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मंगलवार, 18 जुलाई 2017

smaran

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
*
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन, मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।
बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये।
महाकाव्य त्रयी का सृजन:
चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३ दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास सहायक पदों तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ) के आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा) में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।
देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य सौभाग्य मिला।
चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए। को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए।
दोहांजलि:
ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि

कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश

सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप

चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन

सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष

कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब

चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत

दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम

चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य

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salil.sanjiv@gmail.com
#दिव्यनर्मदा 
हिंदी_ब्लॉगर
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शनिवार, 31 अक्टूबर 2015

smaran alankar

अलंकार सलिला: २७ 

स्मरण अलंकार
*
















*
बीती बातों को करें, देख आज जब याद 
गूंगे के गुण सा 'सलिल', स्मृति का हो स्वाद।।

स्मरण करें जब किसी का, किसी और को देख
स्मित अधरों पर सजे, नयन अश्रु की रेख
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप

जब काव्य पंक्तियों को पढ़ने या सुनने पहले देखी-सुनी वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति की, उसके समान वस्तु, घटना अथवा व्यक्ति को देखकर याद ताजा हो तो स्मरण अलंकार होता है
जब किसी सदृश वस्तु / व्यक्ति को देखकर किसी पूर्व परिचित वस्तु / व्यक्ति की याद आती है तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है स्मरण स्वत: प्रयुक्त होने वाला अलंकार है कविता में जाने-अनजाने कवि इसका प्रयोग कर ही लेता है।
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है

स्मरण अलंकार सादृश्य (समानता) से उत्पन्न स्मृति होने पर ही होता है। किसी से संबंध रखनेवाली वस्तु को देखने पर स्मृति होने पर स्मरण अलंकार नहीं होता। 

स्मृति नामक संचारी भाव सादृश्यजनित स्मृति में भी होता है और संबद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी। पहली स्थिति में स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों हो सकते हैं। देखें निम्न उदाहरण ६, ११, १२ 

उदाहरण:

१. देख चन्द्रमा
    चंद्रमुखी को याद 
    सजन आये      - हाइकु 

२. श्याम घटायें
    नील गगन पर 
    चाँद छिपायें।
    घूँघट में प्रेमिका
    जैसे आ ललचाये।  -ताँका      

३. सजी सबकी कलाई
    पर मेरा ही हाथ सूना है

    बहिन तू दूर है मुझसे
    हुआ यह दर्द दूना है

४. धेनु वत्स को जब दुलारती
    माँ! मम आँख तरल हो जाती
    जब-जब ठोकर लगती मग पर
    तब-तब याद पिता की आती

५. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा 
    सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा 

६. बीच बास कर जमुनहिं आये
    निरखिनीर लोचन जल छाये 

७. देखता हूँ जब पतला इन्द्र धनुषी हल्का,
    रेशमी घूँघट बादल का खोलती है कुमुद कला
   तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
   मुझे तब करता अंतर्ध्यान

८. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरख विमुख लोग
    त्यों-त्यों ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है

    सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि,
    कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है

    जैसी अब बीतत सो कहतै ना बैन
    नागर ना चैन परै प्राण अकुलावै है

    थूहर पलास देखि देखि कै बबूर बुरे,
    हाय हरे हरे तमाल सुधि आवै है


९. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
    याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी
    पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
    दिव्य छटा अनुपम छवि बांकी प्यारी-प्यारी


१०. सघन कुञ्ज छाया सुखद, सीतल मंद समीर
     मन व्है जात अजौं वहै, वा जमुना के तीर   

११. जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
     प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता

१२. छू देती है मृदु पवन जो पास आ गाल मेरा 
     तो हो आती परम सुधि है श्याम-प्यारे-करों की 

१३. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराए
     मुझे तुम याद आये

     जब-जब ये चाँद निकला और तारे जगमगाए 
     मुझे तुम याद आये
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बुधवार, 14 अक्टूबर 2015

smaran alankar

अलंकार सलिला

: २१ : स्मरण अलंकार








एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद

करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.

जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.

स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.

'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.

स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.

उदाहरण:

१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
    सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
   
   यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.

२. बीच बास कर जमुनहि आये
    निरखि नीर लोचन जल छाये

     यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
    मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर

कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

४. देखता हूँ 
    जब पतला इंद्रधनुषी हलका
    रेशमी घूँघट बादल का 
    खोलती है कुमुद कला
    तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान 
     तब करता अंतर्ध्यान।

    यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.

५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
                     त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है 
    सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि 
                     कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है 
    जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन 
                     नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है 
    थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे 
                     हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है 

६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
    याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
    पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
    दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.

७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
    प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता

८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
     तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की

९. सजी सबकी कलाई
   पर मेरा ही हाथ सूना है.
   बहिन तू दूर है मुझसे
   हुआ यह दर्द दूना है.

१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
    माँ! मम आँख तरल हो जाती.
    जब-जब ठोकर लगती मग पर
    तब-तब याद पिता की आती.

११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये 
    मुझे तुम याद आये.

स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है. 

१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं 
     चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं  
     रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं 
     बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं 

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रविवार, 13 सितंबर 2015

smaran shrikant mishra

भावांजलि-

मनोवेदना:

(जे. पी. की संपूर्ण क्रांति के एक सिपाही, नवगीतकार भाई श्रीकांत का कर्क रोग से असमय निधन हो गया. लगभग एक वर्ष से उनकी चिकित्सा चल रही थी. हिन्द युग्म पर २००९ में हिंदी छंद लेखन सम्बन्धी कक्षाओं में उनसे परिचय हुआ था. गत वर्ष नवगीत उत्सव लखनऊ में उच्च ज्वर तथा कंठ पीड़ा के बावजूद में समर्पित भावना से अतिथियों को अपने वाहन से लाने-छोड़ने का कार्य करते रहे. न वरिष्ठता का भान, न कष्ट का बखान। मेरे बहुत जोर देने पर कुछ औषधि ली और फिर काम पर. तुरंत बाद वे स्थांनांतरित होकर बड़ोदरा गये , जहाँ  जांच होने पर कर्क रोग की पुष्टि हुई. टाटा मेमोरियल अस्पताल मुम्बई में चिकित्सा पश्चात निर्धारित थिरैपी पूर्ण होने के पूर्व ही वे बिदा हो गये. बीमारी और उपचार के बीच में भी वे लगातार सामाजिक-साहित्यिक कार्य में संलग्न रहे. इस स्थिति में भी उन्होंने अपनी जमीन और धन का दान कर हिंदी के उन्नयन हेतु एक न्यास (ट्रस्ट) की स्थापना की. स्वस्थ होकर वे हिंदी के लिये समर्पित होकर कार्य करना चाहते थे किन्तु??? उनकी जिजीविषा को शत-शत प्रणाम)


ओ ऊपरवाले! नीचे आ
क्या-क्यों करता है तनिक बता?
असमय ले जाता उम्मीदें
क्यों करता है अक्षम्य खता?

कितने ही सपने टूट गये
तुम माली बगिया लूट गये.
क्यों करूँ तुम्हारा आराधन
जब नव आशा घट फूट गये?

मुस्कान मृदुल, मीठी बोली
रससिक्त हृदय की थी खोली
कर ट्रस्ट बनाया ट्रस्ट मगर
संत्रस्त किया, खाली ओली.

मैं जाऊँ कहाँ? निष्ठुर! बोलो,
तज धरा न अंबर में डोलो.
क्या छिपा तुम्हारी करनी में
कुछ तो रहस्य हम पर खोलो.

उल्लास-आसमय युवा रक्त
हिंदी का सुत, नवगीत-भक्त
खो गया कहाँ?, कैसे पायें
वापिस?, क्यों इतने हम अशक्त?

ऐ निर्मम! ह्रदय नहीं काँपा?
क्यों शोक नहीं तुमने भाँपा.
हम सब रोयेंगे सिसक-सिसक
दस दिश में व्यापेगा स्यापा.

संपूर्ण क्रांति का सेनानी,
वह जनगणमन का अभिमानी.
माटी का बेटा पतझड़ बिन
झड़ गया मौन ही बलिदानी.

कितने निर्दय हो जगत्पिता?
क्या पाते हो तुम हमें सता?
असमय अवसान हुआ है क्यों?
क्यों सके नहीं तुम हमें जता?

क्यों कर्क रोग दे बुला लिया?
नव आशा दीपक बुझा दिया.
चीत्कार कर रहे मन लेकिन
गीतों ने बेबस अधर सिया.
 
बोले थे: 'आनेवाले हो',
कब जाना, जानेवाले हो?
मन कलप रहा तुमको खोकर
यादों में रहनेवाले हो.

श्रीकांत! हुआ श्रीहीन गीत
तुम बिन व्याकुल हम हुए मीत.
जीवन तो जीना ही होगा-
पर रह न सकेंगे हम अभीत।
***

मंगलवार, 8 सितंबर 2015

शोक समाचार

पुण्य स्मरण: स्व. प्रो. नरेंद्र कुमार वर्मा

संजीव वर्मा सलिल sanjiv verma salil की फ़ोटो.संजीव वर्मा सलिल sanjiv verma salil की फ़ोटो.

सिएटल अमेरिका में भारी हृदयाघात तथा शल्य क्रिया पश्चात ६ सितंबर २०१५ (कृष्ण जन्माष्टमी) को आदरणीय नरेंद्र भैया के निधन के समाचार से शोकाकुल हूँ। वे बहुत मिलनसार थे। हमारे कुनबे को एक दूसरे के समाचार देने में सूत्रधार होते थे वे। प्रभु उनकी आत्मा को शांति और बच्चों को धैर्य प्रदान करें। भाभी जी आपके शोक में हम सब सहभागी हैं।

बचपन में नरेंद्र भैया की मधुर वाणी में स्व. महेश प्रसाद सक्सेना 'नादां' की गज़लें सुनकर साहित्य से लगाव बढ़ा। वे अंग्रेजी के प्राध्यापक थे। १९६०-७० के दौर में भारतीय इंटेलिजेंस सर्विस में चीन सीमा पर भी रहे थे।

उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रजनी वर्मा नरसिंहपुर के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सत्याग्रही परिवार से थी जो तेलवाले वर्मा जी के नाम से अब तक याद किया जाता है। उनके बच्चे योगी, कपिल तथा बिटिया प्रगति (निक्की) उनकी विरासत को आगे बढ़ाएंगे।

नरेंद्र भैया रूघ रहते हुए भी कुछ दिनों पूर्व ही वे डॉ. हेडगेवार तथा स्वातंत्र्यवीर सावरकर के वंशजों से पुणे में मिले थे तथा अल्प प्रवास में जबलपुर आकर सबसे मिलकर गए थे। बचपन में जबलपुर में बिठाये दिनों की यादें उनके लिये जीवन-पाथेय थीं

भैया के पिताजी स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा १९३०-४० के दौर में डॉ. हेडगेवार, कैप्टेन मुंजे आदि के अभिन्न साथी थे तथा माताजी स्व. लीलादेवी वर्मा (१९१२ - २८-८-१९८४) जबलपुर के प्रसिद्ध सुंदरलाल तहसीलदार परिवार से थीं। महीयसी महादेवी वर्मा जी की माताजी स्व. हेमावती देवी भी इसी परिवार से थीं। स्व. जगन्नाथप्रसाद वर्मा अखिल भारतीय हिंदू महासभा के राष्ट्रीय महामंत्री तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा के संगठन सचिव भी थे। वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक दल के समर्पित कार्यकर्ता थे । उन्होंने राम सेना तथा शिव सेना नामक दो सशस्त्र दल बनाये थे जो मुसलमानों द्वारा अपहृत हिंदू स्त्रियों को संघर्ष कर वापिस लाकर यज्ञ द्वारा शुद्ध कर हिन्दू युवकों से पुनर्विवाह कराते थे। वे सबल शरीर के स्वामी, ओजस्वी वक्ता तथा निर्भीक स्वभाव के धनी थे।  उन्होंने १९३४ में नागपुर में अखिल भारतीय कायस्थ महासभा का राष्ट्रीय सम्मलेन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। कांग्रेस की अंतरिम सरकार के समय में उन्हें कारावास में विषाक्त भोजन दिया गया जिससे वे गंभीर बीमार और अंतत: दिवंगत हो गये थे। विश्व हिन्दू परिषद के आचार्य धर्मेन्द्र के पिताश्री स्वामीरामचन्द्र शर्मा 'वीर' ने अपनी पुस्तक में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए यह विवरण दिया है। कठिन आर्थिक स्थिति को देखते हुए उनके बड़े पुत्र स्व. कृष्ण कुमार वर्मा (सुरेश भैया दिवंगत २१-५-२०१४) को सावरकर जी ने विशेष छात्रवृत्ति प्रदान कर अध्ययन में सहायता दी थी।

नरेंद्र भैया अमेरिका जाने के पहले और बाद अपनी वार्ताओं में नागपुर में अपनी पैतृक भूमि के प्राप्त अंश पर हिंदी भाषा-शिक्षा-साहित्य से जुडी कोई संस्था खड़ी करने के इच्छुक थे, इसके रूपाकार पर विमर्श कर रहे थे पर नियति ने समय ही नहीं दिया।

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

smaran: jagmohan prasad saxena 'chanchareek' -sanjiv

स्मरणांजलि:
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक'
संजीव
*
महाकवि जगमोहन प्रसाद सक्सेना 'चंचरीक' साधु प्रवृत्ति के ऐसे शब्दब्रम्होपासक हैं जिनकी पहचान समय नहीं कर सका। उनका सरल स्वभाव, सनातन मूल्यों के प्रति लगाव, मौन एकाकी सारस्वत साधना, अछूते और अनूठे आयामों का चिंतन, शिल्प पर कथ्य को वरीयता देता सृजन,  मौलिक उद्भावनाएँ, छांदस प्रतिबद्धता, सादा रहन-सहन, खांटी राजस्थानी बोली, छरफरी-गौर काया, मन को सहलाती सी प्रेमिल दृष्टि और 'स्व' पर 'सर्व' को वरीयता देती आत्मगोपन की प्रवृत्ति उन्हें चिरस्मरणीय बनाती है। मणिकांचनी सद्गुणों का ऐसा समुच्चय देह में बस कर देहवासी होते हुए भी देह समाप्त होने पर विदेही होकर लुप्त नहीं होता अपितु देहातीत होकर भी स्मृतियों में प्रेरणापुंज बनकर चिरजीवित रहता है. वह एक से अनेक में चर्चित होकर नव कायाओं में अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है।

लीलाविहारी आनंदकंद गोबर्धनधारी श्रीकृष्ण की भक्ति विरासत में प्राप्त कर चंचरीक ने शैशव से ही सन १८९८ में पूर्वजों द्वारा स्थापित उत्तरमुखी श्री मथुरेश राधा-कृष्ण मंदिर में कृष्ण-भक्ति का अमृत पिया। साँझ-सकारे आरती-पूजन, ज्येष्ठ शिकल २ को पाटोत्सव, भाद्र कृष्ण १३ को श्रीकृष्ण छठी तथा भाद्र शुक्ल १३ को श्री राधा छठी आदि पर्वों ने शिशु जगमोहन को भगवत-भक्ति के रंग में रंग दिया। सात्विक प्रवृत्ति के दम्पति श्रीमती वासुदेवी तथा श्री सूर्यनारायण ने कार्तिक कृष्ण १४ संवत् १९८० विक्रम (७ नवंबर १९२३ ई.) की पुनीत तिथि में मनमोहन की कृपा से प्राप्त पुत्र का नामकरण जगमोहन कर प्रभु को नित्य पुकारने का साधन उत्पन्न कर लिया। जन्म चक्र के चतुर्थ भाव में विराजित सूर्य-चन्द्र-बुध-शनि की युति नवजात को असाधारण भागवत्भक्ति और अखंड सारस्वत साधना का वर दे रहे थे जो २८ दिसंबर २०१३ ई. को देहपात तक चंचरीक को निरंतर मिलता रहा।    

बालक जगमोहन को शिक्षागुरु स्व. मथुराप्रसाद सक्सेना 'मथुरेश', विद्यागुरु स्व. भवदत्त ओझा तथा दीक्षागुरु सोहनलाल पाठक ने सांसारिकता के पंक में शतदल कमल की तरह निर्लिप्त रहकर न केवल कहलाना अपितु सुरभि बिखराना भी सिखाया। १९४१ में हाईस्कूल, १९४३ में इंटर, १९४५ में बी.ए. तथा १९५२ में एलएल. बी. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर इष्ट श्रीकृष्ण के पथ पर चलकर अन्याय से लड़कर न्याय की प्रतिष्ठा  पर चल पड़े जगमोहन। जीवनसंगिनी शकुंतला देवी के साहचर्य ने उनमें अदालती दाँव-पेंचों के प्रति वितृष्णा तथा भागवत ग्रंथों  और मनन-चिंतन की प्रवृत्ति को गहरा कर निवृत्ति मार्ग पर चलाने के लिये सृजन-पथ का ऐसा पथिक बना दिया जिसके कदमों ने रुकना नहीं सीखा। पतिपरायणा पत्नी और प्रभु परायण पति की गोद में आकर गायत्री स्वयं विराजमान हो गयीं और सुता की किलकारियाँ देखते-सुनते जगमोहन की कलम ने उन्हें 'चंचरीक' बना दिया, वे अपने इष्ट पद्मों के 'चंचरीक' (भ्रमर) हो गये। 

महाकाव्य त्रयी का सृजन:

चंचरीककृत प्रथम महाकाव्य 'ॐ श्री कृष्णलीला चरित' में २१५२ दोहों में कृष्णजन्म से लेकर रुक्मिणी मंगल तक सभी प्रसंग सरसता, सरलता तथा रोचकता से वर्णित हैं। ओम श्री पुरुषोत्तम श्रीरामचरित वाल्मीकि रामायण के आधार पर १०५३  दोहों में रामकथा का गायन है। तृतीय तथा अंतिम महाकाव्य 'ओम पुरुषोत्तम श्री विष्णुकलकीचरित' में अल्पज्ञात तथा प्रायः अविदित कल्कि अवतार की दिव्य कथा का उद्घाटन ५ भागों में प्रकाशित १०६७ दोहों में किया गया है। प्रथम कृति में कथा विकास  सहायक पदों  तृतीय कृति में तनया डॉ. सावित्री रायजादा कृत दोहों की टीका को सम्मिलित कर चंचरीक जी ने शोधछात्रों का कार्य आसान कर दिया है। राजस्थान की मरुभूमि में चराचर के कर्मदेवता परात्पर परब्रम्ह चित्रगुप्त (ॐ)  के  आराधक कायस्थ कुल में जन्में चंचरीक का शब्दाक्षरों से अभिन्न नाता होना और हर कृति का आरम्भ 'ॐ' से करना सहज स्वाभाविक है। कायस्थ [कायास्थितः सः कायस्थः अर्थात वह (परमात्मा)  में स्थित (अंश रूप आत्मा) होता है तो कायस्थ कहा जाता है] चंचरीक ने कायस्थ राम-कृष्ण पर महाकाव्य साथ-साथ अकायस्थ कल्कि (अभी क्लक्की अवतार हुआ नहीं है) से मानस मिलन कर उनपर भी महाकाव्य रच दिया, यह उनके सामर्थ्य का शिखर है।    

देश के विविध प्रांतों की अनेक संस्थाएं चंचरीक  सम्मानित कर गौरवान्वित हुई हैं। सनातन सलिला नर्मदा तट पर स्थित संस्कारधानी जबलपुर में साहित्यिक संस्था अभियान के तत्वावधान में समपन्न अखिल भारतीय दिव्य नर्मदा अलंकरण में अध्यक्ष होने के नाते मुझे श्री चंचरीक की द्वितीय कृति 'ॐ पुरुषोत्तम श्रीरामचरित' को नागपुर महाराष्ट्र निवासी जगन्नाथप्रसाद वर्मा-लीलादेवी वर्मा स्मृति जगलीला अलंकरण' से तथा अखिल भारतीय कायस्थ महासभा व चित्राशीष के संयुक्त तत्वावधान में  शांतिदेवी-राजबहादुर वर्मा स्मृति 'शान्तिराज हिंदी रत्न' अलंकरण से समादृत करने का सौभाग्य मिला। राष्ट्रीय कायस्थ महापरिषद के जयपुर सम्मेलन में चंचरीक जी से भेंट, अंतरंग चर्चा तथा शकुंतला जी व् डॉ. सावित्री रायजादा से नैकट्य  सौभाग्य मिला। 

चंचरीक जी के महत्वपूर्ण अवदान क देखते हुए राजस्थान साहित्य अकादमी को ऊपर समग्र ग्रन्थ का प्रकाशन कर, उन्हें सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित करना चाहिए।  को उन पर डाक टिकिट निकालना चाहिए। जयपुर स्थित विश्व विद्यालय में उन पर पीठ स्थापित  की जाना चाहिए। वैष्णव मंदिरों में संतों को चंचरीक साहित्य क्रय कर पठन-पाठन तथा शोध हेतु मार्ग दर्शन की व्यवस्था बनानी चाहिए। 

दोहांजलि: 

ॐ परात्पर ब्रम्ह ही, रचते हैं सब सृष्टि 
हर काया में व्याप्त हों, कायथ सम्यक दृष्टि 

कर्मयोग की साधना, उपदेशें कर्मेश 
कर्म-धर्म ही वर्ण है, बतलाएं मथुरेश 

सूर्य-वासुदेवी हँसे, लख जगमोहन रूप 
शाकुन्तल-सौभाग्य से, मिला भक्ति का भूप 

चंचरीक प्रभु-कृपा से, रचें नित्य नव काव्य 
न्यायदेव से सत्य की, जय पायें संभाव्य 

राम-कृष्ण-श्रीकल्कि पर, महाकाव्य रच तीन 
दोहा दुनिया में हुए, भक्ति-भाव तल्लीन 

सावित्री ही सुता बन, प्रगटीं, ले आशीष 
जयपुर में जय-जय हुई, वंदन करें मनीष 

कायथ कुल गौरव! हुए, हिंदी गौरव-नाज़ 
गर्वित सकल समाज है, तुमको पाकर आज 

सतत सृजन अभियान यह, चले कीर्ति दे खूब 
चित्रगुप्त आशीष दें, हर्ष मिलेगा खूब 

चंचरीक से प्रेरणा, लें हिंदी के पूत 
बना विश्ववाणी इसे, घूमें बनकर दूत 

दोहा के दरबार में, सबसे ऊंचा नाम
चंचरीक ने कर लिया, करता 'सलिल' प्रणाम 

चित्रगुप्त के धाम में, महाकाव्य रच नव्य 
चंचरीक नवकीर्ति पा, गीत गुँजाएँ दिव्य 

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गुरुवार, 24 अक्टूबर 2013

smaran lekh: amar ho gaye manna dey -kuldeep sing thakur

अमर हो गए मन्ना डे  

कुलदीप सिंह ठाकुर 
० 
 गुरुवार 24 अक्तूबर की सुबह भारतीय संगीत जगत के लिए एक दुखद खबर लेकर आयी। लंबी बीमारी झेलने के बाद इसी दिन भारत के महान संगीत शिल्पी जनप्रिय गायक मन्ना डे ने बेंगलूरु में अंतिम सांस ली। वे 94 वर्ष के थे। उन्हें पिछले जून महीने में फेफड़े के संक्रमण और किडनी की तकलीफ के लिए बेंगलूरु के नारायण हृदयालय में भरती किया गया था। वहीं हृदयाघात से उनकी मृत्यु हुई। मन्ना दे सशरीर हमारे बीच भले न हों लेकिन अपने गाये अमर गीतों में वे हमेशा जीवित रहेंगे और अपने चाहनेवालों के दिलों में घोलते रहेंगे संगीत के मधुर रंग।
1 मई 1919 को कलकत्ता अब कोलकाता में जन्में मन्ना दा भाग्यशाली थे कि उनको संगीत गुरु ढूंढ़ने दूर नहीं जाना पड़ा। घर में ही उन्हें गुरु चाचा कृष्णचंद्र डे के सी डे के नाम से मशहूर मिल गये। के.सी. डे के नेत्रों की ज्योति 13 वर्ष की उम्र में ही चली गयी थी। के.सी. डे शास्त्रीय संगीत के मर्मज्ञ थे और उनके हाथों ही मन्ना दा की संगीत की शिक्षा शुरू हुई। के.सी. डे के साथ ही मन्ना दा बंबई (अब मुंबई) चले आये। यहां के.सी. डे फिल्मों में संगीत देने और गायन करने के साथ-साथ अभिनय भी करने लगे। फिल्मों में गाने का पहला अवसर भी उन्हें चाचा के संगीत निर्देशन में फिल्म तमन्ना 1942 में मिला। उसके बाद फिर मन्ना दा ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। अपने जीवन में उन्होंने 4000 से भी ज्यादा गीत गाये और अनेकों सम्मान पुरस्कार जीते। उन्हें भारत सरकार की ओर से पद्मश्री 1971 पद्मभूषण 2005 व दादा साहब फालके सम्मान (2007 में मिला।
      
मन्ना दे ने हिंदी फिल्मों में गाने के साथ ही बंगला फिल्मों भी गाना गाया। इसके अलावा अनेक भारतीय भाषाओं में उन्होंने बखूबी गाया। उन्होंने फिल्मी गीतों के अलावा गजल, भजन व अन्य गीत भी पूरी खूबी से गाये। जब मशहूर कवि डा. हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला को संगीतबद्ध कर गायन का प्रश्न आया तो उसके लिए भी एकमात्र मन्ना दा का ही नाम आया। मन्ना दा ने इस अमरकृति को बड़ी तन्मयता और पूरे मन से गाया। हिंदी फिल्मों में उन्होंने कई यादगार गीत गाये जो उन्हें रहती दुनिया तक अमर रखेंगे। 1953 से लेकर 1976 तक का समय हिंदी फिल्मों में पार्श्वगायन का सबसे सफल समय था। उनके गायन की सबसे बड़ी विशेषता थी उसमें शास्त्रीय संगीत का पुट होना।
      
मन्ना दा का नाम प्रबोधचंद्र दे था लेकिन जब वे गायन के क्षेत्र में आये तो मन्ना डे के नाम से इतने मशहूर हुए कि प्रबोधचंद्र को फिर किसी ने याद नहीं किया। उन्होंने स्काटिश चर्च कालेजिएट स्कूल और स्काटिश चर्च कालेज शिक्षा पायी। खेलकूद में उनकी काफी दिलचस्पी थी कुश्ती और बाक्सिंग में वे पारंगत थे। विद्यासागर कालेज से उन्होंने स्नातक परीक्षा पास की। बाल गायक के रूप में वे संगीत कार्यक्रम पेश करने लगे। स्काटिश चर्च में अध्ययन के दौरान वे अपने
सहपाठियों का मनोरंजन गायन से करते थे। उन्होंने इन्हीं दिनों चाचा के.सी. डे और उस्ताद दाबिर खान से संगीत की शिक्षा ली। कालेज की गायन प्रतियोगिताओं में लगातार तीन बार उन्होंने प्रथम पुरस्कार जीता।
      
बंबई (अब मुंबई) आने के बाद मन्ना दा पहले अपने चाचा के साथ उनके संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे। उसके बाद वे सचिन दा जो उनके चाचा के शिष्य थे) के साथ संगीत निर्देशन में सहायक के रूप में काम करने लगे।
इस बीच संगीत की उनकी शिक्षा भी जारी रही। उन्होंने उस्ताद अमान अली खान और उस्ताद अब्दुल रहमान खान से संगीत की शिक्षा ली। पार्श्वगायन की शुरुआत उन्होंने तमन्ना (1942) में की । इसमेंउन्होंने अपने चाचा के. सी. डे के निर्देशन में सुरैया के साथ ही एक युगल गीत 'जागो आयी ऊषा पंक्षी' गाया। इसक बाद तो फिर सिलसिला चल पड़ा और मन्ना दा ने एक के बाद एक शानदार गीत गाये। सचिन देव बर्मन से लेकर अपने समय के तमान संगीत निर्देशकों के साध
उन्होंने गीत गाये। उनको सबसे बड़ा मलाल यह रहा कि उनके गीत ज्यादातर चरित्र अभिनेताओं या हास्य कलाकारों पर फिल्माये जाते थे। नायकों पर बहुत कम ही फिल्माये गये। 1948 से लेकर 1954 तक उनके गायन का चरम समय था। उन्होंने न सिर्फ शास्त्रीय संगीत पर आधारित गीत गाये अपितु पश्चिमी संगीत पर आधारित गीत भी बखूबी गाये।
राज कपूर के लिए उन्होंने शंकर जयकिशन के संगीत निर्देशन में फिल्म आवारा, बूट पालिश, श्री 420, चोरी चोरी, मेरा नाम जोकर फिल्मों के गीत गाये जो काफी लोकप्रिय हुए। उन्होंने वसंत देसाई, नौशाद, रवि, ओ.पी. नैयर, रोशन, कल्याण जी आनंद जी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आर. डी. बर्मन, अनिल विश्वास, सलिल चौधरी आदि के साथ काम किया।
जो गीत उनको अमर रखेंगे उनमें से कुछ हैं-तू प्यार का सागर है (सीमा), ये कहानी है दिये की और तूफान की (दिया और तूफान), ऐ मेरे प्यारे वतन काबुलीवाला), लागा चुनरी में दाग( दिल ही तो है), सुर ना सजे क्या गाऊं मैं सुर के बिना (बसंत बहार), कौन आया मेरे मन के द्वारे पायल की झनकार लिये( देख कबीरा रोया), पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी (मेरी सूरत तेरी आंखें), झनक-झनक तोरी बाजे पायलिया (मेरे हुजूर), चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया तीसरी कसम), ओ मेरी जोहरा जबीं (वक्त), तुम गगन के चंद्रमा हो (सती सावित्री), कसमे वादे प्यार वफा लब (उपकार), यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी (जंजीर),जिदगी कैसी है पहेली (आनंद), ये रात भीगी-भीगी ये मस्त हवाएं (चोरी चोरी), ये भाई जरा देख के चलो मेरा नाम जोकर), प्यार हुआ इकरार हुआ (श्री 420)।
      
कुछ कलाकारों पर उनकी आवाज इतनी फिट बैठती थी कि लगता है परदे पर कलाकार खुद अपनी आवाज में गा रहा है। फिल्म 'उपकार' में मनोज कुमार ने मलंग के रूप में जब तब के मशहूर खलनायक को चरित्र अभिनेता के रूप में मलंग चाचा बना कर एक नया रूप दिया तो मन्ना दे की आवाज प्राण पर बहुत सटीक बैठी। लोगों को परदे पर लगा कि जैसे प्राण खुद अपनी आवाज में 'कसमे वादे प्यार वफा'  गीत  गा रहे हैं। यही बात फिल्म 'जंजीर' के लोकप्रिय गीत 'यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी' के लिए भी कही जा सकती है।
      
अपनी निजी जिंदगी में बहुत ही अंतर्मुखी रहनेवाले, बहुत कम बोलनेवाले मन्ना दा लोगों से बहुत कम ही मिलते-जुलते थे। उन्हें पार्टियों में जाना पसंद नहीं था। किसी से मिलते तो बस मुस्करा देते। संगीत उनके लिए पुजा और तपस्या की तरह था। वे अकसर ऐसा कहते भी थे। जब किसी ने एक बार उनसे पूछा कि दादा सभी गायक तो गाते वक्त आंखें खोले रहते हैं आप आंख बंद क्यों कर लेते हैं। उनका जवाब था-संगीत मेरे लिए पूजा है, तपस्या है। तपस्या करते वक्त या पूजा में लीन रहते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। संगीत मेरे लिए भी पूजा है इसीलिए गाते वक्त नेत्र स्वतः बंद हो जाते हैं। 19 दिसंबर 1953 में उन्होंने केरल की सुलोचना कुमारन से शादी की। पत्नी सुलोचना कुमारन की मृत्यु कैंसर से 18 जनवरी 2012 को हो गयी। 
उन्होंने जब यह देखा कि हिंदी फिल्मों से उनके तरह के गीतों का जमाना अब नहीं रहा तो वे पत्नी के साथ बेंगलूरू में ही बस गये थे। उनकी दो बेटियां हैं शुरोमा और सुनीता। जिनमें से एक अमरीका में बस गयी है और दूसरी बेंगलूरू में है। मन्ना दा बेटी के पास बेंगलूरू में ही रहते थे। मुंबई में उन्होंने पचास साल से भी अधिक समय गुजारा। आज मन्ना दा नहीं है तो उनका गाया फिल्म 'आनद' का गीत 'जिंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये रुलाये, कभी ये हसाये'। वाकई संगीत के उन प्रेमियों को जो शास्त्रीय संगीत को मन-प्राण से पसंद करते हैं मन्ना दा रुला गये। मन्ना  दा जैसे कलाकार कभी मरते नहीं वे अपने गीतों में हमेशा अमर रहते हैं। मन्ना दा के भी भावभरे या चुलबुले गीत बजेंगे तो कभी वे दिल को लुभायें के तो कभी गमगीन कर देंगे। मन्ना दा नहीं होंगे लेकिन उनकी आवाद ताकयामत संगीत प्रेमियों के दिलों में राज करती रहेगी और उनको अमर रखेगी।


~~ Kuldeep singh thakur~~

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शनिवार, 10 अगस्त 2013

smaran : mohammad rafi

स्मरण : 

: कालजयी गायक मोहम्‍मद रफ़ी :

मोहम्मद रफ़ी के चाहने वाले दुनिया भर में हैं. सुमधुर गायक मोहम्मद रफ़ी भले ही हमारे बीच में नहीं हैं, लेकिन उनकी आवाज़ करोड़ों दिलों में आज भी अपना स्थान बनाये है. मोहम्मद रफ़ी के विविध आयामी गायन एवं व्यक्तित्व को भूल पाना उनसे मिले किसी भी व्यक्ति के लिए संभव नहीं है. गांव मजीठा, जिला अमृतसर पंजाब में 24 दिसंबर, 1924 को  जन्में मोहम्मद रफ़ी के पिता हाजी अली मोहम्मद और माता अल्लारखी थीं. उनके पिता ख़ानसामा थे. रफ़ी के बड़े भाई मोहम्मद दीन की हजामत की दुकान थी. यहाँ उनके बचपन का काफ़ी वक़्त गुज़रा.

बचपन में रफ़ी इकतारा बजाते फ़कीर के पीछे-पीछे घूमते हुए उसके स्वर में स्वर मिलाकर गाते थे. एक दिन उनके बड़े भाई ने देख लिया और उनके वालिद को बताया तो रफ़ी को काफ़ी डांट पड़ी. उस फ़क़ीर ने रफ़ी को आशीर्वाद दिया था कि वह आगे चलकर ख़ूब नाम कमाएगा. एक दिन दुकान पर आए कुछ लोगों ने ऱफी को फ़क़ीर के गीत इस क़दर सधे हुए सुर में गाते सुना कि वे लोग हैरान रह गए. ऱफी के बड़े भाई ने उनकी प्रतिभा को पहचाना. 1935 में उनके पिता रोज़गार के सिलसिले में लाहौर आ गए. यहां उनके भाई ने उन्हें गायक उस्ताद उस्मान ख़ान अब्दुल वहीद ख़ान की शार्गिदी में सौंप दिया. बाद में रफ़ी ने पंडित जीवन लाल और उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां जैसे शास्त्रीय संगीत के दिग्गजों से भी संगीत सीखा.


आरम्भ में मोहम्मद रफ़ी उस वक़्त के मशहूर गायक और अभिनेता कुंदन लाल सहगल के दीवाने थे  और उनके जैसा ही बनना चाहते थे. वह छोटे-मोटे जलसों में सहगल के गीत गाते थे. क़रीब 15 साल की उम्र में उनकी मुलाक़ात सहगल से हुई. हुआ यूं कि एक दिन लाहौर के एक समारोह में सहगल गाने वाले थे. रफ़ी भी अपने भाई के साथ वहां पहुंच गए. संयोग से माइक ख़राब हो गया और लोगों ने शोर मचाना शुरू कर दिया. व्यवस्थापक परेशान थे कि लोगों को कैसे ख़ामोश कराया जाए. उसी वक़्त रफ़ी के बड़े भाई व्यवस्थापक के पास गए और उनसे अनुरोध किया कि माइक ठीक होने तक रफ़ी को गाने का मौक़ा दिया जाए. मजबूरन व्यवस्थापक मान गए. रफ़ी ने गाना शुरू किया, लोग शांत हो गए. इतने में सहगल भी वहां पहुंच गए. उन्होंने रफ़ी को आशीर्वाद देते हुए कहा कि इसमें कोई शक नहीं कि एक दिन तुम्हारी आवाज़ दूर-दूर तक फैलेगी.

बाद में रफ़ी को संगीतकार फ़िरोज़ निज़ामी के मार्गदर्शन में लाहौर रेडियो में गाने का मौक़ा मिला. उन्हें कामयाबी मिली और वह लाहौर फ़िल्म उद्योग में अपनी जगह बनाने की कोशिश करने लगे. उस दौरान उनकी रिश्ते में बड़ी बहन लगने वाली बशीरन से उनकी शादी हो गई. उस वक़्त के मशहूर संगीतकार श्याम सुंदर और फ़िल्म निर्माता अभिनेता नासिर ख़ान से रफ़ी की मुलाक़ात हुई. उन्होंने उनके गाने सुने और उन्हें बंबई आने का न्यौता दिया. ऱफी के पिता संगीत को इस्लाम विरोधी मानते थे, इसलिए बड़ी मुश्किल से वह संगीत को पेशा बनाने पर राज़ी हुए.
1944 में रफ़ी अपने भाई के साथ बंबई पहुंचे. अपने वादे के मुताबिक़ श्याम सुंदर ने रफ़ी को पंजाबी फ़िल्म गुलबलोच में ज़ीनत के साथ गाने का मौक़ा दिया.  रफ़ी ने गुलबलोच के सोनियेनी, हीरिएनी तेरी याद ने बहुत सताया गीत के ज़रिये पार्श्वगायन के क्षेत्र में क़दम रखा.

नौशाद ने फ़िल्म शाहजहां के एक गीत में उन्हें सहगल के साथ दो पंक्तियां -मेरे सपनों की रानी, रूही, रूही रूही
गाने का मौक़ा दिया. नौशाद ने 1946 में फ़िल्म अनमोल घड़ी का गीत तेरा खिलौना टूटा बालक, तेरा खिलौना टूटा रफी की आवाज़ में रिकॉर्ड कराया. 1947 में फ़िरोज़ निज़ामी ने रफ़ी को फ़िल्म जुगनूं के युगल गीत 'यहां बदला वफ़ा का बेवफ़ाई के सिवा क्या है' में रफ़ी को नूरजहां के साथ गाने का मौक़ा दिया.  यह गीत बहुत लोकप्रिय हुआ. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी से फ़िल्म मेला का एक गीत ये ज़िंदगी के मेले गवाया. इस फ़िल्म के बाक़ी गीत मुकेश से गवाये गए, लेकिन रफ़ी का गीत अमर हो गया. यह गीत हिंदी सिनेमा के बेहद लोकप्रिय गीतों में से एक है.

इस बीच रफ़ी संगीतकारों की पहली जोड़ी हुस्नलाल-भगतराम के संपर्क में आए. इस जोड़ी ने अपनी शुरुआती फ़िल्मों प्यार की जीत, बड़ी बहन और मीना बाज़ार में रफ़ी की आवाज़ का भरपूर इस्तेमाल किया. इसके बाद तो नौशाद को भी फ़िल्म दिल्लगी में नायक की भूमिका निभा रहे श्याम कुमार के लिए रफ़ी की आवाज़ का ही इस्तेमाल करना पड़ा. इसके बाद फ़िल्म चांदनी रात में भी उन्होंने रफ़ी को मौक़ा दिया. बैजू बावरा संगीत इतिहास की सिरमौर फ़िल्म मानी जाती है. इस फ़िल्म ने रफ़ी को कामयाबी के आसमान तक पहुंचा दिया. इस फ़िल्म में प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक उस्ताद अमीर खां साहब और डी वी पलुस्कर ने भी गीत गाये थे. फ़िल्म के पोस्टरों में भी इन्हीं गायकों के नाम प्रचारित किए गए, लेकिन जब फिल्म प्रदर्शित हुई तो मोहम्मद रफ़ी के गाये गीत तू गंगा की मौज और ओ दुनिया के रखवाले हर तरफ़ गूंजने लगे. रफ़ी ने अपने समकालीन गायकों तलत महमूद, मुकेश और सहगल के रहते अपने लिए जगह बनाई.

रफ़ी के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने तक़रीबन 26 हज़ार गाने गाये, लेकिन उनके तक़रीबन पांच हज़ार गानों के प्रमाण मिलते हैं, जिनमें ग़ैर फ़िल्मी गीत भी शामिल हैं. देश विभाजन के बाद जब नूरजहां, फ़िरोज़ निज़ामी और निसार वाज्मी जैसी कई हस्तियां पाकिस्तान चली गईं, लेकिन वह हिंदुस्तान में ही रहे. इतना ही नहीं, उन्होंने सभी गायकों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा देशप्रेम के गीत गाये. रफ़ी ने जनवरी, 1948 में महात्मा गांधी की हत्या के एक माह बाद गांधी जी को श्रद्धांजलि देने के लिए हुस्नलाल भगतराम के संगीत निर्देशन में राजेंद्र कृष्ण रचित सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों, बापू की ये अमर कहानी गीत गाया तो पंडित जवाहर लाल नेहरू की आंखों में आंसू आ गए थे. भारत-पाक युद्ध के वक़्त भी रफ़ी ने जोशीले गीत गाये. यह सब पाकिस्तानी सरकार को पसंद नहीं था. शायद इसलिए दुनिया भर में अपने कार्यक्रम करने वाले रफ़ी पाकिस्तान में शो पेश नहीं कर पाए. ऱफी किसी भी तरह के गीत गाने की योग्यता रखते थे. संगीतकार जानते थे कि आवाज़ को तीसरे सप्तक तक उठाने का काम केवल ऱफी ही कर सकते थे. मोहम्मद रफ़ी ने संगीत के उस शिखर को हासिल किया, जहां तक कोई दूसरा गायक नहीं पहुंच पाया. उनकी आवाज़ के आयामों की कोई सीमा नहीं थी. मद्धिम अष्टम स्वर वाले गीत हों या बुलंद आवाज़ वाले याहू शैली के गीत, वह हर तरह के गीत गाने में माहिर थे. उन्होंने भजन, ग़ज़ल, क़व्वाली, दशभक्ति गीत, दर्दभरे तराने, जोशीले गीत, हर उम्र, हर वर्ग और हर रुचि के लोगों को अपनी आवाज़ के जादू में बांधा. उनकी असीमित गायन क्षमता का आलम यह था कि उन्होंने रागिनी, बाग़ी, शहज़ादा और शरारत जैसी फ़िल्मों में अभिनेता-गायक किशोर कुमार पर फ़िल्माये गीत गाये.


वह 1955 से 1965 के दौरान अपने करियर के शिखर पर थे. यह वह व़क्त था, जिसे हिंदी फ़िल्म संगीत का स्वर्ण युग कहा जा सकता है. उनकी आवाज़ के जादू को शब्दों में बयां करना नामुमकिन है. उनकी आवाज़ में सुरों को महसूस किया जा सकता है. उन्होंने अपने 35 साल के फ़िल्म संगीत के करियर में नौशाद, सचिन देव बर्मन, सी रामचंद्र, रोशन, शंकर-जयकिशन, मदन मोहन, ओ पी नैयर, चित्रगुप्त, कल्याणजी-आनंदजी, लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल, सलिल चौधरी, रवींद्र जैन, इक़बाल क़ुरैशी, हुस्नलाल, श्याम सुंदर, फ़िरोज़ निज़ामी, हंसलाल, भगतराम, आदि नारायण राव, हंसराज बहल, ग़ुलाम हैदर, बाबुल, जी एस कोहली, वसंत देसाई, एस एन त्रिपाठी, सज्जाद हुसैन, सरदार मलिक, पंडित रविशंकर, उस्ताद अल्ला रखा, ए आर क़ुरैशी, लच्छीराम, दत्ताराम, एन दत्ता, सी अर्जुन, रामलाल, सपन जगमोहन, श्याम जी-घनश्यामजी, गणेश, सोनिक-ओमी, शंभू सेन, पांडुरंग दीक्षित, वनराज भाटिया, जुगलकिशोर-तलक, उषा खन्ना, बप्पी लाह़िडी, राम-लक्ष्मण, रवि, राहुल देव बर्मन और अनु मलिक जैसे संगीतकारों के साथ मिलकर संगीत का जादू बिखेरा.

रफ़ी साहब ने 31 जुलाई, 1980 को आख़िरी सांस ली. उन्हें दिल का दौरा पड़ा था. जिस रोज़ उन्हें जुहू के क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया, उस दिन बारिश भी बहुत हो रही थी. उनके चाहने वालों ने उन्हें नम आंखों से विदाई दी. लग रहा था मानो ऱफी साहब कह रहे हों-
हां, तुम मुझे यूं भुला न पाओगे
जब कभी भी सुनोगे गीते मेरे
संग-संग तुम भी गुनगुनाओगे…

गुरुवार, 25 जुलाई 2013

smaran: chandradhar sharma guleri -madhvi sharma


गुलेरी जयंती (७ जुलाई )पर विशेष:
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माधवी शर्मा गुलेरी
(साहित्य के पुरोधा पंडित चन्द्रधर शर्मा गुलेरी जी की रचनाओं के बारे में इतना सब लिखा, पढ़ा व सुना जा चुका है कि कुछ और कहना सूरज को दीया दिखाने समान है। दो साल पहले पैतृक घर गुलेर जाना हुआ तो मैं गुलेरी जी की निजी डायरी अपने साथ मुंबई ले आई थी। यह वह डायरी है जिसे गुलेरी जी के पौत्र यानी मेरे पिता डॉ. विद्याधर शर्मा गुलेरी अपनी सबसे बड़ी संपत्ति मानते थे। परदादा जी की डायरी पढ़ते हुए उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानने का सौभाग्य मुझे मिला, वहीं उनके अपने शब्दों में उनका परिचय पाकर मैं अभिभूत हो उठी। इसे हिन्दी-साहित्य का दुर्भाग्य माना जाना चाहिए कि पाठकवर्ग गुलेरी जी की उन अधिकांश रचनाओं से वंचित रहा है, जो वे 39 वर्ष की अल्पायु में लिखकर चले गए। प्रतिभापुत्र गुलेरी जी मुख्यतया उसने कहा था कहानी से साहित्य-प्रेमियों में अपनी पहचान रखते हैं, लेकिन कहानी लेखन के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी उनका योगदान अप्रतिम है। भाषा एवं साहित्य से इतर दर्शन, इतिहास, पुरातत्व, धर्म, ज्योतिष, पत्रकारिता व मनोविज्ञान जैसे अनेक विषयों पर गुलेरी जी की गहरी पैठ थी। गुलेरी जी के रचनाकर्म को पाठक अच्छे से जान पाएं, इस कामना के साथ उनका यह लेख, जो मूल अंग्रेजी से अनूदित है।)
गुलेरी जी अपने शब्दों में

मैं पंजाब प्रांत के काँगड़ा जिले में गुलेर नामक ग्राम निवासी सारस्वत ब्राह्मणों के सम्मान्य कुल का वंशज हूँ। ज्योतिष के विद्वान और पंचांग विद्या के कर्ता के रूप में मेरे प्रपितामह की प्रसिद्धि उन दिनों में पटियाला और बनारस तक फैली हुई थी। हमारे वंश के लोग माफी और जागीर की भूमि का उपभोग करते हैं और हम इतिहास-प्रसिद्ध गुलेर के राजा कटोच क्षत्रियों के मुख्य पुरोहित और गुरु हैं। गुलेर के राजा ने मेरे पिताजी को गुरु के रूप में पालकी, गद्दी और ताजीम का सम्मान प्रदान किया था और उनके बाद मुझे भी वही प्रतिष्ठा प्राप्त है।

मेरे पिता पंडित शिवरामजी, अपने समय में बनारस के विशिष्ट संस्कृत विद्वान माने जाते थे और जयपुर के स्वर्गीय महाराजा रामसिंह जी बहादुर ने अपने दरबार के राजपंडित पद के लिए उनका चयन किया था। वे जयपुर दरबार के वरिष्ठ पंडित थे और लगभग 48 वर्ष तक जयपुर के संस्कृत कॉलेज में उपाध्यक्ष एवं संस्कृत, व्याकरण, भाषा विज्ञान और वेदान्त, दर्शन के आचार्य पर प्रतिष्ठित रहे। स्वर्गीय एवं वर्तमान महाराजा तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों से प्रखर पाण्डित्य तथा निर्मल चरित्र के कारण उनको महान समादर प्राप्त था। वे जयपुर में संस्कृत अध्ययन के आद्य प्रवर्तकों में थे और उनकी शिष्य मण्डली में देश के बहुत से प्रसिद्ध पंडित हैं तथा तीन को तो भारत सरकार द्वारा महामहोपाध्याय का सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।

मेरा जन्म जयपुर में ही हुआ और मैंने महाराज कॉलेज में शिक्षा पाई। स्कूल व कॉलेज की सभी कक्षाओं में मैं सर्वोच्च स्थान एवं पारितोषिक पाता रहा। मैंने माध्यमिक परीक्षा 1897 ई. में द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1899 ई. में मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एण्ट्रेन्स परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और विश्वविद्यालय की इस परीक्षा के वरिष्ठता क्रम में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। जयपुर राज्य में शिक्षा के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व अवसर था। अत:, महाराजा साहिब बहादुर की ओर से सार्वजनिक शिक्षा विभाग द्वारा मुझे स्वर्ण पदक प्रदान किया गया। साथ ही, मैंने उसी वर्ष कलकत्ता विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1901 ई. में मैं कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रथम वर्ष कला परीक्षा में द्वितीय श्रेणी प्राप्त करके उत्तीर्ण हुआ। इस परीक्षा में अंग्रेजी के अतिरिक्त मेरे विषय तुर्क, ग्रीक और रोमन इतिहास, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, संस्कृत और सामान्य एवं उच्चतर गणित रहे थे। इसके साथ ही मैंने हिन्दी में मौलिक रचना प्रस्तुत करके वैकल्पिक परीक्षा में सफलता प्राप्त की। मेरे एक आचार्य द्वारा मेरे नाम लिखे गये पत्र के उद्धरण से ज्ञात होगा कि मैंने कलकत्ता के सभी परीक्षार्थियों में अंग्रेजी गद्य-लेखन में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था।

विद्यार्थी अवस्था में ही स्वर्गीय कर्नल स्विन्टन जैकब और कैप्टन ए.एफ. गैरट आर.ई.एम. ने मुझे जयपुरस्थ ज्योतिष यंत्रालय के यंत्रोद्धार के निमित्त सहायक के रूप में चुन लिया था। कठिन एवं मौलिक कार्य में मैंने जो सहायता की, उसमें मेरी सफलता को प्रमाणित करते हुए राज्य की ओर से मुझे 200 रु. का पारितोषिक प्रदान किया गया। इसके लिए ऊपरिलिखित दोनों महानुभावों ने जो संलग्न प्रमाणपत्र प्रदान किए हैं, वे साक्षीभूत हैं।

अंग्रेजी, मानसिक एवं नैतिक विज्ञान और संस्कृत विषय लेकर मैंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1903 ई. में बी.ए. परीक्षा पास की और विश्वविद्यालय के सफल परीक्षार्थियों में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया। जयपुर के महाराजा कॉलेज अथवा राजपूताना के किसी भी कॉलेज से कोई भी परीक्षार्थी अब तक ऐसी सफलता प्राप्त नहीं कर सका था। अत: इन शिक्षालयों के इतिहास में यह एक अभूतपूर्व घटना थी। राज्य की ओर से मुझे पुन: स्वर्णपदक और 300 रु. के मूल्य की पुस्तकें प्रदान करके पुरस्कृत किया गया। उस वर्ष का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी होने के नाते मैंने नॉर्थ ब्रुक स्वर्णपदक भी प्राप्त किया।

मनोविज्ञान एवं कर्तव्यशास्त्र विषय लेकर मैंने एम.ए. उपाधि के लिए परीक्षा के निमित्त आवश्यकता से भी अधिक अध्ययन किया परन्तु स्वास्थ्य की गड़बड़ी ने मुझे परीक्षा में बैठने का अवसर नहीं दिया।
संस्कृत के विश्रुत विद्वान अपने पिताजी से कई वर्षों तक स्वतंत्र रूप से अध्ययन करने का असाधारण सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था। मैं संस्कृत बहुत अच्छी तरह जानता हूँ और उच्चतर एवं मौलिक शोध को लक्ष्य में रखकर मैंने वैदिक, पौराणिक, साहित्यिक एवं वेदान्तक विषयक संस्कृत साहित्य के अंगों का विशिष्ट अध्ययन किया है। मैंने संस्कृत का आरम्भिक अध्ययन प्राचीन पद्धति से किया जो बहुत ठोस होता है। अंग्रेजी शिक्षा ने मुझे वह कसौटी प्रदान कर दी है जिसका कि पाश्चात्य विद्वान प्राचीन भाषा में संशोधन के उद्देश्य के लिए प्रयोग करते हैं।

मैंने इण्डियन एन्टीक्वेरी एवं अन्य संस्कृत और हिन्दी सावधिक पत्र-पत्रिकाओं को बहुत से विद्वतापूर्ण लेखों द्वारा योगदान दिया है। इण्डियन एन्टीक्वेरी में प्रकाशित मेरे लेखों की विशिष्ट प्राच्य विद्याविदों ने प्रशंसा की है। जब महामहिम ब्रिटिश सम्राट भारत आये तो मैंने उनके लिए संस्कृत में स्वागत गान की रचना की। सुप्रसिद्ध डच विद्वान डॉ. कैलेण्ड (उद्वेच निवासी) ने एतन्निमित्त मेरी बहुत प्रशंसा की। मैंने कतिपय आद्यावधि अप्रकाशित संस्कृत ग्रन्थों की समीक्षा एवं व्याख्यात्मक प्रस्तावना और टिप्पणियों सहित सम्पादन कार्य भी हाथ में लिया है। जयपुर राज्य द्वारा संचालित संस्कृतोपाधि की परीक्षाओं में मैं साहित्य, धर्मशास्त्र और व्याकरण विषयों का परीक्षक होता हूँ तथा राजपूताना मिडिल स्कूल और जयपुर मिडिल स्कूल परीक्षाओं में भी मुझे परीक्षक नियुक्त किया जाता है।

सन् 1904 ई. में कर्नल टी.सी. पियर्स, आई.ए. तत्कालीन रेजीडेन्ट जयपुर की सहमति से मुझे खेतड़ी के अल्पव्यस्क राजा का अभिभावक, अध्यापक नियुक्त किया गया। पियर्स साहब का कश्मीर से लिखा हुआ प्रशंसा-पत्र इस बात का प्रमाण प्रस्तुत करता है कि मेरी कार्यप्रणाली के विषय में उनके मन में कैसी धारणा थी। जब जयपुर दरबार ने मेयो कॉलेज अजमेर के मोतमिद् (रियासत के सामन्तों और प्रशिक्षणार्थियों के अभिभावक) पद का स्तर ऊँचा करने का निर्णय किया तो 1907 ई. में इस पद के लिए मुझे चुना गया। यह चुनाव करते समय रियासत की स्टेट कौंसिल के सचिव ने रेजीडेन्ट जयपुर के नाम यह पत्र लिखा था-
संख्या 2254
जयपुर, दिनांक 21 अक्टूबर, 1916
मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद पर किसी अधिक योग्य व्यक्ति की नियुक्ति करके उसका स्तर बढ़ाने का प्रश्न कुछ समय से जयपुर दरबार के विचाराधीन है। अब कौंसिल ने राजा जी खेतड़ी के शिक्षक पं. चन्द्रधर गुलेरी बी.ए. को लाला मिट्ठन लाल के स्थान पर मेयो कॉलेज के मोतमिद् पद को ग्रहण करने के लिए चुना है। पं. चन्द्रधर गुलेरी एक बहुत ही योग्य व्यक्ति हैं और उन्होंने अपने कर्तव्यों का सम्यक पालन करते हुए प्रिंसिपल मेयो कॉलेज को सदैव सन्तुष्ट किया है और अब तक इस संस्था का बहुत कुछ अनुभव प्राप्त कर लिया है, अत: कौंसिल को विश्वास है कि इनकी नियुक्त के विषय में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज, अजमेर की सहमति प्राप्त हो जायेगी।

मेयो कॉलेज में लगभग 15 वर्ष बहुत लंबे समय तक में विविध श्रेणियों को अवैतनिक रूप से विभिन्न विषय पढ़ाता रहा हूँ। तदन्तर सन् 1916 में मुझे महामहोपाध्याय पंडित शिवनारायण के स्थान पर हैड पंडित मेयो कॉलेज के पद पर नियुक्ति के लिए चुना गया और हिन्दी व संस्कृत का अध्यापन कार्य मुझे सौंपा गया। कक्षा में, छात्रावास में और क्रीड़ा-क्षेत्र में अपने विद्यार्थियों के मानसिक, नैतिक, बौद्धिक और शारीरिक विकास की दिशा में मैंने जिस परिणाम में और जिस स्तर पर कार्य किया है उसके विषय में प्रिंसिपल महोदय ही अपना मत दे सकते हैं कि वह उनके मनोनुकूल है या नहीं।

मैंने प्राचीन एवं आधुनिक गद्य तथा पद्यात्मक हिन्दी सहित्य का विशिष्ट अध्ययन किया है और पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाओं से इसके विकास के संबंध में भी अनुशीलन किया है। इतिहास और पुरातत्व विषयों में मेरी अभिरुचि है और अपने नाम से, बिना नाम के अथवा अन्य विद्वानों के साथ जो लेख आदि प्रकाशित किए हैं, वे सर्वनिवेदित हैं।
मैं हिन्दी का प्रसिद्ध लेखक हूँ और साहित्यिक जगत में आलोचक और विद्वान के रूप में मेरी ख्याति है। नागरी प्रचारिणी सभा काशी की प्रबंधकारिणी परिषद् का मैं कई वर्षों तक सदस्य रहा हूँ। जयपुर के रेजीडेन्ट कर्नल शावर्स द्वारा लिखित नोट्स ऑन जयपुर’ पुस्तक में मेरा यथेष्ट योगदान है। युद्ध काल में मैंने सम्राट की सेनाओं की विजय के सम्बन्ध में एक संस्कृत प्रार्थना लिखी थी जो प्रति दिन विद्यालयों में दोहराई जाती थी। युद्धकाल में प्रिंसिपल मेयो कॉलेज पब्लिसिटी बोर्ड, अजमेर मेरवाड़ा बार गजट में हिन्दी संस्करण के सम्पादन में अकेले ही उनकी सहायता की थी और साथ ही अंग्रेजी संस्करण में भी लेख लिखता था। अजमेर मेरवाड़ा गजट के हिन्दी संस्करण की शैली और साहित्यिक स्तर का अपेक्षाकृत अधिक समादर था।
चन्द्रधर गुलेरी
जुलाई 8, 1917