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बुधवार, 8 नवंबर 2017

hindi salila 1

हिंदी सलिला : १. 
पाठ १
भाषा, ध्वनि, व्याकरण,वर्ण, अक्षर, स्वर, व्यंजन  
***
औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है।  हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं।  भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है।  उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं।

'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का शुद्ध रूप जानने की दिशा में एक कदम है। यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला, हम सब जितना जानते हैं उससे कुछ अधिक जान सकें मात्र यह उद्देश्य है। व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे। उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें।  मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी, शुद्ध भाषा सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति पा सके। 

हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं।  इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किंतु हिंदी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा।अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है। जहाँ नहीं है, वहाँ क्रमशः आकार ले रही है। हम भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे। आपकी रूचि होगी तो प्रश्न-उत्तर या टिप्पणी के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है।

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किंतु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता। ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो। इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है।

श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें। भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें।

भाषा :

अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है। भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ। ध्वनि से भाषा, लेखन, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ।

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप 


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं। यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित, टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित तथा मुद्रण यंत्रों द्वारा मुद्रित रूप में होता है।

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.


वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल',  
भाषा पर अधिकार.
वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण

अक्षर अर्थात वह जिसका क्षरण (ह्रास, घटाव, पतन) न हो, इस अर्थ में ईश्वर का एक विशेषण उसका अक्षर होना है। ध्वनि और भाषा विज्ञान में मूल ध्वनि जिसे उच्चारित / या लिखा जाता है, को अक्षर कहते हैं।शब्दांश या ध्वनियों की इकाई ही अक्षर है। किसी भी शब्द को अंशों में तोड़कर बोला जा सकता है।  शब्दांश शब्द के वह अंश होते हैं जिन्हें और अधिक छोटा नहीं किया जा सकता।  अक्षर को अंग्रेजी में 'सिलेबल' कहते हैं। इसमें स्वर तथा व्यंजन (अनुस्वार रहित/सहित) ध्वनियाँ सम्मिलित हैं। क आघात या बल में बोली जाने वाली ध्वनि या ध्वनि समुदाय की इकाई अक्षर है। इकाई की पृथकता का आधार स्वर या स्वररत्‌ (वोक्वॉयड) व्यंजन होता है। व्यंजन ध्वनि किसी उच्चारण में स्वर का पूर्व (पहले) या पर (बाद में) अंग बनकर ही आती है।अक्षर में स्वर ही मेरुदंड है। अक्षर से स्वर को पृथक्‌ नहीं किया जा सकता, न बिना स्वर या स्वररत्‌ व्यंजन के अक्षर का अस्तित्व संभव है। उच्चारण में व्यंजन मोती है तो स्वर धागा। कुछ भाषाओं में व्यंजन ध्वनियाँ भी अक्षर निर्माण में सहायक होती हैं। अंग्रेजी भाषा में न, र, ल्‌ जैसी व्यंजन ध्वनियाँ स्वररत्‌ भी उच्चरित होती हैं एवं स्वरध्वनि के समान अक्षर निर्माण में सहायक सिद्ध होती हैं। डॉ॰ रामविलास शर्मा ने सिलेबल के लिए 'स्वरिक' शब्द का प्रयोग किया है। (भाषा और समाज, पृ. ५९)। 'अक्षर' शब्द का भाषा और व्याकरण 'में एकाधिक अर्थच्छाया के लिए प्रयोग किया जाता है, अत: 'सिलेबल' के अर्थ में इसके प्रयोग से भ्रम संभव है।
शब्द के उच्चारण में जिस ध्वनि पर जोर (उच्चता) हो वही अक्षर या सिलेबल होता है।  जैसे हाथ में आ ध्वनि पर जोर है। हाथ शब्द में एक अक्षर है। 'अकल्पित' शब्द में तीन अक्षर हैं - अ, कल्‌, पित्‌ ; आजादी में तीन - आ जा दी; अर्थात्‌ शब्द में जहाँ-जहाँ स्वर के उच्चारण की पृथकता हो वहाँ-वहाँ अक्षर की पृथकता होती है।
ध्वनि उत्पादन की दृष्टि से फुफ्फुस संचलन की इकाई अक्षर या स्वरिक (सिलेबल) है, जिसमें एक शीर्षध्वनि होती है। शरीर रचना की दृष्टि से अक्षर या स्वरिक को फुफ्फुस स्पंदन कह सकते हैं, जिसका उच्चारण ध्वनि तंत्र में अवरोधन होता है। जब ध्वनि खंड या अल्पतम ध्वनि समूह के उच्चारण के समय अवयव संचलन अक्षर में उच्चतम हो तो वह ध्वनि अक्षरवत्‌ होती है। स्वर ध्वनियाँ बहुधा अक्षरवत्‌ बोली जाती हैं जबकि व्यंजन ध्वनियाँ क्वचित्‌। शब्दगत उच्चारण की पूरी तरह पृथक्‌ इकाई अक्षर है।   
१. एक अक्षर के शब्द : आ, 
२. दो अक्षर के शब्द : भारतीय, 
३. तीन अक्षर के शब्द : बोलिए, जमानत, 
४. चार अक्षर के शब्द : अधुनातन, कठिनाई, 
५. पाँच अक्षर के शब्द : अव्यावहारिकता, अमानुषिकता
शब्द में अक्षर-संख्या ध्वनियों की गिनती नहीं, शब्द-उच्चारण में लगी आघात संख्या (ध्वनि इकाइयाँ)  होती हैं। अक्षर में प्रयुक्त शीर्ष ध्वनि के अतिरिक्त शेष ध्वनियों को 'अक्षरांग' या 'गह्वर ध्वनि' कहा जाता है। उदाहरण के लिए 'तीन' में एक अक्षर (सिलेबल) है जिसमें 'ई' शीर्ष ध्वनि तथा 'त' एवं 'न'  गह्वर ध्वनियाँ हैं।
शब्दांश में एक 'शब्दांश केंद्र' स्वर वर्ण  होता है जिसके इर्द-गिर्द अन्य वर्ण ( स्वर-व्यंजन दोनों) मिलते हैं।  'मीत' शब्द का शब्दांश केंद्र 'ई' का स्वर है जिससे पहले 'म' और बाद में 'त' वर्ण आते हैं। 
स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ,

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.
सारत: अक्षर वर्णमाला की एक इकाई है। देवनागरी में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन मिलकर ४४ अक्षर हैं। हिंदी में ह्रस्व (मूल,उच्चारण समय अल्प, १ मात्रा) स्वर ४ अ, इ, उ, ऋ, दीर्घ (उच्चारण समय ह्रस्व से अधिक,२ मात्रा) स्वर ७ आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ तथा प्लुत (उच्चारण समय  अधिक, ३ मात्रा) स्वर ३ ॐ आदि हैं। स्वरों का वर्गीकरण उनके उच्चारण में लगनेवाले समय के आधार पर किया गया है। प्लुत स्वर का प्रयोग पुकारने हेतु किया जाता है। 'अ' स्वर (हलन्त सहित) की कोई मात्रा नहीं होती, वह किसी व्यंजन के साथ मिलकर उसे १ मात्रिक बनाता है। 'अ' व्यंजन (हलन्त रहित) की १ मात्रा होती है। व्यंजनों का अपना स्वरूप क् च् छ् ज् झ् त् थ् ध् आदि है। अ लगने पर व्यंजनों के नीचे का (हल) चिह्न हट जाता है, तब ये इस प्रकार लिखे जाते हैं: क च छ ज झ त थ ध आदि।। स्वरों की मात्राएँ तथा स्वर-व्यंजन मिलने से शब्द निम्न अनुसार बनते हैं:
स्वर:       अ        आ        इ         ई         उ         ऊ          ए          ऐ         ओ         औ        ऋ   
मात्रा:       -          ा        ि        ी        ु        ू          े          ै        ो          ौ          ृ 
शब्द:      कम      काम     किस    कीस      कुल      कूक     केसर     कैथा    कोयल     कौआ     कृश 
जिन वर्णों के पूर्ण उच्चारण के लिए स्वरों की सहायता ली जाती है वे व्यंजन कहलाते हैं। बिना स्वरों की सहायता के बोले ही नहीं जा सकते। ये संख्या में ३३ हैं। इसके तीन भेद १. स्पर्श, २. अंतःस्थ, ३. ऊष्म हैं।स्पर्श: स्पर्श व्यंजन पाँच वर्गों में विभक्त हैं।  हर वर्ग में पाँच-पाँच व्यंजन हैं। हर वर्ग का नाम पहले वर्ण पर है। क वर्ग- क् ख् ग् घ् ड़्। च वर्ग- च् छ् ज् झ् ञ्। ट वर्ग- ट् ठ् ड् ढ् ण् ।त वर्ग- त् थ् द् ध् न्। प वर्ग- प् फ् ब् भ् म्।अंतःस्थ: अन्तस्थ व्यंजन ४  हैं: य् र् ल् व्।                                                                    ऊष्म ऊष्म व्यंजन ४ चार हैं- श् ष् स् ह्।                                                                                          संयुक्त व्यंजनदो अथवा दो से अधिक व्यंजन मिलकर संयुक्त व्यंजन कहलाते हैं।  देवनागरी लिपि में संयोग के बाद रूप-परिवर्तन होने के कारण क्ष (क्+ष) क्षरण, ज्ञ (ज्+ञ) ज्ञान, तथा त्र (त्+र) त्रिशूल को कुछ विद्वान् हिंदी वर्णमाला में गिनते हैं कुछ नहीं गिनते।                                                                        अनुस्वार: इसका प्रयोग पंचम वर्ण के स्थान पर होता है। इसका चिन्ह (ं) है। जैसे: सम्भव=संभव, सञ्जीव  = संजीव, सड़्गम=संगम।                                                                                                    विसर्ग: इसका उच्चारण ह् के समान तथा चिह्न (ः) है। जैसे: अतः, प्रातः।                                  अनुनासिक/चंद्रबिंदु: जब किसी स्वर का उच्चारण नासिका और मुख दोनों से किया जाता है तब उसके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगाते है। यह अनुनासिक कहलाता है। जैसे: हँसना, आँख। हिंदी वर्णमाला में ११ स्वर तथा ३३ व्यंजन हैं। इनमें गृहित वर्ण (चार) ड़्, ढ़् अं तथा अः जोड़ने पर हिन्दी के वर्णों की कुल संख्या ४८ हो जाती है।हलन्त: जब कभी व्यंजन का प्रयोग स्वर से रहित किया जाता है तब उसके नीचे एक तिरछी रेखा (्) लगा दी जाती है। यह रेखा हल कहलाती है। हलयुक्त व्यंजन हलंत वर्ण कहलाता है। जैसे-विद्यां = विद्याम्
वर्ण तथा उच्चारण स्थल:
क्रमवर्णउच्चारण स्थल श्रेणी
१.अ आ क् ख् ग् घ् ड़् ह्विसर्ग कंठ और जीभ का निचला भागकंठस्थ
२.इ ई च् छ् ज् झ् ञ् य् शतालु और जीभतालव्य
३.ऋ ट् ठ् ड् ढ् ण् ड़् ढ़् र् ष्मूर्धा और जीभमूर्धन्य
४.त् थ् द् ध् न् ल् स्दाँत और जीभदंत्य
५.उ ऊ प् फ् ब् भ् म्दोनों होंठओष्ठ्य
६.ए ऐकंठ तालु और जीभकंठतालव्य
७.ओ औकंठ जीभ और होंठकंठोष्ठ्य
८.व्दाँत जीभ और होंठदंतोष्ठ्य

टीप: अक्षर = अ+क्षर जिसका क्षरण न हो, अविनाशी, अनश्वर, स्थिर, दृढ़, -विक्रमोर्वशीयम्, भगवद्गीता १५/१६,  अक्षराणांकारsस्मि -भगवद्गीता 10/33 त्र्यक्षर, एकाक्षरंपरंब्रह्म मनुस्मृति २/८३, प्रतिषेधाक्षरविक्लवाभिरामम् -शकुंतला नाटक ३/२५। 

अक्षर:

भाषाअसमियाउड़ियाउर्दूकन्नड़कश्मीरीकोंकणीगुजराती
शब्दबर्ण, आखर, अक्षरबर्ण (अख्यर)हर्फ़अक्षरअछुर, हरूफअक्षर, वर्ण
भाषाडोगरीतमिलतेलुगुनेपालीपंजाबीबांग्लाबोडो
शब्दएलुत्तुअक्षरमुअक्खरवर्ण (र्न), अक्षर (क्ख)
भाषामणिपुरीमराठीमलयालममैथिलीसंथालीसिंधीअंग्रेज़ी
वर्ड 
शब्दस्वर, वर्ण, शब्दअक्षरंअखर 

अंग्रेजी वर्णमाला में २१ स्वर और ५ व्यंजन मिलकर २६ वर्ण हैं। 

वर्ण, अक्षर और ध्वनि
"वर्ण उस मूल ध्वनि को कहते हैं जिसके खंड न हो सकें।" जैसे - अ इ क् ख् । वर्ण या अक्षर रचना की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई है।
वर्ण, अक्षर तथा ध्वनि इन तीनों में भी अंतर हैं।
मुँह से उच्चरित अ, आ, क्, ख् आदि ध्वनियाँ हैं ।
ध्वनियों के लिखित रूप को वर्ण कहते हैं।
किसी एक ध्वनि या ध्वनि समूह की उच्चरित इकाई को अक्षर कहते हैं अथवा छोटी से छोटी इकाई अक्षर है जिसका उच्चारण वायु के एक झटके से होता है।
जैसे - आ ,जी ,क्या आदि।
**********
विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर 
salil.sanjiv@gmail.com, 7999559618
www.divyanarmada.in, #हिंदी_ब्लॉगर

मंगलवार, 28 जून 2011

-: हिंदी सलिला :- विमर्श १ भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन -संजीव वर्मा 'सलिल'-र्मा 'सलिल'

  -: हिंदी सलिला :- 
विमर्श १ 
भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन 
- संजीव वर्मा 'सलिल' -


औचित्य :

                   भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है. उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं.

                   'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का व्यावहारिक शुद्ध रूप (व्याकरण व पिंगल) जानने की दिशा में एक कदम है. यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला. हम सब जितना जानते हैं उसका आदान-प्रदान कर पहले से कुछ अधिक जान सकें, मात्र यह उद्देश्य है. व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे. उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें. मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी, शुद्ध भाषा की जानकारी पाकर सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति बन सके.

                   हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है. जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है. हम भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे. आपकी रूचि होगी तो प्रश्न या गृहकार्य के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है.

                   जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञान में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है.

                  इस विमर्श का श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें. भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, लिपि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें.

भाषा/लैंग्वेज :

                  अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ. आदि मानव को प्राकृतिक घटनाओं (वर्षा, तूफ़ान, जल या वायु का प्रवाह), पशु-पक्षियों की बोली आदि को सुनकर हर्ष, भय, शांति आदि की अनुभूति हुई. इन ध्वनियों की नकलकर उसने बोलना, एक-दूसरे को पुकारना, भगाना, स्नेह-क्रोध आदि की अभिव्यक्ति करना सदियों में सीखा.

लिपि:


                    कहे हुए को अंकित कर स्मरण रखने अथवा अनुपस्थित साथी को बताने के लिए हर ध्वनि के लिए अलग-अलग संकेत निश्चित कर अंकित करना सीखकर मनुष्य शेष सभी जीवों से अधिक उन्नत हो सका. इन संकेतों की संख्या बढ़ने तथा व्यवस्थित रूप ग्रहण करने ने लिपि को जन्म दिया. एक ही अनुभूति के लिए अलग-अलग मानव समूहों में अलग-अलग ध्वनि तथा संकेत बनने तथा आपस में संपर्क न होने से विविध भाषाओँ और लिपियों का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर, करे अनाहद जाप.

                  भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), तूलिका के माध्यम से अंकित, लेखनी के द्वारा लिखित तथा आजकल टंकण यंत्र या संगणक द्वारा टंकित होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.

व्याकरण ( ग्रामर ) -

                  व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.

वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

                   स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ, .

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.

व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं.
अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.

शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.

                   अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समर्थ होती है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.

१. मूल शब्द:
                   भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.

२. विकसित शब्द:
                     आवश्यकता आविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नये-नये शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नये शब्द सामने आये.संगणक के अविष्कार के बाद संबंधित तकनालाजी को अभिव्यक्त करने के नये शब्द बनाये गये.

३. आयातित शब्द:
                  किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलना पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भाषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किये हैं. भारत पर यवनों के हमलों के समय फारस तथा अरब से आये सिपाहियों तथा भारतीय जन समुदायों के बीच शब्दों के आदान-प्रदान से उर्दू का जन्म हुआ. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.

हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.

१.यथावत:
                मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन (station) लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.

२.परिवर्तित:
                 मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .

३. पर्यायवाची:
                    जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नये शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.

४. नये शब्द:
                   ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव आदि के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नये शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.

                    हिंदीभाषी क्षेत्रों में पूर्व में विविध भाषाएँ / बोलियाँ प्रचलित रहने के कारण उच्चारण, क्रिया रूपों, कारकों, लिंग, वाचन आदि में भिन्नता है. अब इन सभी क्षेत्रों में एक सी भाषा के विकास के लिये बोलनेवालों को अपनी आदत में कुछ परिवर्तन करना होगा ताकि अहिन्दीभाषियों को पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक सी भाषा समझने में सरलता हो. अगले विमर्श में में हम शब्द-भेदों की चर्चा करेंगे. 

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शुक्रवार, 24 जून 2011

काव्य का रचना शास्त्र : १ ध्वनि कविता की जान है... - आचार्य संजीव 'सलिल'

काव्य का रचना शास्त्र : १

ध्वनि कविता की जान है...

- आचार्य संजीव 'सलिल'



ध्वनि कविता की जान है, भाव श्वास-प्रश्वास.
अक्षर तन, अभिव्यक्ति मन, छंद वेश-विन्यास..

                 अपने उद्भव के साथ ही मनुष्य को प्रकृति और पशुओं से निरंतर संघर्ष करना पड़ा. सुन्दर, मोहक, रमणीय प्राकृतिक दृश्य उसे रोमांचित, मुग्ध और उल्लसित करते थे. प्रकृति की रहस्यमय-भयानक घटनाएँ उसे डराती थीं. बलवान हिंस्र पशुओं से भयभीत होकर वह व्याकुल हो उठता था. विडम्बना यह कि उसका शारीरिक बल और शक्तियाँ बहुत कम थीं. अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए उसके पास देखे-सुने को समझने और समझाने की बेहतर बुद्धि थी. बाह्य तथा आतंरिक संघर्षों में अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने और अन्यों की अभिव्यक्ति को ग्रहण करने की शक्ति का उत्तरोत्तर विकास कर मनुष्य सर्वजयी बन सका. 

साहित्य शिल्पीरचनाकार परिचय:-

आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई., अर्थशास्त्र तथा दर्शनशास्त्र में एम. ऐ.., एल-एल. बी., विशारद,, पत्रकारिता में डिप्लोमा, कंप्युटर ऍप्लिकेशन में डिप्लोमा किया है। आपकी प्रथम प्रकाशित कृति 'कलम के देव' भक्ति गीत संग्रह है। 'लोकतंत्र का मकबरा' तथा 'मीत मेरे' आपकी छंद मुक्त कविताओं के संग्रह हैं। आपकी चौथी प्रकाशित कृति है 'भूकंप के साथ जीना सीखें'। आपनें निर्माण के नूपुर, नींव के पत्थर, राम नम सुखदाई, तिनका-तिनका नीड़, सौरभ:, यदा-कदा, द्वार खड़े इतिहास के, काव्य मन्दाकिनी २००८ आदि पुस्तकों के साथ साथ अनेक पत्रिकाओं व स्मारिकाओं का भी संपादन किया है। आपको देश-विदेश में १२ राज्यों की ५० सस्थाओं ने ७० सम्मानों से सम्मानित किया जिनमें प्रमुख हैं : आचार्य, २०वीन शताब्दी रत्न, सरस्वती रत्न, संपादक रत्न, विज्ञानं रत्न, शारदा सुत, श्रेष्ठ गीतकार, भाषा भूषण, चित्रांश गौरव, साहित्य गौरव, साहित्य वारिधि, साहित्य शिरोमणि, काव्य श्री, मानसरोवर साहित्य सम्मान, पाथेय सम्मान, वृक्ष मित्र सम्मान, आदि। वर्तमान में आप म.प्र. सड़क विकास निगम में उप महाप्रबंधक के रूप में कार्यरत हैं।
                अनुभूतियों को अभिव्यक्त और संप्रेषित करने के लिए मनुष्य ने सहारा लिया ध्वनि का. वह आँधियों, तूफानों, मूसलाधार बरसात, भूकंप, समुद्र की लहरों, शेर की दहाड़, हाथी की चिंघाड़ आदि से सहमकर छिपता फिरता. प्रकृति का रौद्र रूप उसे डराता. मंद समीरण, शीतल फुहार, कोयल की कूक, गगन और सागर का विस्तार उसमें दिगंत तक जाने की अभिलाषा पैदा करते. उल्लसित-उत्साहित मनुष्य कलकल निनाद की तरह किलकते हुए अन्य मनुष्यों को उत्साहित करता. अनुभूति को अभिव्यक्त कर अपने मन के भावों को विचार का रूप देने में ध्वनि की तीक्ष्णता, मधुरता, लय, गति की तीव्रता-मंदता, आवृत्ति, लालित्य-रुक्षता आदि उसकी सहायक हुईं. अपनी अभिव्यक्ति को शुद्ध, समर्थ तथा सबको समझ आने योग्य बनाना उसकी प्राथमिक आवश्यकता थी.

          सकल सृष्टि का हित करे, कालजयी आदित्य.
            जो सबके हित हेतु हो, अमर वही साहित्य.

               भावनाओं के आवेग को अभिव्यक्त करने का यह प्रयास ही कला के रूप में विकसित होता हुआ 'साहित्य' के रूप में प्रस्फुटित हुआ. सबके हित की यह मूल भावना 'हितेन सहितं' ही साहित्य और असाहित्य के बीच की सीमा रेखा है जिसके निकष पर किसी रचना को परखा जाना चाहिए. सनातन भारतीय चिंतन में 'सत्य-शिव-सुन्दर' की कसौटी पर खरी कला को ही मान्यता देने के पीछे भी यही भावना है. 'शिव' अर्थात 'सर्व कल्याणकारी, 'कला कला के लिए' का पाश्चात्य सिद्धांत पूर्व को स्वीकार नहीं हुआ. साहित्य नर्मदा का कालजयी प्रवाह 'नर्मं ददाति इति नर्मदा' अर्थात 'जो सबको आनंद दे, वही नर्मदा' को ही आदर्श मानकर सतत सृजन पथ पर बढ़ता रहा.

                 मानवीय अभिव्यक्ति के शास्त्र 'साहित्य' को पश्चिम में 'पुस्तकों का समुच्चय', 'संचित ज्ञान का भंडार', 'जीवन की व्याख्या', आदि कहा गया है. भारत में स्थूल इन्द्रियजन्य अनुभव के स्थान पर अन्तरंग आत्मिक अनुभूतियों की अभिव्यक्ति को अधिक महत्व दिया गया. यह अंतर साहित्य को मस्तिष्क और ह्रदय से उद्भूत मानने का है. आप स्वयं भी अनुभव करेंगे के बौद्धिक-तार्किक कथ्य की तुलना में सरस-मर्मस्पर्शी बात अधिक प्रभाव छोड़ती है. विशेषकर काव्य (गीति या पद्य) में तो भावनाओं का ही साम्राज्य होता है. 

होता नहीं दिमाग से, जो संचालित मीत. 

दिल की सुन दिल से जुड़े, पा दिलवर की प्रीत..


साध्य आत्म-आनंद है :

                   काव्य का उद्देश्य सर्व कल्याण के साथ ही निजानंद भी मान्य है. भावानुभूति या रसानुभूति काव्य की आत्मा है किन्तु मनोरंजन मात्र ही साहित्य या काव्य का लक्ष्य या ध्येय नहीं है. आजकल दूरदर्शन पर आ रहे कार्यक्रम सिर्फ मनोरंजन पर केन्द्रित होने के कारण समाज को कुछ दे नहीं पा रहे जबकि साहित्य का सृजन ही समाज को कुछ देने के लिये किया जाता है. 

जन-जन का आनंद जब, बने आत्म-आनंद.

कल-कल सलिल-निनाद सम, तभी गूँजते छंद..

काव्य के तत्व :

बुद्धि भाव कल्पना कला, शब्द काव्य के तत्व.

तत्व न हों तो काव्य का, खो जाता है स्वत्व..

                   बुद्धि या ज्ञान तत्व काव्य को ग्रहणीय बनाता है. सत-असत, ग्राह्य-अग्राह्य, शिव-अशिव, सुन्दर-असुंदर, उपयोगी-अनुपयोगी में भेद तथा उपयुक्त का चयन बुद्धि तत्व के बिना संभव नहीं. कृति को विकृति न होने देकर सुकृति बनाने में यही तत्व प्रभावी होता है. 

                भाव तत्व को राग तत्व या रस तत्व भी कहा जाता है. भाव की तीव्रता ही काव्य को हृद्स्पर्शी बनाती है. संवेदनशीलता तथा सहृदयता ही रचनाकार के ह्रदय से पाठक तक रस-गंगा बहाती है. 

                    कल्पना लौकिक को अलौकिक और अलौकिक को लौकिक बनाती है. रचनाकार के ह्रदय-पटल पर बाह्य जगत तथा अंतर्जगत में हुए अनुभव अपनी छाप छोड़ते हैं. साहित्य सृजन के समय अवचेतन में संग्रहित पूर्वानुभूत संस्कारों का चित्रण कल्पना शक्ति से ही संभव होता है. रचनाकार अपने अनुभूत तथ्य को यथावत कथ्य नहीं बनता. वह जाने-अनजाने सच=झूट का ऐसा मिश्रण करता है जो सत्यता का आभास कराता है. 

                कला तत्त्व को शैली भी कह सकते हैं. किसी एक अनुभव को अलग-अलग लोग अलग-अलग तरीके से व्यक्त करते हैं. हर रचनाकार का किसी बात को कहने का खास तरीके को उसकी शैली कहा जाता है. कला तत्व ही 'शिवता' का वाहक होता है. कला असुंदर को भी सुन्दर बना देती है.

                 शब्द को कला तत्व में समाविष्ट किया जा सकता है किन्तु यह अपने आपमें एक अलग तत्व है. भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द ही होता है. रचनाकार समुचित शब्द का चयन कर पाठक को कथ्य से तादात्म्य स्थापित करने के लिए प्रेरित करता है.

साहित्य के रूप :

दिल-दिमाग की कशमकश, भावों का व्यापार.

बनता है साहित्य की, रचना का आधार.. 

                  बुद्धि तत्त्व की प्रधानतावाला बोधात्मक साहित्य ज्ञान-वृद्धि में सहायक होता है. हृदय तत्त्व को प्रमुखता देनेवाला रागात्मक साहित्य पशुत्व से देवत्व की ओर जाना की प्रेरणा देता है. अमर साहित्यकार डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ऐसे साहित्य को 'रचनात्मक साहित्य' कहा है. 

साहित्य शिल्पीसादर समर्पित

            यह लेख श्रंखला मुझमें भाषा और साहित्य की रूचि जगानेवाली पूजनीय माता जी व प्रख्यात- आशु कवयित्री स्व. श्रीमति शांति देवी वर्मा की पुण्य-स्मृति को समर्पित  है। 
                                                -संजीव 

 लक्ष्य और लक्षण ग्रन्थ 

                    रचनात्मक या रागात्मक साहित्य के दो भेद लक्ष्य ग्रन्थ और लक्षण ग्रन्थ हैं साहित्यकार का उद्देश्य अलौकिक आनंद की सृष्टि करना होता है जिसमें रसमग्न होकर पाठक रचना के कथ्य, घटनाक्रम, पात्रों और सन्देश के साथ अभिन्न हो सके. 

             लक्ष्य ग्रन्थ में रचनाकार नूतन भावः लोक की सृष्टि करता है जिसके गुण-दोष विवेचन के लिये व्यापक अध्ययन-मनन पश्चात् कुछ लक्षण और नियम निर्धारित किये गये हैं लक्ष्य ग्रंथों के आकलन अथवा मूल्यांकन (गुण-दोष विवेचन) संबन्धी साहित्य लक्षण ग्रन्थ होंगे. लक्ष्य ग्रन्थ साहित्य का भावः पक्ष हैं तो लक्षण ग्रन्थ विचार पक्ष. काव्य के लक्षणों, नियमों, रस, भाव, अलंकार, गुण-दोष आदि का विवेचन 'साहित्य शास्त्र' के अंतर्गत आता है 'काव्य का रचना शास्त्र' विषय भी 'साहित्य शास्त्र' का अंग है. 

साहित्य के रूप -- 
१. लक्ष्य ग्रन्थ : (क) दृश्य काव्य, (ख) श्रव्य काव्य. 
२. लक्षण ग्रन्थ : (क) समीक्षा, (ख) साहित्य शास्त्र.
                                                                                                                                                    क्रमश: .....
                                                                                                                                       (आभार : साहित्य शिल्पी, मंगलवार, १० मार्च २००९) 

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रविवार, 10 अक्टूबर 2010

हिंदी चर्चा : १ भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन ----- संजीव वर्मा 'सलिल'

हिंदी चर्चा : १
 
भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन
 
----- संजीव वर्मा 'सलिल'
 
औचित्य :

भारत-भाषा हिन्दी भविष्य में विश्व-वाणी बनने के पथ पर अग्रसर है. हिन्दी की शब्द सामर्थ्य पर प्रायः अकारण तथा जानकारी के अभाव में प्रश्न चिन्ह लगाये जाते हैं. भाषा सदानीरा सलिला की तरह सतत प्रवाहिनी होती है. उसमें से कुछ शब्द काल-बाह्य होकर बाहर हो जाते हैं तो अनेक शब्द उसमें प्रविष्ट भी होते हैं.

'हिन्दी सलिला' वर्त्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर हिन्दी का शुद्ध रूप जानने की दिशा में एक कदम है. यहाँ न कोई सिखानेवाला है, न कोई सीखनेवाला. हम सब जितना जानते हैं उससे कुछ अधिक जान सकें मात्र यह उद्देश्य है. व्यवस्थित विधि से आगे बढ़ने की दृष्टि से संचालक कुछ सामग्री प्रस्तुत करेंगे. उसमें कुछ कमी या त्रुटि हो तो आप टिप्पणी कर न केवल अवगत कराएँ अपितु शेष और सही सामग्री उपलब्ध हो तो भेजें. मतान्तर होने पर संचालक का प्रयास होगा कि मानकों पर खरी , शुद्ध भाषा सामंजस्य, समन्वय तथा सहमति पा सके. हिंदी के अनेक रूप देश में आंचलिक/स्थानीय भाषाओँ और बोलिओं के रूप में प्रचलित हैं. इस कारण भाषिक नियमों, क्रिया-कारक के रूपों, कहीं-कहीं शब्दों के अर्थों में अंतर स्वाभाविक है किन्तु हिन्दी को विश्व भाषा बनने के लिये इस अंतर को पाटकर क्रमशः मानक रूप लेना ही होगा. अनेक क्षेत्रों में हिन्दी की मानक शब्दावली है. जहाँ नहीं है वहाँ क्रमशः आकार ले रही है. हक भाषिक तत्वों के साथ साहित्यिक विधाओं तथा शब्द क्षमता विस्तार की दृष्टि से भी सामग्री चयन करेंगे. आपकी रूचि होगी तो प्रश्न या गृहकार्य के माध्यम से भी आपकी सहभागिता हो सकती है.

जन सामान्य भाषा के जिस देशज रूप का प्रयोग करता है वह कही गयी बात का आशय संप्रेषित करता है किन्तु वह पूरी तरह शुद्ध नहीं होता. ज्ञान-विज्ञानं में भाषा का उपयोग तभी संभव है जब शब्द से एक सुनिश्चित अर्थ की प्रतीति हो. इस दिशा में हिंदी का प्रयोग न होने को दो कारण इच्छाशक्ति की कमी तथा भाषिक एवं शाब्दिक नियमों और उनके अर्थ की स्पष्टता न होना है.

इस स्तम्भ का श्री गणेश करते हुए हमारा प्रयास है कि हम एक साथ मिलकर सबसे पहले कुछ मूल बातों को जानें. भाषा, वर्ण या अक्षर, शब्द, ध्वनि, व्याकरण, स्वर, व्यंजन जैसी मूल अवधारणाओं को समझने का प्रयास करें.

भाषा :

अनुभूतियों से उत्पन्न भावों को अभिव्यक्त करने के लिए भंगिमाओं या ध्वनियों की आवश्यकता होती है. भंगिमाओं से नृत्य, नाट्य, चित्र आदि कलाओं का विकास हुआ. ध्वनि से भाषा, वादन एवं गायन कलाओं का जन्म हुआ.

चित्र गुप्त ज्यों चित्त का, बसा आप में आप.
भाषा-सलिला निरंतर करे अनाहद जाप.


भाषा वह साधन है जिससे हम अपने भाव एवं विचार अन्य लोगों तक पहुँचा पाते हैं अथवा अन्यों के भाव और विचार ग्रहण कर पाते हैं. यह आदान-प्रदान वाणी के माध्यम से (मौखिक), toolika के माध्यम से ankit या लेखनी के द्वारा (लिखित) होता है.

निर्विकार अक्षर रहे मौन, शांत निः शब्द
भाषा वाहक भाव की, माध्यम हैं लिपि-शब्द.


व्याकरण ( ग्रामर ) -

व्याकरण ( वि + आ + करण ) का अर्थ भली-भाँति समझना है. व्याकरण भाषा के शुद्ध एवं परिष्कृत रूप सम्बन्धी नियमोपनियमों का संग्रह है. भाषा के समुचित ज्ञान हेतु वर्ण विचार (ओर्थोग्राफी) अर्थात वर्णों (अक्षरों) के आकार, उच्चारण, भेद, संधि आदि , शब्द विचार (एटीमोलोजी) याने शब्दों के भेद, उनकी व्युत्पत्ति एवं रूप परिवर्तन आदि तथा वाक्य विचार (सिंटेक्स) अर्थात वाक्यों के भेद, रचना और वाक्य विश्लेषण को जानना आवश्यक है.

वर्ण शब्द संग वाक्य का, कविगण करें विचार.
तभी पा सकें वे 'सलिल', भाषा पर अधिकार.

वर्ण / अक्षर :

हिंदी में वर्ण के दो प्रकार स्वर (वोवेल्स) तथा व्यंजन (कोंसोनेंट्स) हैं.

अजर अमर अक्षर अजित, ध्वनि कहलाती वर्ण.
स्वर-व्यंजन दो रूप बिन, हो अभिव्यक्ति विवर्ण.

स्वर ( वोवेल्स ) :

स्वर वह मूल ध्वनि है जिसे विभाजित नहीं किया जा सकता. वह अक्षर है जिसका अधिक क्षरण, विभाजन या ह्रास नहीं हो सकता. स्वर के उच्चारण में अन्य वर्णों की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. यथा - अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ:, ऋ, .

स्वर के दो प्रकार:

१. हृस्व : लघु या छोटा ( अ, इ, उ, ऋ, ऌ ) तथा
२. दीर्घ : गुरु या बड़ा ( आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अ: ) हैं.

अ, इ, उ, ऋ हृस्व स्वर, शेष दीर्घ पहचान
मिलें हृस्व से हृस्व स्वर, उन्हें दीर्घ ले मान.


व्यंजन (कांसोनेंट्स) :

व्यंजन वे वर्ण हैं जो स्वर की सहायता के बिना नहीं बोले जा सकते. व्यंजनों के चार प्रकार हैं.

१. स्पर्श व्यंजन (क वर्ग - क, ख, ग, घ, ङ्), (च वर्ग - च, छ, ज, झ, ञ्.), (ट वर्ग - ट, ठ, ड, ढ, ण्), (त वर्ग त, थ, द, ढ, न), (प वर्ग - प,फ, ब, भ, म).
२. अन्तस्थ व्यंजन (य वर्ग - य, र, ल, व्, श).
३. ऊष्म व्यंजन ( श, ष, स ह) तथा
४. संयुक्त व्यंजन ( क्ष, त्र, ज्ञ) हैं. अनुस्वार (अं) तथा विसर्ग (अ:) भी व्यंजन हैं.

भाषा में रस घोलते, व्यंजन भरते भाव.
कर अपूर्ण को पूर्ण वे मेटें सकल अभाव.


शब्द :

अक्षर मिलकर शब्द बन, हमें बताते अर्थ.
मिलकर रहें न जो 'सलिल', उनका जीवन व्यर्थ.


अक्षरों का ऐसा समूह जिससे किसी अर्थ की प्रतीति हो शब्द कहलाता है. शब्द भाषा का मूल तत्व है. जिस भाषा में जितने अधिक शब्द हों वह उतनी ही अधिक समृद्ध कहलाती है तथा वह मानवीय अनुभूतियों और ज्ञान-विज्ञानं के तथ्यों का वर्णन इस तरह करने में समरथ होति है कि कहने-लिखनेवाले की बात का बिलकुल वही अर्थ सुनने-पढ़नेवाला ग्रहण करे. ऐसा न हो तो अर्थ का अनर्थ होने की पूरी-पूरी संभावना है. किसी भाषा में शब्दों का भण्डारण कई तरीकों से होता है.

१. मूल शब्द:
भाषा के लगातार प्रयोग में आने से समय के विकसित होते गए ऐसे शब्दों का निर्माण जन जीवन, लोक संस्कृति, परिस्थितियों, परिवेश और प्रकृति के अनुसार होता है. विश्व के विविध अंचलों में उपलब्ध भौगोलिक परिस्थितियों, जीवन शैलियों, खान-पान की विविधताओं, लोकाचारों,धर्मों तथा विज्ञानं के विकास के साथ अपने आप होता जाता है.

२. विकसित शब्द:
आवश्यकता अविष्कार की जननी है. लगातार बदलती परिस्थितियों, परिवेश, सामाजिक वातावरण, वैज्ञानिक प्रगति आदि के कारण जन सामान्य अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिये नए-नए शब्दों का प्रयोग करता है. इस तरह विकसित शब्द भाषा को संपन्न बनाते हैं. व्यापार-व्यवसाय में उपभोक्ता के साथ धोखा होने पर उन्हें विधि सम्मत संरक्षण देने के लिये कानून बना तो अनेक नए शब्द सामने आये.

३. आयातित शब्द :
किन्हीं भौगोलिक, राजनैतिक या सामाजिक कारणों से जब किसी एक भाषा बोलनेवाले समुदाय को अन्य भाषा बोलने वाले समुदाय से घुलना-मिलन पड़ता है तो एक भाषा में दूसरी भाषा के शब्द भी मिलते जाते हैं. ऐसी स्थिति में कुछ शब्द आपने मूल रूप में प्रचलित रहे आते हैं तथा मूल भाषा में अन्य भषा के शब्द यथावत (जैसे के तैसे) अपना लिये जाते हैं. हिन्दी ने पूर्व प्रचलित भाषाओँ संस्कृत, अपभ्रंश, पाली, प्राकृत तथा नया भाषाओं-बोलिओं से बहुत से शब्द ग्रहण किए हैं. आज हम इन शब्दों को हिन्दी का ही मानते हैं, वे किस भाषा से आये नहीं जानते.

हिन्दी में आयातित शब्दों का उपयोग ४ तरह से हुआ है.

१. मूल भाषा में प्रयुक्त शब्द के उच्चारण को जैसे का तैसा उसी अर्थ में देवनागरी लिपि में लिखा जाए ताकि पढ़ते/बोले जाते समय हिन्दी भाषी तथा अन्य भाषा भाषी उस शब्द को समान अर्थ में समझ सकें. जैसे अंग्रेजी का शब्द स्टेशन, यहाँ अंगरेजी में स्टेशन लिखते समय उपयोग हुए अंगरेजी अक्षरों को पूरी तरह भुला दिया गया है.

२. मूल शब्द के उच्चारण में प्रयुक्त ध्वनि हिन्दी में न हो अथवा अत्यंत क्लिष्ट या सुविधाजनक हो तो उसे हिन्दी की प्रकृति के अनुसार परिवर्तित कर लिया जाए. जैसे अंगरेजी के शब्द हॉस्पिटल को सुविधानुसार बदलकर अस्पताल कर लिया गया है. .

३. जिन शब्दों के अर्थ को व्यक्त करने के लिये हिंदी में हिन्दी में समुचित पर्यायवाची शब्द हैं या बनाये जा सकते हैं वहाँ ऐसे नए शब्द ही लिये जाएँ. जैसे: बस स्टैंड के स्थान पर बस अड्डा, रोड के स्थान पर सड़क या मार्ग. यह भी कि जिन शब्दों को गलत अर्थों में प्रयोग किया जा रहा है उनके सही अर्थ स्पष्ट कर सम्मिलित किये जाएँ ताकि भ्रम का निवारण हो. जैसे: प्लान्टेशन के लिये वृक्षारोपण के स्थान पर पौधारोपण, ट्रेन के लिये रेलगाड़ी, रेल के लिये पटरी.

४. नए शब्द: ज्ञान-विज्ञान की प्रगति, अन्य भाषा-भाषियों से मेल-जोल, परिस्थितियों में बदलाव के कारण हिन्दी में कुछ सर्वथा नए शब्दों का प्रयोग होना अनिवार्य है. इन्हें बिना हिचक अपनाया जाना चाहिए. जैसे सैटेलाईट, मिसाइल, सीमेंट आदि.

हिंदीभाषी क्षेत्रों में पूर्व में विविध भाषाएँ / बोलियाँ प्रचलित रहने के कारण उच्चारण, क्रिया रूपों, कारकों, लिंग, वाचन आदि में भिन्नता है. अब इन अभी क्षेत्रों में एक सी भाष एके वोक्स के लिये बोलनेवालों को अपनी आदत में कुछ परिवर्तन करना होगा ताकि अहिन्दीभाषियों को पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में एक सी भाषा समझने में सरलता हो. अगले सत्र में हम कुछ अन्य बिन्दुओं पर बात करेंगे.
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