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मंगलवार, 19 नवंबर 2013

Indian manual lift: sanjiv

भारतीय यांत्रिक लिफ्ट व्यवस्था                   
अभियंता संजीव वर्मा 'सलिल' 
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वाराणसी. आधुनिक बहुमंज़िला इमारतों में बिजली चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो भारत में भी 18वीं शताब्दी के आखिर में दरभंगा नरेश ने यांत्रिक लिफ्ट की परिकल्पना ही नहीं निर्माणकर उपयोग भी किया था।

राजमाता और रानी के गंगा स्नान के लिए नरेश ने उस समय चक्र (पुली) पर चलने वाली लिफ्ट दरभंगा के राजमहल में लगवा यी थी। रानी और राजमाता को नित्य प्रातः गंगा स्नान के लिए महल से गंगा जी तक सकरी गलियों से होकर आना-जाना पड़ता था जो सुरक्षा की दृष्टि से चिन्ताजनक तथा आम लोगों के लिये असुविधा का कारण था. इसलिए महराजा रामेश्वर सिंह ने 50 फुट ऊंचे दरभंगा महल के ठीक सामने की ओर मीनार में हाथ से चलाई जा सकनेवाली यांत्रिक लिफ्ट बनवायी थी।
गंगा के पश्चिमी तट पर बसी अस्सी और वरुणा के बीच का भूगोल वाराणसी के नाम से विश्वविख्यात है। प्राचीन लोकभाषा "पाली" में वाराणसी को ढाई हजार साल पहले से आमलोग "बनारस" कहा करते थे। भारत के हर प्रदेश के प्रमुख राजघरानों और जमीदारों ने बनारस में आकर बसने का सपना देखा और शायद उसी का परिणाम हैं कि हर घाट के निर्माण में या घाट के ऊपर महलों या भवनों ने अलग-अलग प्रदेश की पहचान और छाप छोड़ी। 100 के ऊपर वाराणसी के घाटो के बीच घाट है 'दरभंगा घाट'। दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में दरभंगा महल का निर्माण कराया था। यह आज भी अपनी मनमोहक नक्काशी और रूप के लिए जाना जाता है।
महल के बाशिंदों में राजमाता या नरेश की पत्नी (रानी) पर्दानशीं हुआ करती थीं। शायद इसलिए घाट से 50 फीट ऊपर महल से गंगा स्नान हेतु आने के लिए दरभंगा नरेश ने काशी के इतिहास में पहली 'लिफ्ट' लगायी। आधुनिक विद्युत् चालित लिफ्ट की परिकल्पना भले ही पश्चिमी देशों ने की हो परन्तु भारत में कुंए से पानी निकालने की विधा बहुत प्राचीन है। चक्र यानी पुली के सहारे भारी वस्तु ऊपर भी जा सकती हैं और नीचे भी आ सकती हैं। कुओं से पानी निकलने के लिए मोट का सञ्चालन बैलों से किया जाता था. इसी विधा पर दरभंगा नरेश ने 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में रानी और राजमाता के लिए हाथ से चलनेवाली लिफ्ट को महल में बनवाया था।

रानी और राजमाता गंगा स्नान के लिए घाट पर आने के लिए महल के बाहरी हिस्से में बनी मीनार में लगी लिफ्ट की मदद से सीधे घाट पर उतर आती थीं। दासियाँ साड़ी का घेरा बनाती थी और स्नान के पहले व बाद रानी और राजमाता पुनः लिफ्ट के माध्यम से महल में वापस चली जाती थी। रख-रखाव न किये जेन के कारण हाथों से चलायी जा सकनेवाली लिफ्ट काल के गर्त में समा चुकी है। जानकार पर्यटक इसके बारे में जानते हैं वह दरभंगा घाट पर बने इस महल को जरूर देखने आते हैं। दरभंगा महल की यह मानवचालित यांत्रिक लिफ्ट इतिहास की एक धरोहर है। बहुत कम लोग जानते हैं कि 18वीं शताब्दी के अंतिम दशक में ही हमारे देश में लोग लिफ्ट का इस्तेमाल करने लगे थे। विज्ञान का अद्भुत समन्वय दरभंगा महल की लिफ्ट थी जो आज इतिहास के पन्नों में रह गई है। इस तकनीकमें सुधर कर आज भी मानवचालित लिफ्ट कम ऊंची इमारतों में उपयोग कर बिजली बचाई जा सकती है तथा अल्पशिक्षित श्रमिकों के लिए रोजगार का सृजन किया जा सकता है.

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

नयी खोज: हिग्स बोसॉन सूक्ष्मतम कण????? --संजीव 'सलिल''

imageनयी खोज हिग्स बोसॉन सूक्ष्मतम कण????? 

संजीव 'सलिल''
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नई दिल्ली। ब्रह्मांड के निर्माण के अनजाने रहस्यों को जानने की दिशा में एक और कदम मानव ने बढ़ाया।आज वह कण खोज निकाला गया जिससे सृष्टि तथा कालांतर में इंसान की रचना हुई। इस कण की अनुभूति विशिष्ट यंत्रों से ही संभव है। यह कण सृष्टि रचना में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करता है अतन इसे सृष्टि कण या ब्रम्हांड कण कहा जा सकता है। भारत में 'कण-कण में भगवान्' की मान्यता सनातन है। इसीलिए इसे ईश्वर के नाम से जोड़कर 'ईश्वरीय कण' कहा जा रहा है। 

विश्व को द्रव्यमान प्रदान करनेवाले मूल कणों में से एक हिग्स बोसोन के अस्तित्व की वैज्ञानिकों ने कल्पना की है। ये कण स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में नहीं हैं। स्विटजरलैंड और फ्रांस की सीमा पर जमीन से 100 मीटर नीचे 27 किलोमीटर लंबी सुरंगनुमा श्रम की प्रयोगशाला में इन कणों की जोरदार टक्कर से उत्पन्न असीम ऊर्जा से ऐसे कण बने हैं। लगभग तीस हजार करोड़ रुपए खर्च कर तलाशे गए इस कण को 100 सालों की सबसे बडी खोज कहा जा रहा है। वैज्ञानिकों ने सृष्टि की उत्पत्तिवाले बिग-बैंग सिद्धांत जैसी परिस्थितियों का कृत्रिम रूप से सृजन कर इन मूल कणों को खजने का प्रयास किया। लियोन लेडरममैन की कण भौतिकी पर केंद्रित लोकप्रिय विज्ञान पुस्तक 'दि गोड पार्टिकल : इफ द यूनिवर्स इज द आंसर, व्हाट इज द क्वश्चन?' है। हिग्स--बोसों कणों के इस नामकरण से एक एक खोजकर्ता पीटर हिग्स अप्रसन्न हुए पर लेडरमैन के अपने तर्क थे। इन कणों की संरचना और गुणों को आधुनिक भौतिकी के ज्ञात सिद्धांतों द्वारा न समझे जा सकने के कारण लेडरमैन को यह नाम उचित प्रतीत हुआ। पुस्तक को अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए प्रकाशक ने पुस्तक का नाम 'गोडडैम पार्टिकल' से 'गोड पार्टिकल' कर दिया। इन कणों  को ईश्वरीय कण या गोड पार्टिकल यह खोज अपने पीछे दो अहम सवाल पीछे छोड़ गईं हैं- पहला- क्या इंसान अब ईश्वर बनने की कोशिश में है? क्या वो कुदरत के साथ खेल रहा है? दूसरा- आखिर इस नई खोज से मानवजाति का क्या फायदा होगा? 

सदी का सबसे बड़ा महाप्रयोग सफल :
 
इंसान कुदरत के सबसे बड़े राज को सुलझाने के करीब पहुँच गया है। इस कण की झलक दिखते ही स्विटजरलैंड और फ्रांस की सीमा पर बनी प्रयोगशाला तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठी। वैज्ञानिकों ने उस सर्वशक्तिमान कण को खोज निकाला है जो ब्रह्मांड का रचयिता है।

50 सालों से सिर्फ किताब और वैज्ञानिक फॉर्मूलों में कैद ईश्वरीय कण की मौजूदगी का ऐलान जिनेवा में 21 देशों के समूह- यूरोपियन ऑर्गेनाइजेशन फॉर न्यूक्लियर रिसर्च यानि सीईआरएन के हेड ने किया। इस कण की तलाश में सर्न की दो-दो टीमें जुटी थी। उन्हें सभी प्रयोग जमीन के 100 मीटर नीचे बनी 27 किलोमीटर लंबी सुरंगनुमा लार्ज हेडरॉन कोलाइडर यानि एलएचसी में करना था। 21 देशों के 15 हजार वैज्ञानिक सदी के इस महाप्रयोग में जुटे थे। 2008 से लेकर 2012 तक चार सालों में इस सुरंग के भीतर अनगिनत प्रयोग किए गए। स्विटज़रलैंड के परमाणु शोध संगठन (सर्न ) तथा फ़र्मी नॅशनल एक्सेलेटर लैब के अनुसार इस कण का वज़न 125-126 गीगा इलेक्ट्रोन वोल्ट है।
 
लक्ष्य था इस सुरंग के भीतर वैसा ही वातावरण पैदा करना जैसा 14 अरब साल पहले 'बिग बैंग' के समय था, जब तारों की भयानक टक्कर से हमारी आकाश गंगा बनी थी। उस आकाश गंगा का एक छोटा सा हिस्सा मात्र है हमारी पृथ्वी। माना जाता है कि उस समय अंतरिक्ष में हुए उस महाविस्फोट के बाद ही पहली बार ईश्वरीय कण या हिग्स  बोसॉन नजर आये थे।
                                                                                                      
उस बिग बैंग को दोबारा प्रयोगशाला में पैदा करने का काम बेहद जटिल था। उसके लिये इस सुरंग के अन्दर प्रोटोन्स कणों को आपस में टकराया गया। प्रोटोन किसी भी पदार्थ के सूक्ष्म कण होते हैं। जिनकी टक्कर से ऊर्जा निकलती है। माना जा रहा है कि ऐसी असंख्य टक्करों के बाद करीब 300 ईश्वरीय कण पैदा हुए। ये ईश्वरीय कण या गॉड पार्टिकल किसी भी अणु या ऐटम को भार यानि मास और स्थायित्व देते हैं। इस पार्टिकल के जरिए ही अणुओं में स्थायित्व आता है और निराकार से साकार रूप धारण करते हैं। कहा जा सकता है यह कण ही रचना करता है- इसीलिए इसे ईश्वर समान कहा गया है किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है की अन्य पूर्व ज्ञात या भविष्य में ज्ञात होनेवाले कण ईश्वरीय नहीं होंगे। 
 
वैज्ञानिकों के दावे को सही मानें तो कह सकते हैं कि  इंसान ने जीवन की सबसे मुश्किल पहेली सुलझा ली है। वैज्ञानिक अब भी कह रहे हैं कि ये गॉड पार्टिकल कैसा है, इसे जानने में समय लगेगा लेकिन यह खोज विज्ञान की मान्यताएँ और सृष्टि के निर्माण की अवधारणाएँ बदल सकती है।    

1969 में ब्रिटेन के रिसर्चर पीटर हिग्स ने सबसे पहले इन कणों  की मौजूदगी की बात कह कर सबको चौंका दिया था। तब यह कण सिर्फ 'पार्टिकल फिजिक्स' की थ्योरी में मौजूद था। आज इतने सालों बाद अपनी उस कल्पना को सच होते देखना हिग्स के लिए बेहद रोमांचक अनुभव था। हिग्स को खास तौर पर सर्न ने इस ऐलान के लिए जिनेवा बुलवाया था। 

इंसान इस ब्रह्मांड का फीसदी हिस्सा ही जानता है, हिग्स बोसोन या गॉड पार्टिकल या ईश्वरीय कण, हमारे ज्ञान को नई सीमाएं देगा। इसीलिए इसे सदी की सबसे बड़ी और रोमांचक खोज माना जा रहा है।
सृष्टि संरचना की भारतीय मान्यता::


… परमात्मा परमेश्वर का आदि और अन्त नहीं है, वे ही जगत् को धारण करने वाले अनन्त पुरुषोत्तम हैं। उन्हीं परमेश्वर से अव्यक्त की उत्पत्ति होती है और उन्हीं से आत्मा (पुरुष) भी उत्पन्न होता है। उस अव्यक्त प्रकृति से बुद्धि, बुद्धि से मन, मन से आकाश, आकाश से वायु, वायु से तेज, तेज से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है। हे रुद्र! इसके पश्चात् हिरण्मय अण्ड उत्पन्न हुआ। उस अण्ड में वे प्रभु स्वयं प्रविष्ट होकर जगत् की सृष्टि के लिये सर्वप्रथम शरीर धारण करते हैं (निराकार चित्रगुप्त साकार काया ग्रहण कर कायस्थ होते हैं) । तदनन्तर चतुर्मुख ब्रह्मा का रूप धारण कर रजोगुण के आश्रय से उन्हीं देव ने इस चराचर विश्व की सृष्टि की। 

देव, असुर एवं मनुष्यों सहित यह सम्पूर्ण जगत् उसी अण्ड में विद्यमान है। वे ही परमात्मा स्वयं स्रष्टा ( ब्रह्मा) -के रूप में जगत् की संरचना करते हैं, विष्णु रूप में जगत् की रक्षा करते हैं और अन्त में संहर्ता शिव के रूप में वे ही देवसंहार करते हैं। इस प्रकार एकमात्र वे ही परमेश्वर ब्रह्मा केरूप में सृष्टि, विष्णु के रूप में पालन और कल्पान्त के समयरुद्र के रूप में संपूर्ण जगत को विनष्ट करते हैं। सृष्टि के समय वे ही वराह का रूप धारण कर अपने दाँतों से जलमग्न पृथ्वी का उद्धार करते हैं। हे शंकर! संक्षेप में ही मैं देवादि की सृष्टि का वर्णन कर रहा हूं; आप उसको सुनें। 

सबसे पहले उन परमेश्वर से महातत्व की सृष्टि होती है। वह महातत्व उन्हीं ब्रह्म का विकार है। पञ्च तन्मात्राओं (रूप, रस, गण, स्पर्श और शब्द) की उत्पत्ति से युक्त द्वितीय सर्ग है। उसे भूत-सर्ग कहा जाता है। (इन पञ्चतन्मात्राओं से पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश-रूप में महाभूतों की सृष्टि होती है।) यह तीसरा वैकारिक सर्ग है, (इसमें कर्मेन्दिय एवं ज्ञानेन्दियों की सृष्टि आती है इसलिये) इसे ऐन्द्रिक भी कहा जाता है। इसकी उत्पत्ति बुद्धिपूर्वक होती है, यह प्राकृत-सर्ग है। चौथा सर्ग मुख-सर्ग है। पर्वत और वक्षादि स्थावरों को मुख्य माना गया है। पाँचवां सर्गतिर्यक् सर्ग कहा जाता है, इसमें तिर्यक्स्रोता (पशु-पक्षी आदि) आते हैं। इसके पश्चात् ऊर्ध्वस्रोतों की सृष्टि होती है। इस छठे सर्ग को देव-सर्ग भी कहा गया है। तदनन्तर सातवाँ सर्ग अर्वाक् स्रोतों का होता है। यही मानुष-सर्ग है।                                               

आठवाँ अनुग्रह नामक सर्ग है। वह सात्विक और तामसिक गुणों से संयुक्त है। इन आठ सर्गों में पाँच वैकृत-सर्ग और तीन प्राकृत-सर्ग कहे गये हैं। कौमार नामक सर्ग नवाँ सर्ग है। इसमें प्राकृत और वैकृत दोनों सृष्टियाँ विद्यमान रहती हैं। 

हे रुद्र! देवों से लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकार की सृष्टि कही गयी है। सृष्टि करते समय ब्रह्मा से (सबसे पहले) मानस पुत्र उत्पन्न हुए। तदनन्तर देव, असुर, पितृ और मनुष्य-इस सर्ग चतुष्टय का प्रादुर्भाव हुआ। इसके बाद जल-सृष्टि की इच्छा से उन्होंने अपने मन कोसृष्टि-कार्य में संलग्न किया। सृष्टि-कार्य में प्रवृत्त होने पर ..ब्रह्मा से तमोगुण का प्रादुर्भाव हुआ। अतः, सृष्टि की अभिलाषा रखने वाले ब्रह्मा की जंघा से सर्वप्रथम असुर उत्पन्न हुए। हे शंकर! तदनन्तर ब्रह्मा ने उस तमोगुण से युक्त शरीर का परित्याग किया तो उस शरीर से निकली हुई तमोगुण की मात्रा ने स्वयं रात्रि का रूप धारण कर लिया। उस रात्रिरूप सृष्टि को देखकर यक्ष और राक्षस बहुत ही प्रसन्न हुए।        

 
 हे शिव! उसके बाद सत्वगुण की मात्रा के उत्पन्न होने परप्रजापति ब्रह्मा के मुख से देवता उत्पन्न हुए। तदनन्तर जब उन्होंने सत्वगुण-समन्वित अपने उस शरीर का परित्याग किया तो उससे दिन का प्रादुर्भाव हुआ, इसीलिये रात्रि में असुर और दिन में देवता अधिक शक्तिशाली होते हैं। उसके पश्चात ब्रह्मा के उस सात्विक शरीर से पितृगणों की उत्पत्ति हुई। इसके बाद ब्रह्मा के द्वारा उस सात्विक शरीर का परित्याग करने पर संध्या की उत्पत्ति हुई जो दिन और रात्रि के मध्य अवस्थित रहती है। तदनन्तर ब्रह्मा के रजोमयशरीर से मनुष्यों का प्रादुर्भाव हुआ। जब ब्रह्मा ने उसका परित्याग किया तो उससे ज्योत्सना (उषा) उत्पन्न हुई, जो प्राक्सन्ध्या के नाम से जानी जाती है। ज्योत्सना, रात्रि, दिन और संध्या - ये चारों उस ब्रह्मा के ही शरीर हैं।    तत्पश्चात् (ब्रह्मा के

रजोगुणमय शरीर के आश्रय से सुधा और क्रोध का जन्म हुआ। उसके बाद ब्रह्मा से ही भूख-प्यास से आतुर एवं रक्त-मांस पीने खाने वाले राक्षसों तथा यक्षों की उत्पत्ति हुई। राक्षसों से रक्षण के कारण राक्षस कहा गया और भक्षण के कारण यक्षों को यक्ष नाम की प्रसिद्धि प्राप्त हुई। तदनन्तर ब्रह्मा के केशों से सर्प उत्पन्न हुए। ब्रह्मा के केश उनके सिर से नीचे गिरकर पुन : उनके सिर पर आरूढ़ हो गये- यही सर्पण है। इसी सर्पण (गतिविरोध ) के कारण उन्हें सर्प कहा गया। 

उसके बाद ब्रह्मा के क्रोध से भूतों (इन प्राणियों में क्रोध की मात्रा अधिक होती है) का जन्म हुआ। तदनन्तर ब्रह्मा से गंधर्वों की उत्पत्ति हुई। गायन करते हुए इन सभी का जन्म हुआ था. इसलिये इन्हें गंधर्व और अप्सरा की ख्याति प्राप्त हुई। उसके बाद प्रजापति ब्रह्मा के वक्ष स्थल से स्वर्ग और द्युलोक उत्पन्न हुआ। उनके मुख से अज, उदर- भाग से तथा पार्श्व- भाग से गौ, पैर- भाग से हाथी सहित अश्व, महिष, ऊँट और भेड़ की उत्पत्ति हुई। उनके रोमों से फल -फूल एवं औषधियों का प्रादुर्भाव हुआ। 

गौ, अज, पुरुष- ये मेध्य या अवध्य ( पवित्र ) हैं। घोड़े, खच्चर और गदहे प्राप्य पशु कहे जाते हैं। अब मुझ से वन्य पशुओं का सुनो - इन वन्य जन्तुओं में पहले श्वापद ( हिंसकव्याघ्रादि ) पशु दूसरे दो खुरोंवाले, तीसरे हाथी, चौथे बंदर, पाँचवें पक्षी, छठे कच्छपादि जलचर और सातवें सरीसृप जीव ( उत्पन्न हुए ) हैं।

उन ब्रह्मा के पूर्वादि चारों मुखों से ऋक्, यजुष्, सामतथा अथर्व - इन चार वेदों का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हीं के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, ऊरु- भाग से वैश्य तथा पैरों से शूद्र उत्पन्न हुए। उसके बाद उन्होंने ब्राह्मणों के लिये ब्रह्मलोक, क्षत्रियों के लिये इन्द्रलोक, वैश्यों कै लिये वायुलोक और शूद्रों के लिये गन्धर्व लोक का निर्धारण किया। उन्होंने ही ब्रह्मचारियों के लिये ब्रह्मलोक, स्वधर्मनिरत गहस्थाश्रम का पालन करने वाले लोगों के लिये प्राजापत्यलोक, वानप्रस्थाश्रमियों के लिये सप्तर्षिलोक और संन्यासी तथा इच्छानुकूल सदैव विचरण करने वाले परम तपोनिधियों के लिये अक्षयलोक का निर्धारण किया। 

भारत का योगदान::

इस महत्वपूर्ण अनुसन्धान में भारत के 100 से अधिक वैज्ञानिक विविध स्तरों पर सम्मिलित रहे। भारतीय वैज्ञानिक डॉ. अर्चना शर्मा प्रारंभ से ही इस महाप्रयोग का हिस्सा रही हैं। इस अनुसन्धान में प्रयोग हुए महा चुम्बक एफिल टोवर से अधिक भारी लगभग 800 टन के हैं तथा भारत में बने हैं।

महत्त्व::

इस कण की खोज से परमाणु ऊर्जा, कम्प्यूटर, औषध निर्माण, तथा अन्तरिक्ष के अनुसन्धान में महती मदद मिलेगी। . 

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(साभार - कल्याण संक्षिप्त गरूड़पुराणांक जनवरी - फरवरी 2000)

(आभार:: रचनाकार)

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