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बुधवार, 5 नवंबर 2025

नवंबर ५, पूर्णिका, बारहमासा, मधुकामिनी, लघुकथा, भूगोलीय मुक्तक, गीत, सरस्वती

सलिल सृजन नवंबर ५ 
पूर्णिका
.
आज तन्हा शोर है बातें करो
लगावट पुरजोर है बातें करो
.
दिल गरेबां चाक दिल का कर रहा
बनावट शहजोर है बातें करो
.
दोस्ती भी फेसबुक पर हो रही
नसीहत भरपूर है बातें करो
.
मुरझ नीलोफर न जाए ध्यान दो
फजीहत घनघोर है बातें करो
.
वर्ल्ड कप ले आईं हैं लड़ बेटियाँ
बगावत की भोर है बातें करो
.
कान हैं दीवार के कुछ मत कहो
सखावत कमजोर हैं बातें करो
.
कौन है संजीव मुर्दे पुरस्कृत
इनायत सरकार की बातें करो
५.११.२०२५
०००
बारहमासा : सांसारिक और आध्यात्मिक मिलन-विरह का काव्य 
वस्तुतः मानव का प्रकृति के साथ बुनियादी सम्बन्ध का भारतीय दृष्टिकोण विश्व- प्रसिद्ध है। यही सम्बन्ध हमारे देश की काव्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला और संगीत आदि ललित कलाओं में परिलक्षित होता है। प्रकृति के नैसर्गिक वातावरण में रहते हुए हमारे भविष्यदर्शी ऋषि-मुनियों ने प्रतिदिन होने वाले उषाः काल, संध्या, रात्रि, प्रकाश और अंधकार आदि प्राकृतिक उपादानों की शाश्वत लय का गहन अध्ययन किया। सतत चिंतन, मनन और सूक्ष्म निरीक्षण द्वारा उन्होंने जाना कि धरती- आकाश, सूर्य-चन्द्रमा, ग्रह-नक्षत्र, प्रकृति- वनस्पति आदि सभी का आपसी तारतम्य है और ये सभी एक लय से बंधे हुए हैं। इस तरह हमारे जागरूक और सूक्ष्मदर्शी मनीषियों ने कुदरत की दैनिक लय और ऋतु परिवर्तन को वार्षिक चक्र में परिवर्तित कर दिया । धीरे-धीरे निश्चित व शुद्ध रूप में ऋतुओं का आध्यात्मिक व दार्शनिक महत्त्व और कार्यप्रणाली की भौतिक स्थितिके लक्षण और आध्यात्मिक दर्शन की जानकारी विदित हुई । वर्ष के बारह महीनों में सभी ऋतुएँ नियमित बारी-बारी से आ जाती हैं। इन सभी ऋतुओं का अपनी-अपनी जगह महत्त्व है। इन सभी ऋतुओं का वर्णन कविता, साहित्य व ललित कलाओं में कितने प्राचीन काल से हो रहा है।

बारहमासा (पंजाबी में बारहमाहा) मूलतः विरह प्रधान लोकसंगीत है। वह पद्य या गीत जिसमें बारह महीनों की प्राकृतिक विशेषताओं का वर्णन किसी विरही या विरहनी के मुँह से कराया गया हो। मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा रचित पद्मावत तथा बीसल देव रासो में सबसे पहले बारहमासा मिलता है। वर्ष भर के बारह माहों में नायक-नायिका की शृंगारिक विरह एवं मिलन की क्रियाओं के चित्रण को बारहमासा कहा जाता है। श्रावण मास में हरे-भरे वातावरण में नायक-नायिका के काम-भावों को वर्षा के भींगते हुए रूपों में, ग्रीष्म के वैशाख एवं ज्येष्ठ मास की गर्मी में पंखों से नायिका को हवा करते हुए नायक-नायिकाओं के स्वरूप आदि उल्लेखनीय है। जब किसी स्त्री का पति परदेश चला जाता है और वह दुखी मन से अपने सखी को बारह महीने की चर्चा करती हुई कहती है कि पति के बिना हर मौसम व्यर्थ है। इस गीत में वह अपनी दशा को हर महीने की विशेषता के साथ पिरोकर रखती है। ऐतिहासिक दृष्टि से बारहमासा, संस्कृत साहित्य के षडऋतु वर्णन की राह का काव्य है।कालिदास का ऋतुसंहार षडऋतुवर्णन ही है। हिन्दी में मलिक मोहम्मद जायसी कृत पद्मावत में 'नागमती वियोग-वर्णन' बारहमासा का प्रसिद्ध उदाहरण है।

अगहन दिवस घटा निसि बाढ़ी। दूभर रैनि जाइ किमि काढ़ी॥
अब यहि बिरह दिवस भा राती। जरौं बिरह जस दीपक बाती॥
काँपै हिया जनावै सीऊ। तो पै जाइ होइ सँग पीऊ॥
घर-घर चीर रचे सब का। मोर रूप रंग लेइगा ना॥
पलटि न बहुरा गा जो बिछाई। अबँ फिरै फिरै रँग सोई॥
बज्र-अगिनि बिरहिनि हिय जारा। सुलुगि-सुलुगि दगधै होइ छारा॥
यह दु:ख-दगध न जानै कंतू। जोबन जनम करै भसमंतू॥
पिउ सों कहेहु संदेसडा हे भौरा! हे काग!
जो घनि बिरहै जरि मुई तेहिक धुवाँ हम्ह लाग॥

पूस जाड थर-थर तन काँपा। सूरुज जाइ लंकदिसि चाँपा॥
बिरह बाढ दारुन भा सीऊ। कँपि-कँपि मरौं लेइ-हरि जीऊ ॥
कंत कहा लागौ ओहि हियरे। पंथ अपार सूझ नहिं नियरे॥
सौंर सपेती आवै जूडी। जानहु सेज हिवंचल बूडी॥
चकई निसि बिछुरै दिन मिला। हौं दिन रात बिरह कोकिला॥
रैनि अकेलि साथ नहिं सखी। कैसे जियै बिछोही पँखी॥
बिरह सचान भयउ तन जाडा। जियत खाइ और मुए न छाँडा॥
रकत ढुरा माँसू गरा हाड भएउ सब संख।
धनि सारस होइ ररि मुई आई समेटहु पंख॥

लागेउ माघ परै अब पाला। बिरहा काल भएउ जड काला॥
पहल-पहल तन रुई जो झाँपै। हहरि-हहरि अधिकौ हिय काँपै॥
नैन चुवहिं जस माहुटनीरू। तेहि जल अंग लाग सर-चीरू॥
टप-टप बूँद परहिं जस ओला। बिरह पवन होई मारै झोला॥
केहिक सिंगार को पहिरु पटोरा? गीउ न हार रही होई होरा॥
तुम बिनु काँपौ धनि हिया तन तिनउर-भा डोल।
तेहि पर बिरह जराई कै चहै उडावा झोल॥

फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाई नहिं सहा॥
तन जस पियर पात भा मोरा। तेहि पर बिरह देइ झझकोरा॥
परिवर झरहि झरहिं बन ढाँखा। भई ओनंत फूलि फरि साखा॥
करहिं बनसपति हिये हुलासू। मो कह भा जग दून उदासू।
फागु करहिं सब चाँचरि जोरी। मोहि तन लाइ दीन्हि जस होरी॥
जौ पै पीउ जरत अस पावा। जरत मरत मोहिं रोष न आवा॥
राति-दिवस बस यह जिउ मोरे। लगौं निहोर कंत अब तोरे॥
यह तन जारौं छार कै कहौ कि "पवन उडाउ।
मकु तेहि मारग उडि पैरों कंत धरैं जहँ पाँउ॥
*
बारहमासा- तुलसी साहब 

सत सावन बरषा भई, सुरत बही गंगधार।
गगन गली गरजत चली, उतरी भौजल पार॥

भादौं भजन बिचारिया, शब्दहि सुरत मिलाप।
आप अपनपौ लख पड़े, छूटे छल बल पाप॥

कुसल क्वार सतसंग में, रंग रँगो सतनाम।
और काम आवें नहीं, तिरिया सुत धन धाम॥

कातिक करतब जब बने, मन इन्द्री सुख त्याग।
भोग भरम भवरस तजै, छूटै तब लव लाग॥

अगहन अमी रस बस रहौ, अमृत चुवत अपार।
पाँइ परसि गुरु को लखौ, होय परम पद पार॥

पूस ओस जल बुंद ज्यों, बिनसत बदन विचार।
तन बिनसे पावे नहीं, नर तन दुर्लभ छार॥

माह महल पिया को लखो, चखो अमर रस सार।
वार पार पद पेखिया, सत्त सुरत की लार॥

फिर फागुन सुन में तको, शब्दा होत रसाल।
निरख लखौ दुरबीन से, ज्यों मत मीन निहाल॥

चैत चेत जग झूठ है, मत भरमो भव जाल।
काल हाल सिर पर खड़ा, छूटे तन धन माल॥

सुनो साख बैसाख की, भाषि गुरुन गति गाय।
सब संतन मत की कहूँ, बूझें सत मत पाय॥

जबर जेठ जग रीति है, प्रीति परस रस जान।
आन बात बस ना रहौ, सब मति गति पहिचान॥

जो असाढ़ अरजी करौ, धरो संत श्रुति ध्यान।
ज्ञान मान मति छांड़ के, बूझौ अकथ अनाम॥

बारह मास मत भापिया, जानें संत सुजान।
तुलसिदास विधि सब कही, छूटै चारौ खान॥

सत्त यानी सत साहेब (तुलसी साहब) फ़रमाते हैं कि सावन में वर्षा होती है और सुरत की धार गंगा की धार की तरह गरजती हुई गगन की गली की ओर चलती है और भव जल के पार पहुँचती है। भादों का महीना भजन में लगने का जिससे सुरत अपने पिया से मिलती है और अपने रूप को लखती है। सब छल बल और पाप नष्ट हो जाते हैं। अश्विन के महीने में जीव का भला इसी में है कि सतसंग करे और सत्तनाम के रंग में रंग जावे। सत्तनाम के अलावा और कोई जैसे तिरिया, सुत, धन-धाम इत्यादि काम नहीं आएगा। इनमें नहीं फँसना चाहिए। कार्तिक के महीने में इसका काम पूरा होगा, जब यह मन और इंद्रियों के सुखों का परित्याग कर देगा। जब यह दुनिया के भरम और रस को छोड़ेगा तब इसकी संसार की लाग छूटेगी। अगहन में अमृत की अपार धार टपक रही है। उसके आनंद में मगन रहो। गुरु के दर्शन पाकर और चरण स्पर्श कर भवसागर के पार परम पद में पहुँचोगे। पूस मास में इस बात को समझो कि शरीर पानी के ओले की तरह नाश होने वाला है। जब तन नाश हो जाएगा तो अपना उद्देश्य कैसे पाओगे? यह नर शरीर जो अति दुर्लभ है, वृथा बरबाद जाएगा। माघ में पिया के महल को लखो और सच्चा अमर आनंद प्राप्त करो। तब तुम्हें सुरत से वह देश जो भवसागर के पार है, दिखलाई पड़ेगा। फिर फागुन मास में सुन्न में पहुँचकर उसे लखो जहाँ मधुर शब्द हो रहा है। दूरबीन से उसको निरखो और जैसे मछली पानी में मगन होती है उस तरह मगन होओ। चैत के महीने में चेतो और समझो कि यह जगत झूठा है। इसके जाल में मत फँसो और मत भरमो। काल तुम्हारे सिर पर घात करने को खड़ा है और एक दिन तुम्हारा तन और धन माल सब छूट जाएगा। बैसाख में जीवों की साख का हाल सुनो जो संत दया करके फ़रमाते हैं। मैं सब संतों के मत का वर्णन करता हूँ। अगर कोई संत मत को धारण करे तो वह मेरी बात समझ सकता है। जगत का हाल जेठ महीने की तरह तपन देने वाला और दुखदाई है। तुम इस बात को जानो कि शब्द के परस से प्रेम का सुख प्राप्त होता है। अन्य बातों के वशीभूत मत होओ और सत्त मत की गति को पहचानो यानी संत मत को बूझो। असाढ़ महीने में प्रार्थना करो और सुरत से संतों का ध्यान करो। वाचक ज्ञान में अहंकार की मति छोड़कर अकथ और अनाम मालिक को बूझो। मैंने जो कुछ बारहमास का वर्णन किया है उसे संत जानते हैं। तुलसी साहब फ़रमाते हैं कि मैंने सब विधि बयान की है। उसके अनुसार जो चले, उसका चारों खान में भरमना छूट जाएगा।
***
रुकें और दूसरों के बारे में सोचें 

"कौन बनेगा करोड़पति" के एक एपिसोड में, "फास्टेस्ट फिंगर" राउंड में सबसे तेज जवाब देकर नीरज सक्सेना ने हॉट सीट पर जगह बनाई। वह बहुत शांति से बैठे रहे, न चिल्लाए, न नाचे, न रोए, न हाथ उठाए और न ही अमिताभ को गले लगाया। नीरज एक वैज्ञानिक, पी-एच. डी., कोलकाता में एक विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। उनका व्यक्तित्व सरल और सौम्य है। उन्होंने खुद को सौभाग्यशाली माना कि उन्हें डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम के साथ काम करने का अवसर मिला। उन्होंने बताया कि शुरू में वे केवल खुद के बारे में सोचते थे, लेकिन कलाम के प्रभाव में उन्होंने दूसरों और राष्ट्र के बारे में भी सोचना शुरू किया।

नीरज ने खेलते हुए एक बार ऑडियंस पोल का उपयोग किया, लेकिन उनके पास "डबल डिप" लाइफलाइन होने के कारण उसे दोबारा इस्तेमाल करने का मौका मिला। उन्होंने सभी सवालों का आसानी से जवाब दिया।  उनकी बुद्धिमत्ता प्रभावित करने वाली थी। उन्होंने ₹ ३,२०,००० और इसके बराबर बोनस राशि जीती, फिर एक ब्रेक हुआ। ब्रेक के बाद, अमिताभ ने घोषणा की, "आइए आगे बढ़ते हैं, डॉक्टर साहब। यह रहा ग्यारहवाँ सवाल..." तभी नीरज ने कहा, "सर, मैं क्विट करना चाहूँगा।" अमिताभ चौंक गए। इतना अच्छा खेल, तीन लाइफलाइन बची हुईं, एक करोड़ रुपए जीतने का अच्छा मौका , फिर भी नीरज खेल छोड़ रहे थे? अमिताभ ने कारण पूछते हुए कहा- ऐसा पहले कभी नहीं हुआ।  

नीरज ने शांतिपूर्वक उत्तर दिया, "अन्य खिलाड़ी इंतजार कर रहे हैं और वे मुझसे छोटे हैं। उन्हें भी एक मौका मिलना चाहिए। मैंने पहले ही काफी पैसा जीत लिया है। मुझे लगता है 'जो मेरे पास है, वह पर्याप्त है।' मुझे और की चाह नहीं है।" अमिताभ स्तब्ध रह गए, और कुछ समय के लिए सन्नाटा छा गया। फिर सभी खड़े होकर उनके लिए लंबे समय तक तालियाँ बजाते रहे। अमिताभ ने कहा- "आज हमने बहुत कुछ सीखा। ऐसा व्यक्ति दुर्लभ होता है।'' सच कहूँ तो, पहली बार मैंने किसी को ऐसे मौके के सामने देखा है, जो दूसरों को मौका देने और जो उसके पास है उसे पर्याप्त मानने की सोच रखता है। मैंने उन्हें मन ही मन सलाम किया। 

आज के समय में लोग केवल पैसे के पीछे भाग रहे हैं। चाहे जितना भी कमा लें, संतोष नहीं मिलता और लालच कभी खत्म नहीं होता। वे पैसे के पीछे परिवार, नींद, खुशी, प्यार, और दोस्ती खो रहे हैं। ऐसे समय में, डॉ. नीरज सक्सेना जैसे लोग एक याद दिलानेवाले बनकर आते हैं। इस दौर में संतुष्ट और निस्वार्थ लोग मिलना कठिन है। नीरज के खेल छोड़ने के बाद, एक लड़की ने हॉट सीट पर जगह बनाई और अपनी कहानी साझा की: "मेरे पिता ने हमें, मेरी माँ सहित, सिर्फ इसलिए घर से निकाल दिया क्योंकि हम तीन बेटियाँ हैं। अब हम एक अनाथालय में रहते हैं..."

अगर नीरज ने खेल न छोड़ा होता, तो आखिरी दिन होने के कारण किसी और को मौका नहीं मिलता। उनके त्याग के कारण इस गरीब लड़की को कुछ पैसे कमाने का अवसर मिला। आज के समय में लोग अपनी विरासत में से एक पैसा भी छोड़ने को तैयार नहीं होते। हम संपत्ति के लिए झगड़े और यहां तक कि हत्याएं भी देखते हैं। स्वार्थ का बोलबाला है। लेकिन यह उदाहरण एक अपवाद है। भगवान नीरज जैसे लोगों में निवास करते हैं, जो दूसरों और देश के बारे में सोचते हैं। 
***

● मधुकामिनी के पौधे को ६-७ घंटे धूप की आवश्यकता होती है।

● मधुकामिनी को अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में लगाए, पानी बिल्कुल एकत्र न हो। खेत की मिट्टी ५०%+ वर्मीकम्पोस्ट/ गोबर की खाद ३०% + बालू/ कोकोपीट २०%, एक मुट्ठी नीम खली, एक चम्मच बोनमील/राॅक फास्फेट और १-२ चम्मच जाइम (zyme) मिलाएँ।

● मधुकामिनी मार्च-अप्रैल से लेकर अक्टूबर-नवम्बर तक फूलती है। फूल खिलकर सूख जाए तो उसके टिप्स काट दें, इससे नई शाखाएँ और अधिक फूल निकलते हैं।

● फूल खिल चूकने के बाद मार्च-अप्रैल और बरसात में इसकी फुनगियाँ अलग (सेमी-हार्ड प्रूनिंग) कर दें, इससे पौधा सघन बनकर फूल ज्यादा आते हैं। दिसंबर-फरवरी तक डोरमेंसी पीरियड (सुप्तावस्था) में मधुकामिनी की प्रूनिंग न करें, न ही खाद दें।

● मधुकामिनी फूलने के लिए पोटैशियम रिच फर्टिलाइजर (आर्गेनिक फर्टिलाइजर: केले के छिलके, प्याज के छिलके और उपयोग के बाद धोई हुई चायपत्ती को एक लीटर पानी में डालकर ३-४ दिन तक सड़ने (डिकम्पोस्ट होने) के बाद छानकर २ लीटर पानी मिलाकर, हर १५ दिन बाद पौधों में डालें) या केमिकल फर्टिलाइजर( पोटेशियम नाइट्रेट, म्यूरेट ऑफ़ पोटाश या N:P:K ०:५२:३४ की २ ग्राम/ लीटर मात्रा पानी में मिलाकर पौधे की पत्तियों पर छिड़कें। कुछ समय बाद आपके मधुकामिनी में फूल आना शुरू हो जाएंगे।

● साल में दो बार मार्च-अप्रैल और सितंबर-अक्टूबर में सरसों की खली का लिक्विड फर्टिलाइजर (१०० ग्राम सरसों की खली १ लीटर पानी में अच्छे से मिलाकर ४-५ दिन सड़ने दें, तैयार घोल को १० लीटर पानी में मिलाकर पौधे की मिट्टी में डालें। ८-१० दिनों में आपके पौधे में कोंपलें और कलियाँ आने लगेंगी।
***
मुक्तक 
हो जिनका कुल श्रेष्ठ, बाँधते संबंधों के बंध
हिलमिल रहते साथ, निभाते नातों के अनुबंध 
सत्य सनातन प्रीति पुरातन, सदा साध्य हो उनको-
राज करें राजेन्द्र सदृश,  तोड़ें कुरीति-तटबंध 
५.११.२०२४ 
***
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी, अम्ब विमल मति दे......
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे।
वह बल विक्रम दे ।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे ।।१।।
साहस शील हृदय में भर दे,
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे।
स्वाभिमान भर दे ।।२।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
लव, कुश, ध्रुव, प्रहलाद बनें हम
मानवता का त्रास हरें हम,
सीता, सावित्री, दुर्गा माँ,
फिर घर-घर भर दे।
फिर घर-घर भर दे ।।३।।
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
अम्ब विमल मति दे।
अम्ब विमल मति दे ।।
आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
***
लघुकथा
मुस्कुराहट
*
साहित्यकारों की गोष्ठी में अखबारों तथा अंतर्जाल पर नकारात्मक समाचारों के बाहुल्य पर चिंता व्यक्त की गई। हर अखबार और चैनल की वैचारिक प्रतिबद्धता को स्वतंत्र चेतना हेतु घातक बताते हुए सभी विचारधाराओं और असहमत जनों के प्रति सहिष्णुता पर बल दिया गया।
नेताओं पर अपने विचारों के पिंजरे में कैद रहने की प्रवृत्ति की कटु आलोचना करते हुए, विविध विचारों के समन्वय पर बल दिया गया।
एक साहित्यकार ने पटल पर कुछ अन्य साहित्यकारों द्वारा भिन्न विधा संबंधी शंका-समाधान पर प्रश्न उठाते हुए निंदा प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया। प्रश्नकर्ता कहता ही रह गया कि एक विधा मुख्य होते हुए भी भिन्न विधाओं की चर्चा करना, जानकारी लेना-देना अपराध नहीं है। सब विधाएँ एक-दूसरे की पूरक हैं किंतु आपत्तिकर्ता शांत होने के स्थान पर अधिकाधिक उग्र होते गए। विवश संयोजक ने शांति स्थापित करने हेतु एक को छोड़कर अन्य विधाओं को प्रतिबंधित कर दिया।
कोने में रखी, मकड़जाल में कैद सरस्वती प्रतिमा के अधरों पर विचार और आचार के विरोधाभास को देख, झलक रही थी व्यंग्यपरक मुस्कुराहट।
५-११-२०१९
***
भूगोलीय मुक्तक
*
धरती गोल-गोल हैं, बातें धत्तेरे की।
वादे-पर्वत पोले, घातें धत्तेरे की।।
लोकहितों की नदिया, करे सियासत गंदी
अमावसी पूनम की रातें धत्तेरे की।।
*
आसमान में ग्रह-उपग्रह करते हैं दंगा।
बने नवग्रह-पति जो नाचे होकर नंगा।।
दावानल-बड़वानल पक्ष-विपक्ष बने हैं-
भाटा-ज्वार समुद-संसद में लेते पंगा।।
*
पत्रकारिता भूकंपी सनसनी बन गई।
ज्वालामुखी सियासत जनता झुलस-भुन गई।।
धूमकेतु बोफोर्स-रफाल न पिंड छूटता-
धर्म-ध्वजा झुक काम-लोभ के पंक सन गई।।
*
महासागरी तूफानों सा जनाक्रोश है।
आइसबर्गों सम पिघलेगा किसे होश है?
दिग-दिगंत काँपेंगे, जब प्रकृति रौंदेगी-
तिनके सम मिट जाएगा जो उठा जोश है।।
*
सूर्य-चंद्र नैतिक मूल्यों पर लगा ग्रहण है।
आय और आवश्यकता में भीषण रण है।।
सच अभिमन्यु शहीद, स्वार्थ-संशप्तक विजयी-
तंत्र-प्रशासन दांव सम्मुख मानव तृण है।।
५.११.२०१८
***
एक रचना:
जमींदार
*
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
इन्हें किया था नामजद
किसी शाह ने रीझ.
बख्शी थी जागीर कह
'कर मनमानी खूब.
पाल-पोस चेले बढ़ा
कह औरों को दूब.
बदल समय के साथ मत
खुद पर खुद ही खीझ.
लँगड़ा करता है सफर
खुद की बाजू थाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
.
बँधवाया, अब बाँधना
तू गंडा-ताबीज़.
शब्द न समझें लोग जो
लिखना खोज अजूब.
गलत और का सही भी
कहना मद में डूब.
निज पीड़ा संवेदना
दर्द अन्य का चीज.
दाम-नाम के लिये कर
शब्दों का व्यायाम.
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
*
पंक्ति एक की तीन कर
तुक को मान कनीज़
तोड़ छंद को, सुनाते
निज प्रशस्ति बिन ऊब.
खामी को खूबी कहें
मठाधीश मंसूब।
पेट पूज कोई करे
जैसे पूजन तीज.
श्रेष्ठ बताते आप को
आप, अन्य बेनाम
जमींदार नवगीत के
ठोंको इन्हें सलाम
***
मुक्तिका:
*
ज़िंदगी जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
होंठ हँस सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
क्या कहे? कैसे कहें? किससे कहें? बहरा समय
अश्रु चुप पीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
तुहिन, ओले, आग, बरखा, ठंड, गर्मी या तुषार
झेलते रीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
मिल तो अंगूर मीठे, ना मिले खट्टे हुए
फेंकते तीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
सत्य से साक्षात् कर ये ज़िंदगी दूभर हुई
राम तज सीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
.
नहीं अबला, ना बला, सबला लगाते पार हम
पल नहीं बीते रहे हम पुस्तकों के बीच में?
.
माँगकर जिनको लिया, लौटा रहे नाहक ईनाम
जीत को जीते रहे हम पुस्तकों के बीच में
५-११-२०१५
***
द्विपदियाँ :
मैं नर्मदा तुम्हारी मैया, चाहूँ साफ़ सफाई
माँ का आँचल करते गंदा, तुम्हें लाज ना आई?
भरो बाल्टी में जल- जाकर, दूर नहाओ खूब
देख मलिन जल और किनारे, जाओ शर्म से डूब
कपड़े, पशु, वाहन नहलाना, बंद करो तत्काल
मूर्ति सिराना बंद करो, तब ही होगे खुशहाल
पौध लगाकर पेड़ बनाओ, वंश वृद्धि तब होगी
पॉलीथीन बहाया तो, संतानें होंगी रोगी
दीपदान तर्पण पूजन, जलधारा में मत करना
मन में सुमिरन कर, मेरा आशीष सदा तुम वरना
जो नाले मुझमें मिलते हैं, उनको साफ़ कराओ
कीर्ति-सफलता पाकर, तुम मेरे सपूत कहलाओ
जो संतानें दीन उन्हें जब, लँहगा-चुनरी दोगे
ग्रहण करूँगी मैं, तुमको आशीष अपरिमित दूँगी
वृद्ध अपंग भिक्षुकों को जब, भोजन करवाओगे
तृप्ति मिलेगी मुझको, सेवा सुत से तुम पाओगे
पढ़ाई-इलाज कराओ किसी का, या करवाओ शादी
निश्चय संकट टल जाये, रुक जाएगी बर्बादी
पथवारी मैया खुश हो यदि रखो रास्ते साफ़
भारत माता, धरती माता, पाप करेंगी माफ़
हिंदी माता की सेवा से, पुण्य यज्ञ का मिलता
मात-पिता की सेवा कर सुत, भाव सागर से तरता
***
मुक्तिका:
अवगुन चित न धरो
*
सुन भक्तों की प्रार्थना, प्रभुजी हैं लाचार
भक्तों के बस में रहें, करें गैर-उद्धार
कोई न चुने चुनाव में, करें नहीं तकरार
संसद टीवी से हुए, बाहर बहसें हार
मना जन्म उत्सव रहे, भक्त चढ़ा-खा भोग
टुकुर-टुकुर ताकें प्रभो,हो बेबस-लाचार
सब मतलब से पूजते, सब चाहें वरदान
कोई न कन्यादान ले, दुनिया है मक्कार
ब्याह गयी पर माँगती, है फिर-फिर वर दान
प्रभु की मति चकरा रही, बोले:' है धिक्कार'
वर माँगे वर-दान- दें कैसे? हरि हैरान
भला बनाया था हुआ, है विचित्र संसार
अवगुन चित धरकर कहे, 'अवगुन चित न धरो
प्रभु के विस्मय का रहा, कोई न पारावार
***
नवगीत:
धैर्य की पूँजी
न कम हो
मनोबल
घटने न देना
जंग जीवट- जिजीविषा की
मौत के आतंक से है
आस्था की कली कोमल
भेंटती शक-डंक से है
नाव निज
आरोग्य की
तूफ़ान में
डिगने न देना
मूल है किंजल्क का
वह पंक जिससे भागते हम
कमल-कमला को हमेशा
मग्न हो अनुरागते हम
देह ही है
गेह मन का
देह को
मिटने न देना
चिकित्सा सेवा अधिक
व्यवसाय कम है ध्यान रखना
मौत के पंजे से जीवन
बचाये बिन नहीं रुकना
लोभ को,
संदेह को
मन में तनिक
टिकने न देना
___
***
मुक्तिका:
हाथ मिले
माथ उठे
मन अनाम
देह बिके
कौन कहाँ
पत्र लिखे?
कदम बढ़े
बाल दिये
वसन न्यून
आँख सिके
द्रुपद सुता
सती रहे
सत्य कहे
आप दहे
_____
***
बाल कविता
हम बच्चे हैं मन के सच्चे सबने हमें दुलारा है
देश और परिवार हमें भी सचमुच लगता प्यारा है
अ आ इ ई, क ख ग संग ए बी सी हम सीखेंगे
भरा संस्कृत में पुरखों ने ज्ञान हमें उपकारा है
वीणापाणी की उपासना श्री गणेश का ध्यान करें
भारत माँ की करें आरती, यह सौभाग्य हमारा है
साफ-सफाई, पौधरोपण करें, घटायें शोर-धुआं
सच्चाई के पथ पग रख बढ़ना हमने स्वीकारा है
सद्गुण शिक्षा कला समझदारी का सतत विकास करें
गढ़ना है भविष्य मिल-जुलकर यही हमारा नारा है
५-११-२०१४
***
एक दोहा
लोकतंत्र में लोभ तंत्र की, मची हुई है धूम
कोकतंत्र से शोकतंत्र तक, बम बम बम बम बूम
५.११.२०१३
***
नवगीत:
महका-महका :
*
महका-महका
मन-मंदिर रख सुगढ़-सलौना
चहका-चहका
*
आशाओं के मेघ न बरसे
कोशिश तरसे
फटी बिमाई, मैली धोती
निकली घर से
बासन माँजे, कपड़े धोए
काँख-काँखकर
समझ न आए पर-सुख से
हरसे या तरसे
दहका-दहका
बुझा हौसलों का अंगारा
लहका-लहका
*
एक महल, सौ यहाँ झोपड़ी
कौन बनाए
ऊँच-नीच यह, कहो खोपड़ी
कौन बताए
मेहनत भूखी, चमड़ी सूखी
आँखें चमकें
कहाँ जाएगी मंजिल
सपने हों न पराए
बहका-बहका
सम्हल गया पग, बढ़ा राह पर
ठिठका-ठहका
*
लख मयंक की छटा अनूठी
तारे हरषे.
नेह नर्मदा नहा चन्द्रिका
चाँदी परसे.
नर-नरेंद्र अंतर से अंतर
बिसर हँस रहे.
हास-रास मधुमास न जाए-
घर से, दर से.
दहका-दहका
सूर्य सिंदूरी, उषा-साँझ संग
धधका-दहका...
५.११.२०१० 
***

मंगलवार, 14 अक्टूबर 2025

अक्टूबर १४, गेंदा, स्मरण अलंकार, सॉनेट, मी टू, सरस्वती, प्रभाती, राजीव छंद, भवानी छंद, बधाई,

सलिल सृजन अक्टूबर १४
*
मुक्तिका
है अभियान मनाएँ  दिवाली
रचना-व्यंजन सज्जित थाली
.
लछमी-ताले की शारद माँ
दें दो हम कवियों को ताली
.
मोदी इक्का लिए ट्रंप का
करें ट्रंप की झोली खाली
.
रसानंद का हाला-प्याला
सबको दे उनकी घरवाली
.
डॉलर सस्ता, रुपया मँहगा
हो तो मारें हम सब ताली
.
सोना बरसे जन-गण हरषे
दुनिया भर में हो खुशहाली
जीव सभी संजीव हो सकें
मँहगाई हर लो माँ काली!
०००
ग़ज़ल 
दर्द को मेरा पता यार बताने आए 
मार पत्थर वो दिली प्यार जताने आए 
आँख में धूल न झोंकें तो उन्हें चैन नहीं 
फूल चुन राह में वो शूल बिछाने आए
बाल ज्यों ही दिया तम चीरने दिया कोई 
हाए! तूफान लिए झट से बुझाने आए 
तीर तूने जो चलाया निगाह तरकश से 
सामने खुद-ब-खुद दिल के निशाने आए 
हुस्न को इश्क की सौगात मिली जैसे ही 
आप ही आप लिए आप बहाने आए 
१४.१०.२०२५ 
०००
गेंदा
गेंदा उत्तम पुष्प है, रंगाकार अनेक।
हार, करधनी, पैंजनी, पहनें सहित विवेक।।
गेंद सदृश गेंदा कुसुम, गोल न लेकिन पोल।
सज्जा-औषधि-सुलभता, गुणी न पीटे ढोल।।
गमले बगिया खेत में, ऊगे मोहक फूल।
उत्पादकता अधिकतम, किंतु न चुभता शूल।।
अतिशय नाजुक यह नहीं, और न बहुत कठोर।
खिलता मिलता हमेशा, सुबह दोपहर भोर।।
गलगोटा गुजरात में, झेंडु मराठी नाम।
हंजारी गजरा कहे, मारवाड़ अभिराम।।
चेंदुमली कहते इसे, टेगेटस भी लोग।
मेरिगोल्ड भी पुकारें, दूर भगाए रोग।।
परछी आँगन छतों पर, खिलकर दे आनंद।
बालकनी टेरेस में, झूम सुनाए छंद।।
फूल सुखा बीजे बना, नम माटी में डाल।
पर्त एक इंची चढ़ा, सींचें रह खुशहाल।।
गीली मिट्टी में कलम, मोटी करे विकास।
पानी जड़ में सींचिए, नित्य मिटे तब प्यास।।
गेंदा है नेपाल का, सांस्कृतिक शुभ फूल।
सदा बहार सुमन खिले, हर मौसम बिन भूल।।
पीला नारंगी बड़ा, होता मेरीगोल्ड।
है अफ्रीकी पुष्प यह, नव पीढ़ी सम बोल्ड।।
मिश्रित रंगी बहुदली, अरु मध्यम आकार।
गेंदी मेरीगोल्ड है, फ्रेंच लुटाए प्यार।।
सिग्नेट मेरीगोल्ड के, छोटे नाजुक फूल।
एकल पीली पंखुरी, करे शोक निर्मूल।।
मिंटी मेरीगोल्ड की, छोटी पत्ती-फूल।
दवा-मसाला लोकप्रिय, व्यर्थ न फेंकें भूल।।
नींबू जैसा गंधमय, लैमन मेरी गोल्ड।
पीत पुष्प औषधि सहज, दवा न होती ओल्ड।।
•••
बधाई गीत
समधन-समधी जन्मदिवस पर शत शत बार बधाई।
कोयल झूला गीत सुनाए, लोरी शुक ने गाई।।
नज़र उतारे फूल मोगरा, रानू लिए मिठाई।
शानू लाई गुलगुले, टीना लिए हरीरा आई।।
नाच रहे अनुराग विपिन मन्वन्तर धूम मचाई।
गले मिलें संजीव-साधना, बाज रही शहनाई।।
केक कटा गीतेश झूमकर, कहे सदय हो माई।
घोड़ी चढ़ा मुझे तू झट से, कर भी दे कुड़माई।।
नव प्रभात पुष्पा गृह बगिया, स्नेह सुरभि बिखराई।
समधन-समधी जन्म दिवस पर शत-शत बार बधाई।।
१४.१०.२०२३
•••
सॉनेट
नयन
नयन अबोले सत्य बोलते
नयन असत्य देख मुँद जाते
नयन मीत पा प्रीत घोलते
नयन निकट प्रिय पा खुल जाते
नयन नयन में रच-बस जाते
नयन नयन में आग लगाते
नयन नयन में धँस-फँस जाते
नयन नयन को नहीं सुहाते
नयन नयन-छवि हृदय बसाते
नयन फेरकर नयन भुलाते
नयन नयन से नयन चुराते
नयन नयन को नयन दिखाते
नयन नयन को जगत दिखाते
नयन नयन सँग रास रचाते
१४-१०-२०२२
●●●
शे'र
ऐ परिंदे! चुग न दाना, भूख से मरना भला।
अगर दाना रोकता हो गगन में तेरी उड़ान।।
*
*सरस्वती वंदना*
*मुक्तिका*
*
विधि-शक्ति हे!
तव भक्ति दे।
लय-छंद प्रति-
अनुरक्ति दे।।
लय-दोष से
माँ! मुक्ति दे।।
बाधा मिटे
वह युक्ति दे।।
जो हो अचल
वह भक्ति दे।
*
*मुक्तक*
*
शारदे माँ!
तार दे माँ।।
छंद को नव
धार दे माँ।।
*
हे भारती! शत वंदना।
हम मिल करें नित अर्चना।।
स्वीकार लो माँ प्रार्थना-
कर सफल छांदस साधना।।
*
माता सरस्वती हो सदय।
संतान को कर दो अभय।।
हम शब्द की कर साधना-
हों अंत में तुझमें विलय।।
*
शत-शत नमन माँ शारदे!, संतान को रस-धार दे।
बन नर्मदा शुचि स्नेह की, वात्सल्य अपरंपार दे।।
आशीष दे, हम गरल का कर पान अमृत दे सकें-
हो विश्वभाषा भारती, माँ! मात्र यह उपहार दे।।
*
हे शारदे माँ! बुद्धि दे जो सत्य-शिव को वर सके।
तम पर विजय पा, वर उजाला सृष्टि सुंदर कर सके।।
सत्पथ वरें सत्कर्म कर आनंद चित् में पा सकें-
रस भाव लय भर अक्षरों में, छंद- सुमधुर गा सकें।।
***
प्रभाती
*
टेरे गौरैया जग जा रे!
मूँद न नैना, जाग शारदा
भुवन भास्कर लेत बलैंया
झट से मोरी कैंया आ रे!
ऊषा गुइयाँ रूठ न जाए
मैना गाकर तोय मनाए
ओढ़ रजैया मत सो जा रे!
टिट-टिट करे गिलहरी प्यारी
धौरी बछिया गैया न्यारी
भूखा चारा तो दे आ रे!
पायल बाजे बेद-रिचा सी
चूड़ी खनके बने छंद भी
मूँ धो सपर भजन तो गा रे!
बिटिया रानी! बन जा अम्मा
उठ गुड़िया का ले ले चुम्मा
रुला न आते लपक उठा रे!
अच्छर गिनती सखा-सहेली
महक मोगरा चहक चमेली
श्यामल काजल नजर उतारे
सुर-सरगम सँग खेल-खेल ले
कठिनाई कह सरल झेल ले
बाल भारती पढ़ बढ़ जा रे!
१४-१०-२०१९
***
हिंदी में नए छंद : २.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय राजीव छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सदन में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
छंद रचना सीखने के इच्छुक रचनाकार इन्हें रचते चलें तो सहज ही कठिन छंदों को रचने की सामर्थ्य पा सकेंगे।
राजीव छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदांत: तगण।
सूत्र: त, तगण, ताराज, २२१।
उदाहरण:
गीत-
दो बोल
दो बोल.
जो गाँठ
दो खोल.
.
हो भोर
या शाम.
लो प्यार
से थाम .
हो बात
तो तोल
दो बोल
दो बोल
.
हो हाथ
में हाथ.
नीचा न
हो माथ.
आ स्नेह
लें घोल
दो बोल
दो बोल
.
शंकालु
होना न.
विश्वास
खोना न.
बाकी न
हो झोल.
दो बोल
दो बोल
***
हिंदी में नए छंद : १.
पाँच मात्रिक याज्ञिक जातीय भवानी छंद
*
प्रात: स्मरणीय जगन्नाथ प्रसाद भानु रचित छंद प्रभाकर के पश्चात हिंदी में नए छंदों का आविष्कार लगभग नहीं हुआ। पश्चातवर्ती रचनाकार भानु जी के ग्रन्थ को भी आद्योपांत कम ही कवि पढ़-समझ सके। २-३ प्रयास भानु रचित उदाहरणों को अपने उदाहरणों से बदलने तक सीमित रह गए। कुछ कवियों ने पूर्व प्रचलित छंदों के चरणों में यत्किंचित परिवर्तन कर कालजयी होने की तुष्टि कर ली। संभवत: पहली बार हिंदी पिंगल की आधार शिला गणों को पदांत में रखकर छंद निर्माण का प्रयास किया गया है। माँ सरस्वती की कृपा से अब तक ३ मात्रा से दस मात्रा तक में २०० से अधिक नए छंद अस्तित्व में आ चुके हैं। इन्हें सारस्वत सभा में प्रस्तुत किया जा रहा है। आप भी इन छंदों के आधार पर रचना करें तो स्वागत है। शीघ्र ही हिंदी छंद कोष प्रकाशित करने का प्रयास है जिसमें सभी पूर्व प्रचलित छंद और नए छंद एक साथ रचनाविधान सहित उपलब्ध होंगे।
भवानी छंद
*
विधान:
प्रति पद ५ मात्राएँ।
पदादि या पदांत: यगण।
सूत्र: य, यगण, यमाता, १२२।
उदाहरण:
सुनो माँ!
गुहारा।
निहारा,
पुकारा।
*
न देखा
न लेखा
कहीं है
न रेखा
कहाँ हो
तुम्हीं ने
किया है
इशारा
*
न पाया
न खोया
न फेंका
सँजोया
तुम्हीं ने
दिया है
हमेशा
सहारा
*
न भोगा
न भागा
न जोड़ा
न त्यागा
तुम्हीं से
मिला है
सदा ही
किनारा
***
नवगीत
मी टू
*
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
दीप-ज्योति गुमसुम हुई
कोयल रही न कूक.
*
मैं माटी
रौंदा मुझे क्यों कुम्हार ने बोल?
देख तमाशा कुम्हारिन; चुप
थी क्यों; क्या झोल?
सीकर जो टपका; दिया
किसने इसका मोल
तेल-ज्योत
जल-बुझ गए
भोर हुए बिन चूक
कूकुर दौड़ें गली में
काट रहे बिन भूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं जनता
ठगता मुझे क्यों हर नेता खोज?
मिटा जीविका; भीख दे
सेठों सँग खा भोज.
आरक्षण लड़वा रहा
जन को; जन से रोज
कोयल
क्रन्दन कर रही
काग रहे हैं कूक
रूपए की दम निकलती
डॉलर तरफ न झूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
*
मैं आईना
दिख रही है तुझको क्या गंद?
लील न ले तुझको सम्हल
कर न किरण को बंद.
'बहु' को पग-तल कुचलते
अवसरवादी 'चंद'
सीता का सत लूटती
राघव की बंदूक
लछमन-सूपनखा रहे
एक साथ मिल हूँक
'मी टू'
खोलूँ पोल अब
किसने मारी फूँक?
***
कविता दीप
*
पहला कविता-दीप है छाया तेरे नाम
हर काया के साथ तू पाकर माया नाम
पाकर माया नाम न कोई विलग रह सका
गैर न तुझको कोई किंचित कभी कह सका
दूर न कर पाया कोई भी तुझको बहला
जन्म-जन्म का बंधन यही जीव का पहला
दीप-छाया
*
छाया ले आयी दिया, शुक्ला हुआ प्रकाश
पूँछ दबा भागा तिमिर, जगह न दे आकाश
जगह न दे आकाश, धरा के हाथ जोड़ता
'मैया! जो देखे मुखड़ा क्यों कहो मोड़ता?
कहाँ बसूँ? क्या तूने भी तज दी है माया?'
मैया बोली 'दीप तले बस ले निज छाया
१४-१०-२०१७
***
दोहा
पहले खुद को परख लूँ, तब देखूँ अन्यत्र
अपना खत खोला नहीं, पा औरों का पत्र
*
मिले प्रेरणा-कल्पना, तब बन पाए बात।
शेष सभी तुकबन्दियाँ, कवि-कौशल की मात।।
*
दो कवि कुंडलिया एक
मास दिवस ऐसे कटे, ज्यों पंछी पर-हीन ।
मैं तड़पत ऐसे रही, जैसे जल बिन मीन।। -मिथलेश
जैसे जल बिन मीन, पटकती सर पत्थर पर
भारत शांति प्रयास, करे पाकी धरती पर।।
एक बार लें निबट, सब जन मिल करें प्रयास
जनगण चाहे 'सलिल', अरिदल को हो संत्रास।।- संजीव
१४-१०-२०१६
***
अलंकार सलिला
: २१ : स्मरण अलंकार
एक वस्तु को देख जब दूजी आये याद
अलंकार 'स्मरण' दे, इसमें उसका स्वाद
करें किसी की याद जब, देख किसी को आप.
अलंकार स्मरण 'सलिल', रहे काव्य में व्याप..
*
कवि को किसी वस्तु या व्यक्ति को देखने पर दूसरी वस्तु या व्यक्ति याद आये तो वहाँ स्मरण अलंकार होता है.
जब पहले देखे-सुने किसी व्यक्ति या वस्तु के समान किसी अन्य व्यक्ति या वस्तु को देखने पर उसकी याद हो आये तो स्मरण अलंकार होता है.
स्मरण अलंकार समानता या सादृश्य से उत्पन्न स्मृति या याद होने पर ही होता है. किसी से संबंधित अन्य व्यक्ति या वस्तु की याद आना स्मरण अलंकार नहीं है.
'स्मृति' नाम का एक संचारी भाव भी होता है. वह सादृश्य-जनित स्मृति (समानता से उत्पन्न याद) होने पर भी होता है और और सम्बद्ध वस्तुजनित स्मृति में भी. स्मृति भाव और स्मरण अलंकार दोनों एक साथ हो भी सकते हैं और नहीं भी.
स्मरण अलंकार से कविता अपनत्व, मर्मस्पर्शिता तथा भावनात्मक संवगों से युक्त हो जाती है.
उदाहरण:
१. प्राची दिसि ससि उगेउ सुहावा
सिय-मुख सुरति देखि व्है आवा
यहाँ पश्चिम दिशा में उदित हो रहे सुहावने चंद्र को सीता के सुहावने मुख के समान देखकर राम को सीता याद आ रही है. अत:, स्मरण अलंकार है.
२. बीच बास कर जमुनहि आये
निरखि नीर लोचन जल छाये
यहाँ राम के समान श्याम वर्ण युक्त यमुना के जल को देखकर भरत को राम की याद आ रही है. यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
३. सघन कुञ्ज छाया सुखद, शीतल मंद समीर
मन व्है जात वहै वा जमुना के तीर
कवि को घनी लताओं, सुख देने वाली छाँव तथा धीमी बाह रही ठंडी हवा से यमुना के तट की याद आ रही है. अत; यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
४. देखता हूँ
जब पतला इंद्रधनुषी हलका
रेशमी घूँघट बादल का
खोलती है कुमुद कला
तुम्हारे मुख का ही तो ध्यान
तब करता अंतर्ध्यान।
यहाँ स्मरण अलंकार और स्मृति भाव दोनों है.
५. ज्यों-ज्यों इत देखियत मूरुख विमुख लोग
त्यौं-त्यौं ब्रजवासी सुखरासी मन भावै है
सारे जल छीलर दुखारे अंध कूप देखि
कालिंदी के कूल काज मन ललचावै है
जैसी अब बीतत सो कहतै ना बने बैन
नागर ना चैन परै प्रान अकुलावै है
थूहर पलास देखि देखि के बबूर बुरे
हाथ हरे हरे तमाल सुधि आवै है
६. श्याम मेघ सँग पीत रश्मियाँ देख तुम्हारी
याद आ रही मुझको बरबस कृष्ण मुरारी.
पीताम्बर ओढे हो जैसे श्याम मनोहर.
दिव्य छटा अनुपम छवि बाँकी प्यारी-प्यारी.
७ . जो होता है उदित नभ में कौमुदीनाथ आके
प्यारा-प्यारा विकच मुखड़ा श्याम का याद आता
८. छू देता है मृदु पवन जो, पास आ गात मेरा
तो हो आती परम सुधि है, श्याम-प्यारे-करों की
९. सजी सबकी कलाई
पर मेरा ही हाथ सूना है.
बहिन तू दूर है मुझसे
हुआ यह दर्द दूना है.
१०. धेनु वत्स को जब दुलारती
माँ! मम आँख तरल हो जाती.
जब-जब ठोकर लगती मग पर
तब-तब याद पिता की आती.
११. जब जब बहार आयी और फूल मुस्कुराये
मुझे तुम याद आये.
स्मरण अलंकार का एक रूप ऐसा मिलता है जिसमें उपमेय के सदृश्य उपमान को देखकर उपमेय का प्रत्यक्ष दर्शन करने की लालसा तृप्त हो जाती है.
१२. नैन अनुहारि नील नीरज निहारै बैठे बैन अनुहारि बानी बीन की सुन्यौ करैं
चरण करण रदच्छन की लाली देखि ताके देखिवे का फॉल जपा के लुन्यौं करैं
रघुनाथ चाल हेत गेह बीच पालि राखे सुथरे मराल आगे मुकता चुन्यो करैं
बाल तेरे गात की गाराई सौरि ऐसी हाल प्यारे नंदलाल माल चंपै की बुन्या करैं
===
एक लोकरंगी प्रयास-
देवी को अर्पण.
*
मैया पधारी दुआरे
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
घर-घर बिराजी मतारी हैं मैंया!
माँ, भू, गौ, भाषा हमारी है मैया!
अब लौं न पैयाँ पखारे रे हमने
काहे रहा मन भुलाना
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
आसा है, श्वासा भतारी है मैया!
अँगना-रसोई, किवारी है मैया!
बिरथा पड़ोसन खों ताकत रहत ते,
भटका हुआ लौट आवा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
राखी है, बहिना दुलारी रे मैया!
ममता बिखरे गुहारी रे भैया!
कूटे ला-ला भटकटाई -
सवनवा बहुतै सुहावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
बहुतै लड़ैती पिआरी रे मैया!
बिटिया हो दुनिया उजारी रे मैया!
'बज्जी चलो' बैठ काँधे कहत रे!
चिज्जी ले ठेंगा दिखावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
*
तोहरे लिये भए भिखारी रे मैया!
सूनी थी बखरी, उजारी रे मैया!
तार दये दो-दो कुल तैंने
घर भर खों सुरग बनावा
रे भैया! झूम-झूम गावा
१४-१०-२०१५
***
गीत
नील नभ नित धरा पर बिखेरे सतत, पूर्णिमा रात में शुभ धवल चाँदनी.
अनगिनत रश्मियाँ बन कलम रच रहीं, देख इंगित नचे काव्य की कामिनी..
चुप निशानाथ राकेश तारापति, धड़कनों की तरह रश्मियों में बसा.
भाव, रस, बिम्ब, लय, कथ्य पंचामृतों का किरण-पुंज ले कवि हृदय है हँसा..
नव चमक, नव दमक देख दुनिया कहे, नीरजा-छवि अनूठी दिखा आरसी.
बिम्ब बिम्बित सलिल-धार में हँस रहा, दीप्ति -रेखा अचल शुभ महीपाल की..
श्री, कमल, शुक्ल सँग अंजुरी में सुमन, शार्दूला विजय मानोशी ने लिये.
घूँट संतोष के पी खलिश मौन हैं, साथ सज्जन के लाये हैं आतिश दिये..
शब्द आराधना पंथ पर भुज भरे, कंठ मिलते रहे हैं अलंकार नत.
गूँजती है सृजन की अनूपा ध्वनि, सुन प्रतापी का होता है जयकार शत..
अक्षरा दीप की मालिका शाश्वती, शक्ति श्री शारदा की त्रिवेणी बने.
साथ तम के समर घोर कर भोर में, उत्सवी शामियाना उषा का तने..
चहचहा-गुनगुना नर्मदा नेह की, नाद कलकल करे तीर हों फिर हरे.
खोटे सिक्के हटें काव्य बाज़ार से, दस दिशा में चलें छंद-सिक्के खरे..
वर्मदा शर्मदा कर्मदा धर्मदा, काव्य कह लेखनी धन्यता पा सके.
श्याम घन में झलक देख घनश्याम की, रासलीला-कथा साधिका गा सके..
१८-१०-२०११
***
खबरदार कविता:
सत्ता का संकट
(एक अकल्पित राजनीतिक ड्रामा)
*
एक यथार्थ की बात
बंधुओं! तुम्हें सुनाता हूँ.
भूल-चूक के लिए न दोषी,
प्रथम बताता हूँ..
नेताओं की समझ में
आ गई है यह बात
करना है कैसे
सत्ता सुंदरी से साक्षात्?
बड़ी आसान है यह बात-
सेवा का भ्रम को छोड़ दो
स्वार्थ से नाता जोड़ लो
रिश्वत लेने में होड़ लो.
एक बार हो सत्ता-से भेंट
येन-केन-प्रकारेण बाँहों में लो समेट.
चीन्ह-चीन्हकर भीख में बाँटो विज्ञापन.
अख़बारों में छपाओ: 'आ गया सुशासन..
लक्ष्मी को छोड़ कर
व्यर्थ हैं सारे पुरुषार्थ.
सत्ताहीनों को ही
शोभा देता है परमार्थ.
धर्म और मोक्ष का
विरोधी करते रहें जाप.
अर्थ और काम से
मतलब रखें आप.
विरोधियों की हालत खस्ता हो जाए.
आपकी खरीद-फरोख्त उनमें फूट बो जाए.
मुख्यमंत्री और मंत्री हों न अब बोर.
सचिवों / विभागाध्यक्षों की किस्मत मारे जोर.
बैंक-खाते, शानदार बंगले, करोड़ों के शेयर.
जमीनें, गड्डियाँ और जेवर.
सेक्स और वहशत की कोई कमी नहीं.
लोकायुक्त की दहशत जमी नहीं.
मुख्यमंत्री ने सोचा
अगले चुनाव में क्या होगा?
छीन तो न जाएगा
सत्ता-सुख जो अब तक भोगा.
विभागाध्यक्ष का सेवा-विस्तार,
कलेक्टरों बिन कौन चलाये सत्ता -संसार?
सत्ता यों ही समाप्त कैसे हो जाएगी?
खरीदो-बेचो की नीति व्यर्थ नहीं जाएगी.
विपक्ष में बैठे दानव और असुर.
पहुँचे केंद्र में शक्तिमान और शक्ति के घर.
कुटिल दूतों को बनाया गया राज्यपाल.
मचाकर बवाल, देते रहें हाल-चाल.
प्रभु मनमोहन हैं अन्तर्यामी
चमकदार समारोह से छिपाई खामी.
कौड़ी का सामान करोड़ों के दाम.
खिलाड़ी की मेहनत, नेता का नाम.
'मन' से 'लाल' के मिलन की 'सुषमा'.
नकली मुस्कान... सूझे न उपमा.
दोनों एक-दूजे पर सदय-
यहाँ हमारी, वहाँ तुम्हारी जय-जय.
विधायकों की मनमानी बोली.
खाली न रहे किसी की झोली.
विधानसभा में दोबारा मतदान.
काटो सत्ता का खेत, भरो खलिहान.
मनाते मनौती मौन येदुरप्पा.
अचल रहे सत्ता, गाऊँ ला-रा-लप्पा.
भारत की सारी ज़मीन...
नेता रहे जनता से छीन.
जल रहा रोम, नीरो बजाता बीन.
कौन पूछे?, कौन बताये? हालत संगीन.
सनातन संस्कृति को, बनाकर बाज़ार.
कर रहे हैं रातें रंगीन.
१४-१०-२०१०
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नवगीत
बाँटें-खायें...
*
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
करो-मरो का
चला गया युग.
समय आज
सहकार का.
महजनी के
बीत गये दिन.
आज राज
बटमार का.
इज्जत से
जीना है यदि तो,
सज्जन घर-घुस
शीश बचायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
*
आपा-धापी,
गुंडागर्दी.
हुई सभ्यता
अभिनव नंगी.
यही गनीमत
पहने चिथड़े.
ओढे है
आदर्श फिरंगी.
निज माटी में
नहीं जमीन जड़,
आसमान में
पतंग उडाएं.
आओ! मिलकर
बाँटें-खायें...
*
लेना-देना
सदाचार है.
मोल-भाव
जीवनाधार है.
क्रय-विक्रय है
विश्व-संस्कृति.
लूट-लुटाये
जो-उदार है.
निज हित हित
तज नियम कायदे.
स्वार्थ-पताका
मिल फहरायें.
आओ! . मिलकर
बाँटें-खायें...
१४-१०-२००९
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