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गुरुवार, 29 मई 2025

मई २९, सॉनेट, हाइकु, तुम, शिरीष, हिंदी, मुँह, रोला, नवगीत, दोहा, फ़िजी

सलिल सृजन मई २९
*
मुक्तक
खुदी को तराशो खुदा हो सकोगे
जमें जड़ जमीं में न तब को सकोगे
न यायावरी से मिलें मंजिलें तो
करो कोशिशें फिर फसल बो सकोगे
आप व्याप शाप को वरदान कर रहे
गुणहीन को सत्संग से गुणवान कर रहे
नीरस तरस बरस हुआ है सरस आपसे
रसहीन को रसवान औ' रसखान कर रहे
.
बुला! लाई लाई करो कोशिशें मिल।
मताका मताका सके हर हृदय खिल।।
विनाका फिजी का करे भूमि भारत-
लेबूलेम अपना हमेशा रहे दिल।।
(फिजी - हिंदी भाषा संगम)
२९.५.२०२५
०0०
सॉनेट
कब कहाँ कैसे किया क्यों कह कहेगा कौन?
अनजान अब अज्ञानता से चाहता है मुक्ति।
आत्म फिर परमात्म से हो चाहता संयुक्ति।।
प्रश्न पूछे निरंतर उत्तर मिला बस मौन।।
नर्मदा में जो सलिल वह ही समेटे दौन।
यहाँ भी पुजती, वहाँ भी पुज रही है शक्ति।
काम का प्राबल्य क्यों गायब अकामा भक्ति।।
दादियों को छेड़ते पोते, भटकता यौन।।

लक्ष्य चुनकर पंथ पर पग रख बढ़ो पग-पग
गिर उठो सँभलो, नहीं तुम कोशिशें छोड़ो
नापता जो नापने दो बनाए नव माप।
कहो हर अटकाव से, भटकाव से मत ठग
हौसलों को दे चुनौती जो उसे तोड़ो
आप अपने आप जाता आप ही में व्याप।।
२९.५.२०२५
०0०
सॉनेट
संस्कार
*
मनुज सभ्यता नव आचार
हर दिन गढ़ें नया आयाम
चेतनता का द्रुत विस्तार
कर अनुकूल परिस्थिति वाम
निज-पर की तोड़ें दीवार
देख सभी में ईश अनाम
कर पाएं उसका दीदार
जो कारण है, जो परिणाम
संस्कार जीवन आsधार
नाम दिलाए रह बेनाम
दे चरित्र को नवल निखार
बिगड़े हुए बनाए काम
संस्कार बिन विधि हो वाम
सज्जन संस्कार के धाम
२९-५-२०२३
***
हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
***
गीत
तुम
*
तुमको देखा, खुदको भूला
एक स्वप्न सा बरबस झूला
मैं खुद को ही खोकर हँसता
ख्वाब तुम्हारे में जा बसता
तुमने जब दर्पण में देखा
निज नयनों में मुझको लेखा
हृदय धड़कता पड़ा सुनाई
मुझ तक बंसी की ध्वनि आई
दूर दूर रह पास पास थे
कुछ हर्षित थे, कुछ उदास थे
कौन कहे कैसे कब क्या घट
देख रहा था जमुन तीर वट
वेणु नाद था कहीं निनादित
नेह नर्मदा मौन प्रवाहित
छप् छपाक् वर्तुल लहराए
मोर पंख शत शत फहराए
सुरभि आ रही वातायन से
गीत सुन पड़ा था गुंजन से
इंद्रधनुष तितली ले आई
निज छवि तुममें घुलती पाई
लगा खो गए थे क्या मैं तुम?
विस्मित सस्मित देख हुए हम
खुद ने खुद को पाया था गुम
दर्पण में मैं रहा न, धीं तुम।
२९-५-२०२१
***
कार्यशाला
आइये! कविता करें १० :
.
लता यादव
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
हारना हिम्मत न अपनी कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
कितनी आएं आँधी या तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
तू अकेला ही चला चल पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
कृपया मात्रा भार से भी अवगत करायें गणना करने में कठिनाई का अनुभव करती हूँ , धन्यवाद
संजीव:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28 हारना हिम्मत न अपनी, कितनी भी टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 15 = 29 कितनी आएं आँधी या, तूफान रोकें मार्ग तेरा, .
112 22 22 2, 221 22 21 22 = 14, 16 = 30 तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो । 2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
दूसरी पंक्ति में एक मात्रा अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा तीसरी पंक्ति में २ मात्राएँ अधिक होने के कारण 'कितनी' का 'कितनि' तथा आँधी या का उच्चारण 'आंधियां' की तरह होता है.
इसे सुधारने का प्रयास करते हैं:
राह कितनी भी कठिन हो, दिव्य पथ पर अग्रसर हो ।
21 112 2 111 2, 21 11 11 2111 2 = 14, 14 = 28
हारना हिम्मत न अपनी, भले ही टेढ़ी डगर हो ।
212 211 1 112, 112 2 22 111 2 = 14. 14 = 28
आँधियाँ तूफान कितने, मार्ग तेरा रोकते हों
२१२ ११२ ११२, २१ २२ २१२ २ = 14, 14 = 28
तू अकेला ही चला चल, पथ प्रदर्शक बन निडर हो ।
2 122 2 12 11, 11 1211 11 111 2 = 14, 14 = 28
***
नवगीत:
शिरीष
.
क्षुब्ध टीला
विजन झुरमुट
झाँकता शिरीष
.
गगनचुम्बी वृक्ष-शिखर
कब-कहाँ गये बिखर
विमल धार मलिन हुई
रश्मिरथी तप्त-प्रखर
व्यथित झाड़ी
लुप्त वनचर
काँपता शिरीष
.
सभ्य वनचर, जंगली नर
देख दंग शिरीष
कुल्हाड़ी से हारता है
रोज जंग शिरीष
कली सिसके
पुष्प रोये
झुलसता शिरीष
.
कर भला तो हो भला
आदम गया है भूल
कर बुरा, पाता बुरा ही
जिंदगी है शूल
वन मिटे
बीहड़ बचे हैं
सिमटता शिरीष
.
बीज खोजो और रोपो
सींच दो पानी
उग अंकुर वृक्ष हो
हो छाँव मनमानी
जान पायें
शिशु हमारे
महकता शिरीष
...
टिप्पणी: इस पुष्प का नाम शिरीष है। बोलचाल की भाषा में इसे सिरस कहते हैं। बहुत ही सुंदर गंध वाला... संस्कृत ग्रंथों में इसके बहुत सुंदर वर्णन मिलते हैं। अफसोस कि इसे भारत में काटकर जला दिया जाता है। शारजाह में इसके पेड़ हर सड़क के दोनो ओर लगे हैं। स्व. हजारी प्रसाद द्विवेदी का ललित निबंध 'शिरीष के फूल' है -http://www.abhivyakti-hindi.org/.../lali.../2015/shirish.htm वैशाख में इनमें नई पत्तियाँ आने लगती हैं और गर्मियों भर ये फूलते रहते हैं... ये गुलाबी, पीले और सफ़ेद होते हैं. इसका वानस्पतिक नाम kalkora mimosa (albizia kalkora) है. गाँव के लोग हल्के पीले फूल वाले शिरीष को, सिरसी कहते हैं। यह अपेक्षाकृत छोटे आकार का होता है। इसकी फलियां सूखकर कत्थई रंग की हो जाती हैं और इनमें भरे हुए बीज झुनझुने की तरह बजते हैं। अधिक सूख जाने पर फलियों के दोनों भाग मुड़ जाते हैं और बीज बिखर जाते हैं। फिर ये पेड़ से ऐसी लटकी रहती हैं, जैसे कोई बिना दाँतो वाला बुजुर्ग मुँह बाए लटका हो।इसकी पत्तियाँ इमली के पेड़ की पत्तियों की भाँति छोटी छोटी होती हैं। इसका उपयोग कई रोगों के निवारण में किया जाता है। फूल खिलने से पहले (कली रूप में) किसी गुथे हुए जूड़े की तरह लगता है और पूरी तरह खिल जाने पर इसमें से रोम (छोटे बाल) जैसे निकलते हैं, इसकी लकड़ी काफी कमजोर मानी जाती है, जलाने के अलावा अन्य किसी उपयोग में बहुत ही कम लाया जाता है।बडे शिरीष को गाँव में सिरस कहा जाता है। यह सिरसी से ज्यादा बडा पेड़ होता है, इसकी फलियां भी सिरसी से अधिक बडी होती हैं। इसकी फलियां और बीज दोनों ही काफी बडे होते हैं, गर्मियों में गाँव के बच्चे ४-५ फलियां इकठ्ठा कर उन्हें खूब बजाते हैं, यह सूखकर सफेद हो जाती हैं, और बीज वाले स्थान पर गड्ढा सा बन जाता है और वहाँ दाग भी पड जाता है ... सिरस की लकड़ी बहुत मजबूत होती है, इसका उपयोग चारपाई, तख्त और अन्य फर्नीचर में किया जाता है ... गाँव में ईंट पकाने के लिए इसका उपयोग ईधन के रूप में भी किया जाता है।गाँव में गर्मियों के दिनों में आँधी चलने पर इसकी पत्ती और फलियां उड़ कर आँगन में और द्वारे पर फैल जाती हैं, इसलिए इसे कूड़ा फैलाने वाला रूख कहकर काट दिया जाता है.
***
शृंगार गीत
तुम
*
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
कुछ हाँ-हाँ, कुछ ना-ना
कुछ देना, कुछ पाना।
पलक झुका, चुप रहना
पलक उठा, इठलाना।
जीभ चिढ़ा, छिप जाना
मंद अगन सुलगाना
पल-पल युग सा लगना
घंटे पल हो जाना।
बासंती बह बयार
पल-पल दे नव निखार।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तुम-मैं हों दिक्-अम्बर
स्नेह-सूत्र श्वेताम्बर।
बाती मिल बाती से
हो उजास पीताम्बर।
पहन वसन रीत-नीत
तज सारे आडम्बर।
धरती को कर बिछात
आ! ओढ़ें नीलाम्बर।
प्राणों से, प्राणों को
पूजें फिर-फिर पुकार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
श्वासों की ध्रुपद-चाल
आसें नर्तित धमाल।
गालों पर इंद्रधनुष
बालों के अगिन व्याल।
मदिर मोगरा सुजान
बाँहों में बँध निढाल
कंगन-पायल मिलकर
गायें ठुमरी - ख़याल।
उमग-सँकुच बहे धार
नेह - नर्मदा अपार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
तन तरु पर झूल-झूल
मन-महुआ फूल-फूल।
रूप-गंध-मद से मिल
शूलों को करे धूल।
जग की मत सुनना, दे
बातों को व्यर्थ तूल
अनहद का सुनें नाद
हो विदेह, द्वैत भूल।
गव्हर-शिखर, शिखर-गव्हर
मिल पूजें बार-बार।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
*
प्राणों की अगरु-धूप
मनसिज का प्रगट रूप।
मदमाती रति-दासी
नदी हुए काय - कूप।
उन्मन मन, मन से मिल
कथा अकथ कह अनूप
लूट-लुटा क्या पाया?
सब खोया, हुआ भूप।
सँवर-निखर, सिहर-बिखर
ले - दे, मत रख उधार ।।
तुम लाये अकथ प्यार
महक उठे हरसिंगार।।
२९-५-२०१६
***
नवगीत:
मातृभाषा में
*
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
ढोल सुहाने दूर के
होते सबको ज्ञात
घर का जोगी जोगड़ा
आन सिद्ध विख्यात
घरवाली की बचा नजरें
अन्य से अँखियाँ लड़ाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
*
आम आदमी समझ ले
मत बोलो वह बात
लुका-दबा काबिज़ रहो
औरों पर कर घात
दर्द अन्य का बिन सुने
स्वयं का दुखड़ा सुनाओ
मातृभाषा में न बोलो
मगर सम्मेलन कराओ
***
दोहा सलिला:
दोहे का रंग मुँह के संग
*
दोहे के मुँह मत लगें, पल में देगा मात
मुँह-दर्पण से जान ले, किसकी क्या है जात?
*
मुँह की खाते हैं सदा, अहंकार मद लोभ
मुँहफट को सहना पड़े, असफलता दुःख क्षोभ
*
मुँहजोरी से उपजता, दोनों ओर तनाव
श्रोता-वक्ता में नहीं, शेष रहे सद्भाव
*
मुँह-देखी कहिए नहीं, सुनना भी है दोष
जहाँ-तहाँ मुँह मारता, जो- खोता संतोष
*
मुँह पर करिए बात तो, मिट सकते मतभेद
बात पीठ पीछे करें, बढ़ बनते मनभेद
*
मुँह दिखलाना ही नहीं, होता है पर्याप्त
हाथ बटायें साथ मिल, तब मंजिल हो प्राप्त
*
मुँह-माँगा वरदान पा, तापस करता भोग
लोभ मोह माया अहं, क्रोध ग्रसे बन रोग
*
आपद-विपदा में गये, यार-दोस्त मुँह मोड़
उनको कर मजबूत मन, तत्क्षण दें हँस छोड़
*
मददगार का हम करें, किस मुँह से आभार?
मदद अन्य जन की करें, सुख पाये संसार
*
जो मुँहदेखी कह रहे, उन्हें न मानें मीत
दुर्दिन में तज जायेंगे, यह दुनिया की रीत
*
बेहतर है मुँह में रखो, अपने 'सलिल' लगाम
बड़बोलापन हानिप्रद, रहें विधाता वाम
*
छिपा रहे मुँह आप क्यों?, करें न काज अकाज
सच को यदि स्वीकार लें, रहे शांति का राज
*
बैठ गये मुँह फुलाकर, कान्हा करें न बात
राधा जी मुस्का रहीं, मार-मार कर पात
*
मुँह में पानी आ रहा, माखन-मिसरी देख
मैया कब जाएँ कहीं, करे कन्हैया लेख
*
मुँह की खाकर लौटते, दुश्मन सरहद छोड़
भारतीय सैनिक करें, जांबाजी की होड़
*
दस मुँह भी काले हुए, मति न रही यदि शुद्ध
काले मुँह उजले हुए, मानस अगर प्रबुद्ध
*
गये उठा मुँह जब कहीं, तभी हुआ उपहास
आमंत्रित हो जाइए, स्वागत हो सायास
*
सीता का मुँह लाल लख, आये रघुकुलनाथ
'धनुष-भंग कर एक हों', मना रहीं नत माथ
*
मुँह महीप से महल पर, अँखियाँ पहरेदार
बली-कली पर कटु-मृदुल, करते वार-प्रहार
२९-५-२०१५
***
हाइकु सलिला:
*
कमल खिला
संसद मंदिर में
पंजे को गिला
*
हट गयी है
संसद से कैक्टस
तुलसी लगी
*
नरेंद्र नाम
गूँजा था, गूँज रहा
अमरीका में
*
मिटा कहानी
माँ और बेटे लिखें
नयी कहानी
*
नहीं हैं साथ
वर्षों से पति-पत्नी
फिर भी साथ
***
विमर्श :
क्या चुनाव में दलीय स्पर्धा से उपजी कड़वाहट और नेताओं में दलीय हित को राष्ट्रीय हित पर वरीयता देने को देखते हुए राष्ट्रीय सरकार भविष्य में अधिक उपयुक्त होगी?
संविधान नागरिक को अपना प्रतिनिधि चुनने देता है. दलीय उम्मीदवार को दल से इतनी सहायता मिलती है की आम आदमी उम्मीदवार बनने का सोच भी नहीं सकता।
स्वतंत्रता के बाद गाँधी ने कांग्रेस भंग करने की सलाह दी थी जो कोंग्रेसियों ने नहीं मानी, अटल जी ने प्रधान मंत्री रहते हुए राष्ट्रीय सरकार की बात थी किन्तु उनके पास स्पष्ट बहुमत नहीं था और सहयोगी दलों को उनकी बात स्वीकार न हुई. क्यों न इस बिंदु के विविध पहलुओं पर चर्चा हो.
छंद सलिला:
रोला छंद
*
छंद-लक्षण: जाति अवतारी, चार पद, प्रति चरण दो पद - मात्रा २४ मात्रा, यति ग्यारह तेरह, पदांत गुरु (यगण, मगण, रगण, सगण), विषम पद सम तुकांत,
लक्षण छंद:
आठ चरण पद चार, ग्यारह-तेरह यति रखें
आदि जगण तज यार, विषम-अंत गुरु-लघु दिखें
गुरु-गुरु से सम अंत, जाँचकर रचिए रोला
अद्भुत रस भण्डार, मजा दे ज्यों हिंडोला
उदाहरण:
१. सब होंगे संपन्न, रात दिन हँसें-हँसायें
कहीं न रहें विपन्न, कीर्ति सुख सब जन पायें
भारत बने महान, श्रमी हों सब नर-नारी
सद्गुण की हों खान, बनायें बिगड़ी सारी
२. जब बनती है मीत, मोहती तभी सफलता
करिये जमकर प्रीत, न लेकिन भुला विफलता
पद-मद से रह दूर, जमाये निज जड़ रखिए
अगर बन गए सूर, विफलता का फल चखिए
३.कोटि-कोटि विद्वान, कहें मानव किंचित डर
तुझे बना लें दास, अगर हों हावी तुझपर
जीव श्रेष्ठ निर्जीव, हेय- सच है यह अंतर
'सलिल' मानवी भूल, न हों घातक कम्प्यूटर
टीप:
रोल के चरणान्त / पदांत में गुरु के स्थान पर दो लघु मात्राएँ ली जा सकती हैं.
सम चरणान्त या पदांत सैम तुकान्ती हों तो लालित्य बढ़ता है.
रचना क्रम विषम पद: ४+४+३ या ३+३+२+३ / सम पद ३+२+४+४ या ३+२+३+३+२
कुछ रोलाकारों ने रोला में २४ मात्री पद और अनियमित गति रखी है.
नविन चतुर्वेदी के अनुसार रोला की बहरें निम्न हैं:
अपना तो है काम छंद की करना
फइलातुन फइलात फाइलातुन फइलातुन
२२२ २२१ = ११ / २१२२ २२२ = १३
भाषा का सौंदर्य, सदा सर चढ़कर बोले
फाइलुन मफऊलु / फ़ईलुन फइलुन फइलुन
२२२ २२१ = ११ / १२२ २२ २२ = १३
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अवतार, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, काव्य, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जग, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दिक्पाल, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, निश्चल, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, मृदुगति, योग, ऋद्धि, रसामृत, रसाल, राजीव, राधिका, रामा, रूपमाला, रोला, लीला, वस्तुवदनक, वाणी, विरहणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, शोभन, सरस, सार, सारस, सिद्धि, सिंहिका, सुखदा, सुगति, सुजान, सुमित्र, संपदा, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा सलिला:
*
एक न सबको कर सके, खुश है सच्ची बात
चयनक जाने पात्रता, तब ही चुनता तात
*
सिर्फ किताबी योग्यता, का है नहीं महत्व
समझ, लगन में भी 'सलिल', कुछ तो है ही तत्व
*
संसद से कैक्टस हटा, रोपी तुलसी आज
बने शरीफ शरीफ अब, कोशिश का हो राज
*
सुख कम संयम की अधिक, शासक में हो चाह
नियम मानकर आम सम, चलकर पाये वाह
*
जो अरविन्द वही कमल, हुए न फिर भी एक
अपनी-अपनी राह चल, कार्य करें मिल नेक
२९-५-२०१४
*

शनिवार, 7 दिसंबर 2024

दिसंबर ७, भुजंगप्रयात, शुभगति, गंग, छवि, दोहा, रोला, सोरठा, छंद, लघुकथा, कुण्डलिया, कचनार,बसंत

सलिल सृजन ७ दिसंबर
० 
दोहा बसंत में 
रश्मि रूप पर मुग्ध हो, दिनकर नभ का भूप।
प्रणय याचना कर रहा, भू पर उतर अनूप।।
कनकाभित हरितिमा लख, नीलाभित नभ मौन।
रतिपति सी गति हो नहीं, सच समझाए कौन?
पर्ण-पर्ण पर छा रहा, नूतन प्रणय निखार।
कली-कली पर भ्रमर दल, है निसार दिल हार।।
वनश्री नव वधु सी सजी, करने पीले हाथ।
माँ वसुधा बेचैन है, उठा झुकाए माथ।।
कुड़माई करने चला, सूर्य धरा के संग।
रश्मि बलैया ले हँसी, बिखरे स्नेहिल रंग
७.१२.२०२४
०००
मौसम 
*
मौसम कहे न कोई मो सम।
रंग बदलता गिरगिट जैसे। 
पल में तोला, पल में माशा, 
कभी नरम है, कभी गरम है। 
इस पल करता पक्का वादा 
उस पल कह देता है जुमला। 
करता दगा चीन के जैसे, 
कभी पाक की माफिक हमला।
देश बांग्ला भटका-अटका  
खुद ने खुद को खुद ही पटका।
करे सियासत मौन-मुखर हो 
पक्ष-विपक्ष सरीखे उलझे। 
धरती हैरां, थका आसमां 
श्वान-पूँछ टेढ़ा का टेढ़ा। 
साथ न छोड़े जन्म सात तक 
अलस्सुबह से देर रात तक।   
कभी हँसाए; करे आँख नम
मौसम कहे न कोई मो सम। 
०००  
कचनार गाथा
सुंदर सुमन सुमन मन मोहे,
झूम रहा गाता मल्हार।
माह बारहों हैं बसंत सम,
शांत अशोक मौन कचनार।।
मीनाकारी कली लली की,
भर अंजलि में सरला देख।
प्रमुदित रेखा पर्ण पर्ण पर,
पवन पढ़े किस्मत का लेख।।
अनिल अनल भू सलिल गगन का,
मीत हमेशा कर संतोष।
हृदय बसाए सरला-शन्नो,
राजकुमार अस्मिता कोष।।
मदन मुग्ध सुंदर फूलों पर,
वसुधा तनुजा कर सिंगार।
कहें अर्जिता कीर्ति बढ़े नित,
पाओ-बाँटो प्यार अपार।।
७.१२.२०१९
०००
दोहा-दोहा चिकित्सा
*
खाँसी कफ टॉन्सिल अगर, करती हो हैरान।
कच्ची हल्दी चूसिए, सस्ता, सरल निदान।।
*
खाँस-खाँस मुँह हो रहा, अगर आपका लाल।
पान शहद अदरक मिला, चूसें करे कमाल।।
*
करिए गर्म अनार रस, पिएँ न खाँसें मीत।
चूसें काली मिर्च तो, खाँसी हो भय-भीत।।
*
दमा ब्रोन्कियल अस्थमा, करे अगर बेचैन।
सुबह पिएँ गो मूत्र नित, ताजा पाएँ चैन।।
*
पिसी दालचीनी मिला, शहद पीजिए मीत।
पानी गरम सहित घटे, दमा न रहिए भीत।।
*
ग्रस्त तपेदिक से अगर, पिएँ आप छह माह।
नित ताजा गोमूत्र तो, मिले स्वास्थ्य की राह।।
*
वात-पित्त-कफ दोष का, नीबू करता अंत।
शक्ति बढ़ाता बदन की, सेवन करिए कंत।।
*
ए बी सी त्रय विटामिन, लौह वसा कार्बोज।
फॉस्फोरस पोटेशियम, सेवन देता ओज।।
*
मैग्निशियम प्रोटीन सँग, सोडियम तांबा प्राप्य।
साथ मिले क्लोरीन भी, दे यौवन दुष्प्राप्य।।
*
नेत्र ज्योति की वृद्धि कर, करे अस्थि मजबूत।
कब्ज मिटा, खाया-पचा, दे सुख-ख़ुशी अकूत।।
*
जल-नीबू-रस नमक लें, सुबह-शाम यदि छान।
राहत दे गर्मियों में, फूँक जान में जान।।
*
नींबू-बीज न खाइए, करे बहुत नुकसान।
भोजन में मत निचोड़ें, बाद करें रस-पान।।
*
कब्ज अपच उल्टियों से, लेता शीघ्र उबार।
नीबू-सेंधा नमक सँग, अदरक है उपचार।।
*
नींबू अजवाइन शहद, चूना-जल लें साथ।
वमन-दस्त में लाभ हो, हँसें उठकर माथ।।
*
जी मिचलाए जब कभी, तनिक न हों बेहाल।
नीबू रस-पानी-शहद, आप पिएँ तत्काल।।
*
नींबू-रस सेंधा नमक, गंधक सोंठ समान।
मिली गोलियाँ चूसिए, सुबह-शाम गुणवान।
*
नींबू रस-पानी गरम, अम्ल पित्त कर दूर।
हरता उदर विकार हर, नियमित पिएँ हुज़ूर।।
*
आधा सीसी दर्द से, परेशान-बेचैन।
नींबू रस जा नाक में, देता पल में चैन।।
*
चार माह के गर्भ पर, करें शिकंजी पान।
दिल-धड़कन नियमित रहे, प्रसव बने आसान।।
*
कृष्णा तुलसी पात ले, पाँच- चबाएँ खूब।
नींबू-रस पी भगा दें, फ्लू को सुख में डूब।।
*
पिएँ शिकंजी, घाव पर, मलिए नींबू रीत।
लाभ एक्जिमा में मिले, चर्म नर्म हो मीत।।
*
कान दर्द हो कान में, नींबू-अदरक अर्क।
डाल साफ़ करिए मिले, शीघ्र आपको फर्क।।
*
नींबू-छिलका सुखाकर, पीस फर्श पर डाल।
दूर भगा दें तिलचटे, गंध करे खुशहाल।।
*
नीबू-छिलके जलाकर, गंधक दें यदि डाल।
खटमल सेना नष्ट हो, खुद ही खुद तत्काल।।
*
पीत संखिया लौंग संग, बड़ी इलायची कूट।
नींबू-रस मलहम लगा, करें कुष्ठ को हूट।।
*
नींबू-रस हल्दी मिला, उबटन मल कर स्नान।
नर्म मखमली त्वचा पा, करे रूपसी मान।।
*
मिला नारियल-तेल में, नींबू-रस नित आध।
मलें धूप में बदन पर, मिटे खाज की व्याध।।
*
खूनी दस्त अगर लगे, घोलें दूध-अफीम।
नींबू-रस सँग मिला पी, सोयें बिना हकीम।।
*
बवासीर खूनी दुखद, करें दुग्ध का पान।
नींबू-रस सँग-सँग पिएँ, बूँद-बूँद मतिमान।।
*
नींबू-रस जल मिला-पी, करें नित्य व्यायाम।
क्रमश: गठिया दूर हो, पाएँगे आराम।।
*
गला बैठ जाए- करें, पानी हल्का गर्म।
नींबू-अर्क नमक मिला, कुल्ला करना धर्म।।
*
लहसुन-नींबू रस मिला, सिर पर मल कर स्नान।
मुक्त जुओं से हो सकें, महिलायें अम्लान।।
*
नींबू-एरंड बीज सम, पीस चाटिए रात।
अधिक गर्भ संभावना, होती मानें बात।।
*
प्याज काट नीबू-नमक, डाल खाइए रोज।
गर्मी में हो ताजगी, बढ़े देह का ओज।।
*
काली मिर्च-नमक मिली, पियें शिकंजी आप।
मिट जाएँगी घमौरियाँ, लगे न गर्मी शाप।।
*
चेहरे पर नींबू मलें, फिर धो रखिए शांति।
दाग मिटें आभा बढ़े, अम्ल-विमल हो कांति।।
*
नमक आजवाइन मिला, नीबू रस के संग।
आधा कप पानी पिएँ, करती वायु न तंग।।
*
अदरक अजवाइन नमक, नीबू रस में डाल।
हो जाए जब लाल तब, खाकर हों खुशहाल।।
घटे पीलिया नित्य लें, गहरी-गहरी श्वास।
सुबह-शाम उद्यान में, अधरों पर रख हास।।
*
लहसुन अजवाइन मिला, लें सरसों का तेल।
गरम करें छानें मलें, जोड़-दर्द मत झेल।।
कान-दर्द खुजली करे, खाएँ कढ़ी न भात।
खारिश दाद न रह सके, मिले रोग को मात।।
*
डालें बकरी-दूध में, मिसरी तिल का चूर्ण।
रोग रक्त अतिसार हो, नष्ट शीघ्र ही पूर्ण।।
७.१२.२०१८
***
छंद सप्तक १.
*
शुभगति
कुछ तो कहो
चुप मत रहो
करवट बदल-
दुःख मत सहो
*
छवि
बन मनु महान
कर नित्य दान
तू हो न हीन-
निज यश बखान
*
गंग
मत भूल जाना
वादा निभाना
सीकर बहाना
गंगा नहाना
*
दोहा:
उषा गाल पर मल रहा, सूर्य विहँस सिंदूर।
कहे न तुझसे अधिक है, सुंदर कोई हूर।।
*
सोरठा
सलिल-धार में खूब,नृत्य करें रवि-रश्मियाँ।
जा प्राची में डूब, रवि ईर्ष्या से जल मरा।।
*
रोला
संसद में कानून, बना तोड़े खुद नेता।
पालन करे न आप, सीख औरों को देता।।
पाँच साल के बाद, माँगने मत जब आया।
आश्वासन दे दिया, न मत दे उसे छकाया।।
*
कुण्डलिया
बरसाने में श्याम ने, खूब जमाया रंग।
मैया चुप मुस्का रही, गोप-गोपियाँ तंग।।
गोप-गोपियाँ तंग, नहीं नटखट जब आता।
माखन-मिसरी नहीं, किसी को किंचित भाता।।
राधा पूछे "मजा, मिले क्या तरसाने में?"
उत्तर "तूने मजा, लिया था बरसाने में??"
*
एक दोहा
शिव नरेश देवेश भी, हैं उमेश दनुजेश.
सत-सुन्दर पर्याय हो, घर-घर पुजे हमेश.
***
कार्यशाला
यगण x ४ = यमाता x ४ = (१२२) x ४
बारह वार्णिक जगती जातीय भुजंगप्रयात छंद,
बीस मात्रिक महादैशिक जातीय छंद
बहर फऊलुं x ४
*
हमारा न होता, तुम्हारा न होता
नहीं बोझ होता, सहारा न होता
नहीं झूठ बोता, नहीं सत्य खोता-
कभी आदमी बेसहारा न होता
*
करों याद, भूलो न बातें हमारी
नहीं प्यार के दिन न रातें हमारी
कहीं भी रहो, याद आये हमेशा
मुलाकात पहली, बरातें हमारी
*
सदा ही उड़ेगी पताका हमारी
सदा भी सुनेगा जमाना हमारी
कभी भी न छोड़ा, कभी भी न छोड़ें
अदाएँ तुम्हारी, वफायें हमारी
*
कभी भी, कहीं भी सुनाओ तराना
हमीं याद में हों, नहीं भूल जाना
लिखो गीत-मुक्तक, कहो नज्म चाहे
बहाने बनाना, हमीं को सुनाना
*
प्रथाएँ भुलाते चले जा रहे हैं
अदाएँ भुनाते छले जा रहे हैं
न भूलें भुनाना,न छोड़ें सताना
नहीं आ रहे हैं, नहीं जा रहे हैं
७.१२.२०१६
***
लघुकथा -
द़ेर है
*
एक प्रकाशक महोदय को उनके द्वारा प्रकाशित पुस्तक विश्वविद्यालय में स्वीकृत होने पर बधाई दी तो उनहोंने बुझे मन से आभार व्यक्त किया। कारण पूछने पर पता चला कि विभागाध्यक्ष ने पाठ्यक्रम में लगवाने का लालच देकर छपवा ली, आधी प्रतियाँ खुद रख लीं। शेष प्रतियाँ अगले सत्र में विद्यार्थियों को बेची जाना थीं किन्तु विभागाध्यक्ष जुगाड़ फिट कर किसी अकादमी के अध्यक्ष बन गये। नये विभाध्यक्ष ने अन्य प्रकाशक की किताब पाठ्यक्रम में लगा दी।
अनेक साहित्यकार मित्र प्रकाशक जी द्वारा शोषण के कई प्रसंग बता चुके थे। आज उल्टा होता देख सोचा रहा हूँ देर है अंधेर नहीं।
***
लघु कथाएँ -
मुट्ठी से रेत
*
आजकल बिटिया रोज शाम को सहेली के घर पढ़ाई करने का बहाना कर जाती है और सवेरे ही लौटती है। समय ठीक नहीं है, मना करती हूँ तो मानती नहीं। कल पड़ोसन को किसी लडके के साथ पार्क में घूमते दिखी थी।
यह तो होना ही है, जब मैंने आरम्भ में उसे रोक था तो तुम्हीं झगड़ने लगीं थीं कि मैं दकियानूस हूँ, अब लडकियों की आज़ादी का ज़माना है। अब क्या हुआ, आज़ाद करो और खुश रहो।
मुझे क्या मालूम था कि वह हाथ से बाहर निकल जाएगी, जल्दी कुछ करो।
दोनों बेटी के कमरे में गए तो मेज पर दिखी एक चिट्ठी जिसमें मनपसंद लडके के साथ घर छोड़ने की सूचना थी।
दोनों अवाक, मुठ्ठी से फिसल चुकी थी रेत।
***
समरसता
*
भृत्यों, सफाईकर्मियों और चौकीदारों द्वारा वेतन वृद्धि की माँग मंत्रिमंडल ने आर्थिक संसाधनों के अभाव में ठुकरा दी।
कुछ दिनों बाद जनप्रतिनिधियों ने प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य कुशलता की प्रशंसा कर अपने वेतन भत्ते कई गुना अधिक बढ़ा लिये।
अगली बैठक में अभियंताओं और प्राध्यापकों पर हो रहे व्यय को अनावश्यक मानते हुए सेवा निवृत्ति से रिक्त पदों पर नियुक्तियाँ न कर दैनिक वेतन के आधार पर कार्य कराने का निर्णय सर्व सम्मति से लिया गया और स्थापित हो गयी समरसता।
७.१२.२०१५
***

मंगलवार, 6 फ़रवरी 2024

६ फरवरी, पपीता, माहिया, हाइकु, दोहा, सोरठा, कहमुकरी, आल्हा, चंद्रिका, रोला, सॉनेट, लता, सावित्री, तितलियाँ, गीत,

सृजन
*
कार्यशाला
चित्र पर रचना


माहिया
मन झूम झूम गाना,
कर न मीत चिंता,
कर छप्-छप् सुख पाना।
हाइकु
नील गगन
चाँद-चाँदनी संग
आ पी लें पानी।
दोहा
छप् छपाक् छप् कूद हम, फिर बच्चे हों मीत।
राग-द्वेष से दूर रह, हों सच्चे कर प्रीत।।
सोरठा
बिंब निहारे नीर में, देखे चंदा मुग्ध।
कूद चाँदनी भुज भरे, हो न विरह दिल दग्ध।।
कहमुकरी
हुई लाज से पानी पानी
गगन सुंदरी अनुपम मानी
पीहर आई, पीछे फंदा
प्रेमी बंदा?
ना री! चंदा।
आल्हा
चाँद-चाँदनी रास रचैया, उतर धरा पर नाचें साथ।
सलिल-अंजुरी भर उलीच कर, हर्षित ले हाथों में हाथ।।
नेह नर्मदा नवल बहाएँ, प्रणय ग्रंथ बांँचें हो लीन।
दो थे मिलकर एक हो गए, चाह रहे हो जाएँ तीन।।
चंद्रिका छंद
जल नर्तन कर खुश हुई,
दूर हुई गर्मी मुई।
हँसी खिलखिला चाँदनी।
हूँ न चाँद की बंदिनी।।
रोला
विकल ज्योत्सना कूद, नाचती पीकर पानी।
भुज भर वसुधा मातु, निहारे होकर मानी।।
ले अधरों पर हास, चाँद झुक रूप निहारे।
पिता गगन कर लाड़, सुता पर सब कुछ वारे।।
गीत
छंद - दोहा
पदभार- २४।
यति - १३-११।
पदांत - लघु गुरु।
*
तू चंदा मैं चाँदनी, तेरी-मेरी प्रीत।
युगों-युगों तक रहेगी, अमर रचें कवि गीत।।
*
सपना पाला भगा दें
हम जग से तम दूर।
लोक हितों की माँग हो,
सहिष्णुता सिंदूर।।
अनगिन तारागण बनें,
नभ के श्रमिक-किसान।
श्रम-सीकर वर्षा बने, कोशिश बीज पुनीत।
चल हम चंदा-चाँदनी, रचें अनश्वर रीत।।
*
काम अकाम-सकाम वर,
बन पाएँ निष्काम।
श्वासें अल्प विराम हों,
आसें अर्ध विराम।।
पूर्ण विराम अनाम हो, छोड़ें हम नव नीत।
श्री वास्तव में पा सकें, मन हारें मन जीत।।
*
अमल विमल निर्मल सलिल, छप्-छपाक् संजीव।
शैशव वर वार्धक्य में, हो जाएँ राजीव।।
भू-नभ की कुड़माई हो, भावी बने अतीत।
कलरव-कलकल अमर हो, बन सत स्वर संगीत।।
***
दिव्य नर्मदा.इन - जनवरी में देखी गई १३३१ बार, पाठक शिव दोहे २०७, मालोपमा अलंकार ८५, राम रक्षा स्तोत्र हिंदी काव्यानुवाद ७७।
***
लोकोपयोगी
पपीता खरीदते समय ध्यान रखें
१. पके पपीते पर पीले रंग की धारियाँ हों। पपीते पर पीली या नारंगी धारियां न हों तो वह मीठा नहीं होगा।
२. पपीते की डंडी के आस-पास दबा कर देखें अगर वह दब रहा है तो न खरीदें, फल अंदर से सड़ा य गला होगा।
३. पपीते पर सफेदी (फंगस) हो तो उसे ना खरीदें, यह बीमारी की वजह बन सकता है।
४. पपीते से अगर मीठी खुशबू आ रही है तो वह पका और मीठा होगा।
५. पपीते के छिलके को दबा कर देखें, सख्त हो तो पपीता कच्चा होगा तथा फीका होगा।

पपीते के डंठल वाला स्थान गौर से देखें, यदि वह काला या अधिक गला हुआ अथवा पपीता हल्दी के माफिक पूरा पीला रंग का हो तो भूलकर भी मत लें। आजकल पपीते,आम और केले तरल रसायन से पकाए जाते हैं। यह इतना असरदार होता है कि एक बाल्टी पानी में केवल पाँच बूँद मिलाकर फल या सब्जियाँ डुबा- निकालकर अखबार या बोरी में लपेटकर रखने के पांच घंटों बाद ही कच्चे फलो/सब्जी को पूरा पका देता है, इसकी पहचान यही है कि पूरा फल पूरा एक ही रंग का पीला दिखता है, उसमें हरे रंग का नामोनिशान भी नहीं होता। ऐसे फल देखने में बहुत सुन्दर लगते हैं किन्तु स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है।
***
प्रश्नोत्तर
शादी में जाते वक्त क्या उपहार लेकर जाना चाहिए अपने मेहमानों के लिए अच्छा सा कोई उपाय बताइए ना?
प्रश्न - विवाह के समय उपहार क्या दें ?
उत्तर- पठनीय उपयोगी पुस्तक।

जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह प्रवेश त्योहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

मेरी माताश्री को विवाह के समय मेरे नाना जी रायबहादुर माता प्रयास सिन्हा 'रईस', पूर्व ऑनरेरी मजिस्ट्रेट तथा स्वतंत्रता सत्याग्रही ने कल्याण के महाभारत अंक तथा ताऊ जी धर्म नारायण वर्मा एडवोकेट ने चांदी के पूजा सेट के साथ मानस व गीता भेंट किए थे। शेष उपहार समाप्त हो गए, ये मेरे पास अब तक हैं। विरासत में मेरे नाती-पोतों को मिलेंगे।

मेरे विवाह के समय मिले सैंकड़ों उपहारों में से केवल ३ अब तक सुरक्षित हैं, वे तीनों पुस्तकें हैं।

अपने पुत्र के विवाह के अवसर पर जयमाला के बाद मैंने नव दंपत्ति से अपने लघुकथा संग्रह 'आदमी अब भी जिंदा है' का लोकार्पण कराया।

मेरे साहित्यिक शिष्य डॉ. प्रताप ने अपनी बहिन के विवाह पर नव दंपत्ति से अपने गीत संग्रह का विमोचन कराया।

हम सब इस स्वस्थ्य परंपरा को पुष्ट करें। हमारा अव्यवसायिक प्रकाशन इस हेतु हर तरह से सहयोग करता है। संपर्क ९४२५१८३२४४
***
प्रश्न- एक ओर भाभी को माँ बताया गया है, दूसरी ओर देवर-भाभी के विवाह को मान्य किया गया है। ऐसा क्यों?

देवर भाभी का संबंध बहु आयामी है।

उत्तर- भाई की पत्नी उम्र में बहुत बड़ी हो तो माँ के समान, हमउम्र हो तो बहिन की तरह, छोटी हो तो बेटी के सदृश्य। यह मान्यता सामान्य स्थिति के लिए है ताकि पारिवारिक संबंधों में शुचिता तथा शांति बनी रहे।

विशिष्ट परिस्थितियों में देवर को द्वि वर अर्थात दूसरा वर कहा गया है। भाभी अल्प आयु में विधवा हो जाए तो शेष जीवन अकेले गुजारने में अनेक समस्याओं बच्चों की देख-रेख, खुद की सुरक्षा, आय का साधन, संपत्ति का विभाजन आदि का सामना करना होता है। पूर्व में स्त्रियाँ बहुधा अशिक्षित तथा अजीविकाविहीन होती थी। इसलिए देवर-भाभी विवाह को उचित माना गया किंतु छोटे भाई की पत्नी के साथ जेठ के विवाह को पाप कहा गया।

श्री राम ने बाली वध को उचित बताते हुए कहा कि उसने छोटे भाई की पत्नी को अपनी पत्नी बना लिया था।

'अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई॥'

रावण वध के बाद विभीषण-मंदोदरी विवाह को उचित माना गया।
***
सोरठा सलिला
बन जाती है भार, गाड़ी पटरी से उतर।
ढोती रहती भार, रहे जब तक पटरी पर।
चुप रह सह लो पीर, दर्द न कोई बँटाता।
मत हो व्यर्थ अधीर, साथ सभी हों हर्ष में।।
मत करना उपहास, निर्धन-निर्बल का कभी।
मत हों आप उदास, लोग करें उपहास तो।।
तन के भरते घाव, मन के घाव न भर सकें।
व्यर्थ दिखाते ताव, जो वे मान न पा सकें।।
रखें जरा भी फर्क, कथनी-करनी में नहीं।
करिए नहीं कुतर्क, तर्क सम्मत सब मानें।।
६-२-२०२३
•••
सॉनेट
लता
लता ताल की मुरझ सूखती।
काल कलानिधि लूट ले गया।
साथ सुरों का छूट ही गया।।
रस धारा हो विकल कलपती।।
लय हो विलय, मलय हो चुप है।
गति-यति थमकर रुद्ध हुई है।
सुमिर सुमिर सुधि शुद्ध हुई है।।
अब गत आगत तव पग-नत है।।
शारदसुता शारदापुर जा।
शारद से आशीष रही पा।
शारद माँ को खूब रहीं भा।।
हुआ न होगा तुमसा कोई।
गीत सिसकते, ग़ज़लें रोई।
खोकर लता मौसिकी खोई।।
६-२-२०२२
•••
सॉनेट
सावित्री
सावित्री जीती या हारी?
काल कहे क्या?, शीश झुकाए।
सत्यवान को छोड़ न पाए।।
नियति विवशता की बलिहारी।।
प्रेम लगन निस्वार्थ समर्पण।
प्रिय पर खुद को वार दिया था।
निज इच्छा को मार दिया था।।
किया कामनाओं का तर्पण।।
श्वास श्वास के संग गुँथी थी।
आस आस के साथ बँधी थी।
धड़कन जैसे साथ नथी थी।।
अब प्रिय तुममें समा गए हैं।
जग को लगता बिला गए हैं।
तुम्हें पता दो, एक हुए हैं।।
•••
प्रिय बहिन डॉक्टर नीलमणि दुबे प्राण प्रण से तीन दशकीय सेवा करने के बाद भी, अपने सर्वस्व जीवनसाथी को बचा नहीं सकीं। जीवन का पल पल जीवनसाथी के प्रति समर्पित कर सावित्री को जीवन में उतारकर काल को रोके रखा। कल सायंकाल डॉक्टर दुबे नश्वर तन छोड़कर नीलमणि जी से एकाकार हो गए।
मेरा, मेरे परिवार और अभियान परिवार के शत शत प्रणाम।
ओ क्षणभंगुर भव राम राम
***
कृति चर्चा :
एक सूरज मेरे अंदर : भावनाओं का समंदर
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण : एक सूरज मेरे अंदर, कविता संग्रह, लक्ष्मी शर्मा, प्रथम संस्करण २००४, ISBN ८१-८१२९-९२५-९, अकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, नमन प्रकाशन नई दिल्ली ]
*
मनुष्य संवेदनशील एवं चेतना सम्पन्न प्राणी है। मनुष्य का मन प्रकृति में हो रहे परिवर्तनों से भाव ग्रहण कर, आस-पास होने वाले दु:ख-सुख, आशा-निराशा, प्रेम-घृणा, दया-क्रोध से संवेदित होता है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने की प्रवृत्ति सृजन, संचय एवं संवर्द्धन द्वारा साहित्य बनती है। साहित्य का एक अंग कविता है। सुख-दु:ख की भावावेशमयी लयात्मक रचना कविता है। काव्य वह वाक्य रचना है जिससे चित्त किसी रस या मनोवेग से पूर्ण हो अर्थात् वह जिसमें चुने हुए शब्दों के द्वारा कल्पना और मनोवेगों का प्रभाव डाला जाता है। रस गंगाधर में 'रमणीय' अर्थ के प्रतिपादक शब्दों को 'काव्य' कहा गया है। आचार्य कुन्तक ने ‘वक्रोक्ति काव्यजीवितम्’ कहकर कविता को परिभाषित किया है। आचार्य वामन ने रीतिरात्मा काव्यस्य’ रीति के अनुसार रचना को काव्य कहा है। आचार्य विश्वनाथ के अनुसार ‘वाक्यम् रसात्मकम् काव्यम्’ अर्थात् रस युक्त वाक्य ही काव्य है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मत में “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, हृदय की इसी मुक्ति साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते है।” मैथ्यू आर्नोल्ड के विचार में- “कविता के मूल में जीवन की आलोचना है।” शैले का मत है “कविता कल्पना की अभिव्यक्ति है।”
एक सूरज मेरे अंदर की कविताएँ भाव प्रधान कवयित्री की हृदयगत अनुभूतियाँ हैं। लक्ष्मी शर्मा जी ने कविता के माध्यम से यथार्थ और कल्पना का सम्यक सम्मिश्रण किया है। उनकी काव्य रचनाएँ छंद पर कथ्य को वरीयता देती हैं। वे समकालिक विसंगतियों और विडंबनाओं से आँखें चार करते हुए प्रश्न करती हैं-
हमने तो गाये थे /गीत प्यार के
नफरत और दुश्मननी के / राग कोई क्यों / आलाप रहा ?
कविता और प्रकृति का साथ चोली-दामन का सा है। कविता में मानविकीकरण मनुष्य के प्रकृति-पुत्र को जगाता है। कवयित्री नदी में अपने आप को रूपांतरित कर नदी की व्यथा-कथा की साक्षी बनती है-
मैं एक नदी हूँ / जब से जन्मी हों / लगातार बाह रही हूँ।
और बहना और बहते रहना / ताकत है मेरी / नियति है मेरी।
'राष्ट्र के आव्हान पर' शीर्षक कविता में सीमा की और जाते हुए सैनिक के मनोभावों का सटीक शब्दांकन है। 'सीमा पर जाते हुए' कविता सैनिक को देखकर देशवासी के मन में उठ रही भावनाओं से लबरेज है। काश होती मैं, आत्म विस्तार, सलाखें, लीक पर चलते हुए, गैस त्रासदी, अडिग आस्था, साथ देते जो मेरा, आतंकवाद, चुनाव आदि रचनाएँ समसामयिक परिवेश और जीवन के विविध प्रसंगों के ताने-बाने बुनते हुए सकारात्मक दृष्टिकोण को सामने रखती हैं।
'गांधारी' कविता में कवयित्री ने एक पौराणिक चरित्र पर प्रश्न उठाये हैं। महाभारत की विभीषिका के लिए गांधारी को जिम्मेदार मानते हुए कवयित्री, नेत्रहीन पति के नेत्र बनने के स्थान पर नेत्रों पर पाती बाँध कर स्वयं भी नेत्रहीनता की स्थिति आमंत्रित करनेवाली गांधारी की लाचारी और कौरवों के दुष्कृत्यों के अन्योन्याश्रित मानती है। उसका मत है की गांधारी खली आँखों देख पाती तो चीरहरण और उसके कारण हुआ युद्ध, न होता।
कितना दयनीय होता है / जो स्वयं दूसरे के / आश्रित हो जाता है
अपनी तीक्ष्ण आँखों से / उस साम्राज्य की / नींव को हिलते देख पातीं
तो सही और गलत का निर्णय ले सकती थीं।
इस संकलन में कवयित्री के विदेश प्रवास से संबंधित कविताएँ उनकी भाव प्रवणता और संवेदनशीलता की बानगी हैं। न्यूयार्क से शारलेट जाते हुए, लॉस बेगास, न्यूयार्क का समुद्री तट 'जॉन्स' आदि रचनाओं में उन स्थानों/स्थलों का मनोरम वर्ण पाठक को आनंदित करता और उन्हें देखने की उत्सुकता जगाता है।
अंतिम रचना 'जो नहीं बदला में' 'कम लिखे से अधिक समझना' की परंपरा का पालन है -
परिवर्तनशील युग में
गतिशील समय में
जो कुछ नहीं बदला
वह है
ईर्ष्या, द्वेष, दुश्मनी
अत्याचार, सामूहिक हत्याएँ
जो युगों युगों से चला आ रहा है
शासन और शोषण
देश बदल गए, शासक बदल गए
पर बेईमानी नहीं बदली
गरीब की गरीबी नहीं बदली।
एक सूरज मेरे अंतर की ये कविताएँ कवयित्री की कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा को उद्घाटित कर उन्हें पाठक पंचायत में सशक्त हस्ताक्षर के रूप में स्थापित करती हैं।
***
***
गीत
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
याद जब आये तुम्हारी, सुरभि-गंधित सुमन-क्यारी.
बने मुझको हौसला दे, क्षुब्ध मन को घोंसला दे.
निराशा में नवाशा की, फसल बोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
हार का अवसाद हरकर, दे उठा उल्लास भरकर.
बाँह थामे दे सहारा, लगे मंजिल ने पुकारा.
कहे- अवसर सुनहरा, मुझको न खोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में, और होना चाहिए...
*
उषा की लाली में तुमको, चाय की प्याली में तुमको.
देख पाऊँ, लेख पाऊँ, दुपहरी में रेख पाऊँ.
स्वेद की हर बूँद में, टोना सा होना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
साँझ के चुप झुटपुटे में, निशा के तम अटपटे में.
पाऊँ यदि एकांत के पल, सुनूँ तेरा हास कलकल.
याद प्रति पल करूँ पर, किंचित न रोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
*
जहाँ तुमको सुमिर पाऊँ, मौन रह तव गीत गाऊँ.
आरती सुधि की उतारूँ, ह्रदय से तुमको गुहारूँ.
स्वप्न में हेरूँ तुम्हें वह नींद सोना चाहिए.
एक कोना कहीं घर में और होना चाहिए...
***
गीतिका
तितलियाँ
*
यादों की बारात तितलियाँ.
कुदरत की सौगात तितलियाँ..
बिरले जिनके कद्रदान हैं.
दर्द भरे नग्मात तितलियाँ..
नाच रहीं हैं ये बिटियों सी
शोख-जवां ज़ज्बात तितलियाँ..
बद से बदतर होते जाते.
जो, हैं वे हालात तितलियाँ..
कली-कली का रस लेती पर
करें न धोखा-घात तितलियाँ..
हिल-मिल रहतीं नहीं जानतीं
क्या हैं शाह औ' मात तितलियाँ..

'सलिल' भरोसा कर ले इन पर
हुईं न आदम-जात तितलियाँ..
६-२-२०२१
***
कुण्डलिया
जगवाणी हिंदी नमन, नम न मातु कर नैन
न मन सुतों की जिह्वा है, आंग्ल हेतु बेचैन
आंग्ल हेतु बेचैन, नहीं जो तुझे चाहते
निज भविष्य को मातु, आप हो भ्रमित दाहते
ममी डैड सुन कुपित, न वर दें वीणापाणी
नमन मातु शत बार, उर बसो हे जगवाणी
*
६-२-२०२०
***
कवि और कविताई
बेकल बे-कल लिख रहे, कल पर पल-पल शेर।
आज कहे कल का पता, किसे? न कर अंधेर।। -संजीव
शायर तो है जोतिसी, शायर तो है बैद
जिसको न कोई कर सका, तूं करता है क़ैद ? - प्रमोद बेरियां
तू-तेरी औकात करता? करता काल सवाल।
कौन न जिसको लीलती, महाकाल की ज्वाल।। - संजीव
महाकाल की ज्वाल तो जलती ही रहती है
शायर की है राह,नहीं,नहीं,रुकती है ! - प्रमोद बेरियां
माया भरमाती बहुत, कहे न रुकती राह।
राही का थमता सफर, काल अग्नि दें दाह।। - संजीव
दाह की जलन से जो रुक जाते हैं, राही नहीं,वे रास्ते हो जाते हैं।
वे नहीं चलते हैं अपने पैरों पर, पैरों के मोहताज होते जाते हैं।। - प्रमोद बेरियां
अपनी-अपनी सोच है, अपनी-अपनी चाह।
कोई पाता वाह है, कोई भरता आह।।
तैरा एक अथाह में, दूजा लेकर थाह।
यह डूबा वह पार हो, गहिए सही सलाह।। - संजीव
***
सोरठे
दिल मिल हुआ गुलाल, हाथ मिला, ऑंखें मिलीं।
अनगिन किए सवाल, फूल-शूल से धूल ने।।
*
खूब लिख रहे छंद, चैन बिना बेचैन जी।
कल न कला स्वच्छंद , कलाकंद आनंद दे।।
६-२-२०१८
***
दस मात्रिक छंद
१. पदादि यगण
सुनो हे धनन्जय!
हुआ है न यह जग
किसी का कभी भी।
तुम्हारा, न मेरा
करो मोह क्यों तुम?
तजो मोह तत्क्षण।
न रिश्ते, न नाते
हमेशा सुहाते।
उठाओ धनुष फिर
चढ़ा तीर मारो।
मरे हैं सभी वे
यहाँ हैं खड़े जो
उठो हे परन्तप!
*
२. पदादि मगण
सूनी चौपालें
सूना है पनघट
सूना है नुक्कड़
जैसे हो मरघट
पूछें तो किससे?
बूझें तो कैसे?
बोया है जैसा
काटेंगे वैसा
नाते ना पाले
चाहा है पैसा
*
३. पदादि तगण
चाहा न सायास
पाया अनायास
कैसे मिले श्वास?
कैसे मिले वास?
खोया कहाँ नेह?
खोया कहाँ हास?
बाकी रहा द्वेष
बाकी रहा त्रास
होगा न खग्रास
टूटी नहीं आस
ऊगी हरी घास
भौंरा-कली-रास
होता सुखाभास
मौका यही ख़ास
*
४. पदादि रगण
वायवी सियासत
शेष ना सिया-सत
वायदे भुलाकर
दे रहे नसीहत
हो रही प्रजा की
व्यर्थ ही फजीहत
कुद्ध हो रही है
रोकिए न, कुदरत
फेंकिए न जुमले
हो नहीं बगावत
भूलिए अदावत
बेच दे अदालत
कुश्तियाँ न असली
है छिपी सखावत
*
५. पदादि जगण
नसीब है अपना
सलीब का मिलना
न भोर में उगना
न साँझ में ढलना
हमें बदलना है
न काम का नपना
भुला दिया जिसको
उसे न तू जपना
हुआ वही सूरज
जिसे पड़ा तपना
नहीं 'सलिल' रुकना
तुझे सदा बहना
न स्नेह तज देना
न द्वेष को तहना
*
६. पदादि भगण
बोकर काट फसल
हो तब ख़ुशी प्रबल
भूल न जाना जड़
हो तब नयी नसल
पैर तले चीटी
नाहक तू न मसल
रूप नहीं शाश्वत
चाह न पाल, न ढल
रूह न मरती है
देह रही है छल
तू न 'सलिल' रुकना
निर्मल देह नवल
*
७. पदादि नगण
कलकल बहता जल
श्रमित न आज न कल
रवि उगता देखे
दिनकर-छवि लेखे
दिन भर तपता है
हँसकर संझा ढल
रहता है अविचल
रहता चुप अविकल
कलकल बहता जल
नभचर नित गाते
तनिक न अलसाते
चुगकर जो लाते
सुत-सुता-खिलाते
कल क्या? कब सोचें?
कलरव कर हर पल
कलरव सुन हर पल
कलकल बहता जल
नर न कभी रुकता
कह न सही झुकता
निज मन को ठगता
विवश अंत-चुकता
समय सदय हो तो
समझ रहा निज बल
समझ रहा निर्बल
कलकल बहता जल
*
८. पदादि सगण
चल पंछी उड़ जा
जब आये तूफां
जब पानी बरसे
मत नादानी कर
मत यूँ तू अड़ जा
पहचाने अवसर
फिर जाने क्षमता
जिद ठाने क्यों तू?
झट पीछे मुड़ जा
तज दे मत धीरज
निकलेगा सूरज
वरने निज मंजिल
चटपट हँस बढ़ जा
***
***
सामयिक गीत :
*
हम न चलने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश चलाना
*
हम जो जी चाहें करें
कोई न सकता रोक
पग-पग पर टोंकें तुम्हें
कोई न सकता टोंक
तुमसेइज्जत चाहते
तुम्हें भाड़ में झोंक
हम न निभाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा साथ निभाना
*
बढ़ा रहे तुम हाथ या
झुका रहे हो माथ
वादा कर कर भुलाएँ
कभी न देंगे साथ
तुम बोलोगे 'पथ' अगर
हम बोलेंगे 'पाथ'
हम न बनाने देंगे
लेकिन काम तुम्हारा राह बनाना
*
सीधी होती है कभी
क्या कुत्ते की दुम?
क्या नादां यह मानता
अकल हुई है गुम?
हमें शत्रु से भी बड़े
शत्रु लग रह तुम
हम न उठाने देंगे
लेकिन
काम तुम्हारा देश उठाना
***
६-२-२०१६
***
बाल गीत:
"कितने अच्छे लगते हो तुम "
*
कितने अच्छे लगते हो तुम |
बिना जगाये जगते हो तुम ||
नहीं किसी को ठगते हो तुम |
सदा प्रेम में पगते हो तुम ||
दाना-चुग्गा मंगते हो तुम |
चूँ-चूँ-चूँ-चूँ चुगते हो तुम ||
आलस कैसे तजते हो तुम?
क्या प्रभु को भी भजते हो तुम?
चिड़िया माँ पा नचते हो तुम |
बिल्ली से डर बचते हो तुम ||
क्या माला भी जपते हो तुम?
शीत लगे तो कँपते हो तुम?
सुना न मैंने हँसते हो तुम |
चूजे भाई! रुचते हो तुम |
***
अभिनव प्रयोग-
उल्लाला मुक्तक:
*
उल्लाला है लहर सा,
किसी उनींदे शहर सा.
खुद को खुद दोहरा रहा-
दोपहरी के प्रहर सा.
*
झरते पीपल पात सा,
श्वेत कुमुदनी गात सा.
उल्लाला मन मोहता-
शरतचंद्र मय रात सा..
*
दीप तले अँधियार है,
ज्यों असार संसार है.
कोशिश प्रबल प्रहार है-
दीपशिखा उजियार है..
*
मौसम करवट बदलता,
ज्यों गुमसुम दिल मचलता.
प्रेमी की आहट सुने -
चुप प्रेयसी की विकलता..
*
दिल ने करी गुहार है,
दिल ने सुनी पुकार है.
दिल पर दिलकश वार या-
दिलवर की मनुहार है..
*
शीत सिसकती जा रही,
ग्रीष्म ठिठकती आ रही.
मन ही मन में नवोढ़ा-
संक्रांति कुछ गा रही..
*
श्वास-आस रसधार है,
हर प्रयास गुंजार है.
भ्रमरों की गुन्जार पर-
तितली हुई निसार है..
*
रचा पाँव में आलता,
कर-मेंहदी पूछे पता.
नाम लिखा छलिया हुआ-
कहो कहाँ-क्यों लापता?
*
वह प्रभु तारणहार है,
उस पर जग बलिहार है.
वह थामे पतवार है.
करता भव से पार है..
६-२-२०१३
***
नवगीत / भजन:
*
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
आशा-पंछी चहक रहा है.
सुमन सुरभि ले महक रहा है..
समय बीतते समय न लगता.
कदम रोक, क्यों बहक रहा है?
संयम पहरेदार सो रहा-
सुविधा चतुरा चोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
साँसों का चरखा तक-धिन-धिन.
आसों का धागा बुन पल-छिन..
ताना-बाना, कथनी-करनी-
बना नमूना खाने गिन-गिन.
ज्यों की त्यों उजली चादर ले-
मन पतंग, तन डोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
*
रीते हाथों देख रहा जग.
अदना मुझको लेख रहा जग..
मन का मालिक, रब का चाकर.
शून्य भले अव्रेख रहा जग..
उषा उमंगों की लाली संग-
संध्या कज्जल-कोर हो गयी.
जाग जुलाहे!
भोर हो गई
***
नवगीत:
*
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
आँखें रहते
सूर हो गए.
क्यों हम खुद से
दूर हो गए?
हटा दिए जब
सभी आवरण
तब धरती के
नूर हो गए.
रोक न पाया
कोई पहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
भूत-अभूत
पूर्व की वर्चा.
भूल करें हम
अब की अर्चा.
चर्चा रोकें
निराधार सब.
हो न निरुपयोगी
कुछ खर्चा.
मलिन हुआ जल
जब भी ठहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
कथनी-करनी में
न भेद हो.
जब गलती हो
तुरत खेद हो.
लक्ष्य देवता के
पूजन हित-
अर्पित अपना
सतत स्वेद हो.
उथलापन तज
हो मन गहरा.
हर चहरे पर
नकली चहरा...
*
***
नवगीत:
*
काया माटी,
माया माटी,
माटी में-
मिलना परिपाटी...
*
बजा रहे
ढोलक-शहनाई,
होरी, कजरी,
फागें, राई,
सोहर गाते
उमर बिताई.
इमली कभी
चटाई-चाटी...
*
आडम्बर करना
मन भाया.
खुद को खुद से
खुदी छिपाया.
पाया-खोया,
खोया-पाया.
जब भी दूरी
पाई-पाटी...
*
मौज मनाना,
अपना सपना.
नहीं सुहाया
कोई नपना.
निजी हितों की
माला जपना.
'सलिल' न दांतों
रोटी काटी...
*
चाह बहुत पर
राह नहीं है.
डाह बहुत पर
वाह नहीं है.
पर पीड़ा लख
आह नहीं है.
देख सचाई
छाती फाटी...
*
मैं-तुम मिटकर
हम हो पाते.
खुशियाँ मिलतीं
गम खो जाते.
बिन मतलब भी
पलते नाते.
छाया लम्बी
काया नाटी...
***
सामयिक दोहे
रश्मि रथी की रश्मि के, दर्शन कर जग धन्य.
तुम्हीं चन्द्र की ज्योत्सना, सचमुच दिव्य अनन्य..
राज सियारों का हुआ, सिंह का मिटा भविष्य.
लोकतंत्र के यज्ञ में, काबिल हुआ हविष्य..
कहता है इतिहास यह, राक्षस थे बलवान.
जिसने उनको मिटाया, वे सब थे इंसान..
इस राक्षस राठोडड़ का होगा सत्यानाश.
साक्षी होंगे आप-हम, धरती जल आकाश..
नारायण के नाम पर, सचमुच लगा कलंक.
मैली चादर हो गई, चुभा कुयश का डंक..
फँसे वासना पंक में, श्री नारायण दत्त.
जैसे मरने जा रहा, कीचड़ में गज मत्त.
कीचड़ में गज मत्त, लाज क्यों इन्हें न आयी.
कभी उठाई थी चप्पल. अब चप्पल खाई..
***
: सामयिक गीत :
बिक रहा ईमान है
*
कौन कहता है कि...
मँहगाई अधिक है?
बहुत सस्ता
बिक रहा ईमान है.
जहाँ जाओगे
सहज ही देख लोगे.
बिक रहा
बेदाम ही इंसान है.
कहो जनमत का
यहाँ कुछ मोल है?
नहीं, देखो जहाँ
भारी पोल है.
कर रहा है न्याय
अंधा ले तराजू.
व्यवस्था में हर कहीं
बस झोल है
आँख का आँसू,
हृदय की भावनाएँ.
हौसला अरमान सपने
समर्पण की कामनाएँ.
देश-भक्ति, त्याग को
किस मोल लोगे?
कहो इबादत को
कैसे तौल लोगे?
आँख के आँसू,
हया लज्जा शरम.
मुफ्त बिकते
कहो सच है या भरम?
क्या कभी इससे सस्ते
बिक़े होंगे मूल्य
बिक रहे हैं
आज जो निर्मूल्य?
मौन हो अर्थात
सहमत बात से हो.
मान लेता हूँ कि
आदम जात से हो.
जात औ' औकात निज
बिकने न देना.
मुनाफाखोरों को
अब टिकने न देना.
भाव जिनके अधिक हैं
उनको घटाओ.
और जो बेभाव हैं
उनको बढ़ाओ.
***
नवगीत
चले श्वास-चौसर पर...
आसों का शकुनी नित दाँव.
मौन रो रही कोयल,
कागा हँसकर बोले काँव...
*
संबंधों को अनुबंधों ने
बना दिया बाज़ार.
प्रतिबंधों के धंधों के
आगे दुनिया लाचार.
कामनाओं ने भावनाओं को
करा दिया नीलम.
बद को अच्छा माने दुनिया
कहे बुरा बदनाम.
ठंडक देती धूप
तप रही बेहद कबसे छाँव...
*
सद्भावों की सती नहीं है,
राजनीति रथ्या.
हरिश्चंद्र ने त्याग सत्य
चुन लिया असत मिथ्या.
सत्ता शूर्पनखा हित लड़ते.
हाय! लक्ष्मण-राम.
खुद अपने दुश्मन बन बैठे
कहें विधाता वाम.
भूखे मरने शहर जा रहे
नित ही अपने गाँव...
*
'सलिल' समय पर
न्याय न मिलता,
देर करे अंधेर.
मार-मारकर बाज खा रहे
कुर्सी बैठ बटेर.
बेच रहे निष्ठाएँ अपनी
पल में लेकर दाम.
और कह रहे हैं संसद में
'भला करेंगे राम.'
अपने हाथों तोड़-खोजते
कहाँ खो गया ठाँव?...
***
खबरदार कविता
राज को पाती:
भारतीय सब एक हैं, राज कौन है गैर?
महाराष्ट्र क्यों राष्ट्र की, नहीं चाहता खैर?
कौन पराया तू बता?, और सगा है कौन?
राज हुआ नाराज क्यों ख़ुद से?रह अब मौन.
उत्तर-दक्षिण शीश-पग, पूरब-पश्चिम हाथ.
ह्रदय मध्य में ले बसा, सब हों तेरे साथ.
भारत माता कह रही, सबका बन तू मीत.
तज कुरीत, सबको बना अपना, दिल ले जीत.
सच्चा राजा वह करे जो हर दिल पर राज.
‘सलिल’ तभी चरणों झुकें, उसके सारे ताज.
६-२-२०१०

शनिवार, 27 जनवरी 2024

हरियाणवी, हाइकु, सोरठा, चित्रगुप्त, सरस्वती, ग्वारीघाट, पुनीत छंद, रोला, नवगीत

हरियाणवी हाइकु
*
लिक्खण बैठ्या
हरियाणवी कविता
कग्गज कोरा।१।
*
अकड़ कोन्या
बैरी बुढ़ापा आग्या
छाती तान के।२।
*
भला हकीम
आक करेला नीम
कड़वा घणा।३।
*
रै बेइमान!
छुआछूत कर्‌या
सब हैं एक।४।
*
सबतै ऊँच्चा
जीवन मैं अपने
दर्जा गुरु का।५।
*
हँसी गौरैया
किलकारी मारकै
मनी बैसाखी।६।
*
चैन की बंसी
दुनिया को चुभती
चाट्टी चिन्ता नै।७।
*
सुपणा पूरा
जीत ल्याई मैडल
गाम की लाड़ो।८।
*
देश नै नेता
खसोटन लाग्या हे
रब बचाए।९।
*
जीत कै जंग
सबनै चुनरिया
करती दंग।१०।
*
घर म्हं घर
खतरा चिड़िया नै
तोड़ पिंजरा।११।
*
भुक्खा किसान
मरणा हे लड़कै
नहीं झुककै।१२।
***
हिंदी हाइकु
*
याद ही याद
पोर-पोर समाई
स्वाद ही स्वाद।१।
*
सरिता बहे
अनकहनी कहे
कोई न सुने।२।
*
रीता है कोष
कम नहीं है जोश
यही संतोष।३।
*
जग नादान
नाहक भटकता
बने जिज्ञासु।४।
*
नहीं गैर से
खतराही खतरा
अपनों ही से।५।
*
नहीं हराना
मुझे किसी को कभी
यही जीत है।६।
*
करती जंग
बुराईयों से बिंदी
दुनिया दंग।७।
*
धूप का रूप
अनुपम अनूप
मिस इण्डिया।८।
***
सोरठा सलिला
*
लख वसुधा सिंगार, महुआ मुग्ध महक रहा।
किंशुक हो अंगार, दग्ध हृदय कर झट दहा।।
वेणी लाया साथ, मस्त मोगरा पान भी।
थाम चमेली हाथ, झूम कर रहा ठिठोली।।
रंग कुसुंबी डाल, राधा जू ने भिगाया।
मलकर लाल गुलाल, बनवारी ने खिझाया।।
रीझ नैन पर नैन, मिले झुके उठ मिल लड़े।
चारों हो बेचैन, दोनों में दोनों धँसे।।
दिल ने दिल का हाल, बिना कहे ही कह दिया।
दिलवर हुआ निहाल, कहा दिलरुबा ने पिया।।
२७-१-२०२३
चित्रगुप्त जी का न्याय
एक घोर पापी चोर,जुआरी, शराबी, व्यसनी मनुष्य ने जीवन में एक भी पुण्य न कर र पाप ही पाप किए।
एक दिन उसने महारानी की सवारी बाजार से निकलते देखी और महारानी के सिर पर सजी हुई मोगरे के फूलों की वेणी (माला) देखते ही उसे चुराकर अपनी प्रेयसी को उपहार स्वरूप देने का विचार किया। सैनिकों को छकाते हुए बहुत चतुराई से उसने महारानी के सिर से वह वेणी निकाली और लेकर सरपट अपनी प्रेयसी के पास भागा।
उसे वेणी चुराकर भागता देख महारानी के रक्षक सैनिक उसे पकड़ने के लिए दौड़े। चोर व्यसनी था, उसका शरीर भागते-भागते शीघ्र ही थक-चुक गया और वह एक पत्थर से ठोकर खाकर गिर पड़ा। संयोग से वह एक चबूतरे पर स्थापित शिवलिंग के निकट गिरा। चाहकर भी वह उठ नहीं पा रहा था, भागता कैसे? उसे पकड़ने के लिए पल-पल समीप आ रहे राजा के सैनिक उसे यमदूतों की तरह लग रहे थे। चोर के मुँह से निकला- "अब तो मरना है ही! ले तू ही पहन ले इसे!" उसने वेणी शिवलिंग को पहना दी और उसके प्राण पखेरू उड़ गए।
मरते ही उसे चित्रगुप्त जी के दरबार में लाया गया। यमराज बोले- "प्रभु! इस जीव ने जीवन में एक भी पुण्य नहीं किया। इसका पूरा जीवन पापमय आचरण करते हुए व्यतीत हुआ है, इसे सौ कल्प तक नरक-वास करने का दंड दीजिए।
चित्रगुप्त जी ने उसके कर्मों का सूक्ष्म विचारण कर कहा- 'इसने मृत्यु से ठीक पहले अंत समय में शंकर भगवान को निस्वार्थ भाव से वेणी अर्पित की और उन्हीं को स्मरण कर प्राण तजे इसलिए यह एक मुहूर्त के लिए इंद्रपद का अधिकारी है। "
यह सुनते ही यमराज ने चोर से पूछा कि वह नरक भोगकर एक मुहूर्त स्वर्ग का शासन करेगा या पहले स्वर्ग का राजा बनकर नरक में यातना झेलेगा?
चोर ने सोचा कि पहले स्वर्ग के आनंद ले लेना चाहिए बाद में तो नरक की अग्नि में जलना ही है। इंद्रदेव को यह सुचना मिली तो उन्होंने उस चोर को अपशब्द कहते हुए उसे इन्द्रासन के अयोग्य बताया पर देवाधिदेव श्री चित्रगुप्त के न्यायादेश का पालन करनी ही पड़ा। उस चोर को इंद्र के स्थान पर एक मुहूर्त के लिए स्वर्ग के सिंहासन पर बैठा दिया गया।
इंद्रदेव दवरा किए गए अपमान से क्षुब्ध चोर ने इंद्रासन पर बैठते ही सोचा कि स्वर्ग का खजाना खाली कर इंद्र से अपमान का बदला लेना है।उसने विनम्रतापूर्वक देवगुरु बृहस्पति से पूछा- "गुरुदेव! मैंने मरने से पहले जिसको माला पहनाई थी… क्या नाम था उसका… शिव! मैं स्वर्ग की समस्त संपदा शिव को दान देना है। आप साक्षी के रूप में ऋषि-महर्षियों को बुलवाइए।"
इंद्रासन पर आसीन देवराज के आदेश का पालन अनिवार्य था। चोर एक मुहूर्त के लिए ही सही पर था तो इंद्र ही। सप्तऋषि, नारद जी तथा अन्य ऋषिगण आ गए तो इस चोर ने जो अभी इंद्र था उसने दान आरंभ किया। गुरु बृहस्पति ने उसके हाथ में जल दिया और उसने स्वर्ग की सब संपदा, कामधेनु, कल्पवृक्ष, ऐरावत हाथी, वज्र आदि शिव को दान दे दी।
एक मुहूर्त पूरा होते ही यमदूत उसे नरक ले जाने आ गए। तभी शिव जी के पार्षदों ने यमदूतों को उसे नरक ले जाने से रोक दिया कि निष्काम भाव से स्वर्ग-संपदा शिव जी को दान देने के कारण उसके करोड़ों पाप वैसे ही भस्म हो गए है जैसे अग्नि में काष्ठ।
शिवदूतों और यमदूतों में संघर्ष की स्थिति बनने के पहले ही स्वयं श्रीमन्नारायण भगवान प्रगट हुए और बोले: "बेटा तुमने शिव जी को दान दिया पर मुझ शिवभक्त को भूल गए? अब अगले जन्म में मैं स्वयं तुमसे दान लेने आऊँगा।
अगले जान में चोर महाराज बलि हुआ और उससे उसकी स्वर्ग सदृश्य संपदा तीन पग में विष्णु जी ने दान में ले ली। कर्मेश्वर चित्रगुप्त जी के न्याय विधान को यम ही नहीं विष्णु जी और शिव जी ने भी मान्यता दी।
***
शारदे माँ!
तार दे माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ।।
*
करो छाया, हरो माया,
साधना कर सके काया।।
वंदना कर, प्रार्थना कर,
अर्चना कर सिर नवाया।।
भाव सुमन बटोर लाया
हँस इन्हें स्वीकार ले माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ
शारदे माँ!
तार दे माँ!
*
मति पुनीता, हो विनीता,
साम गाए, बाँच गीता।।
कथ्य रस लय भाव अर्पित
अर्चना कर सिर नवाया।।
शब्द-सुमन बटोर लाया
हँस इन्हें स्वीकार ले माँ!
मन विकल है
प्यार दे माँ
शारदे माँ!
तार दे माँ!
*
रच ऋचाएँ साम गाऊँ,
तुझे मन में बसा पाऊँ।
बहुत भूला, बहुत भटका
अब तुम्हीं में मैं समाऊँ।।
सत्य-शिव-सुंदर रचा माँ
भव तरूँ, पतवार दे माँ!
शारदे माँ!
तार दे माँ!
२७-१-२०२१
***
ग्वारीघाट जबलपुर की एक शाम
*
लल्ला-लल्ली रोए मचले हमें घूमना मेला
लालू-लाली ने यह झंझट बहुत देर तक झेला
डाँटा-डपटा बस न चला तो दोनों करें विचार
होटल या बाजार गए तो चपत लगेगी भारी
खाली जेब मुसीबत होगी मँहगी चीजें सारी
खर्चा कम, मन बहले ज्यादा, ऐसा करो उपाय
चलो नर्मदा तीर नहाएँ-घूमें, है सदुपाय
शिव पूजें पाएँ प्रसाद सूर्योदय देखें सुंदर
बच्चों का मन बहलेगा जब दिख जाएँगे बंदर
स्कूटर पर चारों बैठे मानो हो वह कार
ग्वारीघाट पहुँचकर ऊषा करे सिंगार
नभ पर बैठी माथे पर सूरज का बेंदा चमके
बिंब मनोहर बना नदी में, हीरे जैसा दमके
चहल-पहल थी खूब घाट पर घूम रहे नारी-नर
नहा रहे जो वे गुंजाएँ बम भोले नर्मद हर
पंडे करा रहे थे पूजा, माँग दक्षिणा भारी
पाप-पुण्य का भय दिखलाकर चला चढ़ोत्री आरी
जाने क्या-क्या मंत्र पढ़ें फिर मस्तक मलते चंदन
नरियल चना चिरौंजीदाने पंडित देता गिन गिन
घूम थके भूखे हो बच्चे पैर पटककर बोले
अब तो चला नहीं जाता, कैसे बोलें बम भोले
लालू लाया सेव जलेबी सबने भोग लगाया
नौकायन कर मौज मनाई नर्मदाष्टक गाया
२७-१-२०२०
***
कार्यशाला
*
ऐसे सच्चे मित्र हैं, जीवन निधि अनमोल
घावों पर मरहम सरिस, होके उनके बोल - अनिल अनवर
होते उनके बोल, अमिय सम नवजीवन दें
मृदुला विमला नेह नर्मदा बन मधुवन दें
मिले गुलाबों से हमें जैसे परिमल इत्र
वैसे सही विमर्श दें, ऐसे सच्चे मित्र - संजीव
***
मुक्तिका:
रात
( तैथिक जातीय पुनीत छंद ४-४-४-३, चरणान्त sssl)
.
चुपके-चुपके आयी रात
सुबह-शाम को भायी रात
झरना नदिया लहरें धार
घाट किनारे काई रात
शरतचंद्र की पूनो है
'मावस की परछाईं रात
आसमान की कंठ लंगोट
चाहे कह लो टाई रात
पर्वत जंगल धरती तंग
कोहरा-पाला लाई रात
वर चंदा तारे बारात
हँस करती कुडमाई रात
दिन है हल्ला-गुल्ला-शोर
गुमसुम चुप तनहाई रात
२७-१-२०२०
छंद सलिला
दोहा
जैसे ही अनुभूति हो, कर अभिव्यक्ति तुरंत
दोहा-दर्पण में लखें, आत्म-चित्र कवि-संत
*
कुछ प्रवास, कुछ व्यस्तता, कुछ आलस की मार
चाह न हो पाता 'सलिल', सहभागी हर बार
*
सोरठा
बन जाते हैं काम, कोशिश करने से 'सलिल'
भला करेंगे राम, अनथक करो प्रयास नित
*
रोला
सब स्वार्थों के मीत, किसका कौन सगा यहाँ?
धोखा देते नित्य, मिलता है अवसर जहाँ
राजनीति विष बेल, बोकर-काटे ज़हर ही
कब देखे निज टेंट, कुर्सी ढाती कहर ही
*
काव्य छंद
सबसे प्यारा पूत, भाई जाए भाड़ में
छुरा दिया है भोंक, मजबूरी की आड़ में
नाम मुलायम किंतु सेंध लगाकर बाड़ में
खेत चराते आप, अपना बेसुध लाड़ में
*
द्विपदी
पत्थर से हर शहर में, मिलते मकां हजारों
मैं ढूँढ-ढूँढ हारा, घर एक नहीं मिलता
***
लौकिक जातीय सप्त मात्रिक छंद
१. पदांत यगण
तज बहाना
मन लगाना
सफल होना
लक्ष्य पाना
जो मिला है
हँस लुटाना
मुस्कुराना
खिलखिलाना
२. पदांत मगण
न भागेंगे
न दौड़ेंगे
करेंगे जो
न छोड़ेंगे
*
३. पदांत तगण
आओ मीत
गाओ गीत
नाता जोड़
पाओ प्रीत
*
४. पदांत रगण
पाया यहाँ
खोया यहाँ
बोया सदा
काटा यहाँ
*
कर आरती
खुश भारती
सन्तान को
हँस तारती
*
५. पदांत जगण
भारत देश
हँसे हमेश
लेकर जन्म
तरे सुरेश
*
६. पदांत भगण
चपल चंचल
हिरन-बादल
दौड़ते सुन
ढोल-मादल
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७. पदांत नगण
मीठे वचन
बोलो सजन
मूँदो न तुम
खोलो नयन
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८. पदांत सगण
सुगती छंद
सच-सच कहो
मत चुप रहो
जो सच दिखे
निर्भय कहो
२७-१-२०१७
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नवगीत
तुम कहीं भी हो
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तुम कहीं भी हो
तुम्हारे नाम का सजदा करूँगा
.
मिले मंदिर में लगाते भोग मुझको जब कभी तुम
पा प्रसादी यूँ लगा बतियाओगे मुझसे अभी तुम
पर पुजारी ने दिया तुमको सुला पट बंद करके
सोचते तुम रह गये
अब भक्त की विपदा हरूँगा
.
गया गुरुद्वारा मिला आदेश सर को ढांक ले रे!
सर झुका कर मूँद आँखें आत्म अपना आँक ले रे!
सबद ग्रंथी ने सुनाया पूर्णता को खंड करके
मिला हलुआ सोचता मैं
रह गया अमृत चखूँगा
.
सुन अजानें मस्जिदों के माइकों में जा तलाशा
छवि कहीं पाई न तेरी भरी दिल में तब हताशा
सुना फतवा 'कुफ्र है, यूँ खोजना काफिर न आ तू'
जा रहा हूँ सोचते यह
राह अपनी क्यों तजूँगा?
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बजा घंटा बुलाया गिरजा ने पहुंचा मैं लपक कर
माँग माफ़ी लूँ कहाँ गलती करी? सोचा अटककर
शमा बुझती देख तम को साथ ले आया निकलकर
चाँदनी को साथ ले,
बन चाँद, जग रौशन करूँगा
.
कोई उपवासी, प्रवासी कोई जप-तप कर रहा था
मारता था कोई खुद को बिना मारे मर रहा था
उठा गिरते को सम्हाला, पोंछ आँसू बढ़ चला जब
तब लगा है सार जग में
गीत गाकर मैं तरूँगा
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उल्लाला सलिला:
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(छंद विधान १३-१३, १३-१३, चरणान्त में यति, सम चरण सम तुकांत, पदांत एक गुरु या दो लघु)
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अभियंता निज सृष्टि रच, धारण करें तटस्थता।
भोग करें सब अनवरत, कैसी है भवितव्यता।।
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मुँह न मोड़ते फ़र्ज़ से, करें कर्म की साधना।
जगत देखता है नहीं अभियंता की भावना।।
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सूर सदृश शासन मुआ, करता अनदेखी सतत।
अभियंता योगी सदृश, कर्म करें निज अनवरत।।
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भोगवाद हो गया है, सब जनगण को साध्य जब।
यंत्री कैसे हरिश्चंद्र, हो जी सकता कहें अब??
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भृत्यों पर छापा पड़े, मिलें करोड़ों रुपये तो।
कुछ हजार वेतन मिले, अभियंता को क्यों कहें?
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नेता अफसर प्रेस भी, सदा भयादोहन करें।
गुंडे ठेकेदार तो, अभियंता क्यों ना डरें??
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समझौता जो ना करे, उसे तंग कर मारते।
यह कड़वी सच्चाई है, सरे आम दुत्कारते।।
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हर अभियंता विवश हो, समझौते कर रहा है।
बुरे काम का दाम दे, बिन मारे मर रहा है।।
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मिले निलम्बन-ट्रान्सफर, सख्ती से ले काम तो।
कोई न यंत्री का सगा, दोषारोपण सब करें।।
२७-१-२०१५
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कृति चर्चा:
मरुभूमि के लोकजीवन की जीवंत गाथा "खम्मा"
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[कृति विवरण: खम्मा, उपन्यास, अशोक जमनानी, आकार डिमाई, आवरण बहुरंगी सजिल्द, पृष्ठ १३७, मूल्य ३०० रु., श्री रंग प्रकाशन होशंगाबाद]
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राजस्थान की मरुभूमि से सन्नाटे को चीरकर दिगंत तक लोकजीवन की अनुभूतियों को अपने हृदवेधी स्वरों से पहुँचाते माँगणियारों के संघर्ष, लुप्त होती विरासत को बचाये रखने की जिजीविषा, छले जाने के बाद भी न छलने का जीवट जैसे जीवनमूल्यों पर केंद्रित "खम्मा" युवा तथा चर्चित उपन्यासकार अशोक जमनानी की पाँचवी कृति है. को अहम्, बूढ़ी डायरी, व्यासगादी तथा छपाक से हिंदी साहत्य जगत में परिचित ही नहीं प्रतिष्ठित भी हो चुके अशोक जमनानी खम्मा में माँगणियार बींझा के आत्म सम्मान, कलाप्रेम, अनगढ़ प्रतिभा, भटकाव, कलाकारों के पारस्परिक लगाव-सहयोग, तथाकथित सभ्य पर्यटकों द्वारा शोषण, पारिवारिक ताने-बाने और जमीन के प्रति समर्पण की सनातनता को शब्दांकित कर सके हैं.
"जो कलाकार की बनी लुगाई, उसने पूरी उम्र अकेले बिताई" जैसे संवाद के माध्यम से कथा-प्रवाह को संकेतित करता उपन्यासकार ढोला-मारू की धरती में अन्तर्व्याप्त कमायचे और खड़ताल के मंद्र सप्तकी स्वरों के साथ 'घणी खम्मा हुकुम' की परंपरा के आगे सर झुकाने से इंकार कर सर उठाकर जीने की ललक पालनेवाले कथानायक बींझा की तड़प का साक्षी बनता-बनाता है.
अकथ कहानी प्रेम की, किणसूं कही न जाय
गूंगा को सुपना भया, सुमर-सुमर पछताय
मोहब्बत की अकथ कहानी को शब्दों में पिरोते अशोक, राहुल सांकृत्यायन और विजय दान देथा के पाठकों गाम्भीर्य और गहनता की दुनिया से गति और विस्तार के आयाम में ले जाते हैं. उपन्यास के कथासूत्र में काव्य पंक्तियाँ गेंदे के हार में गुलाब पुष्पों की तरह गूँथी गयी हैं.
बेकलू (विकल रेत) की तरह अपने वज़ूद की वज़ह तलाशता बींझा अपने मित्र सूरज और अपनी संघर्षरत सुरंगी का सहारा पाकर अपने मधुर गायन से पर्यटकों को रिझाकर आजीविका कमाने की राह पर चल पड़ता है. पर्यटकों के साथ धन के सामानांतर उन्मुक्त अमर्यादित जीवनमूल्यों के तूफ़ान (क्रिस्टीना के मोहपाश में) बींझा का फँसना, क्रिस्टीना का अपने पति-बच्चों के पास लौटना, भींजा की पत्नी सोरठ द्वारा कुछ न कहेजाने पर भी बींझा की भटकन को जान जाना और उसे अनदेखा करते हुए भी क्षमा न कर कहना " आपने इन दिनों मुझे मारा नहीं पर घाव देते रहे… अब मेरी रूह सूख गयी है… आप कुछ भी कहो लेकिन मैं आपको माफ़ नहीं कर पा रही हूँ… क्यों माफ़ करूँ आपको?' यह स्वर नगरीय स्त्री विमर्श की मरीचिका से दूर ग्रामीण भारत के उस नारी का है जो अपने परिवार की धुरी है. इस सचेत नारी को पति द्वारा पीटेजाने पर भी उसके प्यार की अनुभूति होती है, उसे शिकायत तब होती है जब पति उसकी अनदेखी कर अन्य स्त्री के बाहुपाश में जाता है. तब भी वह अपने कर्तव्य की अनदेखी नहीं करती और गृहस्वामिनी बनी रहकर अंततः पति को अपने निकट आने के लिये विवश कर पाती है.
उपन्यास के घटनाक्रम में परिवेशानुसार राजस्थानी शब्दों, मुहावरों, उद्धरणों और काव्यांशों का बखूबी प्रयोग कथावस्तु को रोचकता ही नहीं पूर्णता भी प्रदान करता है किन्तु बींझा-सोरठ संवादों की शैली, लहजा और शब्द देशज न होकर शहरी होना खटकता है. सम्भवतः ऐसा पाठकों की सुविधा हेतु किया गया हो किन्तु इससे प्रसंगों की जीवंतता और स्वाभाविकता प्रभावित हुई है.
कथांत में सुखांती चलचित्र की तरह हुकुम का अपनी साली से विवाह, उनके बेटे सुरह का प्रेमिका प्राची की मृत्यु को भुलाकर प्रतीची से जुड़ना और बींझा को विदेश यात्रा का सुयोग पा जाना 'शो मस्त गो ऑन' या 'जीवन चलने का नाम' की उक्ति अनुसार तो ठीक है किन्तु पारम्परिक भारतीय जीवन मूल्यों के विपरीत है. विवाहयोग्य पुत्र के विवाह के पूर्व हुकुम द्वारा साली से विवाह अस्वाभाविक प्रतीत होता है.
सारतः, कथावस्तु, शिल्प, भाषा, शैली, कहन और चरित्र-चित्रण के निकष पर अशोक जमनानी की यह कृति पाठक को बाँधती है. राजस्थानी परिवेश और संस्कृति से अनभिज्ञ पाठक के लिये यह कृति औत्सुक्य का द्वार खोलती है तो जानकार के लिये स्मृतियों का दरीचा.... यह उपन्यास पाठक में अशोक के अगले उपन्यास की प्रतीक्षा करने का भाव भी जगाता है.
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कुण्डलिया
मंगलमय हो हर दिवस, प्रभु जी दे आशीष.
'सलिल'-धार निर्मल रखें, हों प्रसन्न जगदीश..
हों प्रसन्न जगदीश, न पानी बहे आँख से.
अधरों की मुस्कान न घटती अगर बाँट दें..
दंगल कर दें बंद, धरा से कटे न जंगल
मंगल क्यों जाएँ, भू का हम कर दें मंगल..
२७-१-२०१३
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