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सोमवार, 31 जनवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट
साधना
*
साध पले मन में सतत, साध सके तो साध।
करे साध्य की साधना, संसाधन संसाध्य।
जीव रहे पल पल निरत, हो संजीव अबाध।।
तजे काम मत कामना, हो प्रसन्न आराध्य।।

श्वास श्वास घुल-मिल सके, आस-आस हो संग।
नयनों में हो निमंत्रण, अधरों पर हो हास।।
जीवन में बिखरें तभी, खुशहाली के रंग।।
लिए हाथ में हाथ हो, जब जब खासमखास।।

योग-भोग का समन्वय, सभी सुखों का मूल।
प्रकृति-पुरुष हों शिवा-शिव, रमा-रमेश सुजान।
धूप-छाँव में साथ रह, इक दूजे अनुकूल।।
रसमय हों रसलीन हों, हों रसनिधि रसखान।।

हाथ हाथ में हाथ ले, हाथ हाथ के साथ।
साथ निभाने चल पड़ा, रखकर ऊँचा माथ।।
३१-१-२०२२
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रविवार, 30 जनवरी 2022

सॉनेट

सॉनेट 
नव जतन हो
*
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो। 
ये कमल के फूल मुरझाने लगे हैं। 
उठो, जागो देश को अब नई शकल दो।।
मूक कोयल, काग फरमाने लगे हैं।।

बंग भू ने अहं को धरती सुँघाई।
झुका सत्ता के न सम्मुख, जाट जीता। 
रौंद जन को कौन सत्ता टिकी भाई?
जो न बदला हो गया इतिहास बीता।। 

अंधभक्तों से न बातें अकल की कर। 
सच न सुनना, झूठ कहना ठानते वे।
सत्य के पर्याय पर लांछन लगाकर।। 
मार गोली अमर होंगे मानते वे।।

सत्य की जय हेतु फिर से नव जतन हो। 
मुदित धरती और हर्षित तब गगन हो।।
***
सॉनेट
वाक् बंद है
*
बकर-बकर बोलेंगे नेता।
सुन, जनता की वाक् बंद है।
यह वादे, वह जुमले देता।।
दल का दलदल, मची गंद है।।

अंधभक्त खुद को सराहता।
जातिवाद है तुरुपी इक्का।
कैसे भी हो, ताज चाहता।।
खोटा दलित दलों का सिक्का।।

जोड़-घटाने, गुणा-भाग में।
सबके सब हैं चतुर-सयाने।
तेल छिड़कते लगी आग में।।
बाज परिंदे लगे रिझाने।।

खैर न जनमत की है भैया!
घर फूँकें नच ता ता थैया।।
३०-१०२०२२
***
सॉनेट
सुतवधु
*
विनत सुशीला सुतवधु प्यारी।
हिलती-मिलती नीर-क्षीर सी।
नव नातों की गाथा न्यारी।।
गति-यति संगम धरा-धीर सी।।

तज निज जनक, श्वसुर गृह आई।
नयनों में अनगिनती सपने।
सासू माँ ने की पहुनाई।।
जो थे गैर, वही अब अपने।।

नव कुल, नव पहचान मिली है।
नई डगर नव मंज़िल पाना।
हृदय कली हो मुदित खिली है।।
नित्य सफलता-गीत सुनाना।।

शुभाशीष जो चाहो पाओ।
जग-जीवन को पूर्ण बनाओ।।
३०-१-२०२२

वैवाहिक रस्में, हस्तिनापुर की बिथा कथा ८, अजमल सुल्तानपुरी, पद्मिनी, ऋतु-मौसम, वासव छंद

बातचीत

वैवाहिक रीति-रिवाज़

आभा सक्सेना : मैंने बचपन में अपने सक्सेना परिवार में अपनी मां को एक परंपरा निभाते हुए देखा था अब तो वह परंपरा लुप्त ही हो गई है जो मुझे अब भी याद है ...मेरी माँ जब भी परिवार में किसी के घर जातीं थीं तो साड़ी के ऊपर गुलाबी रंग की सूती ओढ़नी ओढ़ कर जातीं थीं ...उनके घर जाने पर घर की किसी महिला को अपनी चादर का कोना छुआ देतीं थीं तब ही वह उस घर में बैठतीं थीं ...इस के बाद घर की महिला चाची ताई या फिर दादी उन्हें सम्मान स्वरूप पान खाने को दिया करती थीं..उस समय चाय आदि का तो चलन था ही नहीं
शिल्पा सक्सेना : इसका सिग्नीफिकेन्स क्या है?
आभा : इसका सिगनिफेन्स जो मैं समझ पाई हूँ, एक दूसरे को रेस्पेक्ट देना था। विदेशों में आपका पहिना हुआ कोट रेस्पेक्ट देने के लिए होस्ट (आतिथेय) ही उतारता है।
शिल्पा : वाह। चलो, इस परंपरा को आगे बढ़ाते हैं, बाज़ार से गुलाबी सूती धोती खरीद कर लाते हैं।
आभा : सूती धोती नहीं सूती चादर।
बबिता अग्रवाल कंवल : हमारे यहाँ ओढ़नी ओढ़कर आया-जाया करते थे
मनोरंजन सहाय : सूती चादर ओढ़ना पर्दे का शरीर को आवृत्त रखने की परम्परा का अंश था। जैसे आजकल युवतियाँ कपड़ों पर कोटनुमा एप्रिन पहने रहती हैं। मेजबान का मेहमान की चादर हाथ में लेकर उसे सम्मानपूर्वक निश्चित स्थान पर रखना उसके प्रति सम्मान प्रदर्शन था, आज की तरह नहीं, अपने स्थान से हिले बिना 'कम कम, सिट सिट' कह दिया और आवभगत हो गई, आगन्तुक की। उसके बाद पहले पीने को पानी दिया जाता था।
बंगाल में आज भी करनेवाले सांस्कृतिक परम्पराओं के अनुयायी चादर धारण करते हैं और आगन्तुक को पहले बताशा और पानी देते हैं। संस्कृत में एक श्लोक है-
तृणानि भूमि, उद्कम च वाक चतुर्थी व शून्रता।
ऐतान्यप संताम गेहे, नोछिद्यन्ते कदाचना:।।
इसका अर्थ है कि भूमि पर आसन , और अतिथि से बातचीत करनेवाला यह सज्जन व्यक्ति के घर में सदैव उपलब्ध होंगे।
तुलसीदास ने इसी सन्दर्भ में एक नीतिपरक दोहा कहा है-
आबत ही हरसे नहीं, नैनन नहीं सनेह।
तुलसी तहाँ न जाइये, कंचन बरसे मेह।।
किसी प्राचीन परम्परा का उपहास करने के लिये सूती साड़ी खरीदने की बात करने की जगह हमारी परम्पराओं के पीछे निहित तर्क और उपादेयता को समझने की जरूरत है।
मंजु काला : ओह ...बहुत सुन्दर परंपरा से अवगत कराया आपने आभा जी! ये "हैरिटैज"परंपराएँ हैं... fruitful for mee.
मंजू सक्सेना : हाँ....बिलकुल ऐसा ही होता था...तब पान को मान सम्मान समझा जाता था....यहाँ तक कि किसी के घर गमी हो जाने पर भी एक बार मेरी मम्मी उसके घर पान का टुकड़ा खाने ज़रूर जाती थीं...शायद ये औपचारिकता थी गमी खत्म करने की.. शादी में कितने रीत-रिवाज़ होते थे... सब गायब हो गए
आभा : होली आने से पहले बड़ी मुंगोड़ी तोड़ी जातीं थीं, बन्ने, बन्नी, सोहर गीत सब लुप्त हो गए ...मुझे तो अभी भी याद है कुछ... होली से पहले रंगपाशी का त्योहार मनाया जाता था सही मायनों में होली उसी दिनसे शुरू हो जाती थी सारे पकवान भी उस दिन से पहले ही बना लिए जाते थे ... लड़की के विवाह में उसकी विदाई से पहले एक रस्म होती थी कुंवर कलेवा ...जिसमें दूल्हे के टीका करके उसे उपहार दिए जाते थे
राम अशोक सक्सेना : शादी के अवसर पर लड़कीवालों की तरफ से एक पानदान जरूर आता था।
मंजू सक्सेना : शादी में तिलक चढ़ते ही ढोलक पूज कर बन्नी-बन्ना शुरू हो जाते थे... एक दिन रतजगा होता था जिसे 'ताई' कहते थे उस दिन दोपहर मे कढ़ी-चावल बनता था...फिर मांगर होता था। चूल्हा बनाकर उस पर बड़े सिकते थे। बारात की निकरौसी से पहले लड़के की शादी मे कुँआबरा होता था जिसमें घर की औरतें पास के कुएँ पर जाती थीं और लड़के की माँ कुएँ मे पैर लटका कर बैठ कर लड़के से पूछती थी कि वो बाँदी लाएगा या रानी? जब तक वो यह कह नहीं देता था कि 'तेरे लिए बाँदी लाऊँगा माँ' 'तब तक वह उठती नहीं थी।
मनोरंजन सहाय : हम लोग मूल रूप से मैनपुरी से हैं। मुगल दरबार से, हमारे पूर्वजों को पंचहजारी का मनसब और वर्तमान कुरावली तहसील तथा आसपास के ८ गाँवों की जमींदारी मिलीं हुई थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में मुगल सल्तनत के पतन के बाद हमारे पूर्वजों को पलायन करना पड़ा। मेरे दादाजी आपने बड़े भाई के साथ तत्कालीन धौलपुर- वर्तमान में उ. प्र. के महानगर आगरा और म. प्र. के मुरैना के मध्य स्थित कोटा राजस्थान जिला में आ पहुँचे। फारसी के आलिम होने के कारण उन्हे रियासत में नौकरी मिल गई, और शीघ्र ही तहसीलदार बना दिया गया। वहीं मेरे पिता जी और उनके ४ अन्य भाई बहिनों का जन्म हुआ। सभी की सन्तानें राजकीय सेवाओं में अधिकारी वर्ग की सेवा कर सेवानिवृत्त हुईं। मैं पिछले ४० वर्ष से जयपुर में हूँ। राज्य राजस्व सेवा से करनिर्धारण अधिकारी के रूप में २००२ से सेवा निवृत्त हूँ। मेरा एकमात्र पुत्र जयपुर नेशनल यूनिवर्सिटी में कम्प्यूटर विभाग मैं निदेशक पद पर कार्यरत है। कायस्थ अन्य जातियों की अपेक्षा अल्प संख्या में हैंं इसलिये आपस में पारिवारिक सम्बन्ध निकल ही आते हैं।
आभा : माँगरवाले दिन एक दूसरे के पीठ पर हल्दी के थापे लगाए जाते थे। एक दूसरे से मज़ाक, हँसी-ठिठोली सब इसी बहाने हो जाया करते थे, होली जैसा माहौल होता था उस दिन। खोरिया में सारी रात जाग कर महिलाएँ हँसी-मजाक करके अपने दिल की सारी भड़ास निकाल लिया करतीं थीं क्योंकि घर के सारे मर्द तो बारात में गए होते थे । उन दिनों घर की महिलाएँ बारात में नहीं जाया करतीं थीं।
मंजू : बिलकुल सहीक्या मज़ा आता था उन दिनों शादी में.... लड़के की बारात के पहले बरौंगा और लड़की की शादी में दिखावे की गुझिया सजाने मे पूरी कलाएँ दिखाई जाती थीं.... और लड़के की बारात जाते ही रात में औरतों का खोरिया....गज़ब का हुआ करता था....अब तो शादी के रीत-रिवाज़ बस नाम भर के हैं... अगली पीढ़ी तो उस का आनंद ही नहीं समझ पाएगी जो हम लोगों ने लिया है..
मंजू : एक बार मैं खोरिया में दुल्हन बनी तब मै कुँवारी थी और मेरी भाभी दूल्हा... मैं थोड़ी शरमीली थी और उन्होंने आँख मार मार के मेरी हालत खराब कर दी मुझे इतनी शर्म आ रही थी जैसे वह सचमुच ही लड़का हों.

संजीव : सक्सेना कायस्थ मैं भी हूँ। मेरे पूर्वज भोगाँव मैनपुरी से जबलपुर मध्य प्रदेश आये थे। मैं ५वी पीढ़ी में हूँ। मेरे नाना रायबहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस' मैनपुरी में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट थे। सराऊगियान (गाड़ीवान) मोहल्ला में उनकी हवेली है। उनके बारे में कोई कुछ बता सके तो स्वागत है। गाँधी जी से जुड़कर उन्होंने सब पद और उपाधियाँ त्याग दीं और सत्याग्रही हो गए। संदेहास्पद परिस्थिति में उनकी मृत्यु हुई, परिवार की अल्प शिक्षित महिलाएँ जमीन-जायदाद, धन-संपत्ति सम्हाल नहीं सकीं, सब नष्ट हो गया। तब मेरे मामा हरप्रसाद सिन्हा मात्र ५-६ वर्षों के थे। नाना जी, राजकुमार कॉलेज आगरा से पढ़े थे। वे शक्कर मिल तथा किसी बैंक के डायरेक्टर भी थे। मामा ने बड़े होकर कुछ जमीन-जायदाद सम्हाली, उन्हीं के मित्रों ने उनके साथ विश्वासघात किया और विवाह के २ दिनों के अंदर उनका निधन हो गया। हमारी अल्ल 'ऊमरे' है। मेरे एक मित्र ओमप्रकाश सक्सेना 'कामठान' इंदौर में थे, एक कायस्थ पत्रिका का संपादन करते थे। बरेली, एटा, इटावा, कासगंज, फर्रुखाबाद, आगरा आदि में कई रिश्तेदार थे।
मनोरंजन सहाय : सलिल जी! कमठान हमारी भी अल्ह है, क्या कामठान अलग है? अपने रिश्तेदारों के बारे में बताइये।
हम जिला मैनपूरी के कुरावली या किरावली से ह़ै। हमारे पूर्वजों को मुगलदरवार से पंचहजारी का मनसब अता किया हुआ था और तत्कालीन कुरावली के अलावा आठ गांव की जमींदारी थी। मुगल सल्तनत के पतन के बाद हमारे पूर्वजों को मैनपुरी से पलायन करना पड़ा और मेरे पूर्वजों में मेरे दादाजी धोलपुर में बस गये। फारसी के आलिम थे इसलिये यहाँ स्टेट के तत्कालीन ए.जी. आफिस जैसे किसी दफ्तर में नौकरी मिल गई मगर पॉलिटीकल ऐजेंट की अनुशंसा पर तहसीलदार बने और उनकी ईमानदारी के चर्चे काफी समय तक लोगों की जुबान पर रहे।
अलका कुदेसिया : मेरी शादी में भी पान-दान दिया गया था।

सभी पाठक-पाठिकाएँ अपने-अपने परिवारों में प्रचलित रस्मों की जानकारियाँ दें। 
***
हस्तिनापुर की बिथा कथा
डॉ. मुरारी लाल खरे
*
अध्याय ८
युद्ध कौ सोलओ दिन
द्रोण सिधारे स्वर्ग, कर्ण कौरव कौ सेनापति हो गओ
ईसें दुर्योधन के ऊ मित्र कौ मान औरइ बड़ गओ (६१)
कर्ण घुसो पाण्डव सैना में और सैंकरन खौं मारो
कर डारो भूकंप सौ उतै, हाहाकार मचा डारो (६२)
लासन पै लासें बिछ गईं, रकत के छूटे फव्वारे
रुंड मुंड भू पै लोटत, लोहू के बहे नदी नारे (६३)
तब कौरव सैना पै अर्जुन टूट परे आफत बन कें
मार हजारन जोधा डारे अर्जुन और भीम मिल कें (६४)
भीम लड़े अश्वत्थामा सें,बाए हरा युद्ध में दये
लड़े युधिष्ठिर दुर्योधन सें, ऊखौं कर बेहोस दये (६५)
तब कृतवर्मा उनें उठाकें लै गए युद्धभूमि सें दूर
दिन भर चली लड़ाई, संजा होतइं सेनाएँ भइँ दूर (६६)
सत्ररएँ दिन कौ युद्ध
बान दूसरे दिना कर्ण के औरइ जादा भीषन भए
लड़न युधिष्ठिर लगे कर्ण सें, और भौत घायल हो गए (६७)
देख भीम खौं ताव आ गओ , लगे कर्ण से युद्ध करन
मूर्छित करो कर्ण खौं , फिर जाकें औरन सें लगे लड़न (६८)
तबइँ दुसासन दिखा परो , तौ बाए भीम नें ललकारो
अपनी भारी गदा फेंक दुस्सासन के ऊपर डारो (६९)
दुसासन खौं वध
धक्का लगौ गदा कौ , गिरो दुसासन रथ सें दूरी पै
तुरत उचक कें भीम चड़ गसे दुसासन की छाती पै (७०)
दबा पाँव सें गरौ चीर तरवार सें दये छाती खौं
देखत रए कर्ण दुर्योधन , पूरौ करे भीम प्रन खौं (७१)
कर्ण पुत्र वृषसेन क्रोध सें भरो भीम पै झपट परो
चतुराई सें बानें घायल अर्जुन खौं , भीम खौं करो (७२)
तब अर्जुन नें चार बान सें हाँत , मूड़ काटे ऊके
देख पुत्र कौ अंत कँप गए अंग अंग कर्ण जू के (७३)
अर्जुन और कर्ण कौ युद्ध
ज्वालामुखी क्रोध कौ फूटो टूट परे वे अर्जुन पै
बानन की बरसात देर तक भई एक दूसरे पै (७४)
अग्निबान अर्जुन कौ नष्ट कर्ण ने वरुणास्त्र सें करो
ऐन्द्रास्त्र सें अर्जुन नष्ट कर्ण कौ भार्गवास्त्र करो (७५)
वीर कर्ण नें एक बान सें धनुष काट अर्जुन कौ दओ
अर्जुन नें दूसरौ उठा लओ , कर्ण उयै भी काट दओ (७६)
ऐसौ ग्यारा बार भओ तौ गुस्सा फूटो अर्जुन कौ
बानन की बौछारन सें रथ ढाँक दओ ऊ दुस्मन कौ (७७)
तब चलाओ नागास्त्र कर्ण साँप के भयंकर मौ बारौ
चलो अस्त्र आगी उगलत , बिजली जैसी लकीर वारौ (७८)
ऊ कौ कौनउ काट नईं , एकदम अचूक होत वौ अस्त्र
आउत गरे पै अर्जुन के देख लओ कृष्ण जू ने वौ अस्त्र (७९)
तुरत कृष्ण ने दबा जोर सें रथ खौं नैेचें नवा दओ
मूड़ बच गओ अर्जुन कौ , अस्त्र ने मुकुट भर गिरा दओ (८०)
युद्ध होत रओ , चका कर्ण के रथ कौ धरती में धँस गओ
बाए उठाने कर्ण उतरकें रथ सें धरती पै आ गओ (८१)
धनुष बान छोड़ कें उठाउन चका लगो दोउ हाँतन सें
तब अर्जुन सें कहे कृष्ण तुम अबइँ इयै मारे झट सें (८२)
अर्जुन बोले बार निहत्थे पै करवौ नइँ युद्ध नियम ,
बोले कृष्ण " निहत्थो अभिमन्यु मारो कौन सौ नियम (८३)
कौन नियम सें भरी सभा में चीर हरन कृष्णा कौ भओ
कृष्णा रोउत रई ती , तब जौ धूर्त ठठाकें हँसत रओ (८४)
छल सें पाँसे खेलत कपटी सकुनी मानो कौन नियम ?
सुनो , नियम जो नईं मानत , ऊके लानें कायको नियम ? (८५)
तब अर्जुन नें एक भयंकर बान कर्ण पै चला दओ
सरसरात बौ बान कर्ण कौ मूड़ काट कें गिरा दओ (८६)
भओ कर्ण कौ वध तौ दुर्योधन भीतर व्याकुल हो गओ
जो अर्जुन खौं मार सकत तो , खुद अर्जुन सें मारो गओ (८७)
दुर्योधन की मानो टूटी कमर , न टूटो हठ ऊकौ
लड़ौं साँस आखिरी तक मैं , धरम न छोड़ौं छत्रिय कौ (८८)
अठारएँ दिन कौ युद्ध
कर्ण मरे पै दुर्योधन नें सैनापति सल्य खौं करो
और सगे भानेजन की सैना पै हमला सल्य करो (८९)
युद्ध कौ अठारह दिना हतो , नृप सल्य पराक्रम दरसाए
उतै युधिष्ठिर उनके ऊपर बान वेग सें बरसाए (९०)
युधिष्ठिर के हाँतन सल्य कौ वध
लड़े देर तक सल्य युधिष्ठिर , हीर नईं मानो कोऊ
देख युधिष्ठिर कौ विक्रम अचरज में पर गए सब कोऊ (९१)
जो अब लौं सांत उदार रओ , बौ दरसाओ सूरमाई
उनकौ भीषन रूप देखकें कौरव सेना घबड़ाई (९२)
गुल्ली एक , नोंक पै हीरा जड़ी जोर सें घाल दई
घुसी सल्य की छाती में , निकार लै बाके प्रान गई (९३)
सौ में सें अट्ठानवे मर चुकेते अब लौं कौरव भैया
मार भीम ने दओ सुदरसन नाव कौ कौरव भइया (९४)
अब दुर्योधन पूत अकेलौ धृतराष्ट्र कौ बचो रै गओ
और बचो रओ दासी पुत्र युयुत्सु , पाण्डव सँग जो रओ (९५)
तब ऊ सैना के सेनापति मामा सकुनि बनाए गये
उनसें दो दो हाँत करन तब सम्मुख आ सहदेव गये (९६)
सकुनि कौ अंत
सहदेव पै सकुनि नें भाला एक फेंक जोर सें दओ
माथे पै सहदेव के लगो , ऊनें रकत निकार दओ (९७)
तब सहदेव क्रोध सें भर कें 'क्षुर' नाव कौ बान मारे
बना निसान गरे खौं मूड़ सकुनि कौ तुरत काट डारे (९८)
मारौ गओ सकुनि तौ कौरव सैना में भगदड़ मच गई
तितर बितर भइ पूरी सैना , युद्धभूमि खाली हो गई (९९)
चार जनें बाकी बच रए अब दुर्योधन और कृतवर्मा
कुलगुरु कृपाचार्य और द्रोण कौ पुत्र अश्वत्थामा (१००)
***
स्मृतिशेष अजमल सुल्तानपुरी की याद में -
*
हँसे फिर अपना हिंदुस्तान
विरासत गीता-ग्रंथ-कुरान
ख्वाब हम करें मुकम्मल
*
जहाँ खुसरो कबीर हैं साथ
ताज बीबी के कान्हा नाथ
एक रामानुज औ' रैदास
ईसुरी जगनिक बिना उदास
प्रवीणा केशव का अरमान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब हम करें मुकम्मल
*
शारदा पूत अलाउद्दीन
सिखाते रविशंकर को बीन
यहीं होली-दीवाली-ईद
जिए मर सेंखों वीर हमीद
यहीं तुलसी रहीम रसखान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब मिल करें मुकम्मिल
*
बँटे पर मिटे नहीं ज़ज़्बात
बदल लेंगे फिर से हालात
हमारा धर्म दीन इंसान
बसे कंकर-कंकर भगवान
मोहब्बत ही अपना ईमान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब फिर करें मुकम्मिल
*
यहीं पर खिले धूल में फूल
मिटा दे नफरत प्रेम-त्रिशूल
एक केरल-कश्मीर न भिन्न
पूर्व-पश्चिम हैं संग अभिन्न
शक्ति-शिव, राम-सिया में जान
यहीं है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब फिर करें मुकम्मिल
*
यहीं गौतम गाँधी गुरुदेव
विवेकानंद कलाम सदैव
बताते जला प्रेम का दीप
बनो मोती जीवन है सीप
लिखें इतिहास नया है आन
यही है अपना हिंदुस्तान
ख्वाब हम करें मुकम्मिल
३०-१-२०२०
***
छंद सलिला
मत्त गयंद सवैया
*
आज कहें कल भूल रहे जुमला बतला छलते जनता को
बाप-चचा चित चुप्प पड़े नित कोस रहे अपनी ममता को
केर व बेर हुए सँग-साथ तपाक मिले तजते समता को
चाह मिले कुरसी फिर से ठगते जनको भज स्वाराथता को
***
विमर्श
वीरांगना पद्मिनी का आत्मोत्सर्ग और फिल्मांकन
*
जिन पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों से मानव जाति सहस्त्रों वर्षों तक प्रेरणा लेती रही है उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगाना और उन्हें केंद्र में रखकर मन-माने तरीके से फिल्मांकित करना गौरवपूर्ण इतिहास के साथ खिलवाड़ करने के साथ-साथ उन घटनाओं और व्यक्तित्वों से सदियों से प्रेरणा ले रहे असंख्य मानव समुदाय को मानसिक आघात पहुँचाने के कारण जघन्य अपराध है. ऐसा कृत्य समकालिक जन सामान्य को आहत करने के साथ-साथ भावी पीढ़ी को उसके इतिहास, जीवन मूल्यों, मानकों, परम्पराओं आदि की गलत व्याख्या देकर पथ-भ्रष्ट भी करता है. ऐसा कृत्य न तो क्षम्य हो सकता है न सहनीय.
अक्षम्य अपराध
राजस्थान ही नहीं भारत के इतिहास में चित्तौडगढ की वीरांगना रानी पद्मावती को हथियाने की अलाउद्दीन खिलजी की कोशिशों, राजपूतों द्वारा मान-रक्षा के प्रयासों, युद्ध टालने के लिए रानी का प्रतिबिम्ब दिखाने, मित्रता की आड़ में छलपूर्वक राणा को बंदी बनाने, गोरा-बादल के अप्रतिम बलिदान और चतुराई से बनाई योजना को क्रियान्वित कर राणा को मुक्त कराने, कई महीनों तक किले की घेराबंदी के कारण अन्न-जल का अभाव होने पर पुरुषों द्वारा शत्रुओं से अंतिम श्वास तक लड़ने तथा स्त्रियों द्वारा शत्रु के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने के स्थान पर सामूहिक आत्मदाह 'जौहर' करने का निर्णय लिया जाना और अविचलित रहकर क्रियान्वित करना अपनी मिसाल आप है . ऐसी ऐतिहासिक घटना को झुठलाया जाना और फिर उन्हीं पात्रों का नाम रखकर उन्हीं स्थानों पर अपमान जनक पटकथा रचकर फिल्माना अक्षम्य अपराध है.
जौहर और सती प्रथा
जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था. जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए पराजित सैनिकों की पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था. जौहर के ३ चरण होते थे - १. योद्धाओं द्वारा अंतिम दम तक लड़कर मृत्यु का वरण, २. जन सामान्य द्वारा खेतों, अनाज के गोदामों आदि में आग लगा देना, ३. स्त्रियों और बच्चियों द्वारा अग्नि स्नान. इसके पीछे भावना यह थी कि शत्रु की गुलामी न करना पड़े तथा शत्रु को उसके काम या लाभ की कोई वस्तु न मिले. वह पछताता रह जाए कि नाहक ही आक्रमण कर इतनी मौतों का कारण बना जबकि उसके हाथ कुछ भी न लगा.
पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.
हजारों पद्मिनियाँ
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.
आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है. वीरांगना देवी पद्मिनी सदियों से देशवासियों कि प्रेरणा का स्रोत हैं. आओ बच्चों तुम्हें दिखाएँ झांकी हिंदुस्तान कि गीत में याद करें ये हैं अपना राजपुताना नाज इसे तलवारों पर ... कूद पड़ी थीं यहाँ हजारों पद्मिनियाँ अंगारों पे'.
आत्माहुति पाप नहीं
मुश्किलों से घबराकर समस्त उपाय किये बिना मरना कायरता और निंदनीय है किन्तु समस्त प्रयास कर लेने के बाद भी मानवीय अस्मिता और गरिमा सहित जीवन संभव न हो अथवा जीवन का उद्देश्य पूर्ण हो गया हो तो मृत्यु का वरण कायरता या पाप नहीं है.
देव जाति को असुरों से बचाने के लिए महर्षि दधीचि द्वारा अस्थि दान कर प्राण विसर्जन को गलत कैसे कहा जा सकता है?
क्या जीवनोद्देश्य पूर्ण होने पर भगवन राम द्वारा जल-समाधि लेने को पाप कहा जायेगा?
क्या गांधी जी, अन्ना जी आदि द्वारा किये गए आमरण अनशन भी पाप कहे जायेंगे?
एक सैनिक यह जानते हुए भी कि संखया और शास्त्र बल में अधिक शत्रु से लड़ने पर मारा जायेगा, कारन पथ पर कदम बढ़ाता है, यह भी मृत्यु का वरण है. क्या इसे भी गलत कहेंगी?
जैन मतावलंबी संथारा (एक व्रत जिसमें निराहार रहकर प्राण त्यागते हैं) द्वारा म्रत्यु का वरण करते हैं. विनोबा भावे ने इसी प्रकार देह त्यागी थी वह भी त्याज्य कहा जायेगा?
हर घटना का विश्लेषण आवश्यक है. आत्मोत्सर्ग को उदात्ततम कहा गया है.
सोचिए-
एक पति के साथ पत्नि के रमण करने और एक वैश्य के साथ ग्राहक के सम्भोग करने में भौतिक क्रिया तो एक ही होती है किन्तु समाज और कानून उन्हें सामान नहीं मानता. एक सर्व स्वीकार्य है दूसरी दंडनीय. दैहिक तृप्ति दोनों से होती हो तो भी दोनों को समान कैसे माना जा सकता है?
अपने जीवन से जुडी घटनाओं में निर्णय का अधिकार आपका है या आपसे सदियों बाद पैदा होनेवालों का?
एक अपराधी द्वारा हत्या और सीमा पर सैनिक द्वारा शत्रु सैनिक कि हत्या को एक ही तराजू पर तौलने जैसा है यह कुतर्क. वीरगाथाकाल के जीवन मूल्यों की कसौटी पर जौहर आत्महत्या नहीं राष्ट्र और जाति के स्वाभिमान कि रक्षा हेतु उठाया गया धर्म सम्मत, लोक मान्य और विधि सम्मत आचरण था जिसके लिए अपार साहस आवश्यक था. १५००० स्त्रियों का जौहर एक साथ चाँद सेकेण्ड में नहीं हो सकता था, न कोई इतनी बड़ी संख्या में किसी को बाध्य कर सकता था. सैकड़ों चिताओं पर रानी पद्मावती और अन्य रानियों के कूदने के बाद शेष स्त्रियाँ अग्नि के ताप, जलते शरीरों कि दुर्गन्ध और चीख-पुकारों से अप्रभावित रहकर आत्मोत्सर्ग करती रहीं और उनके जीवनसाथी जान हथेली पर लेकर शत्रु से लड़ते हुई बलिदान की अमर गाथा लिख गए जिसका दूसरा सानी नहीं है. यदि यह गलत होता तो सदियों से अनगिनत लोग उन स्थानों पर जाकर सर न झुका रहे होते.
अपने जीवन में नैतिक मूल्यों का पालन न करने वाले, सिर्फ मौज-मस्ती और धनार्जन को जीवनोद्देश्य माननेवाले अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता कि आड़ में सामाजिक समरसता को नष्ट कर्ण का प्रयास कैसे कर सकते हैं? लोक पूज्य चरित्रों पर कीचड उछालने कि मानसिकता निंदनीय है. परम वीरांगना पद्मावती के चरित्र को दूषित रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास सिर्फ निंदनीय नहीं दंडनीय भी है. शासन-प्रशासन पंगु हो तो जन सामान्य को ही यह कार्य करना होगा.
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लेख :
ऋतुएँ और मौसम
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ऋतु एक वर्ष से छोटा कालखंड है जिसमें मौसम की दशाएँ एक खास प्रकार की होती हैं। यह कालखण्ड एक वर्ष को कई भागों में विभाजित करता है जिनके दौरान पृथ्वी के सूर्य की परिक्रमा के परिणामस्वरूप दिन की अवधि, तापमान, वर्षा, आर्द्रता इत्यादि मौसमी दशाएँ एक चक्रीय रूप में बदलती हैं। मौसम की दशाओं में वर्ष के दौरान इस चक्रीय बदलाव का प्रभाव पारितंत्र पर पड़ता है और इस प्रकार पारितंत्रीय ऋतुएँ निर्मित होती हैं यथा पश्चिम बंगाल में जुलाई से सितम्बर तक वर्षा ऋतु होती है, यानि पश्चिम बंगाल में जुलाई से अक्टूबर तक, वर्ष के अन्य कालखंडो की अपेक्षा अधिक वर्षा होती है। इसी प्रकार यदि कहा जाय कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक गृष्म ऋतु होती है, तो इसका अर्थ है कि तमिलनाडु में मार्च से जुलाई तक के महीने साल के अन्य समयों की अपेक्षा गर्म रहते हैं। एक ॠतु = २ मास। ऋतु साैर अाैर चान्द्र दाे प्रकार के हाेते हैं। धार्मिक कार्य में चन्द्र ऋतुएँ ली जाती हैं।
ऋतु चक्र-
भारत में मुख्यतः छः ऋतुएं मान्य हैं -१. वसन्त (Spring) चैत्र से वैशाख (वैदिक मधु अाैर माधव) मार्च से अप्रैल, २. ग्रीष्म (Summer) ज्येष्ठ से आषाढ (वैदिक शुक्र अाैर शुचि) मई से जून, ३. वर्षा (Rainy) श्रावन से भाद्रपद (वैदिक नभः अाैर नभस्य) जुलाई से सितम्बर, ४, शरद् (Autumn) आश्विन से कार्तिक (वैदिक इष अाैर उर्ज) अक्टूबर से नवम्बर, ५. हेमन्त (pre-winter) मार्गशीर्ष से पौष (वैदिक सहः अाैर सहस्य) दिसम्बर से 15 जनवरी, ६. शिशिर (Winter) माघ से फाल्गुन (वैदिक तपः अाैर तपस्य) 16 जनवरी से फरवरी।
ऋतु परिवर्तन का कारण पृथ्वी द्वारा सूर्य के चारों ओर परिक्रमण और पृथ्वी का अक्षीय झुकाव है। पृथ्वी का डी घूर्णन अक्ष इसके परिक्रमा पथ से बनने वाले समतल पर लगभग 66.5 अंश का कोण बनता है जिसके कारण उत्तरी या दक्षिणी गोलार्धों में से कोई एक गोलार्द्ध सूर्य की ओर झुका होता है। यह झुकाव सूर्य के चारो ओर परिक्रमा के कारण वर्ष के अलग-अलग समय अलग-अलग होता है जिससे दिन-रात की अवधियों में घट-बढ़ का एक वार्षिक चक्र निर्मित होता है। यही ऋतु परिवर्तन का मूल कारण बनता है।
विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां समय-समय पर छः ऋतुएं (Six Types of Ritu) अपनी छटा बिखेरती हैं। प्रत्येक ऋतु दो मास की होती है।
चैत (Chaitra) और बैसाख़ (Baishakh) में बसंत ऋतु (Basant Ritu) अपनी शोभा का परिचय देती है। इस ऋतु को ऋतुराज (Rituraj) की संज्ञा दी गयी है। धरती का सौंदर्य इस प्राकृतिक आनंद के स्रोत में बढ़ जाता है। रंगों का त्यौहार होली बसंत ऋतु (Vasant) की शोभा को दुगना कर देता है। हमारा जीवन चारों ओर के मोहक वातावरण को देखकर मुस्करा उठता है।
ज्येष्ठ -आषाण ( ग्रीष्म ऋतु) में सू्र्य उत्तरायण की ओर बढ़ता है। ग्रीष्म ऋतु प्राणी मात्र के लिये कष्टकारी अवश्य है पर तप के बिना सुख-सुविधा को प्राप्त नहीं किया जा सकता। यदि गर्मी न पड़े तो हमें पका हुआ अन्न भी प्राप्त न हो।
श्रावण -भाद्र (वर्षा ऋतु) में मेघ गर्जन के साथ मोर नाचते हैं । तीज, रक्षाबंधन आदि त्यौहार (Festivals) इस ऋतु में आते हैं।
अश्विन (Ashvin) और कातिर्क (Kartik) के मास शरद ऋतु (Sharad Ritu) के मास हैं। शरद ऋतु प्रभाव की दृश्र्टि से बसंत ऋतु का ही दूसरा रुप है। वातावरण में स्वच्छता का प्रसार दिखा़ई पड़ता है। दशहरा (Dussehra) और दीपावली (Dipawali) के त्यौहार इसी ऋतु में आते हैं।
मार्गशीर्ष (Margshirsh) और पौष (Paush) हेमन्त ऋतु (Hemant Ritu) के मास हैं। इस ऋतु में शरीर प्राय स्वस्थ रहता है। पाचन शक्ति बढ़ जाती है।
माघ (Magh) और फाल्गुन (Falgun) शिशिर अर्थात पतझड़ (Shishir / Patjhar Ritu) के मास हैं। इसका आरम्भ मकर संक्राति (Makar Sankranti) से होता है। इस ऋतु में प्रकृति पर बुढ़ापा छा जाता है। वृक्षों के पत्ते झड़ने लगते हैं। चारों ओर कुहरा छाया रहता है।
भारत को भूलोक का गौरव तथा प्रकृति का पुण्य स्थल कहा गया है। इस प्रकार ये ऋतुएं जीवन रुपी फलक के भिन्न- भिन्न दृश्य हैं, जो जीवन में रोचकता, सरसता और पूर्णता लाती हैं।
ऋतु और राग- शिशिर - भैरव, बसंत - हिंडोल, ग्रीष्म - दीपक, वर्षा - मेघ, शरद - मलकन, हेमंत - श्री।
***
वासव जातीय अष्ट मात्रिक छंद
१. पदांत यगण
सजन! सजाना
सजनी! सजा? ना
काम न आना
बात बनाना
रूठ न जाना
मत फुसलाना
तुम्हें मनाना
लगे सुहाना
*
२. पदांत मगण
कब आओगे?
कब जाओगे?
कब सोओगे?
कब जागोगे?
कब रुठोगे?
कब मानोगे?
*
बोला कान्हा:
'मैया मोरी
तू है भोरी
फुसलाती है
गोपी गोरी
चपला राधा
बनती बाधा
आँखें मूँदे
देखे आधा
बंसी छीने
दौड़े-आगे
कहती ले लो
जाऊँ, भागे
*
३. पदांत तगण
सृजन की राह
चले जो चाह
न रुकना मीत
तभी हो वाह
न भय से भीत
नहीं हो डाह
मिले जो कष्ट
न भरना आह
*
४. पदांत रगण
रहीं बच्चियाँ
नहीं छोरियाँ
न मानो इन्हें
महज गोरियाँ
लगाओ नहीं
कभी बोलियाँ
न ठेलो कहीं
उठा डोलियाँ
*
५. पदांत रगण
जब हो दिनांत
रवि हो प्रशांत
पंछी किलोल
होते न भ्रांत
संझा ललाम
सूराज सुशांत
जाते सदैव
पश्चिम दिशांत
(छवि / मधुभार छंद)
*
६. पदांत भगण
बजता मादल
खनके पायल
बेकल है दिल
पड़े नहीं कल
कल तक क्यों हम
विलग रहें कह?
विरह व्यथा सह
और नहीं जल
*
७. पदांत नगण
बलम की कसम
न पालें भरम
चलें साथ हम
कदम दर कदम
न संकोच कुछ
नहीं है शरम
सुने सच समय
न रूठो सनम
*
८. पदांत सगण
जब तक न कहा
तब तक न सुना
सच ही कहना
झूठ न सहना
नेह नरमदा
बनकर बहना
करम चदरिया
निरमल तहना
सेवा जन की
करते रहना
शुचि संयम का
गहना गहना
३०-१-२०१७
***

शनिवार, 29 जनवरी 2022

समीक्षा, यह बगुला मन, हस्तिनापुर की बिथा कथा, आंकिक उपमान

पुरोवाक :
यह बगुला मन - शब्द शब्द कंचन
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
गीति वृक्ष पर गीत शाखाएँ और नवगीत टहनियाँ निरंतर बढ़ रही हैं। कथ्य कलियाँ, भाव पंखुड़ियाँ, रस सुरभि, अलंकार कुसुम, बिंब पत्ते, रूपक भ्रमर गीत-नवगीत दोनों के अभिन्न अंग हैं। गीति काव्य ने आदि मानव द्वारा वाक् का प्रयोग सीखने के साथ ही जन्म लिया। सलिल-प्रवाह की कलकल, पंछियों का कलरव, मेघ का गर्जन, आदि में ध्वनि के आरोह-अवरोह को देख-सुनकर मानव ने उस उच्चार के माध्यम से संदेश देते-देते भावाभिव्यक्ति कर लोरी के रूप में माँ की ममता शिशु तक पहुँचाई। लिपि के विकास के साथ उच्चार-लय और अर्थ के ताल-मेल को अंकित कर दुबारा पढ़ना-समझना संभव हुआ, साथ ही लंबे संदेश और गीत भी लिखे जा सके। आदिवासी समाजों से आज भी आरंभिक काव्य रचनाएँ सुनी जा सकती हैं। क्रमश: भाषिक व्याकरण और पिंगल के विकास के साथ गद्य-पद्य का वर्गीकरण हुआ। वैदिक संस्कृत ऋचाओं में विद्वानों द्वारा विशिष्ट ध्वनि में गाए जा सकनेवाले छंद व्याप्त हैं। विविध भाषाओँ में गीति काव्य का विकास होता रहा और अब आधुनिक हिंदी में विश्व की किसी भी अन्य भाषा की तुलना में सर्वाधिक छंदों (छंद प्रभाकरकार जगन्न्थ प्रसाद 'भानु' के अनुसार ९२,२७,७६३ मात्रिक छंद तथा १,३४,२१,७६२ वर्णिक छंद) द्वारा गीति-प्रकारों से सारस्वत कोष में श्रीवृद्धि की जा रही है। छंद प्रभाकर में ७०० से कुछ अधिक छंदों के उदाहरण व लक्षण वर्णित हैं। तत्पश्चात लगभग इतने ही नए छंदों का आविष्कार माँ शारदा ने मुझसे करा लिया है। सामान्यत: रचनाकार लगभग ५० छंदों का ही अधिक प्रयोग करते हैं। छंद वैविध्य ने गीतिकाव्य में भावाभिव्यक्ति को सरस, लालित्यपूर्ण बनाने में महती भूमिका का निर्वहन किया है। मुखड़ों और अंतरों द्वारा सृजित विशिष्ट काव्य रचनाएँ 'गीत' संज्ञा से अभिषिक्त की गई हैं।
गीतों को लक्ष्य पाठकवर्ग के आधार पर बाल गीत, युवा गीत आदि, कथ्य के आधार पर पर्व गीत, ऋतु गीत आदि, रस के आधार पर श्रृंगार गीत, हास्य गीत आदि, छंद के आधार पर दोहा गीत, माहिया गीत आदि, संस्कारों व रीतियों के आधार पर सोहर गीत, ज्योनार गीत, विदाई गीत आदि, ऋतु चक्र के आधार पर पावस गीत, फागुन गीत, कजरी गीत आदि में वर्गीकृत किया जाने के बाद 'नवगीत' संज्ञा की आवश्यकता क्या है? गीत-नवगीत में अंतर क्या है? जैसे प्रश्न गत ७ दशकों से पूछे और बूझे जा रहे हैं। अनेक सम्मेलनों में लंबे विमर्शों के बाद भी ये और इन जैसे प्रश्न 'पहले मुर्गी हुई या अंडा?' प्रश्न की तरह भूलभुलैया में उलझानेवाला है। अनेक गीतकार दोनों में कोई अंतर नहीं मानते। कुछ गीतकार दोनों को भिन्न विधा सिद्ध करने का दुराग्रह पाले हैं। मेरी राय में 'गीत / और नवगीत / नहीं हैं भारत-पकिस्तान।'
डॉ. शुभा श्रीवास्तव ने अपनी शोधपरक कृति गीत से नवगीत (आईएसबीएन: ८१-८९०७६-१३-२, वर्ष : २००७) में 'गीत' को रूढ़ माना है जो वैदिक ऋचाओं, लोक गीतों, साहित्यिक गीतों चित्रपटीय गीतों आदि सभी के लिए प्रयोग किया जाता है। शुभा जी ने साहित्यिक गीतों से नवगीत की उत्पत्ति प्रतिपादित की है।
नवगीत प्रणेता का श्रेय प्राप्त राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार इसकी (नवगीत की) प्रेरणा सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई और लोकगीतों की समृद्ध भारतीय परम्परा से है। हिंदी में तो वैसे महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, सुमन, गोपाल सिंह नेपाली आदि कवियों ने काफी सुंदर गीत लिखे हैं और गीत लेखन की धारा भले ही कम रही है पर कभी भी पूरी तरह रुकी नहीं है। वैसे रूढ़ अर्थ में नवगीत की औपचारिक शुरुआत नयी कविता के दौर में उसके समानांतर मानी जाती है। "नवगीत" एक यौगिक शब्द है जिसमें नव (नयी कविता) और गीत (गीत विधा) का समावेश है।' - देखिए हिन्दी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डा. मोहन अवस्थी, पृ० ३०२।
भक्तिकालीन काव्य और नई कविता सिक्के के दो पहलुओं या चुंबक के दो ध्रुवों की तरह परस्पर भिन्न हैं। भक्तिकालीन रचनाओं से प्रेरित कोई रचना नई कविता से कैसे मिल सकती है?
सामान्यत: गीत और नवगीत में शिल्पगत साम्य और कथ्यगत वैषम्य दृष्टव्य है। नवगीत सम सामयिक कथ्य को समेटता है जबकि गीत का विस्तार त्रिकालीन है। आस्वादन के स्तर पर दोनों को विभाजित किया जा सकता है। छायावादी गीत आज लिखा जाए तो भी छायावादी गीत ही होगा, भक्तिकालीन काव्य रचना किसी भी काल में रची गई हो 'भक्ति साहित्य' में ही गणनीय होगी। नवगीत का उद्भव काल गत शताब्दी का उत्तरार्ध है।
निराला के अनेक गीत (बाँधो न नाव इस ठाँव बंधु, वह तोड़ती पत्थर आदि) नवगीत हैं, जबकि वे नवगीत की स्थापना काल के पहले के हैं। गीत-नवगीत रूपाकार का अंतर दृष्टव्य है। गीत लय प्रधान है जबकि नवगीत कथ्य प्रधान है। गीत में छंदानुरूप लय साधते हुए कथ्य की प्रस्तुति की जाती है जबकि नवगीत में कथ्य के लिए छंद का रूपाकार बदला जा सकता है। रूपाकार बदलने में लय महत्वपूर्ण 'घटक' है। गीत-नवगीत के कथ्य की भाषा में भी अंतर् है। गीत में भाषिक प्रांजलता को सराहा जाता है जबकि नवगीत में आंचलिक टटकेपन को प्रशंसा मिलती है। गीत की आत्मा व्यक्ति केन्द्रित है, जबकि नवगीत की आत्मा समग्रता में है। गीत वायवी अथवा कल्पना प्रधान होता है जबकि नवगीत के कथ्य में यथार्थ प्रमुख होता है।
इस पृष्ठभूमि में हिंदी-निमाड़ी के वरिष्ठ कवि श्री सुरेश कुशवाहा 'तन्मय' के गीत-नवगीत संग्रह 'यह बगुला मन' की रचनाएँ यह बताती हैं कि उनका रचनाकार गीत-नवगीत में अंतर को अंतर में स्थान न देकर साम्य को अधिक महत्व देता है। वह 'अनेकता में एकता' को भारतीय संस्कृति की विशेषता मानते हुए अपनी गीति रचनाओं में कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर गीत नदी में नवगीत लहरों को नाचते देखता-दिखता है। इसलिए गीत-नवगीत को एक ही संकलन में एक साथ समेटता है, न तो उन्हें अलग-अलग खंड में रखता है, न ही उनके लिए अलग-अलग संकलन बनाता है। मैं भी गीत-नवगीत को नीर-क्षीर की तरह मानने का पक्षधर हूँ। कृति का श्री गणेश भारतीय परंपरानुसार माँ शारदा, गुरु व पिताश्री के श्री चरणों में रचनार्पण कर हुआ है। सामाजिक समरसता का संदेश देती रचना 'समय मिले तो' तन्मय जी के प्रौढ़ चिंतन की बानगी सहेजे है-
समय मिले तो
आकर हमको पढ़ लो
हम बहुत सरल हैं।
मिलकर खोजें बहुत दिशाएँ
बंजर भू पर पुष्प खिलाएँ
जो अभिलाषित है वो पाएँ
कलुषित भाव
विसर्जित सारे कर लो
मन गंगा जल है।
'शोर' वर्तमान समय की गंभीर समस्या है। कवि तन्मय इस समस्या का समाधान 'मौन' में देखता है तथा वर्तमान विसंगति पर तीक्षण व्यंग्य करता है -
चलो! जरा कुछ देर स्वयं के
अंतर में मुखरित हो जाएँ
अपने मन को मौन सिखाएँ .....
.....बिन जाने सर्वज्ञ हो गए
बिन अध्ययन मर्मज्ञ हो गए
भाव शून्य, धुँधुआते अक्षर
बिन आहुति के यज्ञ हो गए
समिधा बने शब्द अन्तस के
गीत समर्पण के तब गाएँ।
समकालिक पारिस्थितिक वैषम्य पर तीक्ष्ण शब्द-प्रहार करता कवि कलम से तलवार का कार्य लेता है-
गर्जना गहन कर रहे उन्माद में
आदमी सहमा हुआ अवसाद में
टरटराते उछलते दादुर सभी
नशे में उन्मत्त अवसरवाद में
झींगुरों ने रात उत्सव में
अमरता-गान गाए।
चींटियों के पर निकल आए।
भौतिक उपलब्धि पाकर चौंधियाया मनुष्य, आत्मिक उन्नयन की देहरी पर पग रखना भी भूल गया है। इंगितों में युगीन वैषम्य को लांछित करता कवि, शालीनता की मर्यादा लाँघे बिना, श्रम की अवमानना करते समाज के कदाचारी मलेरिया के उन्मूलन हेतु शक्कर में लपेट कर कुनैन सेवन कराता है-
आत्ममुग्धता के भ्रम में
हम ऐसे बौराए
झाँका, कभी न भीतर
खुद को परख नहीं पाए.....
... श्रम से रिश्ता तोड़
साधना से है मुँह मोड़ा
स्तुतिगान कीर्ति-यश से
नित नाता है जोड़ा
सब की प्यास यही है
कौन किसे अब समझाए?
यांत्रिक जीवन की व्यस्तता में विवश साँसों का बोझ ढोता मनुष्य इतना अकेला है कि मन की बात कहना ही भूल गया है। विविध माध्यमों से जा कि उसे सुनते-सुनते ही जिंदगी चुक जाती है।
सब सुननेवाले हैं
कहनेवाला कहीं नहीं
अलग-अलग अंदाज़
हाथ में खाते और बही
आजकल साहित्य सृजन साधना नहीं, मन बहलाव का माध्यम मात्र है। अनुभूत को अभिव्यक्त करने परंपरा समाप्तप्राय है। अत्यधिक खाने के बाद पचाने के लिए अपच की औषधि लेकर डकारते हुए भुखमरी पर नवगीत लिखने के इस दौर में लेखन मन बहलाने के लिए खेलने की तरह है -
आओ आओ कविता खेलें
मन से या फिर बेमन ही से
एक-दूसरे को हम झेलें
कवि तन्मय कृपण समय बनिए को नरम दूब का रस चूसते देखते है। 'मदर इण्डिया' के 'लाला' और 'बिरजू' आज भी समाज में हैं -
बरगद के नीचे मुरझाती
सुस्त हरी धनिया
चूस रहा रस नर्म दूब का
कृपण समय बनिया
'सीधी उँगली घी नहीं निकलता' मुहावरे का सटीक प्रयोग करते हुए नवगीतकार जनगण का करते हुए आशा रखता है कि ऊपर से नीचे तक गोलमाल करनेवालों पतन होगा-
घी निकालना है तो प्यारे
ऊँगली टेढ़ी कर
... सीधे-सादे लोगों की
कीमत, क्या है मोल
ऊपर से नीचे तक
नीचे से ऊपर तक पोल
किन्तु जगा अब देश
ढहेंगे इनके छत्र-चँवर
विसंगतियों चक्रव्यूह में विवश आदमी, जनतंत्र में खिलौना बनकर रह जाए, इससे अधिक बुरा और क्या हो सकता है? तन्मय जी मुखौटे लगाए व्यवस्था की सच्चाई उद्घाटित करते हुए, जन सामान्य को व्यंजना में फसल के बीच खरपतवार की उपमा देते हैं -
हम चाबी से चलनेवाले मात्र खिलौने हैं
बाहर से हैं भव्य किन्तु अंदर से बौने हैं
बीच फसल के पनप रहे हम खरपतवारों से
पहिन मुखौटे लगा लिए हैं चित्र दीवारों पे
भीतर से भेड़िए किन्तु बाहर मृग छौने हैं
जनतंत्र विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका हैं। जब ये तीनों आम आदमी दर्द दूर न कर सकें तो जनमत की अभिव्यक्ति का माध्यम पत्रकारिता होती है। इसीलिए उसे लोकतंत्र चौथा खंबा कहा जाता है। वर्तमान समय की विडंबना यह है कि यह चौथा खंबा भी धनपतियों के हाथ का कैदी होकर अपनी विश्वसनीयता गँवा चुका है। तन्मय जी इस परिस्थिति पर सटीक शब्द-प्रहार करते हैं।
पढ़ने में आया है कि अब
नहीं किसी को कोई डर है
अख़बारों में छपी खबर है
भूखे कोई नहीं रहेंगे
खुशियों से दामन भर देंगे
करते रहो नमन हमको तुम
सारी विपदाएँ हर लेंगे
डोंडी पीट रहा है हाकिम
नगर-नगर है।
माँग और पूर्ति का अर्थशास्त्रीय सिद्धांत भूख नहीं बख्शता। वह जानता है 'भूखे' को 'नंगा' करना बहुत आसान है। 'नंगई' के शौक़ीन तन के खरीददार बनकर भूखों का शिकार करने से चूकते, नैतिकता तोड़ने के अलावा अन्य राह ही नहीं रह जाती -
भूख जहाँ है वहीं
खड़ा हो जाता बाजार।
लगने लगीं बोलियाँ भी
तन की, मन की
सरे राह बिकती है
पगड़ी निर्धन की
नैतिकता का नहीं बचा है
अब कोई आधार
कबीर बकौल डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी 'भाषा के डिक्टेटर' होने के साथ-साथ सामाजिक विडंबनाओं के नासूर की शल्यक्रिया करने में माहिर शल्यज्ञ भी हैं। साखियों का 'साधो' गाँधी जी का 'आखिरी आदमी' तन्मय नवगीत नायक भी है। 'साधो' के माध्यम से तन्मय जी भीष्म-द्रोण जैसे विवश किरदारों की असलियत उद्घाटित करते हैं -
और कब तक
तुम रहोगे मौन साधो?
शब्द को स्वर, तुम नहीं तो
और देगा कौन साधो?
मनुजता पर लगे हैं प्रतिबंध
जिह्वा है सिली
जब करि कोशिश
कहीं संकेत करने की
उधर से
भृकुटियां टेढ़ी मिलीं
है विवश चुपचाप बैठे
भीष्म-गुरुवर द्रोण साधो
'साहित्य समाज का दर्पण' मात्र नहीं होता। 'साहित्य समाज का प्रतिबिंब और भविष्य' भी होता है। कहा जाता है 'अंधा है वह देश जहाँ साहित्य नहीं है।' वर्तमान संक्रांति काल की त्रासदी यह है कि 'साहित्य सृजन' भी मनबहलाव का शगल बनकर रह गया है। सुरेश तन्मय इस विरूपता को नहीं बख्शते, उस पर शब्दाघात करते हैं-
फुर्सत में हो तो आओ
अब तुकबंदियाँ करें ....
... शब्दों की धींगा मस्ती में
शब्द हुए बहरे ....
... अध्ययन चिंतन और मनन पर
लगे हुए पहरे ....
तन्मय जी का नवगीतकार जानता है 'रात भर का है मेहमां अँधेरा, किसके रोके रुका है सवेरा', वह आश्वस्त है कि 'हर 'मावस के बाद पूर्णिमा लाती उजियारा', इसीलिये कहता है-
बाढ़ है ये
फिर नदी निर्मल बहेगी
बोझ आखिर क्यों
कहाँ तक ये सहेगी?....
.... लक्ष्य को पाने
सतत चलती रहेगी।
'यह बगुला मन' के गीत-नवगीत बीमार समय की नब्ज़ टटोलते हुए कुशल वैद्य की तरह रोग की पड़ताल मात्र नहीं करते अपितु रोग के निवारण के साथ-साथ रोगी में नवाशा का संचार भी करते हैं। तन्मय के नवगीत छिद्रान्वेषण मात्र नहीं हैं। वे 'कीचड़ उछालने', 'कटघरे में खड़ा करने' या 'निशाना बनाने' के लिए नहीं लिखते, उनका लक्ष्य रात के गर्भ से भोर के प्रकाश को उगाना है। तन्मय के नवगीतों में अन्तर्निहित आशावादिता उन्हें अन्यों से अलग और सार्थक बनाती है। कथ्य की आवश्यकतानुसार अमिधा,व्यंजना और लक्षणा का उपयोग करते हुए, 'कम लिखे से अधिक समझना' की लोक परंपरा निर्वहन करते हुए, मिथकों, बिंबों, प्रतीकों, रूपकों और उपमाओं से तन्मय अपनी बात इस तरह कहते हैं कि पाठक के मन छू सके। ये गीत-नवगीत आश्वस्त करते हैं कि गीति साहित्य की धार अकुंठ है और वह युगीन त्रासदियों से पीड़ित मानव-मन को बेपीर करने में समर्थ है।
२९-१-२०२१
***
संस्कृत में नईं पढ़ो, हिंदी में नईं पढ़ो तो लो
बुंदेली में पढ़ लो महाभारत
- मोहन शशि
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"साँच खों आँच का" पे जा बात सोई मन सें निकारें नईं निकरे के ए कलजुग में "साँची खों फाँसी" की दसा देखत करेजा धक् सें रै जात। बे दिन सोई लद गए जब 'बातहिं हाथी पाइए, बातहिं हाथी पांव' को डंका पिटत रओ। तुम लगे रओ 'कर्म खों धर्म मानकें', लगात रओ समंदर में गहरे-गहरे गोता, खोज-खोजकें लात रओ एक सें बढ़ कें एक मोेती, पै जा जान लो और मान लो कि आपके मोती रहे आएं आपखों अनमोल, ए तिकड़मबाजी के बजार में नईं लगने उनको कोई मोल। तमगा और इनाम उनके नाम जौन की अच्छी-खासी हे पहचान, भलई कछू लिखो होय के कोई गरीब साहित्यकार पे 'पेट की आगी बुझाबे' के एहसान खों लाद 'गाँव तोरो, नांव मोरो कर लओ होय। 'कऊँ ईगी बरे, काऊ को चूल्हा सदे, जाए भाड़ में, जे धुन के धुनी, आदमी कछू अलगई किसम के होत, हमीर सो हठ ठानो तो फिर नई मानी, काऊ की नई मानी। ऐंसई में से एक हैं अपने भैया डॉ. मुरारीलाल जी खरे। जा जान लो के बुंदेली पे मनसा वाचा कर्मणा से समर्पित, प्रन दए पड़े।
भैया!'हात कंगन खों आरसी का' खुदई देख लो। २०१३ में बुंदेली रामायण, २०१५ में 'शरशैया पर भीष्म पितामह' और बुंदेली में और भौत सों काम करके बी नें थके, नें रुके और धर पटको बुंदेली में संछिप्त महाभारत काव्य 'हस्तिनापुर की बिथा-कथा।'
डॉ.एम.एल.खरे नें ९ अध्याय में रचो है 'हस्तिनापुर की बिथा कथा।' पैले अध्याय में हस्तिनापुर के राजबंस को परिचय कुरुबंसी महाराज सांतनु से शुरू करके महाभारत के युद्ध के बाद तक के वर्णन में साहित्य के खरे हस्ताक्छर डॉ. खरे ने एक-एक पद मेम ऐसे ऐसे शबिद चित्र उकेरे हैं के पढ़बे के साथई साथ एक-एक दृष्य आंखन में उतरत जात और लगत कि सिनेमा घर में बैठे महाभारत आय देख रअ। कवि जी नें कही हे-
"गरब करतते अपने बल को जो, वे रण में मर-खप गए
व्द व्यास आँखन देखी जा। बिथा कथा लिखकें धर गए"
सांतनु-गंगा मिलन, देवव्रत (भीष्म) जन्म, सत्यवती-सान्तनु ब्याव, चित्रांगद-विचित्रवीर्य जन्म, कासीराज की कन्याओं अंबा, अंबिका, अंबालिका को हरण, अंबिका और अंबालिका के छेत्रज पुत्र धृतराष्ट्र और पाण्डु जनमें, धृतराष्ट्र-गांधारी और पाण्डु-कुंती को ब्याव, कर्ण के जन्म की कथा, माद्री-पाण्डु ब्याव, सौ और पाँच को जनम, पाण्डु मरण और फिर दुर्योधन-शकुनि के षड़यंत्र पे षड़यंत्र -
"भई मिसकौट सकुनि मामा, दुर्योधन, कर्ण, दुसासन में
जिअत जरा दए जाएँ पांडव, ठैरा लाख के भवन में"
कुंती रे साथ पांडवों के मरबे को शोक मना दुर्योधन को युवराज के रूप में का भओ के फिर तो नईं धरे ओने धरती पे पाँव। उते पांडवों को बनों में भटकवे से लेके द्रौपदी स्वयंवर और राज के बटबारे को बरनन खरे जी ने ऐसो करो कि पढ़तई बनत। बटबारे में धृतराष्ट्र नें कौरवों खों सजो-सजाओ हस्तिनापुर तो 'एक पांत दो भांत' पांडवों खों ऊबड़-खाबड़ जंगल भरो खांडवप्रस्थ देवे के बरनन में कविवर डॉ. खरे जा बताबे में नई चूके कि धृतराष्ट्र ने ुांडवों पे दिखावटी प्रेंम दरसाओ -
"और युधिष्ठिर लें बोले दै रए तुमें हम आधो राज
चले खांडवप्रस्थ जाव तुम, करो उते अच्छे सें राज"
पांडवों पे कृष्ण कृपा, विश्वकर्मा द्वारा इंद्रप्रस्थ नगरी को अद्भुत निर्माण फिर राजसूय यग्य और दरवाजा से दुर्योधन को टकरावे पे -
"जो सब देखीती पांचाली, अपने छज्जे पे आकें
'अंधे को बेटा अंधा' जो कहकें हँसी ठिलठिलाकें"
जा जान लो के महायुद्ध के बीजा इतई पर गए। चौथो अध्याय 'छल को खेल और पांडव बनबास' अब जा दान लो कि कहतई नई बनत। ऐसो सजीव बरनन के का कहिए। ऐमे द्रौपदी चीरहरन पढ़त गुस्सा आत तो कई जग्घा तरैंया लो भर आत। उते त्रेता में सीता मैया संगे और इते द्वापर में द्रौपती संगे जो सब नें होतो तो सायत कलजुग में बहुओं-बिटिओं के साथ और अत्याचार के रोज-रोज, नए-नए कलंक नें लगते, हर एक निर्भया निर्भय रहकें अपनी जिंदगी की नैया खेती। पे विधि के विधान की बलिहारी, बेटा से बेटी भली होबे पे बी अत्याचार की सिकार हो रई हे नारी।
पांचवें अध्याय में पांडवों के अग्यातवास में कीचक वध वरनन पढ़तई बनत। फिर का खूब घालो उत्तरामअभिमन्यु रो ब्याव। अग्सातवास खतम होवे पे सोच-विचार --
"नई मानें दुर्सोधन तो हम करें युद्ध की तैयारी
काम सांति सें निकर जाए तो काए होय मारामारी"
दुर्योधन तो दुर्योधन, स्वार्थी, हठी, घमंडी। ओने तो दो टूक और साफ - साफ कही, ओहे कवि खरे जी ने अपने बुंदेली बोलन में कछू ई भाँत ढालो -
"उत्तर मिलो पांच गांव की बात भूल पांडव जाएं
बिना युद्ध हम भूमि सुई की नोंक बराबर ना दै पाएं"
आनंदकंद सच्चिदानंद भगवान श्रीकृष्णचंद्र ने बहुतई कोसस करी के युद्ध टल जावे पे दुर्योधन टस से मस नें भओ और तब पाण्डव शिविर में लौट कें किशन जू नें कही -
"कृष्ण गए उपलंब्य ओर बोले दुर्योधन हे अड़ियल
करवाओ सेनाएं कूच सब जतन सांति के भए असफल"
कवि ने युद्ध की तैयारियों को जो बरनन करो वो तो पढ़बे जोग हेई, से सातवे अध्याय में पितामह की अगुआई में महायुद्ध (भाग १) ओर आठवें अध्याय में आखिरी आठ दिन महायुद्ध (भाग २) रो बखान पढ़त उके तो महाराद धृतराष्ट्र खों संजय जी सुनात रए जेहे आदिकवि वेदव्यास नें बखानो ओर प्रथम पूज्य भगवान गनेस जू ने लिखो , पे इते बुंदेली में ओ महायुद्ध पे जब डॉ. एम. एल. खरे ने बुंदेली में कलम चलाई तो कहे बिना परे ने रहाई के ओ महायुद्ध की तिल - तिल की घटना पढ़त - पढ़त आंखन के दोरन सें दिल में समाई । महायुद्ध को बड़ो सटीक हरनन करो हे कवि डॉ. खरे नें । कछू ऐंसो के पढ़तई बनत।
महायुद्ध के बाद नौवें अध्याय में अश्वत्थामा की घनघोर दुष्टता, सजा और श्राप को बरनन सोई नोंनो भओ। फिर पांडवों को हस्तिनापुर आवो, युधिष्ठिर को अनमनोयन, पितामह भीष्म से ग्यान, अश्वमेध, धृतराष्ट्र को गांधारी, कुंती, संजय ओर विदुर संग बनगमन को बरनन करत कविजी नें का खूब कही -
"जी पै कृपा कृष्ण की होय, बाको अहित कभऊँ नईं होत
दुख के दिन कट जात ओर अंत में जै सच्चे की होत"
समर्थ हस्ताक्षर कविवर डॉ. मुरारीलाल खरे ने बुंदेली में 'हस्तिनापुर की बिथा कथा' बड़ी लगन, निष्ठा और अध्ययन मनन चिंतन के साथ बड़ी मेंहनत सें लिखी। बुंदेली बोली - बानी के प्रेमिन के साथ हुंदेलखंड पे जे उनको जो एक बड़ो और सराहनीय उपकार है । ए किताब खें उठाके जो पढ़वो सुरू करहे वो ५ + १०३४ पद जब पूरे पढ़ लेहे तबई दम लेहे। डूबके पढ़हे तो ओहे ऐसो लगहे जेंसे बो पढ़बे के साथ - साथ ओ घटनाक्रम सें साक्षात्कार कर रहो।
कवि नें 'अपनी बात' में खुदई कही कि उन्हें 'गागर में सागर' भरबे के लानें कई प्रसंग छोड़नें पड़े तो हमें सोई बिस्तार सें बचबे कई प्रसंगन सें मोह त्यागनें पड़ो। बुंदेलों खों बुंदेली में संछेप में महाभारत सहज में उपलब्ध कराबे के लानें डॉ. एम. एल. खरे जी खों बहोतई बहोत बधाइयां तथा उनके स्वस्थ सुखी समृद्ध यशस्वी मंगल भविष्य के लानें मंगलमय सें अनगिनत मंगल कामनाएं। एक शाश्वत, सार्थक ओर अमूल्य रचना के प्रकासन में सहयोग करने ओर बुंदेली में भूमिका लिखाबे के लानें प्यारे भैया आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' खों साधुवाद।
वन्दे।
मोहन शशि
कवि, पत्रकार, सूत्रधार मिलन
२९-१-२०२०
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आंकिक उपमान और छंद शास्त्र :
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छंद शास्त्र में मात्राओं या वर्णों संकेत करते समय ग्रन्थों में आंकिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। ऐसे कुछ शब्द नीचे सूचीबद्ध किये गये हैं। इनके अतिरिक्त आपकी जानकारी में अन्य शब्द हों तो कृपया, बताइये।
क्या नवगीतों में इन आंकिक प्रतिमानों का उपयोग इन अर्थों में किया जाना उचित होगा?
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एक - ॐ, परब्रम्ह 'एकोsहं द्वितीयोनास्ति', क्षिति, चंद्र, भूमि, नाथ, पति, गुरु।
पहला - वेद ऋग्वेद, युग सतयुग, देव ब्रम्हा, वर्ण ब्राम्हण, आश्रम: ब्रम्हचर्य, पुरुषार्थ अर्थ,
इक्का, एकाक्षी काना, एकांगी इकतरफा, अद्वैत, एकत्व,
दो - देव: अश्विनी-कुमार। पक्ष: कृष्ण-शुक्ल। युग्म/युगल: प्रकृति-पुरुष, नर-नारी, जड़-चेतन। विद्या: परा-अपरा। इन्द्रियाँ: नयन/आँख, कर्ण/कान, कर/हाथ, पग/पैर। लिंग: स्त्रीलिंग, पुल्लिंग।
दूसरा- वेद: सामवेद, युग त्रेता, देव: विष्णु, वर्ण: क्षत्रिय, आश्रम: गृहस्थ, पुरुषार्थ: धर्म,
महर्षि: द्वैपायन/व्यास। द्वैत विभाजन,
तीन/त्रि - देव / त्रिदेव/त्रिमूर्ति: ब्रम्हा-विष्णु-महेश। ऋण: देव ऋण, पितृ-मातृ ऋण, ऋषि ऋण। अग्नि: पापाग्नि, जठराग्नि, कालाग्नि। काल: वर्तमान, भूत, भविष्य। गुण: सत्व, रजस, तम। दोष: वात, पित्त, कफ (आयुर्वेद)। लोक: स्वर्ग, भू, पाताल / स्वर्ग भूलोक, नर्क। त्रिवेणी / त्रिधारा: सरस्वती, गंगा, यमुना। ताप: दैहिक, दैविक, भौतिक। राम: श्री राम, बलराम, परशुराम। ऋतु: पावस/वर्षा शीत/ठंड ग्रीष्म/गर्मी।मामा:कंस, शकुनि, माहुल। व्रत: नित्य, नैमित्तिक, काम्य / मानस, कायिक, वाचिक।
तीसरा- वेद: यजुर्वेद, युग द्वापर, देव: महेश, वर्ण: वैश्य, आश्रम: वानप्रस्थ, पुरुषार्थ: काम,
त्रिकोण, त्रिनेत्र = शिव, त्रिदल बेल पत्र, त्रिशूल, त्रिभुवन, तीज, तिराहा, त्रिमुख ब्रम्हा। त्रिभुज / त्रिकोण तीन रेखाओं से घिरा क्षेत्र।
चार - युग: सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग, कलियुग। धाम: बद्रीनाथ, जगन्नाथपुरी, रामेश्वरम धाम, द्वारिका। पीठ: शारदा पीठ द्वारिका, ज्योतिष पीठ जोशीमठ बद्रीधाम, गोवर्धन पीठ जगन्नाथपुरी, श्रृंगेरी पीठ। वेद: ऋग्वेद, अथर्वेद, यजुर्वेद, सामवेद। आश्रम: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास। अंतःकरण: मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार। वर्ण: ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पुरुषार्थ: अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण। फल: करौंदा (दस्त, ज्वर, पित्त), शहतूत (लू, कृमि, रक्त, सूजन),। अवस्था: शैशव/बचपन, कैशोर्य/तारुण्य, प्रौढ़ता, वार्धक्य। विकार/रिपु: काम, क्रोध, मद, लोभ।
अर्णव, अंबुधि, श्रुति,
चौथा - वेद: अथर्वर्वेद, युग कलियुग, वर्ण: शूद्र, आश्रम: सन्यास, पुरुषार्थ: मोक्ष,
चौराहा, चौगान, चौबारा, चबूतरा, चौपाल, चौथ, चतुरानन गणेश, चतुर्भुज विष्णु, चार भुजाओं से घिरा क्षेत्र।, चतुष्पद चार पंक्ति की काव्य रचना, चार पैरोंवाले पशु।, चौका रसोईघर, क्रिकेट के खेल में जमीन छूकर सीमाँ रेखा पार गेंद जाना, चार रन।
पाँच/पंच - गव्य: गाय का दूध, दही, घी, गोमूत्र, गोबर। देव: गणेश, विष्णु, शिव, देवी, सूर्य। तत्व् : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। अमृत: दुग्ध, दही, घृत, मधु, नर्मदा/गंगा जल। अंग/पंचांग: । पंचनद: । ज्ञानेन्द्रियाँ: आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा। कर्मेन्द्रियाँ: हाथ, पैर,आँख, कान, नाक। कन्या: ।, प्राण ।, शर: ।, प्राण: ।, भूत: ।, यक्ष: ।, तिथि: नंदा, भद्रा, विजया, ऋक्ता, पूर्ण वराह मिहिर। गज
इशु: । पवन: । पांडव पाण्डु के ५ पुत्र युधिष्ठिर भीम अर्जुन नकुल सहदेव। शर/बाण: । पंचम वेद: आयुर्वेद।
पंजा, पंच, पंचायत, पंचमी, पंचक, पंचम: पांचवा सुर, पंजाब/पंचनद: पाँच नदियों का क्षेत्र, पंचानन = शिव, पंचभुज पाँच भुजाओं से घिरा क्षेत्र। वृत: एक भुक्त एक समय आहार, अयाचित बिना मांगे जो मिले ग्रहण करना, मितभुक निर्धारित अल्प मात्रा १० ग्रास लेना, चांद्रायण तिथि अनुसार १५ से घटते हुए १ ग्रास लें, प्राजापत्य ३-३ दिन क्रमश: २२, २६, २४ ग्रास अंतिम ३ दिन निराहार।
छह/षट - दर्शन: वैशेषिक, न्याय, सांख्य, योग, पूर्व मीसांसा, दक्षिण मीसांसा। अंग: ।, अरि: ।, कर्म/कर्तव्य: ।, चक्र: ।, तंत्र: ।, रस: ।, शास्त्र: ।, राग:।, ऋतु: वर्षा, शीत, ग्रीष्म, हेमंत, वसंत, शिशिर।, वेदांग: ।, इति:।, अलिपद: ।
षडानन कार्तिकेय, षट्कोण छह भुजाओं से घिरा क्षेत्र। षडपर्व: कृषि,ऋतु, कामना, राष्ट्रीय, जयंती, श्रद्धांजलि।
सात/सप्त - ऋषि - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ एवं कश्यप। पुरी- अयोध्या, मथुरा, मायापुरी हरिद्वार, काशी वाराणसी , कांची (शिन कांची - विष्णु कांची), अवंतिका उज्जैन और द्वारिका। पर्वत: ।, अंध: ।, लोक: ।, धातु: ।, सागर: ।, स्वर: सा रे गा मा पा धा नी।, रंग: सफ़ेद, हरा, नीला, पीला, लाल, काला।, द्वीप: ।, नग/रत्न: हीरा, मोती, पन्ना, पुखराज, माणिक, गोमेद, मूँगा।, अश्व: ऐरावत,
सप्त जिव्ह अग्नि,
सप्ताह = सात दिन, सप्तमी सातवीं तिथि, सप्तपदी सात फेरे,
आठ/अष्ट - वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। योग- यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। लक्ष्मी - आग्घ, विद्या, सौभाग्य, अमृत, काम, सत्य , भोग एवं योग लक्ष्मी ! सिद्धियाँ: ।, गज/नाग: गज ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] [स्त्री॰ गजी]
गज = १. हाथी, २. गजासुर राक्षस(महिषासुर का पुत्र), ३. एक बंदर जो रामचंद्र की सेना में था, ४. आठ की संख्या, ५. मकान की नींच या पुश्ता, ६. ज्योतिष में नक्षत्रों की वीथियों में से एक, ७. लंबाई नापने की एक प्राचीन माप जो साधारणतः ३० अंगुल की होती थी [को॰] । गज २ संज्ञा पुं॰ [फा़॰ गज]
१. लंबाई नापने की एक माप जो सोलह गिरह या तीन फुट की होती है । विशेष - गज कई प्रकार का होता है जिससे कपड़ा, जमीन, लकड़ी, दीवार आदि नापी जाती है । पुराने समय से भिन्न भिन्नः प्रांतों तथा भिन्न भिन्न व्यवसायों में भिन्न भिन्न माप के गज प्रचलित थे और उनके नाम भी अलग अलग थे । उनका प्रचार अभी भी है । सरकारी गज ३ फुट या ३६ इंच का होता है । कपड़ा नापने का गज प्रायः लोहे की छड़ या लकड़ी का होता है जिसमें १६ गिरहें होती हैं और चार चार गिरहों पर चौपाटे का चिह्न होता है । कोई कोई २० गिरह का भी होती है । राजगीरों का गज लकड़ी का होता है और उसमें १४ तसू होते हैं । एक एक इंच के बराबर तसू होता है । यही गज बढ़ई भी काम में लाते हैं । अब इसकी जगह विशेषकर विलायती दो फुटे से काम लिया जाता है । दर्जियों का गज कपड़े के फीते का होता है, जिसमें गिरह के चिह्न बने होते हैं । मुहा॰—गजभर = बनियों की बोलचाल में एक रुपए में सोलह सेर का भाव । गज भर की छाती होना = बहुत प्रसन्नता या संमान का बोध करना । गज भर की जबान होना = बड़बोला होना । उ॰—क्यों जान के दुश्मन हुए हो, इतनी सी जान गज भर की जबान—फिसाना॰, भा॰३, पृ॰ २१९ ।
२. वह पतली लकड़ी जो बैलगाड़ी के पाहिए में मूँड़ी से पुट्ठी तक लगाई जाती है । विशेष—यह आरे से पतली होती है और मूँड़ी के अंदर आरे को छेदकर लगाई जाती है । यह पुट्ठी और औरों को मूड़ी में जकड़े रहती है । गज चार होते हैं ।
३. लोहे या लकड़ी की वह छड़ जिससे पुराने ढंग की बंदूक में ठूसी जाती है । क्रि॰ प्र॰—करना ।
४. कमानी, जिससे सारंगी आदि बजाते हैं ।
५. एक प्रकार का तीर जिसमें पर और पैकान नहीं होता ।
६. लकड़ी की पटरी जो घोड़ियों के ऊपर रखी जाती है ।। दिशा: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य।, याम: ।,
अष्टमी आठवीं तिथि, अष्टक आठ ग्रहों का योग, अष्टांग: ।,
अठमासा आठ माह में उत्पन्न शिशु,
नौ - दुर्गा - शैल पुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री। गृह: सूर्य/रवि , चन्द्र/सोम, गुरु/बृहस्पति, मंगल, बुध, शुक्र, शनि, राहु, केतु।, कुंद: ।, गौ: ।, नन्द: ।, निधि: ।, विविर: ।, भक्ति: ।, नग: ।, मास: ।, रत्न ।, रंग ।, द्रव्य ।,
नौगजा नौ गज का वस्त्र/साड़ी।, नौरात्रि शक्ति ९ दिवसीय पर्व।, नौलखा नौ लाख का (हार)।,
नवमी ९ वीं तिथि।,
दस - दिशाएं: पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, पृथ्वी, आकाश।, इन्द्रियाँ: ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ।, अवतार - मत्स्य, कच्छप, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, श्री राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।
दशमुख/दशानन/दशकंधर/दशबाहु रावण।, दष्ठौन शिशु जन्म के दसवें दिन का उत्सव।, दशमी १० वीं तिथि।, दीप: ।, दोष: ।, दिगपाल: ।
ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
एकादशी ११ वीं तिथि,
बारह - आदित्य: धाता, मित, आर्यमा, शक्र, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।, ज्योतिर्लिंग - सोमनाथ राजकोट, मल्लिकार्जुन, महाकाल उज्जैन, ॐकारेश्वर खंडवा, बैजनाथ, रामेश्वरम, विश्वनाथ वाराणसी, त्र्यंबकेश्वर नासिक, केदारनाथ, घृष्णेश्वर, भीमाशंकर, नागेश्वर। मास: चैत्र/चैत, वैशाख/बैसाख, ज्येष्ठ/जेठ, आषाढ/असाढ़ श्रावण/सावन, भाद्रपद/भादो, अश्विन/क्वांर, कार्तिक/कातिक, अग्रहायण/अगहन, पौष/पूस, मार्गशीर्ष/माघ, फाल्गुन/फागुन। राशि: मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ, कन्यामेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या।, आभूषण: बेंदा, वेणी, नथ,लौंग, कुण्डल, हार, भुजबंद, कंगन, अँगूठी, करधन, अर्ध करधन, पायल. बिछिया।,
द्वादशी १२ वीं तिथि।, बारादरी ।, बारह आने।
तेरह - भागवत: ।, नदी: ।,विश्व ।
त्रयोदशी १३ वीं तिथि ।
चौदह - इंद्र: ।, भुवन: ।, यम: ।, लोक: ।, मनु: ।, विद्या ।, रत्न: ।
चतुर्दशी १४ वीं तिथि।
पंद्रह - तिथियाँ (प्रतिपदा/परमा, द्वितीय/दूज, तृतीय/तीज, चतुर्थी/चौथ, पंचमी, षष्ठी/छठ, सप्तमी/सातें, अष्टमी/आठें, नवमी/नौमी, दशमी, एकादशी/ग्यारस, द्वादशी/बारस, त्रयोदशी/तेरस, चतुर्दशी/चौदस, पूर्णिमा/पूनो, अमावस्या/अमावस।)
सोलह - षोडश मातृका: गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजय, जाया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, शांति, पुष्टि, धृति, तुष्टि, मातर, आत्म देवता। ब्रम्ह की सोलह कला: प्राण, श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन अन्न, वीर्य, तप, मंत्र, कर्म, लोक, नाम।, चन्द्र कलाएं: अमृता, मंदा, पूषा, तुष्टि, पुष्टि, रति, धृति, ससिचिनी, चन्द्रिका, कांता, ज्योत्सना, श्री, प्रीती, अंगदा, पूर्ण, पूर्णामृता। १६ कलाओंवाले पुरुष के १६ गुण सुश्रुत शारीरिक से: सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्राण, अपान, उन्मेष, निमेष, बुद्धि, मन, संकल्प, विचारणा, स्मृति, विज्ञान, अध्यवसाय, विषय की उपलब्धि। विकारी तत्व: ५ ज्ञानेंद्रिय, ५ कर्मेंद्रिय तथा मन। संस्कार: गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णवेध, विद्यारम्भ, उपनयन, वेदारम्भ, केशांत, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि। श्रृंगार: ।
षोडशी सोलह वर्ष की, सोलह आने पूरी तरह, शत-प्रतिशत।, अष्टि: ।
सत्रह -
अठारह -
उन्नीस -
बीस - कौड़ी, नख, बिसात, कृति ।
चौबीस स्मृतियाँ - मनु, विष्णु, अत्रि, हारीत, याज्ञवल्क्य, उशना, अंगिरा, यम, आपस्तम्ब, सर्वत, कात्यायन, बृहस्पति, पराशर, व्यास, शांख्य, लिखित, दक्ष, शातातप, वशिष्ठ। २४ मिनिट = १ घड़ी।
पच्चीस - रजत, प्रकृति ।
पचीसी = २५, गदहा पचीसी, वैताल पचीसी।
छब्बीस - राशि-रत्न (१४-१२ =२६)
तीस - मास,
तीसी तीस पंक्तियों की काव्य रचना,
बत्तीस - बत्तीसी = ३२ दाँत ।,
तैंतीस - सुर: ।,
छत्तीस - छत्तीसा ३६ गुणों से युक्त, नाई।
चालीस - चालीसा ४० पंक्तियों की काव्य रचना।
अड़तालीस - १ मुहूर्त = ४८ मिनिट या २ घड़ी।
पचास - स्वर्णिम, हिरण्यमय, अर्ध शती।
साठ - षष्ठी।
सत्तर -
पचहत्तर -
सौ -
एक सौ आठ - मंत्र जाप
सात सौ - सतसई।,
सहस्त्र -
सहस्राक्ष इंद्र।,
एक लाख - लक्ष।,
करोड़ - कोटि।,
दस करोड़ - दश कोटि, अर्बुद।,
अरब - महार्बुद, महांबुज, अब्ज।,
ख़रब - खर्व ।,
दस ख़रब - निखर्व, न्यर्बुद ।,
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३३ कोटि देवता
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देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि = प्रकार, एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म की खिल्ली उड़ने के लिये अन्य धर्मावलम्बियों ने यह अफवाह उडा दी कि हिन्दुओं के ३३ करोड़ देवी-देवता हैं। वास्तव में सनातन धर्म में ३३ प्रकार के देवी-देवता हैं:
० १ - १२ : बारह आदित्य- धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवस्वान, पूष, सविता, तवास्था और विष्णु।
१३ - २० : आठ वसु- धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष।
२१ - ३१ : ग्यारह रुद्र- हर, बहुरुप, त्र्यंबक, अपराजिता, बृषाकापि, शँभु, कपार्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा और कपाली।
३२ - ३३: दो देव- अश्विनी और कुमार।
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लघुकथा
छाया
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गणतंत्र दिवस, देशभक्ति का ज्वार, भ्रष्टाचार के आरोपों से- घिरा अफसर, मत खरीदकर चुनाव जीता नेता, जमाखोर अपराधी, चरित्रहीन धर्माचार्य और घटिया काम कर रहा ठेकेदार अपना-अपना उल्लू सीधा कर तिरंगे को सलाम कर रहे थे।
आसमान में उड़ रहा तिरंगा निहार रहा था जवान और किसान को जो सलाम नहीं, अपना काम कर रहे थे।
उन्हें देख तिरंगे का मन भर आया, आसमान से बोला "जब तक पसीने की हरियाली, बलिदान की केसरिया क्यारी समय चक्र के साथ है तब तक मुझे कोई झुका नहीं सकता।
सहमत होता हुआ कपसीला बादल तीनों पर कर रहा था छाया।
२९-१-२०१९
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एक प्रश्न-उत्तर
संध्या सिंह-
न इतिहास के गौरव से प्रभावित न भविष्य के पतन से आशंकित ...... तटस्थ हो कर आप सबसे एक प्रश्न ;;;कितने लोग बदलती विचारधारा के परिपेक्ष्य में जौहर को आज भी वाजिब कहेंगे ...और महिमामंडित करेंगे .. ...और स्त्री को अस्मिता पर हमले के समय जौहर का सुझाव देंगे ?????
संजीव-
जौहर ऐसा साहस है जो हर कोई नहीं कर सकता. जौहर का सती प्रथा से कोई संबंध नहीं था.
जौहर विधर्मी स्वदेशी सेनाओं की पराजय के बाद शत्रुओं के हाथों में पड़कर बलात्कृत होने से बचने के लिए परजिर सैनिकों कि पत्नियों द्वारा स्वेच्छा से किया जाता था जबकि पति की मृत्यु होने पर पत्नि स्वेच्छा से प्राण त्याग कर सती होती थी. दोनों में कोई समानता नहीं है.
स्मरण हो जौहर अकेली पद्मिनी ने नहीं किया था. एक नारी के सम्मान पर आघात का प्रतिकार १५००० नारियों ने आत्मदाह कर किया जबकि उनके जीवन साथी लड़ते-लड़ते मर गए थे. ऐसा वीरोचित उदाहरण अन्य नहीं है. जब कोई अन्य उपाय शेष न रहे तब मानवीय अस्मिता और आत्म-गरिमा खोकर जीने से बेहतर आत्माहुति होती है. इसमें कोई संदेह नहीं है. ऐसे भी लाखों भारतीय स्त्री-पुरुष हैं जिन्होंने मुग़ल आक्रान्ताओं के सामने घुटने टेक दिए और आज के मुसलमानों को जन्म दिया जो आज भी भारत नहीं मक्का-मदीना को तीर्थ मानते हैं, जन गण मन गाने से परहेज करते हैं. ऐसे प्रसंगों पर इस तरह के प्रश्न जो प्रष्ठभूमि से हटकर हों, आहत करते हैं. एक संवेदनशील विदुषी से यह अपेक्षा नहीं होती. प्रश्न ऐसा हो जो पूर्ण घटना और चरित्रों के साथ न्याय करे.

आज भी यदि ऐसी परिस्थिति बनेगी तो ऐसा ही किया जाना उचित होगा. परिस्थिति विशेष में कोई अन्य मार्ग न रहने पर प्राण को दाँव पर लगाना बलिदान होता है. जौहर करनेवाली रानी पद्मिनी हों, या देश कि आज़ादी के लिए प्राण गँवानेवाले क्रांन्तिकारी या भ्रष्टाचार मिटाने हेतु आमरण अनशन करनेवाले अन्ना सब का कार्य अप्रतिम और अनुकरणीय है.

२९-१-२०१७

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