नवगीत
सारे जग को
जान रहे हम,
लेकिन खुद को
जान न पाए...
जब भी मुड़कर
पीछे देखा.
गलत मिला
कर्मों का लेखा.
एक नहीं
सौ बार अजाने
लाँघी थी निज
लछमन रेखा.
माया-ममता,
मोह-लोभ में,
फँस पछताए-
जन्म गँवाए...
पाँच ज्ञान की,
पाँच कर्म की,
दस इन्द्रिय
तज राह धर्म की.
दशकन्धर तन
के बल ऐंठी-
दशरथ मन में
पीर मर्म की.
श्रवण कुमार
सत्य का वध कर,
खुद हैं- खुद से
आँख चुराए...
जो कैकेयी
जान बचाए.
स्वार्थ त्याग
सर्वार्थ सिखाये.
जनगण-हित
वन भेज राम को-
अपयश गरल
स्वयम पी जाये.
उस सा पौरुष
जिसे विधाता-
दे वह 'सलिल'
अमर हो जाये...
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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गुरुवार, 21 मई 2009
काव्य-किरण: आचार्य संजीव 'सलिल'
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