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बुधवार, 23 जुलाई 2014

parasaeenama


परसाईनामा :

हरिशंकर परसाई अपनी मिसाल आप, न भूतो न भविष्यति  …

ताली पीटना 

महावीर और बुद्ध ऐसे संत हुए, जिन्होने कहा - ''सोचो। शंका करो। प्रश्न करो। तब सत्य को पहचानो। जरूरी नहीं कि वही शाश्वत सत्य है, जो कभी किसीने लिख दिया था।''

ये संत वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न थे और जब तक इन संतोंके विचारों का प्रभाव रहा तब तक विज्ञान की उन्नति भारतमें हुई। भौतिक और रासायनिक विज्ञान की शोध हुई। चिकित्सा विज्ञान की शोध हुई। नागार्जुन हुए, बाणभट्ट हुए। 

इसके बाद लगभग डेढ़ शताब्दी में भारतके बड़े से बड़े दिमागने यही काम किया कि सोचते रहे - ईश्वर एक हैं या दो हैं, या अनेक हैं। हैं तो सूक्ष्म हैं या स्थूल। आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है। इसके साथ ही केवल काव्य रचना। विज्ञान नदारद। 

गल्ला कम तौलेंगे, मगर द्वैतवाद, अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, मुक्ति और पुनर्जन्म के बारे में बड़े परेशान रहेंगे। कपड़ा कम नापेंगे, दाम ज्यादा लेंगे, पर पंच आभूषण के बारे में बड़े जाग्रत रहेंगे।

झूठे आध्यात्म ने इस देश को दुनिया में तारीफ दिलवाई, पर मनुष्य को मारा और हर डाला..


***

गुरुवार, 17 जुलाई 2014

parsaeenama :


परसाईनामा :
हरिशंकर परसाई अपनी मिसाल आप, न भूतो न भविष्यति  …

बेचारा भला आदमी

मैं देखता हूँ कि हर इस तरह का प्रशंसक 'भला' के पहले 'बेचारा' ज़रूर लगता है - "बेचारा भला आदमी है" । यह अकारण नहीं है । हमारी पूरी विचार-प्रक्रिया इन दो शब्दों के साथ चलने में झलकती है । हम 'भला' उसी को कहेंगे जो 'बेचारा' हो । जब तक हम किसी को 'बेचारा' ना बना दें, तब तक उसे भला नहीं कहेंगे । क्यों ? इसके दो कारण हैं - पहला तो यह कि जो बेचारा नहीं है, वह हमें अपने लिए 'चैलेंज' लगता है । उसे हम भला क्यूँ कहें ? दूसरा कारण यह है कि जो बेचारा है उसे हम दबा सकते हैं, लूट सकते हैं - उसका शोषण कर सकते हैं ।
जो हर काम के लिए चंदा दे देता है, वह बेचारा भला आदमी है । जो रिक्शा वाला कम पैसे ले लेता है, वह बेचारा भला आदमी है । जो लेखक बिना पैसे लिये, अखबार के लिए लिख देता है, उसे सम्पादक बेचारा भला आदमी कहते हैं । टिकट कलेक्टर बेचारा भला आदमी है, क्यूंकि वह बिना टिकट निकल जाने देता है । अपनी व्यवस्था ने बहुत सोच समझकर यह मुहावरा तैयार किया है ।

XXXXXX

मुझे इस 'बेचारा भला आदमी' से डर लगता है । अगर देखता हूँ कि मेरे बगल में ऐसा आदमी बैठा है, जो मुझे 'बेचारा भला आदमी' कहता है, तो मैं जेब संभाल लेता हूँ । क्या पता वह जेब काट ले !

बुधवार, 20 फ़रवरी 2013

लघुकथा: बड़ा संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
बड़ा
संजीव 'सलिल'
*
बरसों की नौकरी के बाद पदोन्नति मिली.

अधिकारी की कुर्सी पर बैठक मैं खुद को सहकर्मियों से ऊँचा मानकर डांट-डपटकर ठीक से काम करने की नसीहत दे घर आया. देखा नन्ही बिटिया कुर्सी पर खड़ी होकर ताली बजाकर कह रही है 'देखो, मैं सबसे अधिक बड़ी हो गयी.'

जमीन पर बैठे सभी बड़े उसे देख हँस रहे हैं. मुझे कार्यालय में सहकर्मियों के चेहरों की मुस्कराहट याद आई और तना हुआ सिर झुक गया.

*****

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

सामयिक लघुकथा: ढपोरशंख संजीव 'सलिल'

सामयिक लघुकथा: 
ढपोरशंख
                                                                    संजीव 'सलिल'
                                                                               *
               कल राहुल के पिता उसके जन्म के बाद घर छोड़कर सन्यासी हो गए थे, बहुत तप किया और बुद्ध बने. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर इतिहास में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               आज राहुल के किशोर होते ही उसके पिता आतंकवादियों द्वारा मारे गए. राहुल की माँ ने उसे बहुत अरमानों से पाला-पोसा बड़ा किया पर देश के निर्माण में कहीं राहुल का कोई योगदान नहीं दीखता.

               सबक : ढपोरशंख किसी भी युग में हो ढपोरशंख ही रहता है.

मंगलवार, 9 अक्टूबर 2012

कृति चर्चा: आम आदमी के दर्द के आलेख : सुमित्र के व्यंग्य लेख चर्चाकार: संजीव 'सलिल'


कृति चर्चा:

चर्चाकार: संजीव 'सलिल'

 
      

आम आदमी के  दर्द के आलेख : सुमित्र के व्यंग्य लेख
*
व्यंग्य लेखन साहित्य की वह विधा है जो कालखंड विशेष की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, पारिवारिक तथा वैयक्तिक विडम्बनाओं, विसंगतियों, अंतर्द्वंदों व आडम्बरों के त्रासद-हास्यद पक्षों को उद्घाटित कर दोगलेपन तथा पाखंड पर सीधा, तीखा किन्तु विनोदपूर्ण प्रहार करती है. व्यंग्य कभी व्यष्टि, कभी समष्टि, के माध्यम से परिस्थितियों, प्रणालियों, व्यवस्थाओं आदि पर शब्द-प्रहार कर भ्रष्टाचार, घृणा, शोषण, द्वेष, लोलुपता, स्वार्थपरता, कठमुल्लापन आदि को सामने लाता है किन्तु धर्मोपदेशक की तरह तजने का आग्रह  नहीं करता. व्यंग्य-लेखन का उद्देश्य पाठक के मन में गलत के प्रति वितृष्णा पैदा करना होता है, अंतर्मन में विरोध का भाव उत्पन्न करना होता है.

संस्कारधानी जबलपुर व्यंग्य को 'स्पिरिट' कहनेवाले किन्तु अपने प्रचुर और प्रभावी लेखन से हिंदी साहित्य में स्वतंत्र विधा का स्थान दिलानेवाले स्वनामधन्य व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई की कर्मस्थली है. तुलसी के पौधे से भूमि पर गिरी मंजरियों से अनेक अंकुर प्रस्फुटित-पल्लवित होना स्वाभाविक है. परसाई की व्यंग्य लेखन मंजरी से संस्कारधानी में अंकुरित व्यंग्यकारों में सुमित्र चर्चित रहे हैं. परसाई जी के सान्निन्ध्य में समाज को सजग द्रिध्ती से निरखने-परखने का संस्कार पाकर विदूपताओं और विसंगतियों से व्यथित होने वाला तरुण पत्रकार सुमित्र उन्हें ललकारकर पटकनी देनेवाले व्यंग्यकार सुमित्र में कब-कैसे परिवर्तित हो गया संभवतः उसे भी पता नहीं चला. तभी तो दैनिक अख़बार के स्तम्भ के सीमित कलेवर में वह आम आदमी की व्यथा-कथा कहने का साहस जुटाकर कम शब्दों में गहरी बात कह सका.

इस संकलन के व्यंग्य लेखों में व्यापक अनुभव क्षेत्र की खोज, सामाजिक समस्याओं के विश्लेषण की प्रवृत्ति, दूर दृष्टि संपन्न सकारात्मक परिवर्तन की दिशा अन्तर्निहित है. सुमित्र जी के व्यंग्य तिलमिलाते नहीं सहलाते हैं. प्रसाद गुण संपन्न सांकेतिक अर्थ व्यंजना सामाजिक परिवर्तन की प्रेरक बनकर पाठकों को आत्मावलोकन ही नहीं आत्मालोचन के लिये भी प्रेरित करती है. बँट रहा है भारत रत्न, महान जी, आप कतार में हैं, निंदक नियरे राखिए, नंगा और नंगपन, सूत न कपास, नमामि देवी चापलूसी-चुगलखोरी, बजट की वंशी, अथ मुगालता कथा, पढ़ो, बढ़ो और गिर पड़ो, आदि ३० व्यन्ग्य७अ लेख सुमित्र जी के सामाजिक सरोकारों. सरोकारों के प्रति संवेदनशील सजग दृष्टि तथा दृष्टिजनित सरोकारों का ऐसा वर्तुल निर्मित करते हैं जिसके केंद्र में आम आदमी की विवशता तथा जिजीविषा दोनों की सहभागिता संभव हो पाती है.

सुमित्र जी कि सहज चुटीली भाषा पाठक के मन को स्पर्श करती है- ' अब तो दुनिया ही बदल गई, पहले जैसे सरोवर अब कहाँ? पनिहारिनों का पनघट पर लगा वह स्वर्गीय मेला. सब स्वर्गीय हो गया. अब क्या है? केंचुए से नल देखो, नल की धार देखो और झोंटा छितराती नायिकाएं देखो. श्रृंगार का तो फट्टा ही साफ़ समझो. तुम कहोगे हम रो रहे हैं. क्यों न रोएँ? तुम्हारे समय में चार महीनों का ताप काफी गुल खिलाता था. काफी ऊर्जा दे जाता था. चंदन की काफी खपत हो जाती थी और चार माह के बाद में जब मेघराजाअपनी प्रेम-फुहार से धरती को सिंचित करते थे तो 'परिरंभ कुंभ' की मदिरा की छटा छिटक जाती थी. इधर तो साल भर से मेघों का गुरिल्लावार चालू है. पानी थामा ही नहीं, गया ही नहीं, और आज आषाढ़स्य प्रथम दिवसे. न धरती सूनी है, न उसके सिंचन से सौंधी गंध उठ रही है. अब आगे क्या होगा? संयोग-वियोग श्रृंगार की सभी संभावनाएं धूमिल हैं.''

प्रसिद्ध लेखिका एम. डब्ल्यू. मोंतेंग्यू के अनुसार: 'व्यंग्य एक तेज़ धार चाकू के समान है जो इस प्रकार घाव करता है कि स्पर्श तक का आभास भी  नहीं हो.' डॉ. सुमित्र की संवेदनशील परिपक्व सोच और भाषिक सामर्थ्य चाकू कवर को गुलाब के रेशमी स्पर्श में बदल देता है.
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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

लघुकथा: मरम्मत -संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
मरम्मत



संजीव 'सलिल'
*
- 'सर! मेरी बिटिया का विवाह तय हो गया है, कृपया, मेरी कोठरी में कुछ मरम्मत और पुताई करा दीजिये, बहुत मेहरबानी होगी.' चपरासी ने कार्यपालन यंत्री से प्रार्थना की.
= 'अभी पुताई कैसे कराई जा सकती है? इसके लिये कोई फण्ड नहीं है.' टका सा उत्तर पाकर चपरासी निराश हो लौट गया.
थोड़ी देर बाद उपयंत्री ने कक्ष में प्रवेश कर कार्यपालन यंत्री से कहा:' सर! अपने बुलाया था?'
= हाँ, कलेक्टर बंगले से फोन था... उनके बंगले में मरम्मत करा दो... कुछ पुतायी भी...'
-'सर! अभी एक माह पहले ही तो सब काम कराया है... साहब ने जो टाइल, डिस्टेम्पर और पेंट पसंद किया वही लगाया... अब में साहब कहती हैं पसंद नहीं है, बदल दो. क्या करूँ कम से कम ढाई-तीन लाख़ का काम है.'
= ' तो होने दो... करना तो पड़ेगा ही... कलेक्टर को कौन नाराज करेगा?'
- ठीक है सर! पर बजट?...'
= करा दो चपरासियों के क्वार्टरों की जगह यह करा दो... उसे अगले साल...'
यस सर! कह कर चला गया उपयंत्री.
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Acharya Sanjiv verma 'Salil'

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शनिवार, 12 मई 2012

लघुकथा: एकलव्य --संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
एकलव्य

संजीव 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
-सलिल.संजीव@जीमेल.कॉम / दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.इन

शनिवार, 14 अप्रैल 2012

लघुकथा: जंगल में जनतंत्र - संजीव 'सलिल'

लघुकथा:
जंगल में जनतंत्र -
संजीव 'सलिल'

जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे।

- ' जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर कदम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।' '

-''मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके कागज़ घर पर दे आया हूँ।'' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया।

मंत्री जी खुश हुए। तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धांसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफाफा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।

 विभिन्न महकमों के अफसरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफाफों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद। '


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Acharya Sanjiv verma 'Salil'
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बुधवार, 24 नवंबर 2010

लघुकथा: अस्तित्व --- रवीन्द्र खरे 'अकेला'

लघुकथा:

अस्तित्व

रवीन्द्र खरे 'अकेला'
*
शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।

तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?

अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी रहती है और रामू काका कितने प्यार से मेरी परवरिश करते हैं और तेरे ऊपर रखकर ही वे किसानों, मजदूरों के लिये खुरपी, कुंदाली में धार बनाते हैं, ठोक-ठोक कर-निहारी (कुप्पे) से हथौड़े ने पूछा।

‘‘भला तुमने कभी सोचा है यदि मैं ही नहीं रहूँ तो तुम्हारा भला लुहार काका के घर में क्या काम? पड़ी रहेगी किसी अनजान-वीराने में, उल्टे कोई राह चलते तुझसे टकराकर गिर ही जायेगा तो बगैर गाली दिये आगे बढ़ेगा नहीं...’’

निहारी को अपनी भलू का अहसास हो गया था, उसने तुरन्त अपनी गलती स्वीकारते हुये कहा-""हां हथौड़े भइया! तुम ठीक ही कह रहे हो श्रम का फल मीठा होता है। भला लुहार काका और हथौड़े भइया तुम्हारे बिना मेरा क्या अस्तित्व?""
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बुधवार, 10 नवंबर 2010

लघुकथा : दीपावली ---संजीव 'सलिल'

दीपावली                                                                                                                                                                                                             
संजीव 'सलिल' 
सवेरे अखबार आये... हिन्दी के, अंग्रेजी के, राष्ट्रीय, स्थानीय.... 
सभी में एक खबर प्रमुखता से.... ''अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा ने महात्मा की समाधि पर बहुत मँहगी माला चढ़ायी.''  मैं
ने कुछ पुराने अख़बार पलटाये.... पढ़ीं अलग-अलग समय पर छपी खबरें: '
'राष्ट्रपति स्वर्णमंदिर में गये..., 
गृहमंत्री ने नमाज़ अदा की..., 
लोकसभाध्यक्ष गिरिजाघर गये..., 
राज्यपाल बौद्ध मठ में..., 
विधान सभाध्यक्ष ने जैन संत से आशीष लिया...,  
पुस्तकालय जाकर बहुत से अखबार पलटाये... 
खोजता रहा... थक गया पर नहीं मिली वह खबर जिसे पढ़ने के लिये मेरे प्राण तरस रहे थे.... 
खबर कुछ ऐसी... कोई जनप्रतिनिधि या अधिकारी या साहित्यकार या संत भारतमाता के मंदिर में जलाने गया एक दीप.... हार कर खोज बंद कर दी.... 
अचानक फीकी लगाने लगी थी दीपावली....  
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बुधवार, 1 सितंबर 2010

लघुकथा: मोहनभोग संजीव वर्मा 'सलिल'

लघुकथा: मोहनभोग ---संजीव वर्मा 'सलिल'


*















*
'हे प्रभु! क्षमा करना, आज मैं आपके लिये भोग नहीं ला पाया. मजबूरी में खाली हाथों पूजा करना पड़ रही है.' किसी भक्त का कातर स्वर सुनकर मैंने पीछे मुड़कर देखा.

अरे! ये तो वही सज्जन हैं जिन्होंने सवेरे मेरे साथ ही मिष्ठान्न भंडार से भोग के लिये मिठाई ली थी फिर...? मुझसे न रहा गया, पूछ बैठा: ''भाई जी! आज सवेरे हमने साथ-साथ ही भगवान के भोग के लिये मिष्ठान्न लिया था न? फिर आप खाली हाथ कैसे? वह मिठाई क्या हुई?''

'क्या बताऊँ?, आपके बाद मिष्ठान्न के पैसे देकर मंदिर की ओर आ ही रहा था कि देखा किरणे की एक दूकान में भीड़ लगी है और लोग एक छोटे से बच्चे को बुरी तरह मार रहे हैं. मैंने रुककर कारण पूछा तो पता चला कि वह एक डबलरोटी चुराकर भाग रहा था. लोगों को रोककर बच्चे को चुप किया और प्यार से पूछा तो उसने कहा कि उसने सच ही डबलरोटी बिना पैसे दिये ले ली थी. . रुपये-पैसों को उसने हाथ नहीं लगाया क्योंकि वह चोर नहीं है...मजबूरी में डबल रोटी इसलिए लेना पड़ा कि मजदूर पिता तीन दिन से बुखार के कारण काम पर नहीं जा सके...घर में अनाज का एक दाना भी नहीं बचा... आज माँ बीमार पिता और छोटी बहन को घर में छोड़कर काम पर गयी कि शाम को खाने के लिये कुछ ला सके....छोटी बहिन रो-रोकर जान दिये दे रही थी... सबसे मदद की गुहार की.. किसी ने कोई सहायता नहीं की तो मजबूरी में डबलरोटी...'  और वह फिर रोने लगा...

'मैं सारी स्थिति समझ गया... एक निर्धन असहाय भूख के मारे की मदद न कर सकनेवाले ईमानदारी के ठेकेदार बनकर दंड दे रहे थे. मैंने दुकानदार को पैसे देकर बच्चे को डबलरोटी खरीदवाई और वह मिठाई का डिब्बा भी उसे ही देकर घर भेज दिया. मंदिर बंद होने का समय होने के कारण दुबारा भोग के लिये मिष्ठान्न नहीं ले सका और आप-धापी में सीधे मंदिर आ गया, इस कारण मोहन को भोग नहीं लगा पा रहा.'

''नहीं मेरे भाई!, हम सब तो मोहन की पाषाण प्रतिमा को ही पूजते रह गए... वास्तव में मोहन के जीवंत विग्रह को तो आपने ही भोग लगाया है.'' मेरे मुँह से निकला...प्रभु की मूर्ति पर दृष्टि पडी तो देखा वे मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं.

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दिव्यनर्मदा.ब्लागस्पाट.कॉम

रविवार, 25 जुलाई 2010

दो लघुकथाएं: १. गाँधी और गाँधीवाद २. निपूती भली थी आचार्य संजीव ‘सलिल’

आचार्य संजीव ‘सलिल’ की दो लघुकथाएं



१. गाँधी और गाँधीवाद
* बापू आम आदमी के प्रतिनिधि थे. जब तक हर भारतीय को कपड़ा न मिले, तब तक कपड़े न पहनने का संकल्प उनकी महानता का जीवत उदाहरण है. वे हमारे प्रेरणास्रोत हैं’ -नेताजी भाषण फटकारकर मंच से उतरकर अपनी मंहगी आयातित कार में बैठने लगे तो पत्रकारों ने उनसे कथनी-करनी में अन्तर का कारण पूछा.

नेताजी बोले– ‘बापू पराधीन भारत के नेता थे. उनका अधनंगापन पराये शासन में देश की दुर्दशा दर्शाता था, हम स्वतंत्र भारत के नेता हैं. अपने देश के जीवनस्तर की समृद्धि तथा सरकार की सफलता दिखाने के लिए हमें यह ऐश्वर्य भरा जीवन जीना होता है. हमारी कोशिश तो यह है की हर जनप्रतिनिधि को अधिक से अधिक सुविधाएं दी जायें.’

‘ चाहे जन प्रतिनिधियों की सुविधाएं जुटाने में देश के जनगण क दीवाला निकल जाए. अभावों की आग में देश का जन सामान्य जलाता रहे मगर नेता नीरो की तरह बांसुरी बजाते ही रहेंगे- वह भी गाँधी जैसे आदर्श नेता की आड़ में.’ – एक युवा पत्रकार बोल पड़ा.

अगले दिन से उसे सरकारी विज्ञापन मिलना बंद हो गया.

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२. निपूती भली थी 
 *
बापू के निर्वाण दिवस पर देश के नेताओं, चमचों एवं अधिकारियों ने उनके आदर्शों का अनुकरण करने की शपथ ली. अख़बारों और दूरदर्शनी चैनलों ने इसे प्रमुखता से प्रचारित किया.

अगले दिन एक तिहाई अर्थात नेताओं और चमचों ने अपनी आंखों पर हाथ रख कर कर्तव्य की इति श्री कर ली. उसके बाद दूसरे तिहाई अर्थात अधिकारियों ने कानों पर हाथ रख लिए, तीसरे दिन शेष तिहाई अर्थात पत्रकारों ने मुंह पर हाथ रखे तो भारत माता प्रसन्न हुई कि देर से ही सही इन्हे सदबुद्धि तो आयी.

उत्सुकतावश भारत माता ने नेताओं के नयनों पर से हाथ हटाया तो देखा वे आँखें मूंदे जनगण के दुःख-दर्दों से दूर सत्ता और सम्पत्ति जुटाने में लीन थे.

दुखी होकर भारत माता ने दूसरे बेटे अर्थात अधिकारियों के कानों पर रखे हाथों को हटाया तो देखा वे आम आदमी की पीड़ाओं की अनसुनी कर पद के मद में मनमानी कर रहे थे. नाराज भारत माता ने तीसरे पुत्र अर्थात पत्रकारों के मुंह पर रखे हाथ हटाये तो देखा नेताओं और अधिकारियों से मिले विज्ञापनों से उसका मुंह बंद था और वह दोनों की मिथ्या महिमा गा कर ख़ुद को धन्य मान रहा था.

अपनी सामान्य संतानों के प्रति तीनों की लापरवाही से क्षुब्ध भारत माता के मुँह से निकला- ‘ऐसे पूतों से तो मैं निपूती ही भली थी.

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गुरुवार, 27 मई 2010

व्यंग: जाति पूछो साधु की ..... विवेक रंजन श्रीवास्तव

व्यंग

जाति पूछो साधु की .....

विवेक रंजन श्रीवास्तव




कबीर का दोहा जाति न पूछो साधु की , पूंच लीजिये ज्ञान अब पुराना हुआ . जमाना ज्ञान की पूंछ परख का नही है . जमाना नेता जी की पूंछ का है . नेताजी की पूंछ वोट की संख्या से होती है . वोट के बंडल बनते हैं जाति से . इसलिये साधु की जाति जानना बहुत जरूरी है . जब एक से चार चेहरो में से वोटर जी को कुछ भी अलग , कुछ भी बेहतर नही दिखता तो वह उम्मीदवार की जाति देखता है , और अपनी जाति के कैंडीडेत को यह सोचकर वोट दे देता है कि कम से कम एक कामन फैक्टर तो है उसके और उसके नेता जी के बीच , जो आड़े समय में उसके काम आ सकता है . और काम नही भी आया तो कम से कम जाति का ही भला होगा . तो इस सब के चलते ही हर राजनैतिक दल पहले हिसाब लजाता है कि किस क्षेत्र में किस जाति के कितने वोटर हैं , फिर उस गणित के ही आधार पर कैंडीडेट का चयन होता है . इसका कोई विरोध नही है , मीडिया भी मजे से इस सबकी खबरें छापता है , चुनाव आयोग भी कभी नही पूछता कि अमुक क्षेत्र से सारे उम्मीदवार यादव ही क्यों हैं ? या हाथी पर सवार पार्टी भी क्यो फलां क्षेत्र से लाला या पंडित उम्मीदवार ही खड़ा करती है .

कथित रूप से पिछड़ी जाति के होने का लेबल लगाकर , आरक्षण की सीढ़ीयां चढ़कर कुछ लोग एअरकंडीशन्ड चैम्बर्स में जा बैठे हैं . ये अपनी जाति की आरक्षित सुख सुविढ़ाओ की वृद्धि के लिये सतत सक्रिय रहते हैं . हर विभाग , हर पार्टी , में इन्होंने अपनी जाति के नाम पर प्रकोष्ठ बना रखे हैं , और स्वयं अपनी कार पर नम्बर प्लेट के उपर जातिगत लालपट्टी लगाकर कानूनी आतंक का सहारा लेकर अपनी नेतागिरी चमका रहे हैं . जिन जातियों को आरक्षण सुख नसीब नही है वे लामबंद होकर अपने वोटो की संख्या का हवाला देकर आंदोलन कर रहे हैं और जातिगत आरक्षण की मांग कर रहे है . इन सब पर कोई प्रतिबंध नही है . क्योंकि जाति मे वोटो की गड्डिया छिपी हुई हैं .

एक समय था जब कुछ लोगो ने देश प्रेम के बुखार में अपने जनेऊ उतार फेंके थे . कुछ ने अपने सरनेम हिंदुस्तानी , भारतीय , आदमी , मानव , देशप्रेमी वगैरह लिखने शुरू कर दिये थे . पर ऐसे लोगो से स्कूल में प्रवेश के समय , नौकरी के आवेदन में , पासपोर्ट बनवाते समय , पुलिस जाँच में , न्यायालयो में हर कही सरकारी नुमाइन्दगे उनकी जाति भरवाकर ही मानते हैं . ५स जाति की पूंछतांछ पर किसी को कोई आपत्ति नही है . आदमी है तो जाति है , जाति नही तो हाय तौबा है , पर जाति है तो मीडिया चुप , सरकार चुप , जाति संप्रदाय के लोग खुश . नाखुशी तो तब होती है जब फतवे की अवमानना की हिम्मत कोई करता है . मौत की धमकियां तक मिलती हैं ऐसे नामुरीद इंसान को . प्यार के चक्कर में जाति बिरादरी से बाहर शादी करने वालो को समाज दिल भरकर कोसता है . तनखैया घोषित कर देता है उसे जो जाति के नियमो की अवहेलना की चेष्टा भी करता है , फिर वह चाहे राष्ट्रपति भी क्यों न हो . जात मिलाई तभी होती है जब दारू वारू , भात वात से प्रायश्चित होता है .

मतलब जाति गोत्र संप्रदाय समाज का जरूरी हिस्सा है . फिर सरकारी जनगणना में भी यदि आंकड़ो की सक्ल में यह जाति दर्ज हो जाये तो इतनी हाय तौबा क्यो ? लोकतांत्रिक सिद्धांतो को लेकर मीडिया और कथित बुद्धिजीवी बेवजह परेशान हैं , बहस की कोई जरूरत नही है , ाब साधु की जाति जानना जरूरी है , क्योकि उसी में छिपा है मैनेजमेंट कि किस जगह किस साधु के प्रवचन से कितने वोट अपने हो सकते हैं ? किस साधु के प्रभाव में कतने वोट हैं ? जो भी हो मेरी जाति तो व्यंगकार की है , परसाई की है शरद जोशी की है .मैं तो लिखूंगा ही , पढ़ना हो तो पढ़ना , समझना .वरना हम भले हमारी कलम भली .
*************

सोमवार, 3 मई 2010

लघु कथा: जंगल में जनतंत्र - आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"

Kaifi
जंगल में चुनाव होनेवाले थे। मंत्री कौए जी एक जंगी आमसभा में सरकारी अमले द्वारा जुटाई गयी भीड़ के आगे भाषण दे रहे थे- 'जंगल में मंगल के लिए आपस का दंगल बंद कर एक साथ मिलकर उन्नति की रह पर क़दम रखिये। सिर्फ़ अपना नहीं सबका भला सोचिये।'

मंत्री जी! लाइसेंस दिलाने के लिए धन्यवाद। आपके काग़ज़ घर पर दे आया हूँ। ' भाषण के बाद चतुर सियार ने बताया। मंत्री जी ख़ुश हुए।
तभी उल्लू ने आकर कहा- 'अब तो बहुत धाँसू बोलने लगे हैं। हाऊसिंग सोसायटी वाले मामले को दबाने के लिए रखी' और एक लिफ़ाफ़ा उन्हें सबकी नज़र बचाकर दे दिया।
विभिन्न महकमों के अफ़सरों उस अपना-अपना हिस्सा मंत्री जी के निजी सचिव गीध को देते हुए कामों की जानकारी मंत्री जी को दी।
समाजवादी विचार धारा के मंत्री जी मिले उपहारों और लिफ़ाफ़ों को देखते हुए सोच रहे थे - 'जंगल में जनतंत्र जिंदाबाद।'

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