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गुरुवार, 6 जुलाई 2023

सोनेट, मतदान, नवगीत, अर्चन, ज्योति, धर्म, पर्यावरण गीत, जिकड़ी छंद, मुक्तक, दोहे

सॉनेट
मतदान
*
मत दान कर, मतदान कर
शुभ का सदा गुणगान कर
श्रम-साधना वरदान कर
विद्वान का सम्मान कर
जो हो रहा, वह देख-सुन
क्या उचित-अनुचित मौन गुन
सपने नए दिन-रात बुन
साकार करने एक चुन
वर लक्ष्य, शर-संधान कर
रख देह अपनी तानकर
हो दृष्टि स्थिर, संकल्प दृढ़
हँस कोशिशों का मानकर
कह बात हर रस-खान कर
रस-लीन हो, सज जानकर
६-७-२०२२
•••
सॉनेट
अर्चन
*
अर्चन कर पाऊँ शिव तेरा
अर्पण कर रस-छंद गीत कुछ
नर्तन काव्य कामिनी का हो
अर्जन हो यश-कीर्ति का तनिक
श्वासों से सध सके तरन्नुम
आसें में अदायगी उसकी
त्रासों-हासों का दाता जो
रासें बनें बंदगी उसकी
ज्यों की त्यों चादर धर पाएँ
अंतिम पल प्रभु रहें ध्यान में
तब तक सत् शिव सुंदर गाएँ
चारण बनकर ईश-शान में
शिव तुझ बिन सब कुछ केवल शव
शिवा कर कृपा, छूट सके भव
६-७-२०२२
•••
पुस्तक चर्चा:
'ऐसा भी होता है' गीत मन भिगोता है
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[पुस्तक परिचय: ऐसा भी होता है, गीत संग्रह, शिव कुमार 'अर्चन', वर्ष २०१७, आईएसबीएन ९७८-९३-९२२१२- ८९-५, आकार २१ से.मी.x १४ से.मी., आवारण बहुरंगी, पेपरबैक, पृष्ठ ८०, मूल्य ७५/-, पहले पहल प्रकाशन, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल, ९८२६८३७३३५, गीतकार संपर्क: १० प्रियदर्शिनी ऋषि वैली, ई ८ गुलमोहर विस्तार, भोपाल, ९४२५१३७१८७४]
*
सौंदर्य की नदी नर्मदा अपने अविरल-निर्मल प्रवाह के लिए विश्व प्रसिद्ध है। आदिकाल से कलकल निनादिनी के तट पर शब्द-साधना और शब्द-साधकों की अविच्छिन्न परंपरा रही है। इस परंपरा को वर्तमान समय में आगे बढ़ाने में महती भूमिका का निर्वहन के प्रति सचेष्ट सरस्वती-सुतों में शिवकुमार 'अर्चन' का नाम उल्लेखनीय है। शिवकुमार गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में दखल रखते हैं। विवेच्य कृति के पूर्व दो कृतियों ग़ज़ल क्या कहे कोई २००७ तथा गीत संग्रह उत्तर की तलाश २०१३ के माध्यम से हिंदी जगत ने अर्चन के कृतित्व में अंतर्निहित बाँकी बिम्बात्मकता और मौलिक कहन के गंगो-जमुनी संगम का आनंद लिया है।
अर्चन के गीत आम आदमी के दर्द-दुःख, जीवन के उतार-चढ़ाव, मौसम की धूप-छाँव और संघर्ष-सफलता के बीच में से उभरते हैं। अर्चन आकाश कुसुम की तरह काल्पनिक कमनीयता, दिवास्वप्न की तरह वायवी आदर्शवादिता, कृत्रिम क्रंदन के कोलाहल, ऐ.सी. में बैठकर नकली अभावों की प्रदर्शनी लगाने, अथवा गले तक ठूस कर भोग लगाने के बाद भुखमरी को शोकेस में सजानेवाले शब्द-बाजीगरों से सर्वथा अलग शिष्ट-शांत, मर्यादित तरीके और सलीके से अपनी बात सामने रखने में दक्ष हैं।
प्रेम और श्रृंगार अर्चन के प्रिय विषय है किन्तु सात्विकता के पथिक होने के नाते वे प्रदर्शनप्रियता, प्रगल्भता और अश्लीलता का स्पर्श भी नहीं करते। साहित्यिक गोष्ठियों, काव्य मंचों, आकाशवाणी और दूरदर्शन पर अपने गीतों और ग़ज़लों के माधुर्य के लिए अर्चन जाने जाते हैं। सात्विक श्रृंगार की एक बानगी 'फूल पारिजात के' गीत से-
आँखों में उग आये / फूल पारिजात के
ऐसे अनुदान हुए / भीगी बरसात के
साँसों पर टहल रहीं / अनछुई सुगन्धियाँ
राजमार्ग जीती हैं / सूनी पगडंडियाँ
तितली के पंखों पर / हैं निबंध रात के
कविता का उत्स पीड़ा से सर्व मान्य है। भारतीय वांग्मय में मिथुनरत क्रौंच युगल पर व्याध के शर-प्रहार से नर का प्राणांत होने पर व्याकुल क्रौंची के आर्तनाद को काव्य का उद्गम कहा गया है तो अरब में हिरन शावक के वध पश्चात हिरनी के आर्तनाद को ग़ज़ल का मूल बताया गया है। पर्सी बायसी शैली के शब्दों में ''Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.'' गीतकार शैलेन्द्र कहते हैं- ''हैं सबसे मधुर वो गीत जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं'' अर्चन का अनुभव इनसे जुदा न होते हुए भी जुदा है। जुदा इसलिए नहीं कि अर्चन भी छंद का उत्स दर्द से मानते हैं, जुदा इसलिए कि यह दर्द मृत्युजनित नहीं, प्रेमजनित है।
जो ऐसे अनुबंध न होते / दर्द हमारे छंद न होते
अगर न पीड़ाओं को गाते / तो शायद कब के मर जाते
और
जब-जब हमने गीत उठाया / दौड़ा, दौड़ा आँसू आया
अर्चन गीत और नवगीत को एक शाख पर खिले दो फूलों की तरह देखते हैं। उन्हें गीत-नवगीत में भारत-पकिस्तान की तरह अनुल्लंघ्य सीमारेखा कहीं नहीं दिखती। इसलिए वे दोनों को साथ-साथ रचते, गुनगुनाते, गाते है नहीं छपाते भी रहे हैं। अर्चन के नवगीत 'अभाव' को सहजता से सहकर 'भाव' की भव्यता को जीते भारतीय मानस के आत्मानंद को अभिव्यक्त करते हैं। वे सहज सुलभ सुविधा से रहते हुए आडम्बरी असुविधा को शब्दों में गूँथने का पाखंड नहीं करते। संभवत: इसीलिये साम्यवादी विचारधारा समर्थक आलोचक अर्चन के नवगीतों में सामाजिक विघटन परक विसंगति-विडम्बना और ओढ़े हुए दर्द-अन्याय के भाव में उन्हें नवगीत कहते झिझकते हैं। अर्चन ने नवगीत को उत्सवधर्मी भावमुद्रा दी है। एक झलक 'धरती मैया' शीर्षक नवगीत से- जय-जय धरती मैया रे / चल-चल-चल हल भैया रे!
गीत उगायें माटी में / गीतों के राम रखैया रे!
झम्मर-झम्मर बदरा बरसे / महकी क्यारी-क्यारी...
... धरती के पृष्ठों पर लिख दें / श्रम की नयी कहानी...
... अमृत बाँटा, ज़हर पी लिया / श्रम इस तरह जिया है
धरती पलना, डूब बिछौना / अम्बर ओढ़ लिया है
जिन्हें नहीं है श्रम से मतलब खाएं दूध मलैया रे!
यह नवगीत लोकगीत, जनगीत और पारंपरिक गीत तीनों में गिना जा सकता है। यह गीत अर्चन की समरसतापरक सोच की बानगी प्रस्तुत करता है।
'संध्या' शीर्षक नवगीत में ताम के हाथों तमाचा खाकर शंकाओं को जनम देने वाला उजियारा हो या प्रश्न चिन्ह लिए लौट रहा श्रम अथवा सौतन रात के कहर से रोती सूर्यमुखी तीनों का अंत आशा, उल्लास के सूर्य का वंश पालने से होता है। नवगीत के उद्गम के समय चिन्हित किये गए कुछ लक्षणों को पत्थर की लकीर मान रहे तथाकथित प्रगतिवादी खेमे के समीक्षक 'गीत' के मरने की घोषणा कर खुद को कालजयी मानने की मृग मरीचिका से छले जाकर इहलोक से प्रस्थान कर गए किन्तु गीत और छंद अदम्य जिजीविषा के पर्याय बनकर नवपरिवेशानुकूल साज-सज्जा के साथ सर उठाकर खड़े ही नहीं हुए, सृजनाकाश में अपनी पताका भी फहरा रहे हैं। नवगीत की उत्सवधर्मी भावमुद्रा के विकास में अर्चन का योगदान उल्लेखनीय है।
जले-जले, दीपक जले-जले
अँधियारों की गोदी / सूरज के वंश पले
पोखर में डूब गया / सूरज का गोला
***
***
विमर्श
ज्योति
- ज्योति से ज्योति जलाते चलो...
- ज्योति जलेगी तो आलोक फैलेगा, तिमिर मिटेगा।
- ज्योति तब जलेगी जब बाती, स्नेह (तेल) और दीपक होगा।
- बाती बनाने के लिए कपास उगाने, तेल के लिए तिल उगाने और दीप बनाने के लिए अपरिहार्य है माटी।
- माटी ही मिटकर दीप, तेल और बाती में रूपांतरित होती है तथापि इन तीनों से तम नहीं मिटता, आलोक नहीं फैलता।
- माटी का मिटना सार्थक तब होता है जब अग्नि ज्योतित होती है।
- अग्नि बिना पवन के ज्योतित नहीं हो सकती।
- माटी पानी को आत्मसात किए बिना दीपक नहीं बन सकती।
- पानी पाए बिना न तो कपास उत्पन्न हो सकती है न तिल।
- आकाश न हो तो प्रकाश कहाँ फैले?
- माटी, पानी, पवन, आकाश और अग्नि होने पर भी उन्हें रूपांतरित और समन्वित करने के लिए मनुष्य का होना और उद्यम करना जरूरी है।
- उद्यम करने के लिए चाहिए मति या बुद्धि।
- मति रचने की ओर प्रवृत्त तभी होगी जब उसे जग और जीवन में रस हो।
- रसवती मति सरसवती होकर सत-शिव-सुंदर का सृजन करती है और सरस्वती के रूप में सुर, नर, असुर, वानर, किन्नर सबकी पूज्य और आराध्य होती है।
- वह सरस्वती ही विधि (ब्रह्मा), हरि (विष्णु) और हर (महेश) की नियामक है।
- सरस्वती ही त्रिदेवों की आत्मशक्ति के रूप में उन्हें सक्रिय करती है।
- शक्ति का अस्तित्व शक्तिवान को बिना संभव नहीं। यह शक्तिवान निर्गुण है, निराकार है।
- निराकार का चित्र नहीं हो सकता अर्थात चित्र गुप्त है।
- निराकार ही सगुण-साकार होकर सकल सृष्टि में अभिव्यक्त होता है।
- निवृत्ति और प्रवृत्ति का सम्मिलन हुए बिना रचना नहीं होती।
- रचनाकार ही खुद को भाषा, भूषा, लिंग, क्षेत्र, विचारधारा को आधार पर विभाजित कर मठाधीशी करने लगे तो सरस्वती कैसे प्रसन्न हो सकती है?
- विश्वैक नीड़म्, वसुधैव कुटुम्बकम्, अयमात्मा ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि और शिवोsहम् की विरासत पाकर भी जीवन में रस का अभाव अनुभव करना विडंबना ही है।
- आइए! रसाराधना कर श्वास-श्वास को रसवती, सरसवती बनाएँ ।
***
***
विमर्श
धर्म
*
- धर्म क्या है?
- धर्म वह जो धारण किया जाए
- क्या धारण किया जाए?
- जो शुभ है
- शुभ क्या है?
- जो सबके लिए हितकारी, कल्याणकारी हो
- हमने जितना जीवन जिया, उसमें जितने कर्म किए, उनमें से कितने सर्वहितकारी हैं और कितने सर्वहितकारी? खुद सोचें गम धार्मिक हैं या अधार्मिक?
- गाँधी से किसी ने पूछा क्या करना उचित है, कैसे पता चले?
- एक ही तरीका है गाँधी' ने कहा। यह देखो कि उस काम को करने से समाज के आखिरी आदमी (सबसे अधिक कमजोर व्यक्ति) का भला हो रहा है या नहीं? गाँधी ने कहा।
- हमारे कितने कामों सो आखिरी आदमी का भला हुआ?
- अपना पेट तो पशु-पक्षी भी भर लेते हैं। परिंदे, चीटी, गिलहरी जैसे कमजोर जीव आपत्काल के लिए बताते भी हैं किंतु ताकतवर शेर, हाथी आदि कभी जोड़ते नहीं। इतना ही नहीं, पेट भरने के बाद खाते भी नहीं, अपने से कमजोर जानवरों के लिए छोड़ देते हैं जिसे खाकर भेजिए, सियार उनका छोड़ा खाकर बाज, चील, अवशिष्ट खाकर इल्ली आदि पाते हैं।
- हम तथाकथित समझदार इंसान इसके सर्वथा विपरीत आचरण करते हैं। खाते कम, जोड़ते अधिक हैं। यहाँ तक कि मरने तक कुछ भी छोड़ते नहीं।
- धार्मिक कौन है? सोचें, फकीर या राजा, साधु या साहूकार?, समय का अधिकारी?
- गम क्या बनना चाहते हैं? धार्मिक या अधार्मिक?
६-७-२०२०
***
दोहा सलिला
प्रात नमन करता अरुण, नित अर्णव के साथ
कहे सत्य सारांश में, जिओ उठाकर माथ
जिओ उठाकर माथ, हाथ यदि थाम चलोगे
पाओगे आलोक, धन्य अखिलेश कहोगे
रमन अनिल में करो, विजय तब मिल पाएगी
श्रीधर दिव्य ज्योत्सना मुकुलित जय गाएगी
मीनाक्षी सपना चंदा नर्मदा नहाएँ
तारे हो संजीव, सलिल में भव तर जाएँ
शिव शंकर डमडम डिमडिम डमरू गुंजाएँ
शिवा गजानन कार्तिक से मन छंद लिखाएँ
जगवाणी हिंदी दस दिश हो सके प्रतिष्ठित
संग बोलियाँ-भाषाएँ सब रहें अधिष्ठित
कर उपासना सतत साधना सद्भावों की
होली जला सकें हम मिलकर अलगावों की
६-७-२०
***
पर्यावरण गीत
पौधा पेड़ बनाओ
*
काटे वृक्ष, पहाडी खोदी, खो दी है हरियाली.
बदरी चली गयी बिन बरसे, जैसे गगरी खाली.
*
खा ली किसने रेत नदी की, लूटे नेह किनारे?
पूछ रही मन-शांति, रहूँ मैं किसके कहो सहारे?
*
किसने कितना दर्द सहा रे!, कौन बताए पीड़ा?
नेता के महलों में करता है, विकास क्यों क्रीड़ा?
*
कीड़ा छोड़ जड़ों को, नभ में बन पतंग उड़ने का.
नहीं बताता कट-फटकर, परिणाम मिले गिरने का.
*
नदियाँ गहरी करो, किनारे ऊँचे जरा उठाओ.
सघन पर्णवाले पौधे मिल, लगा तनिक हर्षाओ.
*
पौधा पेड़ बनाओ, पाओ पुण्य यज्ञ करने का.
वृक्ष काट क्यों निसंतान हो, कर्म नहीं मिटने का.
*
अगला जन्म बिगाड़ रहे क्यों, मिटा-मिटा हरियाली?
पाट रहा तालाब जो रहे , टेंट उसी की खाली.
*
पशु-पक्षी प्यासे मारे जो, उनका छीन बसेरा.
अगले जनम रहे बेघर वह, मिले न उसको डेरा.
*
मेघ करो अनुकंपा हम पर, बरसाओ शीतल जल.
नेह नर्मदा रहे प्रवाहित, प्लावन करे न बेकल.
*
***
अभिनव प्रयोग:
प्रस्तुत है पहली बार खड़ी हिंदी में बृजांचल का लोक काव्य भजन जिकड़ी
जय हिंद लगा जयकारा
(इस छंद का रचना विधान बताइए)
*
भारत माँ की ध्वजा, तिरंगी कर ले तानी।
ब्रिटिश राज झुक गया, नियति अपनी पहचानी।। ​​​​​​​​​​​​​​
​अधरों पर मुस्कान।
गाँधी बैठे दूर पोंछते, जनता के आँसू हर प्रात।
गायब वीर सुभाष हो गए, कोई न माने नहीं रहे।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
रास बिहारी; चरण भगवती; अमर रहें दुर्गा भाभी।
बिन आजाद न पूर्ण लग रही, थी जनता को आज़ादी।।
नहरू, राजिंदर, पटेल को, जनगण हुआ सहारा
जय हिंद लगा जयकारा।।
हुआ विभाजन मातृभूमि का।
मार-काट होती थी भारी, लूट-पाट को कौन गिने।
पंजाबी, सिंधी, बंगाली, मर-मिट सपने नए बुने।।
संविधान ने नव आशा दी, सूरज नया निहारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
बनी योजना पाँच साल की।
हुई हिंद की भाषा हिंदी, बाँध बन रहे थे भारी।
उद्योगों की फसल उग रही, पञ्चशील की तैयारी।।
पाकी-चीनी छुरा पीठ में, भोंकें; सोचें: मारा।
जय हिंद लगा जयकारा।।
पल-पल जगती रहती सेना।
बना बांग्ला देश, कारगिल, कहता शौर्य-कहानी।
है न शेष बासठ का भारत, उलझ न कर नादानी।।
शशि-मंगल जा पहुँचा इसरो, गर्वित हिंद हमारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
सर्व धर्म समभाव न भूले।
जग-कुटुंब हमने माना पर, हर आतंकी मारेंगे।
जयचंदों की खैर न होगी, गाड़-गाड़कर तारेंगे।।
आर्यावर्त बने फिर भारत, 'सलिल' मंत्र उच्चारा।।
जय हिंद लगा जयकारा।।
***
६.७.२०१८


दो कवि रचना एक:
*
शीला पांडे:
झूठ मूठ की कांकर सांची गागर फोड़ गयी
प्रेम प्रीत की प्याली चटकी घायल छोड़ गयी
*
संजीव वर्मा 'सलिल'
लिए आस-विश्वास फेविक्विक आँख लगाती है
झुकी पलक संबंधों का नव सेतु बनाती है.
६-७-२०१८
***
मुक्तक:
*
भारती की आरती है शुभ प्रभात
स्वच्छता ही तारती है शुभ प्रभात
हरियाली चूनर भू माँ को दो-
मैया मनुहारती है शुभ प्रभात
*
झुक बुजुर्ग से आशिष लेना शुभ प्रभात है
छंदों में नव भाव पिरोना शुभ प्रभात है
आशा की नव फसलें बोना शुभ प्रभात है
कोशिश कर अवसर ना खोना शुभ प्रभात है
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध, कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
***
गीत:
मन से मन के तार जोड़ती.....
*
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
जहाँ न पहुँचे रवि पहुँचे वह, तम को पिए उजास बने.
अक्षर-अक्षर, शब्द-शब्द को जोड़, सरस मधुमास बने..
बने ज्येष्ठ फागुन में देवर, अधर-कमल का हास बने.
कभी नवोढ़ा की लज्जा हो, प्रिय की कभी हुलास बने..
होरी, गारी, चैती, सोहर, आल्हा, पंथी, राई का
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
सुख में दुःख की, दुःख में सुख की झलक दिखाकर कहती है.
सलिला बारिश शीत ग्रीष्म में कभी न रुकती, बहती है.
पछुआ-पुरवैया होनी-अनहोनी गुपचुप सहती है.
सिकता ठिठुरे नहीं शीत में, नहीं धूप में दहती है.
हेर रहा है क्यों पथ मानव, हर घटना मनभाई का?
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
*
हर शंका को हरकर शंकर, पियें हलाहल अमर हुए.
विष-अणु पचा विष्णु जीते, जब-जब असुरों से समर हुए.
विधि की निधि है प्रविधि, नाश से निर्माणों की डगर छुए.
चाह रहे क्यों अमृत पाना, कभी न मरना मनुज मुए?
करें मौत का अब अभिनन्दन, सँग जन्म के आई का.
मन से मन के तार जोड़ती कविता की पहुनाई का.
जिसने अवसर पाया वंदन उसकी चिर तरुणाई का.....
***
मुक्तक:
*
गरज-बरसकर मेघ, कह रहे शुभ प्रभात है
योग भगाए रोग करें, कह शुभ प्रभात है
लगा-बचाकर पौध कहें हँस शुभ प्रभात है
स्वाध्याय कर, रचें नया कुछ शुभ प्रभात है
६-७-२०१७
***
गुरु महिमा
*
जीवन के गुर सिखाकर, गुरु करता है पूर्ण
शिष्य बिना गुरु,शुरू बिना रहता शिष्य अपूर्ण
*
गुरु उसको ही जानिए, जो दे ज्ञान-प्रकाश
आशाओं के विहग को, पंख दिशा आकाश
*
नारायण-आनंद का, माध्यम कर्म अकाम
ब्रम्हा-विष्णु-महेश ही, कर्मदेव के नाम
*
गुरु को अर्पित कीजिये, अपने सारे दोष
लोहे को सोना करें, गुरु पाये संतोष
*
गुरु न गूढ़, होता सरल, क्षमा करे अपराध
अहंकार-खग मारता, ज्यों निष्कंपित व्याध
***
गीत
शहर
*
मेरा शहर
न अब मेरा है,
गली न मेरी
रही गली है।
*
अपनेपन की माटी गायब,
चमकदार टाइल्स सजी है।
श्वान-काक-गौ तकें, न रोटी
मृत गौरैया प्यास लजी है।
सेव-जलेबी-दोने कहीं न,
कुल्हड़-चुस्की-चाय नदारद।
खुद को अफसर कहता नायब,
छुटभैया तन करे अदावत।
अपनेपन को
दे तिलांजलि,
राजनीति विष-
बेल पली है।
*
अब रौताइन रही न काकी,
घूँघट-लज्जा रही न बाकी।
उघड़ी ज्यादा, ढकी देह कम
गली-गली मधुशाला-साकी।
डिग्री ऊँची न्यून ज्ञान, तम
खर्च रूपया आय चवन्नी।
जन की चिंता नहीं राज को
रूपया रो हो गया अधन्नी।
'लिव इन' में
घायल हो नाते
तोड़ रहे दम
चला-चली है।
*
चाट चाट, खाना ख़राब है
देर रात सो, उठें दुपहरी।
भाई भाई की पीठ में छुरा
भोंक जा रहा रोज कचहरी।
गूँगे भजन, अजानें बहरी
तीन तलाक पड़ रहे भारी।
नाते नित्य हलाल हो रहे
नियति नीति-नियतों से हारी।
लोभतंत्र ने
लोकतंत्र की
छाती पर चढ़
दाल दली है।
६-७-२०१६
***
मुक्तक:
*
त्रासदी ही त्रासदी है इस सदी में
लुप्त नेकी हो रही है क्यों बदी में
नहीं पानी रहा बाकी आँख तक में
रेत-कंकर रह गए बाकी नदी में
*
पुस्तकें हैं मीत मेरी
हार मेरी जीत मेरी
इन्हीं में सुख दुःख बसे हैं
है इन्हीं में प्रीत मेरी
६-७-२०१५
***

बुधवार, 26 मई 2021

पर्यावरण गीत

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनार्मादा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 19 जुलाई 2020

पर्यावरण गीत: किस तरह आये बसंत

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया

अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.

जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.

शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 26 मई 2020

पर्यावरण गीत

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
२६-५-२०१३
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

पर्यावरण गीत: किस तरह आये बसंत

पर्यावरण गीत:
किस तरह आये बसंत
संजीव
*
मानव लूट रहा प्रकृति को
किस तरह आये बसंत?...
*
होरी कैसे छाये टपरिया?
धनिया कैसे भरे गगरिया?
गाँव लील कर हँसे नगरिया,
राजमार्ग बन गयी डगरिया
राधा को छल रहा सँवरिया
सुत भूला माँ हुई बँवरिया
अंतर्मन रो रहा निरंतर
किस तरह गाये बसंत?...
*
सूखी नदिया कहाँ नहायें?
बोल जानवर कहाँ चरायें?
पनघट सूने अश्रु बहायें,
राई-आल्हा कौन सुनायें?
नुक्कड़ पर नित गुटका खायें.
खलिहानों से आँख चुरायें.
जड़विहीन सूखा पलाश लाख
किस तरह भाये बसंत?...
*
तीन-पाँच करते दो दूनी.
टूटी बागड़ गायब थूनी.
ना कपास, तकली ना पूनी.
यांत्रिकता की दाढ़ें खूनी.
वैश्विकता ने खुशिया छीनी.
नेह नरमदा सूखी-सूनी.
शांति-व्यवस्था मिटी गाँव की
किस तरह लाये बसंत?...
*
सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम
दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

geet

एक गीत:
मत ठुकराओ
संजीव 'सलिल'
*
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेवा-मिष्ठानों ने तुमको
जब देखो तब ललचाया है.
सुख-सुविधाओं का हर सौदा-
मन को हरदम ही भाया है.
ऐश, खुशी, आराम मिले तो
तन नाकारा हो मरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
मेंहनत-फाके जिसके साथी,
उसके सर पर कफन लाल है.
कोशिश के हर कुरुक्षेत्र में-
श्रम आयुध है, लगन ढाल है.
स्वेद-नर्मदा में अवगाहन
जो करता है वह तरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
*
खाद उगाती है हरियाली.
फसलें देती माटी काली.
स्याह निशासे, तप्त दिवससे-
ऊषा-संध्या पातीं लाली.
दिनकर हो या हो रजनीचर
रश्मि-पुंज वह जो झरता है.
मत ठुकराओ तुम कूड़े को
कूड़ा खाद बना करता है.....
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सोमवार, 8 फ़रवरी 2016

navgeet

एक रचना -
भुन्सारे चिरैया
*
नई आई,
बब्बा! नई आई
भुन्सारे चरैया नई आई
*
पीपर पै बैठत थी, काट दओ कैंने?
काट दओ कैंने? रे काट दओ कैंने?
डारी नें पाई तो भरमाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
सैयां! नई आई
*
टला में पीयत ती, घूँट-घूँट पानी
घूँट-घूँट पानी रे घूँट-घूँट पानी
टला खों पूरो तो रिरयाई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
गुइयाँ! नई आई
*
फटकन सें टूंगत ती बेर-बेर दाना
बेर-बेर दाना रे बेर-बेर दाना
सूपा खों फेंका तो पछताई
भुन्सारे चरैया नई आई
नई आई,
लल्ला! नई आई
*
८-२-२०१६