह
ले नव छवियाँ छेंक
शिल्प
विविध लख
नहीं अटकना
एक हुलास
उजास एक ही
विविधकारिक दीप
मुक्तामणि बहु
समुद एक ही
अगणित लेकिन सीप
विषम-विसंगत
कर-कर इंगित
चौक डाल दे लीप
भोग
लगाकर
आप गटकना
२२-१०-२०१४

***

गीत:

कौन रचनाकार है?....

*

कौन है रचना यहाँ पर?,

कौन रचनाकार है?

कौन व्यापारी? बताओ-

क्या-कहाँ व्यापर है?.....

*

रच रहा वह सृष्टि सारी

बाग़ माली कली प्यारी.

भ्रमर ने मधुरस पिया नित-

नगद कितना?, क्या उधारी?

फूल चूमे शूल को,

क्यों तूल देता है ज़माना?

बन रही जो बात वह

बेबात क्यों-किसने बिगारी?

कौन सिंगारी-सिंगारक

कर रहा सिंगार है?

कौन है रचना यहाँ पर?,

कौन रचनाकार है?

*

कौन नट-नटवर नटी है?

कौन नट-नटराज है?

कौन गिरि-गिरिधर कहाँ है?

कहाँ नग-गिरिराज है?

कौन चाकर?, कौन मालिक?

कौन बन्दा? कौन खालिक?

कौन धरणीधर-कहाँ है?

कहाँ उसका ताज है?

करी बेगारी सभी ने

हर बशर बेकार है.

कौन है रचना यहाँ पर

कौन रचनाकार है?....

*

कौन सच्चा?, कौन लबरा?

है कसाई कौन बकरा?

कौन नापे?, कहाँ नपना?

कौन चौड़ा?, कौन सकरा?.

कौन ढांके?, कौन खोले?

राज सारे बिना बोले.

काज किसका?, लाज किसकी?

कौन हीरा?, कौन कचरा?

कौन संसारी सनातन

पूछता संसार है?

कौन है रचना यहाँ पर?

कौन रचनाकार है?

२२.१०.२०१०

***