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रविवार, 8 जनवरी 2017

laghukatha

लघुकथा-
गुरु जी
*
मुझे आपसे बहुत कुछ सीखना है, क्या आप मुझे शिष्य बनाकर नहीं सिखायेंगे?
बार-बार अनुरोध होने पर न स्वीकारने की अशिष्टता से बचने के लिए
सहमति दे दी. रचनाओं की प्रशंसा, विधा के विधान आदि की जानकारी लेने तक तो सब कुछ ठीक रहा.
एक दिन रचनाओं में कुछ त्रुटियाँ इंगित करने पर उत्तर मिला- 'खुद को क्या समझते हैं? हिम्मत कैसे की रचनाओं में गलतियाँ निकालने की? मुझे इतने पुरस्कार मिल चुके हैं. फेस बुक पर जो भी लिखती हूँ सैंकड़ों लाइक मिलते हैं. मेरी लिखे में गलती हो ही नहीं सकती. आइंदा ऐसा किया तो...' आगे पढ़ने में समय ख़राब करने के स्थान पर शिष्या को ब्लोक कर चैन की सांस लेते कान पकडे कि अब नहीं बनायेंगे किसी को शिष्या और नहीं बनेंगे किसी के गुरु.
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सोमवार, 21 मार्च 2016

लघुकथा

लघुकथा
शेष है 
संजीव 
*
गुरु जी ने नाम से प्रसिद्ध एक विख्यात अर्थशास्त्री, शिक्षाविद, समाजसेवी, साहित्यकार का निधन हो गया। उनके आवास पर श्रद्धा-सुमन समर्पित करने गया वहाँ स्वजन-परिजन और दो-तीन शुभचिंतक मात्र थे। अंतिम यात्रा तक २५-३० लोग जुटे। 

दुर्योगवश उसी दिन कुछ दूर रह रहे एक स्थानीय नेता की मौत हो गयी जो बुजुर्गवार का विद्यार्थी रहा था, उसके घर पर २५०-३०० लोगों की भीड़ जमा थी। 

एक मित्र ने बताया कि उस नेता ने अपने एक मित्र के साथ मिलकर एक बार अपनी एक सहपाठिनी से बदतमीजी  की तो उसकी गुंडई के रोब में न आते हुए गुरूजी ने पहले तो पीट दिया और जब किसी से सूचना पाकर पुलिस आयी तो गिरफ्तार नहीं होने दिया कि शिक्षा संस्था घर ही  की तरह है, शिक्षक पर्याप्त है विद्यार्थियों को सुधारने के लिये। वह दूसरा विद्यार्थी आजकल शिक्षा मंत्री है। प्रदेश में किसी भी  सरकार बने गुरु जी के २-३ विद्यार्थी बनते पर गुरूजी घर आने पर उन्हें आशीष और सीख देने के अलावा उनसे  कोई संपर्क न रखते। 

अख़बारों में चेले के चित्र के साथ टीम कॉलम का समाचार छपा किन्तु गुरु जी का समाचार स्वजनों द्वारा पैसे दिये जाने के बाद भी शोक समाचार स्तंभ के अंतर्गत मात्र ३ पंक्तियों में छपा। दोपहर बाद गुरु जी के निवास के सामने सिपाहियों को देखकर उत्सुकतावश पहुँचा ही था कि तिरंगा लगा हुआ एक वाहन रुका, उसमें से शिक्षामंत्री अपनी पत्नी, बच्चों सहित उतरे। गुरु जी की के चित्र पर पुष्पहार चढ़ाकर, गुरु-पत्नी को प्रणाम कर उनके समीप कुर्सियाँ रिक्त होते हुए भी जमीन पर बैठे। मंत्री पत्नी व् बच्चों ने उनका अनुकरण कर प्रणाम कर जमीन पर स्थान ग्रहण किया। मंत्री जी ने गुरु जी के निधन संबंधी जानकारी ली, उन्हें पूर्व सूचना न मिलने पर दुःख जताया कि वे उस गुरु की दक्षिणा न चुका सके जिसने उन रसूखदार परिवार के दबाव या नेतागीरी की चिंता किये बिना दंड देकर सुधार की राह दिखाई, घर बुलाकर घंटों पढ़ाया, पुस्तकें दीं किन्तु कभी एक पैसा भी न लिया। गुरुपत्नी से आग्रह किया कि वे जब जिस योग्य समझें उन्हें पुत्र की तरह बुला कर आदेश दें। १० मिनिट बाद मंत्री जी सपरिवार वापिस हुए, तब तक खबर पाकर आ चुके पत्रकार माइक-कैमरे लेकर दौड़े पर मंत्री जी किसी से बिना मिले प्रस्थान कर गये।  

लोकतंत्र के एक पहरुए के इस आचरण ने इतना तो बता ही दिया की काजल की कोठरी में कुछ सफेदी अभी भी शेष है
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