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बुधवार, 23 अगस्त 2017

shringar geet

- स्मृति के वातायन से
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
नीरज के बाद गीत-रचना के फ़लक पर बहुत कम सितारे चमकते नज़र आते हैं। उन्हीं कम सितारों में से एक हैं आचार्य संजीव 'सलिल' जो टिप्पणियों में को भी गीत विधा में लिखते रहे हैं। एक अच्छी ख़बर यह है कि जल्द ही हिन्द-युग्म पर 'दोहा और इसका छंद-व्यवहार' की कक्षाएँ लेकर उपस्थित होने वाले हैं। आज हम इनका एक गीत अपने पाठकों के लिए लेकर उपस्थित हैं, जिसने नवम्बर माह की यूनिकवि प्रतियोगिता में सातवाँ स्थान बनाया।
पुरस्कृत कविता-
गीत
*
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ .
अंक में सर धर तुम्हारे,
एकटक तुमको निहारूँ...
*
नयन उन्मीलित, अधर कंपित,
कहें अनकही गाथा.
तप्त अधरों की छुअन ने,
किया मन को सरगमाथा.
दीप-शिख बन मैं प्रिये!
नीराजना तेरी उतारूँ...
*
हुआ किंशुक-कुसुम सा तन,
मदिर महुआ मन हुआ है.
विदेहित है देह त्रिभुवन,
मन मुखर काकातुआ है.
अछूते प्रतिबिम्ब की,
अँजुरी अनूठी विहँस वारूँ...
*
बाँह में ले बाँह, पूरी
चाह कर ले, दाह तेरी.
थाह पाकर भी न पाये,
तपे शीतल छाँह तेरी.
विरह का हर पल युगों सा,
गुजारा कैसे?, बिसारूँ...
*
बजे नूपुर, खनक कँगना,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ?, पी कँह? पुकारूँ...
*
पंचशर साधे निहत्थे पर,
कुसुम आयुध चला, चल.
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ...
*
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)15 कविताप्रेमियों का कहना है :
-बहुत ही प्यारा गीत। मुझे एक शब्द पर संदेह है---सरगमाथा।
मैने--- सगरमाथा-सुना था। एवरेष्ट की चोटी का पर्यायवाची है।
संभवतः यह टंकण त्रुटी है।
-- देवेन्द्र पाण्डेय।December 09, 2008 6:42 PM
*
- संजीव सलिल जी,
मुझे आपसे दोहे तो सीखने हैं ही पर आपकी कविताओं को पढ़ कर हिन्दी के शब्दों का ज्ञान भी बढ़ाना है...
-- तपन शर्मा December 09, 2008 7:26 PM
*
बहुत शुद्ध हिन्दी व्यवहार में ना लाने के कारण समझने के लिए थोड़ा और दो चार बार पढ़ना पडेगा...... फिलहाल ये के रवानी में मज़ा आ गया......
हिन्दी ज्ञान के लिए आपका अनुसरण करना चाहूँगा''.....
-- manu December 09, 2008 9:36 PM
*
बधाई! सुंदर भाव, सुंदर शब्द, और मधुर गीत. बहुत ही सुंदर!
Smart Indian - स्मार्ट इंडियन December 10, 2008 8:30 AM
*
थाम लूँ न फिसल जाए,
हाथ से यह मनचला पल.
चाँदनी अनुगामिनी बन.
चाँद वसुधा पर उतारूँ.
manmohak geet hai ,saadhuvaad aapko
-- neelam December 10, 2008 11:15 AM
*
बजे नूपुर, खनक कँगना,,
कहे छूटा आज अँगना.
देहरी तज देह री! रँग जा,
पिया को आज रँग ना.
हुआ फागुन, सरस सावन,
पी कहाँ?, पी कँह? पुकारूँ...
सुंदर रचना, शब्दों का सुंदर संसार, तरन्नुम में गाने को जी चाहता है
*
दिगम्बर नासवा December 10, 2008 1:44 PM
बहुत दिनों बाद मनचाहा , मधुमास को आमंत्रित करता गीत मिला है |
यद्यपि कठिन शब्दों ने इसे सरलता से दूर किया है , फ़िर भी शैली इसे स्वीकारने को बाध्य करती है | अनेक बधाई |
*
-- अवनीश तिवारी December 10, 2008 1:57 PM
sumit का कहना है कि -
भाग्य निज पल-पल सराहूँ,
जीत तुमसे, मीत हारूँ .
अंक में सर धर तुम्हारे,
एकटक तुमको निहारूँ...
गीत अच्छा लगा, पर ज्यादा समझ नही आया
-- सुमित भारद्वाज December 10, 2008 3:27 PM
*
महादेवी के ज़माने की याद आ गई....अच्छा गीत है...आप आवाज़ पर क्यूं नहीं गाते...
-- निखिल आनन्द गिरि December 10, 2008 5:20 PM
*
बहुत समृद्ध शब्दकोष सलिलजी! सादर !!
-- M.A.Sharma "सेहर" December 10, 2008 6:13 PM
sahil का कहना है कि -
*
कुछ भी कहने को नहीं छोड़ा सर जी,कमाल कि मधुरता है कविता में.पूरी की पूरी शहद की बाटली गटक ली हो जैसे.
-- आलोक सिंह "साहिल" December 10, 2008 7:09 PM
*
वाह बहुत ही सुन्दर लिखा है। भाव, भाषा और उनका समायोजन अद्भुत लगा। बहुत-बहुत बधाई।
शोभा December 14, 2008 8:14 PM
*
संजीव सलिल का कहना है कि -
आत्मीय जनों!
वंदे मातरम.
गीत को पुरस्कृत करने हेतु निर्णायक मंडल तथा सराहने हेतु पाठकों का अंतर्मन से आभार.
देवेन्द्र जी! टंकन में कोई त्रुटि नहीं हुई, मैंने सरगमाथा ही लिखा है जिसे एवरेस्ट भी कहते हैं. भाव यह कि तप्त अधर का स्पर्श पाकर मन ने सरगमाथा जैसी पवित्रता, शीतलता और ऊंचाई की अनुभूति की.
अवनीश जी! गीत में प्रयोग किए गए शब्द कठिन नहीं शुद्ध, सटीक, सार्थक तथा भावानुकूल होने चाहिए. इस गीत में ऐसा हो सका या नहीं? यह पाठक गण ही बता सकते हैं. कोई शब्द पहले से जाननेवाले को सरल तथा न जाननेवाले को कठिन लगता है. आगे किसी रचना में यही शब्द पढेंगे तो आपको भी कठिन नहीं लगेगा.
निखल आनंद जी! न गा पाने के दो कारण कोकिलकंठी न होना तथा अवसर न मिल पाना है. जब भी संयोग होगा आपके आदेश का पालन कर प्रसन्नता होगी. शेष सभी पाठकों का पुनः धन्यवाद.
-संजीव सलिल December 15, 2008 12:20 PM
www.hindyugm.com
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.com
#हिंदी_ब्लॉगर

रविवार, 3 जुलाई 2011

टिकट संग्रह
डाकटिकटों और प्रथम दिवस आवरणों में पलाश
पूर्णिमा वर्मन

भारतीय साहित्य और संस्कृति में पलाश टेसू या ढाक के पेड़ का महत्वपूर्ण स्थान है। इसे ध्यान में रखते हुए भारतीय डाकतार विभाग ने फूलों और पेड़ों पर प्रकाशित अपनी शृंखला में इसको भी सम्मिलित किया है। १ सितंबर १९८१ को प्रकाशित चार डाकटिकटों में से एक पर पलाश का चित्र अंकित किया गया है। ३५ पैसे वाले इस डाकटिक पर ऊपर दाहिनी ओर हिंदी व अँग्रेजी में भारत व इंडिया लिखा गया जबकि नीचे हिंदी में पलाश और अंग्रेजी में फ्लेम आफ द फारेस्ट लिखा गया है। इसके साथ ही प्रकाशनवर्ष भी अंकित किया गया है।
फूलदार वृक्षों की इस शृंखला में पलाश के साथ प्रकाशित अन्य तीन डाकटिकटों पर जिन पेड़ों के चित्रों को स्थान मिला है वे हैं वरना, अमलतास और कचनार। इस शृंखला के फोटो वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून के वरिष्ठ शोध अधिकारी के.एम.वैद के थे। इंडिया सिक्यूरिटी प्रेस से इसकी बीस लाख प्रतियाँ जारी की गई थीं। इसके साथ ही एक प्रथम दिवस आवरण भी जारी किया गया था। इसके बाद ७ फरवरी २००८ को जब दिल्ली राज्य की डाक-टिकट प्रदर्शनी डिकयाना में चार नए टिकट जारी किये गए तब उनके साथ जारी प्रथम दिवस आवरणों में से एक पर पलाश को भी स्थान मिला। ये दोनो प्रथम दिवस आवरण यहाँ देखे जा सकते हैं

केवल भारत ही नहीं कुछ विदेशी डाकटिकटों में भी पलाश को प्रकाशित किया गया है। कंबोडिया द्वारा २५ अगस्त २००४ को जारी फूलों वालों पाँच डाकटिकटों की एक शृंखला मे इसे स्थान मिला है। ३० मिमि चौड़े और ४६ मि.मि. लंबे इस डाकटिकट नीचे की और दाहिनी तरफ इसका मूल्य ७०० कंबोडियाई राइल और बायीं और फूल का नाम ब्यूटिया मोनोस्पर्मा अंग्रेजी में अंकित किया गया है। यही जानकारी ऊपर की ओर कंबोडिया की भाषा कंबुज में अंकित की गई है। बायीं ओर किंगडम आफ कंबोडिया लिखा है और दाहिनी ओर प्रकाशन का वर्ष अंकित किया गया है।
बाँग्लादेश द्वारा २९ अप्रैल १९७८ को फूलों वाली एक सुंदर शृंखला जारी की गई थी। कमल, चंपा, गुलमोहर, अमलतास, और कदंब के साथ, इसमें चार टाका मूल्य के एक डाकटिकट पर पलाश के खिले हुए पेड़ का सुंदर चित्र देखा जा सकता है। इस शृंखला के शिल्पी थे नवाज़श अहमद और एस.एस. बरुआ। इस टिकट के बायीं और बांग्लादेश के नीचे अंग्रेजी में पलाश और ब्यूटिया मोनोस्पर्मा लिखा गया है।
उत्तराखंड डाक विभाग द्वारा प्रकाशित एक २ रुपये ५० पैसे मूल्य वाला पोस्टकार्ड भी है जिस पर अभय मिश्रा द्वारा खींची गई पलाश के फूलों की एक फोटो प्रकाशित की गई है। इसके प्रकाशन की तिथि का पता नहीं चलता लेकिन इस पर १ सितंबर १९८१ को प्रकाशित फूलों वाली शृंखला का पलाश वाला टिकट लगा हुआ है। इस पोस्टकार्ड को यहाँ देखा जा सकता है
१९७४ में थाईलैंड द्वारा अंतर्राष्ट्रीय पत्र लेखन सप्ताह के अवसर पर जारी चार टिकटों के एक सेट में अमलतास, चमेली तथा सावनी के फूल के साथ पलाश की एक प्रजाति ब्यूटिया सुपर्बा को प्रदर्शित किया गया था।
इन टिकटों को वहाँ के सुप्रसिद्ध कलाकार श्री प्रवत पिपितपियपकोम ने डिज़ाइन किया था।  टिकट पर दाहिनी ओर महीन अक्षरों में अँग्रेज़ी में इंटरनेशनल लेटर राइटिंग वीक १९७४ लिखा हुआ पढ़ा जा सकता है। इसके ऊपर यही वाक्य थाई भाषा में लिखा गया है। नीचे दाहिनी ओर पहले थाई और फिर अँग्रेज़ी में ब्यूटिया सुपर्बा रौक्स्ब लिखा गया है और बाईं ओर टिकट का मूल्य २.७५ बाट अंकित किया गया है। 
                                                                     आभार : अभिव्यक्ति.

शनिवार, 25 जून 2011

नवगीत/दोहा गीत: पलाश... --संजीव वर्मा 'सलिल'



sanjiv verma 'salil'

नवगीत/दोहा गीत: 

पलाश... 

संजीव वर्मा 'सलिल'

*
बाधा-संकट हँसकर झेलो
मत हो कभी हताश.
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
*
समझौते करिए नहीं,
तजें नहीं सिद्धांत.
सब उसके सेवक सखे!
जो है सबका कांत..
परिवर्तन ही ज़िंदगी,
मत हो जड़-उद्भ्रांत.
आपद संकट में रहो-
सदा संतुलित-शांत..

शिवा चेतना रहित बने शिव
केवल जड़-शव लाश.
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
*
किंशुक कुसुम तप्त अंगारा,
सहता उर की आग.
टेसू संत तपस्यारत हो
गाता होरी-फाग..
राग-विराग समान इसे हैं-
कहता जग से जाग.
पद-बल सम्मुख शीश झुका मत
रण को छोड़ न भाग..
जोड़-घटाना छोड़,
काम कर ऊँची रखना पाग..
वीराने में खिल मुस्काकर
कहता यही पलाश...
****

शनिवार, 28 मई 2011

नवगीत: टेसू तुम क्यों?.... संजीव वर्मा 'सलिल'

नवगीत:                                                                                           
टेसू तुम क्यों?....
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?...
*
टेसू तुम क्यों लाल हुए?
फर्क न कोई तुमको पड़ता
चाहे कोई तुम्हें छुए.....
*
आह कुटी की तुम्हें लगी क्या?
उजड़े दीन-गरीब.
मीरां को विष, ईसा को
इंसान चढ़ाये सलीब.
आदम का आदम ही है क्यों
रहा बिगाड़ नसीब?
नहीं किसी को रोटी
कोई खाए मालपुए...
*
खून बहाया सुर-असुरों ने.
ओबामा-ओसामा ने.
रिश्ते-नातों चचा-भतीजों ने
भांजों ने, मामा ने.
कोशिश करी शांति की हर पल
गीतों, सा रे गा मा ने.
नहीं सफलता मिली
'सलिल' पद-मद से दूर हुए...
*