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रविवार, 11 अगस्त 2024

अगस्त ११ , बाल गीत, माँ, मुक्तिका, दोहा, निबंध, राखी, लघुकथा, शारदा, हिन्दी

सलिल सृजन अगस्त ११
*
हिन्दी जनवाणी जगवाणी
हिंदी माँ अनुपम कल्याणी
हिंदी सीखें बोलें लिख पढ़
हिंदीभाषी भाग्य आप गढ़
हिंदी सद्भावों की भाषा
हिंदी जन-गण मन की आशा
हिंदी सरल सुग्राह्य सहज है
हिंदी चार धाम है, हज है
हिंदी ममता स्नेह प्रेम है
हिंदी सबकी खैर-क्षेम है
हिंदी का परिवार सृष्टि है
हिंदी आप शीत वृष्टि है
हिंदी भाषा नेह नर्मदा
हिंदी भाषी रहें सर्वदा
११.८.२०२४
•••
शारद वंदन
*
आरती करो, अनहद की करो, सरगम की, मातु शारद की,
आरती करो शारद की...
*
वसन सफेद पहननेवाली, हंस-मोर पर उड़नेवाली।
कला-ग्यान-विग्यान प्रदात्री, विपद हरो निज जन की।।
आरती करो शारद की...
*
महामयी जय-जय वीणाधर, जयगायनधर, जय नर्तनधर।
हो चित्रण की मूल मिटाओ, दुविधा नव सर्जन की।।
आरती करो शारद की...
*
भाव-कला-रस-ग्यान वाहिनी, सुर-नर-किन्नर-असुर भावनी।
दस दिश हर अग्यान, ग्यान दो,
मूल ब्रह्म-हरि-हर की।
आरती करो शारद की...
***
दोहा सलिला:
*
रक्षा किसकी कर सके, कहिये जग में कौन?
पशुपतिनाथ सदय रहें, रक्षक जग के मौन
*
अविचारित रचनाओं का, शब्दजाल दिन-रात
छीन रहा सुख चैन नित, बचा शारदा मात
*
अच्छे दिन मँहगे हुए, अब राखी-रूमाल
श्रीफल कैसे खरीदें, जेब करे हड़ताल
*
कहीं मूसलाधार है, कहीं न्यून बरसात
दस दिश हाहाकार है, गहराती है रात
*
आ रक्षण कर निबल का, जो कहलाये पटेल
आरक्षण अब माँगते, अजब नियति का खेल
*
आरक्षण से कीजिए, रक्षा दीनानाथ
यथायोग्य हर को मिले, बढ़ें मिलकर हाथ
*
दीप्ति जगत उजियार दे, करे तिमिर का अंत
श्रेय नहीं लेती तनिक, ज्यों उपकारी संत.
*
तन का रक्षण मन करे, शांत लगाकर ध्यान
नश्वर को भी तब दिखें अविनाशी भगवान
*
कहते हैं आज़ाद पर, रक्षाबंधन-चाह
रपटीली चुन रहे हैं, अपने सपने राह
*
सावन भावन ही रहे, पावन रखें विचार
रक्षा हो हर बहिन की, बंधन तब त्यौहार
*
लघुकथा
पहल
*
आपके देश में हर साल अपनी बहिन की रक्षा करने का संकल्प लेने का त्यौहार मनाया जाता है फिर भी स्त्रियों के अपमान की इतनी ज्यादा घटनाएँ होती हैं। आइये! अपनी बहिन के समान औरों की बहनों के मान-सम्मान की रक्षा करने का संकल्प भी रक्षबंधन पर हम सब लें।
विदेशी पर्यटक से यह सुझाव आते ही सांस्कृतिक सम्मिलन के मंच पर छा गया मौन, अपनी-अपनी कलाइयों पर रक्षा सूत्रों का प्रदर्शन करते अतिथियों में कोई भी नहीं कर सका यह पहल।
***
लघुकथा:
समय की प्रवृत्ति
*
'माँ! मैं आज और अभी वापिस जा रही हूँ।'
"अरे! ऐसे... कैसे?... तुम इतने साल बाद राखी मनाने आईं और भाई को राखी बाँधे बिना वापिस जा रही हो? ऐसा भी होता है कहीं? राखी बाँध लो, फिर भैया तुम्हें पहुँचा आयेगा।"
'भाई इस लायक कहाँ रहा कहाँ कि कोई लड़की उसे राखी बाँधे? तुम्हें मालूम तो है कि कल रात वह कार से एक लड़की का पीछा कर रहा था। लड़की ने किसी तरह पुलिस को खबर की तो भाई पकड़ा गया।'
"तुझे इस सबसे क्या लेना-देना? तेरे पिताजी नेता हैं, उनके किसी विरोधी ने यह षड्यंत्र रचा होगा। थाने में तेरे पिता का नाम जानते ही पुलिस ने माफी माँग कर छोड़ भी तो दिया। आता ही होगा..."
'लेना-देना क्यों नहीं है? पिताजी के किसी विरोधी का षययन्त्र था तो भाई नशे में धुत्त कैसे मिला? वह और उसका दोस्त दोनों मदहोश थे।कल मैं भी राखी लेने बाज़ार गयी थी, किसी ने फब्ती कस दी तो भाई मरने-मरने पर उतारू हो गया।'
"देख तुझे कितना चाहता है और तू?"
'अपनी बहिन को चाहता है तो उसे यह नहीं पता कि वह लड़की भी किसी भाई की बहन है। वह अपनी बहन की बेइज्जती नहीं सह सकता तो उसे यह अधिकार किसने दिया कि किसी और की बहन की बेइज्जती करे। कल तक मुझे उस पर गर्व था पर आज मुझे उस पर शर्म आ रही है। मैं ससुराल में क्या मुँह दिखाऊँगी? भाई ने मुझे कहीं का नहीं छोड़ा। इसीलिए उसके आने के पहले ही चले जाना चाहती हूँ।'
"क्या अनाप-शनाप बके जा रही है? दिमाग खराब हो गया है तेरा? मुसीबत में भाई का साथ देने की जगह तमाशा कर रही है।"
'तुम्हें मेरा तमाशा दिख रहा है और उसकी करतूत नहीं दिखती? ऐसी ही सोच इस बुराई की जड़ है। मैं एक बहन का अपमान करनेवाले अत्याचारी भाई को राखी नहीं बाँधूँगी।' 'भाई से कह देना कि अपनी गलती मानकर सच बोले, जेल जाए, सजा भोगे और उस लड़की और उसके परिवार वालों से क्षमायाचना करे। सजा भोगने और क्षमा पाने के बाद ही मैं उसे मां सकूँगी अपना भाई और बाँध सकूँगी राखी। सामान उठाकर घर से निकलते हुए उसने कहा- 'मैं अस्वीकार करती हूँ 'समय की प्रवृत्ति' को।
***
***
दोहा सलिला:
अलंकारों के रंग-राखी के संग
*
राखी ने राखी सदा, बहनों की मर्याद.
संकट में भाई सदा, पहलें आयें याद..
राखी= पर्व, रखना.
*
राखी की मक्कारियाँ, राखी देख लजाय.
आग लगे कलमुँही में, मुझसे सही न जाय..
राखी= अभिनेत्री, रक्षा बंधन पर्व.
*
मधुरा खीर लिये हुए, बहिना लाई थाल.
किसको पहले बँधेगी, राखी मचा धमाल..
*
अक्षत से अ-क्षत हुआ, भाई-बहन का नेह.
देह विदेहित हो 'सलिल', तनिक नहीं संदेह..
अक्षत = चाँवल के दाने,क्षतिहीन.
*
रो ली, अब हँस दे बहिन, भाई आया द्वार.
रोली का टीका लगा, बरसा निर्मल प्यार..
रो ली= रुदन किया, तिलक करने में प्रयुक्त पदार्थ.
*
बंध न सोहे खोजते, सभी मुक्ति की युक्ति.
रक्षा बंधन से कभी, कोई न चाहे मुक्ति..
*
हिना रचा बहिना करे, भाई से तकरार.
हार गया तू जीतकर, जीत गयी मैं हार..
*
कब आएगा भाई? कब, होगी जी भर भेंट?
कुंडी खटकी द्वार पर, भाई खड़ा ले भेंट..
भेंट= मिलन, उपहार.
*
मना रही बहिना मना, कहीं न कर दे सास.
जाऊँ मायके माय के, गले लगूँ है आस..
मना= मानना, रोकना, माय के=माता-पिता का घर, माँ के
*
गले लगी बहिना कहे, हर संकट हो दूर.
नेह बर्फ सा ना गले, मन हरषे भरपूर..
गले=कंठ, पिघलना.
***
राखी पर एक रचना -
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बंधनों से मुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
कभी अबला रही बहिना
बने सबला अब प्रखर हो
तोड़ देना वह कलाई
जो अचाहे राह रोके
काट लेना जुबां जो
फिकरे कसे या तुझे टोंके
सासरे जा, मायके से
टूट मत, संयुक्त हो जा
कह रही राखी मुखर हो
बंधनों से मुक्त हो जा
*
बलि न तेरे हौसलों को
रीति वामन कर सके अब
इरादों को बाँध राखी
तू सफलता वर सके अब
बाँध रक्षा सूत्र तू ही
ज़िंदगी को ज़िंदगी दे
हो समर्थ-सुयोग्य तब ही
समय तुझको बन्दगी दे
स्वप्न हर साकार करने
कोशिशों के बीज बो जा
नयी फसलें उगाना है
बंधनों से मुक्त हो जा
*
पूज्य बन जा राम राखी
तुझे बाँधेगा जमाना
सहायक हो बँधा लांबा
घरों में रिश्ते जिलाना
वस्त्र-श्रीफल कर समर्पित
उसे जो सब योग्य दिखता
अवनि की हर विपद हर ले
शक्ति-वंदन विश्व करता
कसर कोई हो न बाकी
दाग-धब्बे दिखे धो जा
शिथिल कर दे नेह-नाते
बंधनों से मुक्त हो जा
***
विशेष आलेख-
रक्षाबंधन : कल, आज और कल
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भारतीय लोक मनीषा उत्सवधर्मी है। ऋतु परिवर्तन, पवित्र तिथियों-मुहूर्तों, महापुरुषों की जयंतियों आदि प्रसंगों को त्यौहारों के रूप में मनाकर लोक मानस अभाव पर भाव का जयघोष करता है। ग्राम्य प्रथाएँ और परंपराएँ प्रकृति तथा मानव के मध्य स्नेह-सौख्य सेतु स्थापना का कार्य करती हैं। नागरजन अपनी व्यस्तता और समृद्धता के बाद भी लोक मंगल पर्वों से संयुक्त रहे आते हैं। हमारा धार्मिक साहित्य इतिहास, धर्म, दर्शन और सामाजिक मूल्यों का मिश्रण है। विविध कथा प्रसंगों के माध्यम से सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों के नियमन का कार्य पुराणादि ग्रंथ करते हैं। श्रावण माह में त्योहारों की निरंतरता जन-जीवन में उत्साह का संचार करती है। रक्षाबंधन, कजलियाँ और भाईदूज के पर्व भारतीय नैतिक मूल्यों और पावन पारिवारिक संबंधों की अनूठी मिसाल हैं।
सावन में झूम-झूम, डालों से लूम-लूम, झूला झूल दुःख भूल, हँसिए हँसाइये.
एक दूसरे की बाँह, गहें बँधें रहे चाह, एक दूसरे को चाह, कजरी सुनाइये..
दिल में रहे न दाह, तन्नक पले न डाह, मन में भरे उछाह, पेंग को बढ़ाइए.
राखी की है साखी यही, पले प्रेम-पाखी यहीं, भाई-भगिनी का नाता, जन्म भर निभाइए..
(विजया घनाक्षरी)
रक्षा बंधन क्यों ?
स्कंदपुराण, पद्मपुराण तथा श्रीमद्भागवत में वामनावतार प्रसंग के अनुसार दानवेन्द्र राजा बलि का अहंकार मिटाकर उसे जनसेवा के सत्पथ पर लाने के लिए भगवान विष्णु ने वामन रूप धारणकर भिक्षा में ३ पग धरती माँगकर तीन पगों में तीनों लोकों को नाप लिया तथा उसके मस्तक पर चरणस्पर्श कर उसे रसातल भेज दिया। बलि ने भगवान से सदा अपने समक्ष रहने का वर माँगा। नारद के सुझाये अनुसार इस दिन लक्ष्मी जी ने बलि को रक्षासूत्र बाँधकर भाई माना तथा विष्णु जी को वापिस प्राप्त किया।
महाबली बलि को था, गर्व हुआ संपदा का, तीन लोक में नहीं है, मुझ सा कोई धनी.
मनमानी करूँ भी तो, रोक सकता न कोई, हूँ सुरेश से अधिक, शक्तिवान औ' गुनी..
महायज्ञ कर दिया, कीर्ति यश बल लिया, हरि को दे तीन पग, धरा मौन था गुनी.
सभी कुछ छिन गया, मुख न मलिन हुआ, हरि की शरण गया, सेवा व्रत ले धुनी..
(कलाधर घनाक्षरी)
भवन विष्णु के छल को पहचान कर असुर गुरु शुक्राचार्य ने शिष्य बलि को सचेत करते हुए वामन को दान न देने के लिए चेताया पर बलि न माना। यह देख शुक्राचार्य सक्षम रूप धारणकर जल कलश की टोंटी में प्रवाह विरुद्ध कर छिप गए ताकि जल के बिना भू दान का संकल्प पूरा न हो सके। इसे विष्णु ने भाँप लिया। उनहोंने कलश की टोंटी में एक सींक घुसेड़ दी जिससे शुक्राचार्य की एक आँख फुट गयी और वे भाग खड़े हुए-
बाधा दनु-गुरु बने, विपद मेघ थे घने, एक नेत्र गँवा भगे, थी व्यथा अनसुनी.
रक्षा सूत्र बाँधे बलि, हरि से अभय मिली, हृदय की कली खिली, पटकथा यूँ बनी..
विप्र जब द्वार आये, राखी बांध मान पाये, शुभाशीष बरसाये, फिर न हो ठनाठनी.
कोई किसी से न लड़े, हाथ रहें मिले-जुड़े, साथ-साथ हों खड़े, राखी मने सावनी..
(कलाधर)
भविष्योत्तर पुराण के अनुसार देव-दानव युद्ध में इंद्र की पराजय सन्निकट देख उसकी पत्नी शशिकला (इन्द्राणी) ने तपकर प्राप्त रक्षासूत्र श्रवण पूर्णिमा को इंद्र की कलाई में बाँधकर उसे इतना शक्तिशाली बना दिया कि वह विजय प्राप्त कर सका।
गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव' अर्थात जिस प्रकार सूत्र बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर माला के रूप में एक बनाये रखता है उसी तरह रक्षासूत्र लोगों को जोड़े रखता है। प्रसंगानुसार विश्व में जब-जब नैतिक मूल्यों पर संकट आता है भगवान शिव प्रजापिता ब्रम्हा द्वारा पवित्र धागे भेजते हैं जिन्हें बाँधकर बहिने भाइयों को दुःख-पीड़ा से मुक्ति दिलाती हैं। भगवान कृष्ण ने महाभारत युद्ध में विजय हेतु युधिष्ठिर को सेना सहित रक्षाबंधन पर्व मनाने का निर्देश दिया था।
बागी थे हों अनुरागी, विरागी थे हों सुहागी, कोई भी न हो अभागी, दैव से मनाइए.
सभी के माथे हो टीका, किसी का न पर्व फीका, बहनों का नेह नीका, राखी-गीत गाइए..
कलाई रहे न सूनी, राखी बाँध शोभा दूनी, आरती की ज्वाल धूनी, अशुभ मिटाइए.
मीठा खाएँ मीठा बोलें, जीवन में रस घोलें, बहना के पाँव छूलें, शुभाशीष पाइए..
(कलाधर घनाक्षरी)
उत्तरांचल में इसे श्रावणी कहा जाता है तथा यजुर्वेदी विप्रों का उपकर्म (उत्सर्जन, स्नान, ऋषितर्पण आदि के पश्चात नवीन यज्ञोपवीत धारण किया जाता है।) राजस्थान में रामराखी (लालडोरे पर पीले फुंदने लगा सूत्र) भगवान को, चूड़ाराखी (भाभियों को चूड़ी में) या लांबा (भाई की कलाई में) बाँधने की प्रथा है। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि में बहनें शुभ मुहूर्त में भाई-भाभी को तिलक लगाकर राखी बाँधकर मिठाई खिलाती तथा उपहार प्राप्त कर आशीष देती हैं।महाराष्ट्र में इसे नारियल पूर्णिमा कहा जाता है। इस दिन समुद्र, नदी तालाब आदि में स्नान कर जनेऊ बदलकर वरुणदेव को श्रीफल (नारियल) अर्पित किया जाता है। उड़ीसा, तमिलनाडु व् केरल में यह अवनिअवित्तम कहा जाता है। जलस्रोत में स्नानकर यज्ञोपवीत परिवर्तन व ऋषि का तर्पण किया जाता है।
बंधन न रास आये, बँधना न मन भाये, स्वतंत्रता ही सुहाये, सहज स्वभाव है.
निर्बंध अगर रहें, मर्याद को न गहें, कोई किसी को न सहें, चैन का अभाव है..
मना राखी नेह पर्व, करिए नातों पे गर्व, निभायें संबंध सर्व, नेह का निभाव है.
बंधन जो प्रेम का हो, कुशल का क्षेम का हो, धरम का नेम हो, 'सलिल' सत्प्रभाव है..
(कलाधर घनाक्षरी)
रक्षा बंधन से जुड़ा हुआ एक ऐतिहासिक प्रसंग भी है। राजस्थान की वीरांगना रानी कर्मावती ने राज्य को यवन शत्रुओं से बचने के लिए मुग़ल बादशाह हुमायूँ को राखी भेजी थी। राखी पाते ही हुमायूँ ने अपना कार्य छोड़कर बहिन कर्मवती की रक्षा के लिए प्रस्थान किया। विधि की विडंबना यह कि हुमायूँ के पहुँच पाने के पूर्व ही कर्मावती ने जौहर कर लिया, तब हुमायूँ ने कर्मवती के शत्रुओं का नाश किया।
संकट में लाज थी, गिरी सिर पे गाज थी, शत्रु-दृष्टि बाज थी, नैया कैसे पार हो?
करनावती महारानी, पूजतीं माता भवानी, शत्रु है बली बहुत, देश की न हार हो..
राखी हुमायूँ को भेजी, बादशाह ने सहेजी, बहिन की पत राखी, नेह का करार हो.
शत्रु को खदेड़ दिया, बहिना को मान दिया, नेह का जलाया दिया, भेंट स्वीकार हो..
(कलाधर घनाक्षरी )
रक्षा बंधन के दिन बहिन भाई के मस्तक पर कुंकुम, अक्षत के तिलक कर उसके दीर्घायु और समृद्ध होने की कामना करती है। भाई बहिन को स्नेहोपहारों से संतुष्ट कर, उसकी रक्षा करने का वचन देकर उसका आशीष पाता है।
कजलियाँ
कजलियां मुख्यरूप से बुंदेलखंड में रक्षाबंधन के दूसरे दिन की जाने वाली एक परंपरा है जिसमें नाग पंचमी के दूसरे दिन खेतों से लाई गई मिट्टी को बर्तनों में भरकर उसमें गेहूं बो दिये जाते हैं और उन गेंहू के बीजों में रक्षाबंंधन के दिन तक गोबर की खाद् और पानी दिया जाता है और देखभाल की जाती है, जब ये गेंहू के छोटे-छोटे पौधे उग आते हैं तो इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इस बार फसल कैसी होगी, गेंहू के इन छोटे-छोटे पौधों को कजलियां कहते हैं। कजलियां वाले दिन घर की लड़कियों द्वारा कजलियां के कोमल पत्ते तोडकर घर के पुरूषों के कानों के ऊपर लगाया जाता है, जिससे लिये पुरूषों द्वारा शगुन के तौर पर लड़कियों को रूपये भी दिये जाते हैं। इस पर्व में कजलिया लगाकर लोग एक दूसरे की शुभकामनाये के रूप कामना करते है कि सब लोग कजलिया की तरह खुश और धन धान्य से भरपूर रहे इसी लिए यह पर्व सुख समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
भाई दूज
कजलियों के अगले दिन भाई दूज पर बहिनें गोबर से लोककला की आकृतियाँ बनाती हैं। भटकटैया के काँटों को मूसल से कूट-कूटकर भाई के संकट दूर होने की प्रार्थना करती हैं। नागपंचमी, राखी, कजलियाँ और भाई दूज के पर्व चतुष्टय भारतीय लोकमानस में पारिवारिक संबंधों की पवित्रता और प्रकृति से जुड़ाव के प्रतीक हैं। पाश्चात्य मूल्यों के दुष्प्रभाव के कारण नई पीढ़ी भले ही इनसे कम जुड़ पा रही है पर ग्रामीणजन और पुरानी पीढ़ी इनके महत्व से पूरी तरह परिचित है और आज भी इन त्योहारों को मनाकर नव स्फूर्ति प्राप्त करती है।
***
निबंध
पावस पानी पयस्विनी
*
पावस ऋतुरानी का स्वागत कर पाना प्रकृति और पुरुष दोनों का सौभग्य है। सनातन काल से रमणियों के हृदय और कवि-लेखकों की कलम सृष्टि-चक्र के प्राण सदृश "पावस" की पवन छटा का प्रशस्ति गान भाव-भीने गीतों से करते हुए, धन्य होते रहे रहे हैं। पावस का धरागमन होते ही प्रकृति क्रमश: नटखट बालिका, चपल किशोरी, तन्वंगी षोडशी, लजाती नवोढ़ा व प्रौढ़ प्रगल्भा छवि लिए अठखेलियाँ करती, मुस्कुराती है, खिल-खिल कर हँसती है और मनोहर छटा बिखेरती हुई जल बिंदुओं के संग केलि क्रीड़ा करती प्रतीत होती है। पावस की अनुभूति विरह तप्त मानव मन को संयोग की सुधियों से आप्लावित और ओतप्रोत कर देती है।
पावस की प्रतीति होते ही कालिदास का यक्ष अपनी प्रिय को संदेश देने के लिए मेघ को दूत बनाकर भेजता है। तुलसी क्यों पीछे रहते? वे तो बारह से उफनती नदी में कूदकर बहते हुई शव को काष्ठ समझ उसके सहारे नदी पार कर प्रिय रत्नावली के समीप पहुँचकर सांसारिक सुख प्राप्ति की आकांशा करते है किंतु तुलसी प्रिया कामिनी मात्र न रहकर भामिनि हो जाती है। वह प्रिय की इष्ट पूर्ति के लिए, अपना खुद का अनिष्ट भी स्वीकार कर, समूची मानवता के कल्याण हेतु अपने स्वामी गोस्वामी को 'गो स्वामी' कहकर सकल सृष्टि के स्वामी श्री राम के पदपद्मों से प्रीत करने का पाठ पढ़ाने के सुअवसर को व्यर्थ नहीं जाने देतीं। गोस्वामी अपनी गोस्वामिनी के अनन्य त्याग को देखकर क्षण मात्र को स्तबध रह जाते हैं किंतु शीघ्र ही सम्हल कर प्रिया के मनोरथ को पूर्ण करने का हर संभव उपाय करते हैं। दैहिक मिलान को सर्वस्व जाननेवाले कैसे समझें की पावस हो या न हो, गोस्वामी और गोस्वामिनी के चक्षुओं से बहती जलधार तब तक नहीं थमी जब तक राम भक्ति की जल वर्षा से समूचे सज्जनों और उनकी सजनियों को सराबोर नहीं कर दिया।
पावस ऋतु के आते ही वसुधा में नव जीवन का संचार होता है। नभ पटल पर छाये मेघराज, अपनी प्रेयसी वसुधा से मिलने के लिए उतावला होकर घनश्याम बन जाते हैं और प्रेम-प्यासी की करुण ध्वनि चित्तौड़गढ़ के प्रासादों के पत्थरों को आह भरने के लिए विवश करती हुई टेरती है हैं- 'श्याम गहन घनश्याम बरसो बहुत प्यासी हूँ'।
धरा को मनुहारता घन-गर्जन सुनकर उसकी भामिनि दामिनी तर्जन द्वारा रोष व्यक्त कर सबका दिल ही नहीं दहलाती, तड़ितपात कर मेघराज को अपने कदम पीछे करने के लिए विवश भी कर देती है। मेघ को बिन बरसे जाते देख, पवन भी पीछे नहीं रहता और दिशाओं को नापता हुआ, तरुओं को झकझोरता हुआ, लताओं को छेड़ता हुआ अपने विक्रम का प्रदर्शन करता है। भीत तन्वंगी लताएँ हिचकती-लजाती अपने तरु साथियों से लिपटकर भय निवारण के साथ-साथ, नटवर को सुमिरती हुई जमुन-तट की रास लीला को मूर्त कारण में कसर नहीं छोड़तीं। बालिका वधु सी सरिता, पर्वत बाबुल के गृह से विदा होते समय चट्टान बंधुओं से भुज भेंटकर कलपती हुई, बालुका मैया के अंक में विलाप कर सांत्वना पाने का प्रयास करती है किंतु अंतत: प्रिय समुद्र की पुकार सुनकर, सबसे मुख फेरकर आगे बढ़ भी जाती है और उसकी इस यात्रा का पाथेय जुटाता है पावस अपनी प्रेयसी वर्षा का सबला पाकर।
प्रकृति की लीला अघटन घटना पचीयसी की तरह कुछ दिखलाती, कुछ छिपाती, होनी से अनहोनी और अनहोनी से होनी की प्रतीति कराने की तरह होती है। क्रमश: पीहर की सुधियों में डूबती-उतराती सलिला, सपनों के संसार में प्रिय से मिलन की आस लिए हुए, कुछ आशंकित कुछ उल्लसित होती हुई, मंथर गति से बढ़ चलती है। कोकिलादि सखियों की छेड़-छाड़ से लजाती नदी, बेध्यानी में फिसलकर पथ में आए गह्वर में गिर पड़ती है। तन की पीड़ा मन की व्यथा भुला देती है। कलकल करती लहरियों का निनाद सुनकर मुस्कुराती तरंगिणी मत्स्यादि ननदियों और दादुरादि देवरों से भौजी, भौजी सुनकर मनोविनोद करते हुए आगे बढ़ती जाती है। पल-पल, कदम दर कदम बढ़ते हुए, कब उषा दुपहरी में, दुपहरी संध्या में और संध्या रजनी में परिवर्तिति हो जाती, पता ही नहीं चला। न जाने कितने दिन-रात हो गए? नील गगन से कपसीले बादल शांति संदेश देते, रंग-बिरंगे घुड़पुच्छ बादल इंद्रधनुषी सपने दिखाते, वर्षामेघ अपने स्नेहाशीष से शैलजा को समृद्ध करते। भोर होते ही तीर पर प्रगट होकर प्रणाम करते भक्त, मंदिरों में बजती घण्टियाँ, गूँजती शंख ध्वनियाँ, भक्ति-भाव से भरी प्रार्थनाएँ सुनकर शैवलिनी के कर अनजाने ही जुड़ जाते और वह अपने आराध्य नीलकंठ शिव का स्मरण कर अपने जल में अवगाहन कर रहे नारी-नारियों के पाप-शाप मिटाने के लिए कृत संकल्पित होकर, सुग्रहणी की तरह क्षमाशील हो ममता मूर्ति बनकर कब सबकी श्रद्धा का पात्र बन गई, उसे पता ही न चला।
सब दिन जात न एक समान। प्रकृति पुत्र मनुज को श्रांत-क्लांत पाकर निर्झरिणी उसे अंक में पाते ही दुलारती-थपथपाती लेकिन यह देख आहत भी होती कि यह मनुज स्वार्थ और लोभवध दनुज से भी बदतर आचरण कर रहा है। मनुष्यों के कदाचार और दुराचार से त्रस्त वृक्षों की हत्या से क्षुब्ध शैवलिनी क्या करे यह सोच ही रही थी कि अपने बंधु-बांधवों, मिटटी के टीलों-चट्टानों तथा पितृव्य गिरी-शिखरों को खोदकर भूमिसात किए जाते देख प्रवाहिनी समझ गई कि लातों के देव बातों से नहीं मानते। कोढ़ में खाज यह कि खुद को सभ्य-सुसंस्कृत कहते नागर जनों ने नागों, वानरों, ऋक्षों, उलूकों, गंधर्वों आदि को पीछे छोड़ते हुए मैया कहते-कहते शिखरिणी के निर्मल-धवल आँचल को मल-मूत्र और कूड़े-कचरे का आगार बना दिया। नदी को याद आया कि उसके आराध्य शिव ही नहीं, आराध्या शिवा को भी अंतत: शस्त्र धारण कर दुराचारों और दुराचारियों का अंत कर अपनी ही बनाई सृष्टि को मिटाना पड़ा था। 'महाजनो येन गत: स पंथा:' का अनुकरण करते हुए जलमला ने उफनाते हुए अपना रौद्र रूप दिखाया, तटबंधों को तोड़कर मानव बस्तियों में प्रवेश किया और गगनचुंबी अट्टालिकाओं को भूमिसात कर मानवी निर्मित यंत्रों को तिनकों की तरह बहकर नष्ट कर दिया। गगन ने भी अपनी लाड़ली के साथ हुए अत्याचार से क्रुद्ध होकर बद्रीनाथ और केदारनाथ पर हनीमून मनाते युग्मों को मूसलाधार जल वृष्टि में बहाते हुए पल भर में निष्प्राण कर दिया। सघन तिमिर में होती बरसात ने उस भयंकर निशा का स्मरण करा दिया जब हैं को हाथ नहीं सूझता था। कालिंदी का शांत प्रवाह, उफ़न उफनकर जग को भयभीत कर रहा था। क्रुद्ध नागिन की तरह दौड़ती-फुँफकारती लहरें दिल दहला रही थीं। तब तो द्वापर में नराधम कंस के अनाचारों का अंत करने के लिए घनश्याम की छत्रछाया में स्वयं घनश्याम अवतरित हुए थे किन्तु अब इस कलिकाल में अमला-धवला बालुकावाहिनी को अपनी रक्षा आप ही करनी थी। मदांध और लोलुप नराधमों को काल के गाल में धकेलते हुए स्रोतस्विनी ने महाकाली का रूप धारण किया और सब कुछ मिटाना आरंभ कर दिया, जो भी सामने आया, वही नष्ट होता गया।
इतिहास स्वयं को दुहराता है (हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ), किसी कल्प में जगजननी गौरी द्वारा महाकाली रूप धारण करने पर सृष्टि को विनाश से बचाने के लिए स्वयं महाकाल शिव को उनके पथ में लेट जाना पड़ा था और अपने स्वामी शिव के वक्ष पर चरण स्पर्श होते ही शिवा का आक्रोश, पल भर में शांत हो गया था। जो नहीं करना था, वही कर दिया। मेरे स्वामी मेरे ही पगतल में? यह सोचते ही काली का गौरी भाव जाग्रुत हुई और इनकी जिह्वा बाहर निकल आई। यह मूढ़ मनुष्य उनकी पार्थिव पूजा तो करता है किंतु यह भूल जाता है कि पार्वती और शिखरिणी दोनों ही पर्वत सुता हैं। दोनों शिवप्रिया है, एक शिव के हृदयासीन होकर जगतोद्धार करती है तो दूसरी शिव के मस्तक से प्रवहकर जगपालन करती है। तब भी मेघ गरजे थे, तब भी बिजलियाँ गिरी थीं, तब भी पवन प्रवाह मर्यादा तोड़कर बहा था, अब भी यही सब कुछ हुआ। तब भी क्रुद्ध शिवप्रिया सृष्टि नाश को तत्पर थीं, अब भी शिवप्रिया सृष्टिनाश को उद्यत हो गयी थीं। शैलजा के अदम्य प्रवाह के समक्ष पेड़-पौधों की क्या बिसात?, विशाल गिरि शिखर और भीमकाय गगनचुंबी अट्टालिकाएँ भी तृण की तरह निर्मूल हुए जा रहे थे। तब भी भोले भंडारी को राह में आना पड़ा था, अब भी दयानिधान भोले भंडारी राह में आ गए कि सर्वस्व नाश न हो जाए। पावस और तटिनी दोनों शिवशंकर के आगे नतमस्तक हो शांत हो गए।
कभी वृंदा नामक गोपी के मुख से परम भगवत श्री परमानंद दास का काव्य मुखरित हुआ था-"फिर पछताएगी हो राधा, कित ते, कित हरि, कित ये औसर, करत-प्रेम-रस-बाधा!'' सलिल-प्रवाह शांत हुआ तो सलिला फिर पावस को साथ लेकर चल पड़ी सासरे की ओर। उसे शांत रखने के लिए सदाशिव घाट-घाट पर आ विराजे और सुशीला शिवात्मजा अपने तटों पर तीर्थ बसाते हुए पहुँच गई अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव पर। उसे फिर याद आ गए तुलसी जिन्होंने सरितनाथ की महिमा में त्रिलोकिजयी लंकाधिपति शिवभक्त दशानन से कहलवाया था था-
बाँध्यो जलनिधि नीरनिधि, जलधि सिंधु वारीश।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदधि पयोधि नदीश।।
अपलक राह निहारते सागर ने असंख्य मणि-मुक्ता समर्पित कर प्राणप्रिया की अगवानी की। प्रतीक्षा के पल पूर्ण हुए, चिर मिलन की बेला आरंभ हुई। पितृव्य गगन और भ्रातव्य मेघ हर बरस सावन पर जलराशि का उपहार सलिला को देते रहे हैं, देते रहेंगे। हम संकुचित स्वार्थी मनुष्य अम्ल-विमल सलिल प्रवाह में पंक घोलते रहेंगे और पुण्य सलिला पंकजा, लक्ष्मी निवास बनकर सकल सृष्टि के चर-अचर जीवों की पिपासा शांत करती रहेगी। हमने अपने कुशल-क्षेम की चिंता है तो हम पावस, पानी और पयस्विनी के पुण्य-प्रताप को प्रणाम करें। रहीम तो कह ही गये हैं -
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गए न ऊबरे, मोती मानुस चून।।
11-8-2021
***
दोहा सलिला
*
जाते-जाते बता दें, क्यों थे अब तक मौन?
सत्य छिपा पद पर रहे, स्वार्थी इन सा कौन??
*
कुर्सी पाकर बंद थे, आज खुले हैं नैन.
हिम्मत दें भय-भीत को, रह पाए सुख-चैन.
*
वे मीठा कह कर गए, मिला स्नेह-सम्मान.
ये कड़वा कह जा रहे, क्यों लादे अभिमान?
*
कोयल-कौए ने कहे, मीठे-कडवे बोल.
कौन चाहता काग को?, कोयल है अनमोल.
*
मोहन भोग मिले मगर, सके न काग सराह.
देख छीछड़े निकलती, बरबस मुँह से आह.
*
फ़िक्र न खल की कीजिए, करे बात बेबात.
उसके न रात दिन, और नहीं दिन रात.
*
जितनी सुन्दर कल्पना, उतना सुन्दर सत्य.
नैन नैन में जब बसें, दिखता नित्य अनित्य.
११-८-२०१७
***
मुक्तिका:
मापनी: 212 212 212 212
छंद: महादैशिक जातीय, तगंत प्लवंगम
तुकांत (काफ़िआ): आ
पदांत (रदीफ़): चाहिये
बह्र: फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन
*
बोलना छोड़िए मौन हो सोचिए
बागबां कौन हो मौन हो सोचिए
रौंदते जो रहे तितलियों को सदा
रोकना है उन्हें मौन हो सोचिए
बोलते-बोलते भौंकने वे लगे
सांसदी क्यों चुने हो मौन हो सोचिए
आस का, प्यास का है हमें डर नहीं
त्रास का नाश हो मौन हो सोचिए
देह को चाहते, पूजते, भोगते
खुद खुदी चुक गये मौन हो सोचिए
मंदिरों में तलाशा जिसे ना मिला
वो मिला आत्म में ही छिपा सोचिए
छोड़ संजीवनी खा रहे संखिया
मौत अंजाम हो मौन हो सोचिए
11-8-2015
***
मुक्तिका:
हाथ में हाथ रहे...
**
हाथ में हाथ रहे, दिल में दूरियाँ आईं.
दूर होकर ना हुए दूर- हिचकियाँ आईं..
चाह जिसकी न थी, उस घर से चूड़ियाँ आईं..
धूप इठलाई तनिक, तब ही बदलियाँ आईं..
गिर के बर्बाद ही होने को बिजलियाँ आईं.
बाद तूफ़ान के फूलों पे तितलियाँ आईं..
जीते जी जिद ने हमें एक तो होने न दिया.
खाप में मेरे, तेरे घर से पूड़ियाँ आईं..
धूप ने मेरा पता जाने किस तरह पाया?
बदलियाँ जबके हमेशा ही दरमियाँ आईं..
कह रही दुनिया बड़ा, पर मैं रहा बच्चा ही.
सबसे पहले मुझे ही दो, जो बरफियाँ आईं..
दिल मिला जिससे, बिना उसके कुछ नहीं भाता.
बिना खुसरो के न फिर लौट मुरकियाँ आईं..
नेह की नर्मदा बहती है गुसल तो कर लो.
फिर न कहना कि नहीं लौट लहरियाँ आईं..
११-८-२०१०
***
बाल गीत :
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
फिर नहलाती है बहलाकर.
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर.
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आंचल में छिप जाता मैं
ज्यों रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता
अपनी माँ का मुखड़ा.....
*
बारिश में छतरी आँचल की.
ठंडी में गर्मी दामन की..
गर्मी में धोती का पंखा,
पल्लू में छाया बादल की.
कभी दिठौना, कभी आँख में
कोर बने काजल की..
दूध पिलाती है गिलास भर -
कहे बनूँ मैं तगड़ा. ,
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
११-८-२०१०
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गुरुवार, 8 सितंबर 2022

सॉनेट,हिन्दी,भाषा,गीत,नवगीत,हाइकु,मुक्तिका,

सॉनेट
थोथा चना
*
थोथा चना; बाजे घना
मनमानी मन की बातें
ठूँठ सरीखा रहता तना
अपनों से करता घातें

बने मिया मिट्ठू यह रोज  
औरों में नित देखे दोष 
करा रहा गिद्धों को  भोज 
दोनों हाथ लुटाए कोष

साइकिल पंजा हाथी फूल 
संसद में करते हैं मौज 
जनता फाँक रही है धूल 
बोझ बनी नेता की फ़ौज 

यह  भौंका; वह गुर्राया 
यह खीझा, वह टर्राया 
८-९-२०२२ 
हिन्दी के बारे में विद्वानों के विचार
सी.टी.मेटकॉफ़ ने १८०६ ई.में अपने शिक्षा गुरु जॉन गिलक्राइस्ट को लिखा-
'भारत के जिस भाग में भी मुझे काम करना पड़ा है,कलकत्ता से लेकर लाहौर तक,कुमाऊं के पहाड़ों से लेकर नर्मदा नदी तक मैंने उस भाषा का आम व्यवहार देखा है,जिसकी शिक्षा आपने मुझे दी है। मैं कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक या जावा से सिंधु तक इस विश्वास से यात्रा करने की हिम्मत कर सकता हूं कि मुझे हर जगह ऐसे लोग मिल जाएंगे जो हिन्दुस्तानी बोल लेते होंगे।'
टॉमस रोबक ने १८०७ ई.में लिखा-
'जैसे इंग्लैण्ड जाने वाले को लैटिन सेक्सन या फ़्रेंच के बदले अंग्रेजी सीखनी चाहिए,वैसे ही भारत आने वाले को अरबी-फारसी या संस्कृत के बदले हिन्दुस्तानी सीखनी चाहिए।'
विलियम केरी ने १८१६ ई. में लिखा-
'हिन्दी किसी एक प्रदेश की भाषा नहीं बल्कि देश में सर्वत्र बोली जाने वाली भाषा है।'
एच.टी. केलब्रुक ने लिखा-
'जिस भाषा का व्यवहार भारत के प्रत्येक प्रान्त के लोग करते हैं,जो पढ़े-लिखे तथा अनपढ़ दोनों की साधारण बोलचाल की भाषा है,जिसको प्रत्येक गांव में थोड़े बहुत लोग अवश्य ही समझ लेते हैं, उसी का यथार्थ नाम हिन्दी है।'
***
विशेष लेख
श्वास-प्रश्वास की गति ही गीत-नवगीत
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
भाषा का जन्म
मानव द्वारा प्रकृति के सानिंध्य में अनुभूत ध्वनियों को स्मरण कर अभिव्यक्त करने की कला और सामर्थ्य से मानवीय भाषाओं का जन्म हुआ। प्राकृतिक घटनाओं, वर्ष, जल प्रवाह, तड़ित, वायु प्रवाह था जीव-जंतुओं व पशु-पक्षियों की बोली कूक, चहचहाहट, हिनहिनाहट, फुँफकार, गर्जन आदि में अन्तर्निहित ध्वनि-खंडों को स्मरण रखकर उनकी आवृत्ति कर मनुष्य ने अपने सहयोगियों को संदेश देना सीखा। रुदन और हास ने उसे रसानुभूति करने में समर्थ बनाया। ध्वनिखंडों की पुनरावृत्ति कर श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ मनुष्य ने लय की प्रतीति की। सार्थक और निरर्थक ध्वनि का अंतर कर मनुष्य ने वाचिक अभिव्यक्ति की डगर पर पग रखे। अभिव्यक्त को स्थाई रूप से संचित करने की चाह ने ध्वनियों के लिए संकेत निर्धारण का पथ प्रशस्त किया, संकेतों के अंकन हेतु पटल, कलम और स्याही या रंग का उपयोग कर मनुष्य ने कालांतर में चित्र लिपियों और अक्षर लिपियों का विकास किया। अक्षरों से शब्द, शब्द से वाक्य बनाकर मनुष्य ने भाषा विकास में अन्य सब प्राणियों को पीछे छोड़ दिया।
भाषा की समझ
वाचिक अभिव्यक्ति में लय के कम-अधिक होने से क्रमश: गद्य व पद्य का विकास हुआ। नवजात शिशु मनुष्य की भाषा, शब्दों या वाक्यों के अर्थ न समझने पर भी अपने आस-पास की ध्वनियों को मस्तिष्क में संचित कर, बोलनेवाले की भाव-भंगिमाओं और मुख मुद्राओं से क्रमश: इनका अर्थ ग्रहण करने लगता है। लोरी सुनकर बच्चा लय, रस और भाव ग्रहण करता है। यही काव्य जगत में प्रवेश का द्वार है। श्वास-प्रश्वास के आरोह-अवरोह के साथ शिशु लय से तादात्म्य स्थापित करता है जो जीवन पर्यन्त बन रहता है। यह लय अनजाने ही मस्तिष्क में छाकर मन को प्रफुल्लित करती है। मन पर छा जाने वाली ध्वनियों की आवृत्ति ही 'छंद' है। वाचिक व लौकिक छंदों में लघु-दीर्घ उच्चार का संयोजन होता है। छंद मूलत: उच्चार पर आधारित होता है। उच्चारों को पहचान और गिनकर छंद बनाए और पहचाने जाते हैं। वाक् को उच्चार के अनुसार लिपिबद्ध कर उनके वर्णों और मात्राओं को गिनकर क्रमश: वार्णिक और मात्रिक छंद बनाए गए। विविध क्षेत्रों में परिवेश और पर्यावरण, खान-पान, ऋतु परिवर्तन आदि के अनुसार मानव की भाषा, शब्द भंडार तथा उच्चार विकसित और परिवर्तित होता है। तदनुसार एक ही शब्द समूह का वार्णिक/मात्रिक भार भिन्न उच्चारण के कारण भिन्न गिना जाता है, जिसे सहज स्वीकारा जाता रहा है किन्तु आज-कल किताबी रचनाकार कथ्य, शिल्प, भाव, मौलिकता, लय, शैली, बिम्ब, प्रतीक, अलंकार आदि को भूलकर केवल मात्रिक घट-बढ़ को लेकर है-तोबा मचाते रहते हैं जो वरेण्य नहीं है।
गीत - नवगीत का शिल्प और तत्व
गीति काव्य में मुखड़े अंतरे मुखड़े का शिल्प गीत को जन्म देता है। गीत में गीतकार की वैयक्तिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति होती है। गीत के अनिवार्य तत्व कथ्य, लय, रस, बिम्ब, प्रतीक, भाषा शैली आदि हैं। वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या, पद संख्या, अलंकार, मिथक आदि आवश्यकतानुसार उपयोग किये जाते हैं। गीत सामान्यत: नवगीत से अधिक लंबा होता है।
लगभग ७० वर्ष पूर्व कुछ गीतकारों ने अपने लघ्वाकारी, सामाजिक विसंगतिपरक गीतों को नवगीत कहा। गत सात दशकों में नवगीत की न तो स्वतंत्र पहचान बनी, न परिभाषा। वस्तुत: गीत वृक्ष का बोनसाई की तरह लघ्वाकारी रूप नवगीत है। नवगीत का शिल्प गीत की ही तरह मुखड़े और अंतरे का संयोजन है। मुखड़े और अंतरे में वर्ण संख्या, मात्रा संख्या, पंक्ति संख्या आदि काकड़ा बंधन नहीं होता। मुखड़ा और अंतरा में छंद समान हो सकता है और भिन्न भी। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियाँ सम भारीय होती है। अंतरे की पंक्तियाँ मुखड़े की पंक्तियों के समान अथवा उससे भिन्न सम भार की होती हैं। सामान्यत: मुखड़े की पंक्तियों का पदांत समान होता है। अंतरे के बाद एक पंक्ति मुखड़े के पदभार और पदांत की होती है जिसके बाद मुखड़ा दोहराया जाता है।
गीत - नवगीत में अंतर
गीत कुल में जन्मा नवगीत अपने मूल से कुछ समानता और कुछ असमानता रखता है। दोनों में मुखड़े-अंतरे का शिल्प समान होता है किन्तु भावाभिव्यक्ति में अन्तर होता है। गीत की भाषा प्रांजल और शुद्ध होती है जबकि नवगीत की भाषा में देशज टटकापन होता है। गीतकार कथ्य को अभिव्यक्त करते समय वैयक्तिक दृष्टिकोण को प्रधानता देता है जबकि नवगीतकार सामाजिक दृष्टिकोण को प्रमुखता देता है। गीत में आलंकारिकता को सराहा जाता है, नवगीत में सरलता और स्पष्टता को। नवगीतकारों का एक वर्ग विसंगति, विडम्बना, टकराव, बिखराव, दर्द और पीड़ा को नवगीत में आवश्यक मानता है किन्तु अब यह विचार धारा कालातीत हो रही है। मेरे कई नवगीत हर्ष, उल्लास, श्रृंगार, वीर, भक्ति आदि रसों से सिक्त हैं। कुमार रवींद्र, पूर्णिमा बर्मन, निर्मल शुक्ल, धनंजय सिंह, गोपाल कृष्ण भट्ट 'आकुल', जय प्रकाश श्रीवास्तव, अशोक गीते, मधु प्रधान, बसंत शर्मा, रविशंकर मिश्र, प्रदीप शुक्ल, शशि पुरवार, संध्या सिंह, अविनाश ब्योहार, भावना तिवारी, कल्पना रामानी, हरिहर झा, देवकीनंदन 'शांत' आदि अनेक नवगीतकारों के नवगीतों में सांस्कृतिक रुचि और सकारात्मक ऊर्जा काकी प्रमुखता है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय पर्वों, पेड़-पौधों और पुष्पों पर नवगीत लेखन कराकर नवगीत को विसंगतिपरकता के कठमुल्लेपन से निजात दिलाने में महती भूमिका निभाई है।
नवगीत का नया कलेवर
साम्यवादी वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर सामाजिक विघटन, टकराव और द्वेषपरक नकारात्मकता से सामाजिक समरसता को क्षति पहुँचा रहे नवगीतकारों ने समाज-द्रोह को प्रोत्साहित कर परिवार संस्था को अकल्पनीय क्षति पहुँचाई है। नवगीत ही नहीं लघुकथा, व्यंग्य लेख आदि विधाओं में भी यह कुप्रवृत्ति घर कर गई। नवगीत ने नकारात्मकता का सकारात्मकता से सामना करने में पहल की है। कुमार रवींद्र की अप्प दीपो भव, पूर्णिमा बर्मन की चोंच में आकाश, आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' की काल है संक्रांति का और सड़क पर, देवेंद्र सफल की हरापन बाकी है, आचार्य भगवत दुबे की हिरन सुगंधों के, जय प्रकाश श्रीवास्तव की परिंदे संवेदनाओं के, अशोक गीते की धूप है मुंडेर की आदि कृतियों में नवाशापरक नवगीत संभावनाओं के द्वार खटखटा रहे हैं।
नवगीत अब विसंगति का ढोल नहीं पीट रहा अपितु नव निर्माण, नव संभावनाओं, नवोत्कर्ष की राह पर पग बढ़ा रहा है। नवगीत के आवश्यक तत्व सम-सामयिक कथ्य, सहज भाषा, स्पष्ट कथन, कथ्य को उभार देते प्रतीक और बिंब, सहज ग्राह्य शैली, लचीला शिल्प, लयात्मकता, छांदसिकता। लाक्षणिकता, व्यंजनात्मकता और जमीनी जुड़ाव हैं। आकाश कुसुम जैसी कल्पनाएँ नवगीत के लिए उपयुक्त नहीं हैं।नवगीत आम आदमी को लक्ष्य मानकर अपनी बात कहता है। नवगीत प्रयोगधर्मी काव्य विधा है। कुमार रवींद्र ने बुद्ध के जीवन से जुड़े पात्रों के माध्यम से एक-एक नवगीत कहकर प्रथम नवगीतात्मक प्रबंध काव्य 'अप्प दीपो भव' की रचना की है। इन पंक्तियों के लेखक ने 'काल है संक्रांति का' में नवगीत में शारद वंदन, फाग, सोहर आदि लोकगीतों की धुन, आल्हा, सोरठा, दोहा आदि छंदों प्रयोग प्रथमत: किया है। पूर्णिमा बर्मन ने भारतीय सांस्कृतिक प्रतीकों को नवगीतों में बखूबी पिरोया है।
नवगीत के तत्वों का उल्लेख करते हुए एक रचना की कुछ पंक्तियाँ देखें-
मौन तजकर मनीषा कह बात अपनी
नव्यता संप्रेषणों में जान भरती
गेयता संवेदनों का गान करती
तथ्य होता कथ्य का आधार खाँटा
सधी गति-यति अंतरों का मान बनती
अंतरों के बाद मुखड़ा आ विहँसता
छंदहीना अकविताएँ क्यों सिरजनी?
सरलता-संक्षिप्तता से बात बनती
मर्मबेधकता न हो तो रार ठनती
लाक्षणिकता, भाव, रस,रूपक सलोने
बिम्ब टटकापन सजीला कहन रुचती
गीत के संग लोक का मन नाचता है
ताल-लय बिन बेतुकी क्यों रहे कथनी?
नवगीत का भविष्य तभी उज्जवल होगा जब नवगीतकार प्रगतिवाद की आड़ में वैचारिक प्रतिबद्धता के नाम पर समाप्तप्राय राजनैतिक विचारधारा के कठमुल्लों हुए अंध राष्ट्रवाद से तटस्थ रहकर वैयक्तिकता और वैश्विकता, स्व और सर्व के मध्य समन्वय-संतुलन स्थापित करते हुए मानवीय जिजीविषा गुंजाते सकारात्मकता ऊर्जा संपन्न नवगीतों से विश्ववाणी हिंदी के रचना कोष को समृद्ध करते रहें।
८-९-२०२०
*
हाइकु सलिला
*
हाइकु करे
शब्द-शब्द जीवंत
छवि भी दिखे।
*
सलिल धार
निर्मल निनादित
हरे थकान।
*
मेघ गरजा
टप टप मृदंग
बजने लगा।
*
किया प्रयास
शाबाशी इसरो को
न हो हताश
*
जब भी लिखो
हमेशा अपना हो
अलग दिखो।
*
मुक्तिका
अपना शहर
*
अपना शहर अपना नहीं, दिन-दिन पराया हो रहा।
अपनत्व की सलिला सुखा पहचान अपनी खो रहा।।
मन मैल का आगार है लेकिन नहीं चिंता तनिक।
मल-मल बदन को खूब मँहगे सोप से हँस धो रहा।।
था जंगलों के बीच भी महफूज, अब घर में नहीं।
वन काट, पर्वत खोद कोसे ईश को क्यों, रो रहा।।
थी बेबसी नंगी मगर अब रईसी नंगी हुई।
है फूल कुचले फूल, सुख से फूल काँटे बो रहा।।
आती नहीं है नींद स्लीपिंग पिल्स लेकर जागता
गद्दे परेशां देख तनहा झींक कहता सो रहा।।
संजीव थे, निर्जीव नाते मर रहे बेमौत ही
संबंध को अनुबंध कर, यह लाश सुख की ढो रहा।।
सिसकती लज्जा, हया बेशर्म खुद को बेचती।
हाय! संयम बिलख आँसू हार में छिप पो रहा।।
८-९-२०१९
***
मुक्तिका:
*
तेवर बिन तेवरी नहीं, ज्यों बिन धार प्रपात
शब्द-शब्द आघात कर, दे दर्दों को मात
*
तेवरीकार न मौन हो, करे चोट पर चोट
पत्थर को भी तोड़ दे, मार लात पर लात
*
निज पीड़ा सहकर हँसे, लगा ठहाके खूब
तम का सीना फाड़ कर, ज्यों नित उगे प्रभात
*
हाथ न युग के जोड़ना, हाथ मिला दे तोड़
दिग्दिगंत तक गुँजा दे, क्रांति भरे नग्मात
*
कंकर को शंकर करे, तेरा दृढ़ संकल्प
बूँद पसीने के बने, यादों की बारात
*
चाह न मन में रमा की, सरस्वती है इष्ट
फिर भी हमीं रमेश हैं, राज न चाहा तात
*
ब्रम्ह देव शर्मा रहे, क्यों बतलाये कौन?
पांसे फेंकें कर्म के, जीवन हुआ बिसात
*
लोहा सब जग मान ले, ऐसी ठोकर मार
आडम्बर से मिल सके, सबको 'सलिल' निजात
८-९-२०१५
*

गुरुवार, 12 अगस्त 2021

दोहा गीत

नवगीत / दोहा गीत :
हिन्दी का दुर्भाग्य है...
संजीव 'सलिल'
*
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कान्हा मैया खोजता,
मम्मी लगती दूर.
हनुमत कह हम पूजते-
वे मानें लंगूर.

सही-गलत का फर्क जो
झुठलाये है सूर.
सुविधा हित तोड़ें नियम-
खुद को समझ हुज़ूर.

चाह रहे जो शुद्धता,
आज मनाते सोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
कोई हिंगलिश बोलता,
अपना सीना तान.
अरबी के कुछ शब्द कह-
कोई दिखाता ज्ञान.

ठूँस फारसी लफ्ज़ कुछ
बना कोई विद्वान.
अवधी बृज या मैथिली-
भूल रहे नादान.

माँ को ठुकरा, सास को
हुआ पूजना रोग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
*
गलत सही को कह रहे,
सही गलत को मान.
निज सुविधा ही साध्य है-
भाषा-खेल समान.

करते हैं खिलवाड़ जो,
भाषा का अपमान.
आत्मा पर आघात कर-
कहते बुरा न मान.

केर-बेर के सँग सा
घातक है दुर्योग.
हिन्दी का दुर्भाग्य है,
दूषित करते लोग.....
१२-८-२०१० 
***

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

विमर्श हिन्दी उर्दू भाषाएँ व लिपियाँ

विमर्श
हिन्दी उर्दू भाषाएँ व लिपियाँ
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"फ़ारसी लिपि (नस्तालीक़) सीखो नहीं तो हम आप की ग़ज़लों को मान्यता नहीं देंगे" टाइप जुमलों के बीच मैं अक्सर सोचता हूँ क्या कभी किसी जापानी विद्वान ने कहा है कि "हाइकु लिखने हैं तो पहले जापनी भाषा व उस की 'कांजी व काना' लिपियों को भी सीखना अनिवार्य है"। क्या कभी किसी अंगरेज ने बोला है कि लैटिन-रोमन सीखे बग़ैर सोनेट नहीं लिखने चाहिये।
मेरा स्पष्ट मानना है कि:-
तमाम रस्म-उल-ख़त* सरज़मीन हैं जिन पर।
ज़ुबानें पानी की मानिन्द बहती रहती हैं॥
*लिपियाँ
उर्दू अगर फ़ारस से आयी होती तब तो फ़ारसी लिपि की वकालत समझ में आती मगर यह तो सरज़मीने-हिन्दुस्तान की ज़ुबान है भाई। इस का मूल स्वरूप तो देवनागरी लिपि ही होनी चाहिये - ऐसा मुझे भी लगता है। हम लोगों ने रेल, रोड, टेम्परेचर, फ़ीवर, प्लेट, ग्लास, लिफ़्ट, डिनर, लंच, ब्रेकफ़ास्ट, सैलरी, लोन, डोनेशन जैसे सैंकड़ों अँगरेजी शब्दों को न सिर्फ़ अपनी रोज़मर्रा की बातचीत का स-हर्ष हिस्सा बना लिया है बल्कि इन को देवनागरी लिपि ही में लिखते भी हैं। इसी तरह अरबी-फ़ारसी लफ़्ज़ों को देवनागरी में क्यों नहीं लिखा जा सकता। उर्दू के तथाकथित हिमायतियों को याद रखना चाहिये कि देवनागरी लिपि उर्दू ज़ुबान के लिये संजीवनी समान है।
कुदरत का कानून तो यह ही कहता है साहब।
चिपका-चिपका रहता हो वह फैल नहीं सकता॥
मज़हब और सियासत से भाषाएँ मुक्त करो।
चुम्बक से जो चिपका हो वह फैल नहीं सकता॥
आय लव टु राइट एण्ड रीड उर्दू इन देवनागरी लिपि - यह आज की हिंगलिश है जिसे धड़ल्ले से बोला जा रहा है - लिहाज़ा लिख कर भी देख लिया।
अगर उच्चारण के आधार पर कोई बहस करना चाहे तो उसे पचास-साठ-सत्तर यानि अब से दो-तीन पीढियों पहले के दशकों की फ़िल्मों में शुद्ध संस्कृत निष्ठ हिन्दी और ख़ालिस पर्सियन असर वाली उर्दू के मज़ाहिया इस्तेमालों पर एक बार नज़रे-सानी कर लेना चाहिये। कैसा-कैसा माख़ौल उड़ाया गया है जिस पर आज भी हम जैसे भाषा प्रेमी भी अपनी हँसी रोक नहीं पाते।
बिना घुमाये-फिराये सीधी -सीधी दो टूक बात यही है कि उर्दू विभिन्न विभाजनों के पहले वाले संयुक्त हिन्दुस्तान की ज़ुबान है जिस की मूल लिपि देवनागरी को ही होना चाहिये - ऐसा मुझे भी लगता है। जैसे हम लोग चायनीज़, जर्मनी आदि स्वेच्छा से सीखते हैं उसी तरह फ़ारसी लिपि को सीखना भी स्वेच्छिक होना चाहिये - बन्धनकारक कदापि नहीं।
सादर,
नवीन सी चतुर्वेदी
मुम्बई
०२-०४-२०१७

रविवार, 13 सितंबर 2015

doha salila

दोहा सलिला:
करना है साहित्य बिन, भाषा का व्यापार 
भाषा का करती 'सलिल', सत्ता बंटाधार 
*
मनमानी करते सदा, सत्ताधारी लोग 
अब भाषा के भोग का, इन्हें लगा है रोग
*
करता है मन-प्राण जब, अर्पित रचनाकार
तब भाषा की मृदा से, रचना ले आकार
*
भाषा तन साहित्य की, आत्मा बिन निष्प्राण
शिवा रहित शिव शव सदृश, धनुष बिना ज्यों बाण
*
भाषा रथ को हाँकता, सत्ता सूत अजान
दिशा-दशा साहित्य दे, कैसे? दूर सुजान
*
अवगुंठन ही ज़िन्दगी, अनावृत्त है ईश
प्रणव नाद में लीन हो, पाते सत्य मनीष
*
पढ़ ली मन की बात पर, ममता साधे मौन
अपनापन जैसा भला, नाहक तोड़े कौन
*
जीव किरायेदार है, मालिक है भगवान
हुआ किरायेदार के, वश में दयानिधान
*
रचना रचनाकार से, रच ना कहे न आप
रचना रचनाकार में, रच जाती है व्याप
*
जल-बुझकर वंदन करे, जुगनू रजनी मग्न
चाँद-चाँदनी का हुआ, जब पूनम को लग्न
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तिमिर-उजाले में रही, सत्य संतान प्रीति
चोली-दामन के सदृश, संग निभाते रीति
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जिसे हुआ संतोष वह, रंक अमीर समान
असंतोषमय धनिक सम, दीन न कोई जान
*

बुधवार, 30 जुलाई 2014

राष्ट्र्भाषा हिन्दी

समाचारः बाड़्मेर में अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता समिति की बैठक में राजस्थानी को हिंदी से अधिक पुरानी भाषा होने के आधार पर राष्ट्र्भाषा बनाने की माँग की गयी है. मेरा नजरिया निम्न है. आप भी अपनी बात कहें-

१. राजस्थानी, कन्नौजी, बॄज, अवधी, मगही, भोजपुरी, अंगिका, बज्जिका और अन्य शताधिक भाषायें आधुनिक हिंदी के पहले प्रचलित रही हैं. क्या इन सबको राष्ट्र्भाषा बनाया जा सकता है?
२. राजस्थानी कौन सी भाषा है? राजस्थान में मारवाड़ी, मेवाड़ी, शेखावाटी, हाड़ौती आदि सौ से अधिक भाषायें बोली जा रही हैं. क्या इन सबका मिश्रित रूप राजस्थानी है?
३. हिंदी ने कभी किसी भाषा का विरोध नहीं किया. अंग्रेजी का भी नहीं. हिन्दी की अपनी विशेषतायें हैं. राजस्थानी को हिंदी का स्थान दिया जाए तो क्या देश के अन्य राज्य उसे मान लेंगे? क्या विश्व स्तर पर राजस्थानी भारत की भाषा के तौर पर स्वीकार्य होगी?
जैसे घर में दादी सास, चाची सास, सास आदि के रहने पर भी बहू अधिक सक्रिय होती है वैसे ही हिन्दी अपने पहले की सब भाषाओं का सम्मान करते हुए भी व्यवहार में अधिक लायी जा रही है.
४. निस्संदेह हिन्दी ने शब्द संपदा सभी पूर्व भाषाओं से ग्रहण की
है.
५. आज आवश्यकता हिन्दी में सभी भाषाओं के साहित्य को जोड़्ने की है.
६. म. गांधी ने क्रमशः भारत की सभी भाषाओं को देवनागरी में लिखे जाने का सुझाव दिया था. राजनीतिक स्वार्थों ने उनके निधन की बाद ऐसा नहीं होने दिया और भाषाई विवाद पैदा किये. अब भी ऐसा हो सके तो सभी भारतीय भाषायें संस्कृत की प्रृष्ठ भूमि और समान शब्द संपदा के कारण समझी जा सकेंगी.

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

गूगल IME - हिन्दी में टाइप करने का सरलतम साधन --शैलेश भारतवासी

गूगल IME - हिन्दी में टाइप करने का सरलतम साधन

 

आज से लगभग दो वर्ष पहले जब मैं लोगों को ऑनलाइन हिन्दी टाइपिंग टूल के बारे में बताता था तो सबसे पहले गूगल का ट्रांसलिटरेशन (लिप्यंतरण) टूल के बारे में बताता था। और ऐसे लोगों को जो कि पहली बार हिन्दी में टाइप कर रहे होते थे, उन्हें सबसे अधिक यही टूल पसंद भी आता था।

लेकिन इस टूल की अपनी सीमाएँ हैं-
1) इंटरनेट कनैक्शन के लगातार बने रहने पर ही यह काम करता है।
2) इंटरनेट कनैक्शन सतत नहीं है, या आप डायल-अप कनैक्शन के उपभोक्ता हैं तो बहुत सम्भव है कि कई शब्द रोमन से देवनागरी में बदले ही ना।
3) और जबसे गूगल ने गूगल ट्रांसलिटरेशन बुकमार्कलेट ज़ारी किया तब से इनका अजाक्स फीचर और भी दुखदायी हो गया है।

मुझे याद है यूनिप्रशिक्षण के दौरान कम से कम 500 प्रशिक्षुओं ने मुझसे पूछा होगा कि गूगल की यह सुविधा ऑफलाइन इस्तेमाल के लिए नहीं मिल सकती? मैं कहता कि मैं तो इन सुविधाओं का प्रचारक हूँ, बनाने वाला होता तो ज़रूर बना चुका होता। इस संदर्भ मैंने गूगल-दरबार में 1-2 बार गुहार भी लगाई। खैर उन गुहारों का असर तो नहीं हुआ लेकिन बाज़ार का असर हुआ। माइक्रोसाफ्ट द्वारा हिन्दी के अतिरिक्त कई अन्य भारतीय भाषाओं में आईएमई(इनपुट मेथड एडीटर) ज़ारी किये जाने के बाद शायद प्रतिस्पर्धा का ही परिणाम था कि गूगल ने अपना आईएमई टूल जारी कर दिया।

हाँ, तो मैं इस खुशख़बरी के साथ हाज़िर हूँ कि यदि आप गूगल के ट्रांसलिटरेशन टूल के साथ बने रहना चाहते हैं लेकिन किसी ऑनलाइन बाक्स, ऑरकुट, जीमेल में टाइप करने के ताम-झाम से बचना चाहते हैं तो गूगल ने अपना ट्रांसलिटरेशन आईएमई टूल ज़ारी कर दिया है। गूगल ने यह टूल एक साथ 14 भाषाओं (अरबी, फ़ारसी (पर्सियन), ग्रीक, बंगाली, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़, मलयालम, मराठी, नेपाली, पंजाबी, तमिल, तेलगू और ऊर्दू) में टाइप करने के लिए ज़ारी किया है। मैं यह ट्यूटोरियल हिन्दी के IME टूल के लिए तैयार कर रहा हूँ।

क्या खा़स है इस टूल में-

1) इंटरनेट कनैक्शन की कोई आवश्यकता नहीं- आप एक बार इंस्टॉल कर लें, फिर आपके पास इंटरनेट कनैक्शन हो या न हो, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
2) आसान कीबोर्ड- गूगल के इस टूल से लोगों की यह भी शिकायत रहती थीं कि वे हिन्दी के चालू शब्द तो टाइप कर लेते थे, लेकिन कई संस्कृतनिष्ठ शब्द नहीं टाइप हो पाते थे। जैसे बहुत कोशिशों के बाद भी 'हृदय' लिखना मुश्किल होता था, 'ह्रदय' से ही काम चलाना पड़ता था। जो लोग इस टूल का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें इस टूल की सीमाओं का पता है। अब नये IME में गूगल ने एक कीबोर्ड दिया है, जिसकी मदद से आप दुर्लभ और जटिल शब्द भी टाइप कर सकते हैं।
3) शब्दों की पूर्ति- इसमें शब्दकोश आधारित शब्द पूर्ति पद्धति सक्रिय है। इसकी मदद से टाइप करने वाले को यह आसानी होती है कि जैसे ही वह किसी शब्द के 2-3 अक्षर टाइप करता है, गूगल का यह सिस्टम इससे बन सकने वाले शब्दों का सुझाव देने लगता है। जैसे- 'हिन्दी' लिखना है, hi टाइप करते ही 'हिन्दी' का विकल्प प्रदर्शित हो जाता है।
4) खोज का विकल्प- इस टूल के साथ हर शब्द, शब्द-युग्म और सम्भावित शब्द के नीचे एक तीरनुमा आकृति बनी है, जिसपर क्लिक करने से Search (खोज) का विकल्प आता है, उसपर क्लिक करते ही गूगल उस शब्द से संबंधित खोज परिणाम प्रदर्शित करने लगता है। टाइपिंग पट्टी के ऊपरी दायें कोने में भी गूगल का ऑइकॉन है, जिसपर क्लिक करके गूगल-सर्च किया जा सकता है। इस विकल्प के जुड़े रहने से देवनागरी-सर्च को भी बढ़ावा मिलेगा।
5) वैयक्तिक चयन- गूगल का यह टूल आप द्वारा किये गये संशोधनों को भी अपने ध्यान में रखता है और अगली बार आपके रोमन अक्षरयुग्मों से उन्हीं शब्दों का सुझाव देता है जो आप द्वारा वांछित है। जैसे आप 'kam' से 'काम' की जगह 'कम' लिखना चाहते हैं तो अगली बार से यह आपकी पसंद का ख्याल रखता है।
6) सुखद अनुकूलन- गूगल इस टूल में फॉन्ट चयन, साइच चयन का विकल्प भी प्रदान करता है, जिससे आप अपनी पसंद के स्टाइल में टाइपिंग कर सकें।

अब इतना जान लेने के बाद आप यह ज़रूर जानना चाहेंगे कि इसे आप अपने सिस्टम में संस्थापित (इंस्टॉल) कैसे करें।

1) यहाँ क्लिक करके इसका सेट-अप डाउनलोड करें (आप चाहें तो इस टूल के अधिकारिक पृष्ठ पर जाकर भी सेट-अप डाउनलोड कर सकते है)।
2) एक ही क्लाइंट मशीन पर एक से अधिक भाषाओं का IME सेट-अप चलाया जा सकता है।
3) यह टूल Windows 7/Vista/XP 32-bit ऑपरेटिंग सिस्टम के साथ काम करता है।
4) जब इंस्टॉलर डाउनलोड हो जाये तो उसे चलायें। यह कुछ डाउनलोड करने की शुरूआत करेगा।
5) नियम व शर्तों को स्वीकार करें-

6) गूगल इनपुट सेट-अप इंस्टॉल हो रहा है-

7) फिनिश बटन पर क्लिक करके इंस्टॉलेशन विज़ार्ड से बाहर आयें-

विन्यास (कन्फिगरेशन)

आप यदि इस टूल को चलाना चाहते हैं तो पहले तो आपके सिस्टम में यूनिकोड का सपोर्ट इंस्टॉल होना चाहिए। इसके लिए आप Control Panel -> Regional and Language Options -> Languages tab -> Install files for complex scripts and right to left languages और Install files for East Asian languages दोनों को चेक्ड करके इंस्टॉलर सीडी द्वारा इंस्टॉल करें। इसके बाद आपके टूलबार में भाषा का विकल्प दिखने लगेगा। भाषा के इस विकल्प को लैंग्वेज बार भी कहते हैं।

यदि लैंग्वेज-बार न दिखे तो।
डेस्कटॉप पर राइट क्लिक करें (दायाँ क्लिक करें) और टूलबार में जायें और निम्नलिखित चित्र की भाँति लैंग्वेज़ बार इनेबल करें।

यदि फिर भी लैंग्वेज बार नहीं दिखता तो निम्नलिखित तरीके से लैंग्वेज बार दिखायें-
Windows 7/Vista
  1. Control Panel -> Regional and Language Options -> Keyboard and Languages tab
  2. Text services and input languages dialog खोलने के लिए Change keyboards पर क्लिक करें।
  3. Language Bar tab पर क्लिक करें
  4. लैंग्वेज़ बार वर्ग से Docked in the taskbar रेडियो बटन को इनेबल (सक्रिय) करें।
  5. उपर्युक्त सभी सेटिंग को इप्लाई करें और देखने की कोशिश करें कि आपके टूलबार में लैंग्वेज बार देखें।
Windows XP
  1. जायें-Control Panel -> Regional and Language Options -> Languages tab -> Text services and input languages (Details) -> Advanced Tab
  2. यह सुनिश्चित कीजिए कि System configuration विकल्प के अंतर्गत Turn off advanced text services चेक्ड नहीं है।
  3. जायें- Control Panel -> Regional and Language Options -> Languages tab -> Text services and input languages (Details) -> Settings Tab
  4. Language Bar पर क्लिक करें
  5. Show the Language bar on the desktop चुनें और OK पर क्लिक करें।
IME का Shortcut कैसे सक्रिय करें-

हालाँकि आप लैंग्वेज बार से अंग्रेजी और हिन्दी को बारी-बारी से चुनकर दोनों भाषाओं के बीच टॉगल कर सकते हैं, लेकिन यदि आप अपने कीबर्ड से कोई शार्टकर्ट का इस्तेमाल करके किसी भी अनुप्रयोग में इसे चलाना चाहते हैं तो निम्नलिखित तरीके से कर सकते हैं-

Windows 7/Vista
  1. Control Panel -> Regional and Language Options -> Keyboard and Languages tab

  2. Text services and input languages dialog खोलने के लिए Change keyboards... बटन पर क्लिक करें।

  3. Advanced Key Settings tab खोजें और इसपर क्लिक करें।

  4. यदि Google Input उस लिस्ट में नहीं है तो Add पर क्लिक करें। Add Input language dialog box में भाषा विकल्प में हिन्दी और कीबोर्ड में Google Input चुनें।

  5. Hot keys for input languages वर्ग में - Google Input पर जायें।

  6. Change Key Sequence दबायें

  7. Enable Key Sequence चुनें

  8. Left ALT + SHIFT + Key 1 जैसा कोई विकल्प चुनें।

  9. ऊपर्युक्त सभी सेटिंग को एप्लाई करें।

  10. अब नोटपैड, वर्डपैड जैसे किसी अनुप्रयोग को खोलकर यह चेक करें कि शॉर्टकर्ट काम कर रहा है या नहीं। Left ALT + SHIFT + Key 1 दबायें और देखें कि हिन्दी में लिख पा रहे हैं या नहीं।
Windows XP

  1. Control Panel -> Regional and Language Options -> Languages tab -> Text services and input languages (Details) -> Settings Tab
  2. यदि या Google Installed Services बॉक्स में भाषा के रूप में नहीं जुड़ा है, तो Add पर क्लिक करके Add Input language dialog box खोलें Input language में जोड़े और Keyboard layout/IME में Google Input चुनें। OK पर क्लिक करें।
  3. Key Settings पर क्लिक करें।
  4. Hot keys for input languages में Switch to -Google Input चुनें
  5. Change Key Sequence पर क्लिक करें
  6. Enable Key Sequence चुनें
  7. Left ALT + SHIFT + Key 1 जैसा कोई विकल्प चुनें।
  8. ऊपर्युक्त सभी सेटिंग को एप्लाई करें।
  9. अब नोटपैड, वर्डपैड जैसे किसी अनुप्रयोग को खोलकर यह चेक करें कि शॉर्टकर्ट काम कर रहा है या नहीं। Left ALT + SHIFT + Key 1 दबायें और देखें कि हिन्दी में लिख पा रहे हैं या नहीं।


फीचर-

मैं इसके बहुत से फीचरों के बारे में पहले ही बता चुका हूँ। एक बार चित्र के मध्यम से देखते हैं-

स्टेटस विंडो-

जब आप लैंग्वेज बार सक्रिय कर लेंगे और गूगल का विकल्प जोड़ लेंगे तो IME सक्रिय करने का शॉर्टकर्ट चलाते ही आपके स्क्रीन पर इस टूल का स्टेटस दिखाई देगा।

संपादन खिड़की-

स्क्रीन पर गूगल IME का विंडो दिखते ही आप नोटपैड सरीखे किसी अनुप्रयोग को खोलें और टाइप करना शुरू करें। जब आप 'googl' टाइप करेंगे तो निम्नलिखित तरीके से विकल्प दिखेंगे-

नेविगेशन और चयन-

बाय-डिफाल्ट सबसे बायाँ विकल्प आपका सक्रिय चयन है। आप अपना चयना BOTTOM-ARROW या TAB बटन द्वारा बदल सकते हैं। विकल्पों पर आगे बढ़ जाने के बाद पीछे के विकल्प/विकल्पों पर लौटने के लिए UP-ARROW या SHIFT+TAB बटन का इस्तेमाल कर सकते हैं। यह मुश्किल लगे तो माउस राजा तो है हीं। Enter बटन को दबाकर वांछित शब्द इमसर्ट कर सकते हैं। SPACE या कोई PUNCTUATION CHARACTER (विराह चिह्न) आदि बटनों का प्रयोग करके भी शब्द को पूरा टाइप किया जा सकता है। CTRL+ के शॉर्टकर्ट से भी आप प्रदर्शित विकल्पों में से वांछित विकल्प चुन सकते हैं। जैसे दूसरा विकल्प चुनने के लिए CTRL+2 -

शब्द-पूर्ति-

जब आप इस संपादित्र (एडीटर) के माध्यम से कोई शब्द टाइप करते हैं तो यह सारे संभावित शब्द युग्मों को काले और नीले रंगों में दिखाता है। काले रंग के बैकग्राउंड में प्रदर्शित हो रहे शब्द आपके द्वारा टंकित रोमन अक्षरों से सम्भावित शब्द है और नीले रंग के बैकग्राउंड में प्रदर्शित होने वाले शब्द शब्दकोश के शब्द हैं।

पेजिंग-

हमने जिस सेटिंग पर चर्चा की, उसमें 1 बार में 5 शब्द प्रदर्शित होते हैं। सेटिंग से आप इसे 6 तक बढ़ा सकते हैं। लेकिन मान लें कि इस टूल के पास आप द्वारा टंकित अक्षरयुग्मों के लिए 5 या 6 से अधिक सुझाव हैं तो यह 1 से अधिक पृष्ठों में सभी शब्द प्रदर्शित करेगा। आप देखेंगे कि ऊपर और नीचे जाने का Arrow नेविगेशन चमकने लगेगा। आप PAGEUP, PAGEDOWN बटन से भी इन विकल्पों के बीच दौड़ सकते हैं।

खोज-

किसी भी समय जब आप इस संपादित्र में टाइप कर रहे हों, दायें कोने में गूगल के ऑइकॉन पर क्लिक करके उस शब्द (हाइलाइटेड) से संबंधित गूगल खोज कर सकते हैं। गैरसक्रिय विकल्पों पर बने डाउनएरो(DownArrow) के निशान पर क्लिक करके उस विशेष विकल्प से संबंधित गूगल खोज कर सकते हैं।

प्रयोक्ता कैशे (USER CACHE)-

कम्प्यूटर के लिए कैशे एक अस्थाई स्मृति होती है जो कभी पहले इस्तेमाल किये गये डाटा के रूप में संग्रहणित होती है। कई दफ़ा स्मृति आधारित बहुत से कम्प्यूटर अनुप्रयोग अपनी इसी स्मृति की मदद से बहुत तेज़ काम करते हैं, तेज़ परिणाम देते हैं।

गूगल का यह आईएमई टूल भी प्रयोक्ता द्वारा सुझाये गये विकल्पों को अपने कैशे मेमोरी में संचित करके रखता है और अगली दफ़ा आपको वांछित परिणाम देता है। उदाहरण के लिए- मान लें कि आपने इस संपादित्र की मदद से रोमन में 'program' टाइप किया। यह टूल पहले आउटपुट के रूप में 'प्रोग्राम' दिखाया, लेकिन आपको दूसरा विकल्प 'प्रोगराम' वांछित था। आपने उसे एरो बटन या माउस द्वारा चुना।

जब आप अगली बार ''program' टाइप करेंगे तो गूगल का यह IME टूल आपके सुझाव और आपकी चाहत को ध्यान में रखेगा और पहले विकल्प के रूप 'प्रोग्रराम' दिखायेगा। नीचे दिखाये गये चित्र की तरह-




दो भाषाओं को आपस में बदलना-

आप इस टूल की मदद से पहले की तरह अंग्रेज़ी और हिन्दी भाषा दोनों के शब्द अपने एक ही कीबोर्ड से लिख सकते हैं। जब आईएमई सक्रिय हो, आप F12 या Ctrl+G की मदद से रोमन और देवनागरी को आपस में बदल सकते हैं।



आप चाहें तो आपके कम्प्यूटर स्क्रीन पर बने ऑइकॉन की मदद से 'अ' पर क्लिक करके 'A' और 'A' पर क्लिक करके 'अ' कर सकते हैं। 'अ' इस बात का सूचक है कि टाइपिंग-आउटपुट देवनागरी में होगा और 'A' इस बात का सूचक है कि टाइपिंग-आउटपुट रोमन में होगा।

कीबोर्ड-

गूगल ने इस बार एक इनस्क्रिप्ट कीबोर्ड का विकल्प भी दिया है, जिसमें हिन्दी के सभी स्वर, व्यंजन, विराम चिह्न इत्यादि एक क्रम में सजे हुए हैं। इस कीबोर्ड की मदद से आप बहुत से जटिल और दुर्लभ शब्द या अपनी मर्ज़ी के सार्थक-निरर्थक शब्द अपने आलेख में जोड़ सकते हैं। जैसे यदि आप कीबोर्ड की मदद से 'यक्ष' लिखना चाहें तो कीबोर्ड से 'य' और 'क्ष' का बटन दबायें आपका काम हो जायेगा।

यह कीबोर्ड स्टेटस विंडों (कम्प्यूटर स्क्रीन पर दिखने वाला IME का ऑइकॉन) पर बने कीबोर्ड के ऑइकॉन पर क्लिक करके खोला जा सकता है या कीबोर्ड शॉर्टकर्ट Ctrl+K द्वारा खोला जा सकता है। माउस द्वारा वांछित अक्षर का चुनाव कर सकते हैं। माउस से स्टेटस विंडो पर बने कीबोर्ड के ऑइकॉन पर दुबारा क्लिक करके, या Ctrl+K दबाकर या Esc का बटन दबाकर इसे बंद किया जा सकता है।

गूगल ने पहली बार ZWJ और ZWNJ का विकल्प भी इस कीबोर्ड में दिया है। मैं यूनिप्रशिक्षण के दौरान कई बार इन दोनों के महत्व का उल्लेख कर चुका हूँ। आज संक्षेप में दुबारा लिखता हूँ-

ZWJ- Zero Width Joiner (शून्य चौड़ाई वाला योजक)- मतलब दो व्यंजनों को जोड़ने वाला ऐसा योजक जिसकी चौड़ाई शून्य हो। जैसे जब हम सामान्य तरीके से एक आधा व्यंजन और उसके बाद पूरा व्यंजन लिखते हैं तो दोनों मिलकर कई बार बहुत अजीब सा (अवांछित) रूप धर लेते हैं। जैसे जबकि हम 'रक्‍त' लिखना चाहते हैं, लेकिन इसका रूप 'रक्त' जैसा हो जाता है। असल में हम 'रक्‍त' इसी ZWJ की मदद से लिखते हैं। मतलब यह जोड़ भी देता है और कोई स्थान भी नहीं घेरता।
रक्त= र+क्+त
रक्‍त=र+क्+ZWJ+त

या मान लें आपको को 'क्‍', 'ख्‍', 'ग्‍'.....'च्‍', 'छ्‍'.....'त्‍', 'थ्‍' इत्यादि लिखना है तो ZWJ का इस्तेमाल करना होगा।
जैसे ग्‍= ग्+ZWJ

ZWNJ- Zero Width Non Joiner (शून्य चौड़ाई वाला अ-योजक)- मतलब दो व्यंजनों को पारस्परिक अलग-अलग दिखाने का उपाय जिससे हम व्यंजन के पूर्ण शुद्ध रूप को निरूपित कर सकते हैं, भले ही उसके बाद कोई व्यंजन ही आये। अमूमन हिन्दी में किसी पूर्ण शुद्ध व्यंजन के बाद कोई व्यंजन जुड़ते ही उसके आकार में कुछ विकार आ जाता है, लेकिन कई बार हम उसे अलग करके दिखाना चाहते हैं, जिसके लिए ZWNJ का इस्तेमाल किया जाता है। जैसे मान लें कि 'रक्त' आप ना तो 'रक्त' की तरह और ना ही 'रक्‍त' की तरह दिखाना चाहते हैं बल्कि आप 'रक्‌त' की तरह दिखाना चाहते हैं तब आप ZWNJ का इस्तेमाल करेंगे।
रक्‌त= र+क्+ZWNJ+त




अनुकूलन-

इस टूल में अपने हिसाब से अनुकूलन करने का विकल्प भी मौज़ूद है। आप स्टेट्स विंडों में सेटिंग के ऑइकॉन पर क्लिक करके 'Suggestion Font' से यूनिकोड का फॉन्ट, साइज़ और बोल्ड, इटैलिक, अंडरलाइंड इत्यादि जैसे कस्टोमाइजेशन कर सकते हैं। आप मंगल और Arial Unicode MS के अलावा भी जैसे गार्गी, जयपुर यूनिकोड, जनहिन्दी इत्यादि जैसे यूनिकोड फॉन्ट (यदि आपने इसे अपने सिस्टम में अलग से डाल रखा है तो) जैसा कोई और फॉन्ट चुन सकते हैं।

अंग्रेज़ी के शब्दों के लिए फॉन्ट कस्टोमाइजेशन कर सकते हैं। पेज़ साइज़ बदल सकते हैं (एक पेज़ में कितने विकल्प दिखाने हैं)।

जिस प्रयोक्ता कैशे का उल्लेख मैंने ऊपर किया आप चाहें तो उसे निष्क्रिय भी कर सकते हैं, क्योंकि कई बार आप बहुत अजीब या कम प्रयोग में आने वाला शब्द टाइप करते हैं और आप नहीं चाहते कि चालू शब्द पहले नं॰ पर आना बंद हो।

मैंने गूगल के अंग्रेज़ी ट्यूटोरियल की मदद से, खुद से प्रयोग करके और कुछ पुराने अनुभवों के माध्यम से इस टूल के बारे में बताने की कोशिश की है। फिर भी यदि आपको कोई परेशानी आये तो लिखें।

यदि प्रयोक्ताओं को इस ट्यूटोरियल से बात समझ में नहीं आ पाती तो मैं वीडियो ट्यूटोरियल लेकर उपलब्ध होऊँगा।
divyanarmada.blogspot.com