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गुरुवार, 31 जनवरी 2019

कविता। पानी

कविता
पानी
*
देखकर
मनुष्य की करनी
हो रही है मनुष्यता
पानी-पानी।
विस्मित है विधाता
कहाँ गया
इसकी आँखों का पानी।
कहीं अतिवृष्टि
कहीं अनावृष्टि
प्रकृति
दिला रही याद
छठी का दूध।
पानी पी-पीकर
कोस रहा इंसान
नियति को
ईश्वर को
एक-दूसरे को।
समझकर भी
नहीं चाहता समझना
कि उसकी हरकतों से
नाराज कुदरत
मार रही है उसे
पिला-पिलाकर पानी।
***

व्यंग्य लेख: काम तमाम

व्यंग्य लेख:
काम तमाम
संजीव
*
'मुझे राम से काम' जपकर कथनी-करनी एक रखनेवाले कबीर और तुलसी आज होते तो वर्तमान रामभक्तों की करतूतें देखकर क्या करते यह शोध का विषय है लेकिन इस पर शोध की नहीं जा सकती।
क्यों?
सब जानते हैं कि आजकल शोध की नहीं कराई जाती हैं और कराने के लिए पहले हो चुके शोधकार्यों से सामग्री निकालकर पुनर्व्यवस्थित कर ली जाती है। कुछ अति प्रतिभाशाली विभूतियाँ तकनीकी क्रांति का लाभ उठाने के कला जानती हैं। वे 'अंतर्जाल करे कमाल' का जयघोष किए बिना देशी-विदेशी जालस्थलों से संबंधित सामग्री जुटाने में जिस कौशल का परिचय देतीे हैं, उसे देख पाए तो ठग शिरोमणि नटवरलाल भी उन का शागिर्द हो जाए।

'काम से काम रखने' की सीख देनेवाले पुरखे नहीं रहे तो उनकी सीख ही क्यों रहे? अब तो बिना किसी काम हर किसी के फटे में टाँग अड़ाने का जमाना है। 'टाँग अड़ाने' भर से तो काम चलता नहीं, 'टाँग मारने' और कभी-कभी तो 'टाँग तोड़ने' की कला भी प्रदर्शित करनी पड़ती है, भले ही 'टाँग तुड़ाकर' वैसे ही लौटना पड़े जैसे बांग्लादेश और कारगिल से पाकिस्तान लौटा था।

हम हिंदुस्तानी वसुधैव कुटुंबकम्, विश्वैक नीड़म् आदि कहते ही नहीं, तहे-दिल से मानते भी हैं। तभी तो मेरा-तेरा का भेदभाव न कर जब जहाँ जो सामग्री मिले, उसे उपयोग कर अपना बना लेते हैं। किसी दूसरे की शोध सामग्री को हाथ न लगाकर हम उसे अछूत कैसे बना सकते हैं? हमारा संविधान छुआछूत को अपराध मानता है। हम इतने अधिक संविधान-परस्त हैं कि 'गरीब की लुगाई को गाँव की भौजाई' बनाने में पल भर की भी देर नहीं करते।

'राम से काम' हो तो उन्हें भगवान, मर्यादा पुरुषोत्तम और न जाने क्या-क्या कह देते हैं। काम न हो तो राम को भूलने में ही भलाई है। पिता के वचन का पूर्ति के लिए राज्य छोड़ने की जगह पिता को ही छोड़ देते हैं हम। हमें मालूम है ये सब रिश्ते-नाते छलना हैं,  हम रोज आरती में गाते हैं 'तुम बिन और न दूजा' फिर पिता के वचन से हमारा कोई नाता कैसे हो सकता है? राम जी यह सनातन सच भूल गए इसी लिए उन्हें 'न माया मिली न राम।'

हमने राम से सीख लेकर काम से काम रखने का जीवन-मंत्र अपना लिया है। अब 'सलिल तभी है राम का, रहे राम जब काम का' हमारा ध्येय-वाक्य है। इसलिए हम हर आम चुनाव के पहले राम का जीना हराम कर अलादीन के जिन्न की तरह, बावरी मस्जिद की बोतल से उसे बाहर निकाल लेते हैं और चुनाव जीतते ही निष्काम भाव से भुला देते हैं।

काम साधने की कला में श्याम राम से अधिक सफल हैं। इनके भक्तों को 'माया मिले न राम' उनके भक्तों के बनें हमेशा काम। ये अपने भक्त के जूठे बेर भी नहीं छोड़ते, वे अपने निर्धन भक्त को शाह (अमित न समझें) बना देते हैं।

काम साधने की कलाकारी करनेवाले कलाधर को सोलह हजार आठ सौ मिल गईं जबकि मर्यादा के लिए मरनेवाले की इकलौती भी नहीं  जी सकी। इसलिए 'खाने के दाँत और,  दिखाने के और' की बहुमूल्य विरासत को सहेजते-सम्हालते हमने राम को प्रचार में, श्याम को आचार में अपनाकर काम निकालने और काम बनाने का मौका भुनाने का मौका न चूककर काम साध लिया है

हमें भली-भाँति विदित है कि भारतीय जनता भोले शंकर की तरह मन ही मन काम को अपनाते हुए भी सार्वजनिक जीवन में काम के प्रकट होते ही उसे क्षार करने से नहीं चूकती। इससे दो काम बन जाते हैं। एक तो खुद निष्काम घोषित हो जाते हैं, दूसरे काम के अकाम होते ही रति तक पहुँचने की राह खुल जाती है।

'सबै भूमि गोपाल की यामें अटक कहाँ' इसलिए तमाम काम का काम तमाम करना ही जीवन का उद्देश्य बना लेने में ही समझदारी है। इतनी समझदारी हममें तो है,  आपमें न हो इसी में हमारी भलाई है। आप कोई गैर तो हैं नहीं। हमारी भलाई में ही आपकी भी भलाई है। हमें काम निकालने के काम आने में ही आपकी सार्थकता है। आप तमाम काम सधने की आस में दीजिए मत, और हमें करने दीजिए अगले पाँच साल तक अपना काम तमाम।
***
३१-१-२०१९

बुधवार, 30 जनवरी 2019

नवगीत

एक रचना:
जोड़े हाथ
*
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
दोषी मानो
या पूजो,
पर छलो न खुद को।
करो सियासत
जी भरकर
पर ठगो न उसको।
मंदिर-मस्जिद
तोड़-बनाओ
बिन श्रद्धा क्यों
नत हो माथ?
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
लोकतंत्र का
यही तकाजा
रंग-रंग के फूल संग हों।
सहमत हों या
रहें असहमत,
किंतु बाग में शत-शत रंग हों।
दिल हो दिल में
हाथ-हाथ में,
भले न हों पर
सब हों साथ।
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
*
क्यों हों मुक्त
एक दूजे से?
दिया दैव ने हमको बाँध।
श्वास न बाकी
रही अगर तो
मरघट तक भी देंगे काँध।
जिएँ याद में
एक-दूजे की
राष्ट्र-देव है
सबका नाथ।
गोली मारी
फिर समाधि पर
फूल चढ़ाकर
जोड़े हाथ।
**
संजीव
३०-१-२०१९

shringar tatank kakubh

कार्य शाला-
*
मिथिलेश कुमार:
आदरणीय नमन ।
आपका मार्गदर्शन चाहूँगा ।
१.क्या श्रंगार छंद और महाश्रंगार छन्द में कोई अंतर है ? मैंने महाश्रंगार छंद का विधान खोजने की कोशिश की,परंतु संतोषजनक कुछ मिला नहीं।
२.क्या किसी छंद में यदि १६-१४ की यति पर कोई सृजन हो और चारों पदों का चरणांत हो तो उसे ताटंक तो कहते ही हैं परंतु क्या उसे कुकुभ नहीं मान सकते ? क्योंकि न्यूनतम दो गुरुओं से चरणांत की अनिवार्यता तो वह पूर्ण कर ही रही है ?
उत्तर की अपेक्षा में ।
सादर ।
संजीव वर्मा सलिल

संजीव सलिल
श्रृंगार छंद
*
सोलह मात्रिक संस्कारी जातीय श्रृंगार छंद के आदि में ३ + २ तथा अंत में ३ मात्राओं का विधान है। लघु गुरु क्रम-बंधन नहीं है।
उदाहरण-
फहरती ध्वजा तिरंगी नित्य। सलामी देते वीर अनित्य।।
महाश्रृंगार नाम से कोई छंद मेरी जानकारी में नहीं है।

ताटंक छंद
*
सोलह-चौदह यतिमय दो पद, 'मगण' अंत में आया हो।
रचें छंद ताटंक कर्ण का, आभूषण लहराया हो।।

तीस मात्रिक तैथिक जातीय ककुभ छंद
*
सोलह-चौदह पर यति रखकर, अंत रखें गुरु दो-दो।
ककुभ छंद रच आनंदित हों, छंद फसल कवि बोदो।।
*
आटा और पानी मिला होने के शर्त पूरी होने पर भी पराठे को रोटी नहीं कहा जा सकता।
ताटंक और ककुभ में मात्रिक भर तथा यति समय होने पर भी पदांत का अंतर ही उन्हें अलग करता है।

ककुभ छंद

तीस मात्रिक तैथिक जातीय ककुभ छंद
*
सोलह-चौदह पर यति रखकर, अंत रखें गुरु दो-दो।
ककुभ छंद रच आनंदित हों, छंद फसल कवि बोदो।।



लेख : ऋतु-मौसम

निबंध:
ऋतुएँ और मौसम 
संजीव 
*
ऋतु एक छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएँ एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएँ एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। मौसम की दशाओं में वर्ष के दौरान इस चक्रीय बदलाव का प्रभाव पारितंत्र पर पड़ता है और इस प्रकार पारितंत्रीय ऋतुएँ निर्मित होती हैं यथा पश्चिम बंगाल में जुलाई से सितम्बर तक वर्षा ऋतु होती है, यानि पश्चिम बंगाल में जुलाई से अक्टूबर तक, वर्ष के अन्य कालखंडों की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक ग्रीष्म ऋतु होती है, इसका अर्थ है कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक के महीने साल के अन्य समयों की अपेक्षा गर्म रहते हैं। एक ॠतु = २ मास। ऋतु साैर और चान्द्र दाे प्रकार के हाेते हैं। धार्मिक कार्य में चन्द्र ऋतुएँ ली जाती हैं। 

ऋतु चक्र-
भारत में मुख्यतः छः ऋतुएँ मान्य हैं -१. वसन्त (Spring) चैत्र से वैशाख (वैदिक मधु और माधव) मार्च से अप्रैल, २. ग्रीष्म (Summer) ज्येष्ठ से आषाढ (वैदिक शुक्र और शुचि) मई से जून, ३. वर्षा (Rainy) श्रावन से भाद्रपद (वैदिक नभः और नभस्य) जुलाई से सितम्बर, ४, शरद् (Autumn) आश्विन से कार्तिक (वैदिक इष और उर्ज) अक्टूबर से नवम्बर, ५. हेमन्त (pre-winter) मार्गशीर्ष से पौष (वैदिक सहः और सहस्य) दिसम्बर से १५ जनवरी, ६. शिशिर (Winter) माघ से फाल्गुन (वैदिक तपः और तपस्य) १६ जनवरी से फरवरी।
ऋतू चक्र क्यों?
ऋतु परिवर्तन का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण और पृथ्वी का अक्षीय झुकाव है। पृथ्वी का डी घूर्णन अक्ष इसके परिक्रमा पथ से बनने वाले समतल पर लगभग ६६.५ अंश का कोण बनाता है जिसके कारण उत्तरी या दक्षिणी गोलार्धों में से कोई एक गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है। यह झुकाव सूर्य के चारों ओर परिक्रमा के कारण वर्ष के अलग-अलग समय अलग-अलग होता है जिससे दिन-रात की अवधियों में घट-बढ़ का एक वार्षिक चक्र निर्मित होता है। यही ऋतु परिवर्तन का मूल कारण बनता है। विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ समय-समय पर छः ऋतुएं अपनी छटा बिखेरती हैं। प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है।

चैत - बैसाख़ में बसंत ऋतु अपनी शोभा बिखेरती है। इस ऋतु को ऋतुराज की संज्ञा दी गयी है। धरती का सौंदर्य इस प्राकृतिक आनंद के स्रोत में बढ़ जाता है। रंगों का त्यौहार होली बसंत ऋतु के आनंद को दुगना कर देता है। हमारा जीवन चारों ओर के मोहक वातावरण को देखकर मुस्करा उठता है।
ज्येष्ठ -आषाण ( ग्रीष्म ऋतु) में सू्र्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणी मात्र के लिये कष्टकारी अवश्य है पर तप के बिना पूर्णता या सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। यदि गर्मी न पड़े तो हमें पका हुआ अन्न भी प्राप्त न हो।
श्रावण-भाद्र (वर्षा ऋतु) में मेघ गर्जन के साथ मोर नाचते हैं । तीज, रक्षाबंधन आदि त्यौहार इस ऋतु में मनाए जाते हैं।
आश्विन और कातिर्क के मास शरद ऋतु के मास हैं। शरद ऋतु प्रभाव की दृश्र्टि से बसंत ऋतु का ही दूसरा रूप है। वातावरण में स्वच्छता का प्रसार दिखा़ई पड़ता है। दशहरा और दीपावली  त्यौहार इसी ऋतु में आते हैं।
मार्गशीर्ष और पौष हेमन्त ऋतु के मास हैं। इस ऋतु में शरीर प्राय स्वस्थ रहता है। पाचन शक्ति बढ़ जाती है।
माघ - फाल्गुन शिशिर अर्थात पतझड़ के मास हैं। इसका आरंभ मकर संक्राति से होता है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है।
भारत को भूलोक का गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। -ऋतुएँ  जीवन-फलक के भिन्न- भिन्न दृश्य हैं, जो जीवन में रोचकता, सरसता और पूर्णता लाती हैं।
ऋतु और राग- शिशिर - भैरव, बसंत - हिंडोल, ग्रीष्म - दीपक, वर्षा - मेघ, शरद - मलकन, हेमंत - श्री।
***

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

लघुकथा- छाया

लघुकथा
छाया
*
गणतंत्र दिवस, देशभक्ति का ज्वार, भ्रष्टाचार के आरोपों से- घिरा अफसर, मत खरीदार चुनाव जीता नेता,  जमाखोर अपराधी, चरित्रहीन धर्माचार्य और घटिया काम कर रहा ठेकेदार अपना-अपना उल्लू सीधा कर तिरंगे को सलाम कर रहे थे।
आसमान में उड़ रहा तिरंगा निहार रहा था जवान और किसान को जो सलाम नहीं अपना काम कर रहे थे।
उन्हें देख तिरंगे का मन भर आया, आसमान से बोला "जब तक पसीने की हरियाली, बलिदान की केसरिया क्यारी समय चक्र के साथ है तब तक
मुझे कोई झुका नहीं सकता।

सहमत होता हुआ कपसीला बादल तीनों पर कर रहा था छाया।
***

सोमवार, 28 जनवरी 2019

समीक्षा: सड़क पर -अमरेंद्र नारायण


पुस्तक चर्चा-

'सड़क पर'- आशा और कर्मठता का संदेश

अमरेंद्र नारायण
भूतपूर्व महासचिव
एशिया पैसिफिक कम्युनिटी बैंकाक
*
[कृति विवरण: सड़क पर, गीत-नवगीत संग्रह, आचार्य संजीव वर्मा सलिल, प्रथम संस्करण २०१८, आकार १३.५ से.मी. x २१.५ से.मी., आवरण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ९६, मूल्य २५०/-, समन्वय प्रकाशन अभियान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१८३२४४ / ७९९९५५९६१८ ]
*

'सड़क पर' अपने परिवेश के प्रति सजग-सतर्क प्रसिद्ध कवि आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी रचित सहज संवेदना की अभिव्यक्ति है। सलिल जी भावुक, संवेदनशील कवि तो हैं हीं, एक अभियंता होने के नाते वे व्यावहारिक दृष्टि भी रखते हैं।
सलिल जी ने पुस्तक के आरंभ में माता-पिता को अपनी श्रद्धा अर्पित करते हुए लिखा है:

दीपक-बाती,

श्वास-आस तुम

पैर-कदम सम,

थिर प्रयास तुम

तुमसे हारी सब बाधाएँ

श्रम-सीकर,

मन का हुलास तुम

गयी देह, हैं

यादें प्यारी।

श्रद्धा, कृतज्ञता और कर्मठता की यही भावनाएँ विभिन्न कविताओं में लक्षित होती हैं। साथ-ही-साथ इन रचनाओं में आशावादिता है और कर्मठता का आह्वान भी-

आज नया इतिहास लिखें हम

अब तक जो बीता सो बीता

अब न आस-घट होगा रीता

अब न साध्य हो स्वार्थ-सुभीता

अब न कभी लांछित हो सीता

भोग-विलास न लक्ष्य रहे अब

हया-लाज-परिहास लिखें हम

आज नया इतिहास लिखें हम।

पुस्तक में सड़क पर शीर्षक से ही ९ कवितायेँ संकलित है जो जीवन के विभिन्न रंगों को चित्रित करती हैं।

सड़क प्रगति और यात्रा का माध्यम तो है, पर सड़क पर तेज गति से चलने वाली गाड़ियाँ, पैदल चलने वालों को किनारे धकेल देती हैं और अपनी सहगामिनी गाड़ियों की प्रतिस्पर्धा में यातायात अवरुद्ध भी कर देती हैं।

प्रगति -वाहिनी सड़क विषमता का पोषण करती रही है। कवि का अंतर्मन इस कुव्यवस्था के विरोध में कह उठता है:

रही सड़क पर

अब तक चुप्पी

पर अब सच कहना ही होगा।

लेकिन कवि के अंतर में आशा का दीपक प्रज्वलित है:

कशिश कोशिशों की

सड़क पर मिलेगी

कली मिह्नतों की

सड़क पर खिलेगी

पर कवि कहता है कि आखिरकार, सड़क तो सबकी है-

सड़क पर शर्म है,

सड़क बेशरम है

सड़क छिप सिसकती

सड़क पर क्षरण है!

इन कविताओं में प्रेरणा का संदेश है और आत्म-परीक्षण का आग्रह भी।

यही आत्म-परीक्षण तो हमें अध्यात्म के आलोक-पथ की ओर ले जाता है-

आँखें रहते सूर हो गए

जब हम खुद से दूर हो गए।

खुद से खुद की भेंट हुई तो

जग-जीवन के नूर हो गए।

'सड़क पर' की कवितायेँ पाठक को आनंद तो देती ही हैं,उसे कुछ सोचने के साथ-साथ कुछ करने की भी प्रेरणा देती हैं। इस संकलन की कविताएँ पाठक की भाव -भूमि पर गहरा प्रभाव डालती हैं!

सलिल जी की इस आशावादिता को नमन।
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समीक्षक संपर्क: १०५५ रिज रोड, दक्षिण सिविल लाइंस जबलपुर ४८२००१, अनुडाक: amarnar@gmail.com




बुधवार, 23 जनवरी 2019

navgeet mili dihadi

नवगीत:
संजीव
*
मिली दिहाडी
चल बाजार
चावल-दाल किलो भर ले-ले
दस रुपये की भाजी
घासलेट का तेल लिटर भर
धनिया-मिर्ची ताजी
तेल पाव भर फ़ल्ली का
सिंदूर एक पुडिया दे
दे अमरूद पांच का, बेटी की
न सहूं नाराजी
खाली जेब पसीना चूता
अब मत रुक रे!
मन बेजार
निमक-प्याज भी ले लऊँ तन्नक
पत्ती चैयावाली
खाली पाकिट हफ्ते भर को
फिर छाई कंगाली
चूड़ी-बिंदी दिल न पाया
रूठ न मो सें प्यारी
अगली बेर पहलऊँ लेऊँ
अब तो दे मुस्का री!
चमरौधे की बात भूल जा
सहले चुभते
कंकर-खार

navgeet ug rahe

नवगीत: 
संजीव 

उग रहे या ढल रहे तुम 
कान्त प्रतिपल रहे सूरज 
.
हम मनुज हैं अंश तेरे
तिमिर रहता सदा घेरे
आस दीपक जला कर हम
पूजते हैं उठ सवेरे
पालते या पल रहे तुम
भ्रांत होते नहीं सूरज
.
अनवरत विस्फोट होता
गगन-सागर चरण धोता
कैंसर झेलो ग्रहण का
कीमियो नव आस बोता
रश्मियों की कलम ले
नवगीत रचते मिले सूरज
.
कै मरे कब गिने तुमने?
बिम्ब के प्रतिबिम्ब गढ़ने
कैमरे में कैद होते
हास का मधुमास वरने
हौसले तुमने दिये शत
ऊगने फिर ढले सूरज
.

muktika aap manen

मुक्तिका
.
आप मानें या न मानें, सत्य हूँ किस्सा नहीं हूँ
कौन कह सकता है, हूँ इस सरीखा, उस सा नहीं हूँ
मुझे भी मालुम नहीं है, क्या बता सकता है कोई
पूछता हूँ आजिजी से, कहें मैं किस सा नहीं हूँ
साफगोई ने अदावत का दिया है दंड हरदम
फिर भी मुझको फख्र है, मैं छल रहा घिस्सा नहीं हूँ
हाथ थामो या न थामो, फैसला-मर्जी तुम्हारी
कस नहीं सकता गले में, आदमी- रस्सा नहीं हूँ
अधर पर तिल समझ मुझको, दूर अपने से न करना
हनु न रवि को निगल लेना, हाथ में गस्सा नहीं हूँ
निकट हो या दूर हो तुम, नूर हो तुम हूर हो तुम
पर बहुत मगरूर हो तुम, सच कहा गुस्सा नहीं हूँ
खामियाँ कम, खूबियाँ ज्यादा, तुम्हें तब तक दिखेंगी
मान जब तक यह न लोगे, तुम्हारा हिस्सा नहीं हूँ
.

navgeet baja bansuree

नवगीत: बजा बाँसुरी - 
*
बजा बाँसुरी
झूम-झूम मन...
*
जंगल-जंगल
गमक रहा है.
महुआ फूला
महक रहा है.
बौराया है
आम दशहरी-
पिक कूकी, चित
चहक रहा है.
डगर-डगर पर
छाया फागुन...
*
पियराई सरसों
जवान है.
मनसिज ताने
शर-कमान है.
दिनकर छेड़े
उषा लजाई-
प्रेम-साक्षी
चुप मचान है.
बैरन पायल
करती गायन...
*
रतिपति बिन रति
कैसी दुर्गति?
कौन फ़िराये
बौरा की मति?
दूर करें विघ्नेश
विघ्न सब-
ऋतुपति की हो
हे हर! सद्गति.
गौरा माँगें वर
मन भावन...
************

doha gazal basant

बासंती दोहा ग़ज़ल (मुक्तिका)
संजीव 'सलिल'
*
स्वागत में ऋतुराज के, पुष्पित शत कचनार.
किंशुक कुसुम विहँस रहे, या दहके अंगार..
पर्ण-पर्ण पर छा गया, मादक रूप निखार.
पवन खो रहा होश निज, लख वनश्री श्रृंगार..
महुआ महका देखकर, चहका-बहका प्यार.
मधुशाला में बिन पिए, सिर पर नशा सवार..
नहीं निशाना चूकती, पंचशरों की मार.
पनघट-पनघट हो रहा, इंगित का व्यापार..
नैन मिले लड़ मिल झुके, करने को इंकार.
देख नैन में बिम्ब निज, कर बैठे इकरार..
मैं तुम यह वह ही नहीं, बौराया संसार.
फागुन में सब पर चढ़ा, मिलने गले खुमार..
ढोलक, टिमकी, मँजीरा, करें ठुमक इसरार.
फगुनौटी चिंता भुला. नाचो-गाओ यार..
घर-आँगन, तन धो लिया, अनुपम रूप निखार.
अपने मन का मैल भी, किंचित 'सलिल' बुहार..
बासंती दोहा ग़ज़ल, मन्मथ की मनुहार.
सीरत-सूरत रख 'सलिल', निर्मल सहज सँवार..
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