गीत
पारस मिश्र, शहडोल
रात बीती जा रही है,
चाँद ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
कब छुड़ा पाये भ्रमर की
फूल पर कटु शूल गुंजन?
कब किसी की बात सुनता,
रूप पर रीझा हुआ मन?
कब शलभ ने दीप पर जल,
अनल की परवाह की है?
प्यार में किसने कहाँ कब
जिंदगी की चाह की है?
किंतु फिर भी जिंदगी में,
प्यार पलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
प्यार के सब काम गुपचुप
ही किये जाते रहे हैं।
शाप खुलकर, दान छिपकर
ही दिये जाते रहे हैं॥
हलाहल कुहराम कर दे,
शोर मदिरा पर भले हो।
पर सुधा के जाम तो,
छिपकर पिये जाते रहे हैं॥
होंठ खुलते जा रहे हैं,
जाम ढलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
सोचता हूँ मौत से पहले ,
तुम्हीं से प्यार कर लूँ।
पार जाने से प्रथम,
मझधार पर एतबार कर लूँ॥
जानता है दीप, यदि है
ज्योति शाश्वत, चिर जलन तो
माँग में सिंदूर के बदले
न क्यों अंगार भर लूँ?
नेह चढ़ता जा रहा है,
दीप जलता जा रहा है।
देखता हूँ जिंदगी का
राज खुलता जा रहा है॥
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दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
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सोमवार, 4 मई 2009
गीत: पारस मिश्र, शहडोल
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