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बुधवार, 31 मार्च 2021

बुंदेली लोककथा कोशिश से दुःख दूर हों

कोशिश से दुःख दूर हों 

किसी समय एक गाँव में एक पटैल और पटैलन रहते थे। वे सब तरह से संपन्न थे पर संतान न होने के कारण दुखी थे।

एक दिन एक साधु भिक्षा माँगने आया। पटैलन ने भिक्षा देकर श्रद्धापूर्वक उसे प्रणाम किया। साधु ने कहा कि तुम्हारे पास सब कुछ है पर तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान नहीं है। तुम दुखी क्यों हो?

पटैलन ने कहा 'साधु महाराज! सब कुछ है पर उसे भोगनेवाला कोई नहीं है तो यह सब किस काम का?'

साधु ने कहा कि माता पार्वती जगत जननी हैं। संतान न होने का दर्द उनसे ज्यादा कौन जान सकता है? वे ही संतान दे सकती हैं। सावन के मंगलवार को मंगला गौरी पूजन और व्रत करो।

पटैलन ने श्रद्धापूर्वक एक पटे पर लाल और सफेद कपड़ा बिछाकर, सफेद कपड़े पर चावल की नौ और लाल कपड़े पर गेहूँ की सोलह छोटी-छोटी ढेर बनाकर पटे पर चावल के दानों के ऊपर गणेश जी की मूर्ति स्थापित की। फिर पटे के एक कोने में गेहूँ के दानों पर जल से भरा कलश रखकर आटे से बनाकर चौमुखा दीपक बनाकर, तेल भरकर जलाए। सोलह ऊदबत्ती जलाकर पहले गणेश जी तथा कलश का पूजन किया। मिट्टी के सकोरे में गेहूँ का आटा रखकर, सुपारी और दक्षिणा की राशि उस में दबा दिया। फिर षोडस मातृका (चाँवल की नौ ढेरियों) का पूजन कर पटे पर मंगला मूर्ति स्थापित कर पानी, दूध, दही, घी, शक्कर तथा शहद का पंचामृत बनाकर स्नान कराया और वस्त्र पहनाकर श्रंगार किया। सोलह प्रकार के पुष्प, माला, पत्ते, फल, पंचमेश, आटे के सोलह लड्डू और दक्षिणा चढ़ाए। आटे के चौमुखे दीपक में रखकर सोलह बाती जलाकर कपूर से आरती करी। उक्त कहानी सुनकर घर की सबसे बड़ी स्त्री को सोलह लड्डू देकर शुभाशीष पाया, नमकरहित एक अनाज का भोजन किया। अगले दिन मंगलागौरी की मूर्ति पानी में विसर्जित की। सोलह मंगलवार तक व्रत कर उद्यापन किया।

श्रद्धापूर्वक व्रत संपन्न कर पटैलन ने माँ पार्वती से संतान सुख देने का वर माँगा। माँ ने कहा पूर्व जन्म के कर्मों के कारण तेरे भाग्य में संतान सुख नहीं है। तुमने श्रद्धापूर्वक व्रत किया है इसलिए इक्कीस वर्षों तक जीवित रहनेवाला पुत्र या विवाह के तुरंत बाद विधवा होनेवाली पुत्री में से एक माँग लो। पटैलन ने इक्कीस वर्ष की आयुवाला पुत्र माँगा। माँ पार्वती ने कहा कि मंदिर के सामने जो आम का वृक्ष है, उसमें गणपति और ऋद्धि-सिद्धि का वास मानकर, श्रद्धापूर्वक प्रणाम करो और उस पेड़ की एक कैरी (आम का कच्चा फल) पत्नी को खिला दो तो उसे यथासमय पुत्र होगा।

पटैल ने कैरी तोड़ने के लिए पत्थर फेंका, वह पत्थर कैरी को न लगकर गणेश जी को लगा। नाराज होकर गणेश जी ने शाप दे दिया कि तुमने अपने स्वार्थ के कारण मुझे पत्थर मारा इसलिए तुम्हारा पुत्र इक्कीस वर्ष बाद साँप के काटने से मर जाएगा। पटैल बहुत दुखी हुआ पर माँ के आदेश का पालन करते हुए कैरी तोड़कर पटैलन को खिला दी। पटैलन ने समय पर सुंदर शिशु को जन्म दिया जिसका नाम मनु रखा।

मनु बीस वर्ष का हुआ तो पटैल उसके साथ व्यापार करने बाहर गया। दोपहर में पिता-पुत्र तालाब किनारे, पेड़ की छाँव में बैठकर भोजन करने लगे। तभी वहाँ दो युवतियाँ कपड़े धोने आईं। एक ने दूसरी से कहा 'मंगला! मैं मंगला गौरी का व्रत करती हूँ, इससे सौभाग्य अखंड रहता है। तू भी यह व्रत किया कर।' दूसरी युवती ने कहा 'ठीक है कमला! मैं भी यह व्रत करूँगी।

पटैल ने यह बातचीत सुनकर सोचा कि कमला से पुत्र का विवाह कराने पर उसका सौभाग्य अखंड रहेगा तो पुत्र की आयु अपने आप बढ़ जाएगी। वह पुत्र के साथ कमला के पिता से मिला। उनकी सहमति से शीघ्र ही मनु के साथ कमला का विवाह हो गया।

कमला विवाह के बाद भी मंगला गौरी का व्रत श्रद्धापूर्वक करती रही। व्रत से प्रसन्न माँ गौरी ने कमला से स्वप्न में कहा कि उसके पति की आयु इक्कीस वर्ष होने पर एक सर्प उसके प्राण लेने आएगा। तुम एक सकोरे में शक्कर मिला दूध और एक मटकी तैयार रखना। साँप जैसे ही दूध पीने लगे, तुम बिना आहट किए उसके फन पर मटकी पलटकर रख देना, वह मटकी में चला जाएगा। बाद में उसे जंगल में छुड़वा देना तो तुम्हारे पति के प्राण बच जाएँगे।

कमला ने ऐसा ही किया। मनु के प्राण बच गए। तब से कमला के साथ गाँव की अन्य महिलाएँ भी मंगलागौरी का व्रत श्रद्धापूर्वक करने लगीं और सुखी हो गईं।

***


बुंदेली लोककथा सच्ची लगन

सच्ची लगन  

बहुत पुरानी बात है। पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती ने श्मशानवासी शिव से शादी करने का प्रण लिया।

महामुनि नारद ने सुना तो झट से पार्वती की परीक्षा लेने के लिए चल पड़े। पर्वतराज हिमालय के दरबार में पहुँचे। पर्वतराज ने आसन से उठकर देवर्षि नारद को प्रणाम किया। आतिथ्य स्वीकार करने के पहले नारद ने राजकुमारी को आशीर्वाद देने की इच्छा व्यक्त की।

पार्वती की हस्त रेखा और मस्तक रेखाएँ देखकर नारद ने कहा कि तुम्हारे भाग्य में अखण्ड सौभाग्यवती होने का योग है और तुम्हारा सुहाग तीनों लोक में पूज्य होगा।

यह सुनकर हिमालय बहुत प्रसन्न हुए और पूछ बैठे कि ऐसा वर कहाँ मिलेगा? आप ही कुछ अता-पता बताइए।

नारद बोले मैं तो ऐसे लक्षणों से युक्त एक ही वर को जानता हूँ।

हिमालय बोले कि हे त्रिलोक में विचरण करनेवाले मुनिराज आप कृपाकर उनका नाम बताइए और उन्हें पार्वती से विवाह हेतु मनाइए।

नारद ने कहा ऐसे शुभ लक्षणों से युक्त एकमात्र वर श्री विष्णु हैं। वे मेरी बात नहीं टालेंगे। उनसे पार्वती का विवाह तय कर आता हूँ। यह कह कर नारद जाने को उद्यत हुए।

पार्वती ने यह सुना तो आपे से बाहर होकर आसमान सिर पर उठा लिया। शिव से विवाह करने का अपना दृढ़ संकल्प दोहराते हुए पार्वती ने नारद तथा विष्णु को खूब खरी-खोटी सुनाई।

नारद ने किसी बात का बुरा न मानते हुए शिव से विवाह की राह में आने आनेवाली अड़चनों और संकटों से आगाह किया। पार्वती सुनी-अनसुनी करते हुए सखी सहित जंगल में जाकर मनोकामना पूरी होने तक तपस्या करने करने चल दीं।

जंगल में पार्वती ने बारह वर्ष तक फल ग्रहण कर, फिर बारह वर्ष तक बेलपत्र खाकर तपस्या की। फिर एक माह तक धूम्रपान करने के बाद माघ माह में जल में खड़ी रहीं, फिर वैशाख मास में पंचधूनी तापी। अंत में सावन महीने में निराहार रहीं।

इस बीच पिता हिमालय अपने अनुभव क से लगातार पार्वती की खोज कराते रहे पर पता न चला। तब उन्होंने सब पर्वतों से पार्वती की खोज करने को कहा। पार्वती ने एक गुफा में बालू के शिवलिंग बनाकर निराहार रहकर अहर्निश शिव पूजन आरंभ कर दिया। इस कठिन व्रत के प्रभाव से शिव का आसन डोल गया। शिव ने पार्वती को दर्शन देकर कहा कि वे पूजन से प्रसन्न हैं। पार्वती वर माँगें।

तब पार्वती ने शिव से विवाह का वर माँगा। शिव यह वरदान देकर कैलाश पर्वत पर जा विराजे। पार्वती ने व्रत का विधिवत समापन किया। इसी समय हिमालय पार्वती को खोजते हुए पहुँचे। उन्हें मन न होते हुए भी पार्वती का हठ स्वीकार करना पड़ा। वे पार्वती को घर ले आए तथा धूमधाम से शिव के साथ विवाह करा दिया।

'हर' अर्थात शिव का पूजन 'ताल' में जल में खड़ी रहकर पूर्ण करने के कारण भाद्रपद शुक्ल पक्ष की तृतीया को आज भी स्त्रियाँ निर्जला रहकर हरतालिका व्रत करती हैं। वे सोलह श्रंगार कर शाम को काली मिट्टी के शिव-पार्वती बनाकर प्रतिष्ठित कर सजाती हैं। बेलपत्र तथा फूलों से सज्जित फुलहरा शिवलिंग के ऊपर टाँगती हैं। गुझिया, पपड़िया आदि पक्वान्नों के साथ तेंदू पत्ते के दोने में मके की लाई, महुआ, गुड़ आदि (वह सब जो पार्वती ने व्रत करते समय ग्रहण की थी) रखकर शाम, अर्धरात्रि तथा अलस्सवेरे पूजन कर हाथ में अक्षत (चावल के साबित दाने) लेकर कथा सुनती हैं ताकि पार्वती की तरह वे भी अखंड सौभाग्यवती हों।

***


हास्य रचना

[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": बुंदेली हास्य रचना:
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": हास्य रचना
भोर भई शुभ, पड़ोसन हिला रही थी हाथ
देख मुदित मन हो गया, तना गर्व से माथ
तना गर्व से माथ, हिलाते हाथ रहे हम
घरवाली ने होली पर, था फोड़ दिया बम
निर्ममता से तोड़ दिल, बोल रही थी साँच
'तुम्हें नहीं वह हेरती, पोंछे खिड़की- काँच'
*
[31/03, 08:24] आचार्य संजीव वर्मा "सलिल": दोहा सलिला
(अभिनव प्रयोग - सतचरणी दोहा)
छाया की काया नहीं, पर माया बेजोड़
हटे शीश से तब लगे, पाने खातिर होड़
किसी के हाथ न आती
उजाला सखा सँगाती
तिमिर को धता बताती
*
गुझिया खा मीना कहें, मी ना कोई और 
सीख यही इतिहास की, तन्नक करिए गौर
परीक्षार्थी हों गुरु जब
परीक्षाफल नकली तब
देखते भौंचक हो सब
*
करता शोक अशोक नित, तमचर है आलोक 
लछमीपति दर दर फिरे, जनपथ पर है रोक
विपक्षी मुक्त देश हो
तर्क कुछ नहीं शेष हो
प्रैस चारण विशेष हो
*
रंग उड़ गया देखकर, बीबी का मुख लाल
रंग जम गया जब मिली, साली लिए गुलाल
रँगे सरहज मूँ कारा
भई बिनकी पौ बारा
कि बोलो सा रा रा रा
*
उषा दुपहरी साँझ सँग, सूरज करता डेट
थक वसुधा को सुमिरता, रजनी शैया लेट
नमन फिर  भी जग करता
*

मंगलवार, 30 मार्च 2021

बुंदेली लोककथा कर संतोष रहो सुखी

कर संतोष रहो सुखी

किसी समय एक गाँव में एक गरीब लकड़हारा परिवार रहता था। कोई और काम न आने के कारण लकड़हारा लकड़ी काट-बेचकर अपना पेट भर था। लोग लकड़ी खरीदकर खाना पकाने के काम में लाते थे। इसलिए वह सूख गए झाड़ खोजकर काटता था, हरे झाड़ छोड़ देता था। एक झाड़ पर बरमदेव रहते थे। बरमदेव ने एक ग्रामीण का भेस बनाकर लकड़हारे से कहा की वह बरगद का विशाल झाड़ काटे तो बाउट सी लकड़ियाँ मिलेंगी जिन्हें बेचकर वह मालामाल हो सकेगा। लकड़हारा बोला कि वह ऐसा नहीं करेगा। हरे-भरे बरगद के झाड़ को काटने से अनेक पक्षियों के नीड़ नष्ट हो जाएँगे। इससे अच्छा है कि वह कम खाकर गुजारा कर ले। बरमदेव ने उससे खुश होकर वरदान दिया कि तुम्हारी काटी लकड़ियों में पसीने की खुशबू रहेगी।

उस दिन के बाद से जब लकड़हारा किसी टूटे-गिरे या सूखे वृक्ष को काटता तो उसकी लकड़ी में सुगंध होती। उसने घरवाली को यह बताया तो घरवाली ने बरमदेवता की कृपा से मिला प्रसाद कहकर वे लकड़ियाँ अलग रख लीं और पुरानी लकड़ियाँ बेचकर घर का खर्च चलाती। व्ह रोज नहाने के बाद पीपल और आँवले के पौधों मे जल सींचती थी। उसके बाद ही खाना बनाती। फिर बरमदेव को भोग लगाने के बाद लकड़ी बेचने जाती थी।

मौसम बदला और बरसात आ गई। बाजार में सूखी लकड़ियाँ मिलना बंद हो गई। एक दिन राजभवन में पर्व मनाया जाना था। लकडहारिन को जैसे ही यह बात पता चली उसने बचाकर रखी सुगंधवाली लकड़ियाँ निकाली और राजभवन के निकट लकड़ी बेचने गई। राजा को खबर मिली तो उसने लकड़हारिन को महल में बुलवाकर उसकी लकड़ियों में सुगंध होने का कारण पूछा। लकडहारिन ने बता दिया की यह मेहनत और ईमानदारी की सुगंध है। पूरी बात जानकर राजा प्रसन्न हुआ और उसने लकड़ियों का मूल्य पूछा। लकडहारिन बोली -

'भोग लगे कुछ ईश को, भूख नहीं हो शेष।
ज्यादा कछू न चाहिए, मो खों हे राजेश।।
कर संतोष रहो सुखी

वह लकड़ी का गट्ठा महल में छोड़कर अपने घर आ गई। राजा ने लकड़हारे और लकड़हारिन की जंगल और पेड़ों के प्रति प्रेम और समझदारी से खुश होकर मुट्ठीभर मुहर भिजवाईं।वे दोनों ख़ुशी-ख़ुशी जीवन बिताने लगे।

*

सोमवार, 29 मार्च 2021

कार्यशाला : कुण्डलिया

कार्यशाला : कुण्डलिया
*
अन्तर्मन से आ रही आज एक आवाज़।
सक्षम मानव आज का बने ग़रीबनिवाज़।। -रामदेव लाल 'विभोर'
बने गरीबनिवाज़, गैर के पोंछे आँसू।
खाए रोटी बाँट, बने हर निर्बल धाँसू।।
कोरोना से भीत, अकेला डरे न पुरजन।
धन बिन भूखा रहे, न कोई जग अंतर्मन।। - संजीव वर्मा 'सलिल'

वेदोक्त रात्रि सूक्त


।। अथ वेदोक्त रात्रि सूक्तं ।।
।। वेदोक्त रात्रि सूक्त।।
*
ॐ रात्री व्यख्यदायती पुरुत्रा देव्यक्षभि:। विश्र्वा अधिश्रियोधित ।१।
। ॐ रात्रि! विश्रांतिदायिनी जगत आश्रित। सब कर्मों को देखें, फल दें।१।
*
ओर्वप्रा अमर्त्या निवतो देव्युद्वत:। ज्योतिषा बाधते तम:।२।
।। देवी अमरा व्याप विश्व में, नष्ट करें अज्ञान तिमिर को ज्ञान ज्योति से ।२।
*
निरु स्वसारमस्कृतोषसं देव्येति। अपेदु हासते तम: ।३।
। पराशक्ति रूपा रजनी प्रगटा दें ऊषा, नष्ट अविद्या तिमिर स्वत्: हो। ३।
*
सा नो अद्य यस्या वयं नि ते यामन्नाविक्ष्महि। वृक्षे न वसतिं वय:।४।
।रात्रि देवी पधारें हों मुदित , सो सकें हम खग सदृश निज घोंसले में।४।
*
नि ग्रामासो अविक्षत नि पद्वन्तो नि पक्षिण:। नि श्येना सश्चिदर्थिन:।५।
। सोते सुख से ग्राम्य जन, पशु, जीव-जंतु,खग, रात्रि अंक में।५।
*
यावया वृक्यं वृकं यवय स्तेनमूर्म्ये। अथा न: सुतरा भव। ६।
।रात्रि देवी! पाप वृक वासना वृकी को, दूर कर सुखदायिनी हो।६।
*
उप मा पेपिशत्तम: कृष्णं व्यक्तमस्थित। उष ऋणेव् यातय। ७।
।घेरे अज्ञान तिमिर ज्ञान दे कर दूर, उषा! उऋण करतीं मुझे दे धन। ७।
*
उप ते गा इवाकरं वृणीष्व दुहितर्दिव:। रात्रि स्तोमं न जिग्युषे। ८।
। पयप्रदा गौ सदृश रजनी!, व्योमकन्या!! हविष्य ले लो।३।
२९.३.२०२०
***

दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि

श्री दुर्गा सप्तशती : पाठ- पूजन विधि
भुवनेश्वरी संहिता में कहा गया है- जिस प्रकार से ''वेद'' अनादि है, उसी प्रकार ''सप्तशती'' भी अनादि है। श्री व्यास जी द्वारा रचित महापुराणों में ''मार्कण्डेय पुराण'' के माध्यम से मानव मात्र के कल्याण के लिए इसकी रचना की गई है। जिस प्रकार योग का सर्वोत्तम ग्रंथ गीता है उसी प्रकार ''दुर्गा सप्तशती'' शक्ति उपासना का श्रेष्ठ ग्रंथ है | 'दुर्गा सप्तशती'के सात सौ श्लोकों को तीन भागों प्रथम चरित्र (महाकाली), मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) तथा उत्तम चरित्र (महा सरस्वती) में विभाजित किया गया है। प्रत्येक चरित्र में सात-सात देवियों का स्तोत्र में उल्लेख मिलता है प्रथम चरित्र में काली, तारा, छिन्नमस्ता, सुमुखी, भुवनेश्वरी, बाला, कुब्जा, द्वितीय चरित्र में लक्ष्मी, ललिता, काली, दुर्गा, गायत्री, अरुन्धती, सरस्वती तथा तृतीय चरित्र में ब्राह्मी, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही तथा चामुंडा (शिवा) इस प्रकार कुल २१ देवियों के महात्म्य व प्रयोग इन तीन चरित्रों में दिए गये हैं। नन्दा, शाकम्भरी, भीमा ये तीन सप्तशती पाठ की महाशक्तियां तथा दुर्गा, रक्तदन्तिका व भ्रामरी को सप्तशती स्तोत्र का बीज कहा गया है। तंत्र में शक्ति के तीन रूप प्रतिमा, यंत्र तथा बीजाक्षर माने गए हैं। शक्ति की साधना हेतु इन तीनों रूपों का पद्धति अनुसार समन्वय आवश्यक माना जाता है। सप्तशती के सात सौ श्लोकों को तेरह अध्यायों में बांटा गया है प्रथम चरित्र में केवल पहला अध्याय, मध्यम चरित्र में दूसरा, तीसरा व चौथा अध्याय तथा शेष सभी अध्याय उत्तम चरित्र में रखे गये हैं। प्रथम चरित्र में महाकाली का बीजाक्षर रूप ऊँ 'एं है। मध्यम चरित्र (महालक्ष्मी) का बीजाक्षर रूप 'हृी' तथा तीसरे उत्तम चरित्र महासरस्वती का बीजाक्षर रूप 'क्लीं' है। अन्य तांत्रिक साधनाओं में 'ऐं' मंत्र सरस्वती का, 'हृीं' महालक्ष्मी का तथा 'क्लीं' महाकाली बीज है। तीनों बीजाक्षर ऐं ह्रीं क्लीं किसी भी तंत्र साधना हेतु आवश्यक तथा आधार माने गये हैं। तंत्र मुखयतः वेदों से लिया गया है ऋग्वेद से शाक्त तंत्र, यजुर्वेद से शैव तंत्र तथा सामवेद से वैष्णव तंत्र का अविर्भाव हुआ है यह तीनों वेद तीनों महाशक्तियों के स्वरूप हैं तथा यह तीनों तंत्र देवियों के तीनों स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं।
'दुर्गा सप्तशती' के सात सौ श्लोकों का प्रयोग विवरण इस प्रकार से है।
प्रयोगाणां तु नवति मारणे मोहनेऽत्र तु।
उच्चाटे सतम्भने वापि प्रयोगाणां शतद्वयम्॥
मध्यमेऽश चरित्रे स्यातृतीयेऽथ चरित्र के।
विद्धेषवश्ययोश्चात्र प्रयोगरिकृते मताः॥
एवं सप्तशत चात्र प्रयोगाः संप्त- कीर्तिताः॥
तत्मात्सप्तशतीत्मेव प्रोकं व्यासेन धीमता॥
अर्थात इस सप्तशती में मारण के नब्बे, मोहन के नब्बे, उच्चाटन के दो सौ, स्तंभन के दो सौ तथा वशीकरण और विद्वेषण के साठ प्रयोग दिए गये हैं। इस प्रकार यह कुल ७०० श्लोक ७०० प्रयोगों के समान माने गये हैं।
दुर्गा सप्तशती पाठ विधि-
नवार्ण मंत्र जप और सप्तशती न्यास के बाद तेरह अध्यायों का क्रमशः पाठ, प्राचीन काल में कीलक, कवच और अर्गला का पाठ भी सप्तशती के मूल मंत्रों के साथ ही किया जाता रहा है। आज इसमें अथर्वशीर्ष, कुंजिका मंत्र, वेदोक्त रात्रि देवी सूक्त आदि का पाठ भी समाहित है जिससे साधक एक घंटे में देवी पाठ करते हैं।
दुर्गा सप्तशती वाकार विधि :
यह विधि अत्यंत सरल मानी गयी है। इस विधि में प्रथम दिन एक पाठ प्रथम अध्याय, दूसरे दिन दो पाठ द्वितीय, तृतीय अध्याय, तीसरे दिन एक पाठ चतुर्थ अध्याय, चौथे दिन चार पाठ पंचम, षष्ठ, सप्तम व अष्टम अध्याय, पांचवें दिन दो अध्यायों का पाठ नवम, दशम अध्याय, छठे दिन ग्यारहवां अध्याय, सातवें दिन दो पाठ द्वादश एवं त्रयोदश अध्याय करके एक आवृति सप्तशती की होती है।
दुर्गा सप्तशती संपुट पाठ विधि :
किसी विशेष प्रयोजन हेतु विशेष मंत्र से एक बार ऊपर तथा एक नीचे बांधना उदाहरण हेतु संपुट मंत्र मूलमंत्र-१, संपुट मंत्र फिर मूलमंत्र अंत में पुनः संपुट मंत्र आदि इस विधि में समय अधिक लगता है।
दुर्गा सप्तशती सार्ध नवचण्डी विधि :
इस विधि में नौ ब्राह्मण साधारण विधि द्वारा पाठ करते हैं। एक ब्राह्मण सप्तशती का आधा पाठ करता है। (जिसका अर्थ है- एक से चार अध्याय का संपूर्ण पाठ, पांचवे अध्याय में ''देवा उचुः- नमो देव्ये महादेव्यै'' से आरंभ कर ऋषिरुवाच तक, एकादश अध्याय का नारायण स्तुति, बारहवां तथा तेरहवां अध्याय संपूर्ण) इस आधे पाठ को करने से ही संपूर्ण कार्य की पूर्णता मानी जाती है। एक अन्य ब्राह्मण द्वारा षडंग रुद्राष्टाध्यायी का पाठ किया जाता है। इस प्रकार कुल ग्यारह ब्राह्मणों द्वारा नवचण्डी विधि द्वारा सप्तशती का पाठ होता है। पाठ पश्चात् उत्तरांग करके अग्नि स्थापना कर पूर्णाहुति देते हुए हवन किया जाता है जिसमें नवग्रह समिधाओं से ग्रहयोग, सप्तशती के पूर्ण मंत्र, श्री सूक्त वाहन तथा शिवमंत्र 'सद्सूक्त का प्रयोग होता है जिसके बाद ब्राह्मण भोजन,' कुमारी का भोजन आदि किया जाता है। वाराही तंत्र में कहा गया है कि जो ''सार्धनवचण्डी'' प्रयोग को संपन्न करता है वह प्राणमुक्त होने तक भयमुक्त रहता है, राज्य, श्री व संपत्ति प्राप्त करता है।
दुर्गा सप्तशती शतचण्डी विधि :
मां की प्रसन्नता हेतु किसी भी दुर्गा मंदिर के समीप सुंदर मण्डप व हवन कुंड स्थापित करके (पश्चिम या मध्य भाग में) दस उत्तम ब्राह्मणों (योग्य) को बुलाकर उन सभी के द्वारा पृथक-पृथक मार्कण्डेय पुराणोक्त श्री दुर्गा सप्तशती का दस बार पाठ करवाएं। इसके अलावा प्रत्येक ब्राह्मण से एक-एक हजार नवार्ण मंत्र भी करवाने चाहिए। शक्ति संप्रदाय वाले शतचण्डी (१०८) पाठ विधि हेतु अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी तथा पूर्णिमा का दिन शुभ मानते हैं। इस अनुष्ठान विधि में नौ कुमारियों का पूजन करना चाहिए जो दो से दस वर्ष तक की होनी चाहिए तथा इन कन्याओं को क्रमशः कुमारी, त्रिमूर्ति, कल्याणी, रोहिणी, कालिका, शाम्भवी, दुर्गा, चंडिका तथा मुद्रा नाम मंत्रों से पूजना चाहिए। इस कन्या पूजन में संपूर्ण मनोरथ सिद्धि हेतु ब्राह्मण कन्या, यश हेतु क्षत्रिय कन्या, धन के लिए वेश्य तथा पुत्र प्राप्ति हेतु शूद्र कन्या का पूजन करें। इन सभी कन्याओं का आवाहन प्रत्येक देवी का नाम लेकर यथा ''मैं मंत्राक्षरमयी लक्ष्मीरुपिणी, मातृरुपधारिणी तथा साक्षात् नव दुर्गा स्वरूपिणी कन्याओं का आवाहन करता हूं तथा प्रत्येक देवी को नमस्कार करता हूं।'' इस प्रकार से प्रार्थना करनी चाहिए। वेदी पर सर्वतोभद्र मण्डल बनाकर कलश स्थापना कर पूजन करें। शतचण्डी विधि अनुष्ठान में यंत्रस्थ कलश, श्री गणेश, नवग्रह, मातृका, वास्तु, सप्तऋषी, सप्तचिरंजीव, 64 योगिनी ५० क्षेत्रपाल तथा अन्याय देवताओं का वैदिक पूजन होता है। जिसके पश्चात् चार दिनों तक पूजा सहित पाठ करना चाहिए। पांचवें दिन हवन होता है।
इन सब विधियों (अनुष्ठानों) के अतिरिक्त प्रतिलोम विधि, कृष्ण विधि, चतुर्दशीविधि, अष्टमी विधि, सहस्त्रचण्डी विधि (१००८) पाठ, ददाति विधि, प्रतिगृहणाति विधि आदि अत्यंत गोपनीय विधियां भी हैं जिनसे साधक इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है।
दुर्गा सप्तशती/ श्री दुर्गासप्तशती महायज्ञ / अनुष्ठान विधि
भगवती मां दुर्गाजी की प्रसन्नता के लिए जो अनुष्ठान किये जाते हैं उनमें दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान विशेष कल्याणकारी माना गया है। इस अनुष्ठान को ही शक्ति साधना भी कहा जाता है। शक्ति मानव के दैनन्दिन व्यावहारिक जीवन की आपदाओं का निवारण कर ज्ञान, बल, क्रिया शक्ति आदि प्रदान कर उसकी धर्म-अर्थ काममूलक इच्छाओं को पूर्ण करती है एवं अंत में आलौकिक परमानंद का अधिकारी बनाकर उसे मोक्ष प्रदान करती है। दुर्गा सप्तशती एक तांत्रिक पुस्तक होने का गौरव भी प्राप्त करती है। भगवती शक्ति एक होकर भी लोक कल्याण के लिए अनेक रूपों को धारण करती है। श्वेतांबर उपनिषद के अनुसार यही आद्या शक्ति त्रिशक्ति अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में प्रकट होती है। इस प्रकार पराशक्ति त्रिशक्ति, नवदुर्गा, दश महाविद्या और ऐसे ही अनंत नामों से परम पूज्य है। श्री दुर्गा सप्तशती नारायणावतार श्री व्यासजी द्वारा रचित महा पुराणों में मार्कण्डेयपुराण से ली गयी है। इसम सात सौ पद्यों का समावेश होने के कारण इसे सप्तशती का नाम दिया गया है। तंत्र शास्त्रों में इसका सर्वाधिक महत्व प्रतिपादित है और तांत्रिक प्रक्रियाओं का इसके पाठ में बहुधा उपयोग होता आया है। पूरे दुर्गा सप्तशती में ३६० शक्तियों का वर्णन है। इस पुस्तक में तेरह अध्याय हैं। शास्त्रों के अनुसार शक्ति पूजन के साथ भैरव पूजन भी अनिवार्य माना गया है। अतः अष्टोत्तरशतनाम रूप बटुक भैरव की नामावली का पाठ भी दुर्गासप्तशती के अंगों में जोड़ दिया जाता है। इसका प्रयोग तीन प्रकार से होता है।
[ १.] नवार्ण मंत्र के जप से पहले भैरवो भूतनाथश्च से प्रभविष्णुरितीवरितक या नमोऽत्त नामबली या भैरवजी के मूल मंत्र का १०८ बार जप।
[ २.] प्रत्येक चरित्र के आद्यान्त में पाठ।
[ ३.] प्रत्येक उवाचमंत्र के आस-पास संपुट देकर पाठ। नैवेद्य का प्रयोग अपनी कामनापूर्ति हेतु दैनिक पूजा में नित्य किया जा सकता है। यदि मां दुर्गाजी की प्रतिमा कांसे की हो तो विशेष फलदायिनी होती है।
दुर्गा सप्तशती का अनुष्ठान कैसे करें।
१. कलश स्थापना, २ . गौरी गणेश पूजन, ३. नवग्रह पूजन, ४. षोडश मातृकाओं का पूजन, ५. कुल देवी का पूजन, ६. माँ दुर्गा जी का पूजन निम्न प्रकार से करें-
आवाहन : आवाहनार्थे पुष्पांजली सर्मपयामि।
आसन : आसनार्थे पुष्पाणि समर्पयामि।
पाद : पाद्यर्यो : पाद्य समर्पयामि।
अर्घ्य : हस्तयो : अर्घ्य स्नानः ।
आचमन : आचमन समर्पयामि।
स्नान : स्नानादि जलं समर्पयामि।
स्नानांग : आचमन : स्नानन्ते पुनराचमनीयं जलं समर्पयामि।
दुधि स्नान : दुग्ध स्नान समर्पयामि।
दहि स्नान : दधि स्नानं समर्पयामि।
घृत स्नान : घृतस्नानं समर्पयामि।
शहद स्नान : मधु स्नानं सर्मपयामि।
शर्करा स्नान : शर्करा स्नानं समर्पयामि।
पंचामृत स्नान : पंचामृत स्नानं समर्पयामि।
गन्धोदक स्नान : गन्धोदक स्नानं समर्पयामि
शुद्धोदक स्नान : शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि
वस्त्र : वस्त्रं समर्पयामि
*

बुंदेली हास्य रचना: उल्लू उवाच

बुंदेली हास्य रचना:
उल्लू उवाच
*
मुतके दिन मा जब दिखो, हमखों उल्लू एक.
हमने पूछी: "कित हते बिलमे? बोलो नेंक"
बा बोलो: "मुतके इते करते रैत पढ़ाई.
दो रोटी दे नई सके, बो सिच्छा मन भाई.
बिन्सें ज्यादा बड़े हैं उल्लू जो लें क्लास.
इनसें सोई ज्यादा बड़े, धरें परिच्छा खास.
इनसें बड़े निकालते पेपर करते लीक.
औरई बड़े खरीदते कैते धंधा ठीक.
करें परीच्छा कैंसिल बिन्सें बड़े तपाक.
टीवी पे इनसें बड़े, बैठ भौंकते आप.
बिन्सें बड़े करा रए लीक काण्ड की जाँच.
फिर से लेंगे परिच्छा, और बड़े रए बाँच
इतने उल्लुन बीच में अपनी का औकात?
एई काजे लुके रए, जान बचाखें भ्रात.
***
संवस, ७९९९५५९६१८

विमर्श विश्वास या विष-वास?

विमर्श
विश्वास या विष-वास?
*
= 'विश्वासं फलदायकम्' भारतीय चिंतन धारा का मूलमंत्र है।
= 'श्रद्धावान लभते ग्यानम्' व्यवहार जगत में विश्वास की महत्ता प्रतिपादित करता है।
बिना विश्वास के श्रद्धा हो ही नहीं सकती। शंकाओं का कसौटियों पर अनगिनत बार लगातार विश्वास खरा उतरे, तब श्रद्धा उपजती है।
= श्रद्धा अंध-श्रद्धा बनकर त्याज्य हो जाती है।
= स्वार्थ पर आधारित श्रद्धा, श्रद्धा नहीं दिखावा मात्र होती है।
= तुलसी 'भवानी शंकर वंदे, श्रद्धा विश्वास रूपिणौ' कहकर श्रद्धा और विश्वास के अंतर्संबंध को स्पष्ट कर देते हैं।
शिशु के लिए जन्मदात्री माँ से अधिक विश्वसनीय और कौन है सकता है? भवानी को श्रद्धा कहकर तुलसी ा कहे ही कह देते हैं कि वे सकल सृष्टिकर्त्री आदि प्रकृति महामाया हैं।
तुलसी शंकर को विश्वास बताते हैं। शंकर हैं शंकारि, शंकाओं के शत्रु। शंका का उन्मूलन करनेवाला ही तो विश्वास का भाजन होगा।
= यहाँ एक और महत्वपूर्ण सूत्र है जिसे जानना जरूरी है। अरि अर्थात शत्रु, शत्रुता नकारात्मक ऊर्जा है। संदेह हो सकता है कि क्या नकारात्मकता भी साध्य, वरेण्य हो सकती है? उत्तर हाँ है। यदि नकारात्मकता न हो तो सकारात्मकता को पहचानोगे कैसे? खट्टा, नमकीन, चरपरा, तीखा न हो मीठा भी आनंदहीन हो जाएगा।
सृष्टि की सृष्टि ही अँधेरे के गर्भ से होती है। निशा का निबिड़ अंधकार ही उषा के उजास को जन्म देता है। अमावस का घनेरा अँधेरा न हो तो दिये जलाकर उजाला का पर्व मनाने का आनंद ही न रहेगा।
= शत्रुता या नकारात्मकता आवश्यक तो है पर वह विनाशकारी है, विध्वंसक है, उसे सुप्त रहना चाहिए। वह तभी जागृत हो, तभी सक्रिय हो जब विश्वास और श्रद्धा की स्थापना अपरिहार्य हो। जीर्णोध्दार करने के लिए जीर्ण को मिटाना जरूरी है।
= भव अर्थात संसार, भव को अस्तित्व में लाने वाली भवानी, शून्य से- सर्वस्व का सृजन करनेवाली भवानी सकारात्मक ऊर्जा हैं। वे श्रद्धा हैं।
= विश्वास के बिना श्रद्धा अजन्मा और श्रद्धा के बिना विश्वास निष्क्रिय है। इसीलिए शिव तपस्यारत हैं। शत्रुता विस्मृति के गर्त में रहे तभी कल्याण है किंतु भवानी सक्रिय हैं, सचेष्ट हैं। यही नहीं वे शिव को निष्क्रिय कुलीन भी नहीं रहने देती, तपस्या को भंग करा देती हैं भले ही शिव की रौद्रता काम का विनाश कर दे।
= काम क्या है? काम रति का स्वामी है। रति कौन है? रति है ऊर्जा। काम और रति का दिशा-हीन मिलन वासना, मोह और भोग को प्रधानता देता है। यही काम निष्काम हो तो कल्याणकारी हो जाता है। रति यदि विरति हो तो सृजन ही न होगा, कुरति हो विनाश कर देगी, सुरति है तो सुगतिदात्री होगी।
= काम को मार कर फिर जिलाना शंका उपजाता है। मारा तो जिलाया क्यों? जिलाना था तो मारा क्यों? शंका का समाधान न हो तो विश्वास बिना मारे मर जाएगा।
किसी वास्तुकार से पूछो- जीर्णोध्दार के लिए बनाने से पहले गिराना होता है या नहीं? ऊगनेवाला सूर्य न डूबे तो देगा कैसे? तुम कहो कि ऊगना ही है तो डूबना क्यों या डूबना ही है तो ऊगना क्यों? तो इसका उत्तर यही है कि ऊगना इसलिए कि डूबना है, डूबना इसलिए कि भगवा है। जन्मना इसलिए कि मरना है, मरना इसलिए कि जन्मना है।
= शिव की सुप्त शक्ति पर विश्वास कर उसको जागृत करने-रखने वाली ही शिवा है। शिवारहित शिव शव सदृश्य हैं, मृत नहीं निरानंदी हैं। शिवा रे काम को शांत कर ममता में बदलनेवाले ही शिव हैं। शिवारहित शिवा तामसी नहीं तामसी हैं, उपवासी हैं, अपर्णा हैं। पतझर के बाद अपर्णा प्रकृति सपर्णा न हो तो सृष्टि न होगी इसलिए अपर्णा का लक्ष्य सपर्णा और सपर्णा का लक्ष्य अपर्णा है ।
= विश्वास और श्रद्धा भी शिव और शिवा का तरह अन्योन्याश्रित हैं। शंकाओं के गिरि से- उत्पन्न गिरिजा विश्वास के शंकर का वरण कर गर्भ से जन्मती हैं वरद, दयालु, नन्हें को गणनायक गणेश को जिनसे आ मिलते हैं षडानन और तुलसी करते हैं जय जय-
जय जय गिरिवर राज किसोरी, जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
जय गजल-नजम षडानन माता, जगत जननि दामिनी द्युति दाता।।
नहिं तव आदि मध्य अलसाना, अमित प्रभाव वेद नहिं जाना।।
= विश्वास और श्रद्धा के बिना गण और गणतंत्र के गणपति बनने के अभिलाषी तब जान लें कि काम-सिद्धि को साध्य मानने की परिणाम क्षार होने में होता है। पक्ष-विपक्ष शत्रु नहीं पूरक हैं। एक दूसरे के प्रति विश्वास और गण के प्रति श्रद्धा ही उन्हें गणनायक बना सकती है अन्यथा जनशक्ति का शिव उन्हें सत्ता सौंप सकता है तो जनाक्रोश का रुद्र उन्हें मिट्टी में भी मिला सकता है।
= विश्वास और श्रद्धा का वरण कर जनता जनार्दन नोटा के तीसरे नेत्र का उपयोग कर सत्ता प्राप्ति के काम के प्रति रति रखनेवाले आपराधिक प्रवृत्तिवाले प्रत्याशियों और उन्हें मैदान में उतारनेवाले दलों को क्षार कर, जनसेवा के प्रति समर्पित जनप्रतिनिधियों को नवजीवन देने से पीछे नहीं हटेगी।
***
२९-३-२०१९ 
संवस
७९९९५५९६१८

नवगीत

नवगीत-
*
दरक न पाऐँ दीवारें
हम में हर एक तीसमारखाॅं
कोई नहीं किसी से कम ।
हम आपस में उलझ-उलझकर
दिखा रहे हैं अपनी दम ।
देख छिपकली डर जाते पर
कहते डरा न सकता यम ।
आॅंख के अंधे देख-न देखें
दरक रही हैं दीवारें ।
*
फूटी आॅंखों नहीं सुहाती
हमें, हमारी ही सूरत ।
मन ही मन में मनमाफि़क
गढ़ लेते हैं सच की मूूरत ।
कुदरत देती दंड, न लेकिन
बदल रही अपनी फितरत ।
पर्वत डोले, सागर गरजे
टूट न जाएॅं दीवारें ।
*
लिये शपथ सब संविधान की
देश देवता है सबका ।
देश हितों से करो न सौदा
तुम्हें वास्ता है रब का ।
सत्ता, नेता, दल, पद झपटो
करो न सौदा जनहित का ।
भार करों का इतना ही हो
दरक न पाएॅं दीवारें ।
*
ग्रेनेडियर्स प्रिंटिंग प्रैस, १५़३०
२१.३.२०१६

मनमोहन छंद

छंद सलिला:
मनमोहन छंद
संजीव
*
लक्षण: जाति मानव, प्रति चरण मात्रा १४ मात्रा, यति ८-६, चरणांत लघु लघु लघु (नगण) होता है.
लक्षण छंद:
रासविहारी, कमलनयन
अष्ट-षष्ठ यति, छंद रतन
अंत धरे लघु तीन कदम
नतमस्तक बलि, मिटे भरम.
उदाहरण:
१. हे गोपालक!, हे गिरिधर!!
हे जसुदासुत!, हे नटवर!!
हरो मुरारी! कष्ट सकल
प्रभु! प्रयास हर करो सफल.
२. राधा-कृष्णा सखी प्रवर
पार्थ-सुदामा सखा सुघर
दो माँ-बाबा, सँग हलधर
लाड लड़ाते जी भरकर
३. कंकर-कंकर शंकर हर
पग-पग चलकर मंज़िल वर
बाधा-संकट से मर डर
नीलकंठ सम पियो ज़हर
२९-३-२०१४
*********************************************
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, ककुभ, कज्जल, कीर्ति, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, छवि, जाया, तांडव, तोमर, दीप, दोधक, नित, निधि, प्रतिभा, प्रदोष, प्रेमा, बाला, भव, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, ऋद्धि, राजीव, रामा, लीला, वाणी, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हंसी)

दोहा दोहा काव्य रस

विशेष आलेख
दोहा दोहा काव्य रस
संजीव
दोहा भास्कर काव्य नभ, दस दिश रश्मि उजास ‌
गागर में सागर भरे, छलके हर्ष हुलास ‌ ‌
रस, भाव, संधि, बिम्ब, प्रतीक, शैली, अलंकार आदि काव्य तत्वों की चर्चा करने का उद्देश्य यह है कि दोहों में इन तत्वों को पहचानने और सराहने के साथ दोहा रचते समय इन तत्वों का यथोचित समावेश कर किया जा सके। ‌
रसः
काव्य को पढ़ने या सुनने से मिलनेवाला आनंद ही रस है। काव्य मानव मन में छिपे भावों को जगाकर रस की अनुभूति कराता है। भरत मुनि के अनुसार "विभावानुभाव संचारी संयोगाद्रसनिष्पत्तिः" अर्थात् विभाव, अनुभाव व संचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है। रस के ४ अंग स्थायी भाव, विभाव, अनुभाव व संचारी भाव हैं-
स्थायी भावः मानव ह्र्दय में हमेशा विद्यमान, छिपाये न जा सकनेवाले, अपरिवर्तनीय भावों को स्थायी भाव कहा जाता है।
रस: १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुण, ४. रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. वीभत्स, ८. अद्भुत, ९. शांत, १०. वात्सल्य, ११. भक्ति।
क्रमश:स्थायी भाव: १. रति, २. हास, ३. शोक, ४. क्रोध, ५. उत्साह, ६. भय, ७. घृणा, ८. विस्मय, निर्वेद, ९. १०. संतान प्रेम, ११. समर्पण।
विभावः
किसी व्यक्ति के मन में स्थायी भाव उत्पन्न करनेवाले कारण को विभाव कहते हैं। व्यक्ति, वस्तु या परिस्थिति भी विभाव हो सकती है। ‌विभाव के दो प्रकार आलंबन व उद्दीपन हैं। ‌
आलंबन विभाव के सहारे रस निष्पत्ति होती है। इसके दो भेद आश्रय व विषय हैं ‌
आश्रयः
जिस व्यक्ति में स्थायी भाव स्थिर रहता है उसे आश्रय कहते हैं। ‌श्रृंगार रस में नायक नायिका एक दूसरे के आश्रय होंगे।‌
विषयः
जिसके प्रति आश्रय के मन में रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो, उसे विषय कहते हैं ‌ "क" को "ख" के प्रति प्रेम हो तो "क" आश्रय तथा "ख" विषय होगा।‌
उद्दीपन विभाव:
आलंबन द्वारा उत्पन्न भावों को तीव्र करनेवाले कारण उद्दीपन विभाव कहे जाते हैं। जिसके दो भेद बाह्य वातावरण व बाह्य चेष्टाएँ हैं। वन में सिंह गर्जन सुनकर डरनेवाला व्यक्ति आश्रय, सिंह विषय, निर्जन वन, अँधेरा, गर्जन आदि उद्दीपन विभाव तथा सिंह का मुँह फैलाना आदि विषय की बाह्य चेष्टाएँ हैं ।
अनुभावः
आश्रय की बाह्य चेष्टाओं को अनुभाव या अभिनय कहते हैं। भयभीत व्यक्ति का काँपना, चीखना, भागना आदि अनुभाव हैं। ‌
संचारी भावः
आश्रय के चित्त में क्षणिक रूप से उत्पन्न अथवा नष्ट मनोविकारों या भावों को संचारी भाव कहते हैं। भयग्रस्त व्यक्ति के मन में उत्पन्न शंका, चिंता, मोह, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। मुख्य ३३ संचारी भाव निर्वेद, ग्लानि, मद, स्मृति, शंका, आलस्य, चिंता, दैन्य, मोह, चपलता, हर्ष, धृति, त्रास, उग्रता, उन्माद, असूया, श्रम, क्रीड़ा, आवेग, गर्व, विषाद, औत्सुक्य, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विबोध, अवमर्ष, अवहित्था, मति, व्याथि, मरण, त्रास व वितर्क हैं।
रस
१. श्रृंगार
अ. संयोग श्रृंगार:
तुमने छेड़े प्रेम के, ऐसे राग हुजूर
बजते रहते हैं सदा, तन-मन में संतूर
- अशोक अंजुम, नई सदी के प्रतिनिधि दोहाकार
आ. वियोग श्रृंगार:
हाथ छुटा तो अश्रु से, भीग गये थे गाल ‌
गाड़ी चल दी देर तक, हिला एक रूमाल
- चंद्रसेन "विराट", चुटकी चुटकी चाँदनी
२. हास्यः
आफिस में फाइल चले, कछुए की रफ्तार ‌
बाबू बैठा सर्प सा, बीच कुंडली मार
- राजेश अरोरा"शलभ", हास्य पर टैक्स नहीं
व्यंग्यः
अंकित है हर पृष्ठ पर, बाँच सके तो बाँच ‌
सोलह दूनी आठ है, अब इस युग का साँच
- जय चक्रवर्ती, संदर्भों की आग
३. करुणः
हाय, भूख की बेबसी, हाय, अभागे पेट ‌
बचपन चाकर बन गया, धोता है कप-प्लेट
- डॉ. अनंतराम मिश्र "अनंत", उग आयी फिर दूब
४. रौद्रः
शिखर कारगिल पर मचल, फड़क रहे भुजपाश ‌
जान हथेली पर लिये, अरि को करते लाश
- संजीव
५. वीरः
रणभेरी जब-जब बजे, जगे युद्ध संगीत ‌
कण-कण माटी का लिखे, बलिदानों के गीत
- डॉ. रामसनेहीलाल शर्मा "यायावर", आँसू का अनुवाद
६. भयानकः
उफनाती नदियाँ चलीं, क्रुद्ध खोलकर केश ‌
वर्षा में धारण किया, रणचंडी का वेश
- आचार्य भगवत दुबे, शब्दों के संवाद
७. वीभत्सः
हा, पशुओं की लाश को, नोचें कौए गिद्ध ‌
हा, पीते जन-रक्त फिर, नेता अफसर सिद्ध
- संजीव
८. अद्भुतः
पांडुपुत्र ने उसी क्षण, उस तन में शत बार ‌
पृथक-पृथक संपूर्ण जग, देखे विविध प्रकार
- डॉ. उदयभानु तिवारी "मधुकर", श्री गीता मानस
९. शांतः
जिसको यह जग घर लगे, वह ठहरा नादान ‌
समझे इसे सराय जो, वह है चतुर सुजान
- डॉ. श्यामानंद सरस्वती "रौशन", होते ही अंतर्मुखी
१० . वात्सल्यः
छौने को दिल से लगा, हिरनी चाटे खाल ‌
पान करा पय मनाती, चिरजीवी हो लाल
-संजीव
११. भक्तिः
दूब दबाये शुण्ड में, लंबोदर गजमुण्ड ‌
बुद्धि विनायक हे प्रभो!, हरो विघ्न के झुण्ड
- भानुदत्त त्रिपाठी "मधुरेश", दोहा कुंज
दोहा में हर रस को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य है। आशा है दोहाकार अपनी रुचि के अनुकूल खड़ी बोली या टकसाली हिंदी में दोहे रचने की चुनौती को स्वीकारेंगे। हिंदी के अन्य भाषिक रूपों यथा उर्दू, बृज, अवधी, बुन्देली, भोजपुरी, मैथिली, अंगिका, बज्जिका, छत्तीसगढ़ी, मालवी, निमाड़ी, बघेली, कठियावाड़ी, शेखावाटी, मारवाड़ी, हरयाणवी आदि तथा अन्य भाषाओँ गुजराती, मराठी, गुरुमुखी, उड़िया, बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, डोगरी, असमीआदि तथा अभारतीय भाषाओँ अंग्रेजी इत्यादि में दोहा भेजते समय उसका उल्लेख किया जाना उपयुक्त होगा ताकि उस रूप / भाषा विशेष में प्रयुक्त शब्दरूप व क्रियापद को अशुद्धि न समझा जाए।
**********

फागुन के मुक्तक

फागुन के मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*
बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
*
२९-३-२०१३ 

रविवार, 28 मार्च 2021

मुक्तिका

मुक्तिका
*
कहाँ गुमी गुड़धानी दे दो
किस्सोंवाली नानी दे दो
बासंती मस्ती थोड़ी सी
थोड़ी भंग भवानी दे दो
साथ नहीं जाएगा कुछ भी
कोई प्रेम निशानी दे दो
मोती मानुस चून आँख को
बिन माँगे ही पानी दे दो
मीरा की मुस्कान बन सके
बंसी-ध्वनि सी बानी दे दो
*
संजीव
२७-३-२०२०

मुक्तक

मुक्तक
शशि त्यागी है सदा से, करे चाँदनी दान
हरी हलाहल की तपिश, शिव चढ़ पाया मान
सुंदरता पर्याय बन, कवियों से पा प्रेम
सलिल धार में छवि लखे, माँगे जग की क्षेम
२७-३-२०२०

लेख: संतान बनो

लेख:
संतान बनो
*
इसरो के वैज्ञानिकों ने देश के बाहरी शत्रुओं की मिसाइलों, प्रक्षेपास्त्रों व अंतरिक्षीय अड्डों को नष्ट करने की क्षमता का सफल क्रियान्वयन कर हम सबको 'शक्ति की भक्ति' का पाठ पढ़ाया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि देश बाहरी शत्रुओं से बहादुर सेना और सुयोग्य वैग्यानिकों की दम पर निपट सकता है। मेरा कवि यह मानते हुए भी 'जहाँ न पहुँचे रवि वहाँ पहुँचे कवि' तथा 'सम्हल के रहना अपने घर में छिपे हुए गद्दारों से' की घुटी में मिली सीख भूल नहीं पाता।
लोकतंत्र के भीतरी दुश्मन कौन और कहाँ हैं, कब-कैसे हमला करेंगे, उनसे बचाव कौन-कैसे करेगा जैसे प्रश्नों के उत्तर चाहिए?
सचमुच चाहिए या नेताओं के दिखावटी देशप्रेम की तरह चुनावी वातावरण में उत्तर चाहने का दिखावा कर रहे हो?
सचमुच चाहिए
तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि लोकतंत्र के भीतरी शत्रुओं को जानना और उनसे लोकतंत्र को बचाना चाहते हो। इसके लिए थोड़ा कष्ट करना होगा।
घबड़ाओ मत, न तो अपनी या औलाद की जान संकट में डालना है, न धन-संपत्ति में से कुछ खर्च करना है।
फिर?
फिर... करना यह है कि आइने के सामने खड़ा होना है।
खड़े हो गए? अब ध्यान से देखो। कुछ दिखा?
नहीं?
ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम आइने के सामने हो और कुछ न दिखे। झिझको मत, जो दिख रहा है बताओ।
तुम खुद... ठीक है, आइना तो अपनी ओर से कुछ जोड़ता-घटाता नहीं है, सामने तुम खड़े हो तो तुम ही दिखोगे।
तुम्हें अपने प्रश्नों के उत्तर मिला?
नहीं?, यह तो हो ही नहीं सकता, आईना तुम्हारे प्रश्नों के उत्तर ही दिखा रहा है।
चौंक क्यों रहे हो? हमारे लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा और उस खतरे से बचाव का एकमात्र उपाय दोनों तुम ही हो।
कैसे?
बताता हूँ। तुम कौन हो?
आदमी
वह तो जानता हूँ पर इसके अलावा...
बेटा, भाई, मित्र, पति, दामाद, जीजा, कर्मचारी, व्यापारी, इस या उस धर्म-पंथ-गुरु या राजनैतिक दल या नेता के अनुयायी...
हाँ यह सब भी हो लेकिन इसके अलावा?
याद नहीं आ रहा तो मैं ही याद दिला देता हूँ। याद दिलाना बहुत जरूरी है क्योंकि वहीं समस्या और समाधान है।
जो सबसे पहले याद आना चाहिए और अंत तक याद नहीं आया वह यह कि तुम, मैं, हम सब और हममें से हर एक 'संतान' है। 'संतान होना' और 'पुत्र होना' शब्द कोश में एक होते हुए भी, एक नहीं है।
'पुत्र' होना तुम्हें पिता-माता पर आश्रित बनाता है, वंश परंपरा के खूँटे से बाँधता है, परिवार पोषण के ताँगे में जोतता है, कभी शोषक, कभी शोषित और अंत में भार बनाकर निस्सार कर देता है, फिर भी तुम पिंजरे में बंद तोते की तरह मन हो न हो चुग्गा चुगते रहते हो और अर्थ समझो न समझो राम नाम बोलते रहते हो।
संतान बनकर तुम अंधकार से प्रकाश पाने में रत भारत माता (देश नहीं, पिता भी नहीं, पाश्चात्य चिंतन देश को पिता कहता है, पौर्वात्य चिंतन माता, दुनिया में केवल एक देश है जिसको माता कहा जाता है, वह है भारत) का संतान होना तुम्हें विशिष्ट बनाता है।
कैसे?
क्या तुम जानते हो कि देश को विदेशी ताकतों से मुक्त कराने वाले असंख्य आम जन, सर्वस्व त्यागने वाले साधु-सन्यासी और जान हथेली पर लेकर विदेशी शासकों से जूझनेवाले पंथ, दल, भाषा, भूषा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, शिक्षा, वाद, विचार आदि का त्याग कर भारत माता की संतान मात्र होकर स्वतंत्रता का बलिवेदी पर हँसते-हँसते शीश समर्पित करते रहे थे?
भारत माँ की संतान ही बहरों को सुनाने के लिए असेंबली में बम फोड़ रही थी, आजाद हिंद फौज बनाकर रणभूमि में जूझ रही थी।
लोकतंत्र को भीतरी खतरा उन्हीं से है जो संतान नहीं है और खतरा तभी मिलेगा जब हम सब संतान बन जाएँगे। घबरा मत, अब संतान बनने के लिए सिर नहीं कटाना है, जान की बाजी नहीं लगाना है। वह दायित्व तो सेना, वैग्यानिक और अभियंता निभा ही रहे हैं।
अब लोकतंत्र को बचाने के लिए मैं, तुम, हम सब संतान बनकर पंथ, संप्रदाय, दल, विचार, भाषा, भूषा, शिक्षा, क्षेत्र, इष्ट, गुरु, संस्था, आहार, संपत्ति, व्यवसाय आदि विभाजक तत्वों को भूलकर केवल और केवल संतान को नाते लोकहित को देश-हित मानकर साधें-आराधें।
लोकतंत्र की शक्ति लोकमत है जो लोक के चुने हुए नुमाइंदों द्वारा व्यक्त किया जाता है।
यह चुना गया जनप्रतिनिधि संतान है अथवा किसी वाद, विचार, दल, मठ, नेता, पंथ, व्यवसायी का प्रतिनिधि? वह जनसेवा करेगा या सत्ता पाकर जनता को लूटेरा? उसका चरित्र निर्मल है या पंकिल? हर संतान, संतान को ही चुने। संतान उम्मीदवार न हो तो निराश मत हो, 'नोटा' अर्थात इनमें से कोई नहीं तो मत दो। तुम ऐसा कर सके तो राजनैतिक सट्टेबाजों, दलों, चंदा देकर सरकार बनवाने और देश लूटनेवालों का बाजी गड़बडा़कर पलट जाएगी।
यदि नोटा का प्रतिशत ५००० प्रतिशत या अधिक हुआ तो दुबारा चुनाव हो और इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को आजीवन अयोग्य घोषित किया जाए।
पिछले प्रादेशिक चुनाव में सब चुनावी पंडितों को मुँह की खानी पड़ी क्योंकि 'नोटा' का अस्त्र आजमाया गया। आयाराम-गयाराम का खेल खेल रहे किसी दलबदलू को कहीं मत न दे, वह किसी भी दल या नेता को नाम पर मत माँगे, उसे हरा दो। अपराधियों, सेठों, अफसरों, पूँजीपतियों को ठुकराओ। उन्हें चुने जो आम मतदाता की औसत आय के बराबर भत्ता लेकर आम मतदाता को बीच उन्हीं की तरह रहने और काम करने को तैयार हो।
लोकतंत्र को बेमानी कर रहा दलतंत्र ही लोकतंत्र का भीतरी दुश्मन है। नेटा के ब्रम्हास्त्र से- दलतंत्र पर प्रहार करो। दलाधारित चुनाव संवैधानिक बाध्यता नहीं है। संतान बनकर मतदाता दलीय उम्मीदवारों के नकारना लगे और खुद जनसेवी उम्मीदवार खड़े करे जो देश की प्रति व्यक्ति औसत आय से अधिक भत्ता न लेने और सब सुविधाएँ छोड़ने का लिखित वायदा करे, उसे ही अवसर दिया जाए।
संतान को परिणाम की चिंता किए बिना नोटा का ब्रम्हास्त्र चलाना है। सत्तर साल का कुहासा दो-तीन चुनावों में छूटने लगेगा।
आओ! संतान बनो।
२८-३-२०१९
*

मुक्तिका

मुक्तिका
संजीव
*
मुझमें कितने 'मैं' बैठे हैं?, किससे आँख मिलाऊँ मैं?
क्या जाने क्यों कब किस-किससे बरबस आँख चुराऊँ मैं??
*
खुद ही खुद में लीन हुआ 'मैं', तो 'पर' को देखे कैसे?
बेपर की भरता उड़ान पर, पर को तौल न पाऊँ मैं.
*
बंद करूँ जब आँख, सामना तुमसे होता है तब ही
कहीं न होकर सदा यहीं हो, किस-किस को समझाऊँ मैं?
*
मैं नादां बाकी सब दाना, दाना रहे जुटाते हँस
पाकर-खोया, खोकर-पाया, खो खुद को पा जाऊँ मैं
*
बोल न अपने ही सुनता मन, व्यर्थ सुनाता औरों को
भूल कुबोल-अबोल सकूँ जब तब तुमको सुन पाऊँ मैं
*
देह गेह है जिसका उसको, मन मंदिर में देख सकूँ
ज्यों कि त्यों धर पाऊँ चादर, तब तो आँख उठाऊँ मैं.
*
आँख दिखाता रहा जमाना, बेगाना है बेगाना
अपना कौन पराया किसको, कह खुद को समझाऊँ मैं?
२८-३-२०१४ 
***

महारास और न्यायालय

त्वरित प्रतिक्रिया
महारास और न्यायालय
*
महारास में भाव था, लीला थी जग हेतु.
रसलीला क्रीडा हुई, देह तुष्टि का हेतु..
न्यायालय अंधा हुआ, बँधे हुए हैं नैन.
क्या जाने राधा-किशन, क्यों खोते थे चैन?.
हलकी-भारी तौल को, माने जब आधार.
नाम न्याय का ले करे, न्यायालय व्यापार..
भारहीन सच को 'सलिल', कोई न सकता नाप.
नाता राधा-किशन का, सके आत्म में व्याप..
*
मन से राधाकिशन तब, 'सलिल' रहे थे संग.
तन से रहते संग अब, लिव इन में कर जंग..
लिव इन में कर जंग, बदलते साथी पल-पल.
कौन बताए कौन, कर रहा है किससे छल?.
नाते पलते मिलें, आजकल केवल धन से.
सलिल न हों संजीव, तभी तो रिश्ते मन से.
२८-३-२०१०
***
संजीव, ७९९९५५९६१८

शनिवार, 27 मार्च 2021

गजल का शिल्प - राजेन्द्र वर्मा

 गजल का शिल्प

- राजेन्द्र वर्मा


छन्दोबद्ध कविता दो प्रकार के छन्दों से बनती है- मात्रिक, अथवा वार्णिक। ग़ज़ल भी इन्हीं छंदों से बनती है. मात्रिक छन्द के उदाहरण हैं- दोहा, चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक, कुण्डल, दिग्पाल सरसी, ताटंक आदि। ये दो प्रकार के होते हैं- सम और विषम।

सम छन्द वे होते हैं जिनकी प्रत्येक पंक्ति में समान मात्राएँ होती हैं, जैसे- ‘चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक, दिग्पाल।’ इस सबमें १६ मात्राएँ होती हैं और अंत में दीर्घ मात्रा आती है, पर अन्त में दीर्घ मात्राओं के आने का पृथक विधान है, जैसे- ‘चौपाई’ के अन्त में दो दीर्घ आते हैं, तो ‘अरिल्ल’ में तीन दीर्घ। 


विषम छन्द के चरणों में मात्राओं की संख्या भिन्न होती है, जैसे- दोहा, सरसी, कुण्डल, ताटंक। इनके प्रथम और तृतीय चरण में जो मात्राएँ होती हैं, वे द्वितीय और चतुर्थ चरण से भिन्न होती हैं. छंदों के मात्रा सम्बन्धी कुछ नियम होते हैं, जैसे- दोहे में चार चरण होते हैं- प्रथम व तृतीय में १३ तथा द्वितीय व चतुर्थ में ११ मात्राएँ होती हैं। प्रथम व तृतीय चरण का अन्त रगण २१२ से तथा द्वितीय व चतुर्थ चरण का अन्त तगण २२१ या जगण १२१ से होता है। साथ-ही द्वितीय एवं चतुर्थ चरण में तुकान्त होता है। इसी प्रकार, सरसी छन्द में १६-११ मात्राएँ होती हैं। पहले चरण के अन्त में दो दीर्घ तथा दूसरे चरण के अन्त में दीर्घ-लघु आते हैं। विषम मात्रिक छन्दों में, ‘कुण्डल’ तथा ‘ताटंक’ छन्दों में ग़ज़ल सफलतापूर्वक कही जा सकती है। कुण्डल में २२ मात्राएँ होती हैं और १२ पर दीर्घ के साथ यति होती है। ताटंक में ३० मात्राएँ होती हैं जिसमें १६ पर दीर्घ के साथ यति होती है। दोनों ही छन्दों के अन्त में दीर्घ आता है। यति का अर्थ है- ठहराव। बच्चन की ‘मधुशाला’ ताटंक छन्द ही में है जिसे कुछ लोग त्रुटिवश 'रुबाई’ कहते हैं। रुबाई २० मात्रिक छंद है जो विभिन्न वार्णिक क्रम में प्रस्तुत की जाती है।

ग़ज़ल प्रायः वार्णिक छन्द में होती है। वार्णिक छन्द की विषेशता यह है कि पहली पंक्ति जिस वर्ण क्रम पर आधारित होगी, दूसरी पंक्ति भी उसी क्रम में होगी, जबकि मात्रिक छन्द में यह क्रम आवश्यक नहीं है। उसकी प्रत्येक पंक्ति में मात्राएँ समान होती हैं, उनका क्रम कुछ भी हो सकता है। आवश्यक यह है कि इस क्रम-विधान में लय बनी रहे। ऐसे प्रयोगों में छन्द की झंकार कथ्य पर हावी रहती है। फिर भी, चौपाई, अरिल्ल, पादाकुलक आदि अनेक १६ मात्राओं के अनेक सम छन्द हैं जिनमें ग़ज़लें सफलतापूर्वक कही जा सकती हैं।

किसी ग़ज़ल में पाँच से लेकर ग्यारह शे’र होते हैं। अधिकतम की संख्या निश्चित नहीं है। मेरे एक मित्र- मधुकर शैदाई ने ५२५ शे’र वाली ग़ज़ल कह कर ‘लिम्का बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकार्ड’ ही बना डाला। लेकिन यह प्रयोग है, सामान्य नियम नहीं। ग़ज़ल का पहला शे’र जिसमें काफ़िया या अथवा काफ़िया-रदीफ़ दोनों होते हैं, ‘मतला’ कहलाता है। मतले का अर्थ है- प्रारम्भ। मतले की पहली पंक्ति ‘मिसरा’ या ‘ऊला’ कहलाती है और उसकी दूसरी पंक्ति- ‘सानी’। जिस ग़ज़ल में दो मतले होते हैं, उन्हें ‘हुस्ने-मतला’ कहा जाता है। कभी-कभी तीन अशआर का मतला होता है। जिस शे’र में शायर अपना संक्षिप्त नाम या तख़ल्लुस (उपनाम) प्रयुक्त करता है, उसे ‘मक्ता’ कहते हैं। यह समापन शे’र होता है। शे’र का बहुवचन ‘अशआर’ कहलाता है। ग़ज़ल में शे’र अलग-अलग भाव-भूमि के होते हैं, जैसे- गुलदस्ते में विविध रंग के फूल। गीत और ग़ज़ल में बुनियादी अन्तर यही है कि गीत किसी भाव विशेष पर केन्द्रित होता है, जबकि ग़ज़ल का हर शेर स्वतंत्र होता है। यही कारण है कि ग़ज़ल में गीत की तरह शीर्षक नहीं होता। हाँ, जब किसी विषय के विभिन्न पहलुओं पर ग़ज़ल के शे’र कहे जाते हैं, तो वह ‘मुसलसल ग़ज़ल’ कहलाती है। मुसलसल माने- पूरी-की-पूरी।

‘वर्ण’ को उर्दू में ‘रुक्न’ कहते हैं जिसका बहुचवचन ‘अरकान’ कहलाता है। हिन्दी छन्द विधान में चूंकि तीन ही वर्णों का युग्म होता है, इसलिए ग़ज़ल के छन्दों को समझने के लिए उर्दू के छन्दविधान का सहारा लेना पड़ता है। हिन्दी का छन्दसूत्र है- यमाताराजभानसलगा। इससे तीन वर्णों की संयुति से एक 'गण' की निर्मिति होती है। पूरे छन्दसूत्र से ८ गण तैयार होते हैं, जैसे- यगण। इसका पूरा नाम है- यमाता। इसमें एक लघु तथा दो दीर्घ वर्ण होते हैं- १२२. इसी प्रकार अन्य गण हैं: मगण- मातारा २२२, तगण- ताराज २२१, रगण- राजभा २१२, जगण- जभान १२१, भगण- भानस २११, नगण- नसल १११, सगण- सलगा ११२.

उर्दू में दो से लेकर पाँच वर्णों तक की एक इकाई बन जाती है, जिसे ‘अरकान’ कहा जाता है, जैसे- दो लघु (११) को ‘फ़उ’ तथा दो दीर्घ (२२) को ‘फेलुन्’ कहा जाता है। लघु-दीर्घ (१२) ‘फ़ऊ’ और दीर्घ-लघु (२१) को ‘फ़ात’ कहते हैं. तीन वार्णिक युग्म में १११ को फ़उल’, १२१ को ‘फ़ऊल’, १२२ को ‘फ़ऊलुन्’ या ‘मफ़ैलुन्’, २११ अथवा ११२ को ‘फेलुन’ या ‘फ़इलुन’, २२१ को ‘फ़इलात्’, २१२ को ‘फाइलुन’ तथा २२२ को ‘फ़इलातुन’ कहते हैं। चार वर्णों में- ११११ को फ़इलुन’, १११२ को फ़ऊलुन’, ११२२ को ‘फ़इलातुन’१२२२ को ‘फ़ऊलातुन’ या मुफ़इलातुन’,२१२२ को ‘फ़ाइलातुन’,२२१२ ‘मुतफाइलुन’ तथा २२२२ को ‘मुतफ़इलातुन’ कहा जाता है. २२१२ (मुतफ़ाइलुन) की चार आवृतियों से हिन्दी का ‘हरगीतिका’ छन्द बन जाता है। इस छंद की विशेषता यह भी है कि इसके नाम की चार आवृत्तियों से ‘हरगीतिका’ छन्द स्वतः निर्मित हो जाता है- ‘हरगीतिका, हरगीतिका, हरगीतिका, हरगीतिका।‘ महाकवि तुलसी का प्रसिद्ध ‘राम-स्तवन’ इसी छन्द में है- “श्रीरामचन्द्रकृपालु भज मन हरण भवभयदारुणम्।”, यद्यपि 'हरण' पर अनुशाशन भंग है- ‘१२’ के स्थान पर ‘२१’ प्रयुक्त हुआ है। पंचवर्णीय अरकान हैं- २२१२२ मुतफ़ाइलातुन्, २१२२२ मुतफ़ऊलातुन, १२१२१ मफाइलात. २२२२२ को दो टुकड़ों में विभक्त कर ‘फेलुन-फ़इलातुन’ अथवा इसका उल्टा, ‘फ़इलातुन, फ़ेलुन’ कहा जा सकता है।

वार्णिक छन्द भी दो प्रकार से निर्मित होते हैं- एक, जिसकी संरचना वर्ण-युग्म की बारम्बारता से होती है और दूसरे, कुछ वर्ण-युग्म के मिश्रण से। दोनों ही प्रकार के छन्दों में लय स्वतः आ जाती है। पहले प्रकार का छन्द किसी गण विशेष को दुहराने से बनता है, जैसे- यगण (१२२) अथवा रगण (२१२) को चार बार दुहरा कर। इसमें लय अपने-आप उत्पन्न हो जायेगी, यथा- यमाता-यमाता-यमाता-यमाता, अथवा, राजभा-राजभा-राजभा-राजभा। हिन्दी के इन गणों को उर्दू में क्रमशः ‘फ़ऊलुन्, फ़ऊलुन् फ़ऊलुन् फ़ऊलुन्’ और ‘फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्, फ़ाइलुन्’ कहते हैं. इनसे क्रमशः ‘भुजंगप्रयात’ और ‘स्रग्विणी’ छंद बन जाता है. इन छंदों से बनी मेरी ही गजलों के मक्ते देखिए-

१२२ १२२ १२२ १२२
अगर आपको सच की आदत नहीं है,
तो हमको भी कोई शिकायत नहीं है। (चार ‘यगण’ या ‘फ़ऊलुन’= भुजंगप्रयात छंद)
* * *
२१२ २१२ २१२ २१२
हम निकटतम हुए, धन्यवाद् आपका,
आपके हम हुए, धन्यवाद् आपका। (चार ‘रगण’ या ‘फ़ाइलुन्’= स्रग्विणी छंद)

इन आवृत्तियों को आवश्यकतानुसार घटाया-बढ़ाया भी जा सकता है। उदाहरणार्थ-
२१२ २१२ २१२
हमको जो भी उजाले मिले
तम के घर पलने वाले मिले। (तीन ‘रगण’ या ‘फ़ाइलुन')

कभी-कभी, वर्ण-युग्मों की बारम्बारता से नहीं, अलग-अलग युग्मों की संयुति से छन्द निर्मित होता है, जैसे- ‘उमराव जान’ फि़ल्म की यह ग़ज़ल- “दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए।” इसके अरकान हैं- ‘फ़ेलुन मफ़ाइलात् मफ़ैलुन् मफ़ाइलुन्’- यह उर्दू का ‘मुज़ारे-अख़रब’ कहलाता है। मत्ला और एक शेर देखें-

२२१ २१२१ १२२१ २१२
दिल चीज़ क्या है आप मेरी जान लीजिए,
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए। - शहरयार
यहाँ, ‘जान’ के तुकान्त या काफ़िये ‘मान’, ‘पहचान’ और ‘ठान’ हैं। ’लीजिए’ इसका रदीफ़ है। यों ग़ज़ल में रदीफ़ का होना आवश्यक नहीं, तथापि यदि प्रयुक्त हो तो, हर सानी वाली पंक्ति में इसका आना आवश्यक है। सानी वाली पंक्ति अर्थात्- शेर की दूसरी पंक्ति। मतले के शेर को छोड़कर अन्य अशआर के मिसरों में रदीफ़ अथवा उसके स्वर का आना दोषपूर्ण माना जाता है। इसी प्रकार सानी में काफ़िया का न आना अथवा ग़लत काफि़ये का आना भी दोषपूर्ण है। उपर्युक्त ग़ज़ल के दूसरे शेर के पहले मिसरे में प्रयुक्त ‘बार-बार’ में एक मात्रा बढ़ी हुई है। बहर के अनुसार ‘बारबा’ आना चाहिए, पर मिसरे में एक मात्रा अधिक लगाने की छूट है।

मिश्रित वर्ण-युग्मों या अरकान से निर्मित कुछ छन्दों के उदाहरण देखें-

१. फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन- २१२२ २१२२ २१२२ २१२ (बहरे-‘रमल’ अथवा ‘गीतिका’ छंद)
हम अभी से क्या बताएँ, क्या हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है। -रामप्रसाद ’बिस्मिल’

हिन्दी के गणों के अनुसार इस छन्द के गण होंगे- रगण, तगण, मगण, यगण और रगण। उर्दू में इस छन्द या बहर को ‘रमल’ और हिन्दी में ‘गीतिका’ कहते हैं। यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि उपर्युक्त ३ ‘फ़ाइलातुन’ में से २ को रखकर भी ग़ज़ल हो सकती है, जैसे-

१ -अ फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन- २१२२ २१२२ २१२ (पीयूषवर्ष)
अंक में आकाश भरने के लिए
उड़ चले हैं हम बिखरने के लिए.
अथवा,
युग-युगान्तर चल रहा है क्रम यही
शिव के हिस्से में लिखा विष-पान ही

२ . फऊलुन फाइलुन फेलुन, फऊलुन फाइलुन फेलुन- १२२ २१२ २२१ २२२ १२२ २
अथवा
फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२ (‘विधाता’ छंद)
मुनासिब दूरियाँ रखिए, भले कैसा ही रिश्ता हो
बहुत नज़दीकियों में भी घुटन महसूस होती है। - बशीर बद्र
* * *
अमीरी मेरे घर आकर मुझे आँखें दिखाती है
ग़रीबी मुस्कुराकर मेरे बर्तन माँज जाती है। - राजेंद्र वर्मा

३. फाइलातुन मफाइलुन फेलुन/फइलुन- २१२२ १२१२ २२ /११२ (बहरे-‘ख़फ़ीफ़’ अथवा ‘उत्थक्क’ छंद)
ज़िन्दगी से बड़ी सजा ही नहीं
और क्या जुर्म है, पता ही नहीं। - नूर लखनवी
(यहाँ ‘फेलुन’ को ‘फइलुन’ की भाँति प्रयुक्त किया गया है।)

४. मफाइलुन, फ़इलातुन, मफाइलुन, फेलुन- १२१२ ११२२ १२१२ २२
कहाँ तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए
कहाँ चिराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए। -दुष्यन्त कुमार

५. मनोरम छंद- फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
जीत ही उन्माद की है
छद्म के अनुनाद की है.

६- सुमेरु छंद- फ़ऊलुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन
हमीं उम्मीद रक्खे आँधियों से
कि वे बरतेंगी दूरी बस्तियों से

७- राधा छंद- फ़ाइलातुन, फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन, फेलुन
दोस्तो! अब आइए, कुछ यूँ किया जाये
बाँट कर अमरित, हलाहल कुछ पिया जाये

८- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊलुन, फ़ऊ
बजे नाद अनहद, सुनाई न दे
वो कण-कण में लेकिन, दिखाई न दे

९- कुंडल छंद- फेलुन, फेलुन, फेलुन, फ़इलातुन फेलुन= २२ मात्राएँ
चाहे-अनचाहे ऐसे क्षण आते हैं,
सब कुछ होते हुए हमीं चुक जाते हैं

१०- रतिवल्लभ छंद- फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन, फ़ऊलुन
स्वयं के हित सभी उपलब्धियाँ हैं
हमारे हेतु केवल सूक्तियाँ हैं.

११- अप्सरीविलसिता छंद- फेलुन, फेलुन, फ़ाइलुन
राजकुँवर मतिमन्द हैं
मंत्रीगण सानन्द हैं।

१२- छंद का नाम- अज्ञात-फेलुन, मुफाइलुन, फेलुन
बंजर में बोइए क्योंकर?
दाना भी खोइए क्योंकर?

१३- दोहा छंद २४ मात्राएँ १३/११ के चरण; पहले चरण के अन्त में दीर्घ-लघु-दीर्घ (२१२) तथा
दूसरे चरणान्त में दीर्घ-लघु (२१)
चलने को चल पड़े, लोग अनेकानेक
पर मेरे गन्तव्य तक, साथ न देता एक।

१४- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊल फ़ेलुन, फ़ऊल फ़ेलुन
गरज़ पड़ी, तो बने हैं बिल्ली
वगरना बैठे गरज रहे हैं।

१५- तोटक छंद- फेलुन, फेलुन, फेलुन, फेलुन (१६ मात्राएँ)
पहले सच को सच कहते हो
फिर गुमसुम-गुमसुम रहते हो!

१६- ताटंक छंद, १६/१४ मात्राएँ, अन्त में तीन दीर्घ, यथा-
फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फ़इलातुन
मेरे सपनों में अक्सर ही आ जाता है ताजमहल,
मेरे कटे हुए हाथों को दिखलाता है ताजमहल।

१७- दिग्पाल छंद- २४ मात्राएँ, अंत में दो दीर्घ, यथा-
फ़इलातुन फेलुन: फ़इलातुन फेलुन, फेलुन
सोच रहा है गुमसुम बैठा रामभरोसे,
कब तक आखि़र देश चलेगा रामभरोसे?

१८- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ऊलातुन, फ़ऊलातुन
तुम्हारी बात कुछ ऐसी
अमा भी पूर्णिमा जैसी

१९- महानुभाव छंद- ६+६=१२ मात्राएँ, यथा- मफ़ाइलुन, मफ़ाइलुन
तनिक विनीत हो गया
मैं सबका मीत हो गया.

२०- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ाइलुन, फ़ऊल, फ़ाइलुन
चन्दनी चरित्र हो गया
मैं सभी का मित्र हो गया।

२१- अरिल्ल छंद- १६ मात्राएँ, अंत में मगण (२२२)
जब तक हृदयों में दूरी है
मेरी हर ग़ज़ल अधूरी है.

२२- पादाकुलक छंद- १६ मात्राएँ (सभी दीर्घ)
चाहे जितनी हो कठिनाई
हम छोड़ न पाते सच्चाई

२३- छंद का नाम- अज्ञात- फ़ाइलातुन, फ़ाइलुन
तू अकेला है तो क्या?
है अकेला ही ख़ुदा!
(क्रमांक ५ से लेकर २३ तक के उदहारण इन पंक्तियों के लेखक के हैं.)

इस प्रकार, कई अरकान से मिलकर एक छन्द बन जाता है- वे चाहे एक जैसे हो, या कई प्रकार के। वार्णिक छन्द में सवैया की भाँति दीर्घ को लघु पढ़ा जाता है- ‘मानुस हो तो वही रसखान बसौ ब्रज गोकुल गाँव के ग्वारन।’ इसमें आठ भगण हैं, अर्थात् एक दीर्घ और दो लघु की आठ बार आवृत्ति है- २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ २११ . लेकिन सवैया की तरह ग़ज़ल में ८ गणों की आवश्यकता नहीं है। ग़ज़लकार चाहे तो तीन-चार आवृत्तियों से काम चला सकता है।

लेकिन यह तो ग़ज़ल का ढाँचा है। असली बात तो उसमें शेरियत लाने की है। शेरियत भाषा की लक्षणा-व्यंजना शक्ति से आती है। अभिधा में सादगी होती है जिसमें कोई बड़ी बात कहना कठिन होता है। शेर वही जुबान पर चढ़ता है जिसमें भाषा की सादगी होती है। लेकिन सादगी में एक बाँकपन होता है, जो ह्रदय को छू जाता है.

ग़ज़ल का शिल्प जान लेना एक बात है और उसे व्यवहार में उतारना दूसरी। तथापि, किसी मीटर या बहर (छन्द) में ग़ज़ल कहने के लिए हिन्दी-उर्दू शब्दों के मिश्रण से वांछित लय आती है। केवल हिन्दी या केवल उर्दू की ज़ुबान वाले शब्दों से ग़ज़ल कहना दुष्कर है। उर्दू की ताक़त यह है कि उसमें एक शब्द के बोलचाल के कई पर्यायवाची मिल जाते हैं. इसके अलावा, एक ही शब्द कई प्रकार से बोला-लिखा जाता है जो अलग-अलग वर्ण-युग्म के होते हैं, जैसे- ‘ख़ामोशी’ (२२२) को चुप्पी (२२), ख़ामशी या ख़ामुशी (२१२) अथवा ख़मोशी (१२२) के वज़न पर बाँधा जा सकता है, जबकि हिन्दी में इसके लिए एक ही शब्द है- ‘शान्ति’ (२१) जिसमें कुछ भी घट-बढ़ नहीं सकता। इसके अलावा, उसमें वह व्यंजना भी नहीं जो ‘ख़ामोशी’ में है। ख़ामोशी आरोपित भी हो सकती है, जबकि शान्ति 'कर्मवाची’ है। इसी प्रकार- ‘ख़याल’ (१२१) ‘ख़्याल’ (२१) के रूप में भी प्रयुक्त होता है, जबकि हिन्दी के ‘विचार’ (१२१) में कोई परिवर्तन संभव नहीं है। उर्दू के ‘ज़िन्दगी’ (२१२) के बदले हिन्दी में अकेला ‘जीवन’ (२२) है, जबकि 'ज़िन्दगी’ के पर्यायवाची हैं- ज़ीस्त (२१), हयात (१२१), ज़िन्दगानी (२१२२). इसी प्रकार, ग़रीबी (१२२) को ग़ुरबत (२२) भी कहते हैं, जबकि हिन्दी में ‘निर्धनता’ (२२२) का कोई विकल्प नहीं है। ‘दीनता’ या ‘दैन्य’ हैं अवश्य, पर वे निर्धनता के सटीक पर्यायवाची नहीं हैं।... उर्दू में ‘राहबर’ (२१२) को रहबर (२२), ‘राहनुमा’ (२११२) को रहनुमा (२१२), ‘शहर’ (१२) को शह्र (२१) और 'जान’ (२१) को जां (२) भी कहते-लिखते हैं, जबकि हिन्दी में यह सुविधा नहीं है। इस कारण उर्दू के कारण ग़ज़ल की भाषा में अतिरिक्त लोच, लय या रवानी आ जाती है। फि़ल्मी ग़ज़लें इसकी मिसाल हैं।

होली गीत

पूज्य मातुश्री रचित होली गीत  

होली की हार्दिक शुभकामनायें

होली खेलें सिया की सखियाँ - स्व. शांति देवी वर्मा 


होली खेलें सिया की सखियाँ,
जनकपुर में छायो उल्लास....

रजत कलश में रंग घुले हैं, मलें अबीर सहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

रंगें चीर रघुनाथ लला का, करें हास-परिहास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

एक कहे: 'पकडो, मुंह रंग दो, निकरे जी की हुलास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

दूजी कहे: 'कोऊ रंग चढ़े ना, श्याम रंग है खास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

सिया कहें: ' रंग अटल प्रीत का, कोऊ न अइयो पास.'
होली खेलें सिया की सखियाँ...

सियाजी, श्यामल हैं प्रभु, कमल-भ्रमर आभास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

'शान्ति' निरख छवि, बलि-बलि जाए, अमिट दरस की प्यास.
होली खेलें सिया की सखियाँ...

होली की हार्दिक शुभकामनायें

होली खेलें चारों भाई - स्व. शांति देवी वर्मा 

होली खेलें चारों भाई, अवधपुरी के महलों में...

अंगना में कई हौज बनवाये, भांति-भांति के रंग घुलाये.
पिचकारी भर धूम मचाएं, अवधपुरी के महलों में...

राम-लखन पिचकारी चलायें, भारत-शत्रुघ्न अबीर लगायें.
लखें दशरथ होएं निहाल, अवधपुरी के महलों में...

सिया-श्रुतकीर्ति रंग में नहाई, उर्मिला-मांडवी चीन्ही न जाई.
हुए लाल-गुलाबी बाल, अवधपुरी के महलों में...

कौशल्या कैकेई सुमित्रा, तीनों माता लेंय बलेंयाँ.
पुरजन गायें मंगल फाग, अवधपुरी के महलों में...

मंत्री सुमंत्र भेंटते होली, नृप दशरथ से करें ठिठोली.
बूढे भी लगते जवान, अवधपुरी के महलों में...

दास लाये गुझिया-ठंडाई, हिल-मिल सबने मौज मनाई.
ढोल बजे फागें भी गाईं,अवधपुरी के महलों में...

दस दिश में सुख-आनंद छाया, हर मन फागुन में बौराया.
'शान्ति' संग त्यौहार मनाया, अवधपुरी के महलों में...

होली की हार्दिक शुभकामनायें

काव्य की पिचकारी - आचार्य संजीव सलिल

रंगोत्सव पर काव्य की पिचकारी गह हाथ.
शब्द-रंग से कीजिये, तर अपना सिर-माथ

फागें, होरी गाइए, भावों से भरपूर.
रस की वर्षा में रहें, मौज-मजे में चूर.

भंग भवानी इष्ट हों, गुझिया को लें साथ
बांह-चाह में जो मिले उसे मानिए नाथ.

लक्षण जो-जैसे वही, कर देंगे कल्याण.
दूरी सभी मिटाइये, हों इक तन-मन-प्राण.

होली की हार्दिक शुभकामनायें

अबकी बार होली में - आचार्य संजीव सलिल

करो आतंकियों पर वार अबकी बार होली में.
न उनको मिल सके घर-द्वार अबकी बार होली में.

बना तोपोंकी पिचकारी चलाओ यार अब जी भर.
निशाना चूक न पाए, रहो गुलज़ार होली में.

बहुत की शांति की बातें, लगाओ अब उन्हें लातें.
न कर पायें घातें कोई अबकी बार होली में.

पिलाओ भांग उनको फिर नचाओ भांगडा जी भर.
कहो बम चला कर बम, दोस्त अबकी बार होली में.

छिपे जो पाक में नापाक हरकत कर रहे जी भर.
करो बस सूपड़ा ही साफ़ अब की बार होली में.

न मानें देव लातों के कभी बातों से सच मानो.
चलो नहले पे दहला यार अबकी बार होली में.

जहाँ भी छिपे हैं वे, जा वहीं पर खून की होली.
चलो खेलें 'सलिल' मिल साथ अबकी बार होली में.

होली की हार्दिक शुभकामनायें


होली की हार्दिक शुभकामनायें

मुक्तिका होली मने

मुक्तिका 
होली मने 
*
भावना बच पाए तो होली मने
भाव ना बढ़ पाएँ तो होली मने
*
काम ना मिल सके तो त्यौहार क्या
कामना हो पूर्ण तो होली मने
*
साधना की सिद्धि ही होली सखे!
साध ना पाए तो क्या होली मने?
*
वासना से दूर हो होली सदा
वास ना हो दूर तो होली मने
*
झाड़ ना काटो-जलाओ अब कभी
झाड़ना विद्वेष तो होली मने
*
लालना बृज का मिले तो मन खिले
लाल ना भटके तभी होली मने
*
साज ना छोड़े बजाना मन कभी
साजना हो साथ तो होली मने
***
२७-३-२०११

हिंदी शब्द

: हिंदी शब्द सलिला - १ :
आइये! जानें अपनी हिंदी को।
हिंदी का शब्द भंडार कैसे समृद्ध हुआ?
आभार अरबी भाषा का जिसने हमें अनेक शब्द दिए हैं, इन्हें हम निरंतर बोलते हैं बिना जाने कि ये अरबी भाषा ने दिए हैं।
भाषिक शुद्धता के अंध समर्थक क्या इन शब्दों को नहीं बोलते?
सचाई न जानने के कारण हम इन्हें उर्दू का मान लेते हैं। ये इतने प्रचलित हैं कि इनके अर्थ बिना बताये आप जानते हैं।
कुछ अरबी शब्द निम्नलिखित हैं -
अखबार
अदालत
अल्लाह
अलस्सुबह
आदमकद
आदमी
औकात
औरत
औलाद
इम्तहान
ऐनक
कद्दावर
काफी
किताब
कैद
खत
खातिर
ग़ज़ल
गलीचा
जलेबी
तकिया
तबला
तलाक
तारीख
दिनार
दीवान
बिसात
मकतब
मस्तूल
महक
मानसून
मुहावरा
मौसम
लिहाज
वकील
वक़्त
शहीद
शादी
सुबह
हकीम
*

कीलक स्तोत्र

श्री दुर्गा शप्तसती कीलक स्तोत्र
*
ॐ मंत्र कीलक शिव ऋषि ने, छंद अनुष्टुप में रच गाया।
प्रमुदित देव महाशारद ने, श्री जगदंबा हेतु रचाया।।
सप्तशती के पाठ-जाप सँग, हो विनियोग मिले फल उत्तम।
ॐ चण्डिका देवी नमन शत, मारकण्डे' ऋषि ने गुंजाया।।
*
देह विशुद्ध ज्ञान है जिनकी, तीनों वेद नेत्र हैं जिनके।
उन शिव जी का शत-शत वंदन, मुकुट शीश पर अर्ध चन्द्र है।१।
*
मन्त्र-सिद्धि में बाधा कीलक, अभिकीलन कर करें निवारण।
कुशल-क्षेम हित सप्तशती को, जान करें नित जप-पारायण।२।
*
अन्य मंत्र-जाप से भी होता, उच्चाटन-कल्याण किंतु जो
देवी पूजन सप्तशती से, करते देवी उन्हें सिद्ध हो।३।
*
अन्य मंत्र स्तोत्रौषधि की, उन्हें नहीं कुछ आवश्यकता है।
बिना अन्य जप, मंत्र-यंत्र के, सब अभिचारक कर्म सिद्ध हों।४।
*
अन्य मंत्र भी फलदायी पर, भक्त-मनों में रहे न शंका।
सप्तशती ही नियत समय में, उत्तम फल दे बजता डंका।५।
*
महादेव ने सप्तशती को गुप्त किया, थे पुण्य अनश्वर।
अन्य मंत्र-जप-पुण्य मिटे पर, सप्तशती के फल थे अक्षर।६।
*
अन्य स्तोत्र का जपकर्ता भी, करे पाठ यदि सप्तशती का।
हो उसका कल्याण सर्वदा, किंचितमात्र न इसमें शंका।७।
*
कृष्ण-पक्ष की चौथ-अष्टमी, पूज भगवती कर सब अर्पण।
करें प्रार्थना ले प्रसाद अन्यथा विफल जप बिना समर्पण।८।
*
निष्कीलन, स्तोत्र पाठ कर उच्च स्वरों में सिद्धि मिले हर।
देव-गण, गंधर्व हो सके भक्त, न उसको हो किंचित डर।९।
*
हो न सके अपमृत्यु कभी भी, जग में विचरण करे अभय हो।
अंत समय में देह त्यागकर, मुक्ति वरण करता ही है वो।१०।
*
कीलन-निष्कीलन जाने बिन, स्तोत्र-पाठ से हो अनिष्ट भी।
ग्यानी जन कीलन-निष्कीलन, जान पाठ करते विधिवत ही।११।
*
नारीगण सौभाग्य पा रहीं, जो वह देवी का प्रसाद है।
नित्य स्तोत्र का पाठ करे जो पाती रहे प्रसाद सर्वदा।१२।
*
पाठ मंद स्वर में करते जो, पाते फल-परिणाम स्वल्प ही।
पूर्ण सिद्धि-फल मिलता तब ही, सस्वर पाठ करें जब खुद ही।१३।
*
दें प्रसाद-सौभाग्य सम्पदा, सुख-सरोगी, मोक्ष जगदंबा।
अरि नाशें जो उनकी स्तुति, क्यों न करें नित पूजें अंबा।१४।
३१-३--२०१७
***

विमर्श : गणगौर : क्या और क्यों?

विमर्श :
गणगौर : क्या और क्यों?
*
'गण' का अर्थ शिव के भक्त या शिव के सेवक हैं।
गणनायक, गणपति या गणेश शिवभक्तों में प्रधान हैं।
गणेश-कार्तिकेय प्रसंग में वे शिव-पार्वती की परिक्रमा कर सृष्टि परिक्रमा की शर्त जीतते हैं।
'कर्पूर गौरं करुणावतारं' के अनुसार 'गौर' शिव हैं। गण गौर में 'गण' मिलकर 'गौर' की पूजा करते हैं जो अर्धनारीश्वर हैं अर्थात् 'गौर' में ही 'गौरी' अंतर्व्याप्त हैं। तदनुसार परंपरा से गणगौर पर्व में शिव-शिवा पूज्य हैं।
'गण' स्त्री-पुरुष दोनों होते हैं किंतु चैत्र में फसल पकने के कारण पति को उसका संरक्षण करना होता है। इसलिए स्त्रियाँ (अपने मन में पति की छवि लिए) 'गौर' (जिनमें गौरी अंतर्निहित हैं) को पूजती हैं। नर-नारी साम्य का इससे अधिक सुंदर उदाहरण विश्व में कहीं नहीं है।
विवाह पश्चात् प्रथम गणगौर पर्व 'तीज' पर ही पूजने की अनिवार्यता का कारण यह है कि पति के मन में बसी पत्नि और पति के मन में बसा पति एक हों। मन का मेल, तन का मेल बने और तब तीसरे (संतान) का प्रवेश हो किंतु उससे भी दोनों में दूरी नहीं, सामीप्य बढ़े।
ईसर-गौर की प्रतिमा के लिए होलिका दहन की भस्म और तालाब की मिट्टी लेना भी अकारण नहीं है। योगी शिव को भस्म अतिप्रिय है। महाकाल का श्रंगार भस्म से होता है। त्रिनेत्र खुलने से कामदेव भस्म हो गया था। होलिका के रूप में विष्णु विरोधी शक्ति जलकर भस्म हो गयी थी। शिव शिवा प्रतिमा हेतु भस्म लेने का कारण विरागी का रागी होना अर्थात् पति का पत्नि के प्रति समर्पित होना, प्रेम में काम के वशीभूत न होकर आत्मिक होना तथा वे विपरीत मतावलंबी या विचारों के हों तो विरोध को भस्मीभूत करने का भाव अंतर्निहित है।
गौरीश्वर प्रतिमा के लिए दूसरा घटक तालाब की मिट्टी होने के पीछे भी कारण है। गौरी, शिवा, उमा ही पार्वती (पर्वत पुत्री) हैं। तालाब पर्वत का पुत्र याने पार्वती का भाई है। आशय यह कि ससुराल में पर्व पूजन के समय पत्नि के मायके पक्ष का सम मान हो, तभी पत्नि को सच्ची आनंदानुभूति होगी और वह पति के प्रति समर्पिता होकर संतान की वाहक होगी।
दर्शन, आध्यात्म, समाज, परिवार और व्यक्ति को एक करने अर्थात अनेकता में एकता स्थापित करने का लोकपर्व है गणगौर।
गणगौर पर १६ दिनों तक गीत गाए जाते हैं। १६ अर्थात् १+६=७। सात फेरों तथा सात-सात वचनों से आरंभ विवाह संबंध १६ श्रंगार सज्जित होकर मंगल गीत गाते हुए पूर्णता वरे।
पर्वांत पर प्रतिमा व पूजन सामग्री जल स्रोत (नदी, तालाब, कुआं) में ही क्यों विसर्जित करें, जलायें या गड़ायें क्यों नहीं?
इसका कारण भी पूर्वानुसार ही है। जलस्रोत पर्वत से नि:सृत, पर्वतात्मज अर्थात् पार्वती बंधु हैं। ससुराल में मंगल कार्य में मायके पक्ष की सहभागिता के साथ कार्य समापन पश्चात् मायके पक्ष को भेंट-उपहार पहुँचाई जाए। इससे दोनों कुलों के मध्य स्नेह सेतु सुदृढ़ होगा तथा पत्नि के मन में ससुरालियों के प्रति प्रेमभाव बढ़ेगा।
कुँवारी कन्या और नवविवाहिता एेसे ही संबंध पाने-निभाने की कामना और प्रयास करे, इसलिए इस पर्व पर उन्हें विशेष महत्व मिलता है।
एक समय भोजन क्योँ?
ऋतु परिवर्तन और पर्व पर पकवान्न सेवन से थकी पाचन शक्ति को राहत मिले। नवदंपति प्रणय-क्रीड़ारत होने अथवा नन्हें शिशु के कारण रात्रि में प्रगाढ़ निद्रा न ले सकें तो भी एक समय का भोजन सहज ही पच सकेगा। दूसरे समय भोजन बनाने में लगनेवाला समय पर्व सामग्री की तैयारी हेतु मिल सकेगा। थके होने पर इस समय विश्राम कर ऊर्जा पा सकेंगे।
इस व्रत के मूल में शिव पूजन द्वारा शिवा को प्रसन्न कर गणनायक सदृश मेधावी संतान धारण करने का वर पाना है। पुरुष संतान धारण कर नहीं सकता। इसलिए केवल स्त्रियों को प्रसाद दिया जाता है। सिंदूर स्त्री का श्रंगार साधन है। विसर्जन पूर्व गणगौर को पानी पिलाना, तृप्त करने का परिचायक है।
***
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
२७-३-२०२०
९४२५१८३२४४

गीत

गीत :
मैं अकेली लड़ रही थी
- संजीव 'सलिल'
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
सामने सागर मिला तो, थम गये थे पग तुम्हारे.
सिया को खोकर कहो सच, हुए थे कितने बिचारे?
जो मिला सब खो दिया, जब रजक का आरोप माना-
डूब सरयू में गये, क्यों रुक न पाये पग किनारे?
छूट मर्यादा गयी कब
क्यों नहीं अनुमान पाये???.....
*
समय को तुमने सदा, निज प्रशंसा ही सुनाई है.
जान यह पाये नहीं कि, हुई जग में हँसाई है..
सामने तव द्रुपदसुत थे, किन्तु पीछे थे धनञ्जय.
विधिनियंता थे-न थे पर, राह तुमने दिखायी है..
जानते थे सच न क्यों
सच का कभी कर गान पाये???.....
*
हथेली पर जान लेकर, क्रांति जो नित रहे करते.
विदेशी आक्रान्ता को मारकर जो रहे मरते..
नींव उनकी थी, इमारत तुमने अपनी है बनायी-
हाय! होकर बागबां खेती रहे खुद आप चरते..
श्रम-समर्पण का न प्रण क्यों
देश के हित ठान पाये.....
*
'आम' के प्रतिनिधि बने पर, 'खास' की खातिर जिए हो.
चीन्ह् कर बाँटी हमेशा, रेवड़ी- पद-मद पिए हो..
सत्य कर नीलाम सत्ता वरी, धन आराध्य माना.
झूठ हर पल बोलते हो, सच की खातिर लब सिये हो..
बन मियाँ मिट्ठू प्रशंसा के
स्वयं ही गान गाये......
*
मैं तुम्हारी अस्मिता हूँ, आस्था-निष्ठा अजय हूँ.
आत्मा हूँ अमर-अक्षय, सृजन संधारण प्रलय हूँ.
पवन धरती अग्नि नभ हूँ, 'सलिल' हूँ संचेतना मैं-
द्वैत मैं, अद्वैत मैं, परमात्म में होती विलय हूँ..
कर सके साक्षात् मुझसे
तीर कब संधान पाए?.....
*
मैं अकेली लड़ रही थी
पर न तुम पहचान पाये.....
*
७९९९५५९६१८
salil.sanjiv@gmail.com
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