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मंगलवार, 9 जुलाई 2019

कार्यशाला: दोहा कुण्डलिया

कार्यशाला: एक रचना दो रचनाकार 
सोहन परोहा 'सलिल'-संजीव वर्मा 'सलिल'
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'सलिल!' तुम्हारे साथ भी, अजब विरोधाभास।
तन है मायाजाल में, मन में है सन्यास।। -सोहन परोहा 'सलिल'
मन में है सन्यास, लेखनी रचे सृष्टि नव।
जहाँ विसर्जन वहीं निरंतर होता उद्भव।।
पा-खो; आया-गया है, हँस-रो रीते हाथ ही।
अजब विरोधाभास है, 'सलिल' हमारे साथ भी।। -संजीव वर्मा 'सलिल'
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९.७.२०१८

शनिवार, 5 जनवरी 2019

दोहा, कुण्डलिया

दोहे
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सकल सृष्टि कायस्थ है, सबसे करिए प्रेम 
कंकर में शंकर बसे, करते सबकी क्षेम

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चित्र गुप्त है शौर्य का, चित्रगुप्त-वरदान 
काया स्थित अंश ही, होता जीव सुजान

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महिमा की महिमा अमित, श्री वास्तव में खूब 
वर्मा संरक्षण करे,  रहे वीरता डूब

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मित्र मनोहर हो अगर, अभय ज़िंदगी जान 
अभय संग पा मनोहर, जीवन हो रस-खान

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उग्र न होते प्रभु कभी, रहते सदा प्रशांत 
सुमति न जिनमें हो तनिक, वे ही मिलें अशांत

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कार्यशाला:
एक कुण्डलिया : दो कवि
तन को सहलाने लगी, मदमाती सी धूप
सरदी हंटर मारती, हवा फटकती सूप -शशि पुरवार
हवा फटकती सूप, टपकती नाक सर्द हो
हँसती ऊषा कहे, मर्द को नहीं दर्द हो
छोड़ रजाई बँधा, रहा है हिम्मत मन को
लगे चंद्र सा, सूर्य निहारे जब निज तन को - संजीव
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