कुल पेज दृश्य

hindi poem लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
hindi poem लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 10 मई 2013

hindi poem, geedh, acharya sanjiv verma 'salil'


एक कविता:
गीध 
संजीव 
*
जब 
स्वार्थ-साधन,
लोभ-लालच,
सत्ता और सुविधा तक 
सीमित रह जाए 
नाक की सीध, 
तब 
समझ लो आदमी 
इंसान नहीं रह गया 
बन गया है गीध।
*
Sanjiv verma 'Salil'
salil.sanjiv@gmail.com
http://divyanarmada.blogspot.in

शुक्रवार, 3 मई 2013

hindi poem: pratibha saxena

मन पसंद रचना:
  
शब्द मेरे हैं 

प्रतिभा सक्सेना 
*  

शब्द मेरे हैं 
अर्थ मैंने ही दिये ये शब्द मेरे हैं !
व्यक्ति औ अभिव्यक्ति को एकात्म करते जो ,
यों कि मेरे आत्म का प्रतिरूप धरते हों !
स्वरित मेरे स्वत्व के 
मुखरित बसेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
स्वयं वाणी का कलामय तंत्र अभिमंत्रित,
लग रहा ये प्राण ही शब्दित हुये मुखरित,
सृष्टि के संवेदनों की चित्र-लिपि धारे
सहज ही सौंदर्य के वरदान से मंडित !
शाम है विश्राममय 
मुखरित सबेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
बाँसुरी ,उर-तंत्र में झंकार भरती जो ,
अतीन्द्रिय अनुभूति बन गुंजार करती जो 
निराकार प्रकार को साकार करते जो 
मनोमय हर कोश के 
सकुशल चितेरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
*
व्याप्ति है 'मैं' की जहाँ तक विश्व- दर्पण में ,
प्राप्ति है जितनी कि निजता के समर्पण में 
भूमिका धारे वहन की अर्थ-तत्वों के,
अंजली भर -भर दिशाओं ने बिखेरे हैं !
*
पूर्णता पाकर अहेतुक प्रेम से लहरिल
मनःवीणा ने अमल स्वर ये बिखेरे हैं !
ध्वनि समुच्चय ही न
इनके अर्थ गहरे हैं !
शब्द मेरे हैं !
-

hindi poem: acharya sanjiv verma 'salil'

कविता:


जीवन अँगना को महकाया

संजीव 'सलिल'
*
*
जीवन अँगना को महकाया
श्वास-बेल पर खिली कली की
स्नेह-सुरभि ने.
कली हँसी तो फ़ैली खुशबू
स्वर्ग हुआ घर.
कली बनी नन्हीं सी गुडिया.
ममता, वात्सल्य की पुडिया.
शुभ्र-नर्म गोला कपास का,
किरण पुंज सोनल उजास का.
उगे कली के हाथ-पैर फिर
उठी, बैठ, गिर, खड़ी हुई वह.
ठुमक-ठुमक छन-छननन-छनछन
अँगना बजी पैंजनिया प्यारी
दादी-नानी थीं बलिहारी.
*
कली उड़ी फुर्र... बनकर बुलबुल
पा मयूर-पर हँसकर-झूमी.
कोमल पद, संकल्प ध्रुव सदृश
नील-गगन को देख मचलती
आभा नभ को नाप रही थी.
नवल पंखुडियाँ ऊगीं खाकी
मुद्रा-छवि थी अब की बाँकी.
थाम हाथ में बड़ी रायफल
कली निशाना साध रही थी.
छननन घुँघरू, धाँय निशाना
ता-ता-थैया, दायें-बायें
लास-हास, संकल्प-शौर्य भी
कली लिख रही नयी कहानी
बहे नर्मदा में ज्यों पानी.
बाधाओं की श्याम शिलाएँ
संगमरमरी शिला सफलता
कोशिश धुंआधार की धारा
संकल्पों का सुदृढ़ किनारा.
*
कली न रुकती,
कली न झुकती,
कली न थकती,
कली न चुकती.
गुप-चुप, गुप-चुप बहती जाती.
नित नव मंजिल गहती जाती.
कली हँसी पुष्पायी आशा.
सफल साधना, फलित प्रार्थना.
विनत वन्दना, अथक अर्चना.
नव निहारिका, तरुण तारिका.
कली नापती नील गगन को.
व्यस्त अनवरत लक्ष्य-चयन में.
माली-मालिन मौन मनायें
कोमल पग में चुभें न काँटें.
दैव सफलता उसको बाँटें.
पुष्पित हो, सुषमा जग देखे
अपनी किस्मत वह खुद लेखे.
******************************
टीप : बेटी तुहिना (हनी) का राष्ट्रीय एन.सी.सी. थल सैनिक कैम्प में चयन होने पर पहुँचाने जाते समय रेल-यात्रा के मध्य १४.९.२००६ मध्य रात्रि को हुई कविता.
------- दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

बुधवार, 1 मई 2013

कविता: मीत मेरे संजीव

कविता:

मीत मेरे!

संजीव
*
मीत मेरे!

राह में छाये हों

कितने भी अँधेरे।

चढ़ाव या उतार,

सुख या दुःख

तुमको रहे घेरे।

पूर्णिमा स्वागत करे या

अमावस आँखें तरेरे।

सूर्य प्रखर प्रकाश दे या

घेर लें बादल घनेरे।

रात कितनी भी बड़ी हो,

आयेंगे फिर-फिर सवेरे।

मुस्कुराकर करो स्वागत,

द्वार पर जब जो हो आगत

आस्था का दीप मन में

स्नेह-बाती ले जलाना।

बहुत पहले था सुना

अब फिर सुनाना

दिए से

तूफ़ान का लड़ हार जाना।

=================   

सोमवार, 28 जनवरी 2013

काव्य कुञ्ज: कितना - क्या एस. एन. शर्मा 'कमल'

काव्य कुञ्ज:
कितना  - क्याएस. एन. शर्मा 'कमल'
*

किसको कितनी ममता बाँटी
कितना मौन मुखर कर  पाया
कितने मिले सफ़र में साथी
कितना किसने साथ निभाया 
लेखाजोखा क्या अतीत का
क्या खोया कितना पाया

जीवन  यात्रा के समीकरण
कितने सुलझे कितने उलझे
कितनी बार कहाँ पर अटका
रही न गिनती याद मुझे
जब  आँगन में भीड़ लगी
कितना प्यार किसे  दे पाया

कितने सपने रहे कुवाँरे 
कितने विधुर बने जो  ब्याहे
कितनी साँसें  रहीं अधूरी
कितनी बीत  गईं अनचाहे 
उमर ढल गई शाम हो गई
उलझी गाँठ न सुलझा पाया

सजी  रह गई  द्वार अल्पना 
पल छिन पागल मन भरमाये 
रही जोहती बाट  तुम्हारी
लेकिन प्रीतम तुम ना आये
प्राण-पखेरू उड़े  छोड़  सब
धरी रह गई माया   काया 

जितनी साँसें ले कर  आया 
उन्हें  सजा लूं  गीतों में भर
मुझे  उठा लेना जग-माली
पीड़ा-रहित क्षणों में आ  कर
जग की रीति नीति ने अबतक
मन को  बहुतै नाच नचाया


*****

सोमवार, 21 जनवरी 2013

सामयिक व्यंग्य कविता : राजा नंगा है ॐ प्रकाश तिवारी

सामयिक व्यंग्य कविता : 
राजा नंगा है
ॐ प्रकाश तिवारी 
 
*
राजा जी को 
कौन बताए 
राजा नंगा है ।

आँखों पर मोटी सी पट्टी
मुँह में दही जमा
झूठी जयकारों में उसका
मन भी खूब रमा 

जिस नाले वह
डुबकी मारे 
वो ही गंगा है ।

रुचती हैं राजा के मन को
बस झूठी तारीफें
उसको कोसा करें बला से
आगे की तारीखें

उसके राजकाज में
सच कहना
बस पंगा है

पीढ़ी दर पीढ़ी उसने है
पाया या दर्जा 
ताका करती है उसका मुँह
पढ़ी-लिखी परजा

वह मुस्काए
मुल्क समझ लो
बिल्कुल चंगा है

- ओमप्रकाश तिवारी

--
Om Prakash Tiwari
Chief of Mumbai Bureau
Dainik Jagran
41, Mittal Chambers, Nariman Point,
 Mumbai- 400021

Tel : 022 30234900 /30234913/39413000
Fax : 022 30234901
M : 098696 49598
Visit my blogs :  http://gazalgoomprakash.blogspot.com/
http://navgeetofopt.blogspot.in/
http://kalyugidohe.blogspot.in/
--------------------------------------------------
Resi.- 07, Gypsy , Main Street ,
Hiranandani Gardens, Powai , Mumbai-76
Tel. : 022 25706646

सोमवार, 5 नवंबर 2012

कविता: दीप्ति शर्मा

कविता: 



Deepti Sharma की प्रोफाइल फोटो
 
दीप्ति शर्मा

*
अक्सर सवाल करती हूँ
उन टँगी तस्वीरों से
क्या वो बोलती हैं??
नहीं ना !!
फिर क्यों एक टक
यूँ मौन रह देखतीं हैं मुझे
कि जैसे जानती हैं
हर एक रहस्य जो कैद है
मन के अँधेरे खँड़रों में
क्या जवाब दे सकती हैं
मेरी उलझनों का
कुछ उड़ते हुए
असहाय सवालों का
जो मौन में दबा रखे हैं
शायद कहीं भीतर ।
©

गुरुवार, 18 अक्टूबर 2012

कविता: सुबह-सवेरे इंदिरा प्रताप
















कविता:
सुबह-सवेरे  
इंदिरा प्रताप
*
सुबह सवेरे
छल – छल जल
उमगी एक तरंग
लहर – लहर लहराया
चंचल जल |
भोर – किरण जल थल
खिले सुमन
मृग तृष्णा सा मन
करे नित्य नर्तन |
सन – सन - सन
चली पवन
उड़ा संग ले मन
तन हर्षाया |
कुहू – कुहू की तान
लाया मधुर विहान
दिल भर आया |
रस – रूप – गंध
सब एक संग
हैं तेरे ही अंश
हे ! परमब्रह्म |
सुन्दर, शुभ्र प्रभात
मन भाया
धरती पर
धीरे से
उतर आया |

रविवार, 14 अक्टूबर 2012

कविता: कवि का घर सुशील कुमार

कविता:
कवि का घर
सुशील कुमार
*

 









( उन सच्चे कवियों को श्रद्धांजलिस्वरूप जिन्होंने फटेहाली में अपनी जिंदगी गुज़ार दी | )


किसी कवि का घर रहा होगा वह..  
और घरों से जुदा और निराला
चिटियों से लेकर चिरईयों तक उन्मुक्त वास करते थे वहाँ  
चूहों से गिलहरियों तक को हुड़दंग मचाने की छूट थी  
बेशक उस घर में सुविधाओं के ज्यादा सामान नहीं थे  
ज्यादा दुनियावी आवाज़ें और हब-गब भी नहीं होती थीं   
पर वहाँ प्यार, फूल और आदमीयत ज्यादा महकते थे
आत्माएँ ज्यादा दीप्त दिखती थीं  
साँसें ज्यादा ऊर्जस्वित   
धरती की सम्पूर्ण संवेदनाओं के साथ
प्यार, फूल और आदमीयत की गंध के साथ
उस घर में अपनी पूरी जिजीविषा से
जीता था अकेला कवि-मन बेपरवाह 
चिटियों की भाषा से परिंदों की बोलियाँ तक पढ़ता हुआ  
बाक़ी दुनिया को एक चलचित्र की तरह देखता हुआ  
तब कहीं जाकर भाषा
एक-एक शब्द बनकर आती थी उस कवि के पास
और उसकी लेखनी में विन्यस्त हो जाती थी  
अपनी प्रखरता की लपटों से दूर, स्वस्फूर्त हो
कवि फिर उनसे रचता था एक नई कविता ..|
Photobucket

शनिवार, 13 अक्टूबर 2012

धरोहर : सखि ,वसन्त आया | स्व.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

धरोहर :

इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत, मैथिलीशरण गुप्त, नागार्जुन, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महीयसी महादेवी वर्मा, स्व. धर्मवीर भारती जी, उर्दू-कवि ग़ालिब, कन्हैयालाल नंदन तथा मराठी-कविवर कुसुमाग्रज के पश्चात् अब आनंद लें कवींद्र रवींद्रनाथ ठाकुर की रचना का।

. स्व.सूर्यकांत त्रिपाठी निराला 


*
प्रतिनिधि रचना:
वसन्त पंचमी
               
महाप्राण निराला
सखि ,वसन्त आया |
भरा हर्ष वन के मन ,
नवोत्कर्ष छाया |

किसलय -वसना नव -वय -लतिका 
मिली मधुर प्रिय -उर -तरु -पतिका ,
मधुप -वृन्द बन्दी-
पिक -स्वर नभ सरसाया |

लता -मुकुल -हार -गन्ध -भार भर ,
बही पवन बन्द मन्द मन्दतर ,
जागी नयनों में वन -
यौवन की माया |

आवृत्त सरसी -उर सरसिज उठे ,
केशर के केश कली के छूटे ,
स्वर्ण -शस्य -अंचल 
पृथ्वी का लहराया |
प्रस्तुति:शिशिर 

*

रविवार, 7 अक्टूबर 2012

चित्र पर कविता: 9 स्मरण

चित्र पर कविता: 9 
स्मरण

इस स्तम्भ की अभूतपूर्व सफलता के लिये आप सबको बहुत-बहुत बधाई. एक से बढ़कर एक रचनाएँ अब तक प्रकाशित चित्रों में अन्तर्निहित भाव सौन्दर्य के विविध आयामों को हम तक तक पहुँचाने में सफल रहीं हैं. संभवतः हममें से कोई भी किसी चित्र के उतने पहलुओं पर नहीं लिख पाता जितने पहलुओं पर हमने रचनाएँ पढ़ीं. 

चित्र और कविता की कड़ी १ शेर-शेरनी संवाद, २ स्वल्पाहार,
३ दिल-दौलत, ४ रमणीक प्राकृतिक दृश्य, ५ हिरनी की बिल्ली शिशु पर ममता,  ६ पद-चिन्ह, ७ जागरण 8 परिश्रम के पश्चात प्रस्तुत है चित्र 9 स्मरण. ध्यान से देखिये यह नया चित्र और रच दीजिये एक अनमोल कविता.

मुक्तिका:
स्मरण 
संजीव 'सलिल"
*
मोटा  कांच सुनहरा चश्मा, मानस-पोथी माता जी। 
पीत शिखा सी रहीं दमकती, जगती-सोतीं माताजी।।
*
पापा जी की याद दिलाता, है अखबार बिना नागा।
चश्मा लेकर रोज बाँचना, ख़बरें सुनतीं माताजी।।
*
बूढ़ा तन लेकिन जवान मन, नयी उमंगें ले हँसना।
नाती-पोतों संग हुलसते, थम-चल पापा-माताजी।।
*
इनकी दम से उनमें दम थी, उनकी दम से इनमें दम।
काया-छाया एक-दूजे की, थे-पापाजी-माताजी।।
*
माँ का जाना- मूक देखते, टूट गए थे पापाजी।
कहते: 'मुझे न ले जाती क्यों, संग तुम्हारी माताजी।।'
*
चित्र देखते रोज एकटक, बिना कहे क्या-क्या कहते।
रहकर साथ न संग थे पापा, बिछुड़ साथ थीं माताजी।।
*
यादों की दे गए धरोहर, सांस-सांस में है जिंदा।
हम भाई-बहनों में जिंदा, हैं पापाजी-माताजी।।

Acharya Sanjiv verma 'Salil'
94251  83244 / 0761 2411131
http://divyanarmada.blogspot.com
http://hindihindi.in.divyanarmada
salil.sanjiv@gmail.com









जवाब दें अथवा अग्रेषित करें करने के लिए य

बुधवार, 3 अक्टूबर 2012

सामयिक कविता : कालचक्र -महेंद्र शर्मा.

सामयिक कविता :
कालचक्र
महेंद्र शर्मा.
*
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं,
फिर अतीत के अभिशापों में,कालपुरुष के पांव गड़े हैं...
 
राजनीति के रंगमंच पर,षड्यंत्रों के अनुष्ठान हैं,
फिर भविष्य के उद्घोषक ने, कूटनीति के मंत्र पढ़े हैं.
दशरथ के आसक्ति-जाल से,कैकयी के कोपभवन तक,
कुटिल मंथरा, के मंथन से, रामराज्य के सिंहासन तक,
लक्ष्मण-रेखा की टूटन पर, स्वर्ण-मृगी आखेट हो रहे,
उधर उर्मिला के यौवन के ,विरह-तप्त,अध्याय पड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े है...
*
प्रतिभाओं के कर्ण कैद हैं, दुर्योधन के दुराग्रहों में,
धर्मराज हो रहे पराजित,शकुनियों के द्यूत-ग्रहों में,
चीर-हरण की चर्चाओं में, भीष्म-प्रतिज्ञा बनी विवशता,
पांचाली के अधोवस्त्र तक, दुशाशन के हाथ बढ़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं, खंडित होते पात्र खड़े हैं...
*
सतयुग, द्वापर या त्रेता हो, हर युग में पाखंड रहा है,
किस अतीत पर नतमस्तक हों, हर युग में आतंक रहा है,
पृथ्वी-राजों,के प्रांगण में जयचंदों, के जयकारे हैं,
गौतम-गाँधी की गलियों में, कितने अंगुलिमाल खड़े है.
टूट रही है,मर्यादाएं,खंडित होते पात्र खड़े हैं...
*
जयद्रथों  के वंशज देते शिशुपाली शैली में भाषण,
पांडव हैं अज्ञातवास में, कौरव करते कुटिल आचरण,
सिंहासन के षड्यंत्रों से, विदुर-व्यथा,बन गयी विवशता,
कुरुक्षेत्र में केशव मानो, किकर्तव्य-विमूढ़ खड़े हैं.
टूट रही हैं मर्यादाएं,खंडित होते पात्र खड़े है...
 *
__________________
mahendra sharma <mks_141@yahoo.co.in>                                                                                                      

रविवार, 30 सितंबर 2012

गीत: : अमिताभ त्रिपाठी

रम्य रचना:
          गीत: :

अमिताभ त्रिपाठी
           *
बस इतना ही करना कि
मेरे अचेतन मन में जब तुम्हारे होने का भान उठे
और मैं तुम्हे निःशब्द पुकारने लगूँ
तुम मेरी पुकार की प्रतिध्वनि बन जाना

बस इतना ही करना कि
सर्द रातों में जब चाँद अपना पूरा यौवन पा ले
और मेरा एकाकीपन उबलने लगे
तुम मुझे छूने वाली हवाओं में घुल जाना

बस इतना ही करना कि
स्मृति की वादियों में जब ठंडी गुबार उठे
और मेरे प्रेम का बदन ठिठुरने लगे
तुम मेरे दीपक कि लौ में समा जाना

बस इतना ही करना कि
सावन में जब उमस भरी पुरवाई चले
और मेरे मन के घावों में टीस उठने लगे
तुम अपने गीतों के मरहम बनाना

बस इतना ही करना कि
पीड़ा (तुमसे न मिल पाने की ) का अलख जब कभी मद्धिम पड़ने लगे
और मैं एक पल के लिए भी भूल जाऊं
तुम मेरे मन की आग बन जाना

बस इतना ही करना कि
मेरी साँसें जब मेरे सीने में डूबने लगे
और मैं महा-प्रयाण की तैयारी करने लगूँ
तुम मिलन की आस बन जाना.
_____________________________________
          <pratapsingh1971@gmail.com>




रम्य रचना: शब्द तेरे, शब्द मेरे ... ललित वालिया 'आतिश '

रम्य रचना:
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
ललित वालिया 'आतिश '
*
 
शब्द तेरे, शब्द मेरे ...
परिस्तानी बगुले से,
लेखनी पे नाच-नाच;
पांख-पांख नभ कुलांच ...
मेरी दहलीज़, कभी ...
तेरी खुली खिडकियों पे 
ठहर-ठहर जाते हैं 
लहर-लहर जाते हैं ...
शहर कहीं  जागता है, शहर कहीं  सोता है
और कहीं हिचकियों का जुगल बंद होता है ||
 
'भैरवी' से स्वर उचार ...
बगुले से शब्द-पंख 
पन्नों पे थिरकते से
सिमट सिमट जाते हैं
कल्पनाओं से मेरी...
लिपट लिपट जाते हैं |
गो'धूली बेला  में ...
शब्द सिमट जाते हैं ...
सिंदूरी थाल कहीं झील-झील  डुबकते  हैं ..
और कहीं मोम-दीप बूँद-बूँद सुबकते हैं ||
 
होठों के बीच दबा 
लेखनी की नोक तले 
मीठा सा अहसास 
शब्द यही तेरा है | 
अंगुली के पोरों पे
आन जो बिरजा है,
बगुले सा 'मधुमास' ...
आभास तेरा है | 
मीत कहो, प्रीत कहो, शब्द प्राण छलते हैं
लौ  कहीं  मचलती है, दीप कहीं जलते हैं ||
 
______________________________Lalit Walia <lkahluwalia@yahoo.com>
 

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

धरोहर:३ _नागार्जुन

धरोहर :
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रा नंदन पंत तथा मैथिलीशरण गुप्त के पश्चात् अब आनंद लें नागार्जुन जी की रचनाओं का।

३.स्व.नागार्जुन

प्रस्तुति : इंदिरा प्रताप
*
नर हो न निराश करो मन को
धरोहर के अंतर्गत कवि नागार्जुन की एक कविता प्रस्तुत है| मुझे यह कविता इसलिए पसंद है क्योंकि कवि ने जिन आर्त प्रेम कथाओं का सहारा लेकर इसकी रचना की है उसने कालिदास के माध्यम से अपनें ही अति संवेदनशील हृदय का परिचय दिया है | कोई भी रचना पढ़ते समय हमें उसके लिखे शब्दों को नहीं उस कवि के हृदय को पढ़ना चाहिए, मेरा ऐसा मानना है, कवि नागार्जुन ने इसी सत्य को उजागर किया है|
 




*
धरोहर के अंतर्गत कवि नागार्जुन की एक कविता प्रस्तुत है| मुझे यह कविता इसलिए पसंद है क्योंकि कवि ने जिन आर्त प्रेम कथाओं का सहारा लेकर इसकी रचना की है उसने कालिदास के माध्यम से अपनें ही अति संवेदनशील हृदय का परिचय दिया है | कोई भी रचना पढ़ते समय हमें उसके लिखे शब्दों को नहीं उस कवि के हृदय को पढ़ना चाहिए, मेरा ऐसा मानना है, कवि नागार्जुन ने इसी सत्य को उजागर किया है|

अमर कविता:

कालिदास सच – सच बतलाना

_नागार्जुन
*
कालिदास सच - सच बतलाना |
इंदुमती के मृत्यु शोक से
अज रोया या तुम रोए थे ?
कालिदास सच – सच बतलाना |
शिव की तीसरी आँख से
निकली हुई महा ज्वाला में
घृत मिश्रित सूखी समिधा सम
कामदेव जब भस्म हो गया
रति का क्रंदन सुन आँसू से
तुमने ही तो दृग धोए थे ?
कालिदास सच – सच बतलाना |
रति रोई या तुम रोए थे ?
वर्षा ऋतु की स्निग्ध भूमिका
प्रथम दिवस आषाढ़ मास का
देख गगन में श्याम घटा बन
विघुर यक्ष का मन जब उचटा
खड़े – खड़े तब हाथ जोड़ कर
चित्रकूट के सुभग शिखर पर
उस बेचारे ने भेजा था
जिनके ही द्वारा संदेशा
उन पुष्करावर्त मेघों का
साथी बन कर उड़ने वाले
कालिदास सच – सच बतलाना
पर पीड़ा से पूर – पूर हो
थक – थक कर औ’ चूर – चूर हो
अमल धवल गिरी के शिखरों पर
प्रियवर, तुम कब तक सोए थे ?
रोया यक्ष कि तुम रोए थे ?
कालिदास सच – सच बतलाना |
*


पछाड़ दिया है आज मेरे आस्तिक ने , बाबा नागार्जुन


सोमवार, 24 सितंबर 2012

धरोहर: २ ~ मैथिलीशरण गुप्त

धरोहर :
इस स्तम्भ में विश्व की किसी भी भाषा की श्रेष्ठ मूल रचना देवनागरी लिपि में, हिंदी अनुवाद, रचनाकार का परिचय व चित्र, रचना की श्रेष्ठता का आधार जिस कारण पसंद है. संभव हो तो रचनाकार की जन्म-निधन तिथियाँ व कृति सूची दीजिए. धरोहर में सुमित्रानंदन पंत जी के पश्चात् अब आनंद लें मैथिलीशरण गुप्त जी की रचनाओं का। 

२.स्व.मैथिलीशरण गुप्त 

प्रस्तुति :
*
नर हो न निराश करो मन को


धरोहर: २ 
नर हो न निराश करो मन को




~  मैथिलीशरण गुप्त जी*
नर हो न निराश करो मन को...
*
कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रहके निज नाम करो ।
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो ।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
*
संभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना ।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
*
जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहां
फिर जा सकता वह सत्त्व कहां
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो ।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को ।।
*
निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे ।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को ।।

*
कैकेयी का पश्चाताप

*

*

*
मातृभूमि

*


*

*

*

*

*
*


____________________________________________

कविता: प्रेम का अंकुर --संतोष भाऊवाला

कविता:
 
 
प्रेम का अंकुर
 
 
संतोष भाऊवाला 
 *
जिंदगी गर जाफरानी लगे
पूस की धूप सी सुहानी लगे  
 लगे अमन चैन लूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
भावों का सलिल बहने लगे
शब्दों का अभाव रहने लगे
सब्र का बाँध टूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
कुछ करने का न मन करे
तन्हाई में खुद से बाते करें
जग से नाता छूटा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है

बढ़ने घटने लगे जब साँसों का स्पंदन
लगे प्यारा बस प्यार का ही बन्धन
रोम रोम में घुलता अहसास अनूठा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
मन जब ईश्वर में रम जाये
उसके प्रेम में बंध जाये
माया मोह झूठा है
तो समझो ह्रदय में
प्रेम का अंकुर फूटा है
 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

कविता: जीवन - सफ़र इंदिरा प्रताप

कविता:

 

जीवन - सफ़र

इंदिरा प्रताप 
*
कब पैर उठे
कब जीवन के अनगढ़
रस्ते पर निकल पड़े ,
कुछ पता नहीं |
कभी सुबह का उगता सूरज ,
कभी निशा की काली रातें ,
कभी शाम की शीतल छाया,
कभी वादियों में भटके तो ,
कभी मरू की तपती रेती ,
कभी भागते मृग तृष्णा में ,
दूर – दूर तक |
जिया यूँहीं अल्हड सा जीवन ,
पर अब जीबन की संध्या में ,
सोच रही हूँ बैठ किनारे ,
पूनम की भीगी रातों में ,
कोई लहर समेत लेगी जब ,
मुझे भँवर में ,
तुम तक कैसे पहुँच सकूँगी  ?
नहीं तैरना सीखा मैनें
वैतरणी का पाट बृहत्तर ,
जीवन की इस कठिन डगर में |
_________________________
Indira Pratap <pindira77@yahoo.co.in>