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गुरुवार, 6 सितंबर 2018

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

अक्षर की आँखों से - वेद प्रकाश शर्मा वेद

जगदीश पंकज 
वर्तमान समय में जब गीत-नवगीत पर साहित्य की तथाकथित मुख्य-धारा के ध्वजवाहकों द्वारा प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रहार हो रहे हैं वहीँ नवगीतकारों की एक पूरी श्रृंखला अपने लेखन में न केवल छान्दसिक काव्य की सर्जना कर रही है बल्कि आज के बहुआयामी युगबोध को गीतों के माध्यम से शब्दांकित भी कर रही है। नवगीत आज एक ऐसी सर्व-स्वीकृत विधा का रूप ले चुका है जो मानवीय संवेदना के भावुक यथार्थ को पूरी कलात्मकता से व्यक्त करता हुआ छंद के नए-नए प्रयोग करते हुए छंदमुक्त कविता के पुरोधाओं को चुनौती दे रहा है। 

सृजन की गुणवत्ता के कारण न केवल नई कविता के बल्कि पारम्परिक गीत के कवि-सम्मेलनी रचनाकारों को भी नवगीत की शैलीगत नव्यता और समसामयिक जटिल कथ्य की नवीनता असह्य हो रही है क्योंकि पारंपरिक गीत अपने वायवीय तथा अमूर्त चरित्र से स्वयं को मुक्त नहीं कर पा रहा और युग-यथार्थ को आत्मसात करके स्वर नहीं दे पा रहा है। नवगीतकारों की गरिमामय विरासत के साथ-साथ पुरानी पीढ़ी के नवगीतकार आज भी जहाँ निरंतर सृजनरत हैं वहीँ स्थापित नवगीतकारों के साथ ही अनेक नवांकुर रचनाकार भी छंदमुक्त कविता के स्थान पर नवगीत की ओर उन्मुख होकर सृजन के नए आयाम खोल रहे हैं। ऐसे में आज का नवगीत, गीत मर गया है या नवगीत को सिर्फ गीत ही कहना चाहिए के जुमले फेंकने वाले स्वयंभू आलोचकों को अपने प्रतिमान बदलने को बाध्य कर रहा है। इसी क्रम में ,'आओ नीड़ बुनें' और 'नाप रहा हूँ तापमान को' जैसे नवगीत संकलनों से अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके सशक्त नवगीतकार श्री वेद प्रकाश शर्मा 'वेद' अपने नव्यतम संग्रह 'अक्षर की आँखों से' के द्वारा पुनः प्रस्तुत हुए हैं।

'अक्षर की आँखों से' नवगीत संग्रह में वेद जी अपने छियत्तर गीतों को लेकर उपस्थित हैं। यद्यपि प्रत्येक गीत अपने आप में शिल्प और कथ्य की दृष्टि से स्वतन्त्र होता है फिर भी एक वैचारिकता अपनी समग्रता में हर रचना में परिलक्षित होती है। वेद जी भी एक समृद्ध और पुष्ट वैचारिकी के साथ प्रत्येक नवगीत में उपस्थित हैं। संग्रह के गीतों में मानवीय संवेदनाओं, वैश्विक बाज़ारवाद, फैलता हुआ उपभोक्तावाद, सम्बन्धों की शिथिलता, आर्थिक उदारवाद के जीवन पर दुष्प्रभाव, वर्तमान समाजार्थिक व्यवस्था से मोहभंग, वैफल्यग्रस्तता और अवसाद, गलाकाट प्रतिस्पर्धा और दैनंदिन की भागमभाग के जीवन का समसामयिक यथार्थ ऐसे बिंदु हैं जो रचनाओं में अनायास आकर वर्तमान सामान्य नागरिक की चेतना को मथ रहे हैं। राजनीति जीवन के हर पक्ष को प्रभावित कर रही है जिसे वेद जी ने पारम्परिक सोच के मिथकीय प्रतीकों को वर्तमान संदर्भों के साथ इस प्रकार संगुम्फित किया है कि वह अपनी स्वाभाविक सम्प्रेषणीयता बनाये हुए है। भारतीय प्राचीन वाङ्ग्मय से पात्रों और चरित्रों को इस प्रकार गीतों में प्रयुक्त किया गया है कि वे केवल नाम नहीं बल्कि लाक्षणिक प्रतीक बनकर किसी प्रवृत्ति के जीवंत रूप हों। वेद जी के गीतों की विशेषता उनका शैलीगत शिल्प-विन्यास है जिनमें नए-नए छान्दसिक प्रयोग किये गए हैं। मुक्तक छन्द ही नहीं बल्कि मुक्त-छन्द का गीतों में प्रयोग वह विशेष गुण है जो वेद जी को अपने समकालीन रचनाकारों से अलग दिखाता हुआ विशिष्ट पहचान बनाता है।

वेद जी का आग्रह अपनी मिट्टी की शाश्वतता से जुड़े रहना है जिसे संग्रह के प्रथम गीत में ही सफलता से व्यक्त किया गया है-

'एक मिट्टी की महक
जो जन्म से हमको मिली है
हवा कहती है कि उसको छोड़ दें हम!

एक पगडण्डी हमें जो
जोड़ती शाश्वत जड़ों से
सड़क कहती, सिर्फ उससे जोड़ दें हम!' ...... (हवा कहती है)

'मन्त्र अनगाये हैं' गीत एक श्रेष्ठ रचना है जिसमें करनी और कथनी की भिन्नता के सनातन सत्य को उजागर किया गया है-

'नज़रों में तो पड़ जाते हम
लेकिन देते नहीं दिखाई
यही सनातन सत्य भोगते आये हैं!

कहलाये तो पैर मगर स्वीकार हुए कब
हाड़-माँस कब हो पाये
हम रहे काठ-भर
नीचे-नीचे बिछते आये
रहकर सिर्फ टाट-भर
हम सुविधा के भोग, धुँधलके, साये हैं!' ...... (मन्त्र अनगाये हैं)

'सच करो स्वीकार' गीत में स्वयं के ही चयन से प्राप्त हुई असहज स्थिति को स्वीकार करके आगे बढ़ने में कोई शर्म नहीं होती। मोह- भंग की स्थिति को शब्दांकित करते हुए कहा है-

'हम तुम्हारे इंगितों पर आँख मूँदे चल रहे थे
पर कहीं गन्तव्य तुमको आँख खोले छल रहे थे
वह अयन भी आपका था
यह अयन भी आपका है
तब रहा साकार
अब है छाँव का विस्तार!'

समाजार्थिक सम्बन्धों का प्रभाव वर्षों से संचित पुराने मानवीय सम्बन्धों को भी बदल रहा है जो शहर में ही नहीं बल्कि चिर-परिचित गाँव को भी बदल रहा है। 'यह तो मेरा गाँव नहीं' तथा 'डर लगता है' गीत इसी सत्य को व्यक्त करते हैं। किसी भी सृजन या निर्माण के लिए उसका स्वरूप निर्धारण करना जरूरी है। यह तथ्य लेखन सहित सभी पर लागू होता है कि कुर्ता सीना है तो उसका कोई डिजाइन भी है यदि इसमें कोई छूट लेते हैं तो वह कुर्ता तो नहीं बनेगा और चाहे कुछ बन जाये। 'चमत्कार-से क्यों ढहते हो' गीत इसी तथ्य को व्यक्त करता है। सिकुड़ते हुए विश्व में जब दुनिया विश्वग्राम में बदल रही है तब चाहे अनचाहे उसे स्वीकार तो करना ही पडेगा। 'विश्वग्राम के आँगन में' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'नित्य सिकुड़ती जाती, सटती
जाती दुनिया में
चित्र तैरता रहता
सबकी आँखों में
सबके माघ-पौष का
सबके चैतों का!

विश्वग्राम के आँगन में
हम खड़े हुए
भूल रहे हैं
यह अपनी चौपाल नहीं
यहाँ हवा
आज़ाद घूमती रहती है
खुलकर बहती है
खुलकर सब कहती है
इस पर कहीं नहीं कुछ जोर
लठैतों का! (विश्वग्राम के आँगन में)

वेद जी ने अपनी जीवन-संगिनी को माध्यम बनाकर लिखे कई गीत संग्रह में दिए हैं जिनमे प्रणय और पीड़ा दोनों को सफलता से व्यक्त किया है। संग्रह के गीत 'एक तुम्हारे बिन' तथा 'तुम आईं तो' इसी मनस्थिति व्यक्त करते हैं। 'एक तुम्हारे बिन' गीत की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'सब कुछ वैसा-वैसा-सा है
लेकिन कैसा-कैसा-सा है
एक तुम्हारे बिन
गूँगा-बहरा दिन!'

पिता पर केंद्रित 'पिता हमारे' शीर्षक से गीत में भावुक संवेदना को स्वर दिया गया है।
'पिता हमारे सघन छाँव थे
कोई दशरथ राम नहीं थे
ऋजु रेखा ही जीवन परिचय!
***
जब-तब पट्टी पेट बाँध कर
लिखते बच्चों के कल की जय!'

अपने समकाल के यथार्थ को व्यक्त करने की वेद जी की अपनी ही शैली है जो चीजों को आर-पार देखने में विश्वास रखती है जिसे कोई आकर्षण नहीं बाँध पाता और नयी राहों की खोज करता है। वास्तविकता से अभिनय और अभिनय से व्यापार की यात्रा करता कलाकार जब बाज़ारी शक्तियों का दास बनकर व्यावसायिकता में डूब गया तब गीतकार बिना किसी का नाम लिए सत्य को शब्द देकर अपनी प्रतिक्रिया देता है। 'सपनों को झुठलाता है' गीत इन्हीं सन्दर्भों को व्यक्त करती श्रेष्ठ रचना है। एक गीतांश देखिये ;
'वह अभिनय का कलाकार है
हर किरदार निभाता है'!

'अभिनय तक तो सभी ठीक था
पर, जब यह व्यापार हुआ
तेल बेचने चली कला तो
सब कुछ बंटाधार हुआ
अब काँटा है, भोली-भाली
मछली खूब फँसाता है!'

हर रचनाकार अपनी तरह से अपने समय पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है जो उसके लेखन का प्राण और केन्द्रीयता होती है। कभी स्वयं के माध्यम से तो कभी समाज के माध्यम से अनुभवजन्य सच को शब्द देता है। संग्रह के गीतों में यही आत्म-तत्व तरह-तरह से मुखरित हुआ है। 'मैं हुआ आश्वस्त' इसी प्रकार की रचना है। गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'घूँट कर प्याला किसी
सुकरात ने फिर से पिया है
मैं हुआ आश्वस्त
ज़िंदा हूँ, कहीं ज़िंदा!
***
आदमी में जानवर
रहना हकीकत है
फर्क है नाखून-पंजों का
जुबानों का
शब्द जो हो, अर्थ पर
अधिकार रहता है
शाह का, उसके मुसाहिब
हुकमरानों का
अर्थ पर अधिकार से खिलवाड़
यदि अंतिम नहीं तो
कौन कह सकता, न हो
सुकरात आइंदा!'

इसी क्रम में जब राम का नाम लेकर अनेक भ्रांत धारणाओं के द्वारा समाज में उग्रता फैलाई जा रही है तब गीतकार राम से भी मिथक से बाहर आकर आज के समय के अनुसार युद्ध के प्रतीक धनुष-बाण लिये बिना आने के लिए कहता है।

'आओ राम
मिथक से बाहर होकर आओ!

सब कुछ बदला
दुनिया अब
त्रेता से आगे
प्रश्न कि दागे
अगला-पिछला
आ भी जाओ
प्रश्नों का उत्तर हो जाओ!
अबकी आना
धनुष-बाण
मत लेकर आना
सरगम लाना
गीत सिखाना
सबको खुद में
खुद में सबको राम रमाओ!'

मिथकीय पात्रों और प्रसंगों का प्रयोग अनेक गीतों में किया गया है जिनमें मुख्य रूप से 'दुविधा में हम', 'द्रोपदी हूँ', 'क्षीण हो रही टेर', 'अच्छा हुआ', 'यों ही नहीं' आदि मुख्य हैं। पुरुरवा, मनु, विदुर, शकुनि, कामदेव, विष्णुगुप्त चाणक्य, तथागत, कुरुक्षेत्र आदि अनेक नाम हैं जो केवल नाम ही नहीं बल्कि किसी प्रवृत्ति के प्रतीक बनकर गीतों में आये हैं तथा जिनसे युगानुरूप प्रासंगिकता के साथ रचनाओं को पुष्ट किया गया है।

समकालीन यथार्थ को व्यक्त करते हुए कोई भी रचनाकार अपने समय की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक या धार्मिक घटनाओं और प्रसंगों से विमुख नहीं रह सकता। वेद जी ने भी अपनी शैली में युगबोध को व्यक्त किया है जिनमें आज का व्यक्ति अंधी भागमभाग में इतना व्यस्त है कि स्वयं के लिए स्वयं से ही प्रतियोगिता कर रहा है। इन गीतों में 'सच करो स्वीकार', 'अर्घ्य के दौने में', 'इस बयार ने', 'सपनों को झुठलाता है', 'क्या हुआ है परिंदों को', 'अपाहिज काफिये ', 'हमको सबको बदला है', 'ढाक के तीन पात' ,'फसल पकी है ','प्रश्न बड़े हैं','यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी' ,'जीने की अब यही शर्त है' आदि मुख्य हैं जो युग सत्य को सफलता से व्यक्त कर रहे हैं। उनके एक गीत से पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

'ओ रे किसना!
सुना चुनाव बहुत नेड़े
क्या सोचा है!

क्या सोचें, सब कुछ तो
उलट-पुलट भाई
वही धाक के तीन पात
फिर आये हैं
आँखों को कुछ
नये खिलौने लाये हैं
कंधे बदले
लेकिन वही अंगोछा है! ...(ढाक के तीन पात)

और एक दूसरे गीत में परिस्थिति में जकड़े आम आदमी की कसमसाहट को कुछ इस तरह व्यक्त किया है-

'कुछ है जो बाहर जब आये
अंतर बार-बार समझाये
यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी!

कब जाने कुछ फिसल न जाए
अब संवादों से डरता हूँ
भ्रूणों की ह्त्या करता हूँ
हर ह्त्या में खुद मरता हूँ
रक्तबीज संसृतियाँ हँसतीं
चिढ़ा-चिढ़ा मैं भी तो हूँ जी'! ...(यही द्वन्द्व साँसों की पूँजी)

कभी-कभी प्रकृति भी मानव-सभ्यता को अपनी तरह से चेताती है जो समय-समय पर त्रासदी के रूप में प्रकट होता है। ऐसे में कवि का भावुक ह्रदय संवेदना को शब्द देने के लिए व्याकुल हो जाता है। वेद जी ने भी उत्तराखंड, नेपाल और श्रीनगर की त्रासदी को अपने गीतों में व्यक्त किया है। 'मौन के अंगार का अणुमात्र', 'जलजले की इबारत' और 'झील क्या बिफरी' शीर्षक के गीतों में इसी संवेदना को शब्दांकित किया है। 'झील क्या बिफरी' गीत की पंक्तियाँ देखिये-

'झील क्या बिफरी
जिधर देखो
कि चस्पा कर दिया है
मरण का सन्देश
तांडव कर प्रलय ने
सिर्फ प्रलयंकर लिखा है
लहर की हर भंगिमा पर
किया कुछ अक्षम्य
क्या फिर बंधु हमने'... (सन्दर्भ:श्रीनगर त्रासदी)

संग्रह के गीतों से अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं जो वेद जी की वैचारिक परिपक्वता, भाषा की मजबूत पकड़, शैली का सम्पुष्ट अभ्यास और कथ्य का वैविध्य स्वरुप को सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति प्रदान कर रहे हैं। डॉ. योगेन्द्र दत्त शर्मा ने अपनी भूमिका में सही ही कहा है, '' 'अक्षर की आँखों से' देखने परखने का अर्थ है -आँख और अक्षर के बीच सामंजस्य बैठाना यानी कबीर की 'आँखिन देखी' वाली परंपरा से जुड़ना। एक तरह से यह 'आँखिन देखी' और 'कागद की लेखी' के बीच संगति स्थापित करना है।'' ये गीत, नवगीत में प्रायोगिक नव्यता के प्रखर समुच्चय हैं जिनमे वेद जी के निरंतर विकसित होते शिल्प और युगबोध के पुष्ट कथ्य अपने पिछले संग्रहों की भाँति विशाल पाठक जगत में सराहना प्राप्त करेंगे।
१.११.२०१७
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गीत नवगीत संग्रह- अक्षर की आँखों से, रचनाकार- वेद प्रकाश शर्मा वेद, प्रकाशक-अनुभव प्रकाशन, ग़ाज़ियाबाद, ,  प्रथम संस्करण- २०१७ मूल्य :  रु. १५०पृष्ठ : १२८, समीक्षा- जगदीश पंकज

समीक्षा

पुस्तक चर्चा:

नाप रहा हूँ तापमान को- वेद प्रकाश शर्मा 'वेद'

संजय शुक्ल 
श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने पहले नवगीत संग्रह ‘आओ नीड़ बुने’ से साहित्य जगत् में अपनी एक विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। कथ्य का चयन और उसकी अनूठी प्रस्तुति वेद जी को अपने समकालीन कवियों से थोड़ा अलग किंतु विशेष पहचान प्रदान करती है। इन्ही विशेषताओं के साथ वेद जी अपने दूसरे नवगीत संग्रह ‘नाप रहा हूँ तापमान’ को लेकर प्रस्तुत हैं।

दरअसल, कवि के मन में जब किसी गीत की विषयवस्तु अँकुरित होती है तो उसकी रचना से पहले कवि बिंबों और प्रतीकों की चयन प्रक्रिया को पूरी करता है। बिंबों और प्रतीकों के अनुरूप भाषा स्वयं बनती चली जाती है। अतः कवि की कुशलता उसके द्वारा प्रयुक्त किए गए बिंबों और प्रतीकों से परखी जा सकती है। कभी-कभी इन दोनों के प्रयोग में हुई असावधानी कविता की सम्प्रेषणीयता को प्रभावित करती है तो कभी उसे अखबारी बना देती है। ऐतिहासिक पौराणिक, मिथकीय पात्रों और घटनाओं का कविता में प्रयोग कोई नई बात नहीं है। 

समकालीन और पूर्ववर्ती रचनाकारों ने इन सभी का सफल प्रयोग अपनी कविताओं में किया है और आने वाली पीढ़ी के कवि इस परंपरा को अपनाएँगे - इसमें कोई संदेह नहीं करना चाहिए परन्तु संकट के वर्तमान युग के पाठकों के सीमित ऐतिहासिक, पौराणिक तथा सांस्कृतिक बोध के जीवन की जटिलताओं से जूझते हुए व्यक्ति अपने गौरवमयी अतीत से अनभिज्ञ ही रह जाता है। अतः जब उसके सामने ऐसी कोई कविता जिसमें उपर्युक्त क्षेत्रों से बिंब, प्रतीक, कोई पात्र अथवा कोई घटना आज के समय की विरूपताओं को व्याख्यायित करती हुई आती है तो वह कथ्य से जुड़ने में कठिनाई का अनुभव करता है भले ही उस कविता में पाठक को अपने त्रासद अथवा सुखद जीवन की ही छवि क्यों न नजर आती हो। दीर्घ और निरन्तर अभ्यास के पश्चात् ही कवि को इस प्रकार के प्रयोगों में सफलता मिल पाती है। वेद जी इसका श्रेष्ठ उदाहरण हैं। सरयू खोज रहा हूँ’ कविता की निम्न पंक्तियाँ इसका प्रमाण हैं-
तू तो अग्नि परीक्षा देकर
चिर-अर्चित उपमान हो गई
उससे जन्मे प्रश्नों से बिंध
अब तक सरयू खोज रहा हूँ

धुर अंधे विश्वास निभाये 
पर सच्चे एहसास जलाये
कुछ स्फुर्लिग जो बच्चे बचाये
उनका आधा, पौना, पूरा
खट्टा, मीठा भोज रहा हूँ

इस प्रकार की पंक्तियाँ 'कहाँ हो', हर्षवर्द्धन गीत में भी देखी जा सकती हैं- 
हर दिशा से आ रही बस
एक ही धुन
कहाँ हो तुम
हर्षवर्द्धन! 
कहाँ हो तुम? 

माघ-मेला, सांध्य बेला
में पहुँचकर थक गया है
छक गया है 
राह तककर

आँख में था
पाँख में था
साफ-सुथरा रेत पर वो
रेत-सा हो बिम्ब बिखरा

चिन्दियों में खड़ा टटका
झुर्रिया बुन 
हर्षवर्द्धन 
कहाँ हो तुम?

वेद अपने परिवेश पर बहुत ही सूक्ष्म और पैनी दृष्टि रखते हैं। उसका बहुत ही बारीकी से परीक्षण, निरीक्षण करते हैं और फिर उसमें फैली विरूपता पर पूरी ऊर्जा और शक्ति के साथ शाब्दिक चोट करते हैं। ऐसा करते हुए कवि मन आक्रोश से भरा होने के बाद भी अपने प्रहारों से मानवता को खंड-खंड नहीं अपितु उसे सुंदर और सुघड़ बनाने का प्रयास करता है और अपने कविधर्म को निभाता है-
गंगापुत्रों, अपनी अपनी
परिभाषाएँ नई लिखो अब
समय चीखता-बंधु विदुर के 
साँचों में कुछ ढले दिखो अब

शर-शैया का मर्मान्तक विष 
घूँट-घूँट क्यों पियें-पचाएँ
जाने क्या-क्या चला गया है
लिया-दिया जो शेष रह गया 
आ सुगना अब उसे बचाएँ।

वेद जी अपनी भाषा से जैसी गीत संरचनाएँ करते हैं वे उनकी विलक्षण प्रतिभा का ही बोध करातीं हैं। वह अपने देश-काल की नहीं अपितु परंपरा, संस्कृति और दार्शनिक दृष्टियों को भी अपने नवगीतों में सफलतापूर्वक अभिव्यंजित करते हैं। ‘संस्कृति का सतिया’ कवि की इस दृष्टि से परिचय कराता है-
एक लांछना लेकर सिर पर
कितना काम किया
तुलसी, शायद ठीक जिया

युग ने कैसे देखा होगा
तुझको एक आँख से
चील के पंजे लेकर
गिद्दई हठी पाँख से

तेरे सुगना ने मिट्ठू को 
कब-कब नहीं पिया
तुलसी, तू अद्भुत नदिया!

श्री वेदप्रकाश शर्मा वेद अपने गीतों में शब्द-चयन, लय-प्रवाह, संगीतात्मकता और भाषासामरस्य के प्रति अत्यंत सचेत रहते हैं। कवि ने विभिन्न छंदों में गीत रचे हैं और उनको अपने काव्य-कौशल से बखूबी साधा है-
आशंकाएँ मूल
कभी निर्मूल
बनी क्यों भूल
समय से पूछ रहे हम

विपदाओं के ठाठ
हमारे घाट
बिछाकर खाट
मजे से हुक्का पीते
सूनी-सूनी बाट
कि उजड़ी हाट
द्वार का टाट
चिलम भर-भरकर जीते

दूर कहीं मस्तूल
हवा प्रतिकूल
गई क्या भूल
समय से पूछ रहे हम। उपर्युक्त छंद-प्रवाह वेद जी के अतिरिक्त कहीं और वर्षों से देखने को नहीं मिला। हाँ! एक पुराने फिल्मी गीत की पंक्तियाँ अवश्य स्मरण हो जाती हैं- मान मेरा अहसान/अरे नादान/ कि मैंने तुझसे किया है प्यार। - इत्यादि।

पूरे संग्रह का आद्योपान्त पारायण करने के पश्चात् यह धारणा बनने में देर नहीं लगती कि वेद जी कुछ अलग सोचने वाले कवि हैं। उनकी अपने सामाजिक सरोकारों के प्रति चिन्ताएँ हैं। वे आत्ममुग्धता से परे एक सचेत और चौकन्ने रचनाकार हैं। तभी तो वो अपने समय के तापमान को मापने का साहसिक कर्म करते हैं। साहसिक इसलिए के गीत में भीड़ लुभावन मांसल प्रेम, प्रकृति सौंदर्य अथवा लिजलिजी और मसृण भावुकताएँ गाकर तात्कालिक प्रसिद्धि बटोरने के मोह को त्यागकर एक कवि अपने परिवेश की तपिश को मापने निकला है और उसे लयात्मकता और संगीतात्मकता के साथ छंदों में अभिव्यक्ति करता है-
जन-गण-मन वाले पारे से
आस-पास के तापमान को 
नाप रहा हूँ!

उगते संशय बीच अनिश्चय
गहराता है धूम-धूम सा
वलय बनाकर
और निगलता नई लीक की
नई बगावत बहला-फुसला

डरा-डराकर
ढीली तो है कीली, लेकिन
दिल्ली अब भी दूर बहुत है
भाँप रहा हूँ!

वेद जी न तो संपूर्णत या कलावादी हैं, न ही यथार्थवादी अथवा तात्कालिकतावादी और न ही महल मनोरंजनवादी। वे एक समर्पित और समर्थ गीतकार हैं जिनकी कथ्य और शिल्प की नव्यता स्वागत योग्य है। वेगमयी भाषा पाठक को गीतों से जोड़े रखने में सफल है। कहीं-कहीं विचारों के क्रम और भाव-विस्तार के सूत्रों को पकड़ने में कठिनाई अवश्य होती है परन्तु एक बार यह धुँधलका छटते ही कुनकुनी धूप की-सी चमक पाठक को चमत्कृत कर देती है।
९.११.२०१५ 
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गीत- नवगीत संग्रह - नाप रहा हूँ तापमान को, वेद प्रकाश शर्मा 'वेद', प्रकाशक ज्योति पर्व प्रकाशन, ९९-ज्ञान खंड-३, इंदिरापुरम, गाजियाबाद।  प्रथम संस्करण- २०१४, मूल्य- रूपये २४९/-, पृष्ठ- १२८, समीक्षा - संजय शुक्ल।