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रविवार, 26 अप्रैल 2009

ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली.

बेखुदी, और इंतज़ार नहीं,
छोड़ आई नज़र क़रार कहीं

तेरी रहमत है, बेपनाह मगर
अपनी किस्मत पे ऐतबार नहीं

निभे अस्सी बरस, कि चार घड़ी
रूह का जिस्म से, क़रार नहीं

सख्त दो-इक, मुकाम और गुजरें,
फ़िर तो मुश्किल, ये रह्गुजार नहीं

काश! पहले से ये गुमाँ होता,
यूँ खिजाँ आती है, बहार नहीं

अपने टोटे-नफे के राग न गा,
उनकी महफिल, तेरा बाज़ार नहीं

जांनिसारी, कहो करें कैसे,
जां कहीं, और जांनिसार कहीं

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

अश'आर : दोस्त -सलिल

दोस्त जब मेहरबां हुए हम पर.
दुश्मनी में न फिर कसर छोडी.

ए 'सलिल'! दिल को कर मजबूत ले.
आ रहे हैं दोस्त मिलने के लिए.

शिकवा न दुश्मनों से मुझको रहा 'सलिल'.
हैरत है दोस्तों ने ही प्यार से मारा..

संबंधों के अनुबंधों में प्रतिबंधों की.
दम टूटी, जब मिला दोस्त सच्चा कोई भी..

जिस्म दो इक जां रहे जो.
दोस्त उनको जानिए.

दोस्त ने दोस्त से न कुछ चाहा.
हुई चाहत तो दोस्ती न रही.

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