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शुक्रवार, 1 मई 2009

एक ग़ज़ल : मनु बेतखल्लुस, दिल्ली

कड़कती धूप को सुबहे-चमन लिखा होगा

फ़रेब खा के सुहाना सुखन लिखा होगा

कटे यूँ होंगे शबे-हिज़्र में पहाड़ से पल

ख़ुद को शीरी औ मुझे कोहकन लिखा होगा

लगे उतरने सितारे फलक से उसने ज़रूर

बाम को अपनी कुआरा गगन लिखा होगा

शौके-परवाज़ को किस रंग में ढाला होगा

कफ़स को तो चलो सब्ज़ा-चमन लिखा होगा

हर इक किताब के आख़िर सफे के पिछली तरफ़

मुझी को रूह, मुझी को बदन लिखा होगा

ये ख़त आख़िर का मुझे उसने अपनी गुरबत को

सुनहरी कब्र में करके दफ़न लिखा होगा
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