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मंगलवार, 27 अप्रैल 2021

चित्र पर कविता

चित्र पर कविता 
















ज्योति ज्योति ले हाथ में, देख रही है मौन
तोड़ लॉकडाउन खड़ा, दरवाजे पर कौन?
कोरोना के कैरियर, दूँगी नहीं प्रवेश
रख सोशल डिस्टेंसिंग, मान शासनादेश
जाँच करा अपनी प्रथम, कर एकाकीवास
लक्षण हों यदि रोग के, कर रोगालय वास
नाता केवल तभी जब, तन-मन रहे निरोग
नादां से नाता नहीं, जो करनी वह भोग
*
बेबस बाती जल मरी, किन्तु न पाया नाम
लालटेन को यश मिला, तेल जला बेदाम
*
संजीव
९४२५१८३२४४

सोमवार, 27 अप्रैल 2020

चित्र पर कविता :


चित्र पर कविता : समस्यापूर्ति 

चित्र में ये शामिल हो सकता है: आकाश, ट्विलाइट, बाहर और प्रकृति

नभ के दिल में आग लगी या उषा आज शरमाई है
सूरज छैला ने लैला से अँखियाँ आज मिलाई है
चढ़ा पेड़ पर बाँका खुद या आसमान से कूद पड़ा
शोले बीरू और बसंती, कथा गई दोहराई है

शनिवार, 5 सितंबर 2015

चित्र पर कविता










एक अभिनव अनुष्ठान:
प्रसंग है एक नवयुवती छज्जे पर क्रोधित मुख मुद्रा में है।
उसे देखकर लग रहा है कि जैसे वह छत से कूदकर आत्महत्या करने वाली है।
विभिन्न कवियों से अगर इस पर लिखने को कहा जाता तो वो कैसे लिखते ?
___________________________________
मैथिलीशरण गुप्त
अट्टालिका पर एक रमणी अनमनी सी है अहो
किस वेदना के भार से संतप्त हो देवी कहो?
धीरज धरो संसार में, किसके नही दुर्दिन फिरे
हे राम! रक्षा कीजिए, अबला न भूतल पर गिरे।
___________________________
रामधारी सिंह दिनकर
दग्ध ह्रदय में धधक रही,
उत्तप्त प्रेम की ज्वाला,
हिमगिरी के उत्स निचोड़,
फोड़ पाताल, बनो विकराला,
ले ध्वन्सो के निर्माण त्रान से,
गोद भरो पृथ्वी की,
छत पर से मत गिरो,
गिरो अम्बर से वज्र सरीखी.
_____________________
श्याम नारायण पांडे
ओ घमंड मंडिनी, अखंड खंड मंडिनी
वीरता विमंडिनी, प्रचंड चंड चंडिनी
सिंहनी की ठान से, आन बान शान से
मान से, गुमान से, तुम गिरो मकान से
तुम डगर डगर गिरो, तुम नगर नगर गिरो
तुम गिरो अगर गिरो, शत्रु पर मगर गिरो।
__________________________
गोपाल दास नीरज
रूपसी उदास न हो, आज मुस्कुराती जा
मौत में भी जिन्दगी, के फूल कुछ खिलाती जा
जाना तो हर एक को, यद्यपि जहान से यहाँ
जाते जाते मेरा मगर, गीत गुनगुनाती जा..
___________________________
गोपाल प्रसाद व्यास
छत पर उदास क्युं बैठी है
तू मेरे पास चली आ री ।
जीवन का सुख दुख कट जाये ,
कुछ मैं गाऊं,कुछ तू गा री। तू
जहां कहीं भी जायेगी
जीवन भर कष्ट उठायेगी ।
यारों के साथ रहेगी तो
मथुरा के पेडे खायेगी।
___________________
सुमित्रानन्दन पंत
स्वर्ण सौध के रजत शिखर पर
चिर नूतन चिर सुन्दर प्रतिपल
उन्मन उन्मन अपलक नीरव
शशि मुख पर कोमल कुन्तल पट
कसमस कसमस चिर यौवन घट
पल पल प्रतिपल
छल छल करती ,निर्मल दृग जल
ज्यों निर्झर के दो नीलकमल
यह रूप चपल, ज्यों धूप धवल
अतिमौन, कौन?
रूपसि बोलो,प्रिय, बोलो न?
______________________
काका हाथरसी
गोरी छज्जे पर चढ़ी, कूदन को तैयार
नीचे पक्का फर्श है, भली करें करतार
भली करें करतार, सभी जन हक्का बक्का
उत चिल्लाये सास, कैच ले लीजो कक्का
कह काका कविराय, अरी मत आगे बढ़ियो
उधर कूदियो नार, मुझे बख्शे ही रहियो।
__________________________
उपरोक्त कविताओं के रचनाकार ओम प्रकाश 'आदित्य' जी हैं. इस प्रसंग पर वर्तमान कवि भी अपनी बात कहें तो अंडंड में वृद्धि होगी.
इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव 'अम्बर'
गोरी छज्जे पर चढ़ी, एक पांव इस पार.
परिवारीजन काँपते, करते सब मनुहार.
करते सब मनुहार, बख्श दे हमको देवी.
छज्जे से मत कूद. मालकिन हम हैं सेवी.
तेरा ही है राज, फँसा मत हमको छोरी.
धाराएँ बहु एक, लगा मत हम पर गोरी..
छोड़ूंगी कतई नहीं, पहुँचाऊंगी जेल.
सात साल कुनबा सड़े, कानूनी यह खेल.
कानूनी यह खेल, पटकनी मैं ही दूंगी.
रहूँ सदा स्वच्छंद, माल सारा ले लूंगी.
लेकर प्रेमी साथ, प्रेम-रुख मैं मोड़ूंगी.
होगी अपनी मौज, तुम्हें क्योंकर छोड़ूंगी..
लड़की करती मौज है, लड़के का हो खून.
एक आँख से देखता, एक-पक्ष क़ानून.
एक-पक्ष क़ानून, मुक़दमे फर्जी होते.
पुलिस कचेहरी मस्त, नित्यप्रति लड़के रोते.
लुट जाता घर बार, हाथ आती बस कड़की.
करना नहीं विवाह, देखना मत अब लड़की..
_______________________________
बुआश्री महीयसी महादेवी वर्मा से क्षमा प्रार्थना सहित
क्यों कूदूँ मैं छत से रे?
तुझ में दम है तो आ घर में बात डैड से कर ले रे!
चरण धूल अम्मा की लेकर माँग आप ही भर ले रे!
पदरज पाकर तर जायेगा जग जाएगा भाग रे!
देर न कर मेरे दिल में है लगी विरह की आग रे!
बात न मानी अगर समझ तू अवसर जाए चूक रे!
किसी सुर के दिल को देगी छेद नज़र बंदूक रे!
कई और भी लाइन में हैं सिर्फ न तुझसे प्यार रे! प्रिय-प्रिय जपते तुझ से ढेरों करते हैं मनुहार रे!
मेरी समिधा:
स्थिति १ :
सबको धोखा दे रही, नहीं कूदती नार
वह प्रेमी को रोकती, छत पर मत चढ़ यार
दरवाज़े पर रुक ज़रा, आ देती हूँ खोल
पति दौरे पर, रात भर, पढ़ लेना भूगोल
स्थिति २
खाली हाथों आये हो खड़े रहो हसबैंड
द्वार नहीं मैं खोलती बजा तुम्हारा बैंड
शीघ्र डिनर ले आओ तो दोनों लें आनंद
वरना बाहर ही सहो खलिश, लिखो कुछ छंद
स्थिति ३:
लेडी गब्बर चढ़ गयी छत पर करती शोर
मम्मी-डैडी मान लो बात करो मत बोर
बॉय फ्रेंड से ब्याह दो वरना जाऊँ भाग
छिपा रखा है रूम में भरवा लूँगी माँग
भरवा लूँगी माँग टापते रह जाओगे
होगा जग-उपहास कहो तो क्या पाओगे?
कहे 'सलिल' कवि मम्मी-डैडी बेबस रेड़ी
मनमानी करती है घर-घर गब्बर लेडी
*
सभी साथी अपनी समिधा हेतु साथी आमंत्रित हैं.
टीप: महीयसी की मूल रचना:
क्या पूजा क्या अर्चन रे!
उस असीम का सुंदर मंदिर मेरा लघुतम जीवन रे!
मेरी श्वासें करती रहतीं नित प्रिय का अभिनन्दन रे!
पदरज को धोने उमड़े आते लोचन में जलकण रे!
अक्षत पुलकित रोम, मधुर मेरी पीड़ा का चन्दन रे!
स्नेहभरा जलता है झिलमिल मेरा यह दीपक-मन रे!
मेरे दृग के तारक में नव उत्पल का उन्मीलन रे!
धूप बने उड़ते जाते हैं प्रतिपल मेरे स्पंदन रे
प्रिय-प्रिय जपते अधर, ताल देता पलकों का नर्तन रे!

मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

चित्र पर कविता पानी


चित्र पर कविता%
निम्न चित्र को देखिए& पानी के लिए संघर्ष] नारियों का जीवट] पत्थर फोड़ कर निकलता पानी आदि विविध आयाम समेटे चित्र पर अपने मनोभावों को केंद्रित कीजिए और लोहा मनवाइए अपनी कलम के पानी का ---




पानी पानी हो रहा] पानी देख प्रयास-
श्रम के चरण पखारता] जी में भरे हुलास--

कोशिश पानीदार है]  जीवट का पर्याय-
एक साथ मिल लिख रही]  नारी नव अध्याय--

आँखों में पानी हया] लाज] शर्म] संकोच-
आँखों का पानी न ले ] और न दे उत्कोच--

आँखों से पानी गिरे] धरती जाए डोल-
पानी उतरे तो नहीं] मोती का कुछ मोल--

पानी का सानी नहीं]  रखिए  सलिल  संभाल-
फोड़ वक्ष पाषाण का]  बहे उठाकर भाल--

नभ  गिरि  भू  सागर किए]  जब पानी ने एक-
त्राहि त्राहि जग कर उठें]  रक्षा करे विवेक--

अनाचार जाता नहीं] क्यों पानी में डूब-
सदाचार क्यों दूबवत]  जड़ न जमाता खूब--

बिन अमृत भी ज़िंदगी] खुशियों का आगार-
निराकार पानी बिना हो जाता साकार--

मटकी धर मटकी कमर] लचकी मटकी साथ-
हाथ लगाने जो नहीं] आते रहें अनाथ--

काई-फिसलन मानतीं- संयम&सम्मुख हार-
अंगद सा पग जमाकर मुस्काती है नार--

पानी भू के गर्भ में] छिपा इस तरह आज-
करे सासरा तज बहू] ज्यों मैके में राज--

 &&&&&&&&
सन्तोष कुमार सिंह
 
चित्र पर कविता
कहो नहीं हमको अबलायें हम सबलायें हैं।
गिरिवर के रिसते जल से घट भर-भर लायें हैं।।
 
जीवन के इस महायज्ञ में हमको श्रम करना।
टेढ़े-मेड़े पथ पर हमको, निशदिन है चढ़ना।।
 
जीवन की हर डगर कठिन पर मानें हार नहीं।
अगर होंसला मंजिल पाना है दुश्वार नहीं।।
 
जल भरते या कहीं और भी जब-जब हम भेंटे।
एक दूसरे से सुख-दुःख की चर्चा कर लेते।।
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
मधु 
 
पानी की एक बूँद को तरसे  नर और नार 
जीवन और मरण के बीच पानी की दौड़ 
न्याय ये कौनसा  किस ईश्वर का काम 
कही बहता मिटटी में पानी और कहीं 
मिटटी निचोड़ , बचाए प्राणों की प्यास 
 
0000
कमल




 दोहे
शिला चीर पानी बहे बुझे सभी की प्यास
यह पनघट नित घट भरे फिरे न कोइ उदास
कठिन परिश्रमशील है गिरि का नारि समाज
घर तक दूरी तय करें  घट भर सर पर साध
सखियाँ मिल बतिया रहीं हुलसित पनघट तीर
दुःख  सुख बाँटें साथ मिल बहे  चरण तल नीर
ऊंची  नीची चट्टाने दुर्गम पहाड़ की राह
माथे धरतीं चरण वे, देखि नारि उत्साह
कई अभावों से घिरा  इनका जीवन क्रम
चित्र यही चित्रित करे धन्य है इनका श्रम
000

मंगलवार, 12 मार्च 2013

चित्र पर कविता : संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता :

प्रस्तुत है एक दिलचस्प चित्र। इसका अवलोकन करें और लिख भेजें अपने मनोभाव



चित्र पर कविता :

सामयिक रचना:
१. अन्दर बाहर
संजीव 'सलिल'
*
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये अपनों पर नहीं भौकते,
वे अपनों पर गुर्राते हैं.
ये खाते तो साथ निभाते,
वे खा-खाकर गर्राते हैं.
ये छल करते नहीं किसी से-
वे छल करते, मुटियाते हैं.
ये रक्षा करते स्वामी की,
वे खुद रक्षित हो जाते हैं. 
ये लड़ते रोटी की खातिर
उनमें लेकिन मेल हो रहा
अन्दर-बाहर खेल हो रहा...
*
ये न जानते धोखा देना,
वे धोखा दे ठग जाते हैं.
ये खाते तो पूँछ हिलाते,
वे मत लेकर लतियाते हैं.
ये भौंका करते सचेत हो-
वे अचेत कर हर्षाते हैं.
ये न खेलते हैं इज्जत से,
वे इज्जत ही बिकवाते हैं. 
ये न जोड़ते धन-दौलत पर-
उनका पेलमपेल हो रहा.
अन्दर बाहर खेल हो रहा...
*

२. एक विधान
सन्तोष कुमार सिंह
 *
 घूमा करते तुम कारों में,
हम आवारा घूम रहे।
हम रोटी को लालायत हैं,
तुम नोटों को चूम रहे।।
भूख के मारे पेट पिचकता,
हमको तुम भी भूल गए,
तुमको खाने इतना मिलता,
पेट तुम्हारे फूल गए।।
मानव सेवा हमने की है,
वफादार कहलाते हम।
लेकिन खाते जिस थाली में,
करते छेद उसी में तुम।।
जल-जंगल के जीवों को तो,
आप सुरक्षा करो प्रदान।
जिससे हो कल्याण हमारा,
रच दो ऐसा एक विधान।।

santosh kumar ksantosh_45@yahoo.co.in
॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
3. एक रचना
एस.एन.शर्मा 'कमल'
 *

हमारे माननीय सत्ता  भवन में
भारी बहस  के बाद बाहर आ रहे है
वहाँ बहुत भौंकने के बाद थक गए
अब खुली हवा खा रहे हैं
 हर रंग और ढंग के  मिलेंगे यह सभी 
कुछ सफेदपोश
 कुछ काले लबादे ओढे विरोधी 
तो कुछ नूराँ कुश्ती वाले भदरंगी
सत्ता को डरा धमाका कर  यह 
कुछ टुकड़े ज्यादह पा जाते हैं 
विरोध में भौंकते नहीं अघाते हैं
पर सत्ता को गिराने वाले
 मौको पर कन्नी काट जाते हैं
सत्ता के पक्षमें तब दुम हिलाते हैं
कुत्ते की जात दो कौड़ी की हाँडी में
पहचानी जाती  है
पर इनकी हांडी करोड़ों में  खरीदी
और  बेची जाती है

कुछ कुत्ते जेल भवन और 
सत्ता भवन आते जाते  हैं
जेल में भी सत्ता के दामाद जैसी
खातिर पाकर मौज उड़ाते हैं
हर जगह  अधिकारी कर्मचारी 
सलाम बजाते हैं

इन कुत्तों की  महिलाओं से नहीं बनती
वे रसोई से लेकर  सड़क तक
इनसे डरती हैं
मंहगाई और बलात्कार तक इनकी
तूती  बजती   है 
इसलिए इनसे कन्नी काट कर
जैसा चित्र में है 
किनारे किनारे चला करतीं

अब  यह डाइनिग हाल में
छप्पन भोग चखने जायेंगे
बाहर इनको चुनने वाले
बारह रुपये की  एक रोटी सुन
भूखे  रह जायेंगे
 न सम्हले हैं न सम्हलायेंगे 
पांच साल बाद फिर
इन्हें  चुन लायेंगे

*
४. कुछ सतरें ---
   प्रणव भारती 
*

किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे  हैं,हमरे जीवन -प्राण खो गए । 

धूप में हमको खड़ा कर गए,छप्पन भोग का देकर लालच,
खुद ए .सी में जा बैठे हैं,कड़ी धूप  में हमें सिकाकर । 
एक नजर न फेंकी हम पर कैसे दोस्त हैं हमने जाना ,
आज समझ लेंगे हम उनको ,जिनको अब तक न पहचाना । 
कारों में भी 'लॉक ' लगाकर ड्राइवर जाने कहाँ खो गये। 
कैसी बेकदरी कर दी है,आज तो हम सब  खफा हो गये।

कन्या एक चली है बाहर,जाने क्या लाई अंदर से?
हम तो जो हैं ,सो हैं मितरा ,तुम क्यों खिसियाए बन्दर से? 
तुमने तो वादों की पंक्ति खड़ी करी थी हमरे सम्मुख,
अब क्यों छिप बैठे हो भीतर ,न जानो मित्रों का दुःख-सुख।
चले थे जब हम सभी घरों  से ,कैसे खिलखिलकर हंसते थे,
यहाँ धूप में सुंतकर हम सब गलियारों की ख़ाक बन गए । 

किस मुंह से बतलाएँ सबको कैसे-कैसे दोस्त हो गए,
सारे भीतर जा बैठे  हैं,हमरे जीवन-प्राण खो गए ॥ 
*
किरण 
*
ऐ सफ़ेद पोषक वालों!
निवेदन करने आयें हैं तुमसे,
सीख लिया तुमने
भोंकना, झगडना और गुर्राना,
और कुछ पाने के लिए दुम हिलाना
लेकिन एक गुजारिश है
सीख लो कुछ वफ़ादारी हमसे,
पूरी जाति हो रही है बदमान तुमसे !
kiran yahoogroups.com
*            
 



शनिवार, 12 जनवरी 2013

चित्र पर कविता: सहयोग




चित्र पर कविता: सहयोग  


चित्र पर कविता:
सहयोग

संजीव 'सलिल'
*
मैं-तुम मिलकर हम हुए, हर बाधा कर दूर.
अपनी मंजिल पायेंगे, कर कोशिश भरपूर..
*
एक रुके दूजा बढ़े, थामे कसकर बाँह.
धूप संकटों की हटे, मिले सफलता-छाँह..
*
नन्हें-नन्हें पग रखें, मग पर डग चुपचाप.
मुक्ति युक्ति से पा रहे, बाधा जय कर आप..
*
काश बड़े भी कर सकें, आपस में सहयोग.
मतभेदों का मिट सके, पल में घातक रोग..
*
पाठ पढ़ाओ कम- करो, अधिक श्रेष्ठ व्यवहार.
हर संकट के सामने, तब हो तारणहार..
*
______________________________



प्रणव भारती 

चलो सीख लें आज कुछ इन नन्हों से हम,
मिलकर मुश्किल दूर हों,साथ चलें जब हम।
कोई बाधा न रहे ,जब सब हों हम साथ,
आओ देदो तुम मुझे अपना यह  विश्वास।
जीवन की गति है यही ,उजियारे संग रात ,
रात बीतते भोर है,जीवन है सौगात।
पल-पल आते कष्ट हैं,दे जाते आघात,
तुमसा जो साथी मिले ,तो फिर क्या है बात!!
नन्हे -नन्हे पाँव हैं,सोच बहुत है विशाल,
तेरा-मेरा कुछ नहीं ,नहीं कोई जंजाल।
सब सबके दुःख-सुख की पहचानें जो तान,
जीवन बन जाए मधुर ,बन जाए पहचान ।।
____________________________                
               

मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

चित्र पर कविता: विश्राम

चित्र पर कविता:
विश्राम  

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी में संवाद, स्वल्पाहार,
दिल-दौलत, प्रकृति, ममता,  पद-चिन्ह, जागरण,  परिश्रम, स्मरण, उमंग, सद्भाव, रसपान आदि के पश्चात् प्रस्तुत है नया चित्र  विश्राम . ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

Photo: bhool gaye is chaar paai ka maza aur  neem ki chhanv 

चिर - विश्राम
एस. एन. शर्मा कमल 

वीराने में पडी हुई जाने कब से एकाकी खाट
कभी न आने वाले की शायद जोह रही है बाट

सुधियों की कितनी गाँठे अंतस में लिए हुए है
सुख दुःख की कितनी घरिओं के आंसू पिए हुए है

इसके बोझिल ताने बाने में कितनी पीर समाई है
कितने सपने कितने निश्वासों की लिए गवाही है

झेल रही है बियाबान में अब सूनेपन का अभिशाप
किसी परित्यकता दमयंती सी मूर्र्छित तरुतले खाट

_________________________________________

खटिया माई 

प्रणव भारती 


       कुछ सहमी  हो,कुछ झुंझलाई ,
       चुप -चुप सी हो खटिया माई ।
       खबर मुझे है चढकर तुम पर, 
       बच्चों ने की हाथापाई ।
                 तुम भी हल्ला मचा रही थीं,
                  चीख और चिल्ला रहींथी।
                  झूठ न बोलो खटिया रानी ,
                  उन्हें डांट  तुम पिला रही थीं । 
        फिर उनके जाने पर हो चुप ,
        गुमसुम सी हो,हो तुम गुपचुप।
        कल सब बच्चे फिर आयेंगे,
        हँसेंगे और तुम्हें हँसायेंगे । 
                  घने वृक्ष की इस छाया में ,
                  तुम भी ज़रा करो विश्राम,
                  जब तक बच्चे फिर आ करके,
                  न करदें तुमको हैरान।।

________________________________
 संतोष भाऊवाला
 
खेत में बिछी एक अकेली खटिया,
कर रही श्रमिक से मन की बतिया
 
माथे पर तेरे चिलक रहे श्रम कण
पड़ रही सूरज की तिरछी किरण 
 
भोर की पहली किरण संग जाग 
किया पुरे दिन तूने अथक परिश्रम 
 
अब वटवृक्ष की घनी छाँव तले 
घडी भर ले ले तनिक विश्राम
 
होगा तुझमे नव् ऊर्जा का  संचार 
मै भी इतरा लूंगी निज भाग्य पर 
 __________________________
   

रविवार, 25 नवंबर 2012

चित्र पर कविता: रसपान

चित्र पर कविता:
रसपान

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम, ९. स्मरण, १०. उमंग तथा ११ सद्भाव  के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र रसपान. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

apple blossoms and butterfly macro 

कली-पुष्प रसमय हुए, पवन तरंगित देख।
तितली ने रस पान कर, पढ़ा प्रणय का लेख।।

हुलस-पुलक तितली हुई, पुष्पों पर बलिहार।
पुष्प-पंखुड़ियों ने किया, स्वागत हुईं निसार।।

रंग प्रणय का चढ़ गया, फूल उठे हैं फूल।
फूल न तितली छरहरी, गयी वृंत पर झूल।।  

तितली का स्वागत करे, फूल कहे आदाब।
गुनगुनकर तितली कहे, सत्य हो गया ख्वाब।।

 कौन हुआ है किस पर यहाँ, मुग्ध बताये कौन?
गान-पान रस का करें, प्रणयी होकर मौन।।

**********
इंदिरा प्रताप 

रसपान
*
पी के हो मस्त
रूप - रस - गंध
सब एक संग
उड़ गई लो उड़ गई
तितीलिका -
ले के सब संग |
 
रह गया बेचारा
देख फूल दंग
कैसा तेरा ढंग
खिल रहा हू डाल पर
फिर भी हो मगन
सहयोगियों के संग |
 
डाल डाल झूल रहा
मन ही मन फूल रहा
सिहर रहे गात हैं
संग तेरा साथ है
कब तक ,कब तक
हे प्रभु, कैसा ये प्रसंग है |
 
***

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

चित्र पर कविता: १२ दोहा गीत :.प्रकृति संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: १२  
प्रकृति 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम, ९. स्मरण, १०. उमंग तथा ११ सद्भाव  के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र १२. प्रकृति. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

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दोहा गीत :.प्रकृति
संजीव 'सलिल'
[छंद: दोहा, द्विपदी मात्रिक छंद, पद:२, चरण:४( २ सम-२ विषम), कलाएं: ४८(सम चरण में ११-११, विषम चरण में १३-१३)]
सघन तिमिर की कोख से, प्रगटे सदा उजास.
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
रक्त-पीत नीलाभ नभ, किरण सुनहरी आभ.
धरती की दहलीज़ पर, लिखतीं चुप शुभ-लाभ..

पवन सुनाता जागरण-गीत, बिखेरे हास.
गिरि शिखरों ने विनत हो, कहा: न झेलो त्रास..
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
हरियाली की क्रोड़ में, पंछी बैठे मौन.
स्वागत करते पर्ण पर, नहीं पूछते कौन?

सब समान हैं आम हो, या आगंतुक खास.
दूरी जिनके दिलों में, पलती- रहें उदास.
पौ फटते विहँसे उषा, दे सौगात हुलास..
*
कलकल कलरव कर रही, रह किलकिल से दूर.
'सलिल'-धार में देख निज, चेहरा लगा सिन्दूर..

प्राची ने निज भाल पर, रवि टाँका ले आस.
जग-जीवन को जगाकर, दे सौगात हुलास..
*******

चित्र पर कविता: हाइकु

सद्भाव 

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम, ९. स्मरण तथा १०. उमंग के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र ११. सद्भाव. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.


हाइकु 

संजीव 'सलिल'
*
कौन हो तुम?
पीठ फेर हो खड़े 
मौन हो तुम।
*
बड़े हो तुम?
क्यों न करते बात 
अड़े हो तुम। 
*
हम हैं छोटे
दूरी करते दूर 
तुम हो खोटे। 
*
कैसे मानव?
मिटाया न अंतर 
हो अमानव।
*
मैं और तुम 
हमेशा मुस्कुरायें 
हाथ मिलायें। 
*
गिला  भुलायें 
गले से मिल गले 
खिलखिलायें।
*
हम हैं अच्छे 
दिल से मिला दिल 
मन के सच्चे।
*******
 
 
 

चित्र पर कविता: उमंग हाइकु: संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता: १०
उमंग

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १. संवाद, २. स्वल्पाहार,
३. दिल-दौलत, ४. प्रकृति, ५ ममता,  ६.  पद-चिन्ह, ७. जागरण, ८. परिश्रम तथा ९. स्मरण के पश्चात् प्रस्तुत है चित्र १० . उमंग. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.



हाइकु:
संजीव 'सलिल'
*
उमंग छाई
तन-मन विहँसा
विधि मुस्काई.
*
बजे मृदंग
दिशाएँ झूम उठीं
बरसे रंग.
*
तरंगित है
तन-मन जीवन
उमंगित है.
*
बिखेरें रंग
हँसे धरा-गगन
गाए अभंग.
*

शनिवार, 28 जुलाई 2012

चित्र पर कविता: संजीव 'सलिल'

चित्र पर कविता:

संजीव 'सलिल'



दिल दौलत की जंग में, किसकी होगी जीत?
कौन बता सकता सखे!, किसको किससे प्रीत??
किसको किससे प्रीत परख का पैमाना क्या?
रूहानी-जिस्मानी रिश्ता मन बहाना क्या??
'सलिल' न तू रूहानी रिश्ते से हो गाफिल.
जिस्मानी रिश्ता पल भर का मान न मंजिल..
*
तुला तराजू या इसको, बैलेंस कहें हम.
मानें इसकी बात सदा, बैलेंस रहें हम..
दिल-दौलत दोनों से ही, चलती है दुनिया.
जैसे अँगना की रौनक हैं, मुन्ना-मुनिया..
एक न हो तो दूजा उसको, सके ना भुला.
दोनों का संतुलन साधिये, कहे सच तुला..
*
धरती पर पग सदृश धन, बनता है आधार.
नभचुंबी अरमान दिल, करता जान निसार..
तनकर तन तौले तुला, मन को सके न तौल.
तन ही रखता मान जब, मन करता है कौल..
दौलत-दिल तन-मन सदृश, पूरक हैं यह सार.
दोनों में कुछ सार है कोई नहीं निस्सार..
****
तराज़ू

-- विजय निकोर                
*
                    मुझको थोड़ी-सी खुशी की चाह थी तुमसे
                    दी तुमने, पर वह भी पलड़े पर
                                                            तौल कर दी ?

                    मैंने तो कभी हिसाब न रखा था,
                    स्नेह, सागर की लहरों-सा
                    उन्मत्त था, उछल रहा था,
                                                     उसे उछलने दिया ।

                   जो  चाहता, तो  भी  रोक  न  सकता  उसको,
                   सागर के उद्दाम उन्माद पर कभी,
                                    क्या नियंत्रण रहा है किसी का ?

                   भूलती है बार-बार मानव की मूर्च्छा
                   कि तराज़ू के दोनों पलड़ों पर
                   स्नेहमय ह्रदय नहीं होते,
                   दूसरे पलड़े पर सांसारिकता में
                   कभी धन-राशि,
                   कभी विसंगति और विरक्ति,
                   कभी अविवेकी आक्रोश,
                   और, .. और भी तत्व होते हैं बहुत
                   जिनका पलड़ा
                   माँ के कोमल ममत्व से,
                   बहन  की  पावन  राखी से,
                   मित्र के निश्छल आवाहन से
                                 कहीं भारी हो जाता है ।

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