मुक्तिका:
पथ पर पग
संजीव 'सलिल'
*
पथ पर पग भरमाये अटके.
चले पंथ पर जो बे-खटके..
हो सराहना उनकी भी तो
सफल नहीं जो लेकिन भटके..
ऐसों का क्या करें भरोसा
जो संकट में गुप-चुप सटके..
दिल को छूती वह रचना जो
बिम्ब समेटे देशज-टटके..
हाथ न तुम फौलादी थामो.
जान न पाये कब दिल चटके..
शूलों से कलियाँ हैं घायल.
लाख़ बचाया दामन हट के..
गैरों से है नहीं शिकायत
अपने हैं कारण संकट के..
स्वर्णपदक के बने विजेता.
पाठ्य पुस्तकों को रट-रट के..
मल्ल कहाने से पहले कुछ
दाँव-पेंच भी सीखो जट के..
हों मतान्तर पर न मनांतर
काया-छाया चलतीं सट के..
चौपालों-खलिहानों से ही
पीड़ित 'सलिल' पंथ पनघट के
************************
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
मुक्तिका: पथ पर पग संजीव 'सलिल'
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गुरुवार, 1 जुलाई 2010
मुक्तिका: ज़ख्म कुरेदेंगे.... संजीव 'सलिल'
मुक्तिका:
ज़ख्म कुरेदेंगे....
संजीव 'सलिल'
*

*
ज़ख्म कुरेदेंगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..
छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..
मत उधेड़-बुन को लादो, फुर्सत ओढ़ो.
होंगे बर्तन चार अगर खन-खन होगी..
फूलों के शूलों को हँसकर सहन करो.
वरना भ्रमरों के हाथों में गन होगी..
बीत गया जो रीत गया उसको भूलो.
कब्र न खोदो, कोई याद दफन होगी..
आज हमेशा कल को लेकर आता है.
स्वीकारो वरना कल से अनबन होगी..
नेह नर्मदा 'सलिल' हमेशा बहने दो.
अगर रुकी तो मलिन और उन्मन होगी..
*************************
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम
Acharya Sanjiv Salil
http://divyanarmada.blogspot.com
ज़ख्म कुरेदेंगे....
संजीव 'सलिल'
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ज़ख्म कुरेदेंगे तो पीर सघन होगी.
शोले हैं तो उनके साथ अगन होगी..
छिपे हुए को बाहर लाकर क्या होगा?
रहा छिपा तो पीछे कहीं लगन होगी..
मत उधेड़-बुन को लादो, फुर्सत ओढ़ो.
होंगे बर्तन चार अगर खन-खन होगी..
फूलों के शूलों को हँसकर सहन करो.
वरना भ्रमरों के हाथों में गन होगी..
बीत गया जो रीत गया उसको भूलो.
कब्र न खोदो, कोई याद दफन होगी..
आज हमेशा कल को लेकर आता है.
स्वीकारो वरना कल से अनबन होगी..
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अगर रुकी तो मलिन और उन्मन होगी..
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मंगलवार, 18 मई 2010
चार चतुष्पदियाँ : तितली पर ---संजीव वर्मा 'सलिल'
तितली से बगिया हुई, प्राणवान-जीवंत.
तितली यह सच जानती, नहीं मोह में तंत..
भ्रमर लोभ कर रो रहा, धोखा पाया कंत.
फूल कहे, सच को समझ, अब तो बन जा संत..
*
भ्रमर लोभ कर रो रहा, धोखा पाया कंत.
फूल कहे, सच को समझ, अब तो बन जा संत..
*
जग-बगिया में साथ ही, रहें फूल औ' शूल.
नेह नर्मदा संग ही, जैसे रहते कूल..
'सलिल' न भँवरा बन, न दे मतभेदों को तूल.
हर दिल बस, हर दिल बसा दिल में, झगड़े भूल..
*
नहीं लड़तीं, नहीं जलतीं, हमेशा मेल से रहतीं.
तितलियों को न देखा आदमी की छाँह भी गहतीं..
हँसों-खेलो, न झगड़ो ज़िंदगी यह चंद पल की है-
करो रस पान हो गुण गान, भँवरे-तितलियाँ कहतीं..
*
तितलियाँ ही न हों तो फूल का रस कौन पायेगा?
भ्रमर किस पर लुटा दिल, नित्य किसके गीत गायेगा?
न कलियाँ खिल सकेंगीं, गर न होंगे चाहनेवाले-
'सलिल' तितली न होगी, बाग़ में फिर कौन जायेगा?.
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