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शुक्रवार, 6 सितंबर 2024

सितंबर ६, सॉनेट, शिक्षक, नवगीत, सीमा, वाग्देवी, लघुकथा, गुरु, दोहा, कौन हूँ मैं?, यायावर,

सलिल सृजन सितंबर ६ 
*
सॉनेट
छापा
*
इस पर छापा; उस पर छापा
बोल न है किस-किस पर छापा
रंग-बिरंगा रूपया छापा
समाचार मनमाना छापा
साथ न जो दे उस पर छापा
साथ न जो ले उस पर छापा
छोड़े हाथ अगर तो छापा
मोड़े लात अगर तो छापा
मन की बात न मानी? छापा
धन की बात न जानी छापा
कुछ करने की ठानी छापा
मुँह से निकली बानी छापा
सत्ता का स्वभाव है छापा
नेता का प्रभाव है छापा
६-९-२०२२
***
वंदन
वाग्देवी! कृपा करिए
हाथ सिर पर विहँस धरिए
वास कर मस्तिष्क में माँ
नयन में जाएँ समा
हृदय में रहिए विराजित
कंठ में रह गुनगुना
श्वास बनकर साथ रहिए
वाग्देवी कृपा करिए
अधर यश गा पुण्य पाए
कीर्ति कानों में समाए
कर तुम्हारे उपकरण हों
कलम कवितांजलि चढ़ाए
दूर पल भर भी न करिए
वाग्देवी कृपा करिए
अक्षरों के सुमन लाया
शब्द का चंदन लगाया
छंद का गलहार सुरभित
पुस्तकी उपहार भाया
सलिल को संजीव करिए
वाग्देवी कृपा करिए
६-९-२०२२
•••
विमर्श : आय और क्रय सामर्थ्य
पचास वर्ष पूर्व - एक पैसे में पाँच गोलगप्पे,
चालीस साल पूर्व - एक पैसे में दो गोलगप्पे
तीस वर्ष पूर्व - पाँच पैसे में दो गोलगप्पे
बीस वर्ष पूर्व - २५ पैसे में एक गोलगप्पा
दस वर्ष पूर्व - ५० पैसे में एक गोलगप्पा
अब - दो रूपए में एक गोलगप्पा
नौकरी आरंभ करने से अब तक गोलगप्पा का कीमत पचास साल में हजार गुणा बढ़ी।
जमीन २५ पैसे वर्ग फुट से १०००/- वर्ग फुट अर्थात ४००० गुना बढ़ी।
वेतन ४००/- से २००००/- अर्थात ५० गुना बढ़ा।
सोना २००/- से ५२,०००/- अर्थात २६० गुना बढ़ा।
क्रय क्षमता २ तोले से ०.४ तोला अर्थात एक चौथाई से भी कम।
सचाई
वस्तुओं की तुलना में क्रय सामर्थ्य में निरंतर ह्रास। अचल संपदा में बेतहाशा वृद्धि, अमीर और अमीर, गरीब और गरीब
निष्कर्ष
मुद्रा का द्रुत और त्वरित अवमूल्यन,
श्रमिक, किसान और कर्मचारी की क्रय सामर्थ्य चिन्तनीय कम, पूँजीपतियों, प्रशासनिक-न्यायिक अफसरों, नेताओं के आय और सम्पदा में अकूत वृद्धि।
५ % भारतीयों के पास ८०% संपदा।
किसी राजनैतिक दल को जान सामान्य की कोइ चिंता नहीं। चोर-चोर मौसेरे भाई
६-९-२०२०
***
विमर्श
यायावर हैं शब्द
*
यायावर वह पथिक है जो अथक यात्रा करता है।
यायावरी कर राहुल सांकृत्यायन अक्षय कीर्तिवान हुए।
यायावरी कर नेता जी आजादी के अग्रदूत बने।
यायावरी सोद्देश्य हो तो वरेण्य है, निरुद्देश्य हो तो लोक उसे आवारगी कहता है।
आवारा के लिए अंग्रेजी में लोफर शब्द है।
लोफर का प्रयोग जनसामान्य हिंदी या उर्दू का शब्द मानकर करता है पर लोफर बनता है अंग्रेजी शब्द लोफ से।
लोफ का अर्थ है रोटी का टुकड़ा। रोटी के टुकड़े के लिए भटकनेवाला लोफर भावार्थ दाने-दाने के लिए मोहताज।
क्या हम लोफर शब्द का उपयोग वास्तविक अर्थ में करते हैं?
लोफर यायावरी करते हुए अंग्रेजी से हिंदी में आ गया पर उसका मूल लोफ नहीं आ सका।
भोजपुरी में निअरै है का अर्थ निकट या समीप है।
तुलसी ने मानस में लिखा है 'ऋष्यमूक पर्वत निअराई'
ये निअर महोदय सात समुंदर लाँघ कर अंग्रेजी में समान अर्थ में near हो गए हैं। न उच्चारण बदला न अर्थ पर शब्दकोष में रहते हुए भी डिक्शनरीवासी हो गए।
हम एक साथ एक ही समय में दो स्थानों पर भले ही न कह सकें पर शब्द रह लेते हैं, वह भी प्रेम के साथ।
शब्दों की एकता ही भाषा की शक्ति बनती है। हमारी एकता देश की शक्ति बनती है।
देश की शक्ति बढ़ाने के लिए हमें शब्दों की तरह यायावर, घुमक्कड़, पर्यटक, तीर्थयात्री होना चाहिए।
धरती का स्वर्ग बुला रहा है, धारा ३७० संशोधित हो चुकी है। आइए! यायावर बनें और कश्मीर को पर्यटन कर समृद्ध बनाने के साथ दुर्लभ प्राकृतिक सौंदर्य का नज़ारा देखें और देश को एकता-शक्ति के सूत्र में बाँधें।
***
६-९-२०१९
***
मेरा परिचय :
कौन हूँ मैं?...
*
क्या बताऊँ, कौन हूँ मैं?
नाद अनहद मौन हूँ मैं.
दूरियों को नापता हूँ.
दिशाओं में व्यापता हूँ.
काल हूँ कलकल निनादित
कँपाता हूँ, काँपता हूँ.
जलधि हूँ, नभ हूँ, धरा हूँ.
पवन, पावक, अक्षरा हूँ.
निर्जरा हूँ, निर्भरा हूँ.
तार हर पातक, तरा हूँ..
आदि अर्णव सूर्य हूँ मैं.
शौर्य हूँ मैं, तूर्य हूँ मैं.
अगम पर्वत कदम चूमें.
साथ मेरे सृष्टि झूमे.
ॐ हूँ मैं, व्योम हूँ मैं.
इडा-पिंगला, सोम हूँ मैं.
किरण-सोनल साधना हूँ.
मेघना आराधना हूँ.
कामना हूँ, भावना हूँ.
सकल देना-पावना हूँ.
'गुप्त' मेरा 'चित्र' जानो.
'चित्त' में मैं 'गुप्त' मानो.
अर्चना हूँ, अर्पिता हूँ.
लोक वन्दित चर्चिता हूँ.
प्रार्थना हूँ, वंदना हूँ.
नेह-निष्ठा चंदना हूँ.
ज्ञात हूँ, अज्ञात हूँ मैं.
उषा, रजनी, प्रात हूँ मैं.
शुद्ध हूँ मैं, बुद्ध हूँ मैं.
रुद्ध हूँ, अनिरुद्ध हूँ मैं.
शांति-सुषमा नवल आशा.
परिश्रम-कोशिश तराशा.
स्वार्थमय सर्वार्थ हूँ मैं.
पुरुषार्थी परमार्थ हूँ मैं.
केंद्र, त्रिज्या हूँ, परिधि हूँ.
सुमन पुष्पा हूँ, सुरभि हूँ.
जलद हूँ, जल हूँ, जलज हूँ.
ग्रीष्म, पावस हूँ, शरद हूँ.
साज, सुर, सरगम सरस हूँ.
लौह को पारस परस हूँ.
भाव जैसा तुम रखोगे
चित्र वैसा ही लखोगे.
स्वप्न हूँ, साकार हूँ मैं.
शून्य हूँ, आकार हूँ मैं.
संकुचन-विस्तार हूँ मैं.
सृष्टि का व्यापार हूँ मैं.
चाहते हो देख पाओ.
सृष्ट में हो लीन जाओ.
रागिनी जग में गुंजाओ.
द्वेष, हिंसा भूल जाओ.
विश्व को अपना बनाओ.
स्नेह-सलिला में नहाओ..
***
एकाक्षरी दोहा:
एकाक्षरी दोहा संस्कृत में महाकवि भारवी ने रचे हैं. संभवत: जैन वांग्मय में भी एकाक्षरी दोहा कहा गया है. निवेदन है कि जानकार उन्हें अर्थ सहित सामने लाये. ये एकाक्षरी दोहे गूढ़ और क्लिष्ट हैं. हिंदी में एकाक्षरी दोहा मेरे देखने में नहीं आया. किसी की जानकारी में हो तो स्वागत है.
मेरा प्रयास पारंपरिक गूढ़ता से हटकर सरल एकाक्षरी दोहा प्रस्तुत करने का है जिसे सामान्य पाठक बिना किसी सहायता के समझ सके. विद्वान् अपने अनुकूल न पायें तो क्षमा करें . पितर पक्ष के प्रथम दिन अपने साहित्यिक पूर्वजों का तर्पण इस दोहे से करता हूँ.
ला, लाला! ला लाल ला, लाली-लालू-लाल.
लल्ली-लल्ला लाल लो, ले लो लल्ला! लाल.
६-९-२०१७
***
मेरे गुरु, अग्रजवत श्री सुरेश उपाध्याय जी
शत-शत वंदन
गुरु जी की कविता और गुरु वन्दना
*
व्यंग्य रचना-
बाबू और यमराज
सुरेश उपाध्याय
*
दफ्तर का एक बाबू मरा
सीधा नरक में जाकर गिरा
न तो उसे कोई दुःख हुआ
ना वो घबराया
यों ही ख़ुशी में झूम कर चिल्लाया
वाह, वाह क्या व्यवस्था है?
क्या सुविधा है?
क्या शान है?
नरक के निर्माता! तू कितना महान है?
आँखों में क्रोध लिए यमराज प्रगट हुए, बोले-
'नादान! यह दुःख और पीड़ा का दलदल भी
तुझे शानदार नज़र आ रहा है?
बाबू ने कहा -
'माफ़ करें यमराज
आप शायद नहीं जानते
कि बन्दा सीधे हिंदुस्तान से आ रहा है।
***
गुरु वन्दना
*
दोहा मुक्तिका
*
गुरु में भाषा का मिला, अविरल सलिल प्रवाह
अँजुरी भर ले पा रहा, शिष्य जगत में वाह
*
हो सुरेश सा गुरु अगर, फिर क्यों कुछ परवाह?
अगम समुद में कूद जा, गुरु से अधिक न थाह
*
गुरु की अँगुली पकड़ ले, मिल जाएगी राह
लक्ष्य आप ही आएगा, मत कर कुछ परवाह
*
गुरु समुद्र हैं ज्ञान का, ले जितनी है चाह
नेह नर्मदा विमल गुरु, ज्ञान मिले अवगाह
*
हर दिन नया न खोजिए, गुरु- न बदलिए राह
मन श्रृद्धा-विश्वास बिन, भटके भरकर आह
*
एक दिवस क्यों? हर दिवस, गुरु की गहे पनाह
जो उसकी शंका मिटे, हो शिष्यों में शाह
*
नेह-नर्मदा धार सम, गुरु की करिए चाह
दीप जलाकर ज्ञान का, उजियारे अवगाह
***
लघुकथा
पीड़ा
*
शिक्षक दिवस पर विद्यार्थी अपने 'सर' को प्रसन्न करने के लिए उपहार देकर चरण स्पर्श कर रहे थे। उपहार के मूल्य के अनुसार आशीष पाकर शिष्य गर्वित हो रहे थे। सबसे अंत में खड़ा, सहमा-सँकुचा वह हाथ में थामे था एक कागज़ और एक फूल। शिक्षक ने एक नज़र उस पर डाली उससे कागज़ फूल लेकर मेज पर रखा और इससे पहले कि वह पैर छू पाता लपककर कमरे से निकल गए। दिन भर उदास-अनमना, खुद को अपमानित अनुभव करता वह पढ़ाई करता रहा।
शाला बन्द होनेपर सब बच्चे चले गए पर वह एक कोने में सुबकता हुआ खुद से पूछ रहा था 'मुझसे क्या गलती हुई? जो गणित कई दिनों से नहीं बन रहा था, वह दोस्तों से पूछ-पूछ कर हल कर लिया, गृहकार्य भी पूरा किया, रोज नहाने भी लगा हूँ, पुराने सही पर कपड़े भी स्वच्छ पहनता हूँ, भगवान को चढ़ानेवाला फूल 'सर' के लिए ले गया पर उन्होंने देखा तक नहीं। मेज पर इस तरह फेंका कि जमीन पर गिर कर पैरों से कुचल गया। कोना हमेशा की तरह मौन था...
सिर पर हाथ का स्पर्श अनुभव करते ही उसने पलटकर देखा, सामने उसके शिक्षक थे- 'मुझसे भूल हो गई, तुमने मुझे सबसे कीमती उपहार दिया है। मैं ही उस समय नहीं देख सका था' कहते हुए शिक्षक ने उसे ह्रदय से लगा लिया, पल भर में मिट गई उसके मन की पीड़ा।
६-९-२०१६
***
कृति चर्चा:
'खुशबू सीली गलियों की' : प्राण-मन करती सुवासित
*
[कृति विवरण: खुशबू सीली गलियों की, नवगीत संग्रह, सीमा अग्रवाल, २०१५, आकार डिमाई, आवरण पेपरबैक, बहुरंगी, पृष्ठ ११२, १२०/-, अंजुमन प्रकाशन, ९४२ आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहबाद , गीतकार संपर्क: ७५८७२३३७९३]
*
भाषा और साहित्य समाज और परिवेश के परिप्रेक्ष्य में सतत परिवर्तित होता है. गीत मनुष्य के मन और जीवन के मिलन से उपजी सरस-सार्थक अभिव्यक्ति है। रस और अर्थ न हो तो गीत नहीं हो सकता। गीतकार के मनोभाव शब्दों से रास करते हुए कलम-वेणु से गुंजरित होकर आत्म को आनंदित कर दे तो गीत स्मरणीय हो जाता है। 'खुशबू सीती गलियों की' की गीति रस-छंद-अलंकार की त्रिवेणी में अवगाहन कर नव वसन धारण कर नवगीत की भावमुद्रा में पाठक का मन हरण करने में सक्षम हैं।
गीत और अगीत का अंतर मुखड़े और अंतरे पर कम और कथ्य की प्रस्तुति के तरीके पर अधिक निर्भर है।सीमा जी की ये रचनायें २ से ५ पंक्तियों के मुखड़े के साथ २ से ५ अंतरों का संयोजन करते हैं। अपवाद स्वरूप 'झाँझ हुए बादल' में ६ पंक्तियों के २ अंतरे मात्र हैं। केवल अंतरे का मुखड़ाहीन गीत नहीं है। शैल्पिक नवता से अधिक महत्त्वपूर्ण कथ्य और छंद की नवता होती है जो नवगीत के तन में मन बनकर निवास करती और अलंकृत होकर पाठक-श्रोता के मन को मोह लेती है।
सीमा जी की यह कृति पारम्परिकता की नींव पर नवता की भव्य इमारत बनाते हुए निजता से उसे अलंकृत करती है। ये नवगीत चकित या स्तब्ध नहीं आनंदित करते हैं. धार्मिक, सामाजिक, राष्ट्रीय पर्वों-त्यहारों की विरासत सम्हालते ये गीत आस्मां में उड़ान भरने के पहले अपने कदम जमीन पर मजबूती से जमाते हैं। यह मजबूती देते हैं छंद। अधिकाँश नवगीतकार छंद के महत्व को न आंकते हुई नवता की तलाश में छंद में जोड़-घटाव कर अपनी कमाई छिपाते हुए नवता प्रदर्शित करने का प्रयास करते हुई लड़खड़ाते हुए प्रतीत होते हैं किन्तु सीमा जी की इन नवगीतों को हिंदी छंद के मापकों से परखें या उर्दू बह्र के पैमाने पर निरखें वे पूरी तरह संतुलित मिलते हैं। पुरोवाक में श्री ओम नीरव ने ठीक ही कहा है कि सीमा जी गीत की पारम्परिक अभिलक्षणता को अक्षुण्ण रखते हुए निरंतर नवल भावों, नवल प्रतीकों, नवल बिम्ब योजनाओं और नवल शिल्प विधान की उद्भावना करती रहती हैं।
'दीप इक मैं भी जला लूँ' शीर्षक नवगीत ध्वनि खंड २१२२ (फाइलातुन) पर आधारित है । [संकेत- । = ध्वनि खंड विभाजन, / = पंक्ति परिवर्तन, रेखांकित ध्वनि लोप या गुरु का लघु उच्चारण]
तुम मुझे दो । शब्द / और मैं /। शब्द को गी। तों में ढालूँ
२ १२ २ । २ १ / २ २ /। २ १ २ २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
बरसती रिम । झिम की / हर इक । बूँद में / घुल । कर बहे जो
२ १ २ २ । २ १ / २ २ । २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
थाम आँचल । की किनारी ।/ कान में / तुम । ने कहे जो
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ / २ । २ १२ २ = २८ मात्रा
फिर उन्हीं निश् । छल पलों को।/ तुम कहो तो ।/ आज फिर से
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ = २८ मात्रा
गुनगुना लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १७ मात्रा
ओस भीगी । पंखुरी सा ।/ मन सहन / निख । रा है ऐसे
२ १ २ २ । २१२ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २ २ = २८ मात्रा
स्वस्ति श्लोकों । के मधुर स्वर । / घाट पर / बिख। रे हों जैसे
२ १ २ २ । २ १ २ २ । / २ १ २ / २ । २ १ २२ = २८ मात्रा
नेह की मं । दाकिनी में ।/ झिलमिलाता ।/ दीप इक = २६ मात्रा
२ १ २ २ । २ १ २ २ ।/ २ १ २ २ ।/ २१ २
मैं । भी जला लूँ । तुम मुझे दो । शब्द
२ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ = १९ मात्रा
इस नवगीत पर उर्दू का प्रभाव है। 'और' को औ' पढ़ना, 'की' 'में' 'है' तथा 'हों' का लघु उच्चारण व्याकरणिक दृष्टि से विचारणीय है। ऐसे नवगीत गीत हिंदी छंद विधान के स्थान पर उर्दू बह्र के आधार पर रचे गये हैं।
इसी बह्र पर आधारित अन्य नवगीत 'उफ़! तुम्हारा / मौन कितना / बोलता है', अनछुए पल / मुट्ठियों में / घेर कर', हर घड़ी ऐ/से जियो जै/से यही बस /खास है', पंछियों ने कही / कान में बात क्या? आदि हैं।
पृष्ठ ७७ पर हिंदी पिंगल के २६ मात्रिक महाभागवत जातीय गीतिका छंद पर आधारित नवगीत [प्रति पंक्ति में १४-१२ मात्राएँ तथा पंक्त्याँत में लघु-गुरु अनिवार्य] का विश्लेषण करें तो इसमें २१२२ ध्वनि खंड की ३ पूर्ण तथा चौथी अपूर्ण आवृत्ति समाहित किये है। स्पष्ट है कि उर्दू बह्रें हिंदी छंद की नीव पर ही खड़ी की गयी हैं. हिंदी में गुरु का लघु तथा लघु का गुरु उच्चारण दोष है जबकि उर्दू में यह दोष नहीं है. इससे रचनाकार को अधिक सुविधा तथा छूट मिलती है।
कौन सा पल । ज़िंदगी का ।/ शीर्षक हो । क्या पता?
२ १ २ १ । २ १ २ २ । २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
हर घड़ी ऐ।से जियो /जै।/से यही बस । खास है
२ १ २ १।२ १ २ २ ।/ २ १ २ २ । २ १ २ = १४ + १२ = २६ मात्रा
'फूलों का मकरंद चुराऊँ / या पतझड़ के पात लिखूँ' पृष्ठ ९८ में महातैथिक जातीय लावणी (१६-१४, पंक्यांत में मात्रा क्रम बंधन नहीं) का मुखड़ा तथा स्थाई हैं जबकि अँतरे में ३२ मात्रिक लाक्षणिक प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु नियम को शिथिल किया गया है।
'गीत कहाँ रुकते हैं / बस बहते हैं तो बहते हैं' - पृष्ठ १०९ में २८ मात्रिक यौगिक जातीय छंदों का मिश्रित प्रयोग है। मुखड़े में १२= १६, स्थाई में १४=१४ व १२ + १६ अंतरों में १६=१२, १४=१४, १२+१६ संयोजनों का प्रयोग हुआ है। गीतकार की कुशलता है कि कथ्य के अनुरूप छंद के विधान में विविधता होने पर भी लय तथा रस प्रवाह अक्षुण्ण है।
'बहुत दिनों के बाद' शीर्षक गीत पृष्ठ ९५ में मुखड़ा 'बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से बहकी है' में रोला (११-१३) प्रयोग हुआ है किन्तु स्थाई में 'गौरैया आँगन में / आ फिर से चहकी है, आग बुझे चूल्हे में / शायद फिर दहकी है तथा थकी-थकी अँगड़ाई / चंचल हो बहकी है' में १२-१२ = २४ मात्रिक अवतारी जातीय दिक्पाल छंद का प्रयोग है जिसमें पंक्त्यांत में लघु-गुरु-गुरु का पालन हुआ है। तीनों अँतरेरोल छंद में हैं।
'गेह तजो या देवों जागो / बहुत हुआ निद्रा व्यापार' पृष्ठ ६३ में आल्हा छंद (१६-१५, पंक्त्यांत गुरु-लघु) का प्रयोग करने का सफल प्रयास कर उसके साथ सम्पुट लगाकर नवता उत्पन्न करने का प्रयास हुआ है। अँतरे ३२ मात्रिक लाक्षणिक जातीय मिश्रित छंदों में हैं।
'बहुत पुराना खत हाथों में है लेकिन' में २२ मात्रिक महारौद्र जातीय छंद में मुखड़ा, अँतरे व स्थाई हैं किन्तु यति १०, १२ तथा ८ पर ली गयी है। यह स्वागतेय है क्योंकि इससे विविधता तथा रोचकता उत्पन्न हुई है।
सीमा जी के नवगीतों का सर्वाधिक आकर्षक पक्ष उनका जीवन और जमीन से जुड़ाव है। वे कपोल कल्पनाओं में नहीं विचरतीं इसलिए उनके नवगीतों में पाठक / श्रोता को अपनापन मिलता है। आत्मावलोकन और आत्मालोचन ही आत्मोन्नयन की राह दिखाता है। 'क्या मुझे अधिकार है?' शीर्षक नवगीत इसी भाव से प्रेरित है।
'रिश्तों की खुशबु', 'कनेर', 'नीम', 'उफ़ तुम्हारा मौन', 'अनबाँची रहती भाषाएँ', 'कमला रानी', 'बहुत पुराना खत' आदि नवगीत इस संग्रह की पठनीयता में वृद्धि करते हैं। सीमा जी के इन नवगीतों का वैशिष्ट्य प्रसाद गुण संपन्न, प्रवाहमयी, सहज भाषा है। वे शब्दों को चुनती नहीं हैं, कथ्य की आवश्यकतानुसार अपने आप हैं इससे उत्पन्न प्रात समीरण की तरह ताजगी और प्रवाह उनकी रचनाओं को रुचिकर बनाता है। लोकगीत, गीत और मुक्तिका (हिंदी ग़ज़ल) में अभिरुचि ने अनजाने ही नवगीतों में छंदों और बह्रों समायोजन करा दिया है।
तन्हाई की नागफनी, गंध के झरोखे, रिवाज़ों का काजल, सोच में सीलन, रातरानी से मधुर उन्वान, धुप मवाली सी, जवाबों की फसल, लालसा के दाँव, सुर्ख़ियों की अलमारियाँ, चन्दन-चंदन बातें, आँचल की सिहरन, अनुबंधों की पांडुलिपियाँ आदि रूपक छूने में समर्थ हैं.
इन गीतों में सामाजिक विसंगतियाँ, वैषम्य से जूझने का संकल्प, परिवर्तन की आहट, आम जन की अपेक्षा, सपने, कोशिश का आवाहन, विरासत और नव सृजन हेतु छटपटाहट सभी कुछ है। सीमा जी के गीतों में आशा का आकाश अनंत है:
पत्थरों के बीच इक / झरना तलाशें
आओ बो दें / अब दरारों में चलो / शुभकामनाएँ
*
टूटती संभावनाओं / के असंभव / पंथ पर
आओ, खोजें राहतों की / कुछ रुचिर नूतन कलाएँ
*
उनकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ निराला है:
उफ़, तुम्हारा मौन / कितना बोलता है
वक़्त की हर शाख पर / बैठा हुआ कल
बाँह में घेरे हुए मधुमास / से पल
अहाते में आज के / मुस्कान भीगे
गंध के कितने झरोखे / खोलता है
*
तुम अधूरे स्वप्न से / होते गए
और मैं होती रही / केवल प्रतीक्षा
कब हुई ऊँची मुँडेरे / भित्तियों से / क्या पता?
दिन निहोरा गीत / रचते रह गए
रातें अनमनी / मरती रहीं / केवल समीक्षा
*
'कम लिखे से अधिक समझना' की लोकोक्ति सीमा जी के नवगीतों के संदर्भ में सटीक प्रतीत होती है। नवगीत आंदोलन में आ रहे बदलावों के परिप्रेक्ष्य में कृति का महत्वपूर्ण स्थान है. अंसार क़म्बरी कहते हैं: 'जो गीतकार भाव एवं संवेदना से प्रेरित होकर गीत-सृजन करता है वे गीत चिरंजीवी एवं ह्रदय उथल-पुथल कर देने वाले होते हैं' सीमा जी के गीत ऐसे ही हैं।
सीमाजी के अपने शब्दों में: 'मेरे लिए कोई शै नहीं जिसमें संगीत नहीं, जहाँ पर कोमल शब्द नहीं उगते , जहाँ भावों की नर्म दूब नहीं पनपती।हंसी, ख़ुशी, उल्लास, सकार निसर्ग के मूल भाव तत्व है, तभी तो सहज ही प्रवाहित होते हैं हमारे मनोभावों में। मेरे शब्द इन्हें ही भजना चाहते हैं, इन्हीं का कीर्तन चाहते हैं।'
यह कीर्तन शोरोगुल से परेशान आज के पाठक के मन-प्राण को आनंदित करने समर्थ है. सीमा जी की यह कीर्तनावली नए-नए रूप लेकर पाठकों को आनंदित करती रहे.
६-९-२०१५
***
प्रसंगत विषय पर प्रतिष्ठित कवियों की और से स्वरचित रचनाएं : (भाग २)
रचनाकार--इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
प्रसंग है कि एक तरुणी अत्यंत ऊँची बिल्डिंग की छत पर इस तरह से जा बैठी है कि जैसे वह आत्महत्या करने वाली हो | विभिन्न कवियों से इस विषय पर रचना
करने को कहा जाता तो वे इस पर कैसे रचते ....
*
रामधारी सिंह 'दिनकर'
*
आक्रोशित क्यों आज रूपसी,
प्रिय तेरा अवलंबन?
मन की डोर बँधी है मन से,
सात जन्म का बंधन|
बहकाता जग छले छलावा,
उससे बचकर रहना,
विषधर सी अनुभूति अगर हो,
तन-मन कर ले चन्दन|
ले-ले तेरी जान विधाता इतना क्रूर नहीं है|
बढ़ा कदम मत विचलित हो तू मंजिल दूर नहीं है|
_______________________________
जयशंकर प्रसाद
*
प्रज्ज्वलित ज्यों अनेक, मार्तंड आज भोर,
वक्ष धौंकनी समान, घन घमंड घोर-घोर |
थरथरा रहे अधर, भामिनी बनी हुई,
दग्ध दामिनी ललाट, निज भृकुटि तनी हुई |
विश्व सुन्दरी सुरम्य. कान्ति क्यों मलीन है?
आन-बान-शान हित, सहिष्णुता विलीन है,
है क्षणिक विचार किन्तु. क्रोधयुक्त लालिमा,
आत्मघात लक्ष्य है, कठोर भाव भंगिमा |
प्रचण्ड दग्ध दारिका , पग सँभल-सँभल धरो
झुको नहीं डिगो नहीं, सदैव देश हित मरो |
____________________________
सुमित्रानंदन पन्त
*
तुम हो मर्यादित मधु बन,
प्रियतम के प्राणों का धन,
अगणित स्वप्न भरे पलकों में,
उर अंगो में सुख यौवन!
उतरो ऊपर नील गगन से,
हे चिर रमणी, चिर नूतन!
मन के इस उर्वर आँगन में
जी लो ज्योतिर्मय जीवन!
___________________
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
*
दिए हैं तूने जिसे सब फूल फल.
आज वह नीचे रहा है हाथ मल,
क्रोध में मत हो विवश ऐ कामिनी!
आ उतर आ रूपसी ऋतु भामिनी!
प्राण खोकर क्या मिलेगा यह जहां?
ठाठ जीवन का मिलेगा सब यहाँ.
_____________________
मैथिली शरण गुप्त
*
नारी न निराश करो मन को
कुछ प्रेम करो निज यौवन को
अति सुन्दर दर्पण में दुहिता
अनुभूत करो मन की शुचिता
जीवन जीना भी एक कला
सँभलो कि सुयोग्य न जाय चला
है कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
हो किस नरेश के योग्य नहीं
नीचे उतरो ढक लो तन को
नारी न निराश करो मन को |
_____________________
भीगे भीगे नयन कोर हैं.
बैठी छत पर गोरी,
एक जलन से बाँध रखी है
स्नेह प्रीति की डोरी
आत्मघात करने को उद्यत
मूक हुई है भाषा,
किस निष्ठुर की एक फूँक का
देखूं खेल-तमाशा
मेरा सुन ले गीत रूपसी.
आलोकित कर मन को
उष्ण शुष्कता से आ नीचे
स्नेह मिले उपवन को
________________________
संत कबीरदास
*
दुहिता छज्जे पर चढ़ी, बिखराये है केश.
धमकाये हर एक को, सतगुरु का आदेश..
आत्मघात पर है अड़ी, सिर मँड़राए काल.
दुविधा में माने नहीं, जी का है जंजाल..
उतरेगी ललना तभी, जब हों आँखें चार.
रसगुल्ले को देखकर, ही उतरेगी नार..
___________________________
संत गोस्वामी तुलसीदास
*
दारा दुहिता भई दुखारी, गयी कूदि के बैठि अटारी..
तीव्र क्रोध झलके उर माथा, सबै आज सुमिरौ रघुनाथा..
कातर कन्त निकट चलि गयऊ, कूदनार्थ वह उद्यत भयऊ..
नीचे सास बजावे बाजा, चिंतित दीखै संत समाजा..
देवर सास ससुर बलिहारी. उतरि आव प्रिय विपदा भारी,.
बाजी लगती आज जान की. हनुमत रक्षा करें प्रान की..
अहंकार है अति दुखदायी, रघुपति सुमिरन शान्तिप्रदायी..
_______________________________________
काका हाथरसी
*
गोरी टावर जा चढ़ी, चले नहीं अब जोर|
ऊपर से मत कूदियो, सिग्नल यदि कमजोर||
सिग्नल यदि कमजोर, हुई डीजल की चोरी|
उलझ नहीं नादान, डेढ़ पसली भी तोरी|
कह काका कविराय, हमेशा मस्त मजा ले|
बदल वीक नेटवर्क, पोर्ट सिम अभी करा ले||
____________________________
- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला
*
गौरी तू अम्बर चढ़ी, नीचे है पाताल,
नहीं स्वर्ग में जा सके, करती क्यों जंजाल,
करती क्यों जंजाल, उतर कर नीचे आजा
तेरा ये संसार, दुखी क्यों है बतलाजा
माने तेरी बात, सुनेंगे तेरी लोरी
शेष अभी है उम्र, करे क्यों हत्या गौरी ।
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- समोद सिंह चरौरा
*
आटा आटा कर रही, घर में कल्लो नार !
छज्जे ऊपर आ गयी, गिरने को तैयार !!
गिरने को तैयार, दूर से देखें प्यादे !
कहती बारम्बार, सजन से आटा लादे !!
कह समोद कविराय, कूद मत छत से माता !
दौड़ा दौड़ा जाय, सजनवा लेने आटा !!
**
अंबरीश
आटा जीवन दे कहे, कुण्डलिया शुभ छंद.
गृहिणी तो स्वच्छंद हैं किन्तु कन्त मतिमंद.
किन्तु कन्त मतिमंद, भूल भारी कर जाता.
महिषी हो जब क्रुद्ध, तभी वह आटा लाता .
बचकर रहना मित्र, गाल सूजे दे चाटा.
सदा रहे यह ध्यान, नहीं है घर में आटा.
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प्रमोद तिवारी
*
तू है एक बहादुर नारी मरने की क्यों ठानी
समय कहाँ अब बच पाया जो भरे आँख में पानी
है अनमोल मिला जो तुझको जीवन इसे सम्हालो
नये सिरे से फिर जुट जाओ छोड़ो बात पुरानी
**
अम्बरीष
मनभावन है सुन्दर रचना, अपने मन को भाई.
कथ्य सहज संदेशपरक है, देता हृदय बधाई..
मार लिया मैदान आपने, अब है सबकी बारी.
है सौभाग्य हमारा पाया, अनुपम मित्र 'तिवारी'.
_____________________________
राजेंद्र कुमार
*
न राह, न मंजिल,न जाने किधर था किनारा।
किधर पग पसारे सब ओर पाए बेसहारा।।
किस्मत का लेखा समझ,जो बैठ गया।
सपना न पूरा होगा कभी,यूं जो हार गया।।
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रमेश एस. पाल रवि
*
ऊबकर जिंदगी से कोई डूब जायेगा
फ़िर तराना ज़माना उसका खूब गायेगा
जाना है पगली सबको , एक दिन आयेगा
उस दिन जाना , जिस दिन महबूब बुलायेगा
*
नार निडर नशीली छत पर बैठी
इनको लगा के वो आत्महत्या करेगी
गये उसको बचाने , खुद ही गिर पड़े
नार अबला बेचारी अब क्या करेगी ?
**
अम्बरीष
निडर नशीली बैठी छत पर कहलाती जो नारि.
दहक रही है उसकी काया हुआ वाष्पित वारि.
वारि संहनित हुआ गगन में बरस गए हैं बादल.
जमा हुआ जल बह निकला है धुला क्लेश बन काजल.
आत्मघात को उकसाती है यही कालिमा प्यारे.
स्नेह नदी बहती है नीचे उसमें अभी नहा रे..
*
अबला पर, अबला मत समझें, सबको ले डूबेगी.
हाथों में होंगीं हथकड़ियाँ, भावों से खेलेगी.
दुनिया देखे खेल तमाशा, तिल-तिल कर मरना है
इसीलिये तो बला समझ, हर अबला से डरना है..
_________________________________
अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव
*
ना लड़का न लड़की तुम, जीना है बेकार !!
कूदना ही बेहतर है, जाओ नर्क सिधार !
**
अंबरीष
जीवन रंगों से भरा, प्रकृति बाँटती प्यार.
स्वर्ग नर्क सारा यहीं. लगा स्वयं में धार
________________________
फणीन्द्र कुमार
*
बिखरे-बिखरे केश, लिए बैठी है नारी,
गहराई को नाप , संकुचित है बेचारी,
मरने की ली ठान, मगर मुश्किल है कितना,
कूदेगी क्या खाक, अगर सोचेगी इतना ||
___________________________
संजीव वर्मा 'सलिल'
नीलाम्बर पर चित्र लिखे से मेघ भटकते
सलिल धार को शांत देखते रहे ठिठकते
एक ब्रम्ह तन-मन में बँट दो हो जाता है
बैठ किनारे देख रहा जो खो जाता है
केश राशि में छिपा न मालुम नर या नारी?
चित्त अशांत-शांत चिंगारी या अग्यारी ?
पहरा देती अट्टालिका खड़ी एकाकी
अम्बरीष हो मुखर सराहे शुभ बेबाकी
**
धारार्यें हों एक, सहज, हमको समझायें,
ज्ञान भक्ति दो मार्ग. मिलें, प्रभु तक पहुँचायें.
एक ब्रह्म बँट तन मन में, है अलख जगाता,
सारे नारी रूप, वही नर. उससे नाता.
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रचनाकार: संजीव वर्मा 'सलिल'
दुष्यंत कुमार
*
दृश्य सुन्दर सामने आने लगे हैं
छा रहे थे मेघ जो जाने लगे हैं
अब न रहना इमारत में कैद मुझको
मुक्ति के स्वर टेरते भाने लगे हैं
_____________________
गोपाल प्रसाद व्यास
*
प्रकृति को परमेश्वर मानो
मत रार मनुज इससे ठानो
माता, मैया, जननी बोलो
अस्का महत्त्व भी अनुमानों
____________________
महादेवी वर्मा
ये नीर भरी जल की बदली
उमड़ी थी कल, पर आज चली
बिन बरसे ताके गगन विवश
है काल सत्य ही महाबली
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नीरज
शांत-शांत नीर के प्रवाह में
आह चाह डाह वाह राह में
छत पे बैठ भा रही है ज़िन्दगी
मौन गीत गा रही है ज़िंदगी
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शैलेन्द्र
गगन रे झूठ मत बोलो
न अब बरसात आना है
गए हैं मेघ सब वापिस
नहीं उनको बुलाना है
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नरेंद्र शर्मा
नीर कलश छलके
सुबह दुपहरी साँझ निशा भर हुए हल्के
पछुआ ने तन-मन सिहराया
बैठी छत पर पुलकित काया
निरख जगत हरषे
______________________
प्रदीप
आओ कवियों! कलम उठाओ बारी आई गान की
पीछे मत हट जाना भाई मुहिम मान-सम्मान की
ये है अपनी नदी सुहावन मेंढक आ टर्राया था
बगुला नकली ध्यान लगाकर मछली पा इतराया था
हरियाली को देख-देखकर शहरी मन हर्षाया था
दृश्य मनोरम कहे कहानी नर-प्रकृति सहगान की
_______________________________
विमर्श:
शिष्य दिवस क्यों नहीं?
संजीव
*
अभी-अभी शिक्षक दिवस गया... क्या इसी तरह शिष्य दिवस भी नहीं मनाया जाना चाहिए? यदि शिष्य दिवस मनाया जाए तो किसकी स्मृति में? राम, कृष्ण को शिष्य रूप में आदर्श कहनेवाले बहुत मिलेंगे किन्तु मुझे लगता है आदर्श शिष्य के रूप में इनसे बेहतर आरुणि, कर्ण और एकलव्य हैं। आपका क्या विचार है सोचिए? किसी अन्य को पात्र मानते हों तो उसकी चर्चा करें ....
६-९-२०१४
***
जाकी रही भावना जैसी
शिक्षक दिवस पर मंगल कामनाएँ प्राप्त कर धन्यता अनुभव हुई। सभी के प्रति ह्रदय से आभार।
विशेष आभार नर्मदांचल के वरिष्ठतम साहित्यकार श्री गिरिमोहन गुरु के प्रति जिनके स्नेहादेश को स्वीकार कर नर्मदापुरम (होशंगाबाद) में शिवसंकल्प साहित्य परिषद् के शिक्षक दिवस समारोह में मुख्य अतिथि की आसंदी से चयनित शिक्षकों तथा साहित्यकारों को सम्मानित करने का शुभ अवसर प्राप्त हुआ। श्रेष्ठ नवगीतकार अग्रजवत श्री विनोद निगम और अपने गुरु, हिंदी के श्रेष्ठ व्यंग्य कवि, धर्मयुग के उपसंपादक रहे श्री सुरेश उपाध्याय जी तथा भाभी श्रीमती आशा उपाध्याय जी के दर्शन, चरणस्पर्श, स्वादिष्ट भोजन और मर्मस्पर्शी कवितायेँ सुनने का सौभाग्य मिला।
मैं व्यवसाय से शिक्षक कभी नहीं रहा। हिंदी भाषा, व्याकरण, साहित्य, पिंगल, वास्तु, विधि, नागरिक अभियांत्रिकी और अन्य विषयों/विधाओं जो कुछ जानता हूँ, पूछनेवालों के साथ बाँटता रहता हूँ। हिन्दयुग्म/साहित्य शिल्पी, ब्लॉग दिव्यनर्मदा, पत्रिका मेकलसुता, ब्लॉगों, फेसबुक पृष्ठों, वॉट्सऐप समूहों, और अन्य मंचों पर लगातार चर्चा या लेख के माध्यम से सक्रिय रहा हूँ। इस वर्ष शिक्षक दिवस पर विस्मित हूँ कि रायपुर से एक साथी ने जिज्ञासा की कि मैं अपने योग्य शिष्य का नाम बताऊँ। इंदौर से अन्य साथी ने अभिवादन करते हुई बताया कि उसने समय-समय पर मुझसे बहुत कुछ सीखा है जो उसके काम आ रहा है। हिंदी के कई व्याख्याताओं और प्राध्यापकों ने छंद, अलंकार तथा व्याकरण संबंधी लेख मालाओं की छायाप्रतियां निकलकर उनसे विद्यार्थियों को पढ़ाया। युग्म और शिल्पी पर कार्यशालाओं के समय शिष्यत्व का दावा करने वालों को शायद अब नाम भी याद न हो। गूगल सर्च पर अपना नाम टंकित करने पर अंग्रेजी में ४ लाख साथ हजार और हिंदी में दो लाख उनहत्तर हजार परिणाम प्राप्त हुए। दिव्यनर्मदा.इन का पाठकांक ४० लाख २८ हजार १२३ है। ७५ पुस्तकों की भूमिकाएँ ३०० से अधिक पुस्तकों की समीक्षाएँ लिखने तथा ५०० से अधिक छंदों की रचना करने के बाद भी स्थानीय आकाशवाणी केंद्र, अखबार और साहित्यिक मठाधीश मुझे साहित्यकार ही नहीं मानते।
मानव मन की यह भिन्नता विस्मित करती है. अस्तु… मैं यह जानता हूँ कि मैं एक विद्यार्थी था, हूँ, और रहूँगा , शेष जाकी रही भावना जैसी.....
सभी कामना छोड़कर करता चल मन कर्म
यही लोक परलोक है यही धर्म का मर्म
***
नवगीत:
अनेक वर्णा पत्तियाँ हैं
शाख पर तो क्या हुआ?
अपर्णा तो है नहीं अमराई
सुख से सोइये
बज रहा चलभाष सुनिए
काम अपना छोड़कर
पत्र आते ही कहाँ जो रखें
उनको मोड़कर
किताबों में गुलाबों की
पंखुड़ी मिलती नहीं
याद की फसलें कहें, किस नदी
तट पर बोइये?
सैंकड़ों शुभकामनायें
मिल रही हैं चैट पर
सिमट सब नाते गए हैं
आजकल अब नैट पर
ज़िंदगी के पृष्ठ पर कर
बंदगी जो मीत हैं
पड़ गये यदि सामने तो
चीन्ह पहचाने नहीं
चैन मन का, बचा रखिए
भीड़ में मत खोइए
३०-११-२०१४
***
नव गीत:
क्या?, कैसा है?...
*
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
पोखर सूखे,
पानी प्यासा.
देती पुलिस
चोर को झाँसा.
सड़ता-फिंकता
अन्न देखकर
खेत, कृषक,
खलिहान रुआँसा.
है गरीब की
किस्मत, बेबस
भूखा मरना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
चूहा खोजे
मिले न दाना.
सूखी चमड़ी
तन पर बाना.
कहता: 'भूख
नहीं बीमारी'.
अफसर-मंत्री
सेठ मुटाना.
न्यायालय भी
छलिया लगता.
माला जपना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
*
काटे जंगल,
धरती बंजर.
पर्वत खोदे,
पूरे सरवर.
नदियों में भी
शेष न पानी.
न्यौता मरुथल
हाथ रहे मल.
जो जैसा है
जब लिखता हूँ
देख-समझना.
क्या?, कैसा है?
कम लिखता हूँ,
अधिक समझना...
६-९-२०१०
***
सॉनेट
शिक्षक देते सीख नमन
सुख पाना तो कर संतोष
महकाता है अनिल चमन
पा आलोक न करना रोष
सरला बुद्धि हमेशा साथ
बचा अस्मिता करो प्रयास
गुरु छाया पा ऊँचा माथ
संगीता हो महके श्वास
देव कांत दें संरक्षण
मनोरमा मति अमल धवल
हो सुनीति को आरक्षण
विभा निरुपमा रहे नवल
शिक्षक से पा शाश्वत सीख
सत्-शिव-सुंदर जैसा दीख
५-९-२०२२
*

गुरुवार, 2 मार्च 2023

मुक्तक,तुम,वाग्देवी,सॉनेट,भस्मासुर,लघुकथा,चित्र अलंकार: झंडा,नवगीत,होली,उच्चार,वर्ण,मात्रा,निर्मल शुक्ल,

सॉनेट
तेरे बिन
*
तू है तो मेरे जीवन में है मधुवन।
वेणु गूँजती कानों में, छवि नैनों में।
तेरे बिन मेरा जीवन है सूनापन।।
अनायास ही फाग-रास है बैनों में।।

तू है तो कालिंदी की मचलें लहरें।
तैरें-डूबें-पार लगाएँ भव सागर।
तू है तो साथ छंद और बहरें।।
तेरे बिन मेरा जीवन सूखा सागर।।

तू है तो सत्ता नत जन के चरणों में।
तेरे बिन मेरा जीवन निर्जीव यंत्र।
'मैं' से मुक्त रहा तू निज आचरणों में।।
तेरे बिन है गोबर गणेश यह लोकतंत्र।।

तेरे बिन मेरा जीवन पावन न रहा।
तेरे बिन मेरा जीवन जीवन न रहा।।
***
मुक्तक
बादल-बारिश बिन सूना ज्यों, है तेरे बिन मेरा सावन।
बिन पलाश का, बिन हुलास का, है तेरे बिन मेरा फागुन।।
तू है तो हर दिन होली है, तू है तो हर रात दिवाली-
बिना धनुष के इंद्र धनुष सा, है तेरे बिन मेरा जीवन।।
१-३-२०२३
*
वंदन वाग्देवी! कृपा करिए हाथ सिर पर विहँस धरिए वास कर मस्तिष्क में माँ नयन में जाएँ समा हृदय में रहिए विराजित कंठ में रह गुनगुना श्वास बनकर साथ रहिए वाग्देवी कृपा करिए अधर यश गा पुण्य पाए कीर्ति कानों में समाए कर तुम्हारे उपकरण हों कलम कवितांजलि चढ़ाए दूर पल भर भी न करिए वाग्देवी कृपा करिए अक्षरों के सुमन लाया शब्द का चंदन लगाया छंद का गलहार सुरभित पुस्तकी उपहार भाया सलिल को संजीव करिए वाग्देवी कृपा करिए ७-९-२०२२ •••
सॉनेट
भस्मासुर
*
भस्मासुर हर युग में होता।
अहंकार-मद-मोह ग्रस्त हो।
बीज नाश के निशि-दिन बोता।
करे और को; आप त्रस्त हो।
उन्नति देख न सके अन्य की।
चाहे सब को कर दे काना।
खुद अंधा चुन राह दैन्य की।
विष्ठा खाता काग सयाना।।
खुद अपने मुँह कालिख पोते।
देख आइना लज्जित होता।
दाग न मिटता चेहरा धोते।।
मान-प्रतिष्ठा पल में खोता।।
जाल सिंह का मूस काटता।
चींटी से गजराज हारता।।
१-३-२०२२
***
***
लघुकथा :
सवाल
शेरसिंह ने दुनिया का सर्वाधिक प्रभावी नेता तथा सबसे अधिक सुरक्षित जंगल बनाने का दावा कर चुनाव जीत लिया। जिन जगहों से उसका दल हारा। वहीं भीषण दंगा हो गया। अनेक छोटे-छोटे पशु-पक्षी मारे गए। बाद में हाथी ने बल प्रयोग कर शांति स्थापित की। बगुला भगत टी वी पर परिचर्चा में शासन - प्रशासन का गुणगान करने लगा तो पत्रकार उलूक ने पूछा 'दुनिया का सर्वाधिक असरदार सरदार दंगों के समय सामने क्यों नहीं आया? सबसे अधिक चुस्त-दुरुस्त पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र को हजारों दंगाइयों, सैकड़ों हथियारों तथा दंगे की योजना बनाने की खबर क्यों नहीं मिली? बिना प्रभावी योजना, पर्याप्त अस्त्र-शस्त्र और तैयारी के भेजे गए पुलिस जवानों और अफसरों को हुई क्षति की जिम्मेदारी किसकी है?
अगले दिन सत्ता के टुकड़ों पर पल रहे सियारों ने उस चैनल तथा संबंधित अख़बार के कार्यालयों पर पथराव किया, उनके विज्ञापन बंद कर दिये गए पर जंगल की हवा में अब भी तैर रहे थे सवाल।

१.३.२०२०
***
एक दोहा
श्याम राम के गाल पर, सीता मलें गुलाल।
पिचकारी ले राम जी, करते खूब धमाल।।
***
फागुन
[ चित्र अलंकार: झंडा ]
*
ठंड के आलस्य को अलविदा कह
बसंती उल्लास को ले साथ, मिल-
बढ़ चलें हम ज़िदगी के रास्ते पर
आम के बौरों से जग में फूल-फल.
रुक
नहीं
जाएँ,
हमें
मग
देख
कर,
पग
बढ़ाना है.
जूझ बाधा से
अनवरत अकेले
धैर्य यारों आजमाना है.
प्रेयसी मंजिल नहीं मायूस हो,
कहीं भी हो, खोज उसको आज पाना है.
***
: छंदों की होली :
*
चले आओ गले मिल लो, पुलक इस साल होली में
भुला शिकवे-शिकायत, लाल कर दें गाल होली में
बहाकर छंद की सलिला, भिगा दें स्नेह से तुमको
खिला लें मन कमल अपने, हुलस इस साल होली में
0
नहीं माया की गल पाई है अबकी दाल होली में
नहीं अखिलेश-राहुल का सजा है भाल होली में
अमित पा जन-समर्थन, ले कमल खिल रहे हैं मोदी
लिखो कविता बने जो प्रेम की टकसाल होली में
0
ईंट पर ईंट हो सहयोग की इस बार होली में
लगा सरिए सुदृढ़ कुछ स्नेह के मिल यार होली में
मिला सीमेंट सद्भावों की, बिजली प्रीत की देना
रचे निर्माण हर सुख का नया संसार होली में
0
न छीनो चैन मन का ऐ मेरी सरकार होली में
न रूठो यार लगने दो कवित-दरबार होली मे
मिलाकर नैन सारी रैन मन बेचैन फागुन में
गले मिल, बाॅंह में भरकर करो सत्कार होली में
0
करो जब कल्पना कवि जी रॅंगीली ध्यान यह रखना
पियो ठंडाई, खा गुझिया नशीली होश मत तजना
सखी, साली, सहेली या कि कवयित्री सुना कविता
बुलाती लाख हो, सॅंग सजनि के साजन सदा सजना
0
हुरियारों पे शारद मात सदय हों, जाग्रत सदा विवेक रहे
हैं चित्र जो गुप्त रहे मन में, साकार हों कवि की टेक रहे
हर भाल पे, गाल पे लाल गुलाल हो शोभित अंग अनंग बसे
मुॅंह काला हो नापाकों का, जो राहें खुशी की छेंक रहे
0
नैन पिचकारी तान-तान बान मार रही, देख पिचकारी मोहे बरजो न राधिका
आस-प्यास रास की न फागुन में पूरी हो तो मुॅंह ही न फेर ले साॅंसों की साधिका
गोरी-गोरी देह लाल-लाल हो गुलाल सी, बाॅंवरे से साॅंवरे की कामना भी बाॅंवरी
बैन से मना करे, सैन से न ना कहे, नायक के आस-पास घूम-घूम नायिका
0
लाल-पीले गाल, नीली नाक, माथा कच हरा, श्याम ठोड़ी, श्वेत केशों की छटा है मोहती
दंत हैं या दामिनी है, कौन कहें देख हँसी, फागुनी है सावनी भी, छवि-छटा सोहती
कहे दोहा पढ़े हरिगीतिका बौरा रही है, बाल शशि देख शशिमुखी,मुस्कुरा रही
झट बौरा बढ़े गौरा को लगाने रंग जब, चला पिचकारी गोरी रंग बरसा गई
१-३-२०१८
***
सुकवि अभियंता देवकी नन्दन 'शांत' लखनऊ
जन्म दिवस पर शत अभिनन्दन
अर्पित अक्षत कुंकुम चन्दन
*
जन्म दिवस पर दीप जलाओ, ज्योति बुझाना छोडो यार
केक न काटो बना गुलगुले, करो स्नेहियों का सत्कार
शीश ईश को प्रथम नवाना, सुमति-धर्म माँगो वरदान
श्रम से मुँह न चुराना किंचित, जीवन हो तब ही रसखान
आलस से नित टकराना है, देना उसे पटककर मात
अन्धकार में दीप जलना, उगे रात से 'सलिल' प्रभात
*
शांत जी की एक रचना
दीपक बन जाऊँ या फिर मैं दीपक की बाती बन जाऊँ
दीपक बाती क्या बनना है दिपती लौ घी की बन जाऊँ
दीपक बाती घृत-युत लौ से अन्तर्मन की ज्योति जलाकर
मन-मन्दिर में बैठा सोचूँ, पूजा की थाली बन जाऊँ
पूजा की थाली की शोभा अक्षत चन्दन सुमन सुगंधित
खुशबू चाह रही है मैं भी शीतल चन्दन सी बन जाऊँ
शीतल चन्दन की खुशबू में रंगों का इक इन्द्रधनुष है
इन्द्रधनुष की है अभिलाषा तान मैं सरगम की बन जाऊँ
सरगम के इन ‘शान्त’ सुरों में मिश्रित रागों का गुंजन है
तान कहे मैं भी कान्हा के अधरों की वंशी बन जाऊँ
— देवकी नन्दन ‘शान्त’
***
स्व. श्यामलाल उपाध्याय जी को जन्मतिथि पर सादर श्रृद्धा-सुमन समर्पित.
*
हिंदी हित श्वास-श्वास जिए श्यामलाल जी,
याद को नमन सौ-सौ बार कीजिए.
प्रेरणा लें हम जगवाणी हिंदी को करेंगे,
हिंदी ही दीवाली होगी, हिंदी-होली भीजिए.
काव्य मंदाकिनी न रुके बहती रहे,
सलिल संजीव सँग संकल्प लीजिए.
श्याम की विरासत न बिसराइए कभी.
श्याम की संतानों ये शपथ आज लीजिए.
अभिन्न सखा
संजीव 'सलिल'

छंदशास्त्र में उच्चार, वर्ण और मात्रा
*
सृष्टि और छंद दोनों का उद्भव ध्वनि से है। ध्वनि निनादित हो तो श्रवणेंद्रिय (कर्ण, कान) द्वारा सुनी जा सकती है। द्वै निनाद के काल-खंड के कम-अधिक होने के आधार पर उसे लघु (न्यून, छोटा) या दीर्घ (गुरु, बड़ा) कहा जाता है। अ-आ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ/रि - री बोलकर इन्हें अनुभव किया जा सकता है। आदिमानव ने धवनि की विविधता,
मात्रा का संबंध माप या परिमाण से है। भाषा की लघुतम इकाई वर्ण है जिसकी मात्रा और परिमाण का ज्ञान उसके उच्चारण में लगने वाले समय से ही सकता है। अत: मात्रा को परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं-
“ वर्णों के उच्चारण में लगने वाले समय को मात्रा कहते हैं।“
(यह स्मरण अवश्य रहे कि उच्चारण का गुण केवल स्वर वर्णों में ही है व्यंजन स्वत: उच्चरित नहीं हो सकते उनके उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता लेनी पड़ती है। अत: मात्रा गणना स्वरों के आधार पर ही की जाती है।)
लघु गुरु परिचय :-
जिस साहित्य की रचना मात्रा, वर्ण, यति, गति, लय आदि को ध्यान मे रख कर की जाती है वह छंदोबद्ध होती है और उसे पद्य कहते हैं। छंद विचार करते समय केवल स्वरों पर ही ध्यान दिया जाता है ,क्योंकि स्वर ही ‘वर्ण’ और मात्रा का मुख्य आधार है। स्वरों के दो भेद हैं – 1.ह्रस्व स्वर 2. दीर्घ स्वर। छंद शास्त्र में इन्हें ही लघु और दीर्घ के संज्ञा दी गई है। वास्तव में सम्पूर्ण छंदशास्त्र का मूलाधार ये ही लघु और गुरु है। लघु की एक मात्रा और गुरु की दो मात्राएँ होती है। लघु का चिह्न ‘।‘ और गुरु का चिह्न ‘s’ होता है।
लघु :-
1. ह्रस्व स्वर ( चाहे उनका उच्चारण निरनुनासिक हो चाहे सानुनासिक) यथा अ, इ, उ, ऋ, अँ, इँ, उँ, ऋँ, लघु होते है।
2. इनकी सहायता से जो व्यंजन बोले जाते हैं वे भी लघु होते है। जैसे विकल शब्द में तीनों व्यंजन ‘अ’ की सहायता( व् + इ =वि, क् +अ=क, ल् + अ = ल )से बोले जा रहे है अत: हम कह सकते हैं कि विकल शब्द में तीन लघु है और कुल तीन मात्राएँ है।
3. किसी एक ह्रस्व स्वर के साथ यदि दो या दो से अधिक व्यंजन जुड़े हों तो भी उसे लघु ही माना जाएगा जैसे – स्वर यहाँ स्व = स् + व् + अ ( ‘स्’ और ‘व्’ के साथ एक ही स्वर ‘अ’ है इस लिए स्व लघु माना जाएगा। आप स्मरण रखने के लिए इस प्रकार भी कह सकते है कि यदि ह्रस्व स्वर से युक्त व्यंजन से पूर्व कोई अन्य स्वर रहित व्यंजन भी आए तो वह लघु ही रहेगा।
4. स्वर की लघुता अथवा गुरुता का प्रमुख आधार उसके उच्चारण मेन लगाने वाला समय है। यदि किसी छंद दीर्घ स्वर का उच्चारण मेन लगाने वाला समय भी ह्रस्व की तरह लघु होता है तो उसे लघु ही माना जाए। जैसे – मानुस हौं तो वही रसखानि ….. में तो का उच्चारण ‘तु’ के अनुसार हो रहा है इसलिए ‘तो’ को लघु ही माना जाएगा।
गुरु :
1. दीर्घ स्वर और चाहे उनका उच्चारण निरनुनासिक हो या सानुनासिक गुरु होते है। यथा – आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ औ, आँ, ईँ, ऊँ, एँ, ऐँ, ओँ,औँ गुरु होते हैं।
2. अनुस्वार युक्त वर्ण गुरु माने जाते है। जैसे ‘संत’ का ‘सं’, ‘कंस’ का ‘कं’ >
3. विसर्ग युक्त वर्णों की गणना भी गुरु में की जाती है। जैसे ‘अत: ‘ में ‘त:’>
4. शब्द में स्वर रहित व्यंजन से पूर्व का वर्ण गुरु माना जाता है। जैसे सम्बन्ध में ‘स’ और ‘ब’ ।
5. यदि स्वर रहित व्यंजन का का उच्चारणबल बाद के वर्ण पर पड़ता हो तो वह गुरु माना जाता है और पहले वाला यदि ह्रस्व है तो ह्रस्व ही रहता है। जैसे मक्खी मे क् को खी के साथ बोला जा रहा है तो ‘म’ हतासव ही रहेगा।
6. यदि किसी लघु वर्ण का उच्चारण भी गुरु वर्ण के होता है तो वह भी गुरु माना जाता है माना जाता है।
उपर्युक्त विधि से हम लघु और गुरु लगा कर किसी कविता के चरण में मात्रा और वर्णों की गणना कर सकते हैं।
***
समीक्षा :
'नहीं कुछ भी असम्भव' कथ्य है नवगीत के लिये
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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[कृति विवरण- नहीं कुछ भी असंभव, नवगीत, निर्मल शुक्ल, वर्ष २०१३, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, जैकेट सहित, कपडे की बंधाई, सिलाई गुरजबंदी, पृष्ठ ८०, मूल्य २९५/-, उत्तरायण प्रकाशन, के ३९७ सेक्टर के, आशियाना कॉलोनी लखनऊ २२६०१२, नवगीतकार संपर्क ९८३९८२५०१२ / ९८३९१७१६६१]
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'नहीं कुछ भी असंभव' विश्व वाणी हिंदी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ नवगीतकार-समीक्षक निर्मल शुक्ल का पंचम नवगीत संग्रह है। इसके पूर्व अब तक रही कुँवारी धूप, अब है सुर्ख कनेर, एक और अरण्य काल तथा नील वनों के पार में नवगीत प्रेमी शुक्ल जी के विषय वैविध्य, साधारण में असाधारणता को देख सकने की दृष्टि, असाधारण में अन्तर्निहित साधारणता को देख-दिखा सकने की सामर्थ्य, अचाक्षुष बिम्बों की अनुभूति कर शब्दित कर सकने की सामर्थ्य, मारक शैली, सटीक शब्द-चयन आदि से परिचित हो चुके हैं। शुक्ल जी सक्षम नवगीतकार ही नहीं समर्थ समीक्षक, सुधी पाठक और सजग प्रकाशक भी हैं। भाषा के व्याकरण, पिंगल और नवगीत के उत्स, विकास, परिवर्तन और सामयिकता की जानकारी उन्हें उस अनुभूति और कहन से संपन्न करती है जो किसी अन्य के लिये सहज नहीं।
शुक्ल जी के अनुसार ''कविता रचनाकार की सर्वप्रथम अपने से की जानेवाली बातचीत का लयबद्ध स्वरूप है जो अवरोधों से अप्रभावित रहते हुए गतिमान रहती है, शाश्वत है। ......कविता पर समय काल की गति-स्थिति से आवश्यकतानुसार धारा-परिवर्तन होता रहता है जो उसे समय-काल का वैशिष्ट्य प्रदान करता है। ....समय चक्र में कविता जागृत हुई है, चेतना मुखरित हुई है और मुखरित हुई है एक नव-स्फूर्ति..... शनैः -शनैः दृष्टिगोचर हुआ काव्य का अपराजित उत्कर्ष 'गीत'। .....गीत और उसके अधुनातन संस्करण नवगीत की प्रासंगिकता को ध्यान में रखते हुए अनिवार्य है काव्य के गेयात्मक तत्व का रेखांकन। इस अनुपमेय आत्म बोध के पवित्र कलेवर, सर्वांगीण उपस्थिति एवं औचित्य पर मोह निद्रावश किसी साहित्यानुरागी द्वारा आडंबरों में निर्लिप्त पूर्वाग्रहों के चढ़ाये खोल को विदीर्ण कर उतार फेंकना ही होगा, तोडना ही होगा उन सड़ी-गली चितकबरी विडंबनाओं का अमांगलिक पिंजरा, प्रदान करना होगा स्वच्छंद गीत को उसका इंद्र धनुषी उन्मुक्त ललित आकाश।'' 'उपसर्ग' का यह सारांश शुक्ल जी के नवगीत लेखन के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। वे नवगीत को विडम्बनाओं, पीड़ाओं, शोषण, चीत्कार और प्रकारांतर से साम्यवादी नई कविता का गेय संस्करण बनाने के जड़ विधान तो खंडित करते हुए गीतीय मांगकी भाव से अभिषिक्त कर समूचे जीवन का पर्याय बनते हुए देखना चाहते हैं। उन नये-पुराने गीतकारों-नवगीतकारों के लिए यह दृष्टि बोध अनिवार्य है जो नवगीत के विधान, मान्यताओं और स्वरूप को लेकर अपनी रचना के गीत या नवगीत होने को लेकर भ्रमित होते हैं।
विवेच्य संग्रह में ३० नवगीत सम्मिलित हैं। प्रत्येक गीत बारम्बार पढ़े जाने योग्य है। पाठक को हर बार एक नए भावलोक की प्रतीति होती है। नवगीत के वरिष्ठतम हस्ताक्षर प्रो। देवेन्द्र शर्मा 'इंद्र' के शब्दों में "कविता (नवगीत) में व्यक्ति एक होकर भी अनेक के साथ जुड़ जाता है- यही है 'एकोsहं बहुस्याम' की भावना। इस भावना को आत्मविस्तार भी कहा जा सकता है। आत्म का यह विस्तार ही साहित्य अथवा काव्य में साधारणीकरण की दिशा में उसे ले जाता है। इस साधारणीकरण के अभाव में रस निष्पत्ति के लिये कोई अवकाश नहीं होता। शुक्ल जी का रचनाकार इस तथ्य से अपरिचित नहीं है तभी तो वे लिखते हैं
तुम हमारे गाँव के हो / हम तुम्हारे गाँव के
एक टुकड़ा धुप का जो / बो गये तुम खेत में
अचकचाकर / जम गये हैं / कई सूरज रेत में
अब यहाँ आकाश हैं, तो / बस सुनहरी छाँव के"
इस काल में पल-पल उन्नति पहाड़ा पढ़ता मानव वास्तव में अपने आदिम स्वरूप की तुलना में बदतर होता जा रहा है। चतुर्दिक घट रही घटनाएं मानव के मानवीय कदाचरण की साक्षी हैं। इस सर्वजनीन अनुभूति की अभिव्यक्ति शुक्ल जी भी करते हैं पर उनका अंदाज़े-बयां औरों से भिन्न है-
राम कहानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है हवा-हवाई
ईसा से पहले के पहले / उसको आदिम नाम मिला था
इसके हिस्सेवाला सूरज / तब सबसे बेहतर निकला था
अब तो बस / सादा कागज़ है
भोर सुहानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है पीर-पराई
पैर पसारे तो कपड़ों से / नंगेपन का डर लगता है
एक सुनहरे दिन का सपना / केवल मुट्ठी भर लगता है
देह थकी है / ओस चाटते
रात सयानी / तुम्हें तुम्हारी
उसकी तो है दुआ-दवाई
एक भरोसा खुली हवा का / टिका नहीं बेजान हो गया
राजावाली चिकनी सूरत / लुटा हुआ सामान हो गया
आगे सदी / बहुत बाकी है
अदा हुनर की / तुम्हें तुम्हारी
उसकी हाँफ चुकी चतुराई
निर्मल शुक्ल जी हिंदी, उर्दू, अवधी का मिश्रित प्रयोग करनेवाले लखनऊ से हैं, संस्कृत और अंग्रेजी उनके लिये सहज साध्य हैं। शब्दों के सटीक चयन में वे सिद्धहस्त हैं। कम शब्दों में अधिक कहना, मौलिक बिम्ब और प्रतीक प्रयोग करना, वर्तमान की विसंगतियों की अतीत के परिप्रेक्ष्य में तुलना कर भविष्य के लिये वैचारिक पीठिका तैयार करने की सामर्थ्य इन नवगीतों में है।
निर्मल जी का वैशिष्ट्य लक्षणा और व्यंजना के पथ पर पग रखते हुए भाषिक सौष्ठव और संतुलित भावाभिव्यक्ति है। वे अतिरेक से सर्वथा दूर रहते हैं। रेत के टीले को विदा होती पीढ़ी अथवा बुजुर्ग के रूप में देखते हुए कवि उसके संघर्ष और जीवट को व्यक्त किया है।
मेरे घर के आगे ऊँचा / रेत का टीला है १६-११
इक्का-दुक्का / झाड़ी-झंखड़ ८-८
यहाँ-वहाँ दिखते हैं १२
मरुथल के मरुथल / होने की १०-६
कुल गाथा लिखते हैं १२
जलता है ऊपर-ऊपर / पर, भीतर गीला है १४-१२
जहाँ हवा का / झोंका कोई ८-८
सीधा आता है १०
अक्सर रेत कणों से / सारा १२-४
घर घिर जाता है १०
बाबा का कालीन / अभी तक पूरा पीला है ११-१५
पल में तोला / पल में माशा ८-८
इधर-उधर उड़ता है १२
बाबा कहते / अब भी १२
काली आँधी से लड़ता है १६
टूट चुका है कण-कण में १४
पर अभी हठीला है १२
शुक्ल जी की छंदों पर पूरी पकड़ है वे कहीं छूट लेते हैं तो इस तरह की लय-भंग न हो। 'राम कहानी तुम्हें तुम्हारी' नवगीत सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय पादाकुलक छंद में है। 'तब सबसे बेहतर निकला था' में १७ मात्र होने पर भी लय बनी हुई है। उक्त दूसरे गीत में संस्कारी तथा आदित्य जातीय छंदों की एक-एक पंक्ति का प्रयोग दूसरे-तीसरे पद में है जबकि द्वितीय पद में संस्कारी तथा दैशिक छंद का प्रयोग है। ऐसा प्रयोग सिद्धस्तता के उपरान्त ही करना संभव होता है। उल्लेख्य है कि छंद वैविध्य के बावजूद तीनों पदों की गेयता पर विपरीत प्रभाव नहीं है।
नगरीय जीवन की सीमाओं, त्रासदियों, संघर्षों, आघातों, प्रतिकारों और पीछे छूट चुके गाँव की स्मृतियों के शब्द चित्र कई गीतों की कई पंक्तियों में दृष्टव्य हैं। नगरों के अधिकाँश निवासी आगे-पीछे ग्राम्य अंचलों से ही आये होते हैं अत:, ऐसी अनुभूति व्यक्तिपरक न रहकर समष्टिगत हो जाती है और रचना से पाठक / श्रोता को जोड़ती है। गुलमोहर की छाया में रिश्तों की पहुनाई (ऊँचे झब्बेवाली बुलबुल), पुरखों से डाँट-डपट की चाह (ऊँचे स्वर के संबोधन), रेत का टीला और झाड़ी-झंखड़ (रेत का टीला), छप्पर और सरकंडे (छोटा है आकाश), सनातन परंपराओं के प्रति श्रद्धा (गंगारथ), मोहताजी और उगाही (पीढ़ी-पीढ़ी चले उगाही), पोखर-पंछी (रूठ गए मेहमान), सावन-दूब ढोर नौबत-नगाड़े (तुम जानो हम जाने) में गाँव-नगर के संपर्क सेतु सहज देखे जा सकते हैं।
निर्मल शुक्ल जी भाषिक सौष्ठव, कथ्य की सुगढ़ता, अभिव्यक्ति के अनूठेपन, मौलिक बिम्ब-प्रतीकों तथा चिंतन की नवता के लिये जाने जाते हैं। 'नहीं कुछ भी असंभव' के नवगीत इस मत के साक्ष्य हैं। उनकी मान्यता है कि समयाभाव तथा अभिरुचि ह्रास के इस काल में पाठक समयाभाव से ग्रस्त है इसलिए संकलन में रचनाएँ कम रखी जाएँ ताकि उन्हें पर्याप्त समय देकर पढ़ा, समझा और गुना जा सके। संकलन का मुद्रण, प्रस्तुतीकरण, कागज़, बंधाई, आवरण, पाठ्य शुद्धि आदि स्तरीय है। सामान्य पाठक, विद्वज्जन तथा समीक्षक शुक्ल जी अगले संकलन की प्रतीक्षा करेंगे।
***
***
नवगीत:
तुम रूठीं
*
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
रहीं वन्दना,
भजन, प्रार्थना
सारी बिना सुनी।
*
घर-आँगन में
ऊषा-किरणें
बिन नाचे उतरीं।
ना चहके-
फुदके गौरैया
क्या खुद से झगड़ी?
गौ न रँभायी
श्वान न भौंका
बिजली गोल हुई।
कविताओं की
गति-यति-लय भी
अनजाने बिगड़ी।
सुड़की चाय
न लेकिन तन ने
सुस्ती तनिक तजी।
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
दफ्तर में
अफसर से नाहक
ठानी ठनाठनी ।
बहक चके-
यां के वां घूमे
गाड़ी फिसल भिड़ी.
राह काट गई
करिया बिल्ली
तनिक न रुकी मुई।
जेब कटी तो
अर्थव्यवस्था
लडखडाई तगड़ी।
बहुत हुआ
अनबोला अब तो
लो पुकार ओ जी!
तुम रूठीं तो
मन-मंदिर में
घंटी नहीं बजी।
*
१-३-२०१६
***
गीत -
लौट घर आओ
*
लौट घर आओ.
मिल स्वजन से
सुख सहित पुनि
लौट घर आओ.
*
सुता को लख
बिलासा उमगी बहुत होगी
रतनपुर में
आशिषें माँ से मिली होंगी
शंख-ध्वनि सँग
आरती, घंटी बजी होगी
विद्यानगर में ख़ुशी की
महफ़िल सजी होगी
लौट घर आओ.
*
हवाओं में फिजाओं में
बस उदासी है.
पायलों के नूपुरों की
गूँज खासी है
कंगनों की खनक सुनने
आस प्यासी है
नर्मदा में बैठ आतीं
सुन हुलासी है
लौट घर आओ.
*
गुनगुनाहट धूप में मिल
खूब निखरेगी
चहचहाहट पंछियों की
मंत्र पढ़ देगी
लैम्ब्रेटा महाकौशल
पहुँच सिहरेगी
तुहिन-मन्वन्तर मिले तो
श्वास हँस देगी
लौट घर आओ.
*
२९-२-२०१६
***
नवगीत:
.
ठेठ जमीनी जिंदगी
बिता रहा हूँ
ठाठ से
.
जो मन भाये
वह लिखता हूँ.
नहीं और सा
मैं दीखता हूँ.
अपनी राहें
आप बनाता.
नहीं खरीदा,
ना बिकता हूँ.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
कलकल बहता
निर्मल रहता.
हर मौसम की
यादें तहता.
पत्थर का भी
वक्ष चीरता-
सुख-दुःख सम जी,
नित सच कहता.
जीने खातिर
हँस मरता हूँ.
अश्रु पोंछकर
मैं तरता हूँ.
खेत गोड़ता झूमता
दूर रहा हूँ
खाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
.
रासो गाथा
आल्हा राई
पंथी कजरी
रहस बधाई.
फाग बटोही
बारामासी
ख्याल दादरा
गरी गाई.
बनरी सोहर
ब्याह सगाई.
सैर भगत जस
लोरी भाई.
गीति काव्य मैं, बाँध मुझे
मत मानक की
लाट से.
नहीं भागता
ना छिपता हूँ.
डूबा तो फिर-
फिर उगता हूँ.
चारण तो मैं हूँ नहीं,
दूर रहा हूँ
भाट से.
***
***
लेख:
ईसुरी की अलौकिक फाग नायिका रजऊ और बुन्देली परम्पराएँ
*
बुन्देली माटी के यशस्वी कवि ईसुरी की फागें कालजयी हैं. आज भी ग्राम्यांचलों से लेकर शहरों तक, चौपालों से लेकर विश्वविद्यालयों तक इस फागों को केंद्र में रखकर गायन, संगोष्ठियों आदि के आयोजन किये जाते हैं. ईसुरी की फागों में समाज के अन्तरंग और बहिरंग दोनों का जीवंत चित्रण प्राप्य है. मानव जीवन का केंद्र नारी होती है. माँ, बहिन, दादी-नानी, सखी, भाभी, प्रेयसी, पत्नी, साली, सास अथवा इनसे सादृश्य रखनेवाले रूपों में नारी जीवन रथ के सञ्चालन में प्रेरक होती है. संभवतः इसीलिए वह नौ दुर्गा कहलाती है. ईसुरी की फागों में नारी का चित्रण उसे केंद्र में रखकर किया गया है.
नारी चित्रण की सहजता, स्वाभाविकता, जीवन्तता, मुखरता तथा सात्विकता के पञ्चतत्वों से ईसुरी ने अपनी फागों का श्रृंगार किया है. ईसुरी ने अपनी प्रेरणास्रोत ‘रजऊ’ को केंद्र में रखकर नारी-छवियों के मनोहर शब्द-चित्र अंकित किये हैं. रसराज श्रृंगार ईसुरी को परम प्रिय हैं. श्रृंगार के संयोग-वियोग ही नहीं ममत्व और सखत्व भाव से भी ईसुरी ने फागों को लालित्य और चारुत्व प्रदान किया है. अपनी व्याकुलता का वर्णन हो या रजऊ की कमनीय काया का रसात्मक चित्रण ईसुरी रसमग्न होने पर भी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, अश्लील नहीं होते. रजऊ काल्पनिक चरित्र है या वास्तविक इस पर मतभेद हो सकते हैं किन्तु उसका चित्रण इतना जीवंत है की उसे वास्तविक मानने की प्रेरणा देता है. सम्भवत: ईसुरी अपनी पत्नि ‘राजाबेटी’ को ही रचनाओं में ‘रजऊ’ के रूप में चित्रित करते रहे. चलचित्र नवरंग के नायक-नायिका का चरित्र ईसुरी से प्रेरित होकर लिखा गया हो सकता है. जो भी हो रजऊ नारी की मनोरम छवियों के शब्दांकन का माध्यम तो है ही.
यह प्रश्न ईसुरी के जन्मकाल में भी सिर उठाने लगा होगा कि रजऊ कौन है? यदि उनकी पत्नि है तो ईसुरी को उसके रूप-सौन्दर्य की सार्वजनिक चर्चा रुचिकर न लगना स्वाभाविक है. यदि उनकी प्रेमिका थी, तो प्रेम की पवित्रता तथा प्रेमिका के पारिवारिक जीवन की शांति के लिये वे उसे प्रगट नहीं कर सकते होंगे. यदि कोई एक या अनेक नारियों से प्रेरणा लेकर रजऊ का चित्रण किया गया हो तो कौन कहाँ है कहना न ईसुरी के लिये वर्षों बाद संभव रहा होगा, न अन्यों के लिये पश्चातवर्ती काल में खोज पाना संभव होगा. अंतिम संभावना यह कि रजऊ काल्पनिक अथवा प्रकृति से प्रेरित होकर गढ़ा चरित्र हो, यह सत्य हो तो भी अन्य जन अलौकिकता की अनुभूति न कर पाने के कारण लौकिक मांसल देह की कल्पना करें यह स्वाभाविक है. स्वयं ईसुरी ने देहज मानी जा रही रजऊ को अदेहज कहकर इस विवाद के पटाक्षेप का प्रयास किया:
नइयाँ रजऊ काऊ के घर में बिरथा कोई न भरमें
सबमें है, सब सें है न्यारी सब ठौरन में भरमें
कौ कय अलख-खलक की बातें लखी न जाय नजर में
ईसुर गिरधर रँय राधे में राधे रँय गिरधर में
उल्लेख्य यह है कि यह rajरजऊ सब में होकर भी किसी में नहीं है तो यह आत्मा के सिवा और क्या हो सकती है? ईसुरी अलख-खलक अर्थात परमसत्ता और उसकी रचना का संकेत देकर बताते हैं कि रजऊ ईश्वरीय है सांसारिक नहीं. राधा-कृष्ण के उदाहरण के सन्दर्भ में यह तथ्य है कि गोकुलवासी कृष्ण के जीवन में राधा नाम का कोई चरित्र कभी नहीं आया. कृष्ण पर रचित सबसे पुरानी और प्रथम कृति हरिवंश पुराण में ऐसा कोई चरित्र नहीं है. राधा का चरित्र चैतन्य महाप्रभु की भावधारा के साथ-साथ कृष्ण की पराशक्ति के रूप में विकसित हुआ जबकि विष्णु के अवतार मान्य कृष्ण के साथ लक्ष्मी रूप में रुक्मणि उनकी अर्धांगिनी हैं. इस प्रसंग से ईसुरी यह संकेतित करते हैं कि जिस तरह कृष्ण के साथ संयुक्त की गयी राधा काल्पनिक हैं वैसे ही रजऊ भी काल्पनिक है.
रजऊ का रूप-लावण्य अलौकिक है. उसका अंग-अंग जैसा है वैसा त्रिभुवन में खोजने पर भी किसी अन्य का नहीं मिला. यह अनन्यता उसके काल्पनिक होने पर ही आ सकती है:
नग-नग बने रजऊ के नोने ऐसे की के होने
गाल नाक उर भौंह, चिबुक लग अँखियाँ करतीं टोने
ग्रीवा जुबन पेट कर जाँगें सब हुई भौत सलौने
ईसुरी दूजी रची न विधना छानौ त्रिभुवन कौने
ईसुरी रजऊ के प्रति इतने समर्पित हैं कि उसके घर की देहरी होना चाहते हैं ताकि उसके आते-जाते समय चरण-धूल का स्पर्श पा सकें. ऐसा अनन्य समर्पण भाव ईश्वरीय तत्व के प्रति ही होता है. यहाँ भी ईसुरी रजऊ का काल्पनिक और दैवीय होना इंगित करते हैं:
विधना करी देह ना मेरी रजऊ के घर की देरी
आउत-जात चरण की धूरा लगत जात हर बेरी
ईसुरी संसार के परम सत्य, तन की नश्वरता से सुपरिचित हैं. वे इस संसार में आकर बुरा काम करने से डरते हैं तो किसी अन्य की पत्नि से प्रेम कैसे कर सकते है? अपनी पत्नि की दैहिक सुन्दरता का सार्वजनिक बखान भी नैतिक नहीं माना जा सकता. स्पष्ट है कि उनमें कबीराना वैराग के प्रति लगाव है, वे देह-गेह-नेह की क्षणभंगुरता से सुपरिचित हैं तथा तुलसी की रत्नावली के प्रति दैहिक आसक्ति की तरह रजऊ में आसक्त नहीं हैं. उनकी रजऊ परमसत्ता से साक्षात् का माध्यम है, काल्पनिक है:
तन कौ कौन भरोसो करनें आखिर इक दिन मरनें
जौ संसार ओस कौ बूँदा पवन लगें सें ढुरनें
जौ लौ जी की जियन जोरिया की खाँ जे दिन मरनें
ईसुर ई संसार में आकें बुरे काम खाँ डरनें
कहते हैं ‘भगत के बस में हैं भगवान’. भक्त जितना भगवान् चाहता है उतना ही भगवान् भी उसे चाहते हैं. ‘राम ते अधिक राम कर दासा’, इस कसौटी पर भी रजऊ अलौकिक है. वह भी ईसुरी को उतना ही चाहती है जितना ईसुरी उसे चाहते हैं. वह कामना करती है कि ईसुरी उँगली का छल्ला हो जाएँ तो वह मुँह पोछते समय गालों पर उनका स्पर्श पा सके, बार-बार घूँघट खोलते समय आँखों के सामने रहेंगे, उसे ईसुरी के दर्शन पाने के लिये ललचाना नहीं पड़ता:
जो तुम छैल छला हो जाते परे उँगरियन राते
मो पोछ्त गालन खाँ लगते कजरा देत दिखाते
घरी-घरी घूँघट खोलत में नजर के सामें राते
ईसुर दूर दरस के लानें ऐसे कायँ ललाते
ईसुरी ने रजऊ के माध्यम से बुंदेलखंड की गरिमामयी नारी जीवन के विविध चरणों का चित्रण किया है. किशोरी रजऊ चंचलतावश आते-जाते समय घूँघट उठा-उठाकर कनखियों से ईसुरी को देखते हुए भी अनदेखा करना प्रदर्शित करते हुए उन्हें अपनी रूप राशि के दर्शन सुअवसर देती है:
चलती कर खोल खें मुइयाँ रजऊ वयस लरकइयाँ
हेरत जात उँगरियन में हो तकती हैं परछइयाँ
लचकें तीन परें करया में फरकें डेरी बइयाँ
बातन मुख झर परत फूल से जो बागन में नइयाँ
धन्य भाग वे सैयाँ ईसुर जिनकी आयँ मुनइयाँ
कैशोर्य में आभूषणों के प्रति आकर्षण और आभूषण मिलने पर सज्जित होकर गर्वसहित प्रदर्शन करना किस युवती को प्रिय नहीं होता? रजऊ बैगनी धोती, करधनी, पैंजना आदि से सज्जित हो अपनी गजगामिनी देह का प्रदर्शन करते हुई नित्य ही ईसुरी के दरवाजे के सामने से निकलती है:
दोरें कड़तीं रोज रजउआ हाँती कैसो छौआ
छीताफली पैजना पैरें होत जात अर्रौंआ
ककरिजिया धोती पै लटकै करदौनी की टौआ
ईसुर गैल गली उड़ जातीं जैसें कारो कौआ
लावण्यमयी रजऊ को कुदृष्टि से बचाने के लिये एक नहीं दस-दस बार राई-नोन से नज़र उतारना भी पर्याप्त नहीं है, ईसुर मंत्र पढ़वा कर लट बँधवाने, गले में यंत्र डालने के बाद भी संतुष्ट नहीं हो पाते और खुद राई-नोन उतारते हैं:
नौने नई नजर के मारें राती रजऊ हमारे
रोजई रोज झरैया गुनियाँ दस-दस बेराँ झारें
मन्त्र पढ़ा कें लट बँदवाई जन्तर गरे में डारें
ईसुर रोजऊँ रजऊ के ऊपर राई नौंन उतारें
समय के साथ रजऊ के मन में अपने स्वामी के घर जाने का भाव उदित हो तो क्या आश्चर्य? अलौकिक रजऊ आत्मा से मिलन की और लौकिक रजऊ प्रियतम से मिलन की राह देखे, यही जीवन का विकास क्रम है:
वे दिन गौने के कब आबैं जब हम ससुरे जाबैं
बारे बलम लिबौआ होकें डोला सँग सजाबैं
गा हा गुइयाँ गाँठ जोर कें दौरें नौ पौंचाबें
हांते लगा सास-ननदी के चरनन सीस नबाबैं
ईसुर कबै फलाने जू की दुलहिन् टेर कहाबैं
इस फाग में डोला सजना, गाँठ जोड़ना, द्वार पर हाथे लगाना और वधु को उसके नाम से न पुकार कर अमुक की दुलहिन कहकर पुकारना जैसी बुन्देली लोक परम्पराओं का सरस संकेतन अद्भुत मिठास लिये है. यहाँ ‘घर सें निकसी रघुबीर बधू’ कहते तुलसी की याद आती है.
परमात्मा एक है किन्तु आत्माएँ अनेक हैं. पारस्परिक द्वेष पाल कर उसे नहीं पाया जा सकता किन्तु ऐक्य भाव से उसे पाना सहज है. लौकिक जगत में सौतिया डाह से नर्क बनते घर सत्य सर्वज्ञात है. ईसुरी इस त्रासदी का जीवंत वर्णन करते हैं:
सो घर सौत सौत कें मारें सौंज बने ना न्यारें
नारी गुपता भीतर करतीं लगो तमासो द्वारे
अपनी-अपनी कोदें झीकें खसमें फारें डारें
एक म्यान में कैसें पटतीं ईसुर दो तरवारें
बुन्देलखंड में गुदना गुदाने का रिवाज़ चिरकाल से प्रचलित रहा है. अधुनातन युवा पीढ़ी ‘टैबू’ के नाम से इसे अपना रही है. ईसुरी की रजऊ अललौकिक है, वह सांसारिक नश्वरता से जुड़े चिन्हों का गुदना गुदवाना नहीं चाहती. अंततः वह गोदनारी से अपने अंग-अंग में कृष्ण जी के विविध नाम गोद दिये जाने का अनुरोध करती है:
गोदौ गुदनन की गुदनारी सबरी देह हमारी
गालन पै गोविन्द गोद दो कर में कुंजबिहारी
बइयन भौत भरी बनमाली गरे धरौ गिरधारी
आनंदकंद लेव अँगिया में माँग में लिखौ मुरारी
करया कोद करइयाँ ईसुर गोद मुखन मनहारी
अंगों के नाम के साथ कृष्ण के ऐसे नामों का चयन जिनका प्रथमाक्षर समान हो आनुप्रसिक सौन्दर्य तथा लालित्य संवर्धक है. अलौकिक हो या लौकिक रजऊ को मान-मर्यादा का पालन कर अपने लक्ष्य ताक पहुँचाने की सीख देना स्वजनों और वरिष्ठों का कर्त्तव्य है:
बाहर रेजा पैर कड़ें गये, नीचो मूड़ करें गये
जी सें नाव धरैं ना केऊ ऐसी चाल चलें गये
हवा चहै उड़ जैहे झूना घूँघट हाँत धरैं गये
ईसुर इन गलियन में बिन्नू धीरें पाँव धरैं गये
अपने प्रियतम को टेरती अलौकिक रजऊ को संसार में सर्वत्र चोर-लुटेरे दिखाई देते हैं. उसे प्रियतम को पाये बिना सागर में आगे यात्रा करने का चाव नहीं, वह कहती है कि मुर्गे के जागने पर जगाते रह जाओगे अर्थात उसके पहले ही रजऊ प्रभु प्राप्ति की राह पर जा चुकी होगी:
अब ना जाव मुसाफिर आगे जात बिदा दिन माँगें
मिलने नहीं गाँव कोसन लौं परती इकदम डांगें
है अँधियारी रात गैल में चोर-चबाई लाँगें
परों सुनत दो जने लूट लये मार मार के साँगें
ईसुर कात रओ उठ जइयो अरुनसिखा जब जागें
बुन्देलखण्ड के जन जीवन के सटीक चित्रण के साथ-साथ लोक रंग और लोक परंपराओं का सरस वर्णन, सांसारिकता और आध्यात्मिकता का सम्यक सम्मिश्रण, श्रृंगार के विविध पक्षों का अंकन, छंद विधान के प्रति सजगता, चारुत्व तथा लालित्यमय भाषा, सहज बोधगम्य भाषा ईसुरी की फागों का वैशिष्ट्य है. लोक के अंकन के साथ लोक के मंगल से अनुप्राणित ये फागें बुंदेलखंड के गाँवों-शहरों में निरंतर गायी जाती हैं. ईसुरी की फागें बुन्देली ही नहीं हिंदी साहित्य की भी अनमोल विरासत है जिसे आधुनिक भाषा, शब्दावली, सन्दर्भों और बिम्ब-प्रतीकों को समाहित करते हुई लिखा जाना चाहिए.
१-३-२०१५
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छंद सलिला
गंग छंद
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लक्षण: जाति आंक, पद २, चरण ४, प्रति चरण मात्रा ९, चरणान्त गुरु गुरु
लक्षण छंद:
नयना मिलाओ, हो पूर्ण जाओ,
दो-चार-नौ की धारा बहाओ
लघु लघु मिलाओ, गुरु-गुरु बनाओ
आलस भुलाओ, गंगा नहाओ
उदाहरण:
१. हे गंग माता! भव-मुक्ति दाता
हर दुःख हमारे, जीवन सँवारो
संसार की दो खुशियाँ हजारों
उतर आस्मां से आओ सितारों
ज़न्नत ज़मीं पे नभ से उतारो
हे कष्टत्राता!, हे गंग माता!!
२. दिन-रात जागो, सीमा बचाओ
अरि घात में है, मिलकर भगाओ
तोपें चलाओ, बम भी गिराओ
सेना अकेली न हो सँग आओ
३. बचपन हमेशा चाहे कहानी
हँसकर सुनाये अपनी जुबानी
सपना सजायें, अपना बनायें
हो ज़िंदगानी कैसे सुहानी?
१-३-२०१४
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होली प्रसंग;
देख बहारें होली की -
नज़ीर अकबराबादी
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की।
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की।
परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की।
खम शीश-ए-जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की।
महबूब नशे में छकते हो तब देख बहारें होली की।
हो नाच रंगीली परियों का, बैठे हों गुलरू रंग भरे
कुछ भीगी तानें होली की, कुछ नाज़-ओ-अदा के ढंग भरे
दिल फूले देख बहारों को, और कानों में आहंग भरे
कुछ तबले खड़कें रंग भरे, कुछ ऐश के दम मुंह चंग भरे
कुछ घुँघरू ताल छनकते हों, तब देख बहारें होली की
गुलज़ार खिलें हों परियों के और मजलिस की तैयारी हो।
कपड़ों पर रंग के छीटों से खुश रंग अजब गुलकारी हो।
मुँह लाल, गुलाबी आँखें हो और हाथों में पिचकारी हो।
उस रंग भरी पिचकारी को अंगिया पर तक कर मारी हो।
सीनों से रंग ढलकते हों तब देख बहारें होली की।
और एक तरफ़ दिल लेने को, महबूब भवइयों के लड़के,
हर आन घड़ी गत फिरते हों, कुछ घट घट के, कुछ बढ़ बढ़ के,
कुछ नाज़ जतावें लड़ लड़ के, कुछ होली गावें अड़ अड़ के,
कुछ लचके शोख़ कमर पतली, कुछ हाथ चले, कुछ तन फड़के,
कुछ काफ़िर नैन मटकते हों, तब देख बहारें होली की।।
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