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सोमवार, 21 जनवरी 2013

मुक्तक: रूप की आरती संजीव 'सलिल'

मुक्तक


रूप की आरती
संजीव 'सलिल'
*
रूप की आरती उतारा कर.
हुस्न को इश्क से पुकारा कर.
चुम्बनी तिल लगा दे गालों पर-
तब 'सलिल' मौन हो निहारा कर..
*
रूप होता अरूप मानो भी..
झील में गगन देख जानो भी.
देख पाओगे झलक ईश्वर की-
मन में संकल्प 'सलिल' ठानो भी..
*
नैन ने रूप जब निहारा है,
सारी दुनिया को तब बिसारा है.
जग कहे वन्दना तुम्हारी थी-
मैंने परमात्म को गुहारा है..
*
झील में कमल खिल रहा कैसे.
रूप को रूप मिल रहा जैसे.
ब्रम्ह की अर्चना करे अक्षर-
प्रीत से मीत मिल रहा ऐसे..
*
दीप माटी से जो बनाता है,
स्वेद-कण भी 'सलिल' मिलाता है.
श्रेय श्रम को मिले  दिवाली का-
गौड़ धन जो दिया जलाता है.
*
भाव में डूब गया है अक्षर,
रूप है सामने भले नश्वर.
चाव से डूबकर समझ पाया-
रूप ही है अरूप अविनश्वर..
*
हुस्न को क्यों कहा कहो माया?
ब्रम्ह को क्या नहीं यही भाया?
इश्क है अर्चना न सच भूलो-
छिपा माशूक में वही पाया..
*

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

मुक्तक : दिल --संजीव 'सलिल'

मुक्तक :



संजीव 'सलिल'
*
आ के जाने की बात करते हो.
दिल दुखाने की बात करते हो..
छीनकर चैनो-अमन चैन नहीं-
दिल लगाने की बात करते हो..
*



आज हमने भी काम कर डाला.
काम गुपचुप तमाम कर डाला..
दिल सम्हाले से जब नहीं सम्हला-
हँस के दिलवर के नाम कर डाला..
*



चाहतों को मिला है स्वर जबसे..
हौसलों को मिले हैं पर जबसे..
आहटें सुन रहा मुक़द्दर की-
दिल ने दिल में किया है घर जबसे.
*



दिल से दिल को ही चुराऊँ कैसे?
दिल से दिलवर को छिपाऊँ कैसे?
आप मुझसे न गुजारिश करिए-
दिल में दिल को ही बिठाऊँ कैसे??
*



चाहतें जब जवान होती हैं.
ज़िंदगी का निशान होती हैं..
पाँव पड़ते नहीं जमीं पे 'सलिल'-
दिल की धडकन अजान होती है..
*
Acharya Sanjiv verma 'Salil'
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



सोमवार, 4 जून 2012

मुक्तक: -- संजीव 'सलिल'

मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*
१.
हे विधि हरि हर प्यारे भारत को देना ऐसी औलाद.
मक्खन जैसा मन हो जिसका, तन हो दृढ़ जैसे फौलाद.
बोझ न हो जो इस धरती पर, बने सहारा औरों का-
हर्ष लुटाये, दुःख-विषाद जो विहँस सके कंधों पर लाद..
२.
भारत आत्म प्रकाशित होकर सब जग को उजियारा दे.
हर तन को घर आँगन छत दे, मन को भू चौबारा दे.
जड़-चेतन जो जहाँ रह रहे, यथा-शक्ति नित काम करें-
ऐसा जीवन जी जायें जो जन्म-जन्म जयकारा दे..
३.
कंकर में शंकर को देखें, प्रलयंकर से सदा डरें.
किसी आँख के आँसू पोछें, पीर किसी की तनिक हरें.
ज्यादा जोड़ें नहीं, न ही जो बहुत जरूरी वह तज दें-
कर्म-धर्म का मर्म जानकर, जीवन-पथ पर शांति वरें..
४.
मत-मत में अंतर को कोई मंतर दूर न कर सकता.
मन-मन में कुछ भेद न हो सत्पथ कोई भी वर सकता.
तारणहार न कोई पराया, तेरे मन में ईश्वर है-
दीनबंधु बन नर होकर भी तू सुरत्व को वर सकता..
५.
कण-कण में भगवान समाया, खोजे व्यर्थ दूर इंसान.
जैसे थाली में परसे तज, चित्रों में देखे पकवान.
सदय रहे औरों पर, दुःख-तकलीफें गैरों की हर ले-
सुर धरती पर आकर नर का, स्वयं करे बरबस गुणगान..
*


Acharya Sanjiv verma 'Salil'

http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in



सोमवार, 5 मार्च 2012

फागुन के मुक्तक --संजीव 'सलिल'

फागुन के मुक्तक
संजीव 'सलिल'
*

:)) laughing बसा है आपके ही दिल में प्रिय कब से हमारा दिल.
=D> applause बनाया उसको माशूका जो बिल देने के है काबिल..
:)) laughing चढ़ायी भाँग करके स्वांग उससे गले मिल लेंगे-
=D> applause रहे अब तक न लेकिन अब रहेंगे हम तनिक गाफिल..
*
:)) laughing दिया होता नहीं तो दिया दिल का ही जला लेते.
=D> applause अगर सजती नहीं सजनी न उससे दिल मिला लेते..
:)) laughing वज़न उसका अधिक या मेक-अप का कौन बतलाये?
=D> applause करा खुद पैक-अप हम क्यों न उसको बिल दिला लेते..
*
:)) laughing फागुन में गुन भुलाइए बेगुन हुजूर हों.
=D> applause किशमिश न बनिए आप अब सूखा खजूर हों..
:)) laughing माशूक को रंग दीजिए रंग से, गुलाल से-
=D> applause भागिए मत रंग छुड़ाने खुद मजूर हों..
*

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

मुक्तक: --संजीव 'सलिल'

मुक्तक:
संजीव 'सलिल' 
*
कभी न समय एक सा रहता, प्रकृति-चक्र इतना सच कहता.
हार न बाधाओं के आगे, 'सलिल' हमेशा बहता रहता..
अतुल न दुःख, यदि धैर्य अतुल हो, जय पाती मानव की कोशिश-
पग-पग बढ़ता जो वह इन्सां, अपनी मंजिल निश्चय गहता..
*
आया तो है बसंत, जाने मत दीजिये.
साफ़ पर्यावरण हो, ऐसा कुछ कीजिये..
पर्वत, वन, सलिल-धार सुन्दरता हो अपार-
उमाकांत  के दर्शन जी भर फिर कीजिये..
*
सिर्फ प्रेम में मत डूबा रह, पहले कर पुरुषार्थ.
बन किशोर से युवा जीत जग जैसे जीता पार्थ..
कदम-कदम बढ़, हर सीढ़ी चढ़, मंजिल चूमे पैर-
कर संदीपित सारे जग को, प्रेम बने परमार्थ..
*
आया बसंत झूम कर सुरेश गा रहे.
हैं आम खास, नए-नए बौर छा रहे.
धरती का रूप देखिये दुल्हन सजी हुई-
नभ का संदेशा लिए पवन देव आ रहे..

*
नीरज के नाम नीरजा ने भेजी पाती.
लहरें संदेशा ले आई हैं मदमाती.
छवि निरखे गोरी दर्पण में अपनी ही-
जैसे पढ़ती हो लिखकर अपनी पाती..
*
दिल बाग़-बाग़ हो गया है, महमहाइये.
भँवरों ने साज छेड़ दिए गीत गाइए.
ऋतुराज के स्वागत का समय आ गया 'सलिल'-
शेष धर न लीजिये, खुशियाँ लुटाइए..
*
सुनो सुजाता कौन सुखाता नाहक अपनी देह.
भरो कटोरा खीर खिलाओ, हो ना जाए विदेह..
पीपल तले बैठ करता है सकल सृष्टि की चिंता.
आया-छाया है बसंत ले खुशियाँ निस्संदेह..
*
त्रिपाठ मोह स्नेह प्रेम के रटे
इस तरह कदम बढ़े नहीं हटे
पेश की रत्नेश ने सुसंपदा-
बाँट-बाँट कर थका नहीं घटे

भावनाओं का उठा है ज्वार अब
एक हो गयी है जीत-हार अब
मिट गया है द्वेष ईर्ष्या जलन
शेष है अशेष सिर्फ प्यार अब

एक हो गए हैं कामिनी औ' कंत
भूल गए साधना सुसाधु-संत
शब्द के गले कलम लिपट गयी
गीत प्रीत के रचे 'सलिल' अनंत
*
खिल-खिल उठे अरविन्द शत निहारिये.
दूरियों को दिल से अब बिसारिये.
श्री माल कंठ-कंठ में सजाइये
मिल बसन्ती गीत मीत गाइए.
*
नीरव हो न निकुंज चलो अब गायें हम
समस्याएँ हैं अनगिन कुछ सुलझायें हम.
बोधिसत्व आशा का दामन क्यों छोड़ें?
दीप बनें जल किंचित तिमिर मिटायें हम..
*
पूनम का मादक हो बसंत
राणा का हो बलिदानी सा.
खुशियों का ना हो कभी अंत
उत्साह अमित अरमानी सा.
हो गीत ग़ज़ल कुंडलियोंमय
मनहर बसंत लासानी सा.
भारत माता की लाज रखे
बनकर बसंत कुर्बानी सा.
*

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

कुछ मुक्तक : --संजीव 'सलिल'


कुछ मुक्तक

संजीव 'सलिल'
*
मनमानी को जनमत वही बताते हैं.
जो सत्ता को स्वार्थों हेतु भुनाते हैं.
'सलिल' मौन रह करते अपना काम रहो-
सूर्य-चन्द्र क्या निज उपकार जताते हैं?
*
दोस्तों की आजमाइश क्यों करें?
मौत से पहले ही बोलो क्यों मरें..
नाम के ही हैं. मगर हैं साथ जो-
'सलिल' उनके बिन अकेले क्यों रहें?.
*
मौत से पहले कहो हम क्यों मरें?
जी लिए हैं बहुत डर, अब क्यों डरें?
आओ! मधुशाला में तुम भी संग पियो-
तृप्त होकर जग को तरें, हम तरें..
*
दोस्तों की आजमाइश तब करें.
जबकि हो मालूम कि वे हैं खरे..
परखकर खोटों को क्या मिल जायेगा?
खाली से बेहतर है जेबें हों भरे..
*
दोस्तों की आजमाइश वे करें.
जो कसौटी पर रहें खुद भी खरे..
'सलिल' खुद तो वफ़ा के मानी समझ-
बेवफाई से रहा क्या तू परे?
*
क्या पाया क्या खोया लगा हिसाब जरा.
काँटें गिरे न लेकिन सदा गुलाब झरा.
तेरी जेब भरी तो यही बताती है-
तूने बाँटा नहीं, मिला जो जोड़ धरा.
*