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गुरुवार, 9 जनवरी 2014

kavita: geedh -sanjiv

काव्य सलिला:
गीध
संजीव
*
जब स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक
सीमित रह जाए
नाक की सीध
तब समझ लो आदमी
इंसान नहीं रह गया
बन गया है गीध.

***

शनिवार, 2 नवंबर 2013

kavya salila: sanjiv

काव्य सलिला:
संजीव
*
कल तक थे साथ
आज जो भी साथ नहीं हैं
हम एक दिया तो
उनकी याद में जलायें मीत
सर काट शत्रु ले गए
जिनके नमन उन्हें
हँसते समय दो अश्रु
उन्हें भी चढ़ाएं मीत.
जो लुट गयी
उस अस्मिता के पोंछ ले आँसू
जो गिर गया उठा लें
गले से लगाएं मीत.
कुटिया में अँधेरा न हो
यह सोच लें पहले
झालर के पहले
दीप में बाती जलाएं मीत.
*

बुधवार, 9 अक्टूबर 2013

kavya salila: aaiye kavita rachen -sanjiv

काव्य सलिला :
आइये! कविता रचें
संजीव
*
आइये! कविता रचें, मिल बात मन की हम कहें
भाव-रस की नर्मदा में सतत अवगाहन करें.
कथ्य निखरे प्रतीकों से, बिम्ब के हों नव वसन.
अलंकारों से सुसज्जित रहे कविता का कथन.
छंद-लय, गति-यति नियंत्रण शब्द सम्यक अर्थमय.
जो कहे मन वह लिखें पांडित्य का कुछ हो न भय.
ब्रम्ह अक्षर की निरंतर कर सकें आराधना.
सदय माँ शारद रहें सुत पर यही है कामना.
साधना नव सृजन की आसां नहीं, बाधा अगिन.
कभी आहत मन, कभी तन सम न होते सभी दिन.
राम जिस विधि जब रखें उपकार प्रभु का मानकर-
'सलिल' प्रक्षालन करे पग-पंक झुक-हठ ठानकर.
शीश पर छिडकें करे शीतल हरे भव ताप भी.
पैर पटकें पंक छोड़े सहज धब्बे-दाग भी.
हाथ में ले आचमन करिए मिटाए प्यास भी.
करें जैसा भरें वैसा कुछ रुदन कुछ हास भी.
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