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रविवार, 22 मार्च 2009

ग़ज़ल

अक्स लखनवी

जिसकी आँखों में अक्स उतरा नहीं।
बस वही सामने मेरे चेहरा नहीं।

मेरे बारे में इतना भी सोचा नहीं।
वक्ते-रुखसत पलटकर भी देखा नहीं।

जब से देखी हैं रानाइयाँ आपकी।
दिल मेरे पास पल भर भी ठहरा नहीं।

दाग दिखाते न हों ये अलग बात है।
आज दामन किसी का भी उजला नहीं।

वुसअते आरजू पूछिए मत अभी।
आसमां भी कभी इतना फैला नहीं।

खिल्वतों में तो तुम मिलते हो रात-दिन।
जल्वतों में मगर कोई जलवा नहीं।

कौन दरिया की मानिंद देगा पनाह?
दर कोई मछलियों के लिए वा नहीं।

दूसरों के घरों में न झाँका करो।
जब निगाहों में ऐ अक्स! पर्दा नहीं.

- अक्स = प्रतिबिम्ब, वक्ते-रुखसत = बिदाई का समय, रानाइयाँ = सुन्दरता, वुसअते आरजू = इच्छाओं का विस्तार, खिल्वतों = एकांत, जल्वतों = खुले-आम, वा = खुला हुआ.
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