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शनिवार, 2 सितंबर 2023

सॉनेट, लय, छंद, दोहा, नव गीत, संध्या, आपदा


सॉनेट
लय
क्या कहना, कैसे कहना है?
सलिल तरंगों सम बहना है,
ऊपर-नीचे नीचे ऊपर,
ध्वनियों को होते रहना है।

व्यक्त शब्द में कथ्य हो सके,
कलकल कलरव सम निनाद हो,
पढ़े-समझ मन रीझ खो सके
कथ्य तृप्ति भोजन सुस्वादु हो।

खिलखिल ध्वनि सम रसानंद दे,
प्रेमिल श्वासों सी गति-यति हो,
कविता वनिता सम मन मोहे,
रस ले मोहित खुद कवि-मति हो।

डूब कथ्य में गुनगुन करिए।
भ्रमर भाँति लय मय ही कहिए।।
२६-८-२०२३
••√
***

छंद
छाया है सब सृष्टि पर, निहित सभी में छंद।
हो प्रतीति जिसको नहीं, जानें वह मतिमंद।।
छंद अनाहद नाद है, करे सृष्टि उत्पन्न।
ध्वनि तरंग मिल बिछुड़ते, वर्तुल हों व्युत्पन्न।।
हो आकर्षण विकर्षण, संघर्षण भी नित्य।
संकर्षण ध्वनि-खंड का, हो कण सूक्ष्म अनित्य।।
मिल-टकराते-बिछुड़ते, कण गहते कुछ भार।
वर्तुल परिपथ हो बढ़े, सतत सृष्टि व्यापार।।
ध्वनि की लय; गति-यति सहज, करती कण संयुक्त।
ऋषि कणाद कण खोजकर, कहें यही अविभक्त।।
कण पदार्थ का सृजनकर, बनते गृह-नक्षत्र।
तल पर यही प्रतीत हो, आसमान है छत्र।।
अनिल अनल भू नभ सलिल, पंचतत्व का मेल।
माटी माटी का मिलन, माटी करती खेल।।
जल-थल-नभचर प्रगट हों, जीव बने चैतन्य।
नियति नटी मति दे कहे, तुझ सा कहीं न अन्य।।
जीव बने संजीव मिल, बिछुड़ बने निर्जीव।
रुदन-हास समभाव से, देखें करुणासींव।।
समय पटल पर देव-दनु, प्रगटें करने युद्घ।
भिन्न असुर-सुर हैं-नहीं, बाँधव स्नेह न शुद्ध।।
निज प्रभुत्व का चाह ही, नाशक कहें प्रबुद्ध।
परिग्रह तज कर समन्वय, कहें संत जिन बुद्ध।।
'मोहन' 'मोह' 'न' कर तजें, राधा-गोकुल धाम।
मन स्थिर कर विरह सह, लीला करें ललाम।।
'मो' अर्थात घमंड को, 'हन' करते दें मात।
कौरव 'रव' कर-कर मिटे, हो जग में कुख्यात।।
'रव' कर रावण जन्म ले, मरे अहं से ग्रस्त।।
'रव' कर रेवा तार-तर, रहें आप संन्यस्त।।
तत्व एक 'रव' किंतु हैं, भिन्न-भिन्न परिणाम।
कर्म फले होता नहीं, विधि अनुकूल; न वाम।।
कृष्ण-कथा देती हमें, 'कर सुकर्म' संदेश।
मोह न कर परिणाम प्रति, लेश ईश आदेश।।
२६-८-२०१९
***
दोहा सलिला
सत्य ईश है, शीश ईश के सम्मुख नत करना है।
मानवता के लिए समर्पण, कर मराल बनना है।।
*
गुरु तो गुरु हैं, बहती निर्मल नेह-नर्मदा धारा।
चौकस रहकर करें साधना, शांति-पंथ चलना है।।
*
पाता है जस वीर तभी जब संत सुशील रहा हो।
पारस सैम लोहे को कंचन कर कुछ नाम गहा हो।।
*
करे वंदना जग दिनेश की, परमजीत तम हरता।
राधा ने आराधा हरि को, जो गोवर्धन धरता।।
*
गो-वर्धन हित वन, तरुवर हों, सरवर पंछी कलरव।
पौध लगाये, वृक्ष बनाये, नित नव पीढ़ी संभव।।
*
राज दिलों पर करने जब राजेन्द्र स्वच्छता वरता।
चंद्र कांत उतरे धरती पर, रूप राह नव गढ़ता।।
*
वाणी वीणा-स्वर बनकर जब करे अर्चना मनहर।
मन-मंदिर को रश्मि विनीता, करे प्रकाशित सस्वर।।
*
तुल सी गयी आस्था-निष्ठा, डिग यदि गया मनोबल।
तुलसी-चौरा दीप बाल कर जोड़ मना शुभ हर पल।।
*
चंचल-चपल चेतना जब बन सलिल-धार बहती है।
तब नरेश दीक्षित गौतम हो संजीवनी तहती है।।
*
'बुके नहीं बुक' की संस्कृति गढ़ वाल बनायें दृढ़ हम।
पुस्तक के प्रति नया चाव ला, मूल्य रचें नव उत्तम।।
*
संजय सम सच देख बता, हम दुनिया नयी बनायें।
इतना सुख हो, प्रभु भारत में, रहने फिर-फिर आयें।।
*
हिंदी भाषा बोलिए, उर्दू मोयन डाल।
सलिल संस्कृत सान दे, पूड़ी बने कमाल।।
*
जन्म ब्याह राखी तिलक, गृह-प्रवेश त्यौहार।
सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार ।।
***
नव गीत-
लेकिन संध्या खिन्न न होती
*
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
जन-मन परवश होकर
खुद ही जब निज घर में
आग लगाता।
कुटिल शकुनि-संचालित
सत्तातंत्र नाश देख
हँसता-मुस्काता।
विवश भीष्म
अन्याय-न्याय की
परिभाषा दे रहे कागज़ी-
अपराधी बनकर महंत,
हा! दैव
रँगीला भी पुज जाता ,
नारी की इज्जत खुद नारी
लूट जाए, परवाह न करती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
*
गुरुघंटालों ने गुरु बनकर
शिष्याओं को
जब-जब लूटा।
वक्र हो गया भाग्य तभी
दुष्कर्मों का घट
भरकर फूटा।
मौन भले पर
मूक न जनगण
आज नहीं तो कल जागेगा।
समय क्षमा किसको कब करता?
युग-युग तक
हिसाब माँगेगा।
समय हताशा का जब तब भी
धरती धैर्य न तजती, धरती।
उषा सहित आ,
दे उजास फिर
खुद ही ढल जाता है सूरज,
लेकिन संध्या खिन्न न होती
चंदा की अगवानी करती।
२६-८-२०१७
***
दोहा सलिला
निवेदिता निष्ठा रही, प्रार्थी था विश्वास
श्री वास्तव में पा सका, सत शिव जनित प्रयास
*
भट नागर संघर्ष कर, रच दे मंजुल मूल्य
चित्र गुप्त तब प्रगट हो, मिलता सत्य अमूल्य
२६-८-२०१५
*

रविवार, 22 मार्च 2020

दोहा सलिला:

दोहा सलिला:
शब्द-शब्द अनुभूतियाँ, अक्षर-अक्षर भाव.
नाद, थाप, सुर, ताल से, मिटते सकल अभाव..
*
सलिल साधना स्नेह की, सच्ची पूजा जान.
प्रति पल कर निष्काम तू, जीवन हो रस-खान..
*
उसको ही रस-निधि मिले, जो होता रस-लीन.
पान न रस का अन्य को, करने दे रस-हीन..
*
दोहा पिचकारी लिये
संजीव 'सलिल'
*
दोहा पिचकारी लिये,फेंक रहा है रंग.
बरजोरी कुंडलि करे, रोला कहे अभंग..
*
नैन मटक्का कर रहा, हाइकु होरी संग.
फागें ढोलक पीटती, झांझ-मंजीरा तंग..
*
नैन झुके, धड़कन बढ़ी, हुआ रंग बदरंग.
पनघट के गालों चढ़ा, खलिहानों का रंग..
*
चौपालों पर बह रही, प्रीत-प्यार की गंग.
सद्भावों की नर्मदा, बजा रही है चंग..
*
गले ईद से मिल रही, होली-पुलकित अंग.
क्रिसमस-दीवाली हुलस, नर्तित हैं निस्संग..
*
गुझिया मुँह मीठा करे, खाता जाये मलंग.
दाँत न खट्टे कर- कहे, दहीबड़े से भंग..
*
मटक-मटक मटका हुआ, जीवित हास्य प्रसंग.
मुग्ध, सुराही को तके, तन-मन हुए तुरंग..
*
बेलन से बोला पटा, लग रोटी के अंग.
आज लाज तज एक हैं, दोनों नंग-अनंग..
*
फुँकनी को छेड़े तवा, 'तू लग रही सुरंग'.
फुँकनी बोली: 'हाय रे! करिया लगे भुजंग'..
*
मादल-टिमकी में छिड़ी, महुआ पीने जंग.
'और-और' दोनों करें, एक-दूजे से मंग..
*
हाला-प्याला यों लगे, ज्यों तलवार-निहंग.
भावों के आवेश में, उड़ते गगन विहंग..
*
खटिया से नैना मिला, भरता माँग पलंग.
उसने बरजा तो कहे:, 'यही प्रीत का ढंग'..
*
भंग भवानी की कृपा, मच्छर हुआ मतंग.
पैर न धरती पर पड़ें, बेपर उड़े पतंग..
*
रंग पर चढ़ा अबीर या, है अबीर पर रंग.
बूझ न कोई पा रहा, सारी दुनिया दंग..
*
मतंग=हाथी, विहंग = पक्षी,

गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

vimarsh

विमर्श:
नाद छंद का मूल है

सृष्टि का मूल ही नाद है. योगी इसे अनहद नाद कहते हैं इसमें डूबकर परमात्म की प्रतीति होती है ऐसा पढ़ा-सुना है. यह नाद ही सबका मूल है.यह नाद निराकार है, इसका चित्र नहीं बन सकता़, इसे चित्रगुप्त कहा गया है. नाद ब्रम्ह की नियमित आवृत्ति ताल ब्रम्ह को जन्म देती है. नाद और ताल जनित तरंगें अनंत काल तक मिल-बिछुड़ कर भारहीन कण और फिर कई कल्पों में भारयुक्त कण को जन्म देती हैं. ऐसा ही एक कण 'बोसॉन' चर्चित हो चुका है. इन कणों के अनंत संयोगों से विविध पदार्थ और फिर जीवों का विकास होता है. नाद-ताल दोनों अक्षर ब्रम्ह है. ये निराकार जब साकार (लिपि) होते हैं तो शब्द ब्रम्ह प्रगट होता है. चित्रगुप्त के 3 रूप जन्मदाता, पालक और विनाशक तथा उनकी आदि शक्तियों (ब्रम्हा-महा शारदा, विष्णु-महालक्ष्मी, शिव-महाकाली) के माध्यम से सृष्टि-क्रम बढ़ता है. विष्णु के विविध अवतार विविध जीवों के क्रमिक विकास के परिचायक हैं. जैन तथा बौद्ध जातक कथाएँ स्पष्ट: is कहती हैं कि परब्रम्ह विविध जीवों के रूप में आता है. ध्वनि के विविध संयोजनों से लघु-दीर्घ वर्ण और वर्णों के सम्मिलन से शब्द बनते हैं. शब्दों का समुच्चय भाषा को जन्म देता है. भाषा भावों कि वाहक होती है. संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ भाषाश्रित होकर एक से अनेक तक पहुँचती हैं. ध्वनि के लघु-गुरु उच्चारण विविध संयोजनों से विविध लयों का विकास करते हैं. इन लयों से राग बनते हैं. शब्द-संयोजन छंद को जन्म देते हैं. लय राग और छंद दोनों के मूल में होती है. लय की अभिव्यक्ति नाद से कंठ, ताल से वाद्य, शब्द से छंद , रेखाओं से चित्र तथा मुद्राओं से नृत्य करता है.सलिल-प्रवाह की कलकल, पक्षियों का कलरव भी लय की ही अभिव्यक्ति है. लय में विविध रस अन्तर्निहित होते हैं. रसों की प्रतीति भाव-अनुभाव करते हैं. लेखन, गायन तथा नर्तन तीनों ही रसहीन होकर निष्प्राण हो जाते हैं. आलाप ही नहीं विलाप में भी लय होती है. आर्तनाद में भी नाद तो निहित है न? नाद तो प्रलाप में भी होता है, भले ही वह निरर्थक प्रतीत हो. मंत्र, श्लोक और ऋचाएँ भी विविध स पड़ा हैलयों के संयोजन हैं. लय का जानकार उन्हें पढ़े तो रस-गंगा प्रवाहित होती है, मुझ जैसा नासमझ पढ़े तो नीरसता कि प्रतीति होती है. अभ्यास और साधना ही साधक को लय में लीन होने कि पात्रता और सामर्थ्य प्रदान करते हैं.

यह मेरी समझ और सोच है. हो सकता है मैं गलत हूँ. ऐसी स्थिति में जो सही हैं उनसे मार्गदर्शन अपेक्षित है.
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