सामयिक दोहागीत:
क्या सचमुच?
संजीव
*
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
गहन अंधविश्वास सँग
पाखंडों की रीत
शासन की मनमानियाँ
सहें झुका सर मीत
स्वार्थ भरी नजदीकियाँ
सर्वार्थों की मौत
होते हैं परमार्थ नित
नेता हाथों फ़ौत
संसद में भी कर रहे
जुर्म विहँस संगीन हम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
तंत्र लाठियाँ घुमाता
जन खाता है मार
उजियारे की हो रही
अन्धकार से हार
सरहद पर बम फट रहे
सैनिक हैं निरुपाय
रण जीतें तो सियासत
हारे, भूल भुलाय
बाँट रहें हैं रेवड़ी
अंधे तनिक न गम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दूषित पर्यावरण कर
मना रहे आनंद
अनुशासन की चिता पर
गिद्ध-भोज सानंद
दहशतगर्दी देखकर
नतमस्तक कानून
बाज अल्पसंख्यक करें
बहुल हंस का खून
सत्ता की ऑंखें 'सलिल'
स्वार्थों खातिर नम
क्या सचमुच स्वाधीन हम?
*
दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
स्वाधीनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
स्वाधीनता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
रविवार, 15 अगस्त 2021
दोहागीत
चिप्पियाँ Labels:
दोहागीत,
स्वतंत्रता,
स्वाधीनता
शनिवार, 15 अगस्त 2009
स्वाधीनता दिवस पर- आचार्य संजीव 'सलिल'
http://divyanarmada.blogspot.com
स्वाधीनता दिवस पर-
आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जनगण के
मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक.
कैसे हम स्वाधीन
देश जब
लगता हमको क्षेपक.
हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित
कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले.
कुछ घंटों
'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे,
पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया.
किसको चिंता?
यहाँ देश की?
सबको है निज हित की.
सत्ता पा-
निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की.
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना.
जाये भाड़ में
किसको चिंता
नेताजी का सपना.
कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन
देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो.
तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र
तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित
प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?
लोक तंत्र में
लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार.
गए विदेशी,
आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर.
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर.
न्याय बेचते
जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित.
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?
आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
*******************
स्वाधीनता दिवस पर-

आचार्य संजीव 'सलिल'
*
जनगण के
मन में जल पाया,
नहीं आस का दीपक.
कैसे हम स्वाधीन
देश जब
लगता हमको क्षेपक.
हम में से
हर एक मानता
निज हित सबसे पहले.
नहीं देश-हित
कभी साधता
कोई कुछ भी कह ले.
कुछ घंटों
'मेरे देश की धरती'
फिर हो 'छैंया-छैंया'
वन काटे,
पर्वत खोदे,
भारत माँ घायल भैया.
किसको चिंता?
यहाँ देश की?
सबको है निज हित की.
सत्ता पा-
निज मूर्ति लगाकर,
भारत की दुर्गति की.
श्रद्धा, आस्था, निष्ठा बेचो
स्वार्थ साध लो अपना.
जाये भाड़ में
किसको चिंता
नेताजी का सपना.
कौन हुआ आजाद?
भगत है कौन
देश का बोलो?
झंडा फहराने के पहले
निज मन जरा टटोलो.
तंत्र न जन का
तो कैसा जनतंत्र
तनिक समझाओ?
प्रजा उपेक्षित
प्रजातंत्र में
क्यों कारण बतलाओ?
लोक तंत्र में
लोक मौन क्यों?
नेता क्यों वाचाल?
गण की चिंता तंत्र न करता
जनमत है लाचार.
गए विदेशी,
आये स्वदेशी,
शासक मद में चूर.
सिर्फ मुनाफाखोरी करता
व्यापारी भरपूर.
न्याय बेचते
जज-वकील मिल
शोषित- अब भी शोषित.
दुर्योधनी प्रशासन में हो
सत्य किस तरह पोषित?
आज विचारें
कैसे देश हमारा साध्य बनेगा?
स्वार्थ नहीं सर्वार्थ
हमें हरदम आराध्य रहेगा.
*******************
चिप्पियाँ Labels:
आज़ादी,
इंडिया सन्जीव 'सलिल',
फ्रीडम,
भारत हिंद,
स्वतंत्रता,
स्वाधीनता
सदस्यता लें
संदेश (Atom)