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गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

पुरोवाक्

पुरोवाक्
सूर्यमंजरी : शब्दों की अंतर्यात्रा
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                     सु धार और समय-सापेक्षता साहित्य-सृजन की सनातन कसौटी है। रचनाकार आत्मानुभूतियों की अभिव्यक्ति कर 'स्व' से 'सर्व' के मध्य संवेदना-सेतु का निर्माण करता है। अबोले को बोलने में समर्थ 'शब्द' को भारतीय मनीषा 'ब्रह्म' कहती-मानती है। 'कंकर-कंकर में शंकर' देखने की विरासत 'स्वानुभूत' ही नहीं, 'अन्यानुभूत' संवेदनाओं को भी 'स्वगत' मानकर ग्रहण कर, उन पर मनन-चिंतन और लेखन करती है। मानव सभ्यता आदि काल से प्रकृति व समाज में हो रहे परिवर्तनों, उनसे उत्पन्न प्रभावों तथा विसंगतियों-विडंबनाओं के आकलन-निराकरण हेतु चिंतन काव्य-रचनाओं के माध्यम से करती रही है।


                     नी ति वाक्य 'सार-सार को गह रहे, थोथा देय  उड़ाय' का अनुसरण करते रचनाकार समाज के हर वर्ग से आकर, हर वर्ग के चिंतन को मुखरित कर 'सर्व हित समभाव' को मुखरित करते हैं। 'सिंधु को बिंदु' में समाहित करते हुए कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक अभिव्यक्त करने की कला 'कविता' है। 'स्वानुभूत' को इस तरह अभिव्यक्त किया जाए कि वह 'सर्वानुभूत' प्रतीत हो, हर पाठक को कविता के कथ्य में अपनत्व की अनुभूति हो तो ही कविता और कवि दोनों की सफलता है। सीमित में असीमित को समाहित करते हुए 'मन-मंथन' से नि:सृत अमृत के 'जीवन-घूँट' 'अवचेतन' में प्रस्फुटित हों तो 'निराशा का दुष्चक्र' या 'बंदिशें' 'अंतस का दर्द' 'ओस की बूँद' की तरह उड़ाकर  'सुहानी सुबह' के प्रति आश्वस्त करती हैं। 'यादों का संसार' 'सफर' के 'समापन' पर 'अपने आसमां की तलाश' करते हुए 'समाधान' की 'उम्मीद' में 'आत्मदीप का प्रकाश' कर 'संघर्ष' के' समंदर' में 'भंवर' पर जयी होने की प्रेरणा देता है।

                     ता कत का प्रयोग, सुधार और 'बदलाव' की चाहत 'भीष्म-प्रतिज्ञा' बनकर 'समस्या का समाधान' खोजने की प्रेरणा और 'समापन' की 'सीख' बनकर 'फरियाद' की 'दहलीज का प्रण' पूर्ण कर 'ये है जीवन' का जयघोष करती है।

                     दि नकर के 'आभामंडल' का 'अंदाज' कर कवयित्री 'एक मुट्ठी आसमां की तलाश' में 'सूरज आता देखकर' 'चलते जाना जीवन है' को मूलमंत्र मानकर 'उजाले की ओर' प्रस्थान  करती है। 'या रब मेरे!' 'जीवन घूँट' पी 'अब मैं जीना चाहती हूं' कहती मानवीय 'जिजीविषा' की गुहार सुनकर वह सोचती है- 'काश', परम 'पिता' सब 'शिकायतें' भुलाकर 'रूहानी इत्र' से जीवन-पथ महका दे, ताकि कलम 'निर्वाण' का 'ध्रुवतारा' देख-दिखा सके। सेर को सवा सेर की 'तलाश' में परिस्थितियों को 'कोसना' बंदकर, समाधान की 'तलाश' में, विचारों के  'गहन-गर्त' से 'उधारी' की संस्कृति-वाहकों को वैचारिक 'श्रद्धांजलि' देते हुए 'बवंडर छोड़ो' का आव्हान करतीये काव्य रचनाएँ आम आदमी के चिंतन को उद्घाटित करती हैं। सैयाद की तरह 'यादें' तंग करने लगे और 'प्रिय मुक्तमना' मन मौन हो चले तो 'मैं सृजन गीत का करती हूँ' कहती हुई मानवीय मनीषा, शब्दों की 'अंतर्यात्रा' जीवनानुभवों के 'कोलाज के साथ', उम्र के विविध पड़ावों को पार करते हुए हौसलों का जयघोष इन कविताओं में करती है।

                     ने क इरादों के साथ जमाने के बाजों से जूझती कलम-गौरैया में आशा-आकांक्षा होना स्वाभाविक  है। 'एक चिड़िया की तरह /अंतहीन आकाश में / बंदिशों के बिना / उड़ना चाहती हूँ' कहती कविता कैशोर्य के सपनों को साकार करना चाहती है किंतु समय करने नहीं दे रहा।

                     श राफत के साथ जीना दिन-ब-दिन कठिन से कठिनतर होता जा रहा है। कवयित्री समय की विसंगतियों को इंगित कर लिखती हैं-'ऐ जिंदगी! / यह क्या किया तूने? / बसंत लिखना भी चाहूँ / कागज पर, फिर भी / पतझड़ उतर आता है.....चल , माना जिंदगी! / तराश रही थी मुझको / चोट हथौड़े की देकर / पर अब तो बस कर / कुछ बेढब, टेढ़ा-मेढ़ा / ही रह जाने दे। / मरने से पहले मुझको / थोड़ा सा जी जाने दे।'

                     सिं ह की तरह जीना हो तो चुनौतियों को स्वीकार कर उन पर विजय पाना भी आवश्यक है। 'उठो! / निराशा का दुष्चक्र  तोड़ो / मन स्थिर करने की खातिर / रुख तूफान का भी मोड़ो / ...कर्म करो, फल ईश्वर पर छोड़ो / रखो एक आँख पर पूरा ध्यान।' कहती कवियित्री पाठक के लिए प्रेरणास्रोत बनती है।


                     ह क की बात करनेवाले प्राय: फर्ज को भूल जाते हैं। कवि सत्य-दृष्टा होता है। वह अपना धर्म कैसे भूल सकता है? 'सब अनिश्चित है / कुछ निश्चित है / तो केवल कर्म। / विश्वासयोग्य है / शरण उसी की। / करो हमेशा / वरण उसी का / कर्म का ही सम्मान / मार्ग का ही ध्यान / धुन स्वयं पर करो सवार / जाने को पार / हर बाधा पर कड़ा प्रहार / हुई हार तो हेतु को / ढूँढ निकालो, दूर करो / औरों की क्षमता मत देखो / अपनी अक्षमता दूर करो।'


                     स मस्याएँ सभी के जीवन में आती हैं। साहित्यिकार अपनी नहीं, सबकी समस्याओं का समाधान सृजन के माध्यम से खोजता है। 'समस्याओं का समाधान / ढूँढना हमें ही होगा / समस्या से भागकर या / सीधे समाधान ढूँढकर नहीं / अपने भीतर जाकर / गहराई में / गहन अवचेतन में।/ समस्या की जड़ क्या है? / क्यों हम औरों से ज्यादा टूटते हैं? / आहत होते हैं? / हमें अपना ही / सामना करना होगा / जो हम अमूमन नहीं करना चाहते।'

                     दा सता सिर्फ शारीरिक नहीं, मानसिक भी होती है। साहित्य-सृजन कर सत्-शिव-सुंदर की आराधना करते समय रचनाकार 'अवचेतन' में 'स्व'  से 'सर्व' तक की यात्रा करता है। 'चेतन मन के साथ / अवचेतन मन को साधना / अवचेतन की शक्ति पहचानना / व्यवस्थित जीवन / एवं मनोदशा हेतु जरूरी है / अवचेतन चुंबक है / जो गहन पसंद की चीजों / को खींचता है। / इस मैग्नेट को हमेशा / चार्ज करना होता है.... अवचेतन से संवाद करो / गहरी से गहरी पीड़ा / वहाँ व्यक्त करो / और उस अंतहीन आकाश में / मौन, खुद को बहने दो / सारे भार गिरा दो / कालचक्र को चलने दो / और तब, अवचेतन, अर्द्ध जागृत मन / राह जरूर दिखाएगा / जो सर्वोत्तम राह होगी।'

                     खु द का खुदा से साक्षात् कराने का श्रेष्ठ माध्यम प्रकृति ही है। 'सुहानी सुबह / अलसाई सी / सूरज की किरणों से / उषा है नहाई सी / धुला सा आसमान / जहाँ-तहाँ उड़ते बादल / पंछियों के कलरव / गिलहरी की अठखेलियाँ / धवल अनोखी / निष्कपट हरियाली / पत्तों के बीच से निकलती / हवा की मंद सरसराहट / अति नीरव / अति शांत / प्रकृति जैसे छेड़ देती / अपनी विशालता का / विराटता का / अनुपम संगीत / मानो कण-कण / उल्लसित होकर / नृत्य कर रहे हों / मानो परम देव की प्रस्तुत / झलक कर रहे हों।'

                     श को-सुबह की 'भंवर' जिंदगी के 'समंदर' में तूफान उठाती रहती है। यदि विश्वास का लंगर मजबूत न हुआ तो हक़ीक़त की दुनिया को 'यादों का संसार' बनते देर नहीं लगती। 'मेरे पास तुम्हारी / यादें हैं / सांसें हैं अपनी / पर प्राण शक्ति नहीं / धड़कन है / पर जिंदगी नहीं / अनजाना सा अपनापन / रूहानी अहसासों का / खूशबू बनकर / फिजाओं में घुल गया है / तुम यहीं हो / यहीं कहीं हो / पर नजर नहीं आते / आ भी नहीं सकते।'

                     र स वर्षण साहित्य और साहित्यकार का धर्म है। 'जीवन टूटकर जुड़ता है / आँधी के अनगिनत थपेड़ों से / लड़कर जीतता है।' ... लक्ष्य का 'ध्रुवतारा' आँखों से ओझल न हो इसलिए 'दर्द के काँटों से / घायल मन... आस्था का मलहम' लगाकर 'बहल जाता है / बस यूँ  ही दर्द से / उबर आता है और तब 'जिजीविषा' कहती है- मैं ;एक चिड़िया की तरह / अंतहीन आकाश में / बंदिशों के बिना / उड़ना चाहती हूँ / पंख पसारे/ अपने सहारे / अपनी ही दुनिया में / विचरना चाहती हूँ / अब मैं जीना चाहती हूँ।'

                     हि तकर होना साहित्य का लक्षण और उद्देश्य दोनों है। जिसमें सबका हित समाहित हो वही सच्चा साहित्य है। सूर्यमंजरी की कविताएँ व्यक्ति हित और लोक हित ही नहीं मानव हित और जीव हित को भी ध्यान में रखकर रची गयी हैं। यह स्वाभाविक भी है। जब जब मानवीय मनीषा 'सुनीता' हो तो सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' की सनातन विरासत को ग्रहण मात्र नहीं करती अपितु अगली पीढ़ी के लिए मूल्य सम्मत साहित्य की रचनाकार समृद्ध और सुरक्षित भी करती है। संतोष यह कि उच्च प्रशासनिक पद भी सुनीता की संवेदनाओं को पाषाण-सिला नहीं बना सका है। वह नियमोपनियमों के कठघरे में कैद रहकर कार्यरत रहते हुए भी स्वतंत्र चेता मानसी बनी रह सकी हैं। ये कवितायें भी भाषा, कथ्य और शिल्प के स्तर पर सामान्य नियमों का पालन करते हुए भी प्रकृति के निरीक्षण-परीक्षण पश्चात् निष्कर्ष निकालकर अभिवयक्त करने में 'स्व-विवेक को ही सर्वोपरि मानती हैं। सुनीता का मौलिक चिंतन उन्हें अपनी पीढ़ी और संवर्ग से अलग पहचान देता है। 'कहते हैं कि  ग़ालिब का है अंदाज़े-बयान और' की उक्ति इन कविताओं पर लागू होती है। 

                     'ए कोsहं बहुस्याम' का ब्रम्ह सूत्र साहित्य-सृजन के मूल में होता है। रचनाकार अपनी विचार-सृष्टि का ब्रम्हा होता है। वह अपने विचार प्रस्तुत कर अपने वैचारिक सहधर्मी पाता है। प्रिय सुनीता की यह प्रथम काव्य कृति मुझे अपने कुल-गोत्र के बढ़ने की प्रतीति करा रही है। रचनाकर 'व्यक्ति' होते हुए भी 'समष्टि' के हित-चिन्तन के उद्देश्य से रचनाकर्म में प्रवृत्त होता है। इस रचनाओं का वैशिष्ट्य उनकी सरलता, सहजता, सरसता, सारगर्भितता, सोद्देश्यता, स्पष्टता तथा यथार्थता है। प्रसाद गुण संपन्न ये कविताएँ छंद मुक्त होते हुए भी नीरस, उबाऊ या जटिल नहीं हैं। ये रचनाएँ किसी पंथ, विचारधारा, या वाद के पूर्वाग्रहों से मुक्त वैचारिक ताजगी से समृद्ध हैं। छंद मुक्ति और छंद युक्ति की सीमा रेखा को स्पर्श करती ये रचनाएँ रस व लय की प्रतीति करा सकी हैं।कवयित्री सुशिक्षित, समझदार, प्रशासनिक व सामाजिक अनुभव-संपन्न है। इससे परिस्थितियों के आकलन तथा विचारों की संतुलित अभिव्यक्ति में उन्हें सफलता मिली है। इन रचनाओं के सृजनकर्ता होते हुए वे लिंग, जाति, धर्म आदि पूर्वाग्रहों से मुक्त रहकर 'व्यक्ति' हो सकी हैं।  इस कारण कविता में अन्तर्निहित विचार स्वाभाविक रूप से विकसित होकर परिणति तक जा पाते हैं। मुझे आशा ही नहीं विश्वास है कि ये कवितायेँ सामान्य और विशिष्ट दोनों वर्गों में पढ़ी, समझी और सराही जाएँगी। ये रचनाएँ कवयित्री सुनीता की पहचान ही नहीं प्रतिष्ठा की भी परिचायक बनकर उनकी गली कृतियों की प्रतीक्षा करता पाठक वर्ग तैयार कर सकेंगी। 
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संपर्क: विश्व वाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, 
  ई मेल: salil.sanjiv@gmail.com, चलभाष: ७९९९५५९६१८ / ९४२५१८३२४४, www.divyanarmada.in               


सोमवार, 24 अक्टूबर 2016

समीक्षा


शीघ्र प्रकाश्य लघुकथा संकलन ‘आदमी जिंदा है’
प्राक्कथन
डॉ. निशा तिवारी


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‘आदमी जिंदा है’ लघुकथा संग्रह मेरे अनुजवत संजीव रमा ‘सलिल’ की नव्य कृति है. यह नव्यता द्विपक्षीय है. प्रथम यह कृति कालक्रमानुसार नी है और दूसरे परंपरागत कहानी-विधा के सांचे को तोड़ती हुए नव्य रूप का सृजन करती है. यों नवीं शब्द समय सापेक्ष है. कोई भी सद्य:रचित कृति पुरानी की तुलना में नई होती है. स्वतंत्रता के पश्चात् हिंदी कहानी ने ‘नई कहानी’, ‘अकहानी’, ‘समान्तर कहानी’, ‘सचेतन कहानी’, ‘सहज कहानी’ इत्यादि कथा आंदोलनों के अनेमनेक पड़ावों पर कथ्यगत और रूपगत अनेक प्रतिमान स्थिर किये हैं. अद्यतन कहानी, लघुता और सूक्ष्मता के कम्प्युटरीकृत यथार्थ को रचती हुई अपनी नव्यता को प्रमाणित कर रही है. कंप्यूटर और मोबाइल की क्रांति लघुता और सूक्ष्मता को परिभाषित कर रही है.संप्रति सलिल जी का प्रकाश्य लघुकथा संग्रह भी तकनीकी युग की इसी सूक्ष्मता-लघुता से कहानी विधा को नवता प्रदान करता है. मुक्तक और क्षणिका की तर्ज पर उन्होंने कथा-सूत्र के ताने-बाने बुने हैं. अत्यंत लघु कलेवर में प्रतिपाद्य को सम्पूर्णता प्रदान करना अत्यंत दुष्कर कार्य है किंतु सलिल जी की भावनात्मकता तथा संवेदनशीलता ने समय और परिस्थितिगत वस्तु-चित्रणों को अपनी, इन कहानियों में बखूबी अनुस्यूत किया है. यही कारण है कि उनकी ये कहानियाँ उत्तर आधुनिक ‘पेरोडीज़’, ‘येश्तीज़’ तथा कतरनों की संज्ञाओं से बहुत दूर जाकर घटना और संवेदना का ऐसा विनियोग रचती हैं कि कथा-सूत्र टुकड़ों में नहीं छितराते वरन उन्हें एक पूर्ण परिणति प्रदान करते हैं.

लघुकथा संग्रह का शीर्षक ‘आदमी जिंदा है’ ही इस तथ्य का साक्ष्य है कि संख्या-बहुल ये एक सौ दस कहानियाँ आदमी को प्रत्येक कोण से परखती हुई उसकी आदमियत के विभिन्न रूपों का परिचय पाठक को देती हैं. ये कहानियां संख्या अथवा परिमाण में अधिक अवश्य हैं किन्तु विचार वैविध्य पाठक में जिज्ञासा बनाए रखता है और पाठक प्रत्येक कहानी के प्रतिपाद्य से निरंताराया में साक्षात् करता हुआ ह्बव-निमग्न होकर अगली कथा की और बढ़ जाता है. कहानी के सन्दर्भ में हमेशा यह फतवा दिया जाता है कि ‘जो एक बैठक में पढ़ी जा सके.’ सलिल जी की ये समस्त कहानियाँ पाठक को एकही बैठक में पढ़ी जाने के लिए आतुरता बनाये रखती हैं.

सलिल जी के नवगीत संग्रह ‘काल है संक्रांति का’ के नवगीतों की भांति ‘आदमी जिंदा है’ कथा संग्रह की कहानियों की विषय-वस्तु भी समान है. सामाजिक-पारिवारिक विसंगतियाँ एवं कुरीतियाँ (गाइड, मान-मनुहार, आदर्श), राजनीतिक कुचक्र एवं विडंबनाएँ (एकलव्य, सहनशीलता, जनसेवा, सर पर छाँव, राष्ट्रीय सुरक्षा, कानून के रखवाले, स्वतंत्रता, संग्राम, बाजीगर इत्यादि), पारिवारिक समस्या (दिया, अविश्वासी मन, आवेश आदि), राष्ट्र और लिपि की समस्या (अंधमोह), साहित्य जगत एवं छात्र जगत में फैली अराजकतायें (उपहार, अँगूठा, करनी-भरनी) इत्यादि विषयों के दंश से कहानीकार का विक्षुब्ध मन मानो चीत्कार करने लगता हुआ व्यंग्यात्मकता को वाणी देने लगता है. इस वाणी में हास्य कहीं नहीं है, बस उसकी पीड़ा ही मुखर है.

सलिल जी की कहनियों की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे जिन समस्याओं को उठाते हैं उसके प्रति उदासीन और तटस्थ न रहकर उसका समाधान भी प्रस्तुत करते हैं. पारिवारिक समस्याओं के बीच वे नारी का मानवीय रूप प्रस्तुत करते हैं, साथ ही स्त्री-विमर्श के समानांतर पुरुष-विमर्श की आवश्यकता पर भी बल देते हैं. उनकी इन रचनाओं में आस्था की ज्योति है और मनुष्य का अस्मिताजन्य स्वाभिमान. ‘विक्षिप्तता’, ‘अनुभूति’ कल का छोकरा’, ‘सम्मान की दृष्टि’ इत्यादि कहानियाँ इसके उत्तम दृष्टांत हैं. सत्ता से जुड़कर मिडिया के पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण से आहूत होकर वे तनाव तो रचती हैं किन्तु ‘देशभक्ति और जनहित की दुहाई देते खोखले स्वर’ से जनगण की सजग-मानवीय चेतना को विचलित नहीं कर पातीं- ‘मन का दर्पण’ उसके मलिन प्रतिबिम्ब का साक्षी बन जाता है. लेखकीय अनुभति का यह कथा-संसार सचमुच मानवीय आभा से रंजित है. भविष्य में ऐसे ही और इससे भी अधिक परिपक्व सृजन की अपेक्षा है.
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संपर्क- डॉ. निशा तिवारी, ६५० नेपियर टाउन, भंवरताल पानी की टंकी के सामने, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५३८६२३४
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रविवार, 28 अगस्त 2016

purowak

 पुरोवाक-

जीवनमूल्यों से समृद्ध 'हरि - दोहावली '
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
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                        संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'. अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन. तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'। हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। सार यह कि दोहा मुक्तक छंद है। 

                        घटकों की दृष्टि से छंदों के २ प्रकार वर्णिक (वर्ण वृत्त की आवृत्तियुक्त) तथा मात्रिक (मात्रा वृत्त की आवृत्तियुक्त) हैं मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है । वर्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या और लघु - दीर्घ का निश्चित क्रम होता है, जो मात्रिक छन्दों में अनिवार्य नहीं है । 

                        पंक्तियों की संख्या के आधार पर छंदों को दो पंक्तीय या द्विपदिक (दोहा, सोरठा, आल्हा, शे'र आदि), तीन पंक्तीय या त्रिपदिक(गायत्री, ककुप्, माहिया, हाइकु आदि), चार पंक्तीय या चतुष्पदिक (मुक्तक, घनाक्षरी, हरिगीतिका, सवैया आदि), छ: पंक्तीय या षटपदिक (कुण्डलिनी) आदि में वर्गीकृत किया गया है 

                        छंद की सभी पंक्तियों में एक सी योजना हो तो उन्हें 'सम', सभी विषम पंक्तियों में एक जैसी तथा सभी सम पंक्तियों में अन्य एक जैसी योजना हो तो अर्ध सम तथा हर पंक्ति में भिन्न योजना हो विषम छंद कहा जाता है। जिस मात्रिक छन्द की द्विपदी में विषम चरणों की मात्राएँ समान तथा सम चरणों की मात्राएँ विषम चरणों से भिन्न एक समान होती हैं उसे अर्ध सम मात्रिक छंद कहा जाता है दोहा (विषम चरण १३ मात्रा, सम चरण ११ मात्रा) प्रमुख अर्ध सम मात्रिक  छंद है। लघु-गुरु मात्राओं की संख्या के आधार पर दोहा के २३ प्रकार हैं । 

                        दोहा छंदों का राजा है। मानव जीवन को जितना प्रभावित दोहा ने किया उतना किसी भाषा के किसी छंद ने कहीं-कभी नहीं किया।  दोहा छंद लिखना बहुत सरल और बहुत कठिन है। केवल दो पंक्तियाँ लिखना दूर से आसान प्रतीत होता है किन्तु जैसे-जैसे निकटता बढ़ती है दोहे की बारीकियाँ समझ में आती हैं, मन दोहे में रमता जाता है। धीरे-धीरे दोहा आपका मित्र बन जाता है और तब दोहा लिखना नहीं पड़ता वह आपके जिव्हाग्र पर या मस्तिष्क में आपके साथ आँख मिचौली खेलता प्रतीत होता है। दोहा आपको आजमाता भी है. 'सजगता हटी, दुर्घटना घटी' यह उक्ति दोहा-सृजन के सन्दर्भ में सौ टंच खरी है। 

                        दोहा का कथ्य सामान्यता में विशेषता लिये होता है। दोहे की एक अर्धाली (चरण) पर विद्वज्जन घंटों व्याख्यान या प्रवचन करते हैं। दोहा गागर में सागर, बिंदु में सिन्धु या कंकर में शंकर की तरह कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी बात कहता है। 'देखन में छोटे लगें, घाव करें गंभीर' तथा प्रभुता से लघुता भली' में दोहा के लक्षण वर्णित है।   


                        दोहा के कथ्य के ३ गुण १. लाक्षणिकता, २. संक्षिप्तता तथा ३. बेधकता या मार्मिकता हैं। 

१. लाक्षणिकता: दोहा विस्तार में नहीं जाता इंगित से संकेत कर अपनी बात कहता है। 'नैनन ही सौं बात' अर्थात बिना कुछ बोले आँखों के संकेत से बोलने का लक्षण ही दोहे की लाक्षणिकता है। जो कहना है उसके लक्षण का संकेत ही पर्याप्त होता है।  

२. संक्षिप्तता: दोहा में गीत या गजल की तरह अनेक पंक्तियों का भंडार नहीं होता किन्तु वह व्रहदाकारिक रचनाओं का सार दो पंक्तियों में ही अभिव्यक्त कर पाता है।  अतीत में जब पत्र लिखे जाते थे तो समयाभाव तथा अभिव्यक्ति में संकोच के कारण प्रायः ग्राम्य वधुएँ कुछ वाक्य लिखकर 'कम लिखे से अधिक समझना' लिखकर अपनी विरह-व्यथा का संकेत कर देती थीं. दोहा संक्षिप्तता की इसी परंपरा का वाहक है। 
३. बेधकता या मार्मिकता: दोहा बात को इस तरह कहता है कि वह दिल को छू जाए।  मर्म की बात कहना दोहा का वैशिष्ट्य है। 

                        दोहा दुनिया में अपना संकलन लेकर पधार रहे श्री हरि प्रकाश श्रीवास्तव 'हरि' फ़ैज़ाबादी रचित प्रस्तुत दोहा संकलन तरलता, सरलता, सहजता तथा बोधगम्यता के चार स्तंभों पर आधृत है। पारंपरिक आस्था-विश्वास की विरासत पर अभिव्यक्ति का प्रासाद निर्मित करते दोहाकार सम-सामयिक परिवर्तनों और परिस्थितियों के प्रति भी सजग रह सके हैं। 

देखो तुम इतिहास में, चाहे धर्म अनेक। 

चारों युग हर काल में, सत्य मिलेगा एक।।   
*
लन्दन पेरिस टोकियो, दिल्ली या बगदाद। 
खतरा है सबके लिए, आतंकी उन्माद।।

                        राम-श्याम की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त अवध-ब्रज अंचल की भाषा हरि जी के मन-प्राण में समायी है। वे संस्कृतनिष्ठ, हिंदी, देशज, उर्दू तथा आंग्ल शब्द पूर्ण सहजता के साथ प्रयोग में लाते हैं। ज्योतिर्मय, जगजननी, बुद्धि विनायक, कृपानिधान, वृद्धाश्रम, चमत्कार, नश्वर, वृक्ष, व्योम, आकर्षण, पाषाण, ख्याति, जीवन, लज्जा, अनायास, बचपना, बुढ़ापा, सुवन, धनुही, दिनी, बेहद, रूहानी, अंदाज़, आवाज़, रफ्तार, ख़िलाफ़, ज़बान, लब,  तक़दीर, पिज़्ज़ा, बर्जर, पेस्ट्री, हॉट, डॉग, पैटीज़, सी सी टी व्ही, कैमरा आदि शब्द पंक्ति-पंक्ति में गलबहियाँ डाले हुए, भाषिक समन्वय की साक्ष्य दे रहे हैं। 

                        शब्द-युग्म का सटीक प्रयोग इस संग्रह का वैशिष्ट्य है। ये शब्द युग्म ८ प्रकार के हैं। प्रथम जिनमें एक ही शब्द की पुनरावृत्ति अपने मूल अर्थ में है, जैसे युगों-युगों, कण-कण, वक़्त-वक़्त, राधे-राधे आदि। द्वितीय जिनमें दो भिन्नार्थी शब्द संयुक्त होकर अपने-अपने अर्थ में प्रयुक्त होते हैं यथा अजर-अमर, सुख-दुःख, सीता-राम, माँ-बाप, मन्दिर-मस्ज़िद, दिल-दिमाग, भूत-प्रेत, तीर-कमान, प्रसिद्धि-सम्मान, धन-प्रसिद्धि, ऐश-आराम, सुख-सुविधा आदि। तृतीय जिनमें दो शब्द संयुक्त होकर भिन्नार्थ की प्रतीति कराते हैं उदाहरण राम-रसायन, पवन पुत्र, खून-पसीने, सुबहो-शाम, आदि। चतुर्थ सवाल-जवाब, रीति -रिवाज़, हरा-भरा आदि जिनमें दोनों शब्द मूलार्थ में संयुक्त मात्र होते हैं।  पंचम जिनमें दो समानार्थी शब्द संयुक्त हैं जैसे शादी-ब्याह आदि। षष्ठम जिनमें प्रयुक्त दो शब्दों में से एक निरर्थक है यथा देर-सवेर में सवेर। सप्तम एक शब्द का दो बार प्रयोग कर तीसरे अर्थ का आशय जैसे जन-जन का अर्थ हर एक जन होना, रोम-रोम का अर्थ समस्त रोम होना, हम-तुम आशय समस्त सामान्य जान होना आदि। अष्टम जिनमें तीन शब्दों का युग्म प्रयुक्त है देखें ब्रम्हा-विष्णु-महेश, राम चरित मानस, कर्म-वचन-मन, पिज़्ज़ा-बर्जर-पेस्ट्री, लन्दन-पेरिस-टोकियो आदि। शब्द-युग्मों का प्रयोग दोहों की रोचकता में वृद्धि करता है। 

                        समासों का यथावसर उपयोग दोहों की पठनीयता और अर्थवत्ता में वृद्धि करता है। कायस्थ, चित्रगुप्त,  बुद्धि विनायक, जगजननी, कृपानिधान, दीनानाथ, अवधनरेश, द्वारिकाधीश, पवनपुत्र, राजनीति,   रामभक्त जैसे सामासिक शब्दों का सम्यक प्रयोग दोहों को अर्थवत्ता देता है। 

                         हरी जी मुहावरोंऔर लोकोक्तियों का प्रयोग करने से भी नहीं चूके हैं। उदाहरण- 

राजनीति भी हो गयी, अब बच्चों का खेल। 
पलकें झगड़ा-दुश्मनी, पल में यारी-मेल।। 

कल दिन तेरे साथ था, आज हमारी रात।
किसी ने है यही, वक़्त-वक़्त की बात।।  

                        नीति के दोहे रचकर वृन्द, रहीम, कबीर आदि कालजयी हैं, इनसे प्रेरित हरि जी ने भी अपने नीति के दोहे संग्रह में सम्मिलित किये हैं। दोहों में निहित कुछ विशेषताएं इंगित करना पर्याप्त होगा- 

प्रेम वफ़ा इज्जत दगा, जो भी देंगे आप। 
लौटेगा बनकर वही, वर या फिर अभिशाप।।  -जीवन मूल्य 

कण-कण में श्री राम हैं, रोम-रोम में राम। 
घट-घट उनका वास है, मन-मन में है धाम।।  -प्रभु महिमा, अनुप्रास अलंकार, पुनरावृत्ति अलंकार  

चित्रगुप्त भवन को, शत-शत बार प्रणाम। 
उनसे ही जग में हुआ, कायस्थों का नाम।।  -ईश स्मरण, पुनरावृत्ति अलंकार  

इच्छा फिर से हो रही, होने की नादान। 
काश मिले बचपन हमें, फिर वो मस्त जहान।।  -मनोकामना   

जितना बढ़ता जा रहा, जनसंख्या का रोग। 
तनहा होते जा रहे, उतने ही अब लोग।।        - सामयिक सत्य, विरोधाभास अलंकार 

भाता है दिल को तभी, आल्हा सोहर फाग। 
घर में जब चूल्हा जले, बुझे पेट की आग ।।  - सनातन सत्य, मुहावरा 

कहाँ लिखा है चीखिये, करिये शोर फ़िज़ूल। 
गूँगों की करता नहीं, क्या वो दुआ क़ुबूल।।   - पाखंड विरोध 

पैरों की जूती रही, बहुत सहा अपमान। 
पर औरत अब चाहती, अब आदर-सम्मान।।  -स्त्री विमर्श, मुहावरा  

                        सारत:, हरि जी के इन दोहों में शब्द-चमत्कार पर जीवन सत्यों को, शिल्प पर अर्थ को, श्रृंगारिकता पर सरलता को वरीयता दी गयी है। किताबी विद्वानों को भले ही इनमें आकर्षणक आभाव प्रतीत हो किन्तु जीवन मूल्यों को अपरोहरी माननेवालों के मन को ये दोहे भायेंगे। पूर्व में एक ग़ज़ल संग्रह रच चुके हरि जी से भविष्य में अन्य विधाओं में भी कृतियाँ प्राप्त हों।  शुभकामनायें। 

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सम्पर्क- समन्वयम , २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, सुभद्रा वार्ड, जबलपुर ४८२००१, 
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शुक्रवार, 29 जुलाई 2016

purowak

प्राक्कथन-
"जब से मन की नाव चली" नवगीत लहरियाँ लगें भली 
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
*
                   [पुस्तक विवरण- जब से मन की नाव चली, नवगीत संग्रह, डॉ. गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', वर्ष २०१६, पृषठ १०८, मूल्य १००/-, आकार डिमाई, आवरण सजिल्द बहुरंगी, अनुष्टुप प्रकाशन, १३ गायत्री नगर, सोडाला, जयपुर ३२४००६, दूरभाष ०१४१ २४५०९७१, नवगीतकार संपर्क ०७४४ २४२४८१८, ९४६२१८२८१७]

गीतिकाव्य की अन्विति जीवन के सहज-सरस् रागात्मक उच्छवास से संपृक्त होती है। "लय" गीति का उत्स है। खेत में धान की बुवाई करती महिलायें हों या किसी भारी पाषाण को ढकेलता श्रमिक दल, देवी पूजती वनिताएँ हों या चौपाल पर ढोलक थपकाते सावन की अगवानी करते लोक गायक बिना किसी विशिष्ट अध्ययन या प्रशिक्षण के "लय" में गाते-झूमते आनंदित होते हैं। बंबुलिया हो या कजरी, फाग हो या राई, रास हो या सोहर, जस हों या काँवर गीत जान-मन हर अवसर पर नाद, ताल और सुर साधकर "लय" की आराधना में लीन हो आत्मानंदित हो जाता है। 

                    यह "लय" ही वेदों का ''पाद'' कहे गए  "छंद" का प्राण है। किसी ज्येष्ठ-श्रेष्ठ का आशीष पड़-स्पर्श से ही प्राप्त होता है। ज्ञान मस्तिष्क में, ज्योति नेत्र में, प्राण ह्रदय मे, बल हाथ में होने पर भी "पाद" बिना संचरण नहीं हो सकता। संचरण बिना संपर्क नहीं, संपर्क बिना आदान-प्रदान नहीं, इसलिए "पिंगल"-प्रणीत छंदशास्त्र वेदों का पाद है। आशय यह की छन्द अर्थात "लय" साढ़े बिना वेदों की ऋचाओं के अर्थ नहीं समझे जा सकते। जनगण ने आदि काल से "लय" को साधा जिसे समझकर नियमबद्ध करते हुए "पिंगलशास्त्र" की रचना हुई। लोकगीति नियमबद्ध होकर छन्द और गीत हो गयी। समयानुसार बदलते कथ्य-तथ्य को अगीकार करती गीत की विशिष्ट भावभंगिमा "नवगीत" कही गयी। 
                    स्वतन्त्रता पश्चात सत्तासीन दल ने एक विशेष विचारधारा के प्रति आकर्षण वश उसके समर्थकों को शिक्षा संस्थानों में वरीयता दी। फलत: योजनाबद्ध तरीके से विकसित होती हिंदी साहित्य विधाओं में लेखन और मानक निर्धारण करते समय उस विचारधारा को थोपने का प्रयास कर समाज में व्याप्त विसंगति, विडंबना अतिरेकी दर्द, पीड़ा, वैमनस्य, टकराव, ध्वंस आदि को नवगीत, लघुकथा, व्यंग्य तथा दृश्य माध्यमों नाटक, फिल्म आदि में न केवल वरीयता दी गयी अपितु समाज में व्याप्त सौहार्द्र, सद्भाव, राष्ट्रीयता, प्रकृति-प्रेम, सहिष्णुता, रचनात्मकता को उपेक्षित किया गया। इस विचारधारा से बोझिल होकर तथाकथित प्रगतिशील कविता ने दम तोड़ दिया जबकि गीत के मरण की छद्म घोषणा करनेवाले भले ही मर गए हों, गीत नव चेतना से संप्राणित होकर पुनर्प्रतिष्ठित हो गया। अब प्रगतिवादी गीत की नवगीतीय भाव-भंगिमा में घुसपैठ करने के प्रयास में हैं। वैदिक ऋचाओं से लेकर संस्कृत काव्य तक और आदिकाल से लेकर छायावाद तक लोकमंगल की कामना को सर्वोपरि मानकर रचनाकर्म करते गीतकारों ने ''सत-शिव-सुन्दर'' और ''सत-चित-आनंद'' की प्राप्ति का माध्यम ''गीत'' और ''नवगीत'' को बनाये रखा। 

                    यह सत्य है कि जब-जब दीप प्रज्वलित किया जाता है, 'तमस' उसके तल में आ ही जाता है किन्तु आराधना 'उजास' की ही की जाती है।  इस मर्म को जान और समझकर रचनाकर्म में प्रवृत्त रहनेवाले साहित्य साधकों में वीर भूमि राजस्थान की शिक्षा नगरी कोटा के डॉ. गोपालकृष्ण भट्ट "आकुल" की कृति "जब मन की नाव चली" की रचनाएँ आश्वस्त करती हैं कि तमाम युगीन विसंगतियों पर उनके निराकरण के प्रयास और नव सृजन की जीजीविषा भारी है। 
कल था मौसम बौछारों का / आज तीज औ' त्योहारों का 
रंग-रोगन बन्दनवारों का / घर-घर जा बंजारन नित 
इक नवगीत सुनाती जाए। 

                    यह बनजारन क्या गायेगी?, टकराव, बिखराव, द्वेष, दर्द या हर्ष, ख़ुशी, उल्लास, आशा, बधाई? इस प्रश्न के उठते में ही नवगीत का कथ्य इंगित होगा।  आकुल जी युग की पीड़ा से अपरिचित नहीं हैं। 
कलरव करते खग संकुल खुश / अभिनय करते मौसम भी खुश 
समय-चक्र का रुके न पहिया / प्रेम-शुक्र का वही अढैया 
छोटी करने सौर मनुज की / फिर फुसलायेगा इस बार

                    'ढाई आखर' पढ़ने वाले को पण्डित मानाने की कबीरी परंपरा की जय बोलता कवि विसंगति को "स्वर्णिक मृग, मृग मरीचिका में / फिर दौड़ाएगा इस बार" से इंगित कर सचेत भी करता है।  

                    महाभारत के महानायक करना पर आधारित नाटक प्रतिज्ञा, गीत-ग़ज़ल संग्रह पत्थरों का शहर, काव्य संग्रह जीवन की गूँज, लघुकथा संग्रह अब रामराज्य आएगा, गीत संग्रह नव भारत का स्वप्न सजाएँ रच चुके आकुल जी के ४५ नवगीतों से समृद्ध यह संकलन नवगीत को साम्यवादी चश्मे से देखनेवालों को कम रुचने पर भी आम पाठकों और साहित्यप्रेमियों से अपनी 'कहन' और 'कथ्य' के लिए सराहना पायेगा। 

                    आकुल जी विपुल शब्द भण्डार के धनी हैं। तत्सम-तद्भव शब्दों का यथेचित प्रयोग उनके नवगीतों को अर्थवत्ता देता है। संस्कृत निष्ठ शब्द (देवोत्थान, मधुयामिनी, संकुल, हश्र, मृताशौच, शावक, वाद्यवृंद, बालवृन्द, विषधर, अभ्यंग, भानु, वही, कृशानु, कुसुमाकाशी, उदधि, भंग, धरणीधर, दिव्यसन, जाज्वल्यमान, विलोड़न, द्रुमदल, झंकृत, प्रत्यंचा, जिगीषा, अतिक्रम संजाल, उच्छवासा, दावानल, जठरानल, हुतात्मा, संवत्सर, वृक्षावलि, इंदीवर आदि), उर्दू से गृहीत शब्द (रिश्ते, कदम, मलाल, शिकवा, तहजीब, शाबाशी, अहसानों, तल्ख, बरतर, मरहम, बरकत, तबके, इंसां, सहर, ज़मीर, सगीर, मन्ज़िल, पेशानी, मनसूबे, जिरह, ख्वाहिश, उम्मीद, वक़्त, साजिश, तमाम, तरफ, पयाम, तारिख, असर, ख़ामोशी, गुज़र आदि ), अंग्रेजी शब्द (स्वेटर, कोट, मैराथन, रिकॉल आदि), देशज शब्द (अँगना, बिजुरिया। कौंधनि, सौर, हरसे, घरौंदे, बिझौना, अलाई, सैं, निठुरिया, चुनरिया, बिजुरिया, उमरिया, छैयाँ आदि) रचनाओं में विविध रंग-वर्ण की सुमनों की तरह सुरुचिपूर्वक गूँथे गये हैं। कुछ कम प्रचलित शब्द-प्रयोग के माध्यम से आकुल जी पाठक के शब्द-भण्डार को को समृद्ध करते हैं।

                    मुहावरे भाषा की संप्रेषण शक्ति के परिचायक होते हैं। आकुल जी ने 'घर का भेदी / कहीं न लंका ढाए', 'मिट्टी के माधो', 'अधजल गगरी छलकत जाए', 'मत दुखती रग कोई आकुल' जैसे प्रयोगों से अपने नवगीतों को अलंकृत किया है। इन नवगीतों में शब्द-युग्मों का प्रयोग सरसता में वृद्धि करता है। कस-बल, रंग-रोगन, नार-नवेली, विष-अमरित, चारु-चन्द्र, घटा-घनेरी, जन-निनाद, बेहतर-कमतर, क्षुण्ण-क्षुब्ध, भक्ति-भाव, तकते-थकते, सुख-समृद्धि, लुटा-पिटा,बाग़-बगीचे, हरे-भरे, ताल-तलैया, शाम-सहर, शिकवे-जिले, हार-जीत, खाते-पीते, गिरती-पड़ती, छल-कपट, आब-हवा, रीति-रिवाज़, गर्म-नाज़ुक, लोक-लाज, ऋषि-मुनि-सन्त, गंगा-यमुनी, द्वेष-कटुता आदि ऐसे शब्द युग्म हैं जिन्हें अलग करने पर दोनों भाग सार्थक रहते हैं जबकि कनबतियाँ, छुटपुट, गुमसुम आदि को विभक्त करने पर एक या दोनों भाग अर्थ खो बैठते हैं। ऐसे प्रयोग रचनाकार की भाषिक प्रवीणता के परिचायक हैं।

                    इन नवगीतों में अन्त्यानुप्रास अलंकारों का प्रयोग निर्दोष है। 'मनमथ पिघला करते', नील कंठ' आदि में श्लेष अलंकार का प्रयोग है। पहिया-अढ़ईया, बहाए-लगाये-जाए, जतायें-सजाएँ, भ्रकुटी-पलटी-कटी जैसे अंत्यानुप्रासिक प्रयोग नवता की अनुभूति कराते हैं। लाय, कलिंदी, रुत, क्यूँ, सुबूह, पैंजनि, इक, हरसायेगी, सरदी, सकरंत, ढाँढस आदि प्रयोग प्रचलित से हटकर किये गए हैं। दूल्हा राग बसन्त, आल्हा राग बसन्त, मेघ बजे नाचे बिजुरी, जिगिषा का दंगल, पीठ अलाई गीले बिस्तर, हाथ बिझौना रात न छूटे जैसे प्रयोग आनंदित करते हैं।

                    आकुल जी की अनूठी कहन 'कम शब्दों में अधिक कहने' की सामर्थ्य रखती है। नवगीतों की आधी पंक्ति में ही वे किसी गंभीर विषय को संकेतित कर मर्म की बात कह जाते हैं। 'हुई विदेशी अब तो धरती', 'नेता तल्ख सवालों पर बस हँसते-बँचते', 'कितनी मानें मन्नत घूमें काबा-काशी', 'कोई तो जागृति का शंख बजाने आये',वेद पुराण गीता कुरआन / सब धरे रेहल पर धूल चढ़ी', 'मँहगाई ने सौर समेटी', 'क्यूँ नारी का मान न करती', 'आये-गये त्यौहार नहीं सद्भाव बढ़े', 'किसे राष्ट्र की पड़ी बने सब अवसरवादी', 'शहरों की दीवाली बारूदों बीच मनाते', 'वैलेंटाइन डे में लोग वसंतोत्सव भूले', अक्सर लोग कहा करते हैं / लोक-लुभावन मिसरे', समय भरेगा घाव सभी' आदि अभिव्यक्तियाँ लोकोक्तियों की तरह जिव्हाग्र पर आसीन होने की ताब रखती हैं।

                    उलटबाँसी कहने की कबीरी विरासत 'चलती रहती हैं बस सड़कें, हम सब तो बस ठहरे-ठहरे' जैसी पंक्तियों  में दृष्टव्य है। समय के सत्य को समझ-परखकर समर्थों को चेतावनी देने के कर्तव्य निभाने से कवि चूका नहीं है- 'सरहदें ही नहीं सुलग रहीं / लगी है आग अंदर भी' क्या इस तरह की चेतावनियों को वे समझ सकेंगे, जिनके लिए इन्हें अभिव्यक्त किया गया है ? नहीं समझेंगे तो धृतराष्ट्री विनाश को आमन्त्रित करेंगे।आकुल जी ने 'अंगद पाँव अनिष्ट ने जमाया है', कर्मण्य बना है वो, पढ़ता रहा जो गीता' की तरह  मिथकों का प्रयोग यथावसर किया है। वे वरिष्ठ रचनाकार हैं।

                    हिंदी छंद के प्रति उनका आग्रह इन नवगीतों को सरस बनाता है। अवतारी जातीय दिगपाल छंद में पदांत के लघु गुरु गुरु में अंतिम गुरु के स्थान पर कुछ पंक्तियों में दो लघु लेने की छूट उन्होंने  'किससे क्या है शिकवा' शीर्षक रचना में ली है। 'दूल्हा राग बसन्त' शीर्षक नवगीत का प्रथम अंतरा नाक्षत्रिक जातीय सरसी छंद में है किन्तु शेष २ अंतरों में पदांत में गुरु-लघु के स्थान पर गुरु-गुरु कर दिया गया है। 'खुद से ही' का पहले - तीसरा अंतरा महातैथिक जातीय रुचिर छन्द में है किन्तु दुआरे अंतरे में पदांत के गुरु के स्थान पर लघु आसीन है।  संभवत: कवि ने छन्द-विधान में परिवर्तन के प्रयोग करने चाहे, या ग़ज़ल-लेखन के प्रभाव से ऐसा हुआ।  किसी रचना में छंद का शुद्ध रूप हो तो वह सीखने वालों के लिये पाठ हो पाती है।

                    आकुल जी की वरिष्ठता उन्हें अपनी राह आप बनाने की ओर प्रेरित करती है। नवगीत की प्रचलित मान्यतानुसार 'हर नवगीत गीत होता है किन्तु हर गीत नवगीत नहीं होता' जबकि आकुल जी का मत है ''सभी गीत नवगीत हो सकते हैं किन्तु सभी नवगीत गीत नहीं कहे जा सकते" (नवभारत का स्वप्न सजाएँ, पृष्ठ ८)। यहाँ विस्तृत चर्चा अभीष्ट नहीं है पर यह स्पष्ट है कि आकुल जी की नवगीत विषयक धारणा सामान्येतर है। उनके अनुसार "कविता छान्दसिक स्वरूप है जिसमें मात्राओं का संतुलन उसे श्रेष्ठ बनाता है, जबकि गीत लय प्रधान होता है जिसमें मात्राओं का सन्तुलन छान्दसिक नहीं अपितु लयात्मक होता है। गीत में मात्राओं को ले में घटा-बढ़ाकर सन्तुलित किया जाता है जबकि कविता मात्राओं मन ही सन्तुलित किये जाने से लय में पीढ़ी जा सकती है।  इसीलिये कविता के लिए छन्दानुशासन आवश्यक है जबकि 'गीत' लय होने के कारण इस अनुशाशन से मुक्त है क्योंकि वह लय अथवा ताल में गाया जाकर इस कमी को पूर्ण कर देता है।  गीत में भले ही छन्दानुशासन की कमी रह सकती है किन्तु शब्दों का प्रयोग लय के अनुसार गुरु व् लघु वर्ण के स्थान को अवश्य निश्चित करता है जो छन्दानुशासन का ही एक भाग है, जिसकी कमी से गीत को लयबद्ध करने में मुश्किलें आती हैं।" (सन्दर्भ उक्त)

                    ''जब से मन की नाव चली'' के नवगीत आकुल जी के उक्त मंतव्य के अनुसार ही रचे गए हैं। उनके अभिमत से असहमति रखनेवाले रचनाकार और समीक्षक छन्दानुशासन की कसौटी पर इनमें कुछ त्रुटि इंगित करें तो भी इनका कथ्य इन्हें ग्रहणीय बनाने के लिए पर्याप्त है। किसी रचना या रचना-संग्रह का मूल्यांकन समग्र प्रभाव की दृष्टि से करने पर ये रचनाएँ सारगर्भित, सन्देशवाही, गेयात्मक, सरस तथा सहज बोधगम्य हैं। इनका सामान्य पाठक जगत में स्वागत होगा।  समीक्षकगण चर्चा के लिए पर्याप्त बिंदु पा सकेंगे तथा नवगीतकार इन नवगीतों के प्रचलित मानकों के धरातल पर अपने नवगीतों के साथ परखने का सुख का सकेंगे। सारत: यह कृति विद्यार्थी, रचनाकार और समीक्षक तीनों वर्गों के लिए उपयोगी होगी।

                    आकुल जी की वरिष्ठ कलम से शीघ्र ही अन्य रचनारत्नों की प्राप्ति की आशा यह कृति जगाती है। आकुल जी के प्रति अनंत-अशेष शुभकामनायें।
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