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गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

देवनागरी

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लेख:
देवनागरी लिपि कल, आज और कल  
संजीव वर्मा 'सलिल' 
*
सत्ता और भाषा:   
उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व देश में मुग़ल सत्ता की जड़ें मजबूत करने के लिए अरबी-फारसी और स्थानीय बोलिओं के सम्मिश्रण से सैन्य छावनियों में विकसित हुई 'लश्करी' तथा सत्ता स्थापित हो जाने पर व्यापारियों के साथ कारोबार करने के लिए विकसित हुई बाजारू भाषा 'उर्दू' का प्रभुत्व प्रशासन पर रहा। अदालती और राजकीय कामकाज में उर्दू का बोलबाला होने से उर्दू पढ़े-लिखे लोगों की भाषा बनने लगी। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य खड़ी बोली का अरबी-फारसी रूप ही लिखने-पढ़ने की भाषा होकर सामने आ रहा था। हिन्दी को इससे बड़ा आघात पहुँचा।हिन्दी वाले भी अपनी पुस्तकें फारसी में लिखने लगे थे, जिसके कारण देवनागरी अक्षरों का भविष्य ही खतरे में पड़ गया था। जैसा कि बालमुकुन्दजी की इस टिप्पणी से स्पष्ट होता है-
''जो लोग नागरी अक्षर सीखते थे, वे फारसी अक्षर सीखने पर विवश हुए और हिंदी भाषा हिंदी न रहकर उर्दू बन गयी। हिंदी उस भाषा का नाम रहा जो टूटी-फूटी चाल पर देवनागरी अक्षरों में लिखी जाती थी।''
तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में तो थी। मध्यकाल में अँग्रेज साम्राज्य की जड़ें मजबूत करने के लिए अँग्रेजी के प्रसार-प्रचार का सुव्यवस्थित अभियान चलाया गया। अभिजात्य वर्ग ने विदेशी संप्रभुओं से सादृश्य और सामीप्य की चाह में अंगरेजी पढ़ना-पढ़ाना आरंभ कर दिया। तथापि राष्ट्रीय चेतना का माध्यम हिंदुस्तानी और हिंदी बनने लगी। हिंदी के साथ ही देवनागरी लिपि का भी विकास होता रहा। कुछ प्रमुख कदम निम्न हैं- 
भाषा और राष्ट्रीय चेतना 
देवनागरी लिपि की जड़ें प्राचीन ब्राह्मी परिवार में हैं। गुजरात के कुछ शिलालेखों की लिपि, जो प्रथम शताब्दी से चौथी शताब्दी के बीच के हैं, नागरी लिपि से बहुत मेल खाती है। ७वीं शताब्दी और उसके बाद नागरी का प्रयोग लगातार देखा जा सकता है। सन् १७९६ ई०  में देवनागरी लिपि में मुद्राक्षर आधारित प्राचीनतम मुद्रण (जॉन गिलक्राइस्ट, हिंदुस्तानी भाषा का व्याकरण) कोलकाता से छपा। तब अनेक विचारक, साहित्यकार और समाजकर्मी हिन्दी और नागरी के समर्थन में मैदान में उतरे। हिंदी गद्य की भाषा का परिष्कार और परिमार्जन न हो पाने  भी पर वह खड़ी होने की प्रक्रिया में थी।  सन १८६७ आगरा और अवध राज्यों के कुछ हिंदुओं ने उर्दू के स्थान पर हिंदी को राजभाषा बनाये जाने की माँग की। सन १९६८ में बनारस के बाबू शिवप्रसाद ने 'इतिहास तिमिर नाशक' नामक पुस्तक में मुसलमान शासकों पर भारत के पर फारसी भाषा और लिपि थोपने का आरोप लगाया। सन् १८८१ में बिहार में उर्दू के स्थान पर देवनागरी में लिखी हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। सन् १८८४ में प्रयाग में महामना मदन मोहन मालवीय जी के प्रयास से हिंदी  हितकारिणी सभा की स्थापना की गई। सन् १८९३ ई.में काशी नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना हुई। मेरठ के पंडित गौरी दत्त ने सन् १८९४ न्यायालयों में देवनागरी लिपि के प्रयोग के लिए ज्ञापन दिया जो अस्वीकृत हो गया। २० अगस्त सन् १८९६ में राजस्व परिषद ने एक प्रस्ताव पारित किया कि सम्मन आदि की भाषा एवं लिपि हिंदी  होगी परन्तु यह व्यवस्था कार्य रूप में परिणित नहीं हो सकी। सन् १८९७ में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा गठित समिति ने संयुक्त प्रांत में केवल देवनागरी को ही न्यायालयों की भाषा होने संबंधी माँग ६०,००० हस्ताक्षरों से युक्त प्रतिवेदन अंग्रेज सरकार को देकर की। १५ अगस्त सन् १९०० में  शासन ने निर्णय लिया कि उर्दू के अतिरिक्त नागरी लिपि को भी अतिरिक्त भाषा के रूप में व्यवहृत किया जाए।
न्यायमूर्ति शारदा चरण मित्र ने १९०५ ई. में  लिपि विस्तार परिषद की स्थापना कर भारतीय भाषाओं के लिए एक लिपि (देवनागरी) को सामान्य लिपि के रूप में प्रचलित करने का प्रयास किया। १९०७ में 'एक लिपि विस्तार परिषद' के लक्ष्य को आंदोलन का रूप देते हुए शारदा चरण मित्र ने परिषद की ओर से 'देवनागर' नामक मासिक पत्र निकाला जो बीच में कुछ व्यवधान के बावजूद उनके जीवन पर्यन्त, यानी १९१७ तक निकलता रहा।१९३५ में काका कालेलकर की अध्यक्षता में नागरी लिपि सुधार समिति बनायी गयी। ९ सितंबर १९४९में संविधान के अनुच्छेद ३४३ में संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी निधारित की गयी। सन् १९७५ में आचार्य विनोबा भावे के सत्प्रयासों से नागरी लिपि परिषद्, नई दिल्ली की स्थापना हुई, जो नागरी संगम नामक त्रैमासिक पत्रिका निकालती है। 
भाषा और लिपि 
हिंदी और देवनागरी एक दूसरे से अभिन्न ही नहीं एक दूसरे का पर्याय बनकर तेजी से आगे बढ़ीं। भारत सरकार ने हिंदी के मानकीकरण तथा विकास हेतु सतत प्रयास किए।  संस्कृत, हिंदी, मराठी, उर्दू, सिंधी आदि को लिखने में प्रयुक्त देवनागरी में थोड़ा बहुत अंतर पाया जाता है। फारसी के प्रभावस्वरूप कुछ परंपरागत तथा नवागत ध्वनियों के लिए कुछ लोग नागरी में भी नुक्ते का प्रयोग करते हैं। मराठी लिपि के प्रभाव स्वरूप पुराने 'अ' के स्थान पर 'अ' या 'ओ' 'अु' आदि रूपों में सभी स्वरों के लिए 'अ' ही का प्रयोग होने लगा था। यह अब नहीं होता। अंग्रेजी शब्दों ऑफिस, कॉलेज जैसे शब्दों में ऑ का प्रयोग होने लगा हैं। उच्चारण के प्रति सतर्कता के कारण कभी-कभी हर्स्व ए, हर्स्व ओ को दर्शाने के लिए कुछ लोग (बहुत कम) ऍ, ऑ का प्रयोग करते है। यूनिकोड देवनागरी में सिंधी आदि अन्य भाषाओं को लिखने की सामर्थ्य के लिए कुछ नये 'वर्ण' भी सम्मिलित किए गये हैं (जैसे, ॻ ॼ ॾ ॿ) जो परंपरा गत रूप से देवनागरी में प्रयुक्त नहीं होते थे।
देवनागरी की उत्पत्ति 
नागरी' शब्द की उत्पत्ति के विषय में मतभेद है। कुछ लोग इसकाअर्थ 'नगर की' या 'नगरों में व्यवहत' करतेते हैं। गुजरात के नागर ब्राह्मण अपनी उत्पत्ति आदि के संबंध में स्कंदपुराण के नागर खण्ड का प्रमाण देते हैं। नागर खंड में चमत्कारपुर के राजा का वेदवेत्ता ब्राह्मणों को बुलाकर अपने नगर में बसाया। एक विशेष घटना के कारण चमत्कारपुर का नाम 'नगर' पड़ा और वहाँ जाकर बसे हुए ब्राह्मणों का नाम 'नागर'। नागर ब्राह्मण आधुनिक बड़नगर (प्राचीन आनंदपुर) को ही 'नगर' और अपना मूल स्थान बतलाते हैं। नागरी अक्षरों का नागर ब्राह्मणों से संबंध मानने पर मानना होगा कि ये अक्षर गुजरात नागरब्राह्मणों के साथ ही गए। गुजरात में दूसरी और सातवीं शताब्दी के बीच के बहुत से शिलालेख, ताम्रपत्र आदि मिले हैं जो ब्राह्मी और दक्षिणी शैली की पश्चिमी लिपि में हैं, नागरी में नहीं। 
गुर्जरवंशी राजा जयभट (तीसरे) का कलचुरि (चेदि) संवत् ४५६ (ई० स० ३९९) का ताम्रपत्र  सबसे पुराना प्रामाणिक लेख है जिसमें नागरी अक्षर भी हैं। यह ताम्रशासन अधिकांश गुजरात की तत्कालीन लिपि में है, केवल राजा के हस्ताक्षर (स्वहस्ती मम श्री जयभटस्य) उतरीय भारत की लिपि में हैं जो नागरी से मिलती जुलती है। गुजरात में जितने दानपत्र उत्तर भारत की अर्थात् नागरी लिपि में मिले हैं वे बहुधा कान्यकुब्ज, पाटलि, पुंड्रवर्धन आदि से लिए हुए ब्राह्मणों को ही प्रदत्त हैं। राष्ट्रकूट (राठौड़) राजाओं के प्रभाव से गुजरात में उतरीय भारत की लिपि विशेष रूप से प्रचलित हुई और नागर ब्राह्मणों के द्वारा व्यवहृत होने के कारण वह नागरी कहलाई। यह लिपि मध्य आर्यावर्त की थी जो सबसे सुगम, सुंदर और नियमबद्ध होने कारण भारत की प्रधान लिपि बन गई।
बौद्धों के प्राचीन ग्रंथ 'ललितविस्तर' में उन ६४ लिपियों के नाम गिनाए गए हैं जो बुद्ध को सिखाई गई, उनमें 'नागरी लिपि' नाम नहीं है, 'ब्राह्मी लिपि' नाम हैं। 'ललितविस्तर' का चीनी भाषा में अनुवाद ई० स० ३०८ में हुआ था। जैनों के 'पन्नवणा' सूत्र और 'समवायांग सूत्र' में १८ लिपियों के नाम दिए हैं जिनमें पहला नाम बंभी (ब्राह्मी) है। उन्हीं के भगवतीसूत्र का आरंभ 'नमो बंभीए लिबिए' (ब्राह्मी लिपि को नमस्कार) से होता है। नागरी का सबसे पहला उल्लेख जैन धर्मग्रंथ नंदीसूत्र में मिलता है जो जैन विद्वानों के अनुसार ४५३ ई० के पहले का बना है। 'नित्यासोडशिकार्णव' के भाष्य में भास्करानंद 'नागर लिपि' का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं कि नागर लिपि' में 'ए' का रूप त्रिकोण है (कोणत्रयवदुद्भवी लेखो वस्य तत्। नागर लिप्या साम्प्रदायिकैरेकारस्य त्रिकोणाकारतयैब लेखनात्)। यह बात प्रकट ही है कि अशोकलिपि में 'ए' का आकार एक त्रिकोण है जिसमें फेरफार होते होते आजकल की नागरी का 'ए' बना है। शेषकृष्ण नामक पंडित ने, जिन्हें साढे़ सात सौ वर्ष के लगभग हुए, अपभ्रंश भाषाओं को गिनाते हुए 'नागर' भाषा का भी उल्लेख किया है।
सबसे प्राचीन लिपि भारतवर्ष में अशोक की पाई जाती है जो सिन्ध नदी के पार के प्रदेशों (गांधार आदि) को छोड़ भारतवर्ष में सर्वत्र बहुधा एक ही रूप की मिलती है। अशोक के समय से पूर्व अब तक दो छोटे से लेख मिले हैं। इनमें से एक तो नैपाल की तराई में 'पिप्रवा' नामक स्थान में शाक्य जातिवालों के बनवाए हुए एक बौद्ध स्तूप के भीतर रखे हुए पत्थर के एक छोटे से पात्र पर एक ही पंक्ति में खुदा हुआ है और बुद्ध के थोड़े ही पीछे का है। इस लेख के अक्षरों और अशोक के अक्षरों में कोई विशेष अंतर नहीं है। अतंर इतना ही है कि इनमें दार्घ स्वरचिह्नों का अभाव है। दूसरा अजमेर से कुछ दूर बड़ली नामक ग्राम में मिला हैं महावीर संवत् ८४ (= ई० स० पूर्व ४४३) का है। यह स्तंभ पर खुदे हुए किसी बड़े लेख का खंड है। उसमें 'वीराब' में जो दीर्घ 'ई' की मात्रा है वह अशोक के लेखों की दीर्घ 'ई' की मात्रा से बिलकुल निराली और पुरानी है। जिस लिपि में अशोक के लेख हैं वह प्राचीन आर्यो या ब्राह्मणों की निकाली हुई ब्राह्मी लिपि है। जैनों के 'प्रज्ञापनासूत्र' में लिखा है कि 'अर्धमागधी' भाषा। जिस लिपि में प्रकाशित की जाती है वह ब्राह्मी लिपि है'। अर्धमागधी भाषा मथुरा और पाटलिपुत्र के बीच के प्रदेश की भाषा है जिससे हिंदी निकली है। अतः ब्राह्मी लिपि मध्य आर्यावर्त की लिपि है जिससे क्रमशः उस लिपि का विकास हुआ जो पीछे नागरी कहलाई। मगध के राजा आदित्यसेन के समय (ईसा की सातवीं शताब्दी) के कुटिल मागधी अक्षरों में नागरी का वर्तमान रूप स्पष्ट दिखाई पड़ता है।
ईसा की नवीं और दसवीं शताब्दी से तो नागरी अपने पूर्ण रूप में लगती है। किस प्रकार आशोक के समय के अक्षरों से नागरी अक्षर क्रमशः रूपांतरित होते होते बने हैं यह पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने 'प्राचीन लिपिमाला' पुस्तक में और एक नकशे के द्वारा स्पष्ट दिखा दिया है।
मि० शामशास्त्री ने भारतीय लिपि की उत्पत्ति के संबंध में एक नया सिद्धांत प्रकट किया है। उनका कहना कि प्राचीन समय में प्रतिमा बनने के पूर्व देवताओं की पूजा कुछ सांकेतिक चिह्नों द्वारा होती थी, जो कई प्रकार के त्रिकोण आदि यंत्रों के मध्य में लिखे जाते थे। ये त्रिकोण आदि यंत्र 'देवनगर' कहलाते थे। उन 'देवनगरों' के मध्य में लिखे जानेवाले अनेक प्रकार के सांकेतिक चिह्न कालांतर में अक्षर माने जाने लगे। इसी से इन अक्षरों का नाम 'देवनागरी' पड़ा'।
लगभग ई. ३५० के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएँ लेखन शैली के अनुसार मानी गई हैं। विंध्य से उत्तर की शैली उत्तरी तथा दक्षिण की (बहुधा) दक्षिणी शैली। उत्तरी शैली के प्रथम रूप का नाम "गुप्तलिपि" है। गुप्तवंशीय राजाओं के लेखों में इसका प्रचार था। इसका काल ईसवी चौथी पाँचवीं शती है। कुटिल लिपि का विकास "गुप्तलिपि" से हुआ और छठी से नवीं शती तक इसका प्रचलन मिलता है। आकृतिगत कुटिलता के कारण यह नामकरण किया गया। इसी लिपि से नागरी का विकास नवीं शती के अंतिम चरण के आसपास माना जाता है।
राष्ट्रकूट राजा "दंतदुर्ग" के एक ताम्रपत्र के आधार पर दक्षिण में "नागरी" का प्रचलन संवत् ६७५  (७५४ ई.) में था। वहाँ इसे "नंदिनागरी" कहते थे। राजवंशों के लेखों के आधार पर दक्षिण में १६ वीं शती के बाद तक इसका अस्तित्व मिलता है। देवनागरी (या नागरी) से ही "कैथी" (कायस्थों की लिपि), "महाजनी", "राजस्थानी" और "गुजराती" आदि लिपियों का विकास हुआ। प्राचीन नागरी की पूर्वी शाखा से दसवीं शती के आसपास "बँगला" का आविर्भाव हुआ। ११ वीं शताब्दी के बाद की "नेपाली" तथा वर्तमान "बँगला", "मैथिली", एवं "उड़िया", लिपियाँ इसी से विकसित हुई। भारतवर्ष के उत्तर पश्चिमी भागों में (जिसे सामान्यत: आज कश्मीर और पंजाब कहते हैं) ई. ८ वीं शती तक "कुटिललिपि" प्रचलित थी। कालांतर में ई. १० वीं शताब्दी के आस पास "कुटिल लिपि" से ही "शारदा लिपि" का विकास हुआ। वर्तमान कश्मीरी, टाकरी (और गुरुमुखी के अनेक वर्णसंकेत) उसी लिपि के परवर्ती विकास हैं।
दक्षिणी शैली की लिपियाँ प्राचीन ब्राह्मी लिपि के उस परिवर्तित रूप से निकली है जो क्षत्रप और आंध्रवंशी राजाओं के समय के लेखों में, तथा उनसे कुछ पीछे के दक्षिण की नासिक, कार्ली आदि गुफाओं के लेखों में पाया जाता है। (भारतीय प्राचीन लिपिमाला)। निष्कर्षत: मूल रूप में "देवनागरी" का आदिस्रोत ब्राह्मी लिपि है। यह ब्राह्मी की उत्तरी शैली वाली धारा की एक शाखा है। गुप्तलिपि की भी पश्चिमी और पूर्वी शैली में स्वरूप अंतर है। पूर्वी शैली के अक्षरों में कोण तथा सिरे पर रेखा दिखाई पड़ने लगती है। इसे सिद्धमात्रिका कहा गया है। उत्तरी शाखा में गुप्तलिपि के अनन्तर कुटिल लिपि आती है। मंदसोर, मधुवन, जोधपुर आदि के "कुटिललिपि" कालीन अक्षर "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं। कुटिल लिपि से ही "देवनागरी" से काफी मिलते जुलते हैं।
देवनागरी लिपि मुस्लिम शासन के दौरान भी इस्तेमाल होती रही है। भारत की प्रचलित अतिप्राचीन लिपि देवनागरी ही रही है। विभिन्न मूर्ति-अभिलेखों, शिखा-लेखों, ताम्रपत्रों आदि में भी देवनागरी लिपि के सहस्राधिक अभिलेख प्राप्य हैं, जिनका काल खंड सन १००८  ई. के आसपास है। इसके पूर्व सारनाथ में स्थित अशोक स्तम्भ के धर्मचक्र के निम्न भाग देवनागरी लिपि में भारत का राष्ट्रीय वचन 'सत्यमेव जयते' उत्कीर्ण है। इस स्तम्भ का निर्माण सम्राट अशोक ने लगभग २५० ई. पूर्व में कराया था। मुसलमानों के भारत आगमन के पूर्व से, भारत की देशभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी या उसका रूपान्तरित स्वरूप था, जिसके द्वारा सभी कार्य सम्पादित किए जाते थे।
मुसलमानों के राजत्व काल के प्रारम्भ (सन १२०० ई) से सम्राट अकबर के राजत्व काल (१५५६ ई.-१६०५ ई.) के मध्य तक राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का प्रचलन था। भारतवासियों की फारसी भाषा से अनभिज्ञता के बावजूद उक्त काल में, दीवानी और फौजदारी कचहरियों में फारसी भाषा और उसकी लिपि का ही व्यवहार था। यह मुस्लिम शासकों की मातृभाषा थी।
भारत में इस्लाम के आगमन के पश्चात कालान्तर में संस्कृत का गौरवपूर्ण स्थान फारसी को प्राप्त हो गया। देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भारतीय शिष्टों की शिष्ट भाषा और धर्मभाषा के रूप में तब कुंठित हो गई। किन्तु मुस्लिम शासक देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा की पूर्ण उपेक्षा नहीं कर सके। महमूद गजनवी ने अपने राज्य के सिक्कों पर देवनागरी लिपि में लिखित संस्कृत भाषा को स्थान दिया था।
औरंगजेब के शासन काल (१६५८ ई.- १७०७ ई.) में अदालती भाषा में परिवर्तन नहीं हुआ, राजस्व विभाग में हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि ही प्रचलित रही। फारसी किबाले, पट्टे रेहन्नामे आदि का हिन्दी अनुवाद अनिवार्य ही रहा। औरंगजेब राजत्व काल औरंगजेब परवर्ती मुसलमानी राजत्व काल (१७०७ ई से प्रारंभ) एवं ब्रिटिश राज्यारम्भ काल (२३ जून १७५७ई. से प्रारंभ) में यह अनिवार्यता सुरक्षित रही। औरंगजेब परवर्ती काल में पूर्वकालीन हिन्दी नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हुआ। ईस्ट इंडिया कम्पनी शासन के उत्तरार्ध में उक्त हिन्दी अनुवाद की प्रथा का उन्मूलन अदालत के अमलों की स्वार्थ-सिद्धि के कारण हो गया और ब्रिटिश शासकों ने इस ओर ध्यान दिया। फारसी किबाले, पट्टे, रेहन्नामे आदि के हिन्दी अनुवाद का उन्मूलन किसी राजाज्ञा के द्वारा नहीं, सरकार की उदासीनता और कचहरी के कर्मचारियों के फारसी मोह के कारण हुआ। इस मोह में उनका स्वार्थ संचित था। सामान्य जनता फारसी भाषा से अपरिचित थी। बहुसंख्यक मुकदमेबाज मुवक्किल भी फारसी से अनभिज्ञ ही थे। फारसी भाषा के द्वारा ही कचहरी के कर्मचारीगण अपना उल्लू सीधा करते थे।
शेरशाह सूरी ने अपनी राजमुद्राओं पर देवनागरी लिपि को समुचित स्थान दिया था। शुद्धता के लिए उसके फारसी के फरमान फारसी और देवनागरी लिपियों में समान रूप से लिखे जाते थे। देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी परिपत्र सम्राट अकबर (शासन काल १५५६ ई.- १६०५ ई.) के दरबार से निर्गत-प्रचारित किये जाते थे, जिनके माध्यम से देश के अधिकारियों, न्यायाधीशों, गुप्तचरों, व्यापारियों, सैनिकों और प्रजाजनों को विभिन्न प्रकार के आदेश-अनुदेश प्रदान किए जाते थे। इस प्रकार के चौदह पत्र राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में सुरक्षित हैं। औरंगजेब परवर्ती मुगल सम्राटों के राज्यकार्य से सम्बद्ध देवनागरी लिपि में हस्तलिखित बहुसंख्यक प्रलेख उक्त अभिलेखागार में द्रष्टव्य हैं, जिनके विषय तत्कालीन व्यवस्था-विधि, नीति, पुरस्कार, दंड, प्रशंसा-पत्र, जागीर, उपाधि, सहायता, दान, क्षमा, कारावास, गुरुगोविंद सिंह, कार्यभार ग्रहण, अनुदान, सम्राट की यात्रा, सम्राट औरंगजेब की मृत्यु सूचना, युद्ध सेना-प्रयाण, पदाधिकारियों को सम्बोधित आदेश-अनुदेश, पदाधिकारियों के स्थानान्तरण-पदस्थानपन आदि हैं।
मुगल बादशाह हिन्दी के विरोधी नहीं, प्रेमी थे। अकबर (शासन काल १५५६ ई0- १६०५ ई.) जहांगीर (शासन काल १६०५  ई.- १६२७ ई.), शाहजहां (शासन काल १६२७ ई.- १६५८ ई.) आदि अनेक मुगल बादशाह हिन्दी के अच्छे कवि थे।
मुगल राजकुमारों को हिन्दी की भी शिक्षा दी जाती थी। शाहजहां ने स्वयं दाराशिकोह और शुजा को संकट के क्षणों में हिंदी भाषा और हिन्दी अक्षरों में पत्र लिखा था, जो औरंगजेब के कारण उन तक नहीं पहुंच सका। आलमगीरी शासन में भी हिन्दी को महत्व प्राप्त था। औरंगजेब ने शासन और राज्य-प्रबंध की दृष्टि से हिन्दी-शिक्षा की ओर ध्यान दिया और उसका सुपुत्र आजमशाह हिन्दी का श्रेष्ठ कवि था। मोजमशाह शाहआलम बहादुर शाह जफर (शासन काल १७०७ -१७१२ ई.) का देवनागरी लिपि में लिखित हिन्दी काव्य प्रसिद्ध है। मुगल बादशाहों और मुगल दरबार का हिन्दी कविताओं की प्रथम मुद्रित झांकी 'राग सागरोद्भव संगीत रागकल्पद्रुम' (१८४२-४३ई.), शिवसिंह सरोज आदि में सुरक्षित है।
 "देवनागरी" के आद्यरूपों का निरन्तर थोड़ा बहुत रूपांतर होता गया जिसके फलस्वरूप आज का रूप सामने आया। भारत सरकार का भाष संचालनालय हिंदी भाषा के मानकीकरण हेतु निरंतर प्रयास रत है। हिंदी के प्रति अन्य देशों के निरंतर बढ़ते आकर्षण और वैज्ञानिक-तकनीकी विषयों को हिंदी में अभिव्यक्त करने के लिए भाषा और लिपि को अधिक परिष्कृत और समृद्ध करने की आवश्यकता है।  
                                                                                                                                          (संजीव वर्मा 'सलिल')
                                                                                                                            २०४ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन,
                                                                                                                        जबलपुर ४८२००१, चलभाष ९४२५१ ८३२४४ 
                                                                                                                                 salil.sanjiv@gmail.com
                                                                               



रविवार, 6 जनवरी 2013

जापानी भाषा देवनागरी से सक्षम बनी ?–डॉ. मधुसूदन

जापानी भाषा देवनागरी से सक्षम बनी ?–डॉ. मधुसूदन
clip_image002जापान को देवनागरी की सहायता.
जापानी, हमारी भाषा से कमज़ोर थी.
अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ की नीति अपनायी .
जापानी भाषा कैसे विकसी ?
(१) जापान और दूसरा इज़राएल.
मेरी सीमित जानकारी में, संसार भर में दो देश ऐसे हैं, जिनके आधुनिक इतिहास से हम भारत-प्रेमी अवश्य सीख ले सकते हैं; एक है जापान और दूसरा इज़राएल.
आज जापान का उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ. जापान की जनता सांस्कृतिक दृष्टि से निश्चित कुछ अलग है, वैसे ही इज़राएल की जनता भी. इज़राएल की जनता, वहाँ अनेकों देशों से आकर बसी है, इस लिए बहु भाषी भी है.
मेरी दृष्टि में, दोनों देशों के लिए, हमारी अपेक्षा कई अधिक, कठिनाइयाँ रही होंगी. जापान का, निम्न इतिहास पढने पर, आप मुझ से निश्चित ही, सहमत होंगे; ऐसा मेरा विश्वास है.
(
२) कठिन काम.
जापान के लिए जापानी भाषा को समृद्ध और सक्षम करने का काम हमारी हिंदी की अपेक्षा, बहुत बहुत कठिन मानता हूँ, इस विषय में, मुझे तनिक भी, संदेह नहीं है. क्यों? क्यों कि जापानी भाषा चित्रलिपि वाली चीनी जैसी भाषा है. कहा जा सकता है, (मुझे कुछ आधार मिले हैं उनके बल पर) कि जापान ने परम्परागत चीनी भाषा में सुधार कर उसीका विस्तार किया, और उसीके आधार पर, जपानी का विकास किया.
(
३)जापानी भाषा कैसे विकसी ?
जापान ने, जापानी भाषा कैसे बिकसायी ? जापान की अपनी लिपि चीनी से ली गयी, जो मूलतः चित्रलिपि है. और चित्रलिपि,जिन वस्तुओं का चित्र बनाया जा सकता है, उन वस्तुओं को दर्शाना ठीक ठीक जानती है. पर, जो मानक चित्र बनता है, उसका उच्चारण कहीं भी चित्र में दिखाया नहीं जा सकता. यह उच्चारण उन्हें अभ्यास से ही कण्ठस्थ करना पडता है. इसी लिए उन्हों ने भी, हमारी देवनागरी का उपयोग कर अपनी वर्णमाला को सुव्यवस्थित किया है.
(
४) जापान को देवनागरी की सहायता.
जैसे उपर बताया गया है ही, कि, जपान ने भी देवनागरी का अनुकरण कर अपने उच्चार सुरक्षित किए थे.आजका जापानी ध्वन्यर्थक उच्चारण शायद अविकृत स्थिति में जीवित ना रहता, यदि जापान में संस्कृत अध्ययन की शिक्षा प्रणाली ना होती. जापान के प्राचीन संशोधको ने देवनागरी की ध्वन्यर्थक रचना के आधार पर उनके अपने उच्चारणों की पुनर्रचना पहले १२०४ के शोध पत्र में की थी. जपान ने उसका उपयोग कर, १७ वी शताब्दि में, देवनागरी उच्चारण के आधारपर अपनी मानक लिपि का अनुक्रम सुनिश्चित किया, और उसकी पुनर्रचना की. —(संशोधक) जेम्स बक.
लेखक: देवनागरी के कारण जपानी भाषा के उच्चारण टिक पाए. नहीं तो, जब जापानी भाषा चित्रमय ही है, तो उसका उच्चारण आप कैसे बचा के रख सकोगे ? देखा हमारी देवनागरी का प्रताप? और पढत मूर्ख रोमन लिपि अपनाने की बात करते हैं.
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५) जापान की कठिनाई.
पर जब आदर, प्रेम, श्रद्धा, निष्ठा, इत्यादि जैसे भाव दर्शक शब्द, आपको चित्र बनाकर दिखाने हो, तो कठिन ही होते होंगे . उसी प्रकार फिर विज्ञान, शास्त्र, या अभियान्त्रिकी की शब्दावलियाँ भी कठिन ही होंगी.
और फिर संकल्पनाओं की व्याख्या करना भी उनके लिए कितना कठिन हो जाता होगा, इसकी कल्पना हमें सपने में भी नहीं हो सकती.
इतनी जानकारी ही मुझे जपानियों के प्रति आदर से नत मस्तक होने पर विवश करती है; साथ, मुझे मेरी दैवीदेव नागरीऔर हिंदीपर गौरव का अनुभव भी होता है.
ऐसी कठिन समस्या को भी जापान ने सुलझाया, चित्रों को जोड जोड कर; पर अंग्रेज़ी को स्वीकार नहीं किया.
(६)संगणक पर, Universal Dictionary.
मैं ने जब संगणक पर, Universal Dictionary पर जाकर कुछ शब्दों को देखा तो, सच कहूंगा, जापान के अपने भाषा प्रेम से, मैं अभिभूत हो गया. कुछ उदाहरण नीचे देखिए. दिशाओं को जापानी कानजी परम्परा में कैसे लिखा जाता है, जानकारी के लिए दिखाया है.
निम्न जालस्थल पर, आप और भी उदाहरण देख सकते हैं. पर उनके उच्चारण तो वहां भी लिखे नहीं है.
http://www.japanese-language.aiyori.org/japanese-words-6.html
up =ऊपर—- down=नीचे —-
left=बाएँ—— right= दाहिने
middle = बीचमें front =सामने
back = पीछे —– inside = अंदर
outside =बाहर east =पूर्व
south = दक्षिण 西 west =पश्चिम
north = उत्तर

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७) डॉ. राम मनोहर लोहिया जी का आलेख:
डॉ. राम मनोहर लोहिया जी के आलेख से निम्न उद्धृत करता हूँ; जो आपने प्रायः ५० वर्ष पूर्व लिखा था; जो आज भी उतना ही, सामयिक मानता हूँ.
लोहिया जी कहते हैं==>”जापान के सामने यह समस्या आई थी जो इस वक्त हिंदुस्तान के सामने है. ९०-१०० बरस पहले जापान की भाषा हमारी भाषा से भी कमज़ोर थी. १८५०-६० के आसपास गोरे लोगों के साथ संपर्क में आने पर जापान के लोग बड़े घबड़ाए. उन्होंने अपने लड़के-लड़िकयों को यूरोप भेजा कि जाओ, पढ़ कर आओ, देख कर आओ कि कैसे ये इतने शक्तिशाली हो गए हैं? कोई विज्ञान पढ़ने गया, कोई दवाई पढ़ने गया, कोई इंजीनियरी पढ़ने गया और पांच-दस बरस में जब पढ़कर लौटे तो अपने देश में ही अस्पताल, कारखाने, कालेज खोले.
पर, जापानी लड़के जिस भाषा में पढ़कर आए थे उसी भाषा में काम करने लगे. (जैसे हमारे नौकर दिल्ली में करते हैं,–मधुसूदन) जब जापानी सरकार के सामने यह सवाल आ गया. सरकार ने कहा, नहीं तुमको अपनी रिपोर्ट जापानी में लिखनी पड़ेगी.
उन लोगों ने कोशिश की और कहा कि नहीं, यह हमसे नहीं हो पाता क्योंकि जापानी में शब्द नहीं हैं, कैसे लिखें? तब जापानी सरकार ने लंबी बहस के बाद यह फैसला लिया कि तुमको अपनी सब रिपोर्टैं जापानी में ही लिखनी होंगी. अगर कहीं कोई शब्द जापानी भाषा में नहीं मिलता हो तो जिस भी भाषा में सीखकर आए हो उसी में लिख दो. घिसते-घिसते ठीक हो जाएगा. उन लोगों को मजबूरी में जापानी में लिखना पड़ा.
(
८) संकल्प शक्ति चाहिए.
आगे लोहिया जी लिखते हैं,
हिंदी या हिंदुस्तान की किसी भी अन्य भाषा के प्रश्न का संबंध केवल संकल्प से है. सार्वजनिक संकल्प हमेशा राजनैतिक हुआ करते हैं. अंग्रेज़ी हटे अथवा न हटे, हिंदी आए अथवा कब आए, यह प्रश्न विशुद्ध रूप से राजनैतिक संकल्प का है. इसका विश्लेषण या वस्तुनिष्ठ तर्क से कोई संबंध नहीं.
(
९)हिंदी किताबों की कमी?
लोहिया जी आगे कहते हैं; कि,
जब लोग अंग्रेज़ी हटाने के संदर्भ में हिंदी किताबों की कमी की चर्चा करते हैं, तब हंसी और गुस्सा दोनों आते हैं, क्योंकि यह मूर्खता है या बदमाशी? अगर कॉलेज के अध्यापकों के लिए गरमी की छुट्टियों में एक पुस्तक का अनुवाद करना अनिवार्य कर दिया जाए तो मनचाही किताबें तीन महीनों में तैयार हो जाएंगी. हर हालत में कॉलेज के अध्यापकों की इतनी बड़ी फौज़ से, जो करीब एक लाख की होगी, कहा जा सकता है कि अनुवाद करो या बरखास्त हो जाओ.
संदर्भ: डॉ. लोहिया जी का आलेख, Universal Dictionary, डॉ. रघुवीर
हिंदी हितैषि जापान से क्या सीखें ? –डॉ. मधुसूदन
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(१) जापान ने अपनी उन्नति कैसे की?
जापानी विद्वानों ने जब उन्नीसवीँ शती के अंत में, संसार के आगे बढे हुए, देशों का अध्ययन किया; तो देखा, कि पाँच देश, अलग अलग क्षेत्रों में,विशेष रूप से, आगे बढे हुए थे।
(२) वे देश कौन से थे?
वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
(३) कौन से क्षेत्रो में, ये देश आगे बढे हुए थे?
देश और उन के उन्नति के क्षेत्रों की सूची
जर्मनी{ जर्मनी से जपान सर्वाधिक प्रभावित था।}:
भौतिकी, खगोल विज्ञान, भूगर्भ और खनिज विज्ञान, रसायन, प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, डाक्टरी, औषध विज्ञान, शिक्षा प्रणाली, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र.
Germany: physics, astronomy, geology and mineralogy, chemistry, zoology and botany, medicine, pharmacology, educational system, political science, economics;
फ्रान्स:
प्राणिविज्ञान, वनस्पति शास्त्र, खगोल विज्ञान, गणित, भौतिकी, रसायन, वास्तुविज्ञान (आर्किटेक्चर), विधि नियम, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, जन कल्याण.
France: zoology and botany, astronomy, mathematics, physics, chemistry, architecture, law, international relations, promotion of public welfare;
ब्रिटैन:
मशीनरी, भूगर्भ और खनन(खान-खुदाई) विज्ञान, लोह निर्माण , वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, पशु वर्धन, वाणिज्य, निर्धन कल्याण.
Britain: machinery, geology and mining, steel making, architecture, shipbuilding, cattle farming, commerce, poor-relief;
हॉलंड:
सींचाई, वास्तुविज्ञान, पोत निर्माण, राजनीति विज्ञान, अर्थशास्त्र, निर्धन कल्याण.
Holland: irrigation, architecture, shipbuilding, political science, economics, poor-relief
संयुक्त राज्य अमरिका:
औद्योगिक अधिनियम, कृषि, पशु-संवर्धन, खनन विज्ञान, संप्रेषण विज्ञान, वाणिज्य अधि नियम.
U.S.A.: industrial law, agriculture, cattle farming, mining, communications, commercial law
(Nakayama, 1989, p. 100).
फिर जापान ने इन देशों से उपर्युक्त विषयों का ज्ञान प्राप्त करने का निश्चय किया। अधिक से अधिक जापानियों को ऐसे ज्ञान से अवगत कराना ही उसका उद्देश्य था। जिससे अपेक्षा थी कि सारे जापान की उन्नति हो।
(४) तो फिर क्या, जापान ने सभी जापानियों को ऐसा ज्ञान पाने के लिए अंग्रेज़ी पढायी?
उत्तर: नहीं, यह अंग्रेज़ी पढाने का प्रश्न भी शायद जापान के, सामने नहीं था। क्यों कि जिन ५ देशों से जापान सीखना चाहता था, वे थे हॉलंड, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, और अमरिका।
मात्र अंग्रेज़ी सीखने से इन पाँचो, देशों से, सीखना संभव नहीं था।
दूसरा सभी जापानियों को पाँचो देशों की भाषाएं भी सीखना असंभव ही था।
५) क्या जर्मनी, फ्रांस, और हॉलंड में, अंग्रेज़ी नहीं बोली जाती ? अंग्रेज़ी तो अंतर राष्ट्रीय भाषा है ना?
उत्तर: नहीं। जर्मनी में जर्मन, फ्रांस में फ़्रांसीसी, हॉलण्ड में डच भाषा बोली जाती थी। पर, इंग्लैंड और अमरिका में भी कुछ अलग अंग्रेज़ी का चलन था। उस समय अमरिका भी विशेष आगे बढा हुआ नहीं था, यह अनुमान आप उसके उस समय के, उन्नति के क्षेत्रों को देखकर भी लगा सकते हैं।
६) तो फिर जापान ने क्या किया?
जापान ने बहुत सुलझा हुआ निर्णय लिया। उसके सामने दो पर्याय थे।
७) कौन से दो पर्याय थे?
एक पर्याय था:
सारे जापानियों को परदेशी भाषाओं में पढाकर शिक्षित करें, उसके बाद वे जपानी, परदेशी विषयों को पढकर विशेषज्ञ होकर जपान की उन्नति में योगदान देने के लिए तैय्यार हो जाय।
(८) दूसरा पर्याय क्या था? {जो जापान नें अपनाया }
कि कुछ गिने चुने मेधावी युवाओं को इन पाँचो देशों में पढने भेजे। ये मेधावी छात्र वहाँ की भाषा सीखे, और फिर अलग अलग विषयों के निष्णात होकर वापस आएँ। वापस आ कर उन निष्णातों नें, जो मेधावी तो थे ही, सारे ज्ञान को जापानी में अनुवादित किया, या स्वतंत्र रीति से लिखा। सारी पाठ्य पुस्तकें जापानी में तैय्यार हो गयी।
(९) इसमें जापान का क्या लाभ हुआ?
जापान की सारी जनता को, उन पाँचो देशों की ज्ञान राशि सहजता से जापानी भाषा में उपलब्ध हुयी।
(१०) तो क्या हुआ?
तो प्रत्येक जापानी का किसी विशेष विषय में विशेषज्ञ होने में लगने वाला समय बचा।
करोडों छात्र वर्ष बचे, उतने वर्ष उत्पादन की क्षमता बढी। समृद्धि भी इसी के कारण बढी। छात्र वर्ष बचने के कारण शिक्षा पर शासन का खर्च भी बचा। उतनी ही शीघ्रता से जापान प्रगति कर पाया। जापान का प्रत्येक नागरिक का जीवन मान भी ऊंचा हो पाया। जापानी शीघ्रता से कम वर्ष लगा कर विशेषज्ञ हो गया। अनुमानतः प्रत्येक जापानी के ५-५ वर्ष बचे, तो उतने अधिक वर्ष वह प्रत्यक्ष उत्पादन में लगाता था।
११) एक और विशेष बात हुयी जापान अपनी चित्र लिपि युक्त भाषा भी बचा पाया।
अपनी अस्मिता, राष्ट्र गौरव भी बढा पाया। भाषा राष्ट्र की संस्कृति का कवच कहा जा सकता है। उसके बचने से जापान की अस्मिता भी अखंडित रही होगी।
(१२) मुझे एक प्रश्न सताता है। जब जापान अपनी कठिनातिकठिन चित्रलिपि द्वारा प्रगति कर पाया, तो हम अपनी सर्वोत्तम देव नागरी लिपि के होते हुए भी आज तक कैसे अंग्रेज़ी की बैसाखी पर लडखडा रहे हैं? हमारा सामान्य नागरिक क्यों आगे बढ नहीं पाया है?

मधुसूदनजी तकनीकी (Engineering) में एम.एस. तथा पी.एच.डी. की उपाधियाँ प्राप्त् की है, भारतीय अमेरिकी शोधकर्ता के रूप में मशहूर है, हिन्दी के प्रखर पुरस्कर्ता: संस्कृत, हिन्दी, मराठी, गुजराती के अभ्यासी, अनेक संस्थाओं से जुडे हुए। अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति (अमरिका) आजीवन सदस्य हैं; वर्तमान में अमेरिका की प्रतिष्ठित संस्‍था UNIVERSITY OF MASSACHUSETTS (युनिवर्सीटी ऑफ मॅसाच्युसेटस, निर्माण अभियांत्रिकी), में प्रोफेसर हैं।