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शुक्रवार, 15 सितंबर 2017

abhiyanta divas

अभियंता दिवस (१५ सितंबर) पर विशेष रचना:
हम अभियंता...



संजीव 'सलिल'
*
हम अभियंता!, हम अभियंता!!
मानवता के भाग्य-नियंता...



माटी से मूरत गढ़ते हैं,
कंकर को शंकर करते हैं.
वामन से संकल्पित पग धर,
हिमगिरि को बौना करते हैं.



नियति-नटी के शिलालेख पर
अदिख लिखा जो वह पढ़ते हैं.
असफलता का फ्रेम बनाकर,
चित्र सफलता का मढ़ते हैं.

श्रम-कोशिश दो हाथ हमारे-
फिर भविष्य की क्यों हो चिंता...



अनिल, अनल, भू, सलिल, गगन हम,
पंचतत्व औजार हमारे.
राष्ट्र, विश्व, मानव-उन्नति हित,
तन, मन, शक्ति, समय, धन वारे.



वर्तमान, गत-आगत नत है,
तकनीकों ने रूप निखारे.
निराकार साकार हो रहे,
अपने सपने सतत सँवारे.

साथ हमारे रहना चाहे,
भू पर उतर स्वयं भगवंता...


 
भवन, सड़क, पुल, यंत्र बनाते,
ऊसर में फसलें उपजाते.
हमीं विश्वकर्मा विधि-वंशज.
मंगल पर पद-चिन्ह बनाते.



प्रकृति-पुत्र हैं, नियति-नटी की,
आँखों से हम आँख मिलाते.
हरि सम हर हर आपद-विपदा,
गरल पचा अमृत बरसाते.

'सलिल' स्नेह नर्मदा निनादित,
ऊर्जा-पुंज अनादि-अनंता...

.


अभियांत्रिकी
*
(हरिगीतिका छंद विधान: १ १ २ १ २ x ४, पदांत लघु गुरु, चौकल पर जगण निषिद्ध, तुक दो-दो चरणों पर, यति १६-१२ या १४-१४ या ७-७-७-७ पर)
*
कण जोड़ती, तृण तोड़ती, पथ मोड़ती, अभियांत्रिकी
बढ़ती चले, चढ़ती चले, गढ़ती चले, अभियांत्रिकी
उगती रहे, पलती रहे, खिलती रहे, अभियांत्रिकी
रचती रहे, बसती रहे, सजती रहे, अभियांत्रिकी
*
नव रीत भी, नव गीत भी, संगीत भी, तकनीक है
कुछ हार है, कुछ प्यार है, कुछ जीत भी, तकनीक है
गणना नयी, रचना नयी, अव्यतीत भी, तकनीक है
श्रम मंत्र है, नव यंत्र है, सुपुनीत भी तकनीक है
*
यह देश भारत वर्ष है, इस पर हमें अभिमान है
कर दें सभी मिल देश का, निर्माण यह अभियान है
गुणयुक्त हों अभियांत्रिकी, श्रम-कोशिशों का गान है
परियोजना त्रुटिमुक्त हो, दुनिया कहे प्रतिमान है
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
तज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पिया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पिया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
*** 
अभियंता दिवस पर मुक्तक:
*
कर्म है पूजा न भूल,
धर्म है कर साफ़ धूल। 
मन अमन पायेगा तब-
जब लुटा तू आप फूल। 
*
हाथ मिला, कदम उठा काम करें
लक्ष्य वरें, चलो 'सलिल' नाम करें
रख विवेक शांत रहे काम कर
श्रेष्ठ बना देश,चलो नाम करें.
*
मना अभियंता दिवस मत चुप रहो,
उपेक्षित अभियांत्रिकी है कुछ कहो।
है बहुत बदहाल शिक्षा, नौकरी-
बदल दो हालात, दुर्दशा न सहो।
*
सोरठा सलिला:
हो न यंत्र का दास
संजीव
*
हो न यंत्र का दास, मानव बने समर्थ अब
रख खुद पर विश्वास, 'सलिल' यांत्रिकी हो सफल
*
गुणवत्ता से आप, करिए समझौता नहीं
रहे सजगता व्याप, श्रेष्ठ तभी निर्माण हो
*
भूलें नहीं उसूल, कालजयी निर्माण हों
कर त्रुटियाँ उन्मूल, यंत्री नव तकनीक चुन
*
निज भाषा में पाठ, पढ़ो- कठिन भी हो सरल
होगा तब ही ठाठ, हिंदी जगवाणी बने
*
ईश्वर को दें दोष, ज्यों बिन सोचे आप हम
पाते हैं संतोष, त्यों यंत्री को कोसकर
*
जब समाज हो भ्रष्ट, कैसे अभियंता करे
कार्य न हों जो नष्ट, बचा रहे ईमान भी
*
करें कल्पना आप, करिए उनको मूर्त भी
समय न सकता नाप, यंत्री के अवदान को
*
उल्लाला सलिला:
संजीव
*
(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
 *
अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
*
मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं, अभियंता की भावना।।
*
सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
*
भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
*
​भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
*
नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??​
*
समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
*
​हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
*
मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।। 
*
हम हैं अभियंता
संजीव
*
(छंद विधान: १० ८ ८ ६ = ३२  x ४)
*
हम हैं अभियंता नीति नियंता, अपना देश सँवारेंगे
हर संकट हर हर मंज़िल वरकर, सबका भाग्य निखारेंगे
पथ की बाधाएँ दूर हटाएँ, खुद को सब पर वारेंगे
भारत माँ पावन जन-मन भावन, सीकर चरण पखारेंगे
*
अभियंता मिलकर आगे चलकर, पथ दिखलायें जग देखे
कंकर को शंकर कर दें हँसकर मंज़िल पाएं कर लेखे
शशि-मंगल छूलें, धरा न भूलें, दर्द दीन का हरना है
आँसू न बहायें , जन यश  गाये, पंथ वही नव वरना है
*
श्रम-स्वेद बहाकर, लगन लगाकर, स्वप्न सभी साकार करें
गणना कर परखें, पुनि-पुनि निरखें, त्रुटि न तनिक भी कहीं वरें
उपकरण जुटायें, यंत्र बनायें, नव तकनीक चुनें न रुकें
आधुनिक प्रविधियाँ, मनहर छवियाँ,  उन्नत देश करें न चुकें
*
नव कथा लिखेंगे, पग न थकेंगे, हाथ करेंगे काम सदा
किस्मत बदलेंगे, नभ छू लेंगे, पर न कहेंगे 'यही बदा'
प्रभु भू पर आयें, हाथ बटायें, अभियंता संग-साथ रहें
श्रम की जयगाथा, उन्नत माथा, सत नारायण कथा कहें
================================
एक रचना:
समारोह है
*
समारोह है
सभागार में।
*
ख़ास-ख़ास आसंदी पर हैं,
खासुलखास मंच पर बैठे।
आयोजक-संचालक गर्वित-
ज्यों कौओं में बगुले ऐंठे।
करतल ध्वनि,
चित्रों-खबरों में
रूचि सबकी है
निज प्रचार में।
*
कुशल-निपुण अभियंता आए,
छाती ताने, शीश उठाए।
गुणवत्ता बिन कार्य हो रहे,
इन्हें न मतलब, आँख चुराए।
नीति-दिशा क्या सरकारों की?
क्या हो?, बात न
है विचार में।
*
मस्ती-मौज इष्ट है यारों,
चुनौतियों से भागो प्यारों।
पाया-भोगो, हँसो-हँसाओ-
वंचित को बिसराओ, हारो।
जो होता है, वह होने दो।
तनिक न रूचि
रखना सुधार में।
***
नवगीत:
उपयंत्री की यंत्रणा
संजीव
.
'अगले जनम
उपयंत्री न कीजो'

करे प्रार्थना उपअभियंता
पिघले-प्रगटे भाग्यनियंता
'वत्स! बताओ, मुश्किल क्या है?
क्यों है इस माथे पर चिंता?'
'देव! प्रमोशन एक दिला दो
फिर चाहे जो काम करा लो'
'वत्स न यह संभव हो सकता
कलियुग में सच कभी न फलता' 
तेरा हर अफसर स्नातक
तुझ पर डिप्लोमा का पातक
वह डिग्री के साथ रहेगा
तुझ पर हरदम वार करेगा
तुझे भेज साईट पर सोये
तू उन्नति के अवसर खोये
तू है नींव कलश है अफसर
इसीलिये वह पाता अवसर
जे ई से ई इन सी होता
तू अपनी किस्मत को रोता
तू नियुक्त होता उपयंत्री
और रिटायर हो उपयंत्री
तेरी मेहनत उसका परचम 
उसको खुशियाँ, तुझको मातम
सर्वे कर प्राक्कलन बनाता
वह स्वीकृत कर नाम कमाता
तू साईट पर बहा पसीना
वह कहलाता रहा नगीना
काम करा तू देयक लाता
वह पारित कर दाम कमाता
ठेकेदार सगे हैं उसके
पत्रकार फल पाते मिलके
मंत्री-सचिव उसी के संग हैं
पग-पग पर तू होता तंग है
पार न तू इनसे पायेगा
रोग पाल, घुट मर जाएगा
अफसर से मत, कभी होड़ ले 
भूल पदोन्नति, हाथ जोड़ ले
तेरा होना नहीं प्रमोशन
तेरा होगा नहीं डिमोशन
तू मृत्युंजय, नहीं झोल दे
उठकर इनकी पोल खोल दे
खुश रह जैसा और जहाँ है
तुझसे बेहतर कौन-कहाँ है?
पाप कट रहे तेरे सारे
अफसर को ठेंगा दिखला रे!
बच्चे पढ़ें-बढ़ेंगे तेरे
तब संवरेंगे सांझ-सवेरे
अफसर सचिवालय जाएगा
बाबू बनकर पछतायेगा
कर्म योग तेरी किस्मत में
भोग-रोग उनकी किस्मत में
कह न किसी से कभी पसीजो
श्रम-सीकर में खुश रह भीजो

सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम 
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



शनिवार, 5 अगस्त 2017

muktak

मुक्तक सलिला-
*
कौन पराया?, अपना कौन?
टूट न जाए सपना कौन??
कहें आँख से आँख चुरा
बदल न जाए नपना कौन??
*
राह न कोई चाह बिना है।
चाह अधूरी राह बिना है।।
राह-चाह में रहे समन्वय-
पल न सार्थक थाह बिना है।।
*
हुआ सवेरा जतन नया कर।
हरा-भरा कुछ वतन नया कर।।
साफ़-सफाई रहे चतुर्दिक-
स्नेह-प्रेम, सद्भाव नया कर।।
*
श्वास नदी की कलकल धड़कन।
आस किनारे सुन्दर मधुवन।।
नाव कल्पना बैठ शालिनी-
प्रतिभा-सलिल निहारे उन्मन।।
*
मन सावन, तन फागुन प्यारा।
किसने किसको किसपर वारा?
जीत-हार को भुला प्यार कर
कम से जग-जीवन उजियारा।।
*
मन चंचल में ईश अचंचल।
बैठा लीला करे, नहीं कल।।
कल से कल को जोड़े नटखट-
कर प्रमोद छिप जाए पल-पल।।
*
आपको आपसे सुख नित्य मिले।
आपमें आपके ही स्वप्न पले।।
आपने आपकी ही चाह करी-
आप में व्याप गए आप, पुलक वाह करी।।
*
समय से आगे चलो तो जीत है।
उगकर हँस ढल सको तो जीत है।।
कौन रह पाया यहाँ बोलो सदा?
स्वप्न बनकर पल सको तो जीत है।।
*
शालिनी मन-वृत्ति हो, अनुगामिनी हो दृष्टि।
तभी अपनी सी लगेगी तुझे सारी सृष्टि।।
कल्पना की अल्पना दे, काव्य-देहरी डाल-
भाव-बिम्बों-रसों की प्रतिभा करे तब वृष्टि।।
*
स्वाति में जल-बिंदु जाकर सीप में मोती बने।
स्वप्न मधुरिम सृजन के ज्यों आप मृतिका में सने।।
जो झुके वह ही समय के संग चल पाता 'सलिल'-
वाही मिटता जो अकारण हमेशा रहता तने।।
*
सीने ऊपर कंठ, कंठ पर सिर, ऊपरवाला रखता है।
चले मनचला. मिले सफलता या सफलता नित बढ़ता है।।
ख़ामोशी में शोर सुहाता और शोर में ख़ामोशी ही-
माटी की मूरत है लेकिन माटी से मूरत गढ़ता है।।
*
तक रहा तकनीक को यदि आम जन कुछ सोचिए।
ताज रहा निज लीक को यदि ख़ास जन कुछ सोचिए।।
हो रहे संपन्न कुछ तो यह नहीं उन्नति हुई-
आखिरी जन को मिला क्या?, निकष है यह सोचिए।।
*
चेन ने डोमेन की, अब मैन को बंदी किया।
पीया को ऐसा नशा ज्यों जाम साकी से पीया।।
कल बना, कल गँवा, कलकल में घिरा खुद आदमी-
किया जाए किस तरह?, यह ही न जाने है जिया।।
*
किस तरह स्मार्ट हो सिटी?, आर्ट है विज्ञान भी।
यांत्रिकी तकनीक है यह, गणित है, अनुमान भी।।
कल्पना की अल्पना सज्जित प्रगति का द्वार हो-
वास्तविकता बने ऐपन तभी जन-उद्धार हो।।
***





गुरुवार, 18 जून 2015

lekh: jal sankat aur naharen -sanjiv

विशेष आलेख 
जल संकट और नहरें 
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल''
*
अनिल, अनल, भू, नभ, सलिल, पंच तत्वमय देह 
रखें समन्वय-संतुलन, आत्म तत्व का गेह 

जल जीवन  का पर्याय है. जीवन हेतु अपरिहार्य शेष ४  तत्व मिलने पर भी  जीवन क्रम तभी आरम्भ होता है जब जल का संयोग होता है. शेष ४ तत्वों की तुलना में पृथ्वी पर जल की सीमित मात्रा उसे और अधिक महत्वपूर्ण बना देती है. सकल जल में से मानव जीवन हेतु आवश्यक पेय जल अथवा मीठे पानी की मात्रा न केवल कम है अपितु निरंतर कम होती जा रही है जबकि मानव की जनसँख्या निरंतर बढ़ती जा रही है. फलत:, अगला विश्व युद्ध जल भंडारों को लेकर होने की संभावना व्यक्त की जाने लगी है.पानी की घटती मात्रा और बढ़ती आवश्यकता से बढ़ रही विषमता के लिए लोक और तंत्र दोनों बराबरी से जिम्मेदार हैं. लोक इसलिए कि वह जल का अपव्यय तो करता है पर जल-संरक्षण का कोई उपाय नहीं करता, तंत्र इसलिए की वह साधन संपन्न होने पर भी जन सामान्य को न तो जल-संरक्षण के प्रति जागरूक करता हैं न ही जल-संरक्षण कार्यक्रम और योजनाओं को प्राथमिकता देता है. 

नहर: क्या और क्यों?
जल की उपलब्धता के २ प्रकार प्राकृतिक तथा कृत्रिम हैं. प्राकृतिक संसाधन नदी, झरने, झील, तालाब और समुद्र हैं, कृत्रिम साधन तालाब, कुएँ, बावड़ी, तथा जल-शोधन संयंत्र हैं. भारत जैसे विशाल तथा बहुसांस्कृतिक देश में ऋतु परिवर्तन के अनुसार पानी की आवश्यकता विविध आय वर्ग के लोगों में भिन्न-भिन्न होती है. जल का सर्वाधिक दोहन तथा बर्बादी संपन्न वर्ग करता है जबकि जल-संरक्षण में इसकी भूमिका शून्य है. जल संरक्षण के कृतिम या मानव निर्मित साधनों में नहर सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटक है. नहर का आकार-प्रकार प्रकृति, पर्यावरण, आवश्यकता और संसाधन का तालमेल कर निर्धारित किया जाता है. नदी की तुलना में लघ्वाकारी होने पर भी नहर जन-जीवन को अधिक लाभ और काम हानि पहुँचाती है.  

नहर मानव निर्मित कृत्रिम जल-प्रवाह पथ है जिसका आकार, दिशा, ढाल, बहाव तथा पानी की मात्रा तथा समय मनुष्य अपनी आवश्यकता के अनुसार निर्धारित-नियंत्रित कर सकता है. 

नदी का बहाव-पथ प्राकृतिक भौगोलिक परिस्थिति अनुसार ऊपर से नीचे की ओर होता है. नदी में आनेवाले जल की मात्रा जल संग्रहण क्षेत्र के आकार-प्रकार तथा वर्षा की तीव्रता एवं अवधि पर निर्भर होती है. इसीलिए वर्ष कम-अधिक होने पर नदी में बाढ़ कम या अधिक आती है. वर्षा न्यून हो तो नदी घाटी में जलाभाव से फसलें तथा जन-जीवन प्रभावित होता है. वर्षा अधिक हो तो जलप्लावन से जन-जीवन संकट में पड़ जाता है. नदी के प्रवाह-पथ परिवर्तन से सभ्यताओं के मिटने के अनेक उदहारण मानव को ज्ञात हैं तो सभ्यता का विकास नदी तटों पर होना भी सनातन सत्य है. 

नहर नदियों के समान उपयोगी होती है पर नदियों के समान विनाशकारी नहीं होती। इसलिए नहर का अधिकतम निर्माण कर पीने, सिंचाई तथा औद्योगिक उपयोग हेतु जल की अधिक उपलब्धता कर सकना संभव है. नहर से भूजल स्तर में वृद्धि, मरुस्थल के विस्तार पर रोक, अनुपजाऊ भूमि पर कृषि, वन संवर्धन, ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार अवसर तथा वाणिज्य-उद्योग का विस्तार करना भी संभव है. नहरें देश से लुप्त होती वनस्पतियों और पशु-पक्षियों के साथ-साथ जनजातीय संस्कृति के संवर्धन में भी उपयोगी हो सकती है. नहर लोकजीवन, लोक संस्कृति की रक्षा कर ग्रामीण जीवन को सरल, सहज, समृद्ध कर नगरों में बढ़ते जनसँख्या दबाब को घटा सकती है. 

नहर वायुपथ, रेलगाड़ी और सड़क यातायात की तुलना में बहुत कम खर्चीला जल यातायात साधन उपलब्ध करा सकती है. नहर के किनारों पर नई तथा व्यवस्थित बस्तियां बनाई जा सकती हैं. नहरों के किनारों पर पौधरोपण कर वन तथा बागीचे लगाये जाएँ तो वर्षा  की नियमितता तथा वृद्धि संभव है. इस वनों तथा उद्यानों की उपज समीपस्थ गाँवों में उद्योग-व्यापार को बढ़ाकर आजीविका के असंख्य साधन उपलब्ध करा सकती है. नहरों के किनारों पर पवन चक्कियों तथा सौर ऊर्जा उत्पादन की व्यवस्था संभव है जिससे विद्युत-उत्पादन किया जा सकता है. 

नहर बनाकर प्राकृतिक नदियों को जोड़ा जा सके तो बाढ़-नियंत्रण, आवश्यकतानुसार जल वितरण तथा अल्पव्ययी व न्यूनतम जोखिमवाला आवागमन संभव है. नहर में मत्स्य पालन कर बड़े पैमाने पर खाद्य प्राप्त किया जा सकता है. नहर से कमल व् सिंघाड़े की तरह जलीय फसलें लेकर उनसे विविध रोजगार साधन बढ़ाये जा सकते हैं. नहरों में तैरते हुए होटल, उद्यान आदि का विकास हो तो पर्यटन का विकास हो सकता है. नहर के किनारों पर संरक्षित वन लगाकर  उन्हें दीवाल से घेरकर अभयारण्य बनाये जा सकते हैं.  

नहर निर्माण : उद्देश्य और उपादेयता  

नहर निर्माण की योजना बनाने के पूर्व आवश्यकता और उपदेयता का  आकलन जरूरी है. मरुथली क्षेत्र में नहर बनाने का उद्देश्य किसी नदी के जल से पेयजल तथा कृषि कार्य हेतु जल उपलब्ध करना हो सकता है. राजस्थान तथा गुजरात में इस तरह का कुछ कार्य हुआ है. बारहमासी नदियों से जल लेकर सूखती हुई नदियों में डाला जाए तो उन्हें नव जीवन मिलने के साथ-साथ समीपस्थ नगरों को पेय जल मिलता है, उजड़ रहे तीर्थ फिर से बसते हैं. नर्मदा नदी से साबरमती में जल छोड़कर गुजरात तथा क्षिप्रा नदी में जल छोड़कर मध्य प्रदेश में यह कार्य किया गया है. 

नहर निर्माण का प्रमुख उद्देश्य सिंचाई रहा है. देश के विविध प्रदेशों में वृहद, माध्यम तथा लघु सिंचाई योजनाओं के माध्यम से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई कर खड़ी  वृद्धि की गयी  है. खेद है कि  इन नहरों का निर्माण करनेवाला विभाग राजस्व तो संकलित करता है पर नहरों की मरम्मत, देखरेख तथा विस्तार या अन्य गतिविधियों के लिये आर्थिक रूप से विपन्न रहा आता है. जल संसाधन विभाग में नहरों में जम रही तलछट को एकत्र कर खाद के रूप में विक्रय करने, नहरों में साल भर जल रखकर जलीय फसलों का उत्पादन करने, नहरों का जल यातायात हेतु उपयोग करने, नहरी जल को हर गाँव के पास जल शोधन संयंत्र में शुद्ध कर पेयजल उपलब्ध कराने, नहर के किनारों  पर मृदा का रासायनिक परीक्षण कर अधितम् लाभ देनेवाली फसल उगने और गाँवों के दूषित जल-मल को  शोधन संयंत्रों में शुद्ध कर पुन: नहर में मिलाने की कोई परिकल्पना या योजना ही नहीं है. 

नहरों का बहुउद्देश्यीय उपयोग करने के लिये आकार, ढाल, जल की मात्रा, जलक्षरणरोधी होने तथा उनके किनारों के अधिकतम उपयोग करने की व्यावहारिक योजनाएं बनाना होंगी. अभियंताओं और कृषिवैज्ञानिकों को नवीन अवधराओं के विकास तथा  नये प्रयोगों  स्वतंत्रता तथा क्रिवान्वयन हेतु वित्त व अधिकार देना होंगे. विभागों द्वारा संकलित राजस्व का कुछ अंश विभाग को देना होगा ताकि नहरों का संधारण और विकास नियमित रूप से हो सके. 

 स्थल चयन: 

नहर कहाँ बनाई जाए? यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है. अब तक जल परियोजनाओं के अंतर्गत बांधों से खेतों की सिंचाई करने के लिये नहरें बनायी जाती रही हैं. इन नहरों को बारहमासी जलप्रवाही बनाने के लिए उन्हें जलरोधी भी बनाना होग. इस हेतु आर्थिक साधनों की आवश्यकता होगी. पूर्वनिर्मित तथा प्रस्तावित नहरों के प्रवाह-पथ क्षेत्र का सर्वेक्षण कर भूस्तर के अनुसार खुदाई-भराई की  जानेवाली मृदा की मात्रा, समीपस्थ या प्रस्तावित बस्तियों की जनसँख्या के आधार पर वर्तमान तथा २० वर्ष बाद वांछित पेय जल तथा निष्क्रमित जल-मल की मात्रानुसार शोधन संयंत्रों की आवश्यकता, हो रही तथा संभावित कृषि हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, नहरों में तथा उपलब्ध स्थल अनुसार मत्स्य पालन कुण्ड निर्माण की संभावना, संख्या तथा व्यय, नहर के किनारों पर लगाई जा सकनेवाली वनोपज तथा वनस्पतियाँ (बाँस आँवला, बेल, सीताफल, केला, संतरा, सागौन, साल ) का मृदा के आधार पर चयन, इन वनोपजों के विक्रय हेतु बाजार की उपलब्धता,  वनोपजों का उपयोग कर सकने वाले लघु-कुटीर उद्योगों का विकास व उत्पाद के विपणन की व्यवस्था, नहरों के किनारों पर विकसित वनों में अभयारण्य बनाकर प्राणियों को खला छोड़ने एवं पर्यटकों को सुरक्षित पिंजरों में घूमने की व्यवस्था,  मृदा के प्रकार, संभावित फसलों हेतु वांछित जल की मात्रा व समय, समीपस्थ तीर्थों तथा प्राकृतिक स्थलों का विकास कर पर्यटन को प्रोत्साहन, नहर के तटों पर वायु प्रवाह के अनुसार पवनचक्कियों  ऊर्जा केन्द्रों की स्थापना, विद्युत उत्पादन-विपणन, जनसंख्यानुसार नए ग्रामों की स्थापना-विकास नहर में जल ग्रहण तह नहर से जल निकास की मात्रा का आकलन तथा उपाय, अधिकतम-न्यूनतम वर्षाकाल में नहर में आनेवाली जल की मात्रा का आकलन व्यवस्था जल-परिवहन तथा यातायात हेति वांछित नावों, क्रूजरों की आवश्यकता और उन्हें किनारों पर लगाने के लिये घाट निर्माण आदि महत्वपूर्ण बिंदु हैं जिनका पूर्वानुमान कर लक्ष्य निर्धारित किये जाने चाहिए. भौगोलिक स्थिति के अनुसार आवश्यकता होने पर सुरंग बनाने, बाँध बनाकर जलस्तर उठाने का भी ध्यान रखना होगा.  

बाधा और निदान:
बाँध आरम्भ होते समय अभियंताओं की बड़ी संख्या में भर्ती तथा परियोजना पूरी होने पर उन्हें अनावश्यक भार मानकर आर्थिक आवंटन न देने की प्रशासनिक नीति ने अभियंताओं के अमनोबल को तोडा है तथा उनकी कार्यक्षमता व् गुणवत्ता पर  पड़ा है. दूसरी और राजस्व वसूली का पूरा विभाग होते हुए भी अभियंताओं को तकनीकी काम से हटाकर राजस्व वसूली पर लगाना और वसूले राजस्व में से कोई राशि नहर या बांध के संरक्षण हेतु न देने की नीति ने बाँधों और नहरों के रख-रखाव पर विपरीत छोड़ा है. इस समस्या को सुलझाने के लिये एक नीति बनायी जा सकती है. योजना पूर्ण होने पर प्राप्त राजस्व के ४ हिस्से  कर एक हिस्सा भावी निर्माणों के लिये राशि जुटाने के लिये केंद्र सरकार को, एक हिस्सा योजनाओं पर लिया ऋण छकाने के लिये राज्य सरकार को, एक हिस्सा योजना के संधारण हेतु सम्बंधित विभाग / प्राधिकरण को, एक हिस्सा समीपस्थ क्षेत्र या गाँव का विकास करने हेतु स्थानीय निकाय को दिया जा सकता है. योजना के आरम्भ से लेकर पूर्ण होने और संधारण तक का कार्य एक ही निकाय का हो तो पूर्ण जानकारी, नियंत्रण तथा संधारण सहज होग. इससे जिम्मेदारी की भावना पनपेगी तथा उत्तरदायित्व का निर्धारण भी किया जा सकेगा. विविध विभागों को एक साथ जोड़ने पर अधिकारों, कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को लेकर अनावश्यक टकराव होता है. 

लाभ:   

यदि नहर निर्माण को प्राथमिकता के साथ पूरे देश में प्रारम्भ किया जाए तो अनेक लाभ होंगे. 
१. विविध विभागों में नियुक्त तथा सिंचाई योजनाएं पूर्ण हो चुकने पर निरुपयोगी कार्य कर वेतन पा रहे अभियन्ताओं की क्षमता तथा योग्यता का उपयोग हो सकेगा.
२. असिंचित-बंजर भूमि पर कृषि हो सकेगी, उत्पादन बढ़ेगा. 
३. व्यर्थ बहता वर्ष जल संचित-वितरित कर जल-प्लावन (बाढ़) को नियंत्रित किया जा सकेगा. 
४. गाँवों का द्रुत विकास होगा. शुद्ध पेय जल मिलाने तथा मल-जल शोधन व्यवस्था होने से स्वास्थ्य सुधरेगा. 
५. पवन तथा सौर ऊर्जा का उपयोग कर जीवनस्तर को उन्नत किया जा सकेगा. 
६. सस्ती और सर्वकालिक जल यातायात से को  व्यकिगत वाहन  ईंधन पर व्यय से राहत मिलेगी. 
७. देश के ऑइल पूल का घाटा कम होगा.
८. नये रोजगार अवसरों  होगा। इसका लाभ गाँव के सामान्य युवाओं को होगा.
९. कृषि, वनोपजों, वनस्पतियों, मत्स्य आदि का उत्पादन बढ़ेगा. 
१०. नये पर्यटन स्थलों का विकास होगा. 
११.कुटीर तथा लघु उद्योगों को नयी दिशाएँ मिलेंगी.
१२. पशु पालन सुविधाजनक होगा।
१३. सहकारिता आंदोलन सशक्त होगा.
१४. अभ्यारण्यों  तथा वानस्पतिक उद्यानों के निर्माण से लुप्त होती प्रजातियों का संरक्षण संभव होगा.
१५. समरसता तथा सद्भाव की वृद्धि होगी. 
१६. केंद्र-राज्य सरकारों तथा स्थानीय निकायों की आय बढ़ेगी तथा व्यय घटेगा. 
१७. गाँवों में सुविधाएँ बढ़ने और यातायात सस्ता होने से शहरों पर जनसँख्या वृद्धि का दबाब घटेगा.   
१८. पर्यावरण प्रदूषण कम होगा.
१९. भूजल स्तर बढ़ेगा. 
२०. निरंतर बढ़ते तापमान पर अंकुश लगेगा.
२१. वनवासी अपने सांस्कृतिक वैभव और परम्पराओं के साथ सुदूर अंचलों में रहते हुए जीवनस्तर उठा सकेंगे. 

इन्फ्लुएंस ऑफ़ सिल्वीकल्चर प्रैक्टिसेस ऑन द हाइड्रोलॉजी ऑफ़ पाइन फ्लैटवुडस इन फ्लोरिडा के तत्वावधान में एच. रिकर्क द्वारा  संपन्न शोध के अनुसार ''वनस्पतियों का विदोहन किये जाने से वृक्षों के छत्र में  अन्तारोधन तथा भूमि में पानी का अंत:रिसाव घटता है. जलधारा में सीधे बहकर आनेवाले पानी से आकस्मिक बाढ में तेजी आती है.''

नहरों का विकास इस दुष्प्रभाव को रोककर बाढ़ की तीव्रता को कम कर सकता है. वर्तमान भूकम्पीय त्रसदियों के  जनसंख्या सघनता  कम म होना मानव जीवन की हानि को कम करेगा. बड़े बांधों और परमाणु विद्युत उत्पदान की जटिल, मँहगी तथा विवादास्पद  परियोजनाओं की  तुलना में सघन नहर प्रणाली विकसित करने में ही देश का कल्याण है.  क्या सरकारें, जन-प्रतिनिधि, पत्रकार और आम नागरिक इस ओर ध्यान देकर यह परिवर्तन ला सकेंगे? भावी सम्पन्नता का यह द्वार खोलने में जितनी देर होगी नुक्सान उतना ही अधिक होगा.    
​- समन्वयम् २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन जबलपुर ४८२००१ 
०७६१ २४१११३१ / ९४२५१ ८३२४४ 

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

jankari, takneek, upkaran,

जानकारी, तकनीक, उपकरण :  
फेक आई डी से कैसे निबटें? 
2. अब उस यूजरनेम का इस्तेमाल, फेसबुक लोगइन बॉक्स पर बने फॉरगेट पासवर्ड पर क्लिक कर, अपने फोन के मैजेसबॉक्स में पासवर्ड रिसेट कोड मंगाएं
3. पासवर्ड रिसेट कर, उस प्रोफाइल में लोग इन करें
4. यह काम सुबह सुबह करें.. जब मोहतरमा कजोल सो रही हों, क्योंकि पासवर्ड रिसेट होने का एक नोटिफिकेशन उनके मेल पर जाएगा, अगर वह सतर्क रहीं तो वह लोग इन पहले कर सकती हैं...
5. लोग इन हो जाने पर आप, प्रोफाइल से जुडे, इ-मेल को तुरंत बदल दें , ताकि वह उस दौरान ई-मेल के जरिये भी न लोगइन कर पाएं
6. अब उस अकाउंट को डिलीट कर दें
7. फेसबुक पहले उसे कुछ दिनों को लिए डीएक्टिवेट रखेगा , फिर हटा देगा
8... अपने फोन को लोक लगा कर रखें... और किसी अविश्वनीय के हाथ में न दें.. दूकान में बनाने को न ही दे तो बेहतर, अगर दें भी तो देते समय सिम निकाल कर दें

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

Indian manual lift: sanjiv

भारतीय यांत्रिक लिफ्ट व्यवस्था                   
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' 
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वाराणसी. आधुनिक बहुमंज़िला इमारतों में बिजली चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो भारत में भी 18वीं शताब्दी के आखिर में दरभंगा नरेश ने यांत्रिक लिफ्ट की परिकल्पना ही नहीं निर्माणकर उपयोग भी किया था।

राजमाता और रानी के गंगा स्नान के लिए नरेश ने उस समय चक्र (पुली) पर चलने वाली लिफ्ट दरभंगा के राजमहल में लगवा यी थी। रानी और राजमाता को नित्य प्रातः गंगा स्नान के लिए महल से गंगा जी तक सकरी गलियों से होकर आना-जाना पड़ता था जो सुरक्षा की दृष्टि से चिन्ताजनक तथा आम लोगों के लिये असुविधा का कारण था. इसलिए महराजा रामेश्वर सिंह ने 50 फुट ऊंचे दरभंगा महल के ठीक सामने की ओर मीनार में हाथ से चलाई जा सकनेवाली यांत्रिक लिफ्ट बनवायी थी।
गंगा के पश्चिमी तट पर बसी अस्सी और वरुणा के बीच का भूगोल वाराणसी के नाम से विश्वविख्यात है। प्राचीन लोकभाषा "पाली" में वाराणसी को ढाई हजार साल पहले से आमलोग "बनारस" कहा करते थे। भारत के हर प्रदेश के प्रमुख राजघरानों और जमीदारों ने बनारस में आकर बसने का सपना देखा और शायद उसी का परिणाम हैं कि हर घाट के निर्माण में या घाट के ऊपर महलों या भवनों ने अलग-अलग प्रदेश की पहचान और छाप छोड़ी। 100 के ऊपर वाराणसी के घाटो के बीच घाट है 'दरभंगा घाट'। दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में दरभंगा महल का निर्माण कराया था। यह आज भी अपनी मनमोहक नक्काशी और रूप के लिए जाना जाता है।
महल के बाशिंदों में राजमाता या नरेश की पत्नी (रानी) पर्दानशीं हुआ करती थीं। शायद इसलिए घाट से 50 फीट ऊपर महल से गंगा स्नान हेतु आने के लिए दरभंगा नरेश ने काशी के इतिहास में पहली 'लिफ्ट' लगायी। आधुनिक विद्युत् चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो परन्तु भारत में कुंए से पानी निकालने की विधा बहुत प्राचीन है। चक्र यानी पुली के सहारे भारी वस्तु ऊपर भी जा सकती हैं और नीचे भी आ सकती हैं। कुओं से पानी निकलने के लिए मोट का सञ्चालन बैलों से किया जाता था. इसी विधा पर दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में रानी और राजमाता के लिए हाथ से चलनेवाली लिफ्ट को महल में बनवाया था।

रानी और राजमाता गंगा स्नान के लिए घाट पर आने के लिए महल के बाहरी हिस्से में बनी मीनार में लगी लिफ्ट की मदद से सीधे घाट पर उतर आती थीं। दासियाँ साड़ी का घेरा बनाती थी और स्नान के पहले व बाद रानी और राजमाता पुनः लिफ्ट के माध्यम से महल में वापस चली जाती थी। रख-रखाव न किये जेन के कारण हाथों से चलायी जा सकनेवाली लिफ्ट काल के गर्त में समा चुकी है। जानकार पर्यटक इसके बारे में जानते हैं वह दरभंगा घाट पर बने इस महल को जरूर देखने आते हैं। दरभंगा महल की यह मानवचालित यांत्रिक लिफ्ट इतिहास की एक धरोहर है। बहुत कम लोग जानते हैं कि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में ही हमारे देश में लोग लिफ्ट का इस्तेमाल करने लगे थे। विज्ञान का अद्भुत समन्वय दरभंगा महल की लिफ्ट थी जो आज इतिहास के पन्नों में रह गई है। इस तकनीकमें सुधर कर आज भी मानवचालित लिफ्ट कम ऊंची इमारतों में उपयोग कर बिजली बचाई जा सकती है तथा अल्पशिक्षित श्रमिकों के लिए रोजगार का सृजन किया जा सकता है.

बुधवार, 16 अक्टूबर 2013

lekh: itihaas ke mithak todati takneek - pramod bhargav

सामायिक शोधलेख :
इतिहास के मिथक तोड़ती तकनीक
प्रमोद भार्गव 


विज्ञान सम्‍मत कोई भी नई मान्‍यता वर्तमान मान्‍यता के खण्‍डन के दृष्‍टिगत अस्‍तित्‍व में लाई जाती है। नई मान्‍यता का उत्‍सर्जन पहली मान्‍यता से दूसरी मान्‍यता के बीच सामने आए नए तथ्‍यों, साक्ष्‍यों, जैविक कारणों और नई तकनीकी विधियों से संभव होता है। इस दृष्‍टि से भारत की भारतीयता, अखण्‍डता व संप्रभुता को मजबूती प्रदान करने वाले तकनीकी माध्‍यम से किए गए तीन शोधपरक अध्‍ययन सामने आए हैं। पहला जो एकदम नया अध्‍ययन है का निर्ष्‍कष है कि आर्यों के बहार से भारत आने की कहानियां गढ़ी हुई हैं। यह शोध हैदराबाद के सेंटर फॉर सेल्‍युलर एण्‍ड मॉलिक्‍यूलर बायोलॉजी ने किया है। इस शोध का आधार अनुवांशिकी (जेनेटिक्‍स) है। एक दूसरे अध्‍ययन में दो साल पहले डीएनए की विस्‍तृत जांच से खुलासा किया गया था कि देश के बहुसंख्‍यक लोगों के पूर्वज दक्षिण भारतीय दो आदिवासी समुदाय हैं। मानव इतिहास विकास के क्रम में यह स्‍थिति जैविक क्रिया के रुप में सामने आई हैं। वैसे भी इतिहास अब केवल घटनाओं और तिथियों की सूचना भर नहीं रह गया है। तीसरे अध्‍ययन ने निश्‍चित किया है कि भगवान श्रीकृष्‍ण हिन्‍दू मिथक और पौराणिक कथाओं के काल्‍पनिक पात्र न होकर एक वास्‍तविक पात्र थे और कुरुक्षेत्र के मैदान में वास्‍तव में महाभारत युद्ध लड़ा गया था। भारतीय परिदृश्‍य या परिप्रेक्ष्‍य में उपरोक्‍त मान्‍यताएं स्‍वीकार ली जाती हैं तो शायद मिथक बना दिए गए राम और कृष्‍ण जैसे संघर्षशील नायकत्‍व-चरित्रों से ईश्‍वरीय अवधारणा की मिथकीय केंचुल उतरे। हमारे संज्ञान में अब यह वैज्ञानिक सच आ ही गया है कि हम भारतीय उपमहाद्वीप के ही आदिवासी समूहों के वंशज हैं, फिर यह धर्म, जाति, संप्रदाय व भाषाई विभाजक लकीर क्‍यों ? लेकिन क्‍या ये जड़ों की ओर लौटने का संकेत देने वाले अनुसंधानपरक वैज्ञानिक चिंतन ईश्‍वरीय, सृष्‍टि की काल्‍पनिक अवधारणा को चुनौती देते हुए भारतीय समाज को बदल पाएंगे ?
प्रसिद्ध जीव विज्ञानी चार्ल्‍स डारविन ने उन्‍नीसवीं सदी के मध्‍य में विकासवाद के सिद्धांत को स्‍थापित करते हुए बताया था कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और यहां तक की मनुष्‍य भी हमेशा से आज जैसे नहीं रहे हैं, बल्‍कि वे बेतरतीब बदलाव (रैन्‍डम म्‍यूटेशन) और प्राकृतिक चयन (नेचुरल सिलेक्‍शन) द्वारा निम्‍नतर से उच्‍चतर जीवन की ओर विकसित होते रहे हैं। उन्‍होंने इस बात पर भी जोर दिया की जिस खास प्रजाति से मानव का विकास हुआ, उसके संबंधी आज भी अफ्रीका में जीवित हैं। इसलिए इस सिद्धांत को मानने में किसी सवर्ण में यह हीनता-बोध पैदा नहीं होना चाहिए कि हमारे पुरखे आदिवासी थे।
चार्ल्‍स डारविन ने एच.एम.एस बीगल जहाज पर सवारी करते हुए दुनियाभर की सैर की और कई जीव-जंतुओं का इस दृष्‍टि से अध्‍ययन किया, जिससे सजीवों में परिवर्तन की खोज की जा सके। लिहाजा बीगल यात्रा के दौरान वे इक्‍वेडॉर तट के नजदीक गैलापैगोस द्वीप समूह के कई द्वीपों पर गए। यहां उन्‍हें फिंच नाम की चिड़िया के प्रसंग में विशेष बात यह नजर आई कि यह चिड़िया पाई तो हरेक द्वीप में जाती है, लेकिन इनमें शारीरिक स्‍तर पर तमाम भिन्‍नताएं हैं। विशेष तौर से इनकी चोचों की आकृति में बदलाव प्राकृतिक चयन और आहारजन्‍य उपलब्‍धता के आधार पर डारविन ने रेखांकित किया। बाद मे यें पक्षी अलग-अलग स्‍थानों पर इतने भिन्‍न रुपों में विकसित हो गए कि इन्‍हें मनुष्‍यों ने नई-नई प्रजातियों के रुप में ही जाना।
समस्‍त भारतीय दो आदिवासी समूहों की संतानें हैं, यह भारत में किया गया ऐसा अंनूठा अध्‍ययन है जिसमें शोधकर्ताओं ने भारतीय सभ्‍यता की पहचान मानी जाने वाली जाति व्‍यवस्‍था पर आर्य आक्रमणकारियों के सिद्धांत को सर्वथा नजरअंदाज किया है। अध्‍ययन दल के निदेशक लालजी सिंह ने इस प्रसंग का खुलासा करते हुए स्‍पष्‍ट भी किया कि आर्य व द्रविड़ (अनार्य) के बारे में अलग-अलग बात करने की जरुरत नहीं है। उन्‍होंने कहा भी जाति सूचक रुप में पहली बार ‘आर्य' शब्‍द का प्रयोग जर्मन विद्वान मेक्‍समुलर ने किया था। वरना हमारी जातियों का प्रादुर्भाव तो देश के कबिलाई समूहों से हुआ है।
‘सेंटर फॉर सेल्‍युलर एंड मॉलीक्‍युलर बायोलॉजी' (सीसीएमबी) हैदराबाद के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस अध्‍ययन में बताया गया है कि दक्षिण भारतीय पूर्वज 65 हजार वर्ष पूर्व और उत्तर भारतीय पूर्वज 45 हजार वर्ष पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में आए थे। देश की 1.21 अरब जनसंख्‍या, 4600 अलग-अलग जातियों, धर्मों व बोलियों के आधार पर विभाजित हैं, बावजूद उनमें गहरी अनुवांशिक समानताएं हैं। लिहाजा निम्‍नतम और उच्‍चतम जातियों के पुरखे और उनके रक्‍त समूह एक ही हैं। गोया, यह खोज इस पारंपरिक अवधारणा को अस्‍वीकारती है कि सभी जीव प्रजातियां अपरिवर्तन हैं और ये ईश्‍वरीय रचनाएं हैं।
हालांकि इतिहास की गतिशीलता को मानव समाज की जैविक प्रवृत्तियों से तलाशने की कोशिश मनुष्‍य के आदि पूर्वज ‘‘आस्‍टेलोपिथिक्‍स रामिदस'' की खोज के रुप में ड़ेढ़ दशक पूर्व सामने आ चुकी है। धरती के इस पहले मनुष्‍य की खोज इथियोपिया क्षेत्र के आरामिस के शुरुआती प्‍लायोसिन चट्‌टानों में मिले रामिदस प्रजाति के सत्तरह सदस्‍यों के दांतो, खोपड़ी के टुकड़ों और अन्‍य अवशेषों की उम्र 45 लाख वर्ष से अधिक आंकी गई है। इथियोपिया के अफारी लोगों की भाषा में ‘‘रामिद'' का अर्थ होता है मूल या जड़। रामिदस के अवशेषों के खोज कर्ता वैज्ञानिक जिसे मनुष्‍य और चिपांजी जैसे नर वानरों के समान पूर्वज तथा अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन मानव पूर्वज के जीवाश्‍म मानते हैं। वैज्ञानिको का दावा है कि यदि यह सही है तो इसे इंसान की मूल प्रजाति मानना होगा।
इस शोध की बड़ी उपलब्‍धि अंग्रेजों द्वारा प्रचलन में लाई गई आर्य-द्रविड़ अवधारणा भी है। जिसके तहत बड़ी चतुराई से अंग्रेजों ने कल्‍पना गढ़कर तय किया कि आर्य भारत में बाहर से आए। मसलन आर्य विदेशी थे। पाश्‍चात्‍य इतिहास लेखकों ने पौने दो सौ साल पहले जब प्राच्‍य विषयों और प्राच्‍य विद्याओं का अध्‍ययन शुरु किया तो उन्‍होंने कुटिलतापूर्वक ‘आर्य' शब्‍द को जातिसूचक शब्‍द के दायरे में बांध दिया। ऐसा इसलिए किया गया जिससे आर्यों को अभारतीय घोषित किया जा सके। जबकि वैदिक युग में ‘आर्य' और ‘दस्‍यु' शब्‍द पूरे मानवीय चरित्र को दो भागों में बांटते थे। प्राचीन संस्‍कृत साहित्‍य में भारतीय नारी अपने पति को ‘आर्य-पुत्र' अथवा ‘‘आर्य-पुरुष'' नाम से संबोधित करती थी। इससे यह साबित होता है कि आर्य श्रेष्‍ठ पुरुषों का संकेतसूचक शब्‍द था। ऋग्‍वेद, रामायण, महाभारत, पुराण व अन्‍य प्राचीन ग्रंथों में कहीं भी आर्य शब्‍द का प्रयोग जातिवाचक शब्‍द के रुप में नहीं हुआ है। आर्य का अर्थ ‘श्रेष्‍ठि' अथवा ‘श्रेष्‍ठ' भी है। वैसे भी वैदिक युग में जाति नहीं वर्ण व्‍यवस्‍था थी।
इस सिलसिले में डॉ. रामविलास शर्मा का कथन बहुत महत्‍वपूर्ण है, जर्मनी मेंं जब राष्‍ट्रवाद का अभ्‍युदय हुआ तो उनका मानना था कि हम लोग आर्य हैं। इसलिए उन्‍होने जो भाषा परिवार गढ़ा था उसका नाम ‘इंडो-जर्मेनिक' रखा। बाद में फ्रांस और ब्रिटेन वाले आए तो उन्‍होंने कहा कि ये जर्मन सब लिए जा रहे हैं, सो उन्‍होंने उसका नाम ‘इंडो-यूरोपियन' रखा। मार्क्‍स 1853 में जब भारत संबंधी लेख लिख रहे थ,े उस समय उन्‍होंने भारत के लिए लिखा है कि यह देश हमारी भाषाओं और धर्मों का आदि स्‍त्रोत है। इसलिए 1853 में यह धारणा नहीं बनी थी कि आर्य भारत में बाहर से आए। 1850 के बाद जैसे-जैसे ब्रिटिश साम्राज्‍य सुदृढ़ हुआ और फ्रांसीसी व जर्मन भी यूरोप एवं अफ्रीका में अपना साम्राज्‍य विस्‍तार कर रहे थे तब उन्‍हें लगा कि ये लोग हमसे प्राचीन सभ्‍यता वाले कैसे हो सकते हैं, तब उन्‍होंने यह सिद्धांत गढ़ा कि एक आदि इंडो-यूरोपियन भाषा थी, उसकी कई शाखाएं थीं। एक शाखा ईरान होते हुए यहां पर पहुंची और फिर इंडो-एरियन जो थी, वह इंडो-ईरानियन से अलग हुई और फिर संस्‍कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी यह सिलसिला चला। इस कारण आर्य भारत के मूल निवासी थे, यह गलत है। भाषाओं के इतिहास से भी इसकी पुष्‍टि नहीं होती। अंततः रामविलास शर्मा ने अपने शोधों के निचोड़ में पाया कि आर्य उत्तर भारत के ही आदिवासी थे। अर्थात ज्‍यादातर भारतीयों के जन्‍मदाता आदिवासी समूह थे।
बंगाली इतिहासकार ए.सी.दास का मानना है कि आर्यों का मूल निवास स्‍थान ‘सप्‍त-सिंधु' या पंजाब में था। सप्‍त-सिंधु में सात नदियां बहती थीं सिंधु, झेलम, चिनाब, रावी, व्‍यास, सतलुज और सरस्‍वती। आर्य सप्‍त सिंधु से ही पश्‍चिम की ओर गए और पूरी दुनिया में फैले। सप्‍त-सिंधु के उत्तर में कश्‍मीर की सुंदर घाटी, पश्‍चिम में गांधार प्रदेश, दक्षिण में राजपूताना, जो उस समय रेगिस्‍तान नहीं था और पूर्व में गंगा का मैदान था। सप्‍त-सिंधु से गांधार और काबुल के मार्ग से आर्यों के समूह पश्‍चिम में यूरोप और रुस गए।
पाश्‍चात्‍य और भारतीय विद्वान भाषा वैज्ञानिक समरुपता के कारण ऐसी अटकलें लगाए हुए हैं कि आर्य विदेशों से भारत आए। गंगाघाटी से आर्यावर्त तक की भाषाएं एक ही आर्य परिवार की आर्य भाषाएं हैं। इसी कारण इन भाषाओं में लिपि एवं उच्‍चारण की भिन्‍नता होने के बावजूद अपभ्रंशी समरुपता है। इससे यह लगता है कि आदिकाल में एक ही परिवार की भाषाएं बोलने वाले पूर्वज कहीं एक ही स्‍थान पर रहते होंगे जो सप्‍त-सिंधु ही रहा होगा। भाषा वैज्ञानिक समरुपता किसी हद तक परिकल्‍पना और अनुमान की बुनियाद पर भी आधारित होती है और अब भाषा वैज्ञानिकों की यह अवधारणा भी बन गई है कि भाषाई एकरुपता किसी जाति की एकरुपता साबित नहीं हो सकती। इसलिए यूरोपीय जातियों के साथ भारतीय आर्यों को जोड़ना कोरी कल्‍पना है। वैसे भी आर्य शब्‍द का प्रयोग संस्‍कृत साहित्‍य में सबसे ज्‍यादा हुआ है और संस्‍कृत का परिमार्जित विकास भी क्रमशः भारत में ही हुआ है। इसलिए आयोंर् का उत्‍थान, आर्यों का दैत्‍यों में विभाजन और उनकी सभ्‍यता, संस्‍कृति और उनका पारंपरिक विस्‍तार के सूत्रपात के मूल में भारत ही है। इसीलिए भारत आर्यावर्त कहलाया आर्य भारत के ही मूल निवासी थे इस तारतम्‍य में 1994 में भी एक अध्‍ययन हुआ था। जिसके जनक भारतीय अमेरिकी विद्वान थे। इस अध्‍ययन ने दावा किया था कि भारत से ही आर्य पश्‍चिम-एशिया होते हुए यूरोप तक पहुंचे। इस अध्‍ययन का आधार पुरातात्‍विक अनुसंधानों, भू-जल सर्वेक्षण, उपग्रह से मिले चित्र, प्राचीन शिल्‍पों की तारीखें तथा ज्‍यामिति एवं वैदिक गणित रहे थे।
इस अध्‍ययन दल में अमेरिका की अंतरिक्ष संस्‍था नासा के तात्‍कालिक सलाहकार डॉ. एन.एस.राजाराम, डेविड फ्रांवले, जार्ज फयूरिस्‍टीन, हैरी हिक्‍स, जैम्‍स शेफर और मार्क केनोयर शामिल थे। भारतीय अमेरिकी इतिहासविदों ने सच की तह तक पहुचने के लिए खोजबीन की चौतरफा रणनीति अपनाई। प्रमाणों के लिए बीसवीं शताब्‍दी के उपलब्‍ध अत्‍याधुनिक संसाधनों का सहारा लिया। डॉ. राजाराम ने अपना अभिमत प्रकट करते हुए कहा है कि 19 वीं शताब्‍दी के भाषाशास्‍त्र के सिद्धांत, ऐसा ऐतिहासिक परिदृश्‍य खींचते हैं, जो पिछले दो हजार साल की भारतीय परंपरा को खारिज करने की सलाह देता है। दूसरी ओर भारतीय अमेरिकी इतिहासज्ञों का मत है कि परंपराओं को स्‍वीकार किया जाना चाहिए और इतिहास के मॉडलों को सुधारा जाना चाहिए। यदि नए सबूत उनके विपरीत हों तो उन मॉडलों को नामंजूर भी किया जा सकता है। इस आधार को सामने रखकर उन्‍होंने भारतीय इतिहास की जड़ों की ओर लौटना शुरु किया तो पाया कि महाभारत का समय ईसा से 3102 साल पहले के आसपास का था। इस काल का निर्धारण कई तरह से किया गया। महाभारत के इस काल को मिथक नहीं माना जा सकता क्‍योंकि उपग्रह से मिले चित्रों से पता चलता है कि सरस्‍वती नदी 1900 ईसा पूर्व सूख गई थी। महाभारत के वर्णनों में सरस्‍वती का जिक्र मिलता है। लिहाजा यह भी नहीं माना जा सकता कि भारतीयों ने ज्‍यामिति, यूनानियों से उधार ली थी। हड़प्‍पा के नगरों का नियोजन और वास्‍तुशिल्‍प उच्‍चकोटि के ज्‍यामितिशास्‍त्र का प्रतिफल हैं। इस प्रमेय को पाइथागोरस से दो हजार साल पहले बैधायन ने अपने सुलभ सूत्र में कर दिया था।
सुलभ सूत्र में हवन-कुंड की जो ज्‍यामिति दी गई है, वह तीन हजार ईसा पूर्व के हड़प्‍पा सभ्‍यता के अवशेषों में पाई जाती है। सूत्रों के रचयिता अश्‍वालयन ने महाभारत के प्राचीन ऋषियों का उल्‍लेख किया है और इन्‍हीं सूत्रों को हड़प्‍पा सभ्‍यता के समय साकार रुप में पाया गया। हड़प्‍पा के शहर 2700 ईसा पूर्व में जिस समय अपने गौरव के चरम पर थे, उससे कहीं पहले महाभारत का युद्ध हुआ था।
इन सब ठोस प्रमाणों के आधार पर इन इतिहासकारों ने प्राचीन भारतीय इतिहास के सूत्र 3102 ईसा पूर्व में हुए महाभारत से पकड़ना शुरु किए। इससे यह तर्क अपने आप खारिज हो जाता है कि सभ्‍यता का अंकुरण तीन हजार ईसा पूर्व में मेसोपोटामिया से हुआ। इससे करीब एक हजार साल पहले तो ऋग्‍वेद पूर्ण हो गया था। ऋग्‍वेद काल की शुरुआत इससे कहीं पहले हो गई थी। लोकमान्‍य तिलक और डेविड फ्रांवले जैसे वैदिक विद्वानों ने ऋग्‍वेद में छह हजार ईसा पूर्व की तारीखों के संकेत भी खोजे हैं।
डॉ. राजाराम ऋग्‍वेद काल को 4600 ईसा पूर्व मानने में कोई कठिनाई महसूस नहीं करते। यह वह समय था जब मान्‍धात्र नाम के भारतीय सम्राट ने ध्रुयू कहलाने वाले लोगों पर उत्तर-पश्‍चिम में कई आक्रमण किए। इन आक्रमणों के कारण उत्तर-पश्‍चिम से भारी संख्‍या में पलायन हुआ और ये लोग मध्‍य-एशिया और यूरोप तक गए। मध्‍य-एशिया, यूरोप और भारत के बीच भाषाई और मिथकीय समानताओं के लिए इसे प्रमुख कारण माना जा सकता है। भारत का उत्तर-पश्‍चिम का इलाका प्राचीन काल में उथल-पुथल का केन्‍द्र था।
मान्‍धात्र के बाद राजा सूद को धु्रयू और दूसरे लोगों से जूझना पड़ा। फिर तेन राजाओं की लड़ाइयां भी हुईं, जिनका ऋग्‍वेद के सांतवें खण्‍ड में वशिष्‍ठ ने भी वर्णन किया है। प्राचीन इतिहास का यह महत्‍वपूर्ण दौर था। सूद राजा की लड़ाई ने पृथुपठवा, परसू और एलिना लोगों को खदेड़ दिया। बाद में परसू लोग फारसी कहलाए और एलिना लोग यूनानी कहलाए। सूद के दूसरे प्रतिद्वंद्वियों में पक्‍था और बलहन भी शामिल थे। बाद में उनकी पीढ़ियाँ पठान या पख्‍तूनी और बलूची कहलाईं। भाषाई और संस्‍कृति विश्‍लेषक श्रीकांत तलगरी ने भी इसका वर्णन किया है। इन तथ्‍यों के उजागर होने से साबित हुआ कि यह सिद्धांत एकदम खोखला है कि आर्यों ने भारत पर आक्रमण किया था। ये प्रमाण और धटनाएं सिद्धांत के एकदम विपरित यह गवाही देती हैं कि आर्य जाति का मूल स्‍थान भारत था और फिर उनकी जड़ें यूरोप तक फैले वैदिक भूभाग में राजनैतिक उथल-पुथल के कारण आर्यों का यहां से पलायन हुआ था न कि वे बाहर से आक्रांता के रूप में यहां आए थे।
अमेरिकी मानव वैज्ञानिक और पुरातत्‍ववेत्ता डॉ. जे. मार्क केनोयर भी हड़प्‍पा में खुदाई के दौरान मिले अवशेषों के बाद लगभग यही दृष्‍टिकोण प्रकट करते हैं। डॉ. केनोयर का मत है कि ‘भारोपीय';इंडो-यूरोपियनद्ध तथा ‘भारतीय आर्य' ;इंडा- आर्यनद्ध की परिकल्‍पनाओं के पीछे यूरोपीय विद्वानों का उद्‌देश्‍य अपनी श्रेष्‍ठता प्रतिपादित करना था और इसके लिए उन्‍हें स्‍थितियां भी अनुकूल मिलीं। क्‍योंकि तत्‍कालीन भारतीय मानस हीन भावना से इतना अधिक ग्रस्‍त था कि वह स्‍वयं को पश्‍चिम से किसी न किसी रुप में जोड़कर ही आत्‍मगौरव महसूस करने लगा था।
दरअसल पिछली शताब्‍दी के तीसरे दशक में भारतीय अन्‍वेषणकर्ता डी.आर.साहनी और आर.डी. बनर्जी द्वारा क्रमशः हड़प्‍पा और मोहनजोदड़ों की खोज से पहले तक पश्‍चिमी विद्वान यही कहते आए थे कि बाहर से आए आर्यों ने भारत को सभ्‍यता से परिचित कराया। हालांकि इन खोजों से पश्‍चिमी विद्वानों का यह दावा ध्‍वस्‍त हो गया, फिर भी यही मान्‍यता बनी रही कि आर्य बाहर से आए और उन्‍होंने सिंधु घाटी के मूल निवासियों को दक्षिण एवं पूर्व की ओर खदेड़ दिया। साथ ही यह अवधारणा भी गढ़ी कि आर्य बर्बर थे। नतीजतन हड़प्‍पावासी द्रविड़ उनके सामने टिक नहीं पाए। क्‍योंकि आर्यों के पास अश्‍वों की गति और लोहे की शक्‍ति थी। जबकि हड़प्‍पा के लोग इनसे अपरिचित थे।
डॉ केनोयर इस अवधारणा को निरस्‍त करते हुए कहते हैं कि हड़प्‍पा सभ्‍यता से जुड़े विभिन्‍न स्‍थलों पर 3100 वर्ष से भी अधिक पुराने लोहे मिले हैं। जबकि बलूचिस्‍तान में सबसे पुराना लोहा लगभग पौने तीन हजार साल से भी पहले का पाया गया है। इसी तरह सिंधु घाटी में घोड़ों के अवशेष प्राप्‍त हुए हैं, जो इस तथ्‍य को झुठलाते हैं कि हड़प्‍पावासी अश्‍वों से परिचित नहीं थे। डॉ. केनोयर ने माना है कि अनेक धर्मों और जातियों के लोग हड़प्‍पा में एक साथ रहते थे। ‘आर्य' शब्‍द की अर्थ-व्‍यंजना ‘सुसभ्‍य' और ‘सुसंस्‍कृत' से जुड़ी थी। फलस्‍वरुप जिनका उच्‍च रहन-सहन व शासन व्‍यवस्‍था में हस्‍तक्षेप था वे ‘आर्य' और जो दबे-कुचले व सत्ता से दूर थे, ‘‘अनार्य‘‘ हुए।
अब जो आर्यों के ऊपर अनुवांशिकी के आधार पर नया शोध सामने आया है, उससे तय हुआ है कि भारतीयों की कोशिकाओं का जो अनुवांशिकी ढांचा है, वह बहुत पुराना है। पांच हजार साल से भी ज्‍यादा पुराना है। तब यह कहानी अपने आप बे-बुनियाद साबित हो जाती है कि भारत के लोग 3.5 हजार साल पहले किसी दूसरे देश से यहां आए थे। यदि आए होते तो हमारा अनुवांशिकी ढांचा भी 3.5 हजार साल से ज्‍यादा पुराना नहीं होता, क्‍योंकि जब वातावरण बदलता है तो अनुवांशिकी ढांचा भी बदल जाता है। इस तथ्‍य को इस उदाहरण से समझा जा सकता है। जैसे हमारे बीच कोई व्‍यक्‍ति आज अमेरिका या ब्रिटेन जाकर रहने लग जाए तो उसकी जो चौथी-पांचवीं पीढ़ी होगी, उसका सवा-डेढ़ सौ साल बाद अनुवांशिकी सरंचना अमेरिकी या ब्रिटेन निवासी जैसी होने लग जाऐगी। क्‍योंकि इन देशों के वातावरण का असर उसकी अनुवांशिकी सरंचना पर पड़ेगा। इस शोध के बाद देखना यह है कि दुनियाभर के जिज्ञासुओं को आर्यों के मूल निवास स्‍थान का जो सवाल मथ रहा है उसका कोई परिणाम निकलता है अथवा नहीं ?
सिंधु घाटी की सभ्‍यता प्राचीन नगर सभ्‍यताओं में एकमात्र ऐसी सभ्‍यता थी जो भगवान महावीर और महात्‍मा गांधी के अंहिसावादी दर्शन की विलक्षणता व महत्ता को रेखांकित करती है। मिश्र से लेकर सुमेरू तक की प्राचीन सभ्‍यताओं से ऐसे अनेक अवशेष मिले हैं, जिनमें राजा अथवा उसके दूत लोगों को मारते-पीटते दिखाए गए हैं। जबकि इसके विपरीत सिंधु घाटी की सभ्‍यता में ऐसा एक भी अवशेष नहीं मिला, इससे जाहिर होता है कि दुनिया की यह एकमात्र ऐसी अद्वितीय सभ्‍यता थी, जहां आमजन पर अनुशासन तथा अपराध व अपराधियों पर नियंत्रण के लिए सैन्‍य-शक्‍ति का सहारा नहीं लिया जाता था। शासन-व्‍यवस्‍था की इस अनूठी पद्वति के विस्‍तृत अध्‍ययन की दरकार है।
डॉ. केनोयर का मानना था कि प्राचीन भारतीय सभ्‍यता केवल सिंधु घाटी में ही नहीं पनपी, बल्‍कि सिंधु घाटी की सभ्‍यता के समांनातर एक अन्‍य सभ्‍यता घाघरा-हाकड़ा में भी पनपी। ज्ञातव्‍य है कि सरस्‍वती इसी घाघरा की शाखा थी। उन्‍होंने दावा किया था कि हरियाणा स्‍थित राखीगढ़ी तथा पाकिस्‍तान के गनवेरीवाला आदि क्षेत्रों में हुए अन्‍वेषण कार्यों में इस तथ्‍य की पुष्‍टि हुई है।
प्रागैतिहासिक भारत में राजनीति और धर्म, भिन्‍न नहीं थे। हड़प्‍पा-मोहन जोदड़ो आदि राज्‍यों के शासक अपने रक्‍त संबंधियों अथवा रिश्‍तेदारों के साथ राज-काज चलाते थे। यह व्‍यवस्‍था धर्म से संचालित व नियंत्रित थी। शासक कुटुम्‍ब में जब सदस्‍यों की जनसंख्‍या बढ़ जाती थी तो उनमें से एक समूह आमजनों की टोली के साथ कहीं और जा बसता था। इन कारणों से भी एक ही भाषा-समूहों का विस्‍तार हुआ। इतिहास हमारे मस्‍तिष्‍क की आंख खोल देने वाला सत्‍य होता है। इसलिए इनकी रचना में ज्ञान की समस्‍त देन का उपयोग होना चाहिए। इस नाते भारतवंशी ब्रितानी शोधकर्ता डॉ. नरहरि अचर ने खगोलीय घटनाओं और पुरातात्‍विक व भाषाई साक्ष्‍यों के आधार पर दावा किया है कि भगवान कृष्‍ण हिन्‍दू मिथक व पौराणिक कथाओं के दिव्‍य व काल्‍पनिक पात्र न होकर एक वास्‍तविक पात्र थे। डॉ. अचर ब्रिटेन में टेनेसी के मेम्‍फिस विश्‍वविद्यालय में भौतिकशास्‍त्र के प्राध्‍यापक हैं। डॉ. अचर की इस उद्‌घोषणा से जुड़े शोध-पत्र में खगोल विज्ञान की मदद से महाभारत युद्ध की घटनाओं की कालगणना की है। इस शोध-पत्र का अध्‍ययन जब ब्रिटेन में न्‍यूक्‍लियर मेडीसिन के फिजीशियन डॉ. मनीष पंडित ने किया तो उनकी जिज्ञासा हुई कि क्‍यों न तारामंडल संबंधी सॉफ्‍टवेयर की मदद से डॉ. अचर के निष्‍कर्षों की पड़ताल व सत्‍यापन किया जाए। घटनाओं की कालगणना करने के दौरान वे उस समय आश्‍चर्यचकित रह गए जब उन्‍होंने डॉ. अचर के शोध-पत्र और तारामंडलीय सॉफ्‍टवेयर से सामने आए निष्‍कर्ष में अद्‌भुत समानता पाई।
इस अध्‍ययन के अनुसार कृष्‍ण का जन्‍म ईसा पूर्व 3112 में हुआ। विश्‍व प्रसिद्ध कौरव व पाण्‍डवों के बीच लड़ा गया महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 3067 में हुआ। इन काल-गणनाओं के आधार पर महाभारत युद्ध के समय कृष्‍ण की उम्र 54-55 साल की थी। महाभारत में 140 से अधिक खगोलीय घटनाओं का विवरण है। इसी आधार पर डॉ. नरहरि अचर ने पता लगाया कि महाभारत युद्ध के समय आकाश कैसा था और उस दौरान कौन-कौन सी खगोलीय घटनाएं घटी थीं। जब इन दोनों अध्‍ययनों के तुलनात्‍मक निष्‍कर्ष निकाले गए तो पता चला कि महाभारत युद्ध ईसा पूर्व 22 नवंबर 3167 को शुरु होकर 17 दिन चला था। इन अध्‍ययनों से निर्धारित होता है कि कृष्‍ण कोई अलौकिक या दैवीय शक्‍ति न होकर एक मानवीय पौरुषीय शक्‍ति थे। डॉ. मनीष पंडित इस अध्‍ययन से इतने प्रभावित हुए कि उन्‍होंने ‘कृष्‍ण इतिहास और मिथक' नाम से एक दस्‍तावेजी फिल्‍म भी बना डाली।
इन तथ्‍यपरक अध्‍ययनों के सामने आने के बाद अब जरुरी हो जाता है कि हम अपनी उस मानसिकता को बदलें, जिसके चलते हमने प्राचीन भारतीय इतिहास, पुरातत्‍व और साहित्‍य के प्रति तो सख्‍त रवैया अपनाया हुआ है और औपनिवेशिक पाश्‍चात्‍य संप्रभुता के प्रति दास वृत्ति के अंदाज में कमोवेश लचीला रुख अपनाया हुआ है। अंग्रेज व उनके निष्‍ठावान अनुयायी भारतीय बौद्धिकों ने आर्य-अनार्य, आर्य-दस्‍यु और आर्य द्रविड़ समस्‍याएं खड़ी करके यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि भारत आदिकाल से ही विदेशी जातियों का उपनिवेश रहा है। इस बात से वे यह भी सिद्ध करना चाहते थे कि भारत पर ब्रितानी साम्राज्‍य का आधिपत्‍य सर्वथा वैद्य होते हुए न्‍यायसंगत था। लेकिन अब समय आ गया है कि इस मानसिक जड़ता को बदला जाए। यदि धर्म, भाषा, जाति और सांप्रदायिक सोच से ऊपर उठकर हम अपनी दृष्‍टि में साक्ष्‍य आधारित परिवर्तन कालांतर में लाते हैं तो देश असभ्‍यता व अज्ञानता के हीनता-बोध से तो उबरेगा ही हमारे ऐतिहासिक, सांस्‍कृतिक व सामाजिक मूल्‍यों में भी क्रांतिकारी बदलाव आएगा।
प्रमोद भार्गव
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