दिव्य नर्मदा : हिंदी तथा अन्य भाषाओँ के मध्य साहित्यिक-सांस्कृतिक-सामाजिक संपर्क हेतु रचना सेतु A plateform for literal, social, cultural and spiritual creative works. Bridges gap between HINDI and other languages, literature and other forms of expression.
कुल पेज दृश्य
बुधवार, 31 मार्च 2021
बुंदेली लोककथा कोशिश से दुःख दूर हों
बुंदेली लोककथा सच्ची लगन
हास्य रचना
मंगलवार, 30 मार्च 2021
बुंदेली लोककथा कर संतोष रहो सुखी
सोमवार, 29 मार्च 2021
कार्यशाला : कुण्डलिया
*
अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'
वेदोक्त रात्रि सूक्त
।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
*
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
*
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
*
उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
*
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
२९.३.२०२०
***
दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
बुंदेली हास्य रचना: उल्लू उवाच
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
संवस, ७९९९५५९६१८
विमर्श विश्वास या विष-वास?
नवगीत
दरक न पाऐँ दीवारें
हम में हर एक तीसमारखाॅं
कोई नहीं किसी से कम ।
हम आपस में उलझ-उलझकर
दिखा रहे हैं अपनी दम ।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम ।
आॅंख के अंधे देख-न देखें
दरक रही हैं दीवारें ।
*
फूटी आॅंखों नहीं सुहाती
हमें, हमारी ही सूरत ।
मन ही मन में मनमाफि़क
गढ़ लेते हैं सच की मूूरत ।
कुदरत देती दंड, न लेकिन
बदल रही अपनी फितरत ।
पर्वत डोले, सागर गरजे
टूट न जाएॅं दीवारें ।
*
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका ।
देश हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का ।
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जनहित का ।
भार करों का इतना ही हो
दरक न पाएॅं दीवारें ।
*
ग्रेनेडियर्स प्रिंटिंग प्रैस, १५़३०
२१.३.२०१६
मनमोहन छंद
मनमोहन छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
२९-३-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)
दोहा दोहा काव्य रस
फागुन के मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
*
रविवार, 28 मार्च 2021
मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
संजीव
२७-३-२०२०
मुक्तक
शशि त्यागी है सदा से, करे चाँदनी दान
हरी हलाहल की तपिश, शिव चढ़ पाया मान
सुंदरता पर्याय बन, कवियों से पा प्रेम
सलिल धार में छवि लखे, माँगे जग की क्षेम
२७-३-२०२०
लेख: संतान बनो
संतान बनो
*
इसरो के वैज्ञानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता।
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो?
सचमुच चाहिए
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है।
फिर?
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा?
नहीं?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला?
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे?
बताता हूँ। तुम कौन हो?
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है।
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है।
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो।
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है।
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी।
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए।
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो।
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
२८-३-२०१९
*
मुक्तिका
संजीव
*
मुझमें कितने 'मैं' बैठे हैं?, किससे आँख मिलाऊँ मैं?
क्या जाने क्यों कब किस-किससे बरबस आँख चुराऊँ मैं??
*
खुद ही खुद में लीन हुआ 'मैं', तो 'पर' को देखे कैसे?
बेपर की भरता उड़ान पर, पर को तौल न पाऊँ मैं.
*
बंद करूँ जब आँख, सामना तुमसे होता है तब ही
कहीं न होकर सदा यहीं हो, किस-किस को समझाऊँ मैं?
*
मैं नादां बाकी सब दाना, दाना रहे जुटाते हँस
पाकर-खोया, खोकर-पाया, खो खुद को पा जाऊँ मैं
*
बोल न अपने ही सुनता मन, व्यर्थ सुनाता औरों को
भूल कुबोल-अबोल सकूँ जब तब तुमको सुन पाऊँ मैं
*
देह गेह है जिसका उसको, मन मंदिर में देख सकूँ
ज्यों कि त्यों धर पाऊँ चादर, तब तो आँख उठाऊँ मैं.
*
आँख दिखाता रहा जमाना, बेगाना है बेगाना
अपना कौन पराया किसको, कह खुद को समझाऊँ मैं?
***
महारास और न्यायालय
महारास और न्यायालय
*
महारास में भाव था, लीला थी जग हेतु.
रसलीला क्रीडा हुई, देह तुष्टि का हेतु..
न्यायालय अंधा हुआ, बँधे हुए हैं नैन.
क्या जाने राधा-किशन, क्यों खोते थे चैन?.
हलकी-भारी तौल को, माने जब आधार.
नाम न्याय का ले करे, न्यायालय व्यापार..
भारहीन सच को 'सलिल', कोई न सकता नाप.
नाता राधा-किशन का, सके आत्म में व्याप..
*
संजीव, ७९९९५५९६१८
शनिवार, 27 मार्च 2021
गजल का शिल्प - राजेन्द्र वर्मा
- राजेन्द्र वर्मा
छन्दोबद्ध कविता दो प्रकार के छन्दों से बनती है- मात्रिक, अथवा वार्णिक। ग़ज़ल भी इन्हीं छंदों से बनती है. मात्रिक छन्द के उदाहरण हैं- दोहा, चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक, कुण्डल, दिग्पाल सरसी, ताटंक आदि। ये दो प्रकार के होते हैं- सम और विषम।
सम छन्द वे होते हैं जिनकी प्रत्येक पंक्ति में समान मात्राएँ होती हैं, जैसे- ‘चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक, दिग्पाल।’ इस सबमें १६ मात्राएँ होती हैं और अंत में दीर्घ मात्रा आती है, पर अन्त में दीर्घ मात्राओं के आने का पृथक विधान है, जैसे- ‘चौपाई’ के अन्त में दो दीर्घ आते हैं, तो ‘अरिल्ल’ में तीन दीर्घ।
विषम छन्द के चरणों में मात्राओं की संख्या भिन्न होती है, जैसे- दोहा, सरसी, कुण्डल, ताटंक। इनके प्रथम और तृतीय चरण में जो मात्राएँ होती हैं, वे द्वितीय और चतुर्थ चरण से भिन्न होती हैं. छंदों के मात्रा सम्बन्धी कुछ नियम होते हैं, जैसे- दोहे में चार चरण होते हैं- प्रथम व तृतीय में १३ तथा द्वितीय व चतुर्थ में ११ मात्राएँ होती हैं। प्रथम व तृतीय चरण का अन्त रगण २१२ से तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण का अन्त तगण २२१ या जगण १२१ से होता है। साथ-ही द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में तुकान्त होता है। इसी प्रकार, सरसी छन्द में १६-११ मात्राएँ होती हैं। पहले चरण के अन्त में दो दीर्घ तथा दूसरे चरण के अन्त में दीर्घ-लघु आते हैं। विषम मात्रिक छन्दों में, ‘कुण्डल’ तथा ‘ताटंक’ छन्दों में ग़ज़ल सफलतापूर्वक कही जा सकती है। कुण्डल में २२ मात्राएँ होती हैं और १२ पर दीर्घ के साथ यति होती है। ताटंक में ३० मात्राएँ होती हैं जिसमें १६ पर दीर्घ के साथ यति होती है। दोनों ही छन्दों के अन्त में दीर्घ आता है। यति का अर्थ है- ठहराव। बच्चन की ‘मधुशाला’ ताटंक छन्द ही में है जिसे कुछ लोग त्रुटिवश 'रुबाई’ कहते हैं। रुबाई २० मात्रिक छंद है जो विभिन्न वार्णिक क्रम में प्रस्तुत की जाती है।
ग़ज़ल प्रायः वार्णिक छन्द में होती है। वार्णिक छन्द की विषेशता यह है कि पहली पंक्ति जिस वर्ण क्रम पर आधारित होगी, दूसरी पंक्ति भी उसी क्रम में होगी, जबकि मात्रिक छन्द में यह क्रम आवश्यक नहीं है। उसकी प्रत्येक पंक्ति में मात्राएँ समान होती हैं, उनका क्रम कुछ भी हो सकता है। आवश्यक यह है कि इस क्रम-विधान में लय बनी रहे। ऐसे प्रयोगों में छन्द की झंकार कथ्य पर हावी रहती है। फिर भी, चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक आदि अनेक १६ मात्राओं के अनेक सम छन्द हैं जिनमें ग़ज़लें सफलतापूर्वक कही जा सकती हैं।
किसी ग़ज़ल में पाँच से लेकर ग्यारह शे’र होते हैं। अधिकतम की संख्या निश्चित नहीं है। मेरे एक मित्र- मधुकर शैदाई ने ५२५ शे’र वाली ग़ज़ल कह कर ‘लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड’ ही बना डाला। लेकिन यह प्रयोग है, सामान्य नियम नहीं। ग़ज़ल का पहला शे’र जिसमें काफ़िया या अथवा काफ़िया-रदीफ़ दोनों होते हैं, ‘मतला’ कहलाता है। मतले का अर्थ है- प्रारम्भ। मतले की पहली पंक्ति ‘मिसरा’ या ‘ऊला’ कहलाती है और उसकी दूसरी पंक्ति- ‘सानी’। जिस ग़ज़ल में दो मतले होते हैं, उन्हें ‘हुस्ने-मतला’ कहा जाता है। कभी-कभी तीन अशआर का मतला होता है। जिस शे’र में शायर अपना संक्षिप्त नाम या तख़ल्लुस (उपनाम) प्रयुक्त करता है, उसे ‘मक्ता’ कहते हैं। यह समापन शे’र होता है। शे’र का बहुवचन ‘अशआर’ कहलाता है। ग़ज़ल में शे’र अलग-अलग भाव-भूमि के होते हैं, जैसे- गुलदस्ते में विविध रंग के फूल। गीत और ग़ज़ल में बुनियादी अन्तर यही है कि गीत किसी भाव विशेष पर केन्द्रित होता है, जबकि ग़ज़ल का हर शेर स्वतंत्र होता है। यही कारण है कि ग़ज़ल में गीत की तरह शीर्षक नहीं होता। हाँ, जब किसी विषय के विभिन्न पहलुओं पर ग़ज़ल के शे’र कहे जाते हैं, तो वह ‘मुसलसल ग़ज़ल’ कहलाती है। मुसलसल माने- पूरी-की-पूरी।
‘वर्ण’ को उर्दू में ‘रुक्न’ कहते हैं जिसका बहुचवचन ‘अरकान’ कहलाता है। हिन्दी छन्द विधान में चूंकि तीन ही वर्णों का युग्म होता है, इसलिए ग़ज़ल के छन्दों को समझने के लिए उर्दू के छन्दविधान का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी का छन्दसूत्र है- यमाताराजभानसलगा। इससे तीन वर्णों की संयुति से एक 'गण' की निर्मिति होती है। पूरे छन्दसूत्र से ८ गण तैयार होते हैं, जैसे- यगण। इसका पूरा नाम है- यमाता। इसमें एक लघु तथा दो दीर्घ वर्ण होते हैं- १२२. इसी प्रकार अन्य गण हैं: मगण- मातारा २२२, तगण- ताराज २२१, रगण- राजभा २१२, जगण- जभान १२१, भगण- भानस २११, नगण- नसल १११, सगण- सलगा ११२.
उर्दू में दो से लेकर पाँच वर्णों तक की एक इकाई बन जाती है, जिसे ‘अरकान’ कहा जाता है, जैसे- दो लघु (११) को ‘फ़उ’ तथा दो दीर्घ (२२) को ‘फेलुन्’ कहा जाता है। लघु-दीर्घ (१२) ‘फ़ऊ’ और दीर्घ-लघु (२१) को ‘फ़ात’ कहते हैं. तीन वार्णिक युग्म में १११ को फ़उल’, १२१ को ‘फ़ऊल’, १२२ को ‘फ़ऊलुन्’ या ‘मफ़ैलुन्’, २११ अथवा ११२ को ‘फेलुन’ या ‘फ़इलुन’, २२१ को ‘फ़इलात्’, २१२ को ‘फाइलुन’ तथा २२२ को ‘फ़इलातुन’ कहते हैं। चार वर्णों में- ११११ को फ़इलुन’, १११२ को फ़ऊलुन’, ११२२ को ‘फ़इलातुन’१२२२ को ‘फ़ऊलातुन’ या मुफ़इलातुन’,२१२२ को ‘फ़ाइलातुन’,२२१२ ‘मुतफाइलुन’ तथा २२२२ को ‘मुतफ़इलातुन’ कहा जाता है. २२१२ (मुतफ़ाइलुन) की चार आवृतियों से हिन्दी का ‘हरगीतिका’ छन्द बन जाता है। इस छंद की विशेषता यह भी है कि इसके नाम की चार आवृत्तियों से ‘हरगीतिका’ छन्द स्वतः निर्मित हो जाता है- ‘हरगीतिका, हरगीतिका, हरगीतिका, हरगीतिका।‘ महाकवि तुलसी का प्रसिद्ध ‘राम-स्तवन’ इसी छन्द में है- “श्रीरामचन्द्रकृपालु भज मन हरण भवभयदारुणम्।”, यद्यपि 'हरण' पर अनुशाशन भंग है- ‘१२’ के स्थान पर ‘२१’ प्रयुक्त हुआ है। पंचवर्णीय अरकान हैं- २२१२२ मुतफ़ाइलातुन्, २१२२२ मुतफ़ऊलातुन, १२१२१ मफाइलात. २२२२२ को दो टुकड़ों में विभक्त कर ‘फेलुन-फ़इलातुन’ अथवा इसका उल्टा, ‘फ़इलातुन, फ़ेलुन’ कहा जा सकता है।
वार्णिक छन्द भी दो प्रकार से निर्मित होते हैं- एक, जिसकी संरचना वर्ण-युग्म की बारम्बारता से होती है और दूसरे, कुछ वर्ण-युग्म के मिश्रण से। दोनों ही प्रकार के छन्दों में लय स्वतः आ जाती है। पहले प्रकार का छन्द किसी गण विशेष को दुहराने से बनता है, जैसे- यगण (१२२) अथवा रगण (२१२) को चार बार दुहरा कर। इसमें लय अपने-आप उत्पन्न हो जायेगी, यथा- यमाता-यमाता-यमाता-यमाता, अथवा, राजभा-राजभा-राजभा-राजभा। हिन्दी के इन गणों को उर्दू में क्रमशः ‘फ़ऊलुन्, फ़ऊलुन् फ़ऊलुन् फ़ऊलुन्’ और ‘फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्’ कहते हैं. इनसे क्रमशः ‘भुजंगप्रयात’ और ‘स्रग्विणी’ छंद बन जाता है. इन छंदों से बनी मेरी ही गजलों के मक्ते देखिए-
१२२ १२२ १२२ १२२
अगर आपको सच की आदत नहीं है,
तो हमको भी कोई शिकायत नहीं है। (चार ‘यगण’ या ‘फ़ऊलुन’= भुजंगप्रयात छंद)
* * *
२१२ २१२ २१२ २१२
हम निकटतम हुए, धन्यवाद् आपका,
आपके हम हुए, धन्यवाद् आपका। (चार ‘रगण’ या ‘फ़ाइलुन्’= स्रग्विणी छंद)
इन आवृत्तियों को आवश्यकतानुसार घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है। उदाहरणार्थ-
२१२ २१२ २१२
हमको जो भी उजाले मिले
तम के घर पलने वाले मिले। (तीन ‘रगण’ या ‘फ़ाइलुन')
कभी-कभी, वर्ण-युग्मों की बारम्बारता से नहीं, अलग-अलग युग्मों की संयुति से छन्द निर्मित होता है, जैसे- ‘उमराव जान’ फि़ल्म की यह ग़ज़ल- “दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए।” इसके अरकान हैं- ‘फ़ेलुन मफ़ाइलात् मफ़ैलुन् मफ़ाइलुन्’- यह उर्दू का ‘मुज़ारे-अख़रब’ कहलाता है। मत्ला और एक शेर देखें-
२२१ २१२१ १२२१ २१२
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए। - शहरयार
यहाँ, ‘जान’ के तुकान्त या काफ़िये ‘मान’, ‘पहचान’ और ‘ठान’ हैं। ’लीजिए’ इसका रदीफ़ है। यों ग़ज़ल में रदीफ़ का होना आवश्यक नहीं, तथापि यदि प्रयुक्त हो तो, हर सानी वाली पंक्ति में इसका आना आवश्यक है। सानी वाली पंक्ति अर्थात्- शेर की दूसरी पंक्ति। मतले के शेर को छोड़कर अन्य अशआर के मिसरों में रदीफ़ अथवा उसके स्वर का आना दोषपूर्ण माना जाता है। इसी प्रकार सानी में काफ़िया का न आना अथवा ग़लत काफि़ये का आना भी दोषपूर्ण है। उपर्युक्त ग़ज़ल के दूसरे शेर के पहले मिसरे में प्रयुक्त ‘बार-बार’ में एक मात्रा बढ़ी हुई है। बहर के अनुसार ‘बारबा’ आना चाहिए, पर मिसरे में एक मात्रा अधिक लगाने की छूट है।
मिश्रित वर्ण-युग्मों या अरकान से निर्मित कुछ छन्दों के उदाहरण देखें-
१. फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन- २१२२ २१२२ २१२२ २१२ (बहरे-‘रमल’ अथवा ‘गीतिका’ छंद)
हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है। -रामप्रसाद ’बिस्मिल’
हिन्दी के गणों के अनुसार इस छन्द के गण होंगे- रगण, तगण, मगण, यगण और रगण। उर्दू में इस छन्द या बहर को ‘रमल’ और हिन्दी में ‘गीतिका’ कहते हैं। यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि उपर्युक्त ३ ‘फ़ाइलातुन’ में से २ को रखकर भी ग़ज़ल हो सकती है, जैसे-
१ -अ फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन- २१२२ २१२२ २१२ (पीयूषवर्ष)
अंक में आकाश भरने के लिए
उड़ चले हैं हम बिखरने के लिए.
अथवा,
युग-युगान्तर चल रहा है क्रम यही
शिव के हिस्से में लिखा विष-पान ही
२ . फऊलुन फाइलुन फेलुन, फऊलुन फाइलुन फेलुन- १२२ २१२ २२१ २२२ १२२ २
अथवा
फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ (‘विधाता’ छंद)
मुनासिब दूरियाँ रखिए, भले कैसा ही रिश्ता हो
बहुत नज़दीकियों में भी घुटन महसूस होती है। - बशीर बद्र
* * *
अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है
ग़रीबी मुस्कुराकर मेरे बर्तन माँज जाती है। - राजेंद्र वर्मा
३. फाइलातुन मफाइलुन फेलुन/फइलुन- २१२२ १२१२ २२ /११२ (बहरे-‘ख़फ़ीफ़’ अथवा ‘उत्थक्क’ छंद)
ज़िन्दगी से बड़ी सजा ही नहीं
और क्या जुर्म है, पता ही नहीं। - नूर लखनवी
(यहाँ ‘फेलुन’ को ‘फइलुन’ की भाँति प्रयुक्त किया गया है।)
४. मफाइलुन, फ़इलातुन, मफाइलुन, फेलुन- १२१२ ११२२ १२१२ २२
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। -दुष्यन्त कुमार
५. मनोरम छंद- फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
जीत ही उन्माद की है
छद्म के अनुनाद की है.
६- सुमेरु छंद- फ़ऊलुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
हमीं उम्मीद रक्खे आँधियों से
कि वे बरतेंगी दूरी बस्तियों से
७- राधा छंद- फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन, फेलुन
दोस्तो! अब आइए, कुछ यूँ किया जाये
बाँट कर अमरित, हलाहल कुछ पिया जाये
८- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊ
बजे नाद अनहद, सुनाई न दे
वो कण-कण में लेकिन, दिखाई न दे
९- कुंडल छंद- फेलुन, फेलुन, फेलुन, फ़इलातुन फेलुन= २२ मात्राएँ
चाहे-अनचाहे ऐसे क्षण आते हैं,
सब कुछ होते हुए हमीं चुक जाते हैं
१०- रतिवल्लभ छंद- फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलुन
स्वयं के हित सभी उपलब्धियाँ हैं
हमारे हेतु केवल सूक्तियाँ हैं.
११- अप्सरीविलसिता छंद- फेलुन, फेलुन, फ़ाइलुन
राजकुँवर मतिमन्द हैं
मंत्रीगण सानन्द हैं।
१२- छंद का नाम- अज्ञात-फेलुन, मुफाइलुन, फेलुन
बंजर में बोइए क्योंकर?
दाना भी खोइए क्योंकर?
१३- दोहा छंद २४ मात्राएँ १३/११ के चरण; पहले चरण के अन्त में दीर्घ-लघु-दीर्घ (२१२) तथा
दूसरे चरणान्त में दीर्घ-लघु (२१)
चलने को चल पड़े, लोग अनेकानेक
पर मेरे गन्तव्य तक, साथ न देता एक।
१४- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊल फ़ेलुन, फ़ऊल फ़ेलुन
गरज़ पड़ी, तो बने हैं बिल्ली
वगरना बैठे गरज रहे हैं।
१५- तोटक छंद- फेलुन, फेलुन, फेलुन, फेलुन (१६ मात्राएँ)
पहले सच को सच कहते हो
फिर गुमसुम-गुमसुम रहते हो!
१६- ताटंक छंद, १६/१४ मात्राएँ, अन्त में तीन दीर्घ, यथा-
फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फ़इलातुन
मेरे सपनों में अक्सर ही आ जाता है ताजमहल,
मेरे कटे हुए हाथों को दिखलाता है ताजमहल।
१७- दिग्पाल छंद- २४ मात्राएँ, अंत में दो दीर्घ, यथा-
फ़इलातुन फेलुन: फ़इलातुन फेलुन, फेलुन
सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे,
कब तक आखि़र देश चलेगा रामभरोसे?
१८- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन
तुम्हारी बात कुछ ऐसी
अमा भी पूर्णिमा जैसी
१९- महानुभाव छंद- ६+६=१२ मात्राएँ, यथा- मफ़ाइलुन, मफ़ाइलुन
तनिक विनीत हो गया
मैं सबका मीत हो गया.
२०- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ाइलुन, फ़ऊल, फ़ाइलुन
चन्दनी चरित्र हो गया
मैं सभी का मित्र हो गया।
२१- अरिल्ल छंद- १६ मात्राएँ, अंत में मगण (२२२)
जब तक हृदयों में दूरी है
मेरी हर ग़ज़ल अधूरी है.
२२- पादाकुलक छंद- १६ मात्राएँ (सभी दीर्घ)
चाहे जितनी हो कठिनाई
हम छोड़ न पाते सच्चाई
२३- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन
तू अकेला है तो क्या?
है अकेला ही ख़ुदा!
(क्रमांक ५ से लेकर २३ तक के उदहारण इन पंक्तियों के लेखक के हैं.)
इस प्रकार, कई अरकान से मिलकर एक छन्द बन जाता है- वे चाहे एक जैसे हो, या कई प्रकार के। वार्णिक छन्द में सवैया की भाँति दीर्घ को लघु पढ़ा जाता है- ‘मानुस हो तो वही रसखान बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।’ इसमें आठ भगण हैं, अर्थात् एक दीर्घ और दो लघु की आठ बार आवृत्ति है- २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ . लेकिन सवैया की तरह ग़ज़ल में ८ गणों की आवश्यकता नहीं है। ग़ज़लकार चाहे तो तीन-चार आवृत्तियों से काम चला सकता है।
लेकिन यह तो ग़ज़ल का ढाँचा है। असली बात तो उसमें शेरियत लाने की है। शेरियत भाषा की लक्षणा-व्यंजना शक्ति से आती है। अभिधा में सादगी होती है जिसमें कोई बड़ी बात कहना कठिन होता है। शेर वही जुबान पर चढ़ता है जिसमें भाषा की सादगी होती है। लेकिन सादगी में एक बाँकपन होता है, जो ह्रदय को छू जाता है.
ग़ज़ल का शिल्प जान लेना एक बात है और उसे व्यवहार में उतारना दूसरी। तथापि, किसी मीटर या बहर (छन्द) में ग़ज़ल कहने के लिए हिन्दी-उर्दू शब्दों के मिश्रण से वांछित लय आती है। केवल हिन्दी या केवल उर्दू की ज़ुबान वाले शब्दों से ग़ज़ल कहना दुष्कर है। उर्दू की ताक़त यह है कि उसमें एक शब्द के बोलचाल के कई पर्यायवाची मिल जाते हैं. इसके अलावा, एक ही शब्द कई प्रकार से बोला-लिखा जाता है जो अलग-अलग वर्ण-युग्म के होते हैं, जैसे- ‘ख़ामोशी’ (२२२) को चुप्पी (२२), ख़ामशी या ख़ामुशी (२१२) अथवा ख़मोशी (१२२) के वज़न पर बाँधा जा सकता है, जबकि हिन्दी में इसके लिए एक ही शब्द है- ‘शान्ति’ (२१) जिसमें कुछ भी घट-बढ़ नहीं सकता। इसके अलावा, उसमें वह व्यंजना भी नहीं जो ‘ख़ामोशी’ में है। ख़ामोशी आरोपित भी हो सकती है, जबकि शान्ति 'कर्मवाची’ है। इसी प्रकार- ‘ख़याल’ (१२१) ‘ख़्याल’ (२१) के रूप में भी प्रयुक्त होता है, जबकि हिन्दी के ‘विचार’ (१२१) में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। उर्दू के ‘ज़िन्दगी’ (२१२) के बदले हिन्दी में अकेला ‘जीवन’ (२२) है, जबकि 'ज़िन्दगी’ के पर्यायवाची हैं- ज़ीस्त (२१), हयात (१२१), ज़िन्दगानी (२१२२). इसी प्रकार, ग़रीबी (१२२) को ग़ुरबत (२२) भी कहते हैं, जबकि हिन्दी में ‘निर्धनता’ (२२२) का कोई विकल्प नहीं है। ‘दीनता’ या ‘दैन्य’ हैं अवश्य, पर वे निर्धनता के सटीक पर्यायवाची नहीं हैं।... उर्दू में ‘राहबर’ (२१२) को रहबर (२२), ‘राहनुमा’ (२११२) को रहनुमा (२१२), ‘शहर’ (१२) को शह्र (२१) और 'जान’ (२१) को जां (२) भी कहते-लिखते हैं, जबकि हिन्दी में यह सुविधा नहीं है। इस कारण उर्दू के कारण ग़ज़ल की भाषा में अतिरिक्त लोच, लय या रवानी आ जाती है। फि़ल्मी ग़ज़लें इसकी मिसाल हैं।
होली गीत
पूज्य मातुश्री रचित होली गीत
होली खेलें सिया की सखियाँ - स्व. शांति देवी वर्मा
होली खेलें सिया की सखियाँ,
जनकपुर में छायो उल्लास....
रजत कलश में रंग घुले हैं, मलें अबीर सहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
रंगें चीर रघुनाथ लला का, करें हास-परिहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
एक कहे: 'पकडो, मुंह रंग दो, निकरे जी की हुलास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
दूजी कहे: 'कोऊ रंग चढ़े ना, श्याम रंग है खास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
सिया कहें: ' रंग अटल प्रीत का, कोऊ न अइयो पास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...
सियाजी, श्यामल हैं प्रभु, कमल-भ्रमर आभास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
'शान्ति' निरख छवि, बलि-बलि जाए, अमिट दरस की प्यास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...
होली खेलें चारों भाई - स्व. शांति देवी वर्मा
होली खेलें चारों भाई, अवधपुरी के महलों में...
अंगना में कई हौज बनवाये, भांति-भांति के रंग घुलाये.
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...
राम-लखन पिचकारी चलायें, भारत-शत्रुघ्न अबीर लगायें.
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...
सिया-श्रुतकीर्ति रंग में नहाई, उर्मिला-मांडवी चीन्ही न जाई.
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...
कौशल्या कैकेई सुमित्रा, तीनों माता लेंय बलेंयाँ.
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...
मंत्री सुमंत्र भेंटते होली, नृप दशरथ से करें ठिठोली.
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...
दास लाये गुझिया-ठंडाई, हिल-मिल सबने मौज मनाई.
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...
दस दिश में सुख-आनंद छाया, हर मन फागुन में बौराया.
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...
काव्य की पिचकारी - आचार्य संजीव सलिल
रंगोत्सव पर काव्य की पिचकारी गह हाथ.
शब्द-रंग से कीजिये, तर अपना सिर-माथ
फागें, होरी गाइए, भावों से भरपूर.
रस की वर्षा में रहें, मौज-मजे में चूर.
भंग भवानी इष्ट हों, गुझिया को लें साथ
बांह-चाह में जो मिले उसे मानिए नाथ.
लक्षण जो-जैसे वही, कर देंगे कल्याण.
दूरी सभी मिटाइये, हों इक तन-मन-प्राण.
अबकी बार होली में - आचार्य संजीव सलिल
करो आतंकियों पर वार अबकी बार होली में.
न उनको मिल सके घर-द्वार अबकी बार होली में.
बना तोपोंकी पिचकारी चलाओ यार अब जी भर.
निशाना चूक न पाए, रहो गुलज़ार होली में.
बहुत की शांति की बातें, लगाओ अब उन्हें लातें.
न कर पायें घातें कोई अबकी बार होली में.
पिलाओ भांग उनको फिर नचाओ भांगडा जी भर.
कहो बम चला कर बम, दोस्त अबकी बार होली में.
छिपे जो पाक में नापाक हरकत कर रहे जी भर.
करो बस सूपड़ा ही साफ़ अब की बार होली में.
न मानें देव लातों के कभी बातों से सच मानो.
चलो नहले पे दहला यार अबकी बार होली में.
जहाँ भी छिपे हैं वे, जा वहीं पर खून की होली.
चलो खेलें 'सलिल' मिल साथ अबकी बार होली में.
मुक्तिका होली मने
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
***
२७-३-२०११
हिंदी शब्द
आइये! जानें अपनी हिंदी को।
हिंदी का शब्द भंडार कैसे समृद्ध हुआ?
आभार अरबी भाषा का जिसने हमें अनेक शब्द दिए हैं, इन्हें हम निरंतर बोलते हैं बिना जाने कि ये अरबी भाषा ने दिए हैं।
भाषिक शुद्धता के अंध समर्थक क्या इन शब्दों को नहीं बोलते?
सचाई न जानने के कारण हम इन्हें उर्दू का मान लेते हैं। ये इतने प्रचलित हैं कि इनके अर्थ बिना बताये आप जानते हैं।
कुछ अरबी शब्द निम्नलिखित हैं -
अखबार
अदालत
अल्लाह
अलस्सुबह
आदमकद
आदमी
औकात
औरत
औलाद
इम्तहान
ऐनक
कद्दावर
काफी
किताब
कैद
खत
खातिर
ग़ज़ल
गलीचा
जलेबी
तकिया
तबला
तलाक
तारीख
दिनार
दीवान
बिसात
मकतब
मस्तूल
महक
मानसून
मुहावरा
मौसम
लिहाज
वकील
वक़्त
शहीद
शादी
सुबह
हकीम
*
कीलक स्तोत्र
विमर्श : गणगौर : क्या और क्यों?
गीत
मैं अकेली लड़ रही थी
- संजीव 'सलिल'
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनाई है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसाई है..
सामने तव द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह तुमने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये???.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी, इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय! होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
www.divyanarmada.in
#हिंदी_ब्लॉगर