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मंगलवार, 29 जून 2021

शब्दांजलि सलिल

बहुमुखी व्यक्तित्व के साहित्य पुरोधा - 'संजीव वर्मा सलिल'
डॉ. क्रांति कनाटे
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श्री संजीव वर्मा 'सलिल" बहुमुखी प्रतिभा के धनी है । अभियांत्रिकी, विधि, दर्शन शास्त्र और अर्थशास्त्र विषयों में शिक्षा प्राप्त श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी देश के लब्ध-प्रतिष्ठित साहित्यकार हैं जिनकी कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीट मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर और कुरुक्षेत्र गाथा सहित अनेक पुस्तके चर्चित रही है ।
दोहा, कुण्डलिया, रोला, छप्पय और कई छन्द और छंदाधारित गीत रचनाओ के सशक्त हस्ताक्षर सही सलिल जी का पुस्तक प्रेम अनूठा है। इसका प्रमाण इनकी 10 हजार से अधिक श्रेष्ठ पुस्तको का संग्रह से शोभायमान जबलपुर में इनके घर पर इनका पुस्तकालय है ।
इनकी लेखक, कवि, कथाकार, कहानीकार और समालोचक के रूप में अद्वित्तीय पहचान है । मेरे प्रथम काव्य संग्रह 'करते शब्द प्रहार' पर इनका शुभांशा मेरे लिए अविस्मरणीय हो गई । इन्होंने ने कई नव प्रयोग भी किये है । दोहो और कुंडलियों पर इनकी शिल्प विधा पर इनके आलेख को कई विद्वजन उल्लेख करते है ।
जहाँ तक मुझे जानकारी है ये महादेवी वर्मा के नजदीकी रिश्तेदार है । इनकी कई वेसाइट है । ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण इन्होंने के भजन सृजित किये है और कई संस्कृत की पुस्तकों का हिंदी काव्य रूप में अनुवाद किया है ।
सलिल जी से जब भी कोई जिज्ञासा वश पूछता है तो सहभाव से प्रत्युत्तर दे समाधान करते है । ये इनकी सदाशयता की पहचान है । एक बार इनके अलंकारित दोहो के प्रत्युत्तर में मैंने दोहा क्या लिखा, दोहो में ही आधे घण्टे तक एक दूसरे को जवाब देते रहे, जिन्हें कई कवियों ने सराहा । ऐसे साहित्य पुरोधा श्री 'सलिल' जी साहित्य मर्मज्ञ के साथ ही ऐसे नेक दिल इंसान है जिन्होंने सैकड़ों नवयुवकों को का हौंसला बढ़ाया है । मेरी हार्दिक शुभकामनाएं है ।
मेरी भावभव्यक्ति -
प्रतिभा के धनी : संजीव वर्मा सलिल
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प्रतिभा के लगते धनी, जन्म जात कवि वृन्द ।
हुए पुरोधा कवि 'सलिल',प्यारे जिनको छन्द ।।
प्यारे जिनको छंद, पुस्तके जिनकी चर्चित ।
छन्दों में रच काव्य, करी अति ख्याति अर्जित ।।
कह लक्ष्मण कविराय, साहित्य में लाय विभा*।
साहित्यिक मर्मज्ञ, मानते वर्मा में प्रतिभा ।।
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*शब्द ब्रम्ह के पुजारी गुरुवार आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'*
छाया सक्सेना 'प्रभु'
श्रुति-स्मृति की सनातन परंपरा के देश भारत में शब्द को ब्रम्ह और शब्द साधना को ब्रह्मानंद माना गया है। पाश्चात्य जीवन मूल्यों और अंग्रेजी भाषा के प्रति अंधमोह के काल में, अभियंता होते हुए भी कोई हिंदी भाषा, व्याकरण और साहित्य के प्रति समर्पित हो सकता है, यह आचार्य सलिल जी से मिलकर ही जाना।
भावपरक अलंकृत रचनाओं को कैसे लिखें यह ज्ञान आचार्य संजीव 'सलिल' जी अपने सम्पर्क में आनेवाले इच्छुक रचनाकारों को स्वतः दे देते हैं। लेखन कैसे सुधरे, कैसे आकर्षक हो, कैसे प्रभावी हो ऐसे बहुत से तथ्य आचार्य जी बताते हैं। वे केवल मौखिक जानकारी ही नहीं देते वरन पढ़ने के लिए साहित्य भी उपलब्ध करवाते हैं । उनकी विशाल लाइब्रेरी में हर विषयों पर आधारित पुस्तकें सुसज्जित हैं । विश्ववाणी संस्थान अभियान के कार्यालय में कोई भी साहित्य प्रेमी आचार्य जी से फोन पर सम्पर्क कर मिलने हेतु समय ले सकता है । एक ही मुलाकात में आप अवश्य ही अपने लेखन में आश्चर्य जनक बदलाव पायेंगे ।
साहित्य की किसी भी विधा में आप से मार्गदर्शन प्राप्त किया जा सकता है । चाहें वो पुरातन छंद हो , नव छंद हो, गीत हो, नवगीत हो या गद्य में आलेख, संस्मरण, उपन्यास, कहानी या लघुकथा इन सभी में आप सिद्धस्थ हैं।
आचार्य सलिल जी संपादन कला में भी माहिर हैं। उन्होंने सामाजिक पत्रिका चित्राशीष, अभियंताओं की पत्रिकाओं इंजीनियर्स टाइम्स, अभियंता बंधु, साहित्यिक पत्रिका नर्मदा, अनेक स्मारिकाओं व पुस्तकों का संपादन किया है। अभियंता कवियों के संकलन निर्माण के नूपुर व नींव के पत्थर तथा समयजयी साहित्यकार भागवत प्रसाद मिश्र 'नियाज़' के लिए आपको
नाथद्वारा में 'संपादक रत्न' अलंकरण से अलंकृत किया गया है।
आचार्य सलिल जी ने संस्कृत से ५ नर्मदाष्टक, महालक्ष्यमष्टक स्त्रोत, शिव तांडव स्त्रोत, शिव महिम्न स्त्रोत, रामरक्षा स्त्रोत आदि का हिंदी काव्यानुवाद किया है। इस हेतु हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग को रजत जयंती वर्ष में आपको 'वाग्विदांबर' सम्मान प्राप्त हुआ। आचार्य जी ने हिंदी के अतिरिक्त बुंदेली, छत्तीसगढ़ी, भोजपुरी, राजस्थानी, अवधी, हरयाणवी, सरायकी आदि में भी सृजन किया है।
बहुआयामी सृजनधर्मिता के धनी सलिल जी अभियांत्रिकी और तकनीकी विषयों को हिंदी में लिखने के प्रति प्रतिबद्ध हैं। आपको 'वैश्विकता के निकष पर भारतीय अभियांत्रिकी संरचनाएँ' पर अभियंताओं की सर्वोच्च संस्था इंस्टीटयूशन अॉफ इंजीनियर्स कोलकाता का अखिल भारतीय स्तर पर द्वितीय श्रेष्ठ पुरस्कार महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा प्रदान किया गया।
जबलपुर (म.प्र.)में १७ फरवरी को आयोजित सृजन पर्व के दौरान एक साथ कई पुस्तकों का विमोचन, समीक्षा व सम्मान समारोह को आचार्य जी ने बहुत ही कलात्मक तरीके से सम्पन्न किया । दोहा संकलन के तीन भाग सफलता पूर्वक न केवल सम्पादित किया वरन दोहाकारों को आपने दोहा सतसई लिखने हेतु प्रेरित भी किया । आपके निर्देशन में समन्वय प्रकाशन भी सफलता पूर्वक पुस्तकों का प्रकाशन कर नए कीर्तिमान गढ़ रहा है ।
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बहुमुखी प्रतिभा के धनी सलिल जी
डॉ. बाबू जोसफ
आचार्य संजीव वर्मा सलिल जी के साथ मेरा संबंध वर्षों पुराना है। उनके साथ मेरी पहली मुलाकात सन् 2003 में कर्णाटक के बेलगाम में हुई थी। सलिल जी द्वारा संपादित पत्रिका नर्मदा के तत्वावधान में आयोजित दिव्य अलंकरण समारोह में मुझे हिंदी भूषण पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उस सम्मान समारोह में उन्होंने मुझे कुछ किताबें उपहार के रूप में दी थीं, जिनमें एक किताब मध्य प्रदेश के दमोह के अंग्रेजी प्रोफसर अनिल जैन के अंग्रेजी ग़ज़ल संकलन Off and On भी थी। उस पुस्तक में संकलित अंग्रेजी ग़ज़लों से हम इतने प्रभावित हुए कि हमने उन ग़ज़लों का हिंदी में अनुवाद करने की इच्छा प्रकट की। सलिल जी के प्रयास से हमें इसके लिए प्रोफसर अनिल जैन की अनुमति मिली और Off and On का हिंदी अनुवाद यदा-कदा शीर्षक पर जबलपुर से प्रकाशित भी हुआ। सलिल जी हमेशा उत्तर भारत के हिंदी प्रांत को हिंदीतर भाषी क्षेत्रों से जोड़ने का प्रयास करते रहे हैं। उनके इस श्रम के कारण BSF के DIG मनोहर बाथम की हिंदी कविताओं का संकलन सरहद से हमारे हाथ में आ गया। हिंदी साहित्य में फौजी संवेदना की सुंदर अभिव्यक्ति के कारण इस संकलन की कविताएं बेजोड़ हैं। हमने इस काव्य संग्रह का मलयालम में अनुवाद किया, जिसका शीर्षक है 'अतिर्ति'। इस पुस्तक के लिए बढ़िया भूमिका लिखकर सलिल जी ने हमारा उत्साह बढ़ाया। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय बात है कि सलिल जी के कारण हिंदी के अनेक विद्वान, कवि,लेखक आदि हमारे मित्र बन गए हैं। हिंदी साहित्य में कवि, आलोचक एवं संपादक के रूप में विख्यात सलिल जी की बहुमुखी प्रतिभा से हिन्दी भाषा का गौरव बढ़ा है। उन्होंने हिंदी को बहुत कुछ दिया है। इस लिए हिंदी साहित्य में उनका नाम हमेशा अमर रहेगा। हमने सलिल जी को बहुत दूर से देखा है, मगर वे हमारे बहुत करीब हैं। हमने उन्हें किताबें और तस्वीरों में देखा है, मगर वे हमें अपने मन की दूरबीन से देखते हैं। उनकी लेखनी के अद्भुत चमत्कार से हमारे दिल का अंधकार दूर हो गया है। सलिल जी को केरल से ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
- वडक्कन हाऊस, कुरविलंगाडु पोस्ट, कोट्टायम जिला, केरल-686633, मोबाइल.09447868474
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छंदों का सम्पूर्ण विद्यालय हैं आचार्य संजीव वर्मा "'सलिल'
मंजूषा मन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' से मेरा परिचय पिछले चार वर्षों से है। लगभग चार वर्ष पहले की बात है, मैं एक छंद के विषय मे जानकारी चाहती थी पर यह जानकारी कहाँ से मिल सकती है यह मुझे पता नहीं था, सो जो हम आमतौर पर करते हैं मैंने भी वही किया... मैंने गूगल की मदद ली और गूगल पर छंद का नाम लिखा तो सबसे पहले मुझे "दिव्य नर्मदा" वेब पत्रिका से छंद की जानकारी प्राप्त हुई। मैंने दिव्य नर्मदा पर बहुत सारी रचनाएँ पढ़ीं।
चूँकि मैं भी जबलपुर की हूँ और जबलपुर मेरा नियमित आनाजाना होता है तो मेरे मन में आचार्य जी से मिलने की तीव्र इच्छा जागृत हुई। दिव्य नर्मदा पर मुझे आदरणीय संजीव वर्मा 'सलिल' जी का पता और फोन नम्बर भी मिला। मैं स्वयं को रोक नहीं पाई और मैंने आचार्य सलिल जी को व्हाट्सएप पर सन्देश लिखा कि मैं भी जबलपुर से हूँ... और जबलपुर आने पर आपसे भेंट करना चाहती हूँ। उन्होंने कहा कि मैं जब भी आऊँ तो उनके निवास स्थान पर उनसे मिल सकती हूँ।
उसके बाद जब में जबलपुर गई तो मैं सलिल जी से मिलने उनके के घर गई। आप बहुत ही सरल हृदय हैं बहुत ही सहजता से मिले और हमने बहुत देर तक साहित्यिक चर्चा की। हिंदी के प्रचार प्रसार के लिए आप बहुत चिंतित एवं प्रयासरत लगे। चर्चा के दौरान हमने हिन्दी छंद, गीत-नवगीत, माहिया एवं हाइकु आदि पर विस्तार से बात की। लेखन की लगभग सभी विधाओं पर आपका ज्ञान अद्भुत है।
ततपश्चात मैं जब भी जबलपुर जाती हूँ तो आचार्य सलिल जी से अवश्य मिलती हूँ। उनके अथाह साहित्य ज्ञान के सागर से हर बार कुछ मोती चुनने का प्रयास करती हूँ।
ऐसी ही एक मुलाकात के दौरान उन्होंने सनातन छंदो पर अपने शोध पर विस्तार से बताया। सनातन छंदों पर किया गया यह शोध नवोदित रचनाकारों के लिए गीता साबित होगा।
आचार्य सलिल जी के विषय में चर्चा हो और उनके द्वारा संपादित "दोहा शतक मंजूषा" की चर्चा हो यह सम्भव नहीं। विश्व वाणी साहित्य संस्थान नामक संस्था के माध्यम से आप साहित्य सेवारत हैं। इसी प्रकाशन से प्रकाशित ये दोहा संग्रह पठनीय होने के साथ साथ संकलित करके रखने के योग्य हैं इनमें केवल दोहे संकलित नहीं हैं बल्कि दोहों के विषय मे विस्तार से समझाया गया है जिससे पाठक दोहों के शिल्प को समझ सके और दोहे रचने में सक्षम हो सके।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी के लिए कुछ कहते हुए शब्द कम पड़ जाते हैं किंतु साहित्य के लिए आपके योगदान की गाथा पूर्ण नहीं होती। आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है।
मैं अपने हृदयतल से आपको शुभकामनाएं देती हूँ कि आप आपकी साहित्य सेवा की चर्चा दूर दूर तक पहुंचे। आप सफलता के नए नए कीर्तिमान स्थापित करें अवने विश्व वाणी संस्थान के माध्यम से हिंदी का प्रचार प्रसार करते रहें।
- कार्यकारी अधिकारी, अम्बुजा सीमेंट फाउंडेशन, ग्राम - रवान, जिला - बलौदा बाजार 493331 छत्तीसगढ़
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आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ - मानवीय संवेदनाओं के कवि
बसंत कुमार शर्मा
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी का नाम अंतर्जाल पर हिंदी साहित्य जगत में विशेष रूप से सनातन एवं नवीन छंदों पर किये गए उनके कार्य को लेकर अत्यंत सम्मान के साथ लिया जाता है, गूगल पर उनका नाम लिखते ही सैकड़ों के संख्या में अनेकानेक पेज खुल जाते हैं जिनमें छंद पिंगलशास्त्र के बारे में अद्भुत ज्ञान वर्धक आलेख तथ्यों के साथ उपलब्ध हैं और हम सभी का मार्गदर्शन कर रहे हैं. फेसबुक एवं अन्य सोशल मिडिया के माध्यम से नवसिखियों को छंद सिखाने का कार्य वे निरनतर कर रहे हैं. पेशे से इंजीनियर होने के बाबजूद उनका हिंदी भाषा, व्याकरण का ज्ञान अद्भुत है, उन्होंने वकालत की डिग्री भी हासिल की है जो दर्शाता है कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती. वे विगत लगभग 20 वर्षों से हिंदी की सेवा माँ के समान निष्काम भाव से कर रहे हैं, उनका यह समर्पण वंदनीय है, साथ साथ हम जैसे नवोदितों के लिए अनुकरणीय है। गीतों में छंद वद्धता और गेयता के वे पक्षधर हैं।
आचार्य जी से मेरी प्रथम मुलाकात आदरणीय अरुण अर्णव खरे जी के साथ उनके निज आवास पर अक्टूबर २०१६ में हुई, उसे कार्यालय या एक पुस्तकालय कहूँ तो उचित होगा, उनके पास दो फ्लैट हैं, एक में उनका परिवार रहता है दूसरा साहित्यिक गतिविधियों को समर्पित है, लगभग दो घंटे हिंदी साहित्य के विकास में हम मिलकर क्या कर सकते हैं, इस पर चर्चा हुई. उनके सहज सरल व्यक्तित्व और हिंदी भाषा के लिए पूर्ण समर्पण के भाव ने मुझे बहुत प्रभावित किया. यह निर्णय लिया गया कि विश्ववाणी हिंदी संस्थान के अंतर्गत अभियान के माध्यम से जबलपुर में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे लघुकथा, कहानी, दोहा छंद आदि विधाओं पर सीखने सिखाने हेतु कार्यशालाएं/गोष्ठी आयोजित की जाएँ, तब से लेकर आज तक २५ गोष्ठियों का आयोजन किया चुका है और यह क्रम अनवरत जारी है, व्हाट्सएप समूह के माध्यम से भी यह कार्य प्रगति की चल रहा है. इसी अवधि में तीन दोहा संकलन उन्होंने सम्पादित किये हैं, सम्पादन उत्कृष्ट एवं शिक्षाप्रद है.
वे एक कुशल वक्ता हैं, आशुकवि हैं, समयानुशासन का पालन उनकी आदत में शुमार है, चाहे वह किसी आयोजन में उपस्थिति का हो या फिर वक्तव्य, काव्यपाठ की अवधि का, निर्धारित अवधि में अपनी पूरी बात कह देने की कला में वे निपुण हैं. अनुशासन हीनता उन्हें बहुत विचलित करती है, कभी-कभी वे इसे सबके सामने प्रकट भी कर देते हैं.
उन्होंने कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, काल है संक्रांति का, सड़क पर, कुरुक्षेत्र गाथा आदि कृतियों के माध्यम से साहित्य में सबका हित समाहित करने का अनुपम कार्य किया है. यदि सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करना आचार्य सलिल के काव्य की विशेषता है तो समाज में मंगल, प्रकृति की सुंदरता का वर्णन भी समान रूप से उनके काव्य का अंश है, माँ नर्मदा पर उनके उनके छंद हैं, दिव्य नर्मदा के नाम से वे ब्लॉग निरंतर लिख रहे हैं.
उनके साथ मुझे कई साहित्यिक यात्राएँ करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, अपने पैसे एवं समय खर्च कर साहित्यिक गतिविधियों में भाग लेने का उनका उत्साह सराहनीय है, अनुकरणीय है.
ट्रू मीडिया ने उनके कृतित्व पर एक विशेषांक निकालने का निर्णय लिया है, स्वागत योग्य है, इससे संस्कारधानी जबलपुर गौरवान्वित हुई है. मैं उनके उनके उज्जवल भविष्य और उत्तम स्वास्थ्य की कामना करता हूँ. माँ शारदा की अनुकम्पा सदैव उन पर बनी रहे.
बसंत कुमार शर्मा
IRTS
संप्रति - वरिष्ठ मंडल वाणिज्य प्रबंधक, जबलपुर मंडल, पश्चिम मध्य रेल, निवास - 354, रेल्वे डुप्लेक्स, फेथवैली स्कूल के सामने, पचपेढ़ी, साउथ सिविल लाइन्स, जबलपुर 9479356702 ईमेल : basant5366@gmail.com
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मंगलवार, 22 मई 2018

साहित्य त्रिवेणी : छाया सक्सेना -बघेली लोकगीतों में छंद

 बघेली लोकगीतों में छंद
 छाया सक्सेना ' प्रभु '
परिचय: जन्म १५.८.१९७१, रीवा (म.प्र.)। शिक्षा: बी.एससी. बी.एड., एम.ए. राजनीति विज्ञान, एम.फिल.), संपर्क: १२ माँ नर्मदे नगर, फेज़ १, बिलहरी, जबलपुर म.प्र., चलभाष ९४०६०३४७०३ ईमेल: chhayasaxena2508@gmail.com

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वर्णों  का ऐसा संयोजन जो मन को आह्लादित करे तथा जिससे रचनाओँ को एक लय में निरूपित किया जा सके छंद कहलाता है 'छन्दनासि  छादनात' सभी उत्कृष्ट पद्य रचनाओँ का आधार छंद होता है। बघेली काव्य साहित्य छंदों से समृद्ध है, काव्य जब छंद के आधार पर सृजित होता है तो हृदय में सौंदर्यबोध, स्थायित्व, सरस, मानवीय भावनाओं को उजागर करने की शाक्ति, नियमों के अनुसार धारा प्रवाह, लय आदि द्रष्टव्य होते हैं। लोक साहित्य, लोकगीतों में ही दृष्टव्य  होते हैं इनका स्वरूप विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि ये लोक कल्याण की भावना से सृजित किये गए हैं । इनका सृजन तो एक व्यक्ति करता है किंतु उसका दूरगामी प्रभाव विस्तृत होता है। अपने परंपरागत रूप में यह सामान्य व्यक्तियों द्वारा उनकी भावनाएँ व्यक्त करने का माध्यम बनता है। लोक-साहित्य पांडित्य की दृष्टि से परिपूर्ण भेले ही न रहा हो पर इनके सृजनकार भावनात्मक रूप से  सुदृढ़ रहे इसलिए ये गीत जनगण के मन में अपनी गहरी पैठ बनाने में समर्थ और कालजयी हो सके।
लोकगीत
लोकगीत लोक के गीत हैं जिन्हें कोई एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरा स्थानीय समाज अपनाता, गुनगुनाता है, गाता हैै। सामान्यतः लोक में प्रचलित, लोक द्वारा रचित एवं लोक के  लिए लिखे गए गीतों को लोकगीत कहते हैं । डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार “लोकगीत किसी संस्कृति के मुख बोलते चित्र हैं ।“ 
लोकगीतों में छंदों के स्वरूप के साथ-साथ मुहावरे, कहावतें व सकारात्मक संदेश भी अन्तर्निहित होते हैं जिनका उद्देश्य मनोरंजन मात्र नहीं अपितु भावी पीढ़ियों को सहृदय बनाना भी रहता है। अपनी बोली में सृजन करने पर भावों में अधिक स्पष्टता होती है। सामान्यत: लोकगीत मानव के विकास के साथ ही विकसित होते गए, अपने परंपरागत रूप में अनपढ़ किंतु लोक कल्याण की भावना रखनेवाले  लोगों द्वारा ये संप्रेषित हुए हैं। लोगों ने जो समाज में देखा-समझा उसे ही भावी पीढ़ी को बताया। आत्मानुभूत होने के कारण लोकसाहित्य की जड़ें बहुत गहरी हैं। हम कह सकते हैं कि हमारे संस्कारों को बचाने में  लोक साहित्य का बहुत बड़ा योगदान है ।

बघेली
बघेली बघेलखंड (मध्य प्रदेश के रीवा,सतना,सीधी, शहडोल ज़िले) में बोली जाती है। यहाँ के निवासी को 'बघेलखण्डी', 'बघेल', 'रिमही' या 'रिवई' कहे जाते हैं। बघेली में ‘व’ के स्थान पर ‘ब’ का अत्यधिक प्रयोग होता है। कर्म और संप्रदान कारकों के लिये ‘कः’ तथा करण व अपादान कारकों के लिये ‘कार’ परसर्गों का प्रयोग किया जाता है। ‘ए’ और ‘ओ’ ध्वनियों का उच्चारण करते हुए बघेली में ‘य’ और ‘व’ ध्वनियों का मिश्रण करने की प्रवृत्ति है।  सामान्य जन बोलते समय  'श' और 'स' में भी ज्यादा भेद नहीं मानते हैं। बघेली जन लोकपरंपरा में प्रचलित सभी संस्कारों को संपन्न करते समय ही नहीं ऋतु परिवर्तन, पर्व-त्यौहार आदि हर अवसर पर गीत गाते हैं। बघेलखंडी लोकगीतों में सोहर , कुंवा पूजा, मुंडन, बरुआ, विवाह, सोहाग, बेलनहाई, ढ़िमरहाई, धुबियाई, गारी गीत, परछन, बारहमासी, दादरा, कजरी, हिंडोले का गीत, बाबा फाग, खड़ा डग्गा, डग्गा तीन ताला आदि प्रमुख हैं। ये लोकगीत न केवल मनोरंजन करते हैं वरन जीने की कला भी सिखलाते हैं ।
सोहर
बच्चे के जन्मोत्सव पर  गाए जानेवाले गीत को सोहर कहते हैं। सभी महिलाएँ प्रसन्नतापूर्वक एक लय में सोहर गीत गाती है। सोहर गीत केवल महिलाएँ गाती हैं, पुरुष इन्हें नहीं गाते।  
तिथि नउमी चइत सुदी आई हो, राम धरती पधरिहीं।      १८-१२ 
बाजइ मने शहनाई हो,  राम धरती  पधरिहीं।।                  १४-१२ 

धरिहीं रूप सुघर पुनि रघुवर, खेलिहिं अज अँगनइया।       १६-१२ 
बड़भागी दसरथ पुनि बनिहीं, कोखि कौसिला मइया ।।      १६-१२ 

मनबा न फूला समाई हो, राम .....                                १६-१२ 
इस बघेली लोक गीत में शब्द-संयोजन का लालित्य और स्वाभाविकता देखते ही बनती है। लोकगीत छंद-विधान का कडाई से पालन न कर उनमें छूट ले लेते हैं। लोकगायक अपने गायन-क्षमता, अवसरानुकूलता, कथ्य की आवश्यकता और श्रोताओं की रूचि के अनुकूल शब्द जोड़-घटा लेते हैं। मुख्य ध्यान कथ्य पर दिया जाता है जबकि मात्राओं / वर्णों की घट-बढ़ सहज स्वीकार्य होती है। इस कारण इन्हें मानक छंदानुसार वर्गीकृत करना सहज नहीं है।   
जौने दिना राम जनम भे हैं                               १७ / ११ 
धरती अनंद भई-धरती अनंद भई हैं हो              २६ / १८ 
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गउवन लुटि भई-गउवन लुटि भई हो                 २० / १७ 
आवा गउवन के नाते एक कपिला                      २१ / १४ 
रमइयां मुँह दूध पियें- रमइया मुँह दूध पिये हो    २८ /२१   
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                             १९ / १२                  
*
सोनवन लुटि भई- सोनवन लुटि भई हो                २० / १७ 
आवा सोनवा के नाते एक बेसरिया                       २३ / १४ 
कौशिला नाके सोहै- कौशिला नाके सोहइ हो         २८ /  १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                              १९ / १२
*
रुपवन लुटि भई- रुपवन लुटि भई हो                    २०/ १७ 
आवा रुपवा के नाते एक जेहरिया                         २३ / १४  
कौशिला पायें सोहै, कौशिला पायें सोहइ हो            २८ / १६ 
जौने दिना राम जनम भे हैं हो                                १९  / १२ 

अधिकतर सोहर गीत राम-जन्म पर ही आधारित हैं।  इनकी बाहुल्यता यहाँ देखी जा सकती है ।
सोहर 
कारै पिअर घुनघुनवा तौ हटिया बिकायं आये / हटिया बिकाय आये हो
साहेब हमही घुनघुनवा कै साधि / घुनघुनवा हम लैबे-घुनघुनवा हम लेबई हो
नहि तुम्हरे भइया भतिजवा / न कोरवा बलकवा-न कोरवा बलकवउ हो
घुनघुनवा किन खेलइं हो / 
हंकरउ नगर केर पंडित हंकरि वेगि लावा / हंकरि वेगि लायउ हो
पंडित ऐसेन सुदिन बनावा नेहर चली जाबई हो / नैहर चली जाबई हो
हंकरहु नगर केर कहरा-हंकरि वेगि आवा / हंकर वेगि लावहु हो
रामा चन्दन डड़िया सजावा नैहर पहुंचावा / नेहरि पहुंचावहु हो
जातइ माया का मेटबै बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ आरहन देबई हो
माया तिरिया जनम काहे दीन्ह्या ब / बझिन कहवाया-बझिनि कहवायउ हो
जातइ काकी का मेटबई बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ ओरहन देबई हो
काकी धेरिया जनम काहे दीन्ह्या / बझिनि कहवाया बझिनि कहवायउ हो
जातइ भौजी का भटबै बैठतइ ओरहन देबई / बैठतइ ओरहन देबई हो
ऐसेन ननंदी जो पाया बझिन कहवाया / बझिनि कहवायउ हो।
बेटी तुहिनि मोर बेटी तुहिनि मोर सब कुछ हो
बेटी थर भर लेहु तुम मोतिया उपर धरा नरियर / उपर धरौ नरियर हो
बेटी उतै का सुरिज मनावा / सुरिज पूत देइहैं सुरिज पूत देइहै हो
होत विहान पही फाटत लालन भेहंइ होरिल में हइं हो
आवा बजई लागीं अनंद बघइया गवैं सखि सोहर / गवैं सखि सोहर हो
हंकरहु नगर केर सोनरा हंकरि वेगि लावा / हंकरि वेगि लावहु हो
सोनरा सोने रूपे गढ़ा घुनघुनवा तो धना का मनाय लई / धना का मनाय लई हो
हंकरहु नगर केरि कहरा हंकरि वेगि आवा / हंकरि वेगि लावउ हो
कहरा चन्दन डड़िया सजावां / तो धना का मनाई लई-धना का मनाई लई हो
एक बन गै हैं दुसर बन तिसरे ब्रिन्दाबन / तिसरे ब्रिन्दाबन हो
रामा पैठि परे गजओबरी तौ धना का मनाबै / तौ धना का मनावई हो
धनिया तुहिनि मोर धनिया तुहिनि मोर सब कुछ हो
धनिया छाड़ि देहु मन का विरोग घुनघुनवा तुम खेलहु / घुनघुनवा तुम खेलहु हो
नहि मारे भइया भतिजवा नहि कोरवा बलकवा घुनघुनवा किन खेलई
घुनघुनवा किन खेलई हो
घुनघुनवा तो खेलई तुम्हारी माया बहिनिउ तुम्हारिउ हो
रामा और तौ खेलई परोसिन जउन भिरूवाइसि हो
जउन भिरूवाइसि हो 

*
माघै केरी दुइजिया तौ भौजी नहाइनि
भौजी नहाइनि हो
रामा परि गा कनैरि का फूल मनै मुसकानी
मनै मुसक्यानी है हो

माया गनैदस मास बहिनी दस आंगुरि
बहिनी दस आंगुरि हो
भइया भउजी के दिन निचकानि तौ भउजी लइ आवा
भउजी लेवाय लावा हो
सोवत रहिउं अंटरिया सपन एक देखेउं हो
सपन एक देखेउं हो
माया जिन प्रभु घोड़े असवार डड़िया चंदन केरी
डड़िया चन्दन केरी हो
बेटी तुहिनि मोर बेटी तुहिनि मोर सब कुछ हो
बेटी खाय लेती नरियर चिरौंजी
तौ डड़िया चन्दन केरी-डड़िया चंदन केरी हो
एक बन नाकि- दुई बन तिसरे ब्रिन्दाबन
तिसरे ब्रिन्दाबन हो
आवा पैठि परे हैं गज ओबरी तौ माया निहारै
तौ माया निहारै हो
मचियन बैठी है सासु तौ हरफ- दरफ करैं
हरफ दरफ करैं हो
बहुआ एक बेरी वेदन निवारा तौ लाला जनम होइहीं
तो लाला जनम होईहीं हो
आपन माया जो होती वेदन हरि लेती
वेदन हरि लेतियं हो
रामा प्रभु जी की माया निठमोहिल
तौ ललन ललन करै होरिल होरिल करैं
ललन ललन करैं होरिल होरिल करैं हो। 

*
कुआं पूजन 
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा सुसुर से
द्वारे माँ कुंअना खोदावैं
तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा जेठ से
कुंअना मा जगत बंधावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे बारे देवर जी
रेशम रसरी मंगावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी
जाइ कह्या मोरे राजा बलम से
सोने घइलना भंगावैं तौ गोरी धना पानी का निकरीं
ऊपर बदरा घहरायं रे तरी गोरी पानी का निकरी। 
मुंडन
बच्चे के मुंडन संस्कार के समय बुआ अपने भेतीजे के जन्म के समय की झालर (बाल) अपने हाथों में लेती है। सभी सखियाँ  प्रेमपूर्वक गीत गाती हैं-

झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
अंगन मोरे झाल विरवा
सभवा मा बैठे हैं बाबा कउन सिंह
गोदी बइठे नतिया अरज करैं लाग
हो बव्बा झलरिया मोरी उलरू झलरिया मोरी झुलरू
झलरिया शिर झुकइं लिलार
नतिया से बव्बा अरज सुनावन लाग
सुना भइया आवें देउ बसंत बहार
झलरिया हम देबइ मुड़ाय
फुफुवा जो अइहैं मोहर पांच देबई
झलरिया शिर देबइ मुड़ाय
सभवा भा बैइठे हैं दाऊ कउन सिंह

बधाई गीत
शुभ कार्यों के अवसर पर  शुभकामनाएं प्रेरित करने हेतु बधाई गीत गाए जाते हैं।
धज पताका  घर-घर फहरइहीं,
सजहीं  तोरण  द्वार।
सदावर्त मन खोलि  लुटइहीं,
राजा  परम  उदार।।
देउता  साधू  सुखीं  सब होइहीं,
सरयू  मन हरसइहीं।
वेद पुराण गऊ  गुरु बाम्हन, 
सब मिल जय- जय  गइहीं।।
सुख गंगा  बही हरसाई हो, 
राम जनम  सुखदाई हो।।

शिक्षा गीत 
सीख देते हुए हुए लोककाव्य भी इस अंचल में प्रचलित हैं।  इस रचना में किरीट सवैया द्वारा कीर्ति व अपकीर्ति के कारणों पर प्रकाश डाला गया है:
कीर्ती
पाहन से फल मीठ झरै तरु राह सदा नित छाँव करै कछु ।
झूठ प्रपंचहि दूर रहै सत काम सदा नित   थाम करै कछु । 
हो हिय निर्मल प्रेम दया अभिमान नही तब नाम करै कछु - 
सो नर कीर्ति सदा फलती जब दीनन के हित काम करै कछु ।।

(2) अपकीर्ती 
कंटक राह बिछाइ सदा जग में ब्यभिचार सुलीन रहै जब ।
श्राप सदा हिय में धरता पर का अधिकार कुलीन हरै जब । 
वो बधिता बनिके हर जीव चराचर कष्टहि कार करै  तब - 
सो नरकी अपकीर्ति सदा घट पाप सुरेश सुनीर भरै जब ।।

सुरेश तिवारी खरहरी रीवा
*बरुआ  गीत*
विद्यालय जाने से पूर्व बच्चे से पाटी पूजा करवायी जाती है । बालक जब बड़ा हो जाता है तब उसका बरुआ होता है जनेऊ संस्कार की परंपरा यहाँ बहुत प्रचलित है ।
हरे हरे पर्वत सुअना नेउत दइ आवउ हो
गाँव का नाव न जान्यौं ठकुर नहि चीन्ह्योउ हो
गाँव का नाव अजुध्या ठकुर राजा दशरथ हो
हरे हरे सुअना नेउत दइ आवउ हो
पहिला नेउत राजा दशरथ दुसर कौशिला रानी
तिसरा नेउत रामचन्द्र तौ तीनौ दल आवइं हो।

*दैनिक कार्यों में भी लोग उत्साहित होकर अपने भावों को व्यक्त करते हैं - *
*जनसामान्य द्वारा महुआ बीनते समय गाए जाने वाला गीत--*
*  महुआ केर महातिम  *   
       ॥ कुंडलिया॥  
(1)महुआ केर महातिम गाबइ जुग -जुग बीत जहान , 
ई विशाल बिरछा केर अँग -अँग उपयोगी गुणवान , 
उपयोगी गुणवान , बहुत महुआ का फूल व डोरी , 
बुँकबा , लाटा , चुरा , सुरा , महुआ केर फूल ,महुअरी , 
कह घायल कविराय, गुलग़ुला खाय  लाल भा गलुआ, 
आमजनेन का साल भरे का रोजी -रोटी महुआ । 
,   
(2)नाना औषधि देय महौषधि, महुआ तरु हर अंग , 
झूरा , दारू ,अलकोहल, ई मादक देय तरंग , 
मादक देय तरंग , हराबइरोग बचाबइ जान , 
महुआ रस लाली लसइ, हाली हरय  थकान , 
कह घायल कविराय , कुबुद्धी ! करइ नशा मनमाना' , 
दारू भा बदनाम, तऊ गुन महुआ माही नाना ।

(3)फागुन माही फूलय महुआ बहुत परय भिनसारे , 
छोरा -छोरी , बूढ़ , बहोरिया-
छोड़इं खाट सकारे, 
छोँड़इं खाट सकारे , 
दउड़इं लइ डलिया महुअरिया,
चूसइं महुआफूलमजेसे, बिनइंचिल्ल दुपहरिया , 
कह घायल कविराय ,अन्न से     महंगा महुआ चउगुन  , 
चइत पूर बइशाख, जेठ की चून चढ़ाबइ फागुन ।

(4)धुआँ खरी का साँप भगाबइ हरय रोग चमड़ी का , 
ई चरचरी मा काम बनाबइ , हइ जुगाढिं दमड़ी का , 
हइ जुगाढिं दमड़ी का, महुआ ई गरीब का सोना , 
हरछठि ललहीजिउ! चाहइं -महुआ -दहिउ का दोना , 
कह घायल कविराय जियाबइ खुर , पर , पांउ ई महुआ , 
डोरी तेल बनाबइ साबुन  खरय खरी का धुआँ ।    -घायल-
                              

बघेली जन मानस धार्मिक प्रवत्ति के हैं  हर घर में तुलसी का पौधा, राम कृष्ण के चरित्र का गुणगान करते हुए गीत गाने वाले लोग मिलेंगे, अपनी बोली में  ह्रदय की अभिव्यक्ति और सहज लगती है ....
*बघेली सुंदर काण्ड*
गोड़ लइ परें सीतय जिउ के,पुन घुसें बगइचा जाय।
फर खाईंन अउ बिरबा टोरिंन,दंउ दंहनय दिहिंन मचाय।।
करत रहें तकबारी होंईंन,रामंन के जोधा बहुतेर।
कुछंन का मारिंन हनमानय पुन,रामन लघे भगें कुछफेर।।
एकठे आबा बाँदर सोमीं!,दीन्हिस बाग़ असोक उजारि।
फर खाइस अउ बिरबउ टोरिस,पीटिस सब रखबारि।।
तकबारंन का पसधुर कीन्हिस,पटक पटक दइ मारि।
रामन सुनि सँदेस जोधंन का,भेजिस कइ तइआरि।।
गरजें देखतय जोधंन कांहीं,रामभगत हनमानय।
देखतय देखत जिउ लइ लीन्हिन,महा बली हनमानय।।
पुनि के मिला संदेस रामनय,भेजिस अछय कुमार।
देखतय बड़े जोर चिल्लानें,हनमत मारि दहार।।
एक ठे बिरबा का उखारि के,दउरि परें हनमांन।
अछय कुमार के जिउ लइ लीन्हिन,महयबलिंन हनमांन।।
मुरघेटिआईंन कुछय जनेंन का,कुछंन के जिउलइ लीन्हिन।
पटकि पटकिके धूर चटाईंन,कुछंन क हनमत दइ मारिंन।।
जाय पुकारिंन कुछय जनें पुन,हे रामंन सरकार!।
इआ,बहुतय बलमानीं है बाँदर,रच्छा करी हमार।।

(अठरहमं दोहा),अरुण पयासी
।।
*बघेली महाबानीं*
*राम की महिमा*
"सब कुछु बिसर जाय चाहे मन,या की सुधय पूर आ जाय।
मन ता मधबय के देखे मां, चिन्ता से मुकुती पा जाय।।
मधबय के निहारि दीन्हें मन,पूर सुफल होइ जाय।
फेर का कहैं का आँगू केरे,सबय काम बनिं जाँय।।
अरुण पयासी

*कृष्ण महिमा*
जब कीन्ह राधिका गौर ,  कदम के डाली ।
उत कान्हा बइठा  ठौर,   बजावे  ताली ।।
बाहर आ के ल्या चीर,  सुना  मधुबाला ।
उत  आवत  माखन चोर सुबह नंद लाला ।।

सुरेश तिवारी रीवा
राधिका छंद, 13, 9

बघेलखण्ड में अधिकांश लोग किसानी का कार्य करते  हुए भी साहित्य साधना में लीन रहते हैं उनको लय का ज्ञान भी बहुत है जिससे उनके गीतों में छंद का प्रभाव अनायास ही उभर कर आता है जो मनभावक व कर्ण प्रिय हो जाता है ।
फसल काटते समय का गीत:
अरहरि  कटि खरिहाने  आई, / मसूरी  अँगने  लोटी रही ।
गेहूं  कटे  हमय  खेतन म, / बिटिया  मटरन  क  खरभोटि  रही ।।
गारी
विवाह उत्सव के समय समधियों व मान रिश्तेदारों को चिढ़ाते हुए हँसी ,ठिठोली करने में लिए गारी गयी जाती है ।
झुल्लूर  गुल्ली, बब्बू  मुन्ना, रानिया टेटबन  काटैं।
पढ़े लिखै मा छाती फाटिगे, यहै  चोखैती चाटैं।
हम काहे का मसका मारी, चला फलाने  सोई।
तीस साल के वर अब बागैं, काज कहाँ  से होई।।

अंगने मोरे नीम लहरिया लेय / अंगने मोरे हो
जहना कउन सिंह गाड़े हिडोलना / गाड़े हिडोलना
अरे उन कर दिद्दा हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मोरे नीम लहरिया लेय अंगने मां
जहना कउन सिंह गाडे हिडोलना गाड़े हिडोलना
उन कर फूफू हरसिया झूलि झूलि जायं
अंगने मां नीम लहरिया लेय-अंगने मां

माँ की महिमा
केखे तार ही महतारी अस, तारिउ होय कहाँ से?।
महतारी हय जबर बिस्स मां, अउरउ सबय जंहाँ से।।
हिरदंय के चाहत,राहत के, परम आसरा आय।
महतारी के माँन करब ता, इस्सर पूजा आय।।    -अरुण पयासी  

परछन
सास द्वारा परछन करते समय उपस्थित सभी महिलाओं द्वारा गाया जाने वाला गीत -

लाला खोला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना
धौं सांवरि हैं धौं गोरि / देखौं मैं तोरी धना
लाला खोला केमरिया हो / मैं देखौं तोरी धना

मनोरंजन हेतु दादरा का प्रचलन भी यहाँ देखने को मिलता है-
डग्गा तीन ताला
सुरति रहे तो सुअना ले गा / बोल के अमृत बोल
नटई रहै तो कोइली लै गे / चढ़ि बोलइ लखराम

एतनी देर भय आये रैन न एकौ लाग
कोइली न लेय बसेरा न करन सुआ खहराय....

बघेली साहित्य न केवल मनोरंजन कर रहा है वरन सामाजिक मूल्यों के संरक्षण एवं विकास की दिशा में चेतना जागृत कर  व्यक्ति के जीवन को सुखी व अमूल्य बना रहा है । यहाँ के गीतों की एक विशिष्ट लय है जिसका आधार छंद है,  अधिकांश गीत धार्मिक परिवेश से प्रभावित  हैं ।
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